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#[[नवम् सिध्दीदात्री]]
 
#[[नवम् सिध्दीदात्री]]
  
==तृतीय चंद्रघंटा==
 
माँ दुर्गा की तृतीय शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि विग्रह के तीसरे दिन इन का पूजन किया जाता है। माँ का यह स्वरूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी लिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। इनका शरीर स्वर्ण के समान उज्जवल है, इनके दस हाथ हैं। दसों हाथों में खड्ग, बाण आदि शस्त्र सुशोभित रहते हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युध्द के लिए उद्यत रहने वाली है। इनके घंटे की भयानक चडंध्वनि से दानव, अत्याचारी, दैत्य, राक्षस डरते रहते हैं। नवरात्रि की तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है। इस दिन साधक का मन मणिपुर चक्र में प्रविष्ट होता है। मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक को अलौकिक दर्शन होते हैं, दिव्य सुगन्ध और विविध दिव्य ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। माँ चंद्रघंटा की कृपा से साधक की समस्त बाधायें हट जाती हैं।
 
 
'''ध्यान'''
 
 
वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।<br/ >
 
सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥<br/ >
 
मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।<br/ >
 
खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।<br/ >
 
मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥<br/ >
 
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्।<br/ >
 
कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥<br/ >
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।<br/ >
 
अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥<br/ >
 
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्।<br/ >
 
धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥<br/ >
 
नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्।<br/ >
 
सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥<br/ >
 
 
'''कवच'''
 
 
रहस्यं श्रुणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।<br/ >
 
श्री चन्द्रघन्टास्य कवचं सर्वसिध्दिदायकम्॥<br/ >
 
बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोध्दा बिना होमं।<br/ >
 
स्नानं शौचादि नास्ति श्रध्दामात्रेण सिध्दिदाम॥<br/ >
 
कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥<br/ >
 
भगवती चन्द्रघन्टा का ध्यान, स्तोत्र और कवच  का पाठ करने से मणिपुर चक्र जाग्रत हो जाता है और सांसारिक परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है।
 
==चतुर्थ कूष्माण्डा==
 
माँ दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मन्द हंसी से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारंण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड
 
कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण से भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है। जब सृष्टि नहीं थी और चारों ओर अंधकार ही अंधकार था तब इन्होनें ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। यह सृष्टि की आदिस्वरूपा हैं और आदिशक्ति भी। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। सूर्यलोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। नवरात्र के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की पूजा की जाती है। साधक इस दिन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन पवित्र मन से माँ के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजन करना चाहिए। माँ कूष्माण्डा देवी की पूजा से भक्त के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। माँ की भक्ति से आयु, यश, बल और स्वास्थ्य की वृध्दि होती है। इनकी आठ भुजायें हैं इसीलिए इन्हें अष्टभुजा कहा जाता है। इनके सात हाथों में कमण्डल, धनुष,बाण, कमल पुष्प, अमृतपूर्ण कलश,चक्र तथा गदा है। आठ्वें हाथ में सभी सिध्दियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। कूष्माण्डा देवी अल्पसेवा और अल्पभक्ति से ही प्रसन्न हो जाती हैं। यदि साधक सच्चे मन से इनका शरणागत बन जाये तो उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो जाती है।
 
 
'''ध्यान'''
 
 
वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।<br/ >
 
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम्॥<br/ >
 
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।<br/ >
 
कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।<br/ >
 
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥<br/ >
 
प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम्।<br/ >
 
कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥<br/ >
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम्।<br/ >
 
जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥<br/ >
 
जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।<br/ >
 
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥<br/ >
 
त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहिदुःख शोक निवारिणीम्।<br/ >
 
परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाभ्यहम्॥<br/ >
 
 
'''कवच'''
 
 
हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।<br/ >
 
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥<br/ >
 
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।<br/ >
 
दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु॥<br/ > 
 
==पंचम स्कन्दमाता==
 
माँ दुर्गा के पांचवे स्वरूप को स्कन्दमाता के रूप में जाना जाता है। इन्हें स्कन्द कुमार [[कार्तिकेय]] नाम से भी जाना जाता है। यह प्रसिध्द देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। [[पुराण|पुराणों]] में इन्हें कुमार शौर शक्तिधर बताकर इनका वर्णन किया गया है। इनका वाहन मयूर है अतः इन्हे मयूरवाहन के नाम से भी जाना जाता है। इन्ही भगवान स्कन्द की माता होने के कारण दुर्गा के इस पांचवे स्वरूप को स्कन्दमाता कहा जाता है। इनकी पूजा नवरात्र में पांचवे दिन की जाती है। इस दिन साधक का मन विशुध्द चक्र में होता है। इनके विग्रह में स्कन्द जी बालरूप में माता की गोद में बैठे हैं। स्कन्द मातृस्वरूपिणी देवी की चार भुजायें हैं, ये दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कन्द को गोद में पकडे हैं और दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है, उसमें कमल पकडा हुआ है। माँ का वर्ण पूर्णतः शुभ्र है और कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं। इसी से इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है।
 
