धनशिंगा

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धनशिंगा / Dhanshinga

उमराओ गाँव के पास ही धनशिंगा गाँव है । धनशिंगा धनिष्ठा सखी का गाँव है । धनिष्ठाजी कृष्णपक्षीय सखी है । ये सदैव यशोदा जी के घर में विविध प्रकार सेवाओं में नियुक्त रहती है। । विशेषत: दूती का कार्य करती हुई कृष्ण से राधिका जी को मिलाती है ।

कोसी या कुशस्थली

मथुरा-दिल्ली राजमार्ग पर, मथुरा से लगभग 38 मील और छत्रवन (छाता) से लगभग 10 मील की दूरी पर यह स्थित है । यहाँ कृष्ण ने नन्द बाबा को कुशस्थली का (द्वारका धाम)दर्शन कराया था । जहाँ द्वारकाधाम का दर्शन कराया था, वहाँ गोमती कुण्ड है, जो गाँव के पश्चिम में विराजमान है । यहाँ किसी समय राधिका ने विशेष भंगिमा के द्वारा कृष्ण से पूछा था- कोऽसि ? तुम कौन हो ? इसीलिए इस स्थान का नाम कोऽसिकोसीवन है ।

प्रसंग किसी समय श्रीकृष्ण राधिका से मिलने के लिए बड़े उत्कण्ठित होकर राधिका के भवन के कपाट को खट-खटा रहे थे । भीतर से राधिका ने पूछा-कोऽसि ?

श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया –मैं कृष्ण हूँ ।

राधिका- (कृष्ण शब्द का एक अर्थ काला नाग भी होता है) यदि तुम कृष्ण अर्थात काले नाग हो तो तुम्हारी यहाँ क्या आवश्यकता है ? क्या मुझे डँसना चाहते हो? तुम वन में जाओ । यहाँ तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं ।

श्रीकृष्ण-नहीं प्रियतमे ! मैं घनश्याम हूँ ।

राधिका- (घनश्याम अर्थ काला बादल ग्रहणकर) यदि तुम घनश्याम हो तो तुम्हारी यहाँ आवश्यकता नहीं है । यहाँ बरस कर मेरे आगंन में कीचड़ मत करो । तुम वन और खेतों में जाकर वहीं बरसो ।

श्रीकृष्ण- प्रियतमे ! मैं चक्री हूँ ।

राधिका- यहाँ(चक्री शब्द का अर्थ कुलाल अथवा मिट्टी के बर्तन बनाने वाला) कोई विवाह उत्सव नहीं है । जहाँ विवाह-उत्सव इत्यादि हों वहाँ तुम अपने मिट्टी के बर्तनों को लेकर जाओ ।

श्रीकृष्ण- प्रियतमे ! मैं मधुसूदन हूँ ।

राधिका- (मधुसूदन का दूसरा अर्थ भ्रमर ग्रहणकर) यदि तुम मधुसूदन (भ्रमर) हो तो शीघ्र ही यहाँ से दूर कहीं पुष्पोद्यान में पुष्पों के ऊपर बैठकर उनका रसपान करो । यहाँ पर पुष्पाद्यान नहीं है ।

श्रीकृष्ण-अरे ! मैं तुम्हारा प्रियतम हरि हूँ ।

राधिका ने हँसकर कहा- (हरि शब्द का अर्थ बन्दर या सिंह ग्रहणकर) यहाँ बन्दरों और सिंहों की क्या आवश्यकता है ? क्या तुम मुझे नोचना चाहते हो ? तुम शीघ्र किसी गम्भीर वन में भाग जाओ । हम बन्दरों और सिंहों से डरती हैं ।

इस प्रकार राधिका प्रियतम हरि से नाना प्रकार का हास-परिहास करती हैं । वे हम पर प्रसन्न हों । इस हास-परिहास की लीलाभूमि को कोसीवन कहते हैं ।

