जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ

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जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ

आचार्य गृद्धपिच्छ

आचार्य वीरसेन और आचार्य विद्यानन्द ने इनका आचार्य गृद्धपिच्छ नाम से उल्लेख किया है। दसवीं-11वीं शताब्दी के शिलालेखों तथा इस समय में अथवा उत्तरकाल में रचे गये साहित्य में उनके

  1. उमास्वामी और
  2. उमास्वाति ये दो नाम भी उपलब्ध हैं। इनका समय विक्रम की प्रथम शताब्दी है। ये सिद्धान्त, दर्शन और न्याय तीनों विषयों के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनका रचा एकमात्र सूत्रग्रन्थ 'तत्त्वर्थसूत्र' है, जिस पर
  3. पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि,
  4. अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक एवं भाष्य,
  5. विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक एवं भाष्य और
  6. श्रुतसागरसूरि ने तत्त्वार्थवृत्ति-ये चार विशाल टीकायें लिखी हैं।
  • श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थभाष्य और सिद्धसेन गणी की तत्त्वार्थव्याख्या- ये दो व्याख्याएँ रची गयी हैं। इसमें सिद्धान्त, दर्शन और न्याय की विशद एवं संक्षेप में प्ररूपणा की गयी है<balloon title="तत्त्वार्थसूत्र में 'जैन न्यायशास्त्र के बीज' शीर्षक निबन्ध, जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ0 70, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन" style=color:blue>*</balloon>। उत्तरवर्ती आचार्यों ने इसका बड़ा महत्त्व घोषित करते हुए लिखा है कि जो इस दस अध्यायों वाले तत्त्वार्थसूत्र का एक बार भी पाठ करता है उसे एक उपवास का फल प्राप्त होता है।<balloon title="दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति। फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवै:॥" style=color:blue>*</balloon>

स्वामी समन्तभद्र

ये आचार्य कुन्दकुन्द के बाद दिगम्बर परम्परा में जैन दार्शनिकों में अग्रणी और प्रभावशाली तार्किक हुए हैं। उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनका अपने ग्रन्थों में जो गुणगान किया है वह अभूतपूर्व है। इन्हें वीरशासन का प्रभावक और सम्प्रसारक कहा है। इनका अस्तित्व ईसा की 2री 3री शती माना जाता है। स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय के ये आद्य प्रभावक हैं। जैन न्याय का सर्वप्रथम विकास इन्होंने अपनी कृतियों और शास्त्रार्थों द्वारा प्रस्तुत किया है। इनकी निम्न कृतियाँ प्रसिद्ध हैं-

  1. आप्तमीमांसा (देवागम),
  2. युक्त्यनुशासन,
  3. स्वयम्भू स्तोत्र,
  4. रत्नकरण्डकश्रावकाचार और
  5. जिनशतक। इनमें आरम्भ की तीन रचनाएँ दार्शनिक एवं तार्किक एवं तार्किक हैं, चौथी सैद्धान्तिक और पाँचवीं काव्य है। इनकी कुछ रचनाएँ अनुपलब्ध हैं। पर उनके उल्लेख और प्रसिद्धि है। उदाहरण के लिए इनका 'गन्धहस्ति-महाभाष्य' बहुचर्चित है। जीवसिद्धि प्रमाणपदार्थ, तत्त्वानुशासन और कर्मप्राभृत टीका इनके उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिलते हैं। पं0 जुगलकिशोर मुख्तार ने इन ग्रन्थों का अपनी 'स्वामी समन्तभद्र' पुस्तक में उल्लेख करके शोधपूर्ण परिचय दिया है।

सिद्धसेन

आचार्य सिद्धसेन बहुत प्रभावक तार्किक हुए हैं। इन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्परायें मानती हैं। इनका समय वि॰ सं॰ 4थी-5वीं शती माना जाता है। इनकी महत्त्वपूर्ण रचना 'सन्मति' अथवा 'सन्मतिसूत्र' है। इसमें सांख्य, योग आदि सभी वादों की चर्चा और उनका समन्वय बड़े तर्कपूर्ण ढंग से किया गया है। इन्होंने ज्ञान व दर्शन के युगपद्वाद और क्रमवाद के स्थान में अभेदवाद की युक्तिपूर्वक सिद्धि की है, यह उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थान्त में मिथ्यादर्शनों (एकान्तवादों) के समूह को 'अमृतसार', 'भगवान', 'जिनवचन' जैसे विशेषणों के साथ उल्लिखित करके उसे 'भद्र'- सबका कल्याणकारी कहा है।<balloon title="भद्दं मिच्छादंसणसमूहमइयस्म असियसारस्स। जिणवयणस्य भव भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स॥ सन्मतिसूत्र 3-70" style=color:blue>*</balloon> उन्होंने सापेक्ष (एकान्तों) के समूह को भद्र कहा है, निरपेक्ष (एकान्तों के समूह को नहीं, क्योंकि जैन दर्शन में निरपेक्षता को मिथ्यात्व और सापेक्षता को सम्यक् कहा गया है तथा सापेक्षता ही वस्तु का स्वरूप है। और वह ही अर्थक्रियाकारी है। आचार्य समन्तभद्र ने भी, जो उनके पूर्ववर्ती हैं, आप्तमीमांसा<balloon title="का0 108" style=color:blue>*</balloon> में यही प्रतिपादन किया है।

