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==तानसेन / Tansen==
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== तानसेन / Tansen ==
संगीत सम्राट तानसेन की नगरी [[ ग्वालियर]] के लिए कहावत प्रसिध्द है कि यहां बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुड़कते है तो ताल में । इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढकर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपारि हैं ।  
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==शिक्षा दीक्षा==
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[[Image:Akbar-Tansen-Haridas.jpg|thumb|250px]] संगीत सम्राट तानसेन की नगरी [[ग्वालियर]] के लिए कहावत प्रसिध्द है कि यहां बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुड़कते है तो ताल में । इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढकर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपारि हैं ।  
ग्वालियर से लगभग 45 कि.मी. दूर ग्राम बेहट में श्री मकरंद पांडे के यहां तानसेन का जन्म [[ग्वालियर]] के तत्कालीन प्रसिध्द फकीर हजरत [[मुहम्मद गौस]] के वरदान स्वरूप हुआ था । कहते है कि श्री मकरंद पांडे के कई संताने हुई, लेकिन एक पर एक अकाल ही काल कवलित होती चली गई । इससे निराश और व्यथित श्री मकरंद पांडे सूफी संत मुहम्मद गौस की शरण में गये और उनकी दुआ से सन् 1486 में तन्ना उर्फ तनसुख उर्फ त्रिलोचन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर तानसेन के नाम से विख्यात हुआ । तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा [[मानसिंह तोमर]] का शासन था । उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहां पर [[बैजूबावरा]], कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे, और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की [[ध्रुपद]] गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था । तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई । राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहां के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी । तब तानसेन भी [[वृंदावन]] चले गये और वहां उन्होनें [[स्वामी हरिदास]] जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की । संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत तानसेन [[शेरशाह सूरी]] के पुत्र दौलत खां के आश्रय में रहे और फिर बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र के दरबारी गायक नियुक्त हुए । मुगल सम्राट [[अकबर]] ने उनके गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया ।
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==अकबर के नवरत्न==  
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== शिक्षा दीक्षा ==
अकबर के नवरत्नों तथा मुगलकालीन संगीतकारों में तानसेन का नाम परम-प्रसिद्ध है। यद्धपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परन्तु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय हैं। तानसेन अकबर के नवरत्नों में से एक थे । एक बार अकबर ने उनसे कहा कि वो उनके गुरु का संगीत सुनना चाहते हैं । गुरु हरिदास तो अकबर के दरबार में आ नहीं सकते थे । लिहाजा इसी निधि वन में अकबर हरिदास का संगीत सुनने आए । हरिदास ने उन्हें कृष्ण भक्ति के कुछ भजन सुनाए थे । अकबर हरिदास से इतने प्रभावित हुए कि वापस जाकर उन्होंने तानसेन से अकेले में कहा कि आप तो अपने गुरु की तुलना में कहीं आस-पास भी नहीं है । फिर तानसेन ने जवाब दिया कि जहांपनाह हम इस जमीन के बादशाह के लिए गाते हैं और हमारे गुरु इस ब्रह्मांड के बादशाह के लिए गाते हैं तो फर्क तो होगा न ।
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==रचनायें==
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ग्वालियर से लगभग 45 कि.मी. दूर ग्राम बेहट में श्री मकरंद पांडे के यहां तानसेन का जन्म [[ग्वालियर]] के तत्कालीन प्रसिध्द फकीर हजरत [[मुहम्मद गौस]] के वरदान स्वरूप हुआ था । कहते है कि श्री मकरंद पांडे के कई संताने हुई, लेकिन एक पर एक अकाल ही काल कवलित होती चली गई । इससे निराश और व्यथित श्री मकरंद पांडे सूफी संत मुहम्मद गौस की शरण में गये और उनकी दुआ से सन् 1486 में तन्ना उर्फ तनसुख उर्फ त्रिलोचन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर तानसेन के नाम से विख्यात हुआ । तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा [[मानसिंह तोमर]] का शासन था । उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहां पर [[बैजूबावरा]], कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे, और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की [[ध्रुपद]] गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था । तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई । राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहां के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी । तब तानसेन भी [[वृंदावन]] चले गये और वहां उन्होनें [[स्वामी हरिदास]] जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की । संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत तानसेन [[शेरशाह सूरी]] के पुत्र दौलत खां के आश्रय में रहे और फिर बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र के दरबारी गायक नियुक्त हुए । मुगल सम्राट [[अकबर]] ने उनके गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया ।  
तानसेन के नाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ का कहना है कि 'तानसेन' उनका नाम नहीं, उनकों मिली उपाधि थी। तानसेन मौलिक कलाकार थे। वे स्वर-ताल में गीतों की रचना भी करते थे। तानसेन के तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है-  
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== अकबर के नवरत्न ==
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अकबर के नवरत्नों तथा मुगलकालीन संगीतकारों में तानसेन का नाम परम-प्रसिद्ध है। यद्धपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परन्तु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय हैं। तानसेन अकबर के नवरत्नों में से एक थे । एक बार अकबर ने उनसे कहा कि वो उनके गुरु का संगीत सुनना चाहते हैं । गुरु हरिदास तो अकबर के दरबार में आ नहीं सकते थे । लिहाजा इसी निधि वन में अकबर हरिदास का संगीत सुनने आए । हरिदास ने उन्हें कृष्ण भक्ति के कुछ भजन सुनाए थे । अकबर हरिदास से इतने प्रभावित हुए कि वापस जाकर उन्होंने तानसेन से अकेले में कहा कि आप तो अपने गुरु की तुलना में कहीं आस-पास भी नहीं है । फिर तानसेन ने जवाब दिया कि जहांपनाह हम इस <span style="background-color: navy; color: white; " />ज़मीन के बादशाह के लिए गाते हैं और हमारे गुरु इस ब्रह्मांड के बादशाह के लिए गाते हैं तो फर्क तो होगा न ।  
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तानसेन के नाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ का कहना है कि 'तानसेन' उनका नाम नहीं, उनकों मिली उपाधि थी। तानसेन मौलिक कलाकार थे। वे स्वर-ताल में गीतों की रचना भी करते थे। तानसेन के तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है-  
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#'श्रीगणेश स्तोत्र'।
भारतीय संगीत के इतिहास में ध्रुपदकार के रूप में तानसेन का नाम सदैव अमर रहेगा। इसके साथ ही ब्रजभाषा के पद साहित्य का संगीत के साथ जो अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके सन्दर्भ में भी तानसेन चिरस्मरणीय रहेंगे।
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भारतीय संगीत के इतिहास में ध्रुपदकार के रूप में तानसेन का नाम सदैव अमर रहेगा। इसके साथ ही ब्रजभाषा के पद साहित्य का संगीत के साथ जो अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके सन्दर्भ में भी तानसेन चिरस्मरणीय रहेंगे।  
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(सहायक ग्रन्थ-
 
