टोडरमल

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जीवन परिचय

राजा टोडरमल जाति के खत्री थे और उनका नाम 'अल्ल टण्डन' था। राजा टोडरमल का जन्म स्थान अवध प्रान्त के सीतापुर ज़िले के अन्तर्गत तारापुर नामक ग्राम है यद्यपि कुछ इतिहासज्ञ लाहौर के पास चूमन गाँव को इनका जन्मस्थान बतलाते हैं, पर वहाँ के भग्नावशेष ऐसे ऐश्वर्य का पता देते हैं जो इनके माता–पिता के पास नहीं था। इनके पिता इन्हें बचपन में ही छोड़कर स्वर्ग सिधारे थे और इनकी विधवा माता ने किसी प्रकार से इनका पालन–पोषण किया था। कुछ बड़े होने पर माता की आज्ञा से यह दिल्ली आए और सौभाग्य से वहाँ पर उनकी नौकरी लग गई।

चार हज़ारी मनसब

वह समझदार लेखक और वीर सम्मतिदाता थे। अकबर की कृपा[१] से बड़ी उन्नति करके चार हज़ारी मनसब और अमीरी और सरदारी की पदवी तक पहुँच गए।

अठारहवें वर्ष में [२]अकबर के राज्य के 9वें वर्ष सन 1564 ई0 में टोडरमल ने मुजफ़्फ़र ख़ाँ की अधीनता में कार्य आरम्भ किया था

गुजरात का युद्ध

17वें वर्ष सन् 1572 ई0 में गुजरात की चढ़ाई पर यह अकबर के साथ में गए थे और बादशाह ने टोडरमल को सूरत का दुर्ग देखकर यह निश्चय करने भेजा था कि यह दुर्ग टूट सकता है या अभेद्य है। [३] गुजरात प्रान्त में बादशाह के आने से विद्रोहियों के उपद्रव से साफ़ हो गया था। राजा कोष की विभाग की जाँच करने के लिए टोडरमल को छोड़ गए थे कि न्यायपरता के साथ जो कुछ निश्चित करें, उसी प्रकार की वेतन–सूची काम में लाई जाए।

बंगाल में नियुक्ति

19वें वर्ष (सन 1574 ई0) में टोडरमल पटना विजय के अनन्तर झण्डा और डंका मिलने से सम्मानित होकर मुनइम ख़ाँ ख़ानख़ानाँ की सहायता के लिए बंगाल में नियुक्त हुए। यद्यपि सेनापतित्व और आज्ञा ख़ानख़ानाँ के हाथ में थी, पर सैन्य संचालन, सैनिकों को उत्साह दिलाने, साहस पूर्ण धावे करने और विद्रोहियों तथा शत्रुओं को दण्ड देने में राजा टोडरमल ने बड़ी वीरता दिखलाई।

दाऊद ख़ाँ किर्रानी के युद्ध में (जब ख़ाने आलम हरावल में मारा गया और ख़ानख़ाना कई घाव खाकर भाग गया तब भी) राजा टोडरमल दृढ़ता से डटा रहा और बहुत प्रयत्न करके ऐसे पराजय को विजय में परिणत कर दिया। ठीक युद्ध में (कि शत्रु विजय होने के घमण्ड में थे) ख़ाने आलम और ख़ानख़ानाँ के बुरे समाचार लाए, जिस पर राजा टोडरमल ने बिगड़ कर कहा कि,

"यदि ख़ाने आलम मर गया तो क्या शोक, और ख़ानख़ानाँ मर गया तो क्या डर? बादशाह का इकबाल तो हमारे साथ में है।"

इसके अनन्तर वहाँ का प्रबन्ध ठीक होने पर बादशाह के पास पहुँचकर पहले की तरह माली और देश के कार्यों में लग गया।[४]