देवनन्दि-पूज्यपाद

आचार्य देवनन्दि-पूज्यपाद विक्रम सम्वत की छठीं और ईसा की पाँचवीं शती के बहुश्रुत विद्वान हैं। ये तार्किक, वैयाकरण, कवि और स्तुतिकार हैं। तत्त्वार्थसूत्र पर लिखी गयी विशद व्याख्या सर्वार्थसिद्धि में इनकी दार्शनिकता और तार्किकता अनेक स्थलों पर उपलब्ध होती है। इनका एक न्याय-ग्रन्थ 'सार-संग्रह' रहा है, जिसका उल्लेख आचार्य वीरसेन ने किया है और उनमें दिये गये नयलक्षण को धवला-टीका में उद्धृत किया है। जैनेन्द्रव्याकरण, समाधिशतक, इष्टोपदेश, निर्वाणभक्ति आदि अनेक रचनाएँ भी इन्होंने लिखी हैं।

श्रीदत्त

ये छठीं शताब्दी के वादिविजेता प्रभावशाली तार्किक हैं। आचार्य विद्यानन्द ने त वार्थश्लोकवातिक<balloon title="पृ0 280" style=color:blue>*</balloon> में इन्हें 'त्रिषष्टेर्वादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये'- तिरेसठ वादियों का विजेता और 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थ का कर्ता बतलाया है। 'जल्पनिर्णय' एक वाद ग्रन्थ रहा है, जिसमें दो प्रकार के जल्पों (वादों) का विवेचन किया गया है। परन्तु यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। विद्यानन्द को सम्भवत: प्राप्त था और जिसके आधार से उन्होंने दो प्रकार के वादों (तात्त्विक एवं प्राप्तिय) का प्रतिपादन किया है।

पात्रस्वामी

ये विक्रम की छठीं, 7वीं शती के जैन नैयायिक हैं। इनका एकमात्र ग्रन्थ 'त्रिलक्षणकदर्थन' प्रसिद्ध है। पर यह अनुपलब्ध है। अकलंक, अनन्तवीर्य, वादिराज आदि उत्तरकालीन तार्किकों ने इसका उल्लेख किया है। बौद्ध तार्किक तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षित (ई॰ 8वीं शती) ने तो इनके नामोल्लेख के साथ इनकी अनेक कारिकाएँ भी उद्धृत की हैं और उनका खण्डन किया है। सम्भव है ये कारिकाएँ उनके उसी 'त्रिलक्षणकदर्थन' ग्रन्थ की हों।

अकलंकदेव

आचार्य अकलंकदेव ईसा 7वीं, 8वीं शती के तीक्ष्णबुद्धिएवं महान् प्रभावशाली तार्किक हैं। ये जैन न्याय के प्रतिष्ठाता कहे जाते हैं। अनेकांत, स्याद्वाद आदि सिद्धान्तों पर जब तीक्ष्णता से बौद्ध और वैदिक विद्वानों द्वारा दोहरा प्रहार किया जा रहा था तब सूक्ष्मप्रज्ञ अकलंकदेव ने उन प्रहारों को अपने वाद-विद्याकवच से निरस्त करके अनेकांत, स्याद्वाद, सप्तभंगी आदि सिद्धान्तों को सुरक्षित किया था तथा प्रतिपक्षियों को सबल जवाब दिया था। इन्होंने सैकड़ों शास्त्रार्थ किये और जैनन्याय पर बड़े जटिल एवं दुरूह ग्रन्थों की रचना की है। उनके वे न्यायग्रन्थ निम्न हैं-