 
'''ध्यान'''
 
 
वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।<br/ >
 
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्।।<br/ >
 
धवलवर्णा विशुध्द चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्।<br/ >
 
अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्।<br/ >
 
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल धारिणीम्॥<br/ >
 
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्।<br/ >
 
कमनीया लावण्या चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥<br/ >
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
नमामि स्कन्दमाता स्कन्दधारिणीम्।<br/ >
 
समग्रतत्वसागररमपारपार गहराम्॥<br/ >
 
शिवाप्रभा समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्।<br/ >
 
ललाटरत्नभास्करां जगत्प्रीन्तिभास्कराम्॥<br/ >
 
महेन्द्रकश्यपार्चिता सनंतकुमाररसस्तुताम्।<br/ >
 
सुरासुरेन्द्रवन्दिता यथार्थनिर्मलादभुताम्॥<br/ >
 
अतर्क्यरोचिरूविजां विकार दोषवर्जिताम्।<br/ >
 
मुमुक्षुभिर्विचिन्तता विशेषतत्वमुचिताम्॥<br/ >
 
नानालंकार भूषितां मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्।<br/ >
 
सुशुध्दतत्वतोषणां त्रिवेन्दमारभुषताम्॥<br/ >
 
सुधार्मिकौपकारिणी सुरेन्द्रकौरिघातिनीम्।<br/ >
 
शुभां पुष्पमालिनी सुकर्णकल्पशाखिनीम्॥<br/ >
 
तमोन्धकारयामिनी शिवस्वभाव कामिनीम्।<br/ >
 
सहस्त्र्सूर्यराजिका धनज्ज्योगकारिकाम्॥<br/ >
 
सुशुध्द काल कन्दला सुभडवृन्दमजुल्लाम्।<br/ >
 
प्रजायिनी प्रजावति नमामि मातरं सतीम्॥<br/ >
 
स्वकर्मकारिणी गति हरिप्रयाच पार्वतीम्।<br/ >
 
अनन्तशक्ति कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥<br/ >
 
पुनःपुनर्जगद्वितां नमाम्यहं सुरार्चिताम्।<br/ >
 
जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवीपाहिमाम्॥<br/ >
 
 
'''कवच'''
 
 
ऐं बीजालिंका देवी पदयुग्मघरापरा।<br/ >
 
ह्रदयं पातु सा देवी कार्तिकेययुता॥<br/ >
 
श्री हीं हुं देवी पर्वस्या पातु सर्वदा।<br/ >
 
सर्वांग में सदा पातु स्कन्धमाता पुत्रप्रदा॥<br/ >
 
वाणंवपणमृते हुं फ्ट बीज समन्विता।<br/ >
 
उत्तरस्या तथाग्नेव वारूणे नैॠतेअवतु॥<br/ >
 
इन्द्राणां भैरवी  चैवासितांगी च संहारिणी।<br/ >
 
सर्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥<br/ >
 
शास्त्रों में कहा गया है कि इस चक्र में अवस्थित साधक के मन में समस्त बाह्य क्रियाओं और चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है और उसका ध्यान चैतन्य स्वरूप की ओर होता है, समस्त लौकिक, सांसारिक, मायाविक बन्धनों को त्याग कर वह  पद्मासन माँ स्कन्धमाता के रूप में पूर्णतः समाहित होता है। साधक को मन को एकाग्र रखते हुए साधना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।
 
 
==षष्टमं कात्यायनी==
 
माँ दुर्गा के छठे रूप का नाम कात्यायनी है। इनके नाम से जुड़ी कथा है कि एक समय कत नाम के प्रसिध्द ॠषि थे। उनके पुत्र ॠषि कात्य हुए, उन्हीं के नाम से प्रसिध्द कात्य गोत्र से,
 