बंगाल की सूबेदारी

तब ख़ानजहाँ ने बंगाल की सूबेदारी पाई तब राजा टोडरमल भी उसके साथ नियुक्त हुए। इस बार टोडरमल के सौभाग्य से वह प्रान्त हाथ से जाकर फिर अधिकार में चला आया और इन्होंने दाऊद को पकड़कर मार डाला। 21वें वर्ष में उस प्रान्त की लूट को (जिसमें तीन चार सौ भारी हाथी थे) बादशाह के सामने लाए [५]

गुजरात प्रान्त का प्रबन्ध

गुजरात प्रान्त का प्रबन्ध ठीक नहीं था और वज़ीर ख़ाँ की ढिलाई से वहाँ पर गड़बड़ी और अशान्ति थी। इसलिए राजा टोडरमल को उस प्रान्त का प्रबन्ध करने के लिए नियुक्त किया गया। यह बुद्धिमानी, कार्यदक्षता, वीरता और साहस के साथ सुल्तानपुर और नदरबार से बड़ौदा और चम्पानेर तक का प्रबन्ध ठीक करके अहमदाबाद आए और वज़ीर ख़ाँ के साथ न्याय करने में तत्पर हुए। एकाएक मेहर अली के बहकावे से मिर्ज़ा मुजफ़्फ़र हुसैन का बलवा मच गया। वज़ीर ख़ाँ ने चाहा कि दुर्ग में जा बैठे; पर राजा टोडरमल ने साहस करके उसे युद्ध करने पर उत्साहित किया और 22वें वर्ष में ध्वादर[६] के पास युद्ध की तैयारी की। वज़ीर ख़ाँ ने सैनिकों को भागने से लड़ मरना चाहा और पास ही था कि वह काम आ जाता, पर राजा टोडरमल (कि बाएँ भाग का सरदार था) अपने विपक्षी को भगा कर सहायता को पहुँचा और एक बार ही घमण्डियों के युद्ध का ताना–बाना टूट गया। मिर्ज़ा जूनागढ़ की ओर भागा। उसी वर्ष भाग्यवान राजा टोडरमल दरबार में पहुँचकर अपने मंत्रित्व के काम में लग गया।

शान्ति की स्थापना

जब इसी वर्ष बादशाह का अजमेर से पंजाब जाना हुआ, तब चलाचली में एक दिन राजा टोडरमल की मूर्तियाँ (जब तक उनकी पूजा एक मुख्य चाल पर नहीं कर लेता था, दूसरा काम नहीं करता था) खो गईं। उसने सोना और खान–पान छोड़ दिया। बादशाह ने बहुत कुछ समझा कर इससे अपनी मित्रता प्रदर्शित[७] की। वहाँ से (मंत्रिसभा का कार्य करता था) इस बड़े कार्य के उत्तरदायित्व और कपटी चुगलखोरों के बढ़ने का विचार करके, इसको टोडरमल ने स्वीकार नहीं किया।

प्रधान अमात्य

26वें वर्ष के आरम्भ (सन 990 हिल) में राजा टोडरमल प्रधान अमात्य नियत हुआ जो अर्थ में वक़ीले कुल के समान है और कुल कार्य उसी की सम्मति से होने लगा। राजा टोडरमल ने कोष और राज्य के कार्यों को नए ढंग से चलाया और कुछ नए नियम भी बनवाए जो बादशाही आज्ञा से काम में लाए जाने लगे। उनका विवरण अकबरनामे में दिया है[८]। 29वें वर्ष में उसका गृह बादशाह के जाने से प्रकाशित हुआ जिनकी प्रतिष्ठा के लिए राजा ने महफिल सजाई थी।