  1. न्याय-विनिश्चय,
  2. सिद्धि-विनिश्चय,
  3. प्रमाण-संग्रह,
  4. लघीयस्त्रय,
  5. देवागम-विवृति (अष्टशती),
  6. तत्त्वार्थवार्तिक व उसका भाष्य आदि। इनमें तत्त्वार्थवार्तिक व भाष्य तत्त्वार्थसूत्र की विशाल, गम्भीर और यह वपूर्ण वार्तिक रूप में व्याख्या है। इसमें अकलंकदेव ने सूत्रकार गृद्धपिच्छाचार्य का अनुसरण करते हुए सिद्धांत, दर्शन और न्याय तीनों का विशद विवेचन किया है। विद्यानन्द ने सम्भवत: इसी कारण 'सिद्धेर्वात्राकलंकस्य महतो न्यायवेदिन:<balloon title="त0 श्लो0 पृ0 277" style=color:blue>*</balloon>' वचनों द्वारा अकलंक को 'महान्यायवेत्ता' जस्टिक-न्यायधीश कहा है।

हरिभद्र

आचार्य हरिभद्र वि0 सं0 8वीं शती के विश्रुत दार्शनिक एवं नैयायिक हैं। इन्होंने

  1. अनेकान्तजयपताका,
  2. अनेकान्तवादप्रवेश,
  3. शास्त्रवार्तासमुच्चय,
  4. षड्दर्शनसमुच्चय आदि
  5. जैनन्याय के ग्रन्थ रचे हैं। यद्यपि इनका कोई स्वतंत्र न्याय का ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। किन्तु उनके इन दर्शन ग्रंथों में न्याय की भी चर्चा हमें मिलती है। उनका षड्दर्शन-समुच्चय तो ऐसा दर्शन ग्रन्थ है, जिसमें भारतीय प्राचीन छहों दर्शनों का विवेचन सरल और विशद रूप में किया गया है, तथा जैन दर्शन को अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है। इसके द्वारा जैनेतर विद्वानों को जैनदर्शन का सही आकलन हो जाता है।

सिद्धसेन (द्वितीय)

इनका समय 9वीं शती माना जाता है। इन्होंने न्यायशास्त्र का एकमात्र 'न्यायावतार' ग्रन्थ लिखा है, जिसमें जैन न्यायविद्या का 32 कारिकाओं में सांगोपांग निरूपण किया है। इनकी रची कुछ द्वात्रिंशतिकाएँ भी हैं जिनमें तीर्थंकर की स्तुति के बहाने जैन दर्शन और जैन न्याय का भी दिग्दर्शन किया गया है।

वादीभसिंह

इनके इस नाम से ही ज्ञात होता है कि ये वादि रूप हाथियों को पराजित करने के लिए सिंह के समान थे। इनका जैन दर्शन और जैन न्याय पर लिखा ग्रन्थ 'स्याद्वादसिद्धि' है। इसमें स्याद्वाद पर प्रतिवादियों द्वारा दिये गये दूषणों का परिहार करके उसकी युक्तियों से प्रतिष्ठा की है। इनका समय विक्रम की 9वीं शती है। इनके रचे 'क्षत्रचूड़ामणि' (पद्य) और 'गद्यचिन्तामणि' (गद्य) ये दो काव्यग्रन्थ भी हैं, जिनमें भगवान महावीर के काल में हुए क्षत्रिय मुकुट जीवन्धर कुमार का पावन चरित्र निबद्ध है। गद्य चिन्तामणि नामक ग्रन्थ तो संस्कृत गद्य साहित्य का बेजोड़ ग्रन्थ है।

बृहदनन्तवीर्य

ये विक्रम संवत 9वीं शती के प्रतिभा सम्पन्न तार्किक हैं। इन्होंने अकलंकदेव के 'सिद्धिविनिश्चय' और 'प्रमाणसंग्रह' इन दो न्याय-ग्रन्थों पर विशाल व्याख्याएँ लिखी हैं। सिद्धिविनिश्चय पर लिखी 'सिद्धिविनिश्चयालंकार' व्याख्या उपलब्ध है, परन्तु प्रमाणसंग्रह पर लिखा 'प्रमाणसंग्रहभाष्य' अनुपलब्ध है। इसका उल्लेख स्वयं अनन्तवीर्य ने 'सिद्धिविनिश्चयालंकार' में अनेक स्थलों पर विशेष जानने के लिए किया है। इससे उसका महत्त्व जान पड़ता है। अन्वेषकों को इसका पता लगाना चाहिए। इन्होंने अकलंक के पदों का जिस कुशलता और बुद्धिमत्ता से मर्म खोला है उसे देखकर आचार्य वादिराज<balloon title="ई॰ 1025" style=color:blue>*</balloon> और प्रभाचन्द्र<balloon title="ई॰ 1953" style=color:blue>*</balloon> कहते हैं कि 'यदि अनन्तवीर्य अकलंक के दुरूह एवं जटिल पदों का मर्मोद्घाटन न करते तो उनके गूढ़ पदों का अर्थ समझने में हम असमर्थ रहते। उनके द्वारा किये गये व्याख्यानों के आधार से ही हम (प्रभाचन्द्र और वादिराज, क्रमश: लघीयस्त्रय की व्याख्या (लघीयस्त्रयालंकार- न्यायकुमुदचन्द्र) एवं न्यायविनिश्चय की टीका (न्यायविनिश्चयालंकार अथवा न्यायविनिश्चय विवरण) लिख सके हैं।<balloon title=<balloon title="वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, 1977" style=color:blue>*</balloon> style=color:blue>*</balloon>'

