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==आचार्य धर्मकीर्ति / Acharya Dharmkirti==
 
==आचार्य धर्मकीर्ति / Acharya Dharmkirti==
 
आचार्य दिङ्नाग ने जब 'प्रमाणसमुच्चय' लिखकर [[बौद्ध]] प्रमाणशास्त्र का बीज वपन किया तो अन्य बौद्धेतर दार्शनिकों में उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। तदनुसार [[न्याय दर्शन]] के व्याख्याकारों में उद्योतकर ने, मीमांसक मत के आचार्य कुमारिल ने, जैन आचार्यां में आचार्य मल्लवादी ने दिङ्नाग के मन्तव्यों की समालोचना की। फलस्वरूप बौद्ध विद्वानों को भी प्रमाणशास्त्र के विषय में अपने विचारों को सुव्यवस्थित करने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐसे विद्वानों में आचार्य धर्मकीर्ति प्रमुख हैं, जिन्होंने दिङ्नाग  के दार्शनिक मन्तव्यों का सुविशद विवेचन किया तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि दार्शनिकों की जमकर समालोचना करके बौद्ध प्रमाणशास्त्र की भूमिका को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने केवल बौद्धेतर विद्वानों की ही आलोचना नहीं की, अपितु कुछ गौण विषयों में अपना मत दिङ्नाग से भिन्न रूप में भी प्रस्तुत किया। उन्होंने दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन की भी, जिन्होंने दिङ्नाग के मन्तव्यों की अपनी समझ के अनुसार व्याख्या की थी, उनकी भी समालोचना कर बौद्ध प्रमाणशास्त्र को परिपुष्ट किया।  
 
आचार्य दिङ्नाग ने जब 'प्रमाणसमुच्चय' लिखकर [[बौद्ध]] प्रमाणशास्त्र का बीज वपन किया तो अन्य बौद्धेतर दार्शनिकों में उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। तदनुसार [[न्याय दर्शन]] के व्याख्याकारों में उद्योतकर ने, मीमांसक मत के आचार्य कुमारिल ने, जैन आचार्यां में आचार्य मल्लवादी ने दिङ्नाग के मन्तव्यों की समालोचना की। फलस्वरूप बौद्ध विद्वानों को भी प्रमाणशास्त्र के विषय में अपने विचारों को सुव्यवस्थित करने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐसे विद्वानों में आचार्य धर्मकीर्ति प्रमुख हैं, जिन्होंने दिङ्नाग  के दार्शनिक मन्तव्यों का सुविशद विवेचन किया तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि दार्शनिकों की जमकर समालोचना करके बौद्ध प्रमाणशास्त्र की भूमिका को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने केवल बौद्धेतर विद्वानों की ही आलोचना नहीं की, अपितु कुछ गौण विषयों में अपना मत दिङ्नाग से भिन्न रूप में भी प्रस्तुत किया। उन्होंने दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन की भी, जिन्होंने दिङ्नाग के मन्तव्यों की अपनी समझ के अनुसार व्याख्या की थी, उनकी भी समालोचना कर बौद्ध प्रमाणशास्त्र को परिपुष्ट किया।  
 
*आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाणशास्त्र विषयक सात ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ये सातों ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या के रूप में ही हैं। प्रमाणसमुच्चय में प्रतिपादित विषयों का ही इन ग्रन्थों में विशेष विवरण है। किन्तु एक बात असन्दिग्ध हैं कि धर्मकीर्ति के ग्रन्थों के प्रकाश में आने के बाद दिङ्नाग के ग्रन्थों का अध्ययन गौण हो गया।  
 
*आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाणशास्त्र विषयक सात ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ये सातों ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या के रूप में ही हैं। प्रमाणसमुच्चय में प्रतिपादित विषयों का ही इन ग्रन्थों में विशेष विवरण है। किन्तु एक बात असन्दिग्ध हैं कि धर्मकीर्ति के ग्रन्थों के प्रकाश में आने के बाद दिङ्नाग के ग्रन्थों का अध्ययन गौण हो गया।  
 
 
==कृतियाँ==
 
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आचार्य धर्मकीर्ति के सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-  
 
आचार्य धर्मकीर्ति के सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-  
 
#प्रमाणवार्तिक,  
 
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११:४४, १४ फ़रवरी २०१० का अवतरण

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आचार्य धर्मकीर्ति / Acharya Dharmkirti

आचार्य दिङ्नाग ने जब 'प्रमाणसमुच्चय' लिखकर बौद्ध प्रमाणशास्त्र का बीज वपन किया तो अन्य बौद्धेतर दार्शनिकों में उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। तदनुसार न्याय दर्शन के व्याख्याकारों में उद्योतकर ने, मीमांसक मत के आचार्य कुमारिल ने, जैन आचार्यां में आचार्य मल्लवादी ने दिङ्नाग के मन्तव्यों की समालोचना की। फलस्वरूप बौद्ध विद्वानों को भी प्रमाणशास्त्र के विषय में अपने विचारों को सुव्यवस्थित करने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐसे विद्वानों में आचार्य धर्मकीर्ति प्रमुख हैं, जिन्होंने दिङ्नाग के दार्शनिक मन्तव्यों का सुविशद विवेचन किया तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि दार्शनिकों की जमकर समालोचना करके बौद्ध प्रमाणशास्त्र की भूमिका को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने केवल बौद्धेतर विद्वानों की ही आलोचना नहीं की, अपितु कुछ गौण विषयों में अपना मत दिङ्नाग से भिन्न रूप में भी प्रस्तुत किया। उन्होंने दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन की भी, जिन्होंने दिङ्नाग के मन्तव्यों की अपनी समझ के अनुसार व्याख्या की थी, उनकी भी समालोचना कर बौद्ध प्रमाणशास्त्र को परिपुष्ट किया।

  • आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाणशास्त्र विषयक सात ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ये सातों ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या के रूप में ही हैं। प्रमाणसमुच्चय में प्रतिपादित विषयों का ही इन ग्रन्थों में विशेष विवरण है। किन्तु एक बात असन्दिग्ध हैं कि धर्मकीर्ति के ग्रन्थों के प्रकाश में आने के बाद दिङ्नाग के ग्रन्थों का अध्ययन गौण हो गया।

कृतियाँ

आचार्य धर्मकीर्ति के सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-

  1. प्रमाणवार्तिक,
  2. प्रमाणविनिश्चय,
  3. न्यायबिन्दु,
  4. हेतुबिन्दु,
  5. वादन्याय,
  6. सम्बन्धपरीक्षा एवं
  7. सन्तानान्तरसिद्धि।
  • इनके अतिरिक्त प्रमाणवार्तिक के 'स्वार्थानुमान परिच्छेद' की वृत्ति एवं 'सम्बन्धपरीक्षा की टीका' भी स्वयं धर्मकीर्ति ने लिखी है।
  • आचार्य धर्मकीर्ति के इस ग्रन्थों का प्रधान और पूरक के रूप में भी विभाजन किया जाता है। तथा हि- 'न्यायबिन्दु' की रचना तीक्ष्णबुद्धि पुरुषों के लिए, 'प्रमाणविनिश्चय' की रचना मध्यबुद्धि पुरुषों के लिए तथा 'प्रमाणवार्तिक' का निर्माण मन्दबुद्धि पुरुषों के लिए हैं- ये ही तीनों प्रधान ग्रन्थ है।, जिनमें प्रमाणों से सम्बद्ध सभी वक्तव्यों का सुविशद निरूपण किया गया है। अवशिष्ट चार ग्रन्थ पूरक के रूप में हैं। तथाहि-स्वार्थानुमान से सम्बद्ध हेतुओं का निरूपण 'हेतुबिन्दु' में है। हेतुओं का अपने साध्य के साथ सम्बन्ध का निरूपण 'सम्बन्धपरीक्षा' में है। परार्थानुमान से सम्बद्ध विषयों का निरूपण 'वादन्याय' में है अर्थात इसमें परार्थानुमान के अवयवों का तथा जय-पराजय की व्यवस्था कैसे हो- इसका विशेष प्रतिपादन किया गया है।
  • आचार्य धर्मकीर्ति दक्षिण के त्रिमलय में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने प्रारम्भिक अध्ययन वैदिक दर्शनों का किया था। तदनन्तर वसुबन्धु के शिष्य धर्मपाल, जो उन दिनों अत्यन्त वृद्ध हो चुके थे, उनके पास विशेष रूप से बौद्ध दर्शन का अध्ययन करने के लिए वे नालन्दा पहुँचे। उनको तर्कशास्त्र में विशेष रुचि थी, इसलिए दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन से उन्होंने प्रमाणशास्त्र का विशेष अध्ययन किया तथा अपनी प्रतिभा के बल से दिङ्नाग के प्रमाणशास्त्र में ईश्वरसेन से भी आगे बढ़ गये। तदनन्तर अपना अगला जीवन उन्होंने वाद-विवाद और प्रमाणवार्तिक आदि सप्त प्रमाणशास्त्रों की रचना में बिताया। अन्त में कलिंग देश में उनकी मृत्यु हुई।

समय

तिब्बती परम्परा के अनुसार आचार्य कुमारिल और आचार्य धर्मकीर्ति समकालीन थे। कुमारिल ने दिङ्नाग का खण्डन तो किया है, किन्तु धर्मकीर्ति का नहीं, जबकि धर्मकीर्ति ने कुमारिल का खण्डन किया है। ऐसी स्थिति में कुमारिल आचार्य धर्मकीर्ति के वृद्ध समकालीन ही हो सकते हैं। आचार्य धर्मकीर्ति ने तर्कशास्त्र का अध्ययन ईश्वरसेन से किया था, किन्तु उनके दीक्षा गुरु प्रसिद्ध विद्वान एवं नालन्दा के आचार्य धर्मपाल थे। धर्मपाल को वसुबन्धु का शिष्य कहा गया है। वसुबन्धु का समय चौथी शताब्दी निश्चित किया गया है। धर्मपाल के शिष्य शीलभद्र ईस्वीय वर्ष 635 में विद्यमान थे, जब ह्रेनसांग नालन्दा पहुँचे थे। अत: यह मानना होगा कि जिस समय धर्मकीर्ति दीक्षित हुए, उस समय धर्मपाल मरणासन्न थे। इस दृष्टि से विचार करने पर धर्मकीर्ति का काल 550-600 हो सकता है।

  • आचार्य धर्मकीर्ति के मन्तव्यों का खण्डन वैशेषिक दर्शन में व्योमशिव ने, मीमांसा दर्शन में शालिकनाथ ने, न्याय दर्शन में जयन्त और वाचस्पति मिश्र ने, वेदान्त में भी वाचस्पति मिश्र ने तथा जैन दर्शन में अकलङ्क आदि आचार्यों ने किया है। धर्मकीर्ति के टीकाकारों ने उन आक्षेपों का यथासम्भव निराकरण किया है। धर्मकीर्ति के टीकाकारों को तीन वर्ग में विभक्त किया जाता है।
  1. प्रथम वर्ग के पुरस्कर्ता देवेन्द्रबुद्धि माने जाते हैं, जो धर्मकीर्ति के साक्षात शिष्य थे और जिन्होंने शब्द प्रधान व्याख्या की है। देवेन्द्र बुद्धि ने प्रमाणवार्तिक की दो बार व्याख्या लिखकर धर्मकीर्ति को दिखाई और दोनों ही बार धर्मकीर्ति ने उसे निरस्त कर दिया। अन्त में तीसरी बार असन्तुष्ट रहते हुए भी उसे स्वीकार कर लिया और मन में यह सोचकर निराश हुए कि वस्तुत: मेरा प्रमाण शास्त्र यथार्थ रूप में कोई समझ नहीं सकेगा। शाक्यबुद्धि एवं प्रभाबुद्धि आदि भी इसी प्रथम वर्ग के आचार्य हैं।
  2. दूसरे वर्ग के ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने शब्द प्रधान व्याख्या का मार्ग छोड़कर धर्मकीर्ति के तत्त्वज्ञान को महत्त्व दिया। इस वर्ग के पुरस्कर्ता आचार्य धर्मोत्तर है। धर्मोत्तर का कार्यक्षेत्र कश्मीर रहा, अत: उनकी परम्परा को कश्मीर-परम्परा भी कहते हैं। वस्तुत: धर्मकीर्ति के मन्तव्यों का प्रकाशन धर्मोत्तर-परम्परा भी कहते है। वस्तुत: धर्मकीर्ति के मन्तव्यों के प्रकाशन धर्मोत्तर द्वारा ही हुआ है। ध्वन्यालोक के कर्ता आनन्दवर्धन ने भी धर्मोत्तर कृत प्रमाणविनिश्चय की टीका पर टीका लिखी है, किन्तु वह अनुपलब्ध है। इसी परम्परा में शंकरानन्द ने भी प्रमाणवार्तिक पर एक विस्तृत व्याख्या लिखना शुरू किया, किन्तु वह अधूरी रही।
  3. तीसरे वर्ग में धार्मिक दृष्टि को महत्त्व देने वाले धर्मकीर्ति के टीकाकार हैं। उनमें प्रज्ञाकर गुप्त प्रधान है। उन्होंने स्वार्थानुमान को छोड़कर शेष तीन परिच्छेदों पर 'अलंकार' नामक भाष्य लिखा, जिसे 'प्रमाणवार्तिकालङ्कार भाष्य' कहते हैं। इस श्रेणी के टीकाकारों में प्रमाणवार्तिक के प्रमाणपरिच्छेद का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि उसमें भगवान बुद्ध की सर्वज्ञता तथा उनके धर्मकाय आदि की सिद्धि की गई है। प्रज्ञाकर गुप्त का अनुसरण करने वाले आचार्य हुए है। 'जिन' नामक आचार्य ने प्रज्ञाकर के विचारों की पुष्टि की है। रविगुप्त प्रज्ञाकर के साक्षात शिष्य थे। ज्ञानश्रीमित्र भी इसी परम्परा के अनुयायी थे। ज्ञानश्री के शिष्य यमारि ने भी अलंकार की टीका की। कर्णगोमी ने स्वर्थानुमान परिच्छेद ने चारों परिच्छेदों पर टीका लिखी है, किन्तु उसे शब्दार्थपरक व्याख्या ही मानना चाहिए।
  • धर्मकीर्ति के ग्रन्थों की टीका-परम्परा केवल संस्कृत में ही नहीं रही, अपितु जब बौद्ध धर्म का प्रसार एवं विकास तिब्बत में हो गया तो वहाँ के अनेक भोट विद्वानों ने भी तिब्बती भाषा में स्वतन्त्र टीकाएं प्रमाणवार्तिक आदि ग्रन्थों पर लिखीं तथा उनका अध्ययन-अध्यापन आज भी तिब्बती परम्परा में प्रचलित है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दिङ्नाग के द्वारा जो बौद्ध प्रमाणशास्त्र का बीजवपन किया गया, वह धर्मकीर्ति और उनके अनुयायियों के प्रयासों से विशाल वटवृक्ष के रूप मं परिणत हो गया।