जय केशव 19

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

उधर अमीर अपनी दाढ़ी नोंच रहा था −"अय खुदा क्या पिछले दो सालों में हिन्दुस्तान इतना बदल गया है ? अय दुनियाँ के मालिक मुझे इतनी ताकत दे कि मथुरा में काफिरों से शिकस्त न ख़ाली पड़े।" वह सोच रह था और देख रहा था कि हुक्म के बाद भी फौज आगे नहीं बढ़ रही तो मसऊद बीच में ही बोल पड़ा−"आलमपनाह वे लोग वतन लौटना चाहते हैं। लड़ने के लिये मना करते हैं।"

 "क्या कहा ? क्या यह इस्लाम की आवाज है ? मेरे बहादुर दोस्तों ज़िन्दगी और मौत तो ऊपर वाले के हाथ हैं। हम अपना वतन बहुत पीछे छोड़ आए हैं। अगर लोग हमें लौटते देखेंगे तो हम पर हँसेंगे, हमें कायर समझ हम पर हमला करेंगे। अय बहादुरों, तुम्हें खुदा का वास्ता, आगे बढ़ा। मथुरा में तो हीरों, जवाहरातों के खजाने भरे पड़े हैं। तुम इन घने जंगलों को देखकर कमज़ोरन बनो। शेर जंगलों में अपना शिकार करते हैं। आओ मेरे साथ....आगे बढ़ो।" इतना कह महमूद आगे बढ़ दिया। फौज ने भी "अल्लाह हो अकबर" का नारा दिया और आगे बढ़ने लगी।
        महमूद गजनी भी सामने सघन वनों को देख अन्दर ही अन्दर घबरा रहा था परन्तु उसके लिये और कोई चारा न था। वनों में प्रवेश करते ही राजा कुलचन्द्र की सेना के योद्धा चारों ओर से उसे घेरने लेगें। वह अपनी सेना का डेरा लगाने के लिए उचित स्थान को तलाश करता जा रहा था और आगे बढ़ रहा था। रात्रि यूँ ही कटी लेकिन विद्याधर ने जब यह देख लिया कि दिन निकलने वाला है और यवन अपने डेरों के काफ़ी आगे निकल चुका है तो "हर−हर महादेव" की जय−घोष के साथ ही उसने यवन के डेरों पर हमला कर दिया।
        यह देख महमूद झुँझला उठा। इधर वनों में छिपी गजवाहिनी से तीर वर्षा होने लगी। ब्रजवासी अपने प्राणों पर खेल रहे थे। ना उनके सामने जीवन का मोह था ना ही मृत्यु का भय। गाँवों से नारी और पुरूष अपने बच्चों सहित नन्द दुर्ग में पहुँच चुके थे। पशुओं को खुला छोड़ दिया गया था। मथुरा होकर आदमियों के पलायन का ताँता लगा हुआ था। इनमें अधिकाँशत: (मारवाड़ी) व्यापारी और बच्चों के साथ उनकी मातायें थी। लोग राजपूताने की ओर जा रहे थे।
        गजवाहिनी सेना के प्रहारों को रोकने का कोई प्रयास सम्भव न हुआ तो उसने योगिनी (योरनी)और लोहवन के मध्य के मार्ग को चुना। यवन सेना ने दोनों गाँवों में आग लगवा दी। कटी हुई फसलों को नष्ट कर दिया और मैदानी रास्ता पार कर उसने वनों में आग लगवा दी। गजवाहिनी सेना तितर−वितर होने लगी तो सोम ने अश्व सँभाला और वह सेना−नायक को निर्देश देकर आगे निकल गया। अपनी सेना को व्यवस्थित कर महमूद घोड़े पर सवार हो किले से एक तीर की दूरी पर पहुँच गया। उसके पीछे−पीछे अलबरूनी, अलउत्वी, गुलामअब्बास, अरसलां जजीव भी थे। आकाश पर फहराते भगवा ध्वज को देख वह आश्चर्य चकित रह गया। कभी वह नन्द दुर्ग की ऊँचाई देखता तो कभी प्राचीरों से चमकते कलात्मक भवनों की ओर। उसे इस तरह देख अलबरूनी आगे बढ़ कर बोला −"आलम पनाह ,हुक्म फरमायें।"