लाहौर के रक्षक

32 वें वर्ष (सं0 1644 वि0, सन् 1587 ई0) में किसी कपटी 'खत्री बच्चे' ने जो उससे जलता था, रात्रि के समय सवारी में तलवार फेंकी। साथ वालों ने उसे वहीं पर मार डाला। जब राजा बीरबल पार्वत्य प्रदेश स्वाद में मारे गए, तब राजा टोडरमल कुँअर मानसिंह के साथ यूसुफ़जई जाति को दण्ड देने पर नियुक्त हुए। जब 34वें वर्ष में बादशाह हरे–भरे काश्मीर को चले, तब टोडरमल मुहम्मद कुली ख़ाँ बर्लास और राजा भगवंतदास कछवाहा के साथ लाहौर के रक्षक नियुक्त हुए। इसी वर्ष (जब बादशाह काशमीर से काबुल चले तब) इन्होंने प्रार्थना पत्र लिखा कि वृद्धावस्था और रोगों ने हमें दबा लिया है और मृत्यु का समय पास आ गया है। इसीलिए यदि छुट्टी पाऊँ तो सबसे हाथ उठा लूँ और गंगा जी के तट पर जाकर प्राण त्यागने के लिए परमेश्वर को याद करूँ। प्रार्थना के अनुसार छुट्टी मिल गई और लाहौर से हरिद्वार को चल दिए। साथ ही दूसरा आज्ञापत्र पहुँचा कि ईश्वर के पूजन से निर्बलों की सेवा नहीं हो सकती; इससे अच्छा है कि मनुष्यों का काम सम्भालो। निरुपाय होने से लौट कर 34वें वर्ष सन 998 हिद्ध के आरम्भ के ग्यारहवें दिन मर गए।

अल्लामी फहामी अबुलफ़जल इनके बारे में लिखते हैं - "यह सच्चाई, सत्यता, कार्यदक्षता, कार्यों में निर्लोभता, वीरता, कादरों को उत्साह दिलाने, कार्य कुशलता, काम लेने और हिन्दुस्थान के सरदारों में अद्वितीय था। पर द्वेषी और बदला लेने वाला था। उसके ह्रदय के खेत में थोड़ी कठोरता उत्पन्न हो गई थी। दूरदर्शी बुद्धिमान ऐसे स्वभाव को बुरे स्वभावों में गिनते हैं। मुख्यतः राजकीय कार्यों में जहाँ संसारी लोगों का काम उसे सौंपा गया हो। सम्राट के वक़ील नियत हुए थे। यदि उसकी बुद्धितानी के मुख पर धार्मिक कट्टरपन का रंग न होता तो ऐसा अयोग्य स्वभाव न रखता। सच यह है कि धार्मिक कट्टरपन, हठ और द्वेष न रखता और अपनी बातों का पक्ष न लेता तो महात्माओं में से होता। तब भी संसार के और लोगों को देखते हुए वह संतोष, निर्लोभता (उसका बाज़ार लोभ से मिला हुआ है) परिश्रम करने, काम करने और अनुपम क्या अद्वितीय था। उसकी मृत्यु से निःस्वार्थ कार्य सम्पादन को हानि पहुँची। चारों ओर से कामों के आ जाने पर वह घबराता नहीं था। ठीक है कि ऐसा सच्चा पुरुष हाथ से निकल गया। वह विश्वास (संसार में कम दिखलाई देता है) किस जादू से मिलता है और किस तिलस्म से प्राप्त हो सकता है।

नियम और प्रबन्ध

आलमगीर बादशाह कहते थे कि शाहजहाँ के मुख से सुना है कि एक दिन अकबर बादशाह उससे कहते थे कि टोडरमल कोष और राज्य के कामों में तीव्र बुद्धि था और अधिक जानकारी रखता था। पर उसका हठ और अपनी बातों पर अड़ना अच्छा नहीं लगता था। अबुलफ़जल भी उससे बुरा मानता था। जब एक बार उसने शिकायत की तब अकबर ने कहा कि कृपापात्र को नहीं छुड़ा सकता। राजा टोडरमल के बनाए हुए नियम नगरों और सेना के प्रबन्ध में सर्वदा काम में लाए जाते हैं और बहुधा बादशाही दफ़्तर उन्हीं पर स्थित हैं।