विद्यानन्द

आचार्य विद्यानन्द उन सारस्वत मनीषियों में गणनीय हैं, जिन्होंने एक-से-एक विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों की रचना की हैं। इनका समय ई॰ 775-840 है। इन्होंने अपने समग्र ग्रन्थ प्राय: दर्शन और न्याय पर ही लिखे हैं, जो अद्वितीय और बड़े महत्त्व के हैं। ये दो तरह के हैं-

  1. टीकात्मक, और
  2. स्वतंत्र।
  • टीकात्मक ग्रन्थ निम्न हैं-
  1. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (साभाष्य),
  2. अष्टसहस्री (देवागमालंकार) और
  3. युक्त्यनुशासनालंकार।
  • प्रथम टीका आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र पर पद्यवार्तिकों और उनके विशाल भाष्य के रूप में है।
  • द्वितीय टीका आचार्य समन्तभद्र के देवागम (आप्तमीमांसा) पर गद्य में लिखी गयी अष्टसहस्री है। ये दोनों टीकाएँ अत्यन्त दुरूह, क्लिष्ट और प्रमेयबहुल हैं। साथ ही गंभीर और विस्तृत भी हैं। *तीसरी टीका स्वामी समन्तभद्र के ही दूसरे तर्कग्रन्थ युक्त्यनुशासन पर रची गयी है। यह मध्यम परिमाण की है और विशद है।
  • इनकी स्वतन्त्र कृतियाँ निम्न प्रकार हैं-
  1. विद्यानन्दमहोदय,
  2. आप्त-परीक्षा,
  3. प्रमाण-परीक्षा,
  4. पत्र-परीक्षा,
  5. सत्यशासन-परीक्षा और
  6. श्री पुरपार्श्वनाथस्तोत्र।
  • इस तरह इनकी 9 कृतियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें 'विद्यानन्द महोदय' को छोड़कर सभी उपलब्ध हैं। सत्यशासनपरीक्षा अपूर्ण है, जिससे वह विद्यानन्द की अन्तिम रचना प्रतीत होती है। विद्यानन्द और उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व आदि पर विस्तृत विमर्श इस लेख के लेखक द्वारा लिखित आप्तपरीक्षा की प्रस्तावना तथा 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन<balloon title="पृ0 262-312" style=color:blue>*</balloon>' में किया गया है। वह दृष्टव्य है।

कुमारनन्दि (कुमारनन्दि भट्टारक)

ये अकलंकदेव के उत्तरवर्ती और आचार्य विद्यानन्द के पूर्ववर्ती अर्थात 8वीं, 9वीं शताब्दी के विद्वान है। विद्यानन्द ने इनका और इनके 'वादन्याय' का अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक<balloon title="तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ0 280" style=color:blue>*</balloon>, प्रमाण-परीक्षा<balloon title="तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक,1991,पृ0 49 " style=color:blue>*</balloon> और पत्र-परीक्षा<balloon title="पत्र-परीक्षा,पृ0 5" style=color:blue>*</balloon> में नामोल्लेख किया है<balloon title="इस लेख के लेखक (डॉ0 कोठिया) द्वारा संपादित, अनूदित एवं वीर सेवा मन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) से 1945 में प्रकाशित नया संस्करण, जिसके दो संस्करण और निकल चुके हैं।" style=color:blue>*</balloon> तथा उनके इस ग्रन्थ से कुछ प्रासंगिक कारिकाएँ उद्धृत की हैं। एक जगह<balloon title="तत्त्वार्थ-श्लो0 पृ0 280 में" style=color:blue>*</balloon> तो विद्यानन्द ने इन्हें बहुसम्मान देते हुए 'वादन्यायविचक्षण' भी कहा है। इनका यह 'वादन्याय' ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति<balloon title="635" style=color:blue>*</balloon> का 'वादन्याय' उपलब्ध है। संभव है कुमारनन्दि को अपना 'वादन्याय' रचने की प्रेरणा उसी से मिली हो। दु:ख है कि जैनों ने अपने वाङमय की रक्षा करने में घोर प्रमाद किया तथा उसकी उपेक्षा की है। आज भी वही स्थिति है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।