        "मीर मुंशी ये बेमिसाल इमारतें। इनकी खूबसूरती। दुनियाँ की सारी दौलत खर्च करके भी नहीं बनाई जा सकती। इनकी तवारीख लिखी जा सके मेरे पास ऐसे अलफाज नहीं हैं। यहाँ आकर मेरा दिल भी यही कहने लगा है कि मैं खुद राजा से मिलूँ और उससे महदूद की शर्त मानने के लिए कहूँ। महमूद कुछ और कहता कि तब तक महदूद अपना घोड़ा आगे लाते हुए बोला− "आलम पनाह, क्या यह सब इस्लाम से भी अच्छा है।" "नहीं।" कहते हुये महमूद ने गर्दन घुमाई तो महदूद बोला−"तब अलीजाह हुक्कम दें। इतना कह वह पीछे हटा ही था कि अमीर ने कमान उठाकर तीर से किले पर फहराते हुए झण्डे को निशाना बनाया। ओर कानों तक कमान खींच−कर तीर छोड़ा।
        अमीर का तीर दूसरी मँजिल तक ही रह गया। दुर्ग पर खड़े ब्रज वे वीर हँस पड़े। महारानी इन्दुमती तत्काल बाण निकाल कर राणा कुलचन्द्र को देते हुए बोली−"श्री महाराज इस नीच को दिखा दीजिए कि राणा कतीरा की बांहो में कितनी ताकत है।"
        राजा कुलचन्द्र ने सोलह टँक के चार बाण लिये और पलक झपकते ही एक के बाद एक बाद छोड़ दिये। यवनों के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा जब उन्होंने अमीर को घोड़े से उछलते और जमीन पर गिरते देखा। तुरन्त दूसरे घोड़े का प्रबँध किया गया। पहिले घोड़े के चारों सुम फूट चुके थे। अमीर के गिरते ही−राणा कतीरा की जय हो, भगवान केशव की जय हो के गगन भेदी नारों से वायुमण्डल गूँज उठा। यवन ने घोड़े पर बैठते ही लड़ाई का हुक्म दिया और यवनों की ओर से तीर बरसाये जाने लगे। दुर्ग की उत्तरी प्राचीरों से तीक्ष्ण बाण वर्षा के कारण अमीर की गति पुन: थम गई तो उसने पुन: सरदारों से कुछ कहा और स्वयं पीछे जाकर युद्ध का संचालन करने लगा। उसने महदूद को किले का दरवाजा तोड़ने का हुक्म दिया वह जैसे ही आगे बढ़ा कि कुलचन्द्र इन्दुमती से बोले−"महारानी यही महदूद है।"
        "और श्री महाराज की आज्ञा की प्रतीक्षा में मैं।"
        "आज्ञा और तुम्हें ? उठो क्षत्राणी इस लुटेरे को बता दो कि राधा−कृष्ण की लीला भूमि को अपवित्र करने का परिणाम क्या होता है। "कुलचन्द्र के कहते ही इन्दुमती ने ज्यों ही निशना साधकर बाण छोड़ा महमूद ने तुरन्त स्वयम् को झुका लिया लेकिन फिर भी उसकी पगड़ी सहित बाण पीछे वाले सैनिक की गर्दन में घुस लिया। कुलचन्द्र का वक्ष गर्व से फूल गया−"धन्य हो महारानी।"
        महदूद खाई पर पुल बाँधना चाहता था लेकिन जब सफलता न मिली तो उसने सैनिकों को खाई में कूदने का हुकम दिया। ऊपर से वीरों द्वारा पत्थर और गर्म खोलता तेल फेंका जा रहा था। अभी कुछ ही क्षण बीतें होंगे कि खाई में कूदने वाले सैनिक तड़पने लगे ओर मौत के मुँह में चलें गये। महदूद अपनी सेना से द्वार तोड़ने का बहाना कर राजा का ध्यान वहीं बाँधे रखना चाहता था तो महमूद कुछ और ही करने जा रहा था। इन्दुमती का ध्यान उस ओर गया तो वह बोली−"महाराज ऐसा लगता है जैसे यवन कोई चाल चल रहा है। उधर पार्श्व में देखिये सहस्त्रों अश्व पू्र्व दिशा में बढ़ रही हैं। कही ब्रह्माण्डघाट से आगे बढ़कर वह यमुना पर तो अधिकार करना नहीं चाहता।"
        "तुम ठीक ही कहती हो महारानी। लेकिन अपनी तरफ से आक्रमण क्यूँ नहीं हो रहा ?"
