तक्षशिला

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तक्षशिला / Taxila / Takshashila

तक्षशिला (ज़िला रावलपिंडी, पाकिस्तान)

गंधर्वदेश

गांधार देश की राजधानी। वाल्मीकि रामायण के अनुसार गंधर्वदेश (जो गंधार विषय के अंतर्गत था) पर भरत ने अपने मामा युधाजित् के कहने से चढ़ाई करके गंधर्वों को हराया था और इस देश के पूर्वी और पश्चिम भागों में तक्षशिला और पुष्कलावती(पुष्कलावत) नामक नगरों को क्रमश: अपने पुत्र तक्ष और पुष्कल के नाम पर बसाया था।<balloon title="'तक्षं तक्षशिलायां तु पुष्कलं पुष्कलावते, गंधर्व देशे रूचिरे गांधार विषये ये च स: वाल्मीकि0 उत्तर0 101-11 " style="color:blue">*</balloon> कालिदास ने रघुवंश 15,89 में भी इसी तथ्य का उल्लेख किया है।<balloon title="'स तक्षपुष्कलौ पुत्रौ राजधान्यौ तदाख्ययौ, अभिषिच्याभिषेकार्ही रामान्तिकमगात् पुन:।' " style="color:blue">*</balloon> तक्षशिला का वर्णन महाभारत में, परीक्षित के पुत्र जनमेजय द्वारा विजित नगरी के रूप में है। यहीं जनमेजय ने प्रसिद्ध सर्पयज्ञ किया था। छठी शती ई॰पू0 के पूर्व पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में भी तक्षशिला का उल्लेख किया है। बौद्धसाहित्य, विशेष कर जातकों में तक्षशिला का अनेक बार उल्लेख है।

चाणक्य

तेलपत्त और सुसीमजातक में तक्षशिला को काशी से 2000 कोस दूर बताया गया हे। जातकों में<balloon title="उद्यालक तथा सेतकेतु जातक" style="color:blue">*</balloon> तक्षशिला के महाविद्यालय की भी अनेक बार चर्चा हुई है। यहां अध्ययन करने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे। भारत के ज्ञात इतिहास का यह सर्वप्राचीन विश्वविद्यालय था। यहां, बुद्धकाल में कोसल-नरेश प्रसेनजित्, कुशीनगर का बंधुलमल्ल, वैशाली का महाली, मगधनरेश बिंबिसार का प्रसिद्ध राजवैद्य जीवक, एक अन्य चिकित्सक कौमारभृत्य तथा परवर्ती काल में चाणक्य तथा वसुबंधु इसी जगत् प्रसिद्ध महाविद्यालय के छात्र रहे थे। इस विश्वविद्यालय में राजा और रंक सभी विद्यार्थियों के साथ समान व्यवहार होता था। जातक कथाओं से यह भी ज्ञात होता है कि तक्षशिला में धनुर्वेद तथा वैद्यक तथा अन्य विद्याओं की ऊंची शिक्षा दी जाती थी।

Blockquote-open.gif तक्षशिला भारत का एक प्राचीन और महत्वपूर्ण विद्या केन्द्र तथा गांधार प्रान्त की राजधानी है। रामायण में इसे भरत द्वारा राजकुमार तक्ष के नाम पर स्थापित बताया गया है, जो यहाँ का शासक नियुक्त किया गया था। जनमेजय का सर्पयज्ञ भी इसी स्थान पर हुआ था । Blockquote-close.gif

विद्यार्थी सोलह-सत्रह वर्ष की अवस्था में यहां शिक्षा के लिए प्रवेश करते थे। एक शिक्षक के नियंत्रण में बीस या पच्चीस विद्यार्थी रहते थे। शिक्षकों का निरीक्षक दिशाप्रमुख आचार्य (दिसापामोक्खाचारियां) कहलाता था। काशी के एक राजकुमार का भी तक्षशिला में जाकर अध्ययन करने का उल्लेख एक जातक कथा में है। कुंभकारजातक में नग्नजित् नामक राजा की राजधानी तक्षशिला में बताई गई है। अलक्ष्येन्द्र के भारत पर आक्रमण करने के समय यहां का राजा आंभी (omphis) था जिसने अलक्षेंद्र को पुरू के विरूद्ध सहायता दी थी। महावंशटीका में अर्थशास्त्र के प्रसिद्ध रचयिता चाणक्य को तक्षशिला का निवासी बताया गया है। चाणक्य ने प्राचीन अर्थशास्त्रों की परंपरा में आंभीय के अर्थशास्त्र की चर्चा की है,<balloon title="टामस-बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र-भूमिका पृ0 15" style="color:blue">*</balloon> चाणक्य स्वयं भी तक्षशिला विद्यालय में आचार्य रहे थे। उन्होने अपने परिष्कृत एवं विकसित मस्तिष्क द्वारा भारत की तत्कालीन राजनैतिक दुरवस्था को पहचाना तथा उसके प्रतीकार के लिए महान प्रयत्न किया जिसके फलस्वरूप विशाल मौर्य-साम्राज्य की स्थापना हुई। बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय धनुर्विद्या तथा वैद्यक की शिक्षा के लिए तत्कालीन सभ्य संसार में प्रसिद्ध था। जैसा ऊपर कहा गया है।, गौतम बुद्ध के समकालीन मगध-सम्राट् बिंबसार का राजवैद्य जीवक इसी महाविद्यालय का रत्न था।