अनन्तकीर्ति

इनका समय वि0 सं0 9वीं शती है। इन्होंने 'बृहत्सर्वज्ञसिद्धि' और 'लघुसर्वज्ञसिद्धि' ये दो तर्कग्रन्थ रचे हैं और दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों विद्वत्तापूर्ण रचनाओं से आचार्य अनन्तकीर्ति का पाण्डित्य एवं तर्कशैली अनुपमेय प्रतीत होती है। इनकी एक रचना 'स्वत: प्रामाण्यभंग' भी है, जो अनुपलब्ध है। इसका उल्लेख अनन्तवीर्य (प्रथम) ने किया है।

माणिक्यनन्दि

ये नन्दिसंघ के प्रमुख आचार्य थे। इनके गुरु रामनन्दि दादागुरु वृषभनन्दि और परदादागुरु पद्मनन्दि थे। इनके कई शिष्य हुए। आद्य विद्या-शिष्य नयनन्दि थे, जिन्होंने 'सुदंसणचरिउ' एवं 'सयलविहिविहान' इन अपभ्रंश रचनाओं से अपने को उनका आद्य विद्या-शिष्य तथा उन्हें 'पंडितचूड़ामणि' एवं 'महापंडित' कहा है। नयनन्दि<balloon title="वि0 सं0 1100, ई॰ 1043" style=color:blue>*</balloon> ने अपनी गुरु-शिष्य परम्परा उक्त दोनों ग्रन्थों की प्रशस्तियों में दी है। इनके तथा अन्य प्रमाणों के अनुसार माणिक्यनन्दि का समय ई॰ 1028 अर्थात 11वीं शताब्दी सिद्ध है। प्रभाचन्द्र<balloon title="ई॰ 1053" style=color:blue>*</balloon> ने न्याय शास्त्र इन्हीं माणिक्यनन्दि से पढ़ा था तथा उनके 'परीक्षामुख' पर विशालकाय 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड' नाम की व्याख्या लिखी थी, जिसके अन्त में उन्होंने भी माणिक्यनन्दि को अपना गुरु बताया है। माणिक्यनन्दि का 'परीक्षामुख' सूत्रबद्ध ग्रन्थ न्यायविद्या का प्रवेश द्वार है। खास कर अकलंकदेव के जटिल न्याय-ग्रन्थों में प्रवेश करने के लिए यह निश्चय ही द्वार है। तात्पर्य यह कि अकलंकदेव ने जो अपने कारिकात्मक न्यायविनिश्चयादि न्याय ग्रन्थों में दुरूह रूप में जैन न्याय को निबद्ध किया है, उसे गद्य-सूत्रबद्ध करने का श्रेय इन्हीं आचार्य माणिक्यनन्दि को है। इन्होंने जैन न्याय को इसमें बड़ी सरल एवं विषद भाषा में उसी प्रकार ग्रंथित किया है जिस प्रकार मालाकार माला में यथायोग्य स्थान पर प्रवाल, रत्न आदि को गूंथता है। इस पर प्रभाचन्द्र ने 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड', लघुअनन्तवीर्य ने 'प्रमेयरत्नमाला', अजितसेन ने 'न्यायमणिदीपिका', चारुकीर्ति नाम के एक या दो विद्वानों ने 'अर्थप्रकाशिका' और 'प्रमेयरत्नालंकार' नाम की टीकाएँ लिखी हैं। इससे इस 'परीक्षामुख' का महत्त्व प्रकट है।

देवसेन

आचार्य देवसेन ने प्राकृत में नयचक्र लिखा है। संभव है इसी का उल्लेख आचार्य विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक<balloon title="तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक,पृ0 276" style=color:blue>*</balloon> में किया हो और उससे ही नयों को विशेष जानने की सूचना की हो। इनका अस्तित्व समय वि0 सं0 9वीं शती माना जाता है। यह नय-मर्मज्ञ मनीषी थे।