विश्वप्रसिध्द ॠषि कात्यायन उत्पन्न हुए। उन्होंने भगवती पराम्बरा की उपासना करते हुए कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि भगवती उनके घर में पुत्री के रूप में जन्म लें। माता ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। कुछ समय के पश्चात जब [[महिषासुर]] नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब उसका विनाश करने के लिए [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]] और महेश ने अपने अपने तेज और प्रताप का अंश देकर देवी को उत्पन्न किया था। महर्षि [[कात्यायन]] ने इनकी पूजा की इसी कारण से यह देवी कात्यायनी कहलायीं।
 
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अश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेने के बाद शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी, तीन दिनों तक कात्यायन ॠषि ने इनकी पूजा की, पूजा ग्रहण कर दशमी को इस देवी ने महिषासुर का वध किया। इन का स्वरूप अत्यन्त ही दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है। इनकी चार भुजायें हैं, इनका दाहिना ऊपर का हाथ अभय मुद्रा में है, नीचे का हाथ वरदमुद्रा में है। बांये ऊपर वाले हाथ में तलवार और निचले हाथ में कमल का फूल है और इनका वाहन सिंह है।
 
 
'''ध्यान'''
 
 
वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।<br/ >
 
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्वनीम्॥<br/ >
 
स्वर्णाआज्ञा चक्र स्थितां षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्।<br/ >
 
वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालंकार भूषिताम्।<br/ >
 
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥<br/ >
 
प्रसन्नवदना पञ्वाधरां कांतकपोला तुंग कुचाम्।<br/ >
 
कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम॥<br/ >
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
कंचनाभा वराभयं पद्मधरा मुकटोज्जवलां।<br/ >
 
स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनेसुते नमोअस्तुते॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां नानालंकार भूषितां।<br/ >
 
सिंहस्थितां पदमहस्तां कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥<br/ >
 
परमांवदमयी देवि परब्रह्म परमात्मा।<br/ >
 
परमशक्ति, परमभक्ति,कात्यायनसुते  नमोअस्तुते॥<br/ >
 
 
'''कवच'''
 
 
कात्यायनी मुखं पातु कां स्वाहास्वरूपिणी।<br/ >
 
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्य सुन्दरी॥<br/ >
 
कल्याणी ह्रदयं पातु जया भगमालिनी॥<br/ >
 
आज के दिन साधक का मन आज्ञाचक्र में स्थित होता है। योगसाधना में आज्ञाचक्र का महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित साधक कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पित कर देता है। पूर्ण आत्मदान करने से साधक को सहजरूप से माँ के दर्शन हो जाते हैं। माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ, कर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
 
 
==सप्तमं कालरात्रि==
 
दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की भाँति काला है, बाल बिखरे हुए, गले में विद्युत की  भाँति चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं जो ब्रह्माण्ड की तरह गोल हैं, जिनमें से बिजली की तरह चमकीली किरणें निकलती रहती हैं। इनकी नासिका से श्वास, निःश्वास से [[अग्नि]] की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं। इअनका वाहन 'गर्दभ' (गधा) है। दाहिने ऊपर का हाथ वरद मुद्रा में सबको वरदान देती हैं, दाहिना नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बायीं ओर के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा और निच्ले हाथ में खड्ग है। माँ का यह स्वरूप देखने में अत्यन्त भयानक है किन्तु सदैव शुभ फलदायक है। अतः भक्तों को इनसे भयभीत नहीं होना चाहिए । दुर्गा पूजा के सातवें दिन माँ कालारात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्त्रारचक्र में अवस्थित होता है। साधक के लिए सभी सिध्दैयों का द्वार खुलने लगता है। इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णत: मां कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है,उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह अधिकारी होता है, उसकी समस्त विघ्न बाधाओं और पापों का नाश हो जाता है और उसे अक्षय पुण्य लोक की प्राप्ति होती है।
 
 
'''ध्यान'''
 
 
करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।<br/ >
 
कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥<br/ >
 
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।<br/ >
 
अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम॥<br/ >
 
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।<br/ >
 
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥<br/ >
 
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।<br/ >
 
एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम्॥<br/ >
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
हीं कालरात्रि श्री कराली च क्लीं कल्याणी कलावती।<br/ >
 
कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥<br/ >
 
कामबीजजपान्दा कमबीजस्वरूपिणी।<br/ >
 
कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥<br/ >
 
क्लीं हीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी।<br/ >
 
कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥<br/ >
 
 
'''कवच'''
 
