धमार

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धमार / Dhamar

धमार का जन्म ब्रज भूमि के लोक संगीत में हुआ । इसका प्रचलन ब्रज के क्षेत्र में लोक- गीत के रुप में बहुत काल से चला आ रहा है । इस लोकगीत में वर्ण्य- विषय राधा- कृष्ण के होली खेलने का था । रस इसका शृंगार था और भाषा इसकी ब्रज थी । ग्रामों के उन्मूक्त वातावरण में द्रुत गति के दीपचंदी, धुमाली और कभी अद्धा जैसी ताल में युवक- युवतियों, प्रौढ़ और वृद्धों, सभी के द्वारा यह लोकगीत गाए और नाचे जाते थे । ब्रज के संपूर्ण क्षेत्र में रसिया और होली जन-जन में व्याप्त है । पंद्रहवीं शताब्दी के अंत और सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में उस समय के संगीत परिदृश्य को देखते हुए मानसिंह तोमर और नायक बैजू ने धमार गायकी की नींव डाली । उन्होंने होरी नामक लोकगीत ब्रज का लिया और उसको ज्ञान की अग्नि में तपाकर ढ़ाल दिया । प्राचीन चरचरी प्रबंध के सांचे में, जो चरचरी ताल में ही गाए जाते थे । होरी गायन का प्रिय ताल आदि चाचर ( चरचरी ) दीपचंदी बन गया ।

गायन शैली वही लोक संगीत के आधार पर पहले विलंबित अंत में द्रुत गति में पूर्वाधरित ताल से हट कर कहरवा ताल में होती है और श्रोता को रसाविभूत कर देती है । नायक बैजू ने धमारों की रचना छोटी की । इसकी गायन शैली का आधार ध्रुवपद जैसा ही रखा गया। वर्ण्य-विषय मात्र फाग से संबंधित और रस शृंगार था,वह भी संयोग । वियोग शृंगार को धमार बहुत कम स्थान प्राप्त हैं । ध्रुवपद की तरह आलाप, फिर बंदिश गाई जाती थी । पद गायन के बाद लय- बाँट प्रधान उपज होती थी । इस प्रकार धमार का जन्म हुआ और यह गायन शैली देश भर के संगीतज्ञों में फैल गई । गत एक शताब्दी में धमार के श्रेष्ठ गायक नारायण शास्री, धर्मदास के पुत्र बहराम खाँ, पं. लक्ष्मणदास, गिद्धौर वाले मोहम्मद अली खाँ, आलम खाँ, आगरे के गुलाम अब्बास खाँ और उदयपुर के डागर बंधु आदि हुए हैं । ख्याल गायकों के वर्तमान घरानों में से केवल आगरे के उस्ताद फैयाज खाँ नोम-तोम से अलाप करते थे और धमार गायन करते थे । मुक्त वादन भी होता था। मृदंग और वीणावादकों ने भी ध्रुवपद और धमार गायकी के अनुरुप अपने को ढाला । वीणा में ध्रुवपदानुरुप आलाप, जोड़ालाप, विलंबित लय की गतें, तान, परनें और झाला आदि बजाए गए । धमार के अनुरुप पखावजी से लय- बाँट की लड़ंत शुरु हुई । पखावजी ने भी ध्रुवपद- धमार में प्रयुक्त तालों में भी अभ्यास किया, साथ ही संगत के लिए विभिन्न तालों और लयों की परनों को रचा ।