वादिराज

ये न्याय, व्याकरण, काव्य आदि साहित्य की अनेक विद्याओं के पारंगत थे और 'स्याद्वादविद्यापति' कहे जाते थे। ये अपनी इस उपाधि से इतने अभिन्न थे कि इन्होंने स्वयं और उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने इनका इसी उपाधि से उल्लेख किया है। इन्होंने अपने पार्श्वनाथचरित में उसकी समाप्ति का समय ई॰ 1025 दिया है। अत: इनका समय ई॰ 1025 है। पार्श्वनाथचरित के अतिरिक्त इन्होंने न्यायविनिश्चयविवरण और प्रमाण-निर्णय ये दो न्यायग्रन्थ लिखे हैं। न्यायविनिश्चयविवरण अकलंकदेव के न्यायविनिश्चय की विशाल और महत्वपूर्ण टीका है। प्रमाणनिर्णय इनका मौलिक तर्कग्रन्थ है। वादिराज, जो नाम से भी वादियों के विजेता जान पड़ते हैं, अपने समय के महान तार्किक ही नहीं, वैयाकरण, काव्यकार और अर्हद्भक्त भी थे। 'एकीभावस्तोत्र' के अन्त में बड़े अभिमान से कहते हैं कि जितने वैयाकरण हैं वे वादिराज के बाद हैं, जितने तार्किक हैं वे वादिराज के पीछे हैं तथा जितने काव्यकार हैं वे भी उनके पश्चाद्वर्ती हैं और तो क्या, भाक्तिक लोग भी भक्ति में उनकी बराबरी नहीं कर सकते। यथा-

वादिराजमनुशाब्दिकलोको वादिराजमनुतार्किकसिंह:।
वादिराजमनुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनुभव्यसहाय:॥ -एकीभावस्तोत्र, श्लोक 26)

प्रभाचन्द्र

प्रभाचन्द्र जैन साहित्य में तर्कग्रन्थकार के रूप में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। आचार्य माणिक्यनन्दि के शिष्य और उन्हीं के परीक्षामुख पर विशालकाय एवं विस्तृत व्याख्या 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड' लिखने वाले ये अद्वितीय मनीषी हैं। इन्होंने अकलंक के दुरूह 'लघीयस्त्रय' नाम के न्याय ग्रन्थ पर भी बहुत ही विशद और विस्तृत टीका लिखी है, जिसका नाम 'न्यायकुमुदचन्द्र' है। न्यायकुमुदचन्द्र वस्तुत: न्याय रूपी कुमुदों को विकसित करने वाला चन्द्र है। इसमें प्रभाचन्द्र ने लघीयस्त्रय की कारिकाओं, उनकी स्वोपज्ञ वृत्ति और उसके दुरूह पद-वाक्यादि की विशद व्याख्या तो की ही है, किन्तु प्रसंगोपात्त विविध तार्किक चर्चाओं द्वारा अनेक अनुद्घाटित तथ्यों एवं विषयों पर भी नया प्रकाश डाला है। इसी प्रकार उन्होंने प्रमेयकमलमार्त्ताण्ड में भी अपनी तर्कपूर्ण प्रतिभा का पूरा उपयोग किया है और परीक्षामुख के प्रत्येक सूत्र व उसके पदों का विस्तृत एवं विशद व्याख्यान किया है। प्रभाचन्द्र के ये दोनों व्याख्यान ग्रन्थ मूल जैसे ही हैं। इनके बाद इन जैसा कोई मौलिक या व्याख्याग्रन्थ नही लिखा गया। समन्तभद्र, अकलंक और विद्यानन्द के बाद प्रभाचन्द्र जैसा कोई जैन तार्किक हुआ दिखाई नहीं देता। इनका समय ई॰ 1053 है।

अभयदेव

अभयदेव ने सिद्धसेन के 'सन्मति सूत्र', 'सन्मतितर्कटीका' लिखी है। इसमें स्याद्वाद और अनेकान्त पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इनका समय ईसा की 12वीं शती है। अभयदेव प्रभाचन्द्र से खूब प्रभावित हैं और उनकी इस टीका पर प्रभाचन्द्र की उक्त व्याख्याओं का अमिट प्रभाव है।