        "वे किसी कारण वश ही रूके होंगे।"
        ज्यों−ज्यों धूप चढ़ती जा रही थी युद्ध भंयकर रूप धारण करता जा रहा था। यवन सेना की अन्तिम पँक्ति बुरी तरह फंस गई थी। पश्चिम से विद्याधर आक्रमण करता हुआ उसकी पीठ पर जा चढ़ा। उसने अमीर के खेमों पर आक्रमण कर मार−काट मचा दी। लूट के हाथियों और सम्पत्ति को उसने रिषीपुर की ओर हँकवा दिया। तम्बुओं में आग लगवा दी−और फिर श्वेत चर्म के विशाल खेमें की ओर बढ़ गया। अमीर उत्तर की तरफ उठती हुई आग की लपटों और धुँए को देख अपनी सेना द्वारा किया कृत्य जान कर प्रसन्न हो रहा था। उधर सोम ओर शीलभद्र ने पूर्व और पश्चिम से आक्रमण कर दिया।
        महमूद जब तक सँभले भंयकर मार−काट मच गई। किसी का हाथ कटकर गिरता तो किसी का धड़। कोई चीत्कार करता फिरता तो कोई घोड़ों की टापों से कुचल रहा था। ब्रज बसुन्धरा का पावन आँचल रक्त से लाल हो उठा। मसऊद ने जैसे ही भाले से सोम पर प्रहार किया तो उसने तलवार के एक ही वार में भाले को काट दिया। महमूद शीलभद्र के साथ युद्धरत था। महामात्य की सेना पर यवनों का दबाव बढ़ते देख कन्नौज का सेनापति अपनी सेना लेकर भिड़ गया।
        विद्याघर के हाथों करोड़ों की सम्पत्ति के साथ−साथ एक रूपसी भी लगी। वह उसे लेकर गौसना होते हुए मथुरा की ओर चल दिया। कन्नौज की सेना भी अधिक देर तक न टिक सकी। युद्ध में कब क्या हो जाये यह कोई नहीं जानता। हजारों योद्धाओं के बलिदान के बावजूद पासा पलटने लगा। यवनों का दवाब बढ़ते देख इन्दुमती ओर कुलचन्द्र दोनों ने एक−दूसरे की ओर देखा ओर दूसरे ही क्षण वह पूर्वी बुर्ज कि ओर बढ़ी। सेनापति सोम के साथ कुछ हजार ही सैनिक प्राणों की बाजी लगाये लड़ रहे थे। इन्दुमती ने तुरन्त हंसा को सारी योजना समझा कर गुप्त मार्ग से रूप महल कि ओर निकाल दिया। हंसा दस हजार वीरांगनाओं को लेकर गुप्त मार्ग से लेकर चल दी।
इन्दुमती ने रूपाम्बरा को अपने पास बुलाया और गोविन्द को उसकी गोद में देकर बोली−"गोविन्द का संरक्षण तुम्हारे ऊपर है। तुम जितना शीघ्र हो सके यहां से निकल जाओं। दिवाकर तुम्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देगा।"
        "रानी माँ ऐसा दण्ड ना दो। जब सब कुछ भूलकर मैं श्री महाराज की हो गई तो अब जाने के लिए कह रही हैं।" रूपाम्बरा ने ये कहते हुए गोविन्द को अपने सीने से लगा लिया, तो इन्दुमती भी द्रवित होती हुई समझाने लगी−"रूपाम्बरा सब कुछ सोच समझकर ही तुम्हें यह भार सौंप रही हूँ। युद्ध का एक−एक पल कीमती होता है तुम समय नष्ट न कर शीघ्र निकल जाओ। "इतना कह कर इन्दुमती अपना अश्व दौड़ाती बाहर निकल गई। धूप ढलने लगी थी। महदूद की सेना का बुरा हाल था उसके जो सैनिक खाई में कूदे थे उनकी लाशें तैर रही थीं। जानकी उससे वहाँ से हट कर दूसरी जगह मोर्चा सँभालने का आग्रह कर रहा था। वे अभी कुछ निर्णय ले पाते कि सामने से आँधी की तरह अश्ववाहिनी सेना को आते देख उसके होश उड़ गये । उसने जब पास आते हुये हंसा को पहिचाना तो वह काँप उठा। तभी इन्दुमती ललकार उठी"बहिनों हमारे देवी−देवताओं को नष्ट करने वाला शत्रु सामने है। यही है वह जिसने हमारी जैसी लाखों नारियों के सुहाग उजाड़े हैं माताओं की गोदें सूनी की हैं। टूट पड़ो और चण्डी बनकर इनका संहार कर डालों।"

 इन्दुमती की ललकार सुनकर ब्रज की वीरांगनायें यवनों पर आक्रमण करने लगी। लेकिन जानकी शाही महमूद को लेकर भाग खड़ा हुआ। महारानी इन्दुमती की जय हो। जयघोष गुँज उठा। यवन सेना भागे कि तब तक वीरागंनाओं की तलवारों ने सहस्त्रों यवन काट डाले।
        हंसा ने जब सोम की ओर ध्यान दिया तो वह चारों तरफ शत्रु का नाश कर रहा था। यवनों ने उसे बुरी तरह घेर लिया था। इन्दुमती दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई सोम की ओर बढ़ी। चारों ओर मांस के लोथड़े ने दूर पर महामात्य शीलभद्र को देखा ओर वह अपने घोड़े को उधर मोड़ती कि महमूद की तलवार का भरपूर वार पड़ा ओर शीलभद्र का सिर कट कर जमीन पर गिर गया। हँसा को परिस्तिथियाँ समझते देर ना लगी ओर उसने तुरन्त महारानी को सूचित किया। इन्दुमती ने आक्रमण और तेज कर दिया और यवनों का घेरा तोड़ सोम को अपने घेरे में लेकर चल दी। संध्या हो चली थी। आकाश का सिन्दूरी सूर्य ब्रज की बलिदानी गाथा को अपने अँक में समेटता जा रहा है। महावन से राजगुरु को महामात्य के अमर हो जाने का समाचार मिला तो वे स्तब्ध रह गये। वे तुरन्त पकड़ी हुई यवन महिला और दिव्या को साथ ले जाकर महावन पहुँचे।
        युद्ध बन्द हो चुका था। यवनों की सेना अपने शिविरों की ओर लौट चली थी। दुर्ग के प्रांगण में अनगिनत चितायें लग रही थीं। राजगुरु के साथ−साथ अन्य पंडितों ने वेद मंत्रों से उनका क्रिया कर्म कराया। शीलभद्र के जाने का सभी को अपार दु:ख था। अग्निदाह हो जाने पर महाराज महलों में पहुँचे। उन्होंने जब राजगुरु की ओर देखा। मंत्रणा में यवन की भावी रणनीति पर विचार हुआ। सोम जिसने घावों पर दवा तक न लगाई थी मंत्रणा में भाग ले रहा था। लोगों ने यवनों की खिल्ली उड़ाते हुए अपनी जीत सुनिश्चित स्थान पर पहुँचने की बात कही तो भी राजा कुलचन्द्र सहमत न हुए। अन्त में सभी विदा होने लगे। राजा कुलचन्द्र ने चम्पा को कारागार में डाल दिया।
        सूरज डूबते ही महमूद एक ऊँचे स्थान पर जाकर बैठा। शीत लहरों से लोगों का बुरा हाल था। उसकी अधिकांश रसद या तो लूट ली गई या नष्ट हो गई थी। उसके सरदार−वजीर−मुंशी सभी खामोश बैठे थे। महमूद जानकी शाही के पास बैठा था। महमूद अलाव की रोशनी में महदूद की ओर देखने हुये बोला−"अय नासमझ महदूद हमने जिन्दगी में ऐसी जंग नहीं देखी। हमने फ़कीरों के मुँह यहाँ के किस्से सुने थे लेकिन बुतघरों में से घन्टों का शोर अभी भी आ रहा है। हमने जितने भी बुत घरों को तोड़ा है उनके लिये लोगों ने अपनी जान दे दी है। लेकिन मैं महमूद सुल्तान जो भी कहूँगा सच कहूँगा, सच के अलावा कुछ न कहूँगा। इस जंग में हमने काफिर शीलभद्र को मार गिराया है तो मसऊद भी एक पैर से लाचार हो चुका है। हमारी दौलत की जो लूट हुई है। उसकी भरपाई भी यहीं से होगी। अफसोस इस बात का है कि हमने जिन लोगों को यहाँ आकर अपने साथ लिया है उन्होंने कोई करिश्मा नहीं दिखाया।" महमूद गजनबी अपने सरदारों और वजीरों से बात कर रहा था और जानकी शाही कुछ और ही गुल खिला रहा था।
        इतिहास साक्षी है कि हमें अपने ही लोगों ने विश्वासघात कर पराजय दिखाई है। अपने ही लोगों ने निजी स्वार्थ हेतु अपनी मातृभूमि पर कलंक लगाया है। चक्रवर्ती सम्राटों का इतिहास पुराना हो गया। देश शासन के नाम पर अनेक खण्डों में विभाजित हो गया। हर किसी को अपने राज्य की चिन्ता थी परन्तु ब्रज में भगवान श्री राधा−कृष्ण की अखंण्ड कर्म ज्योति मानव समस्त की चेतना का उत्सव बनी हुई थी। क्या राजा और प्रजा सभी उन्हीं के चरणों में समर्पित थे।
        अर्ध्द रात्रि बीत रही थी। जानकी शाही दम घोटे मसऊद को साथ लिये रूप महल की ओर बढ़ रहा था। रूपमहल का सरदार सचेत था ओर उसने ज्यों ही कुछ आदमियों को अपनी ओर आते देखा तो कड़क कर बोला−"कौन है रे ?"
        "राम−राम दादा। हम लोहबनिया हैं। दूर गाँव से आये हैं।"
        "कौन लोग हो।"
        "क्षत्रिय हैं माई−बाप, एक आवश्यक सूचना थी। महाराज को देनी है।" इधर जानकी शाही सरदार को बातों में उलझाये हुए था उधर महल के मोरा से अजगर की भाँति सेना रेंग रही थी।
        दुर्ग में महारानी इन्दुमती तनिक−सी आहट पर शंकित हो कह उठती−"यवन की यह चुप्पी कहीं चाल तो नहीं" उसकी शंका के जवाब में कुलचन्द्र कुछ कहते कि उन्हें रिषीपुर की ओर आग की लपटें उठती दिखाई दीं। लपटें देख कुलचन्द्र बोले−"महारानी तुम्हारा संदेह सत्य हो रहा है, वह देखो रिषीपुर जल रहा है।"इन्दुमती देखती रह गई। वह मन ही मन में सोचने लगी−इस शिल्पियों की बस्ती को बसाने में मूर्तिकला और पाषाणी कलाकृतियों को विश्व पूजित बनाने में उसने शिल्पियों के लिये क्या नहीं किया। हजारों लाखों पाषाणी रूपाकृतियाँ कितनी विकृत हो जायेगी। इन्हीं विचारों में खोई इन्दुमती ने हंसा को बुला कर कुछ आदेश दिये ओर सोम देव के आने की प्रतीक्षा करने लगी।
        सोमदेव राजगुरु की आज्ञानुसार राजोद्यान में दिव्या से मिलने गया था परन्तु जब वह वहां नहीं मिली तो लौटने लगा लेकिन तभी सेवक ने समाचार दिया "आर्य सेनापति, वह लुटेरा किले में घुस रहा है।"सुनते ही सोम ने आक्रमण का आदेश दिया। आदेश मिलते ही नरसिंहा तुरई गूंज उठे। चारों ओर से हर−हर महादेव ओर भगवान केशव की जय हो की हुन्कारों से दुर्ग की प्राचीर काँप उठी। जानकी शाही ने सुना तो मसऊद से विदा लेकर लौट गया। सोम जिधर से भी आवाज आती उधर ही बाण मारता ओर चीख के साथ शत्रु ढ़ेर हो जाता। बाहर उत्तरी द्वार पर महदूद खाई पार करने में सफल हो गया। दुर्ग के पुर्वोत्तर में अचानक भँयकर नाद हुआ और शत्रु एक वीभत्स रूप लिये किले में घुसा। चारों ओर भगदड़ मच गई। कुलचन्द्र उधर सेना लेकर टूट पड़े तो सोम अपने हाथ में खड़ग लिये उस प्रसाद की ओर झपटा जहाँ यवन आकर छिपा था। घरों में लगी आग के प्रकाश में विजयपाल ने मसऊद को पहिचान लिया। उसे यह समझते देर न लगी कि यवन पूर्वी द्वार खोलना चाहता है। उसने तुरन्त अपना अश्व दौड़ाया और मार काट मचाता हुआ द्वार पर कुलचन्द्र के साथ यवनों के संहार में लग गया। मसऊद कुलचन्द्र का रणचातुर्य देख स्तब्ध रह गया और उसने पीछे हटकर ज्यों ही वार किया विजयपाल बीच में आ गया। कुलचन्द्र तो बच गए परन्तु विजयपाल का आधा धड़ लटक गया। कुलचन्द्र के क्रोध का पारावार न रहा।
        महलों में आग फैलने लगी। सोम राजपरिवार के लिये चिन्तित हो उठा। महारानी इन्दुमती ने रूपाम्बरा को दिवाकर के साथ विदा कर दिया। रूपाम्बरा ने गोविन्द को गोद में लिया और अंगरक्षकों के साथ गुप्त मार्ग से मथुरा को चल दी। तभी सोमदेव कुलचन्द्र के पास पहुँचा और बोला−"श्री महाराज, इस समय यवनों का दबाव कम है। राजोद्यान का मार्ग बन्द कर दिया है। आप शीघ्रातिशीघ्र मथुरा पहुँच कर वहाँ की व्यवस्था सँभालें।"
        "लेकिन सोम तू अकेला....और विजय !"
        "आप विलम्ब न करें महाराज आप विजय को भी साथ ले जायें। दुर्ग की चिन्ता छोड़ भगवान का ध्यान करें।" इतना कह सेनापति सोम ने राजा कुलचन्द्र को योग माया के मन्दिर में पहुँचाया और फिर स्वयं खड़ग घुमाता दूसरी ओर बढ़ गया। इन्दुमती ने राजा कुलचन्द्र के साथ दर्शन किये, विजय की कामना की और मथुरा की और चल दिये। हंसा ने अपना कर्तव्य चुना और वह महल में ही रह गई।


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