आर्थिक सुधार

हिन्दुस्तान में सुल्तानों और प्राचीन राजाओं के समय से छठा भाग कर के रूप में लिया जाता था। राजा टोडरमल ने भूमि के कई विभाग पहाड़ी, पड़ती, ऊसर और बंजर आदि किए। उपजाऊ और अन–उपजाऊ खेतों को नाप करके (जिसे रकबः कहते हैं) तथा उसकी नाप बीघा, बिस्वा और लाठा से लेकर हर प्रकार के अन्न पर प्रति बीघा नक़द और कुछ पर अन्न का, जिसे बँटाई कहते हैं, लगाया। पहले सैनिकों के वेतन पैसों में दिए जाते थे, इससे टोडरमल ने रुपये को (उस समय चालीस पैसे को चलाता था) चालीस दाम का निश्चित कर प्रत्येक स्थान की आय का हिसाब लगाकर मनुष्यों में वेतन के बदले में बाँट दिया, जिसे जाग़ीर कहते हैं।

नए सिक्कों का प्रयोग

महाल को (जिसका कर राजकोष में जाता है, खालसा नाम देकर) जिसकी आय एक करोड़ दाम थी, (जो बारह महीने के ठीके पर दिया जाता था। एक लाख दाम का ढाई हज़ार रुपया होता था। फ़सलों की उपज पर भी बहुत कुछ ध्यान रखा जाता था।) एक योग्य मनुष्य के प्रबन्ध में देकर उसका करोड़ी नाम रखा। उगाहने के लिए एक सौ पाँच रुपया ठीक रखा। पहले पैसे के सिवाय और कोई सिक्का नहीं था और सरदारों, राजदूतों और कवियों को पुरस्कार देने के लिए पैसे भर चाँदी में ताँबा मिला कर सिक्का बनाते थे और चाँदी का तनका नाम देकर काम में लाते थे। राजा टोडरमल ने बेमिलावट के ग्यारह माशे सोने की अशरफ़ी और साढ़े ग्यारह माशे चाँदी का रुपया ढलवाया। इस नई बात का पता इसी से अधिक लगता है कि उस पर संवत दिया है।

फ़ारसी भाषा का ज्ञान

वस्तुतः अकबर बादशाह का स्वभाव (राज्य और संसार पालन को जड़ है।) हर एक काम की इच्छा रखता था और गुणों तथा कारीगरियों को ठीक करता था। उसके सुप्रकाशित समय में (संतों देशों के बुद्धिमान और विद्वान एकत्र थे) हर एक बुद्धिमान सरदार अपनी बुद्धि और विद्या की पहुँच से अपने अधीनस्थ कार्यों में किसी नई बात और लाभकारी का अन्वेषण करता था तो वह बादशाही कृपा का पात्र होता था। यहाँ तक की कारीगर और विद्वान लोग अपने–अपने कार्य में उन्नति कर के पुरस्कार पाते थे[९]। जब बादशाह स्वयं बुद्धिमान होता है, तब और विद्वानों को भी वैसा ही बना लेता है।

राजा टोडरमल की संतान

राजा टोडरमल के कई लड़के[१०] थे और सबसे बड़े का नाम धारू था। अकबर के समय में सात सौ सवार का मनसब मिला था। ठट्टा के युद्ध में ख़ानख़ानाँ के साथ बड़ी वीरता दिखलाकर मारा गया। कहते हैं कि घोड़ों की नाल सोने और चाँदी की बँधवाता था।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अकबर की सेवा में आने से पहले टोडरमल शेरशाह की नौकरी कर चुके थे। 'तारीख़े–ख़ानेजहाँ लोदी' में लिखा है कि शेरशाह ने टोडरमल को दुर्ग रोहतास बनवाने पर नियुक्त किया था; पर गक्खर जाति एका करके किसी के भी काम में बाधा डालती रही। टोडरमल ने जब यह वृत्तान्त शेरशाह से कहा, तब उसने उत्तर दिया कि धन के लोभी बादशाहों की आज्ञा पूरी नहीं कर सकते। इस पर उन्होंने एक–एक पत्थर होने की एक–एक अशरफ़ी मजदूरी लगा दी जिस पर इतनी भीड़ हुई कि आप से आप मजदूरी अपने भाव पर आ लगी। जब दुर्ग तैयार हो गया तब शेरशाह ने उनकी बहुत प्रशंसा की थी।
  2. अकबर के राज्य के 9वें वर्ष सन 1564 ई0 में टोडरमल ने मुजफ़्फ़र ख़ाँ की अधीनता में कार्य आरम्भ किया था तथा इसके दूसरे वर्ष अलीकुली ख़ाँ ख़ानेजमाँ के विद्रोह करने पर यह मीर मुईजुलमुल्क के सहायतार्थ लश्कर ख़ाँ मीरबख्श के साथ लेकर गए थे। युद्ध में बादशाही सेना परास्त हुई और ख़ानेजमाँ का भाई बहादुर ख़ाँ विजयी हुआ। - 'बदायूँनी' भाग 2, पृ0 80-81 और 'तबफाते-अकबरी', इलि0 डा0, भाग 5, पृ0 303-4)।
  3. बदायूनी भाग 2, पृ0 144 में लिखता है कि इनकी राय में वह अजेय नहीं था और उसके जीतने के लिए बादशाह के वहाँ जाने की भी आवश्यकता नहीं थी। अठारहवें वर्ष के आरम्भ में टोडरमल पंजाब भेजे गए कि वहाँ के प्रबन्ध में अपने अनुभव से सूबेदार हुसैन कुली ख़ाँ ख़ानेजहाँ की सहायता पहुँचावें। इसके बाद से मआसिरुलउमरा में टोडरमल का जीवनवृन्त आरम्भ होता है।
  4. तबकाते अकबरी (इलि0 डाउ0, भा0 5, पृ0 372-390) विस्तृत विवरण दिया हुआ है।
  5. तबकात में लिखा है कि 22वें वर्ष के अन्त में 500 हाथी लेकर दरबार में आए थे। इलि0 डा0, भाग 5, पृ0 402।
  6. अहमदाबाद से बारह कोस पर घोलका स्थान में युद्ध हुआ था।
  7. 26वें वर्ष में जब मुजफ़्फ़र ख़ाँ की कड़ाई से बादशाही सरदार भी विद्रोहियों से मिल गए तथा उसकी मृत्यु पर बिहार तथा बंगाल के बहुत भाग पर अधिकार भी कर लिया, जब टोडरमल वहाँ पर शान्ति स्थापित करने के लिए भेजे गए। मासूम काबूली, काकशाल सरदारों तथा मिर्जा शहफ़ुद्दीन हुसैन ने 30,000 सेना के साथ इन्हें मुंगेर में घेर लिया। हुमायूँ की फ़र्माली और तर्खान दीवानः बलवाइयों से मिल गए। सामान की भी कमी थी। पर सब कष्ट सहने करते हुए तथा बादशाही सरदारों को, जो कि विद्रोही हो गए थे, शान्त कर मिलाते हुए टोडरमल ने अन्त में वहाँ पर शान्ति स्थापित की। - ब्लोकमैन, आईने अकबरी, पृ0 351-2, इलि0 डा0, भा0 5, पृ0 414-421)
  8. यह अंशतः अकबर नामे से लिया गया है। (अकबरनामा, इलि0 डा0, भा0 6, पृ0 61-65)
  9. पहले तहसील के काग़ज पत्र हिन्दी में रहते थे और हिन्दू लेखकगण ही लिखते–पढ़ते थे; पर इन्हीं टोडरमल के प्रस्ताव पर सब काम फ़ारसी में होने लगा और तब हिन्दुओं ने भी फ़ारसी भाषा का अध्ययन किया। कुछ ही दिनों में ऐसी योग्यता प्राप्त कर ली कि वे मुसलमानों के फ़ारसी भाषा के उस्ताद बन बैठे थे
  10. इसके एक दूसरे लड़के का नाम गोवर्धन था, जिसे बादशाह ने अवर बहादुर का पीछा करने भेजा था, जो बंगाल से परास्त होकर जौनपुर चला आया था। जब उसने उसे लड़ाई में हरा दिया, तब वह पहाड़ों में भाग गया। (मआसिरुल उमरा, अंग्रेज़ी पृ0 267)

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