लघु अनन्तवीर्य

इन्होंने माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख पर मध्यम परिमाण की विशद एवं सरल वृत्ति लिखी है, जिसे 'प्रमेयरत्नमाला' कहा जाता है। विद्यार्थियों और जैन न्याय के विज्ञासुओं के लिए यह बड़ी उपयोग एवं बोधप्रद है। इन्होंने परीक्षामुख को अकलंक के दुरुगाह न्यायग्रन्थसमुच्चयरूप समुद्र का मन्थन करके निकाला गया 'न्यायविद्यामृत' बतलाया है। वस्तुत: अनन्तवीर्य का यह कथन काल्पनिक नहीं है। हमने 'परीक्षामुख और उसका उद्गम' शीर्षक लेख में अनुसन्धान पूर्वक विमर्श किया है, और यथार्थ में 'परीक्षामुख' अकलंक के न्याय-ग्रन्थों का दोहन है। विद्यानन्द के ग्रन्थों का भी उस पर प्रभाव रहा है। इनका समय वि0 सं0 की 12वीं शती है। देवसूरि== देवसूरि 'वादि' उपाधि से विभूषित अभिहित हैं। इनके 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार' और उसकी व्याख्या 'स्याद्वादरत्नाकर' ये दो तर्कग्रंथ प्रसिद्ध हैं। इन दोनों पर आचार्य माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' का शब्दश: और अर्थश: पूरा प्रभाव है। इसके 6 परिच्छेद तो 'परीक्षामुख' की तरह ही हैं और अन्तिम दो परिच्छेद (नयपरिच्छेद तथा वादपरिच्छेद) परीक्षामुख से ज्यादा हैं। पर उन पर भी परीक्षामुख<balloon title="परि0 6/73, 74" style=color:blue>*</balloon> के सूत्रों का प्रभाव लक्षित होता है।

हेमचन्द्र

ये न्याय, व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त और योग इन सभी विषयों के प्रखर विद्वान् थे। इनका न्याय-ग्रन्थ 'प्रमाण-मीमांसा' विशेष प्रसिद्ध है। इसके सूत्र और उनकी स्वोपज्ञ टीका दोनों ही सुन्दर और बोधप्रद हैं। न्याय के प्राथमिक अभ्यासी के लिए परीक्षामुख और न्यायदीपिका की तरह इसका भी अभ्यास उपयोगी है। ये ई॰ 1089-1173 शती के विद्वान माने जाते हैं।

भावसेन त्रैविद्य

ये वि0 सं0 12वीं, 13वीं शताब्दी के जैन नैयायिक हैं। इनकी उपलब्ध एकमात्र कृति 'विश्वतत्त्वप्रकाश' है। इसका प्रकाशन जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से हो चुका है। यह बृहद ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण और बोधप्रद है।

लघु समन्तभद्र

इनका समय वि0 सं0 13वीं शती है। इन्होंने विद्यानन्द की अष्टसहस्री पर एक टिप्पणी लिखी है, जो अष्टसहस्री के कठिन पदों के अर्थबोध में सहायक है। इसका नाम 'अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटीका' है। यह स्वतन्त्र रूप से अभी अप्रकाशित है। किन्तु अष्टसहस्री की पाद-टिप्पणियों में यह प्रकाशित है, जिनके सहारे से पाठक अष्टसहस्री के उन पदों का अर्थ कर लेते हैं, जो क्लिष्ट और प्रसंगोपात्त हैं।

अभयचन्द्र

ये वि0 सं0 13वीं शती के तार्किक हैं। इन्होंने अकलंकदेव के तर्कग्रन्थ 'लघीयस्त्रय' पर 'लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति' नाम की स्पष्टार्थबोधक लघुकाय वृत्ति लिखी है, जो माणिकचन्द्र दि0 जैन ग्रन्थमाला, बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। पर वह अलभ्य है। उसका एक अच्छा आधुनिक सम्पादन के साथ संस्करण निकलना चाहिए। इसकी तर्कपद्धति सुगम एवं आकर्षक है।

नत्नप्रभसूरि

इनका समय वि0 सं0 13वीं शती है। इनकी एकमात्र तर्ककृति 'स्याद्वादरत्नाकरावतारिका' है, जो प्रकाशित है और स्याद्वाद पर अच्छा प्रकाश डालती है।

मल्लिषेण

इन्होंने हेमचन्द्र की 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' नाम की द्वात्रिंशतिका पर 'स्याद्वाद मंजरी' लिखी है। यह विद्वत्प्रिय एवं सरल होने से अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में निर्धारित है। मल्लिषेण विक्रम की 14वीं शती के मनीषी हैं।

अभिनव धर्मभूषणयति

जैन तार्किकों में ये अधिक लोकप्रिय और उल्लेखनीय हैं। इनकीं 'न्यायदीपिका' एक ऐसी महत्वपूर्ण एवं यशस्वी कृति है जो न्यायशास्त्र में प्रवेश करने के लिए बहुत ही सुगम और सरल है। न्यायशास्त्र के प्राथमिक अभ्यासी इसी के माध्यम से अकलंक और विद्यानन्द के दुरूह एवं जटिल न्यायग्रन्थों में प्रवेश करते हैं। न्याय का ऐसा कोई विषय नहीं छूटा जिसका धर्मभूषणयति ने इसमें संक्षेपत: औ सरल भाषा में प्रतिपादन न किया हो। प्रमाण, प्रमाण के भेदों, नय और नय के भेदों के अलावा अनेकान्त, सप्तभंगी, वीतरागकथा, विजिगीषुकथा जैसे विषयों का भी इस छोटी-सी कृति में समावेश कर उनका संक्षेप में विशद निरूपण किया है। अनुमान का विवेचन तो ग्रन्थ के बहुभाग में निबद्ध है और बड़े सरल ढंग से उसे दिया है। वास्तव में यह अभिनव धर्मभूषण की प्रतिभा, योग्यता और कुशलता की परिचायिका कृति है। इनका समय ई॰ 1358 से 1418 है।