अशोक और कुणाल

तक्षशिला का प्रदेश अतिप्राचीन काल से ही विदेशियों द्वारा आकान्त होता रहा है। ईरान के सम्राट् दारा के 520 ई॰पू0 के अभिलेख में पंजाब के पश्चिमी भाग पर उसकी विजय का वर्णन है। यदि यह तथ्य हो तो तक्षशिला भी इस काल में ईरान के अधीन रही होगी। पाणिनि ने 4,3,93 में तक्षशिला का उल्लेख किया है। अलक्षेंद्र के इतिहासलेखकों के अनुसार 327 ई॰ पू0 में इस देश के निवासी सुखी तथा समृद्ध थे। लगभग 320 ई॰पू0 में उत्तरी भारत के अन्य सभी क्षुद्र राज्यों के साथ ही तक्षशिला भी चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित साम्राज्य में विलीन हो गयी। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार बिंदुसार के शासनकाल में तक्षशिला के निवासियों ने विद्रोह किया किंतु इस प्रदेश के प्रशासक अशोक ने उस विद्रोह को शांतिपूर्वक दबा दिया। अशोक के राज्य-काल में तक्षशिला उत्तरापथ की राजधानी थी। कुणाल की करूणाजनक कहानी की घटनास्थली तक्षशिला ही थी, जिसका स्मारक कुणालस्तूप आज भी यहाँ विद्यामान है।

अशोक के पश्चात उत्तर-पश्चिमी भारत में बहुत समय तक राजनैतिक अस्थिरता रही। बैक्ट्रिया या बल्ख के यूनानियों (232-100 ई॰पू0) तथा शक या सिथियनों (प्रथम शती ई॰) तथा तत्पश्चात पार्थियनों और कुषाणों ने तीसरी शती ई॰ तक तक्षशिला तथा पार्श्ववर्ती प्रदेशों पर राज्य किया। चौथी शती ई॰ में तक्षशिला गुप्त सम्राटों के प्रभावक्षेत्र में रही किंतु पांचवी शती ई॰ में होने वाले बर्बर हूणों के आक्रमणों ने तक्षशिला की सारी प्राचीन समृद्धि और सभ्यता को नष्ट कर दिया। सातवीं शती ई॰ के तृतीय दशक में चीनी यात्री युवानच्वांग ने तक्षशिला को उजड़ा पाया था। उसके लेख के अनुसार उस समय तक्षशिला कश्मीर का एक करद राज्य था। इसके पश्चात तक्षशिला का अगले 1200 वर्षों का इतिहास विस्मृति के अंधकार में विलीन हो जाता है।

खंडहरों की खोज

1863 ई॰ में जनरल कनिंघम ने तक्षशिला को यहां के खंडहरों की जांच करके खोज निकाला। तत्पश्चात 1912 से 1929 तक, सर जोन मार्शल ने इस स्थान पर विस्तृत खुदाई की और प्रचुर तथा मूल्यवान् सामग्री का उद्घाटन करके इस नगरी के प्राचीन वैभव तथा ऐश्वर्य की क्षीण झलक इतिहासप्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत की। उत्खनन से तक्षशिला में तीन प्राचीन नगरों के ध्वंसावशेष प्राप्त हुए हैं, जिनके वर्तमान नाम भीर का टीला, सिरकप तथा सिरसुख हैं। सबसे पुराना नगर भीर के टीले के आस्थान पर था। कहा जाता है कि यह पूर्व बुद्ध-कालीन नगर था यहां तक्षशिला का प्रख्यात विश्वविद्यालय स्थित था। सिरकप के चारों ओर परकोटे की दीवार थी। यहां के खंडहरों से अनेक बहुमूल्य रत्न तथा आभूषण प्राप्त हुए। जिनसे इस नगरी के इस भाग की जो कुशान राज्यकाल में पूर्व का है, समृद्धि का पता चलता है। सिरसुख जो संभवत: कुशान राजाओं के समय की तक्षशिला है, एक चौकोर नक्शे पर बना हुआ था। इन तीन नगरों के खंडहरों के अतिरिक्त, तक्षशिला के भग्नावशेषों में अनेक बौद्धबिहारों की नष्ट-भ्रष्ट इमारतें और कई स्तूप हैं जिनमें कुणाल, धर्मरालिक और भल्लार मुख्य हैं। इनसे बौद्धकाल में, इस नगरी का बौद्धधर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र होना प्रमाणित होता है। तक्षशिला प्राचीन काल में जैनों की भी तीर्थस्थली थी। पुरातन प्रबंधसंग्रह नामक ग्रंथ में (पृ0 107) तक्षशिला के अंतर्गत 105 जैन-तीर्थ बताए गए हैं। इसी नगरी को संभवत: तीर्थमाला चैत्यवंदन में धर्मचक्र कहा गया है (दे0 एंशेंट जैन हिम्स, पृ055)

अन्य संदर्भ

तक्ष नाम के राजा (जिसे तक्ष खण्ड भी कहा गया है) से तक्षशिला नाम हुआ । जिसका संस्कृत अर्थ होता है "राजा तक्ष के लिए " रामायण के अनुसार तक्ष, भरत और माण्डवी का पुत्र था । ईसा पूर्व 5वीं शती में तक्षशिला मुख्य शिक्षा केन्द्र बन चुका था । इसके विश्वविद्यालय होने पर कुछ विवाद हैं, जो कि नालन्दा विश्वविद्यालय को लेकर नहीं है जिसका स्वरूप आधुनिक विश्वविद्यालय की तरह ही माना जाता हैं । 5वीं शताब्दी की जातक कथाओ में भी इसका उल्लेख है । तक्षशिला की प्रसिद्धि महान अर्थशास्त्री चाणक्य (विष्णुगुप्त) के कारण भी है जो कि यहाँ प्राध्यापक था । और जिसने चन्द्रगुप्त के साथ मिलके मौर्य साम्राज्य की नींव डाली । आयुर्वेद के महान विद्वान चरक ने भी तक्षशिला में ही शिक्षा ग्रहण की थी । पाटलिपुत्र से तक्षशिला जाने वाला मुख्य व्यापारिक मार्ग मथुरा से गुजरता था । बौद्ध धर्म की महायान शाखा का विकास तक्षशिला विश्वविद्यालय में ही होने के उल्लेख मिलते है ।


तक्षशिला-बृहत्तर भारत का एक प्राचीन और महत्वपूर्ण विद्या केन्द्र तथा गन्धार प्रान्त की राजधानी। रामायण में इसे भरत द्वारा राजकुमार तक्ष के नाम पर स्थापित बताया गया है, जो यहाँ का शासक नियुक्त किया गया था। जनमेजय का सर्पयज्ञ इसी स्थान पर हुआ था (महाभारत 1.3.20) महाभारत अथवा रामायण में इसके विद्याकेन्द्र होने की चर्चा नहीं है, किन्तु ई॰पू0 सप्तम शताब्दी में यह स्थान विद्यापीठ के रूप में पूर्ण रूप से प्रसिद्ध हो चुका था तथा राजगृह, काशी एवं मिथिला के विद्वानों के आकर्षण का केन्द बन गया था। सिकन्दर के आक्रमण के समय यह विद्यापीठ अपने दार्शनिकों के लिए प्रसिद्ध था।

कोसल के राजा प्रसेनजिन् के पुत्र तथा बिम्बिसार के राजवैद्य जीवक ने तक्षशिला में ही शिला पायी थी। कुरू तथा कोसलराज्य निश्चित सख्या में यहाँ प्रति वर्ष छात्रों को भेजते थे। तक्षशिला के एक धन:शास्त्र के विद्यालय में भारत के विभिन्न भागों से सैकड़ों राजकुमार युद्धविद्या सीखने आते थे। पाणिनि भी इसी विद्यालय के छात्र रहे होंगे। जातकों में यहाँ पढ़ाये जाने वाले विषयों में वेदत्रयी एवं अठारह कलाओं एवं शिल्पों का वर्णन मिलता है। सातवीं शती में जब ह्वेनसाँग इधर भ्रमण करने आया तब इसका गौरव समाप्त प्राय था। फ़ाह्यान को भी यहाँ कोई शैक्षणिक महत्त्व की बात नहीं प्राप्त हुई थी। वास्तव में इसकी शिक्षा विषयक चर्चा मौर्य काल के बाद नहीं सुनी जाती। सम्भवत: बर्बर विदेशियों के आक्रमणों ने इसे नष्ट कर दिया, संरक्षण देना तो दूर की बात थी।