 
#संगीतसम्राट तानसेन (जीवनी और रचनाएँ): प्रभुदयाल मीतल, साहित्य संस्थान, मथुरा;  
 
#संगीतसम्राट तानसेन (जीवनी और रचनाएँ): प्रभुदयाल मीतल, साहित्य संस्थान, मथुरा;  
 
#हिन्दी साहित्य का इतिहास: पं0 रामचन्द्र शुक्ल:  
 
#हिन्दी साहित्य का इतिहास: पं0 रामचन्द्र शुक्ल:  
 
#अकबरी दरबार के हिन्दी कबि: डा0 सरयू प्रसाद अग्रवाल।)
 
#अकबरी दरबार के हिन्दी कबि: डा0 सरयू प्रसाद अग्रवाल।)
  
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११:५२, १७ दिसम्बर २००९ का अवतरण


तानसेन / Tansen

Akbar-Tansen-Haridas.jpg

संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिध्द है कि यहां बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुड़कते है तो ताल में । इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढकर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपारि हैं ।

शिक्षा दीक्षा

ग्वालियर से लगभग 45 कि.मी. दूर ग्राम बेहट में श्री मकरंद पांडे के यहां तानसेन का जन्म ग्वालियर के तत्कालीन प्रसिध्द फकीर हजरत मुहम्मद गौस के वरदान स्वरूप हुआ था । कहते है कि श्री मकरंद पांडे के कई संताने हुई, लेकिन एक पर एक अकाल ही काल कवलित होती चली गई । इससे निराश और व्यथित श्री मकरंद पांडे सूफी संत मुहम्मद गौस की शरण में गये और उनकी दुआ से सन् 1486 में तन्ना उर्फ तनसुख उर्फ त्रिलोचन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर तानसेन के नाम से विख्यात हुआ । तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था । उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहां पर बैजूबावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे, और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था । तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई । राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहां के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी । तब तानसेन भी वृंदावन चले गये और वहां उन्होनें स्वामी हरिदास जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की । संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत तानसेन शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खां के आश्रय में रहे और फिर बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र के दरबारी गायक नियुक्त हुए । मुगल सम्राट अकबर ने उनके गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया ।

अकबर के नवरत्न

अकबर के नवरत्नों तथा मुगलकालीन संगीतकारों में तानसेन का नाम परम-प्रसिद्ध है। यद्धपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परन्तु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय हैं। तानसेन अकबर के नवरत्नों में से एक थे । एक बार अकबर ने उनसे कहा कि वो उनके गुरु का संगीत सुनना चाहते हैं । गुरु हरिदास तो अकबर के दरबार में आ नहीं सकते थे । लिहाजा इसी निधि वन में अकबर हरिदास का संगीत सुनने आए । हरिदास ने उन्हें कृष्ण भक्ति के कुछ भजन सुनाए थे । अकबर हरिदास से इतने प्रभावित हुए कि वापस जाकर उन्होंने तानसेन से अकेले में कहा कि आप तो अपने गुरु की तुलना में कहीं आस-पास भी नहीं है । फिर तानसेन ने जवाब दिया कि जहांपनाह हम इस ज़मीन के बादशाह के लिए गाते हैं और हमारे गुरु इस ब्रह्मांड के बादशाह के लिए गाते हैं तो फर्क तो होगा न ।

रचनायें

तानसेन के नाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ का कहना है कि 'तानसेन' उनका नाम नहीं, उनकों मिली उपाधि थी। तानसेन मौलिक कलाकार थे। वे स्वर-ताल में गीतों की रचना भी करते थे। तानसेन के तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है-

  1. 'संगीतसार',
  2. 'रागमाला' और
  3. 'श्रीगणेश स्तोत्र'।

भारतीय संगीत के इतिहास में ध्रुपदकार के रूप में तानसेन का नाम सदैव अमर रहेगा। इसके साथ ही ब्रजभाषा के पद साहित्य का संगीत के साथ जो अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके सन्दर्भ में भी तानसेन चिरस्मरणीय रहेंगे।


टीका-टिप्पणी

(सहायक ग्रन्थ- 
  1. संगीतसम्राट तानसेन (जीवनी और रचनाएँ): प्रभुदयाल मीतल, साहित्य संस्थान, मथुरा;
  2. हिन्दी साहित्य का इतिहास: पं0 रामचन्द्र शुक्ल:
  3. अकबरी दरबार के हिन्दी कबि: डा0 सरयू प्रसाद अग्रवाल।)