शान्तिवर्णी

परीक्षामुख के प्रथम सूत्र पर इन्होंने 'प्रमेयकण्ठिका' नाम की वृत्ति लिखी है। यह एक न्याय-विद्या की लघु रचना है और प्रमाण पर इसमें संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। यह वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, काशी से प्रकाशित हो चुकी है। यह अध्येतव्य है।

नरेन्द्रसेन भट्टारक

इनका एकमात्र न्याय-ग्रन्थ 'प्रमाणप्रमेयकलिका' है। इसमें तत्त्व-सामान्य की जिज्ञासा करते हुए उसके दो भेद-

  1. प्रमाणतत्त्व और
  2. प्रमेयतत्त्व बतलाकर उनका समीक्षापूर्वक विवेचन किया है। कृति सुन्दर और सुगम है। हमारे सम्पादन के साथ यह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुकी है। ग्रन्थकार का समय वि0 सं0 1787 है।

चारुकीर्ति भट्टारक

ये वि0 सं0 की 18वीं शती के तार्किक हैं। इन्होंने माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख पर बहुत से ही विशद एवं प्रौढ़ व्याख्या 'प्रमेयरत्नालंकार' लिखी है, जो मैसूर यूनिवर्सिटी से प्रकाशित है। रचना तर्कपूर्ण है। इसमें नव्यन्याय का भी अनेक स्थलों पर समावेश है। चारुकीर्ति की विद्वत्ता और पाण्डित्य दोनों इसमें दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हीं अथवा दूसरे चारुकीर्ति की 'अर्थप्रकाशिका' भी है, जो प्रमेयरत्नमाला की संक्षिप्त व्याख्या है। ये 'पण्डिताचार्य' की उपाधि से विभूषित थे।

विमलदास

इनकी 'सप्तभंगीतरंगिणी' नाम की तर्क कृति है, जिसमें सप्तभंगों का अच्छा विवेचन किया गया है। यह दर्शन और न्याय दोनों की प्रतिपादिका है। इनका समय वि0 की 18वीं शती है।

अजितसेन

ये भी वि0 सं0 18वीं शती के तार्किक हैं। इन्होंने 'परीक्षामुख' पर 'न्यायमणिदीपिका' नाम की व्याख्या लिखी है, जो उसकी पाँचवीं टीका है। इसका उल्लेख चारुकीर्ति ने 'प्रमेयरत्नालंकार<balloon title="प्रमेयरत्नालंकार,पृ0 181" style=color:blue>*</balloon>' में किया है।

यशोविजय

ये वि0 सं0 18वीं शती के प्रौढ़ तार्किक और नव्यन्याय शैली के महान् दार्शनिक हैं। इन्होंने निम्न तर्कग्रन्थ रचे हैं-

  1. अष्टसहस्री-तात्पर्यविवरण,
  2. जैन तर्कभाषा,
  3. न्यायलोक,
  4. ज्ञानबिन्दु,
  5. अनेकान्तव्यवस्था,
  6. न्यायखण्डनखाद्य,
  7. अनेकान्तप्रवेश,
  8. शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका और

3गुरुत वविनिश्चय।

चारुकीर्ति, विमलदास और यशोविजय

ये तीन तार्किक ऐसे हैं, जिन्होंने अपने न्याय ग्रन्थों में नव्यन्याय को भी अपनाया है, जो नैयायिक गङ्गेश उपाध्याय से उद्भूत हुआ और पिछले तीन-चार दशक तक अध्ययन- अध्यापन में रहा। हमने स्वयं नव्यन्याय के अवच्छेदकत्वनिरुक्ति, सिद्धांतलक्षण, व्याप्तिपंचक, दिनकरी आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया तथा नव्यन्याय में मध्यता-परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।

बीसवीं शती के जैन तार्किक

बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं0 गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं0 माणिकचन्द्र कौन्देय, पं0 सुखलाल संघवी, डा0 पं0 महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं0 कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं0 दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा0 पं0 दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं।