जैमिनिशाखीय ब्राह्मण

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जैमिनिशाखीय ब्राह्मण / Jaiminishakhiya Brahman

जैमिनिशाखा के अद्यावधि तीन ही ब्राह्मण ग्रन्थ प्राप्त और प्रकाशित हुए हैं- जैमिनीय-ब्राह्मण, जैमिनीयार्षेय-ब्राह्मण और जैमिनीयोपनिषद्-ब्राह्मण। विद्वानों की सामान्य अवधारणा है कि देवताध्याय ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण और सामविधान ब्राह्मणों का सम्बन्ध कौथुम-राणायनीय के साथ ही जैमिनीय शाखा से भी रहा है। सामविधान ब्राह्मण में अनेक ऐसे सामों का विधान है, जो सम्प्रति मात्र जैमिनिशाखीय संहिता में ही उपलब्ध हैं।[१] ॠषि-नामों में, जिन्हें साम-विधियाँ सुलभ हुई, सामविधान ब्राह्मण में तण्डि के साथ ही जैमिनि का नाम भी प्राप्त होता है। सामविधान ब्राह्मण के साथ ही हमारे विचार से संहितोपनिषद् ब्राह्मण का भी जैमिनि सहित सभी शाखाओं में समानरूप से प्रचलन रहा है। भाषा में प्राचीन रूपों की अवस्थिति, वर्णन शैली तथा आख्यानों की पुरातन रूपवत्ता से जैमिनिशाखीय ब्राह्मणों की प्राचीनता सिद्ध है। जैमिनीय ब्राह्मण ॠगादि से सम्बद्ध अन्य ब्राह्मणों के समान ब्राह्मण-सदृश शैली में रचित हैं, जबकि कौथुमशाखीय ब्राह्मणों में सूत्र-शैली भी परिलक्षित होती है। इनकी भाषा में एक विशिष्टता यह है कि इसमें ॠग्वेद के समान 'ळ' व्यंजन सुरक्षित है। उपलब्ध जैमिनीय ब्राह्मणों का परिचयात्मक विवरण इस प्रकार है-

जैमिनीय ब्राह्मण

यह मुख्यत: तीन भागों में विभिक्त है, जिसके प्रथम भाग में 360, द्वितीय भाग में 437 और तीसरे भाग में 385 खण्ड हैं। कुल खण्डों की संख्या है 1182। बड़ौदा के सूची-ग्रन्थ[२] में इसका एक अन्य परिमाण भी उल्लिखित है, जिसके अनुसार उपनिषद ब्राह्मण को मिलाकर इसमें 1427 खण्ड हैं। प्रपंचह्रदय के अनुसार इसमें 1348 खण्ड होने चाहिए। जैमिनीय ब्राह्मण के आरम्भ और अन्त में प्राप्य श्लोकों में जैमिनि की स्तुति की गई है।[३] जैमिनीय ब्राह्मण और ताण्डय ब्राह्मण की अधिकांश सामग्री समान है, अर्थात दोनों में ही सोमयागगत औदगात्रतन्त्र का निरूपण है, दोनों में ही प्रकृतियाग गवामयन (सत्र), एकाह, दशाह, अन्य विभिन्न एकाहों और अहीनयागों का प्रतिपादन हुआ है। किन्तु वर्ण्यविषयों की समानता होने पर भी दोनों के विवरण में विपुल अन्तर है। जैमिनीय ब्राह्मण में विषय-निरूपण अधिक विस्तार से है, जबकि ताण्ड्य में केवल अत्यन्त आवश्यक विवरण ही दिया गया है। आख्यानों की दृष्टि से भी जैमिनीय ब्राह्मण में विस्तार है, और कौथुमशाखीय ब्राह्मणों में संक्षेप। प्रतीत होता है कि संभवत: ताण्ड्यकार का अनुमान था कि उसके पाठक इन आख्यानों से पूर्वपरिचित हैं। जैमिनीय ब्राह्मण में ही वह सुप्रसिद्ध सूक्ति प्राप्त होती है, जिसका तात्पर्य है- ऊँचे मत बोलो, भुमि अथवा दीवार के भी कान होते है- मोच्चैरिति होवाच कर्णिनी वै भूमिरिति। डॉ॰ रघुवीर तथा लोकेशचन्द्र द्वारा सम्पादित तथा 1954 में सरस्वती बिहार, नई दिल्ली से प्रकाशित संस्करण ही उपलब्ध है।

जैमिनीयार्षेय ब्राह्मण

जैमिनीयार्षेय ब्राह्मण जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण के साथ डॉ॰ बी॰ आर॰ शर्मा के द्वारा सम्पादित होकर तिरुपति से 1967 में प्रकाशित हुआ है। कौथुमशाखीय आर्षेय ब्राह्मण के सदृश इसके आरम्भ में भी, प्रथम दो वाक्य छोड़कर स्वाध्याय तथा यज्ञ की दृष्टि से ॠषि, छन्द और देवता के ज्ञान पर बल दिया गया है। कौथुमशाखीय आर्षेय ब्राह्मण के आरम्भ में अथ खल्वयमार्षप्रदेश: भवति मिलता है, जो इसमें अनुल्लिखित है। वर्ण्य-विषय दोनों का समान है। ग्रामगेयगानों के ॠषि-निरूपण में अध्यायों और खण्डों की व्यवस्था और विन्यास भी प्राय: समान है। कहीं-कहीं दोनों शाखाओं की संहिताओं में उपलब्ध अन्तर के कारण गानों के क्रम में भिन्नता है। कौथुमशाखीय आर्षेय ब्राह्मण में वैकल्पिक नाम भी दिये गये हैं, जबकि इसमें वे अनुपलब्ध हैं। इस प्रकार कौथुम की अपेक्षा यह कुछ संक्षिप्त-सा है।

टीका-टिप्पणी

  1. 'अयमग्नि श्रेष्ठतम:'-सामविधान ब्राह्मण, 3.4.4 तथा 'यदिदस्तन्वो मम'- सामविधान ब्राह्मण, 1.7.11
  2. हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र, प्रथम भाग, पृष्ठ 105
  3. उज्जहारागमाम्भोधेर्यो धर्मामृतमञ्जसा।
    न्यायैर्निर्मथ्य भगवान् स प्रसीदतु जैमिनि:॥
    सामाखिलं सकलवेदगुरोर्मुनीन्द्राद् व्यासादवाप्य भुवि येन सहस्त्रशाखम्।
    व्यक्तं समस्तमपि सुन्दरगीतरागं तं जैमिनिं तलवकारगुरुं नमामि॥