रणवाड़ी

आरबाड़ी से एक मील उत्तर और छाता से तीन मील दक्षिण-पश्चिम में रणवाड़ी गाँव स्थित है । नन्दनन्दन श्रीकृष्ण साक्षात-मन्मथ-मन्मथ हैं । राधिकाजी महाभाव की साक्षात मूर्ति स्वरूपा है कृष्ण के काम को पूर्ण करना ही उनका कार्य है एक दूसरे को आनन्दित करने के लिए यहाँ दोनों विविध प्रकार की केलिद्वारा स्मरयुद्ध में संलग्न रहते हैं । रणवाड़ी का तात्पर्य स्मरविलास या विविध प्रकार के क्रीड़ाविलास के स्थान से है ।

प्रसंग

आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले यहाँ कृष्णदास नामक बंगाली बाबा भजन करते थे । एक समय इनके मन में भारत के तीर्थों का दर्शन करने की उत्कट अभिलाषा हुई । संयोगवश यहाँ के कोई ब्राह्मण द्वारिका जा रहे थे। उन्होंने कृष्णदास बाबा से अपने साथ चलने के लिए आग्रह किया । इनके मन में पहले से ही कुछ ऐसी ही लालसा थी, अत: ये भी द्वारका जाने के लिए प्रस्तुत हो गये । दोनों बहुत-से तीर्थों का दर्शन करते हुए अंत में द्वारका धाम पहुँचे । द्वारका में प्रवेश करने के लिए तप्तमुद्र-(तपाये हुए चक्र का चिह्न) धारण करना पड़ता है । कृष्णदास बाबाजी ने भी तप्तमुद्रा धारण कर ली । फिर अन्यान्य तीर्थों का भ्रमण करते हुए रणबाड़ी में लौटे, किन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि अब उनका मन भजन में आविष्ट नहीं हो रहा था । चेष्टा करने पर भी अष्टकालीय लीलाओं का स्मरण नहीं हो पाता वे बड़े व्याकुल हो गये । वे राधाकुण्ड पर स्थित अपने मित्र सिद्ध कृष्णदास बाबाजी के पास इसका कारण जानने के लिए गये, किन्तु सिद्ध बाबाजी ने उनको देखकर अपना मुख फेर लिया और बोले आप राधिका की कृपा से वंचित हो गये हैं । आपने उनका एकान्तिक आनुगत्य छोड़कर द्वारका की तप्तमुद्रा धारण की है । इसका तात्पर्य यह है कि आपने श्रीरूक्मिणी, सत्यभामा आदि द्वारका की महिषियों का आनुगत्य स्वीकार कर लिया है । अत: इस शरीर में राधिका की कृपा असम्भव है । आप यहाँ से तुरन्त चले जाइए । अन्यथा राधिका की कृपा से मुझे भी वञ्चित होना होगा । हताश होकर ये रणबाड़ी लौट आये। अपनी भजनकुटी का कपाट बंद कर लिया तथा अन्न-जल का त्याग कर दिया । विरहाग्नि से इनके शरीर में दाह उत्पन्न हुआ । भीतर की अग्नि फूट पड़ी तथा तीन दिनों में उनकी पार्थिव देह भस्मीभूत हो गई गाँव के लोगों ने तीन दिनों के बाद भजनकुटी का कपाट तोड़ दिया । उन्होंने बाबाजी को नहीं, बल्कि उनके भस्म को ही देखा सभी लोग ठगे-से रह गये । तब से प्रतिवर्ष पौष मास की अमावस्या के दिन यहाँ के ब्रजवासी इनका तिरोभाव उत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाते है ।

नरीसेमरी

इसका शुद्ध एवं पूर्व नाम किन्नरी श्यामरी है । छाता से चार मील दक्षिण-पूर्व में सेमरी गाँव स्थित हैं । समेरी के पास ही दक्षिण दिशा में एक मील दूर नरी गाँव है । सेमरी गाँव में यूथेश्वरी श्यामला सखी का निवास था ।

प्रसंग

किसी समय मानिनी श्रीराधिका का मान भंग नहीं हो रहा था । ललिता, विशाखादि सखियों ने भी बहुत चेष्टाएँ कीं, किन्तु मान और भी अधिक बढ़ता गया । अन्त में सखियां के परामर्श से श्रीकृष्ण श्यामरी सखी बनकर वीणा बजाते हुए यहाँ आये । राधिका श्यामरी सखी का अद्भुत रूप तथा वीणा की स्वर लहरियों पर उतराव और चढ़ाव के साथ मूर्छना आदि रागों से अलंकृत संगीत को सुनकर ठगी-सी रह गई । उन्होंने पूछा-सखि ! तुम्हारा नाम क्या है ? और तुम्हारा निवास-स्थान कहाँ हैं । ? सखी बने हुए कृष्ण ने उत्तर दिया- मेरा नाम श्यामरी है । मैं स्वर्ग की किन्नरी हूँ । राधिका श्यामरी किन्नरी का वीणावाद्य एवं सुललित संगीत सुनकर अत्यन्त विह्वल हो गईं और अपने गले से रत्नों का हार श्यामरी किन्नरी के गले अर्पण करने के लिए प्रस्तुत हुई, किन्तु श्यामरी किन्नरी ने हाथ जोड़कर उनके श्रीचरणों में निवदेन किया कि आप कृपाकर अपना मान रूपी रत्न मुझे प्रदान करें । इतना सुनते ही राधिकाजी समझ गई कि ये मेरे प्रियतम ही मुझसे मान रत्न मांग रहे हैं । फिर तो प्रसन्न होकर उनसे मिलीं । सखियाँ भी उनका परस्पर मिलन कराकर अत्यन्त प्रसन्न हुई । इस मधुर लीला के कारण ही इस स्थान का नाम किन्नरी से नरी तथा श्यामरी से सेमरी हो गया है । वृन्दावनलीलमृत के अनुसार हरि शब्द के अपभ्रंश के रूप में इस गाँव का नाम नरी हुआ है ।

दूसरा प्रसंग जिस समय कृष्ण-बलदेव ब्रज छोड़कर मथुरा के लिए प्रस्थान करने लगे, अक्रूर ने उन दोनों को रथ पर चढ़ाकर बड़ी शीघ्रता से मथुरा की ओर रथ को हाँक दिया । गोपियाँ खड़ी हो गई और एकटक से रथ की ओर देखने लगी । किन्तु धीर-धीरे रथ आँखों से ओझल हो गया, धीरे-धीरे उड़ती हुई धूल भी शान्त हो गई । तब वे हा हरि ! हा हरि! कहती हुई पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ी । इस लीला की स्मृति की रक्षा के लिए महाराज वज्रनाभ ने वहाँ जो गाँव बैठाया, वह गाँव ब्रज में हरि नाम से प्रसिद्ध हुआ । धीरे-धीरे हरि शब्द का ही अपभ्रंश नरी हो गया । नरी गाँव में किशोरी कुण्ड, सक्ङर्षण कुण्ड और श्रीबलदेवजी का दर्शन है ।

खदिरवन(खायरो)

इसका वर्तमान नाम खायरो है । छाता से तीन मील दक्षिण तथा जावट ग्राम से तीन मील दक्षिण पूर्व में खायरो ग्राम स्थित है । यह कृष्ण के गोचारण का स्थान है । यहाँ संगम में कुण्ड है, जहाँ गोपियों के साथ कृष्ण का संगम अर्थात मिलन हुआ था । इसी के तट पर लोकनाथ गोस्वामी निर्जन स्थान में साधन-भजन करते थे । पास में ही कदम्बखण्डी है । यह परम मनोरम स्थल है । यहाँ कृष्ण एवं बलराम सखाओं के साथ तरह-तरह की बाल्य लीलाएँ करते थे खजूर पकने के समय कृष्ण सखाओं के साथ यहाँ गोचारण के लिए आते तथा पके हुए खजूरों को खाते थे ।

बकथरा

जावट के पास खायरो और आँजनौक के बीच में यह गाँव स्थित है । यहाँ कृष्ण ने बकासुर को मारा था । इस गाँव का नाम चिल्ली भी है । बकासुर की चोंच को पकड़कर कृष्ण ने बीच से चीर दिया था । इसलिए इस गाँव का नाम चिल्ली भी है ।

