दयानंद सरस्वती

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दयानन्द सरस्वती

आर्यसमाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी संन्यासी थे। जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्रह्मसमाज के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की मथुरापुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक संन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वात्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह संन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।


1824 ई0 में इनका जन्म काठियावाड़ में एक शैव ब्राह्मणकुल में हुआ। इनका शैशव काल में मूलशंकर नाम था। ये बड़े मेधावी और होनहार थे। ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। भारत में घूम घूमकर खूब अध्ययन किया, बहुत काल तक हिमालय में रहकर योगाभ्यास एवं घोर तपस्या की, संन्यासाश्रम ग्रहण करके 'दयानन्द सरस्वती' नाम धारण किया। अन्त में मथुरा आकर प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द से सांग वेदाध्ययन किया। गुरूदक्षिणा में उनसे वेद प्रचार, मूर्तिपूजा खण्डन आदि की प्रतिज्ञा की ओर उसे पूरा करने को निकल पड़े। प्रतिज्ञा तो व्याज मात्र थी, हृदय में लगन बचपन से लग रही थी। स्वामीजी ने सारे भारत में वेद-शास्त्रों के प्रचार की धूम मचा दी। ब्रह्मसमाज एवं ब्रह्मविद्यासमाज (थियोसोफिकल सोसायटी) दोनों को परखा। किसी में वह बात न पायी जिसे वे चाहते थे।


1863 से 1875 ई0 तक स्वामी जी देश का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करते रहें। उन्होंने वेदों के प्रचार का वीणा उठाया और इस काम को पूरा करने के लिए 7 अप्रैल 1875 ई0 को 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की। शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गईं। देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिंदू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद मुं विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिंदू को हिंदू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।


स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिंदी भाषा को अपनाया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिंदी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था-"मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।" स्वामी जी धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे। अत: कुछ लोग उनसे शत्रुता भी करने लगे। इन्हीं में से किसी ने 1883 ई0 में दूध में कांच पीसकर पिला दया जिससे आपका देहांत हो गया। आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।