नेओछाक

यहाँ गोचारण के समय सखाओं के साथ श्रीकृष्ण दोपहर में भोजन करते थे । माँ यशोदा कृष्ण-बलदेव के लिए और अन्यान्य माताएँ अपने-अपने पुत्रों के लिए दोपहर का कलेवा भेजती थीं तथा कृष्ण बलराम क्रीड़ा-कौतुक, हास-परिहासपूर्वक उन्हें पाते थे । छाक शब्द का अर्थ कलेवा या भोजन सामग्री से है । नेओछाक का तात्पर्य है छाक लो ।

भण्डागोर

रणबाड़ी से दो मील उत्तर-पश्चिम में यह स्थान स्थित है । इसका वर्तमान नाम भादावली है यहाँ भी श्रीनन्दमहाराज का भण्डार गृह था । यह गोचारण का भी स्थान है ।

खाँपुर

भादावली से एक मील दक्षिण में यह स्थान स्थित है । रणबाड़ी में फाग(होली) खेलने के पश्चात सखियों के साथ श्रीराधाकृष्ण ने विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों को खाया था ।

बैठान(बैठन)

कोकिलावन से ढाई मील उत्तर में बड़ी बैठन गाँव स्थित है । इससे आधा मील उत्तर में छोटी बैठन है । दोनों ग्राम पास-पास में है। यहाँ नन्दमहाराज उपानन्द आदि सभी वृद्धगोप एक साथ बैठकर श्रीकृष्ण बलराम के हित के लिए विविध प्रकार का परामर्श करते थे । परामर्श वाले स्थान को बैठक भी कहते हैं । कभी-कभी श्रीसनातन गोस्वामी लीला स्मृति के लिए कुछ दिन यहाँ रहकर भजन करते थे । ब्रजवासी उनके प्रीतियुक्त व्यवहार से मुग्ध होकर बड़े आग्रह से उन्हें कुछ दिन और वहाँ रहने के लिए अनुरोध करने लगते । श्री सनातन गोस्वामी उनके आग्रह से कुछ दिन और ठहर जाते । बड़ी बैठन के दक्षिण-पूर्व में कृष्णकुण्ड है, जो कृष्ण को अत्यन्त प्रिय है कृष्ण सखाओं के साथ इसमें स्नान और जल क्रीड़ाएँ करते थे । छोटी बैठन में कुन्तल कुण्ड है, जहाँ सखालोग कृष्ण का श्रृंगार करते थे, बड़ी बैठन में दाऊजी का मन्दिर और छोटी में साक्षीगोपाल जी का मन्दिर है ।

बड़ोखोर

पूर्व नाम बड़ो खोर है । यह बैठन ग्राम से पश्चिम में है । यहाँ राधाकृष्ण दोनों से कुञ्ज द्वार रूद्धकर क्रीड़ा विलास किया था । यहाँ चरणगंगा और चरणपहाड़ी है । गाँव का वर्तमान नाम बैन्दोखर है । पास ही चरणगंगा है । जहाँ पर कृष्ण ने चरण धोये हैं । [१]

रसौली

चरणपहाड़ी और कोटवन के बीच में रसौली गाँव है । यहाँ पर कृष्ण और गोपियां की प्रसिद्ध शारदीय रासलीला सम्पन्न हुई थी ।

कामर

यहाँ श्रीकृष्ण काम(प्रेम) में व्याकुल होकर राधिका के आगमन पथ की ओर निहार रहे थे। काम में व्यस्त होने के कारण इस स्थान का नाम कामर हुआ है । इसमें गोपी कुण्ड, गोपी जलविहार, हरिकुण्ड, मोहन कुण्ड, मोहनजी का मन्दिर और दुर्वासाजी का मन्दिर है ।

प्रसंग एक समय श्रीकृष्ण राधिका से मिलने के लिए अत्यन्त विह्वल हो गये । वे राधिका के आगमन-मार्ग की ओर व्याकुल होकर बार-बार देखने लगे । अंत में उन्होंने अपनी मधुर मुरली में उनका नाम पुकारा, जिससे राधिका सखियों के साथ आकर्षित होकर चली आईं । कृष्ण बड़े आनन्द से उनसे मिले । गोपियों को एक कौतुक सूझा । उन्होंने प्रियतम की कारी कामर(कम्बल) चुपके से उठाकार छिपा दी । श्रीकृष्ण अपनी प्रिय कामर खोजने लगे । भक्त कविवर श्रीसूरदासजी ने इस झाँकी का सरस चित्रण किया है । कन्हैया मैया से उलाहना दे रहे हैं[२]-मैया री ! मैं गऊओं को चराने के लिए वन में गया था । गायों के बहुत दूर निकल जाने पर मैं भी अपनी कामर को वहीं छोड़कर उनके पीछे-पीछे मैं लौटा तो अपनी कामर न पाकर मैंने सखियों से पूछा- मेरी कामर कहाँ गई ? यदि तुम लोगों ने लिया है तो उसे लौटा दो, किन्तु वे कहती हैं –कन्हैया ! तेरी कामर तो जमुना में बहती हुई जा रही थीं । मैंने ख़ुद ही उसे बहते हुए देखा है । दूसरी कहती है-कन्हैया ! मैंने देखा तेरी कामर को एक गईया खा गई । मैया ! बता भला गईया मेरी कामर कैसे खाय सके है । दूसरी कहती है-कन्हैया तू मेरे सामने नाचेगा, तो तुझे दूसरी नई कामर मँगा दूँगी । मैया ! ये सखियाँ मुझे नाना प्रकार से खिजाती हैं । ऐसा कहते-कहते कन्हैया के आँखों में आँसू उमड़ आये। मैया ने लाला को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। कामर-कामर पुकारने से ही इस गाँव का नाम कामर पड़ा है। कामर से तात्पर्य काले कम्बल से है ।

बासोसि

शेषशाई से दो मील उत्तर में बासोसि गाँव स्थित है । यहाँ पर श्रीकृष्ण के श्रीअंग का सुन्दर सुगन्ध ग्रहणकर भँवरे उन्मत्त हो उठते थे तथा वे कृष्ण के चारों ओर उन्मत्त होकर गुञ्जार करने लगते थे । बास शब्द का अर्थ सुगन्ध से है। इसीलिए इस स्थान का नाम बासोसि हुआ । सखियों के साथ राधाकृष्ण यहाँ क्रीड़ा-विलास में उन्मत्त हो जाते थे । उनके श्रीअंगो की सुगन्ध से, फाग में उड़े अबीर, गुलाल, चन्दन आदि से वहाँ सर्वत्र सुगन्ध भर जाता था ।

पयगाँव

यह स्थान कोसी से छह मील पूर्व में है । यद्यपि माताएँ कृष्ण बलराम और अपने-अपने पुत्रों के लिए दोपहर के लिए घर से छाक भेज देती थीं, फिर भी एक समय जब छाक मिलने में विलम्ब होने के कारण श्रीकृष्ण और सखाओं का बड़ी भूख लगी तो उन्होंने इस गाँव में जाकर पय अर्थात दूध पान किया था, इसलिए यह गाँव पयगाँव के नाम से प्रसिद्ध हुआ । गाँव के उत्तर में पयसरोवर तथा कदम्ब और तमाल वृक्षों से सुसज्जित मनोहर कदम्बखण्डी है । कोसी के पास ही कोटवन है ।

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टीका-टिप्पणी

  1. श्रीकृष्णेर पादपद्मचिह्न ए रहिल । एई हेतु चरण पहाड़ी नाम हईल ।। (भक्तिरत्नाकर)
  2. मैया मेरी कामर चोर लई । मैं बन जात चरावन गैया सूनी देख लई ।। एक कहे कान्हा तेरी कामर जमुना जात बही । एक कहे कान्हा तेरी कामर सुरभि खाय गई ।। एक कहे नाचो मेरे आगे लै देहुँ जु नई । सूरदास जसुमति के आगे अँसुवन धार बही ।।