 
ऊँ क्लीं मे ह्रदयं पातु पादौ श्रीकालरात्रि।<br/ >
 
ललाटे सततं पातु तुष्टग्रह निवारिणी॥<br/ >
 
रसनां पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम।<br/ >
 
कटौ पृष्ठे महेशानी, कर्णोशंकरभामिनी॥<br/ >
 
वर्जितानी तु स्थानाभि यानि च कवचेन हि।<br/ >
 
तानि सर्वाणि मे देवीसततंपातु स्तम्भिनी॥<br/ >
 
भगवती कालरात्रि का ध्यान, कवच, स्तोत्र का जाप करने से 'भानुचक्र' जागृत होता है। इनकी कृपा से अग्नि भय, आकाशभय, भूत पिशाच स्मरण मात्र से ही भाग जाते हैं। कालरात्रि माता भक्तों को अभय प्रदान करती है। 
 
 
==अष्टमं महागौरी==
 
दुर्गा की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख, चन्द्र और कून्द के फूल की गयी है। इनकी आयु आठ वर्ष बतायी गयी है। इनका दाहिना ऊपरी हाथ में अभय मुद्रा में और निचले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। बांये ऊपर वाले हाथ में डमरू और बांया नीचे वाला हाथ वर की शान्त मुद्रा में है। [[पार्वती]] रूप में इन्होंने भगवान [[शिव]] को पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि 'व्रियेअहं वरदं शम्भुं नान्यं देवं महेश्वरात्। गिस्वामी [[तुलसीदास]] के अनुसार इन्होंने शिव के वरण के लिए  कठोर तपस्या का संकल्प लिया था जिससे इनका शरीर काला पड़ गया था। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर जब शिवजी ने इनके शरीर को पवित्र गंगाजल से मलकर धोया तब वह विद्युत के समान अत्यन्त कांतिमान गौर हो गया, तभी से इनका नाम [[गौरी]] पड़ा।
 
 
'''धयान'''
 
 
वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।<br/ >
 
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा महागौरी यशस्वनीम्॥<br/ >
 
पूर्णन्दु निभां गौरी सोमचक्रस्थितां अष्टमं महागौरी त्रिनेत्राम्।<br/ >
 
वराभीतिकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम्॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।<br/ >
 
मंजीर, हार, केयूर किंकिणी रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥<br/ >
 
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वाधरां कातं कपोलां त्रैलोक्य मोहनम्।<br/ >
 
कमनीया लावण्यां मृणांल चंदनगंधलिप्ताम्॥<br/ >
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
सर्वसंकट हंत्री त्वंहि धन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।<br/ >
 
ज्ञानदा चतुर्वेदमयी महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥<br/ >
 
सुख शान्तिदात्री धन धान्य प्रदीयनीम्।<br/ >
 
डमरूवाद्य प्रिया अद्या महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥<br/ >
 
त्रैलोक्यमंगल त्वंहि तापत्रय हारिणीम्।<br/ >
 
वददं चैतन्यमयी महागौरी प्रणमाम्यहम्॥<br/ >
 
 
'''कवच'''
 
 
ओंकारः पातु शीर्षो मां, हीं बीजं मां, ह्रदयो।<br/ >
 
क्लीं बीजं सदापातु नभो गृहो च पादयो॥<br/ >
 
ललाटं कर्णो हुं बीजं पातु महागौरी मां नेत्रं घ्राणो।<br/ >
 
कपोत चिबुको फट् पातु स्वाहा मा सर्ववदनो॥<br/ >
 
देवी महागौरी का ध्यान, स्त्रोत पाठ और कवच का पाठ करने से 'सोमचक्र' जाग्रत होता है जिससे संकट से मुक्ति मिलती है और धन,सम्पत्ति और श्री की वृध्दि होती है। इनका वाहन वृषभ है।
 
 
==नवम् सिध्दीदात्री==
 
दुर्गा की नवम शक्ति का नाम सिध्दी है। ये सिध्दीदात्री हैं। सभी प्रकार की सिध्दियों को देने वाली। [[मार्कण्डेय पुराण]] के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिया, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिध्दियां होती हैं। देवी पुराण के अनुसार भगवान [[शिव]] ने इन्हीं की कृपा से सिध्दियों को प्राप्त किया था। इन्हीं की अनुकम्पा से भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था।  इसी कारण वह संसार में अर्धनारीश्वर नाम से प्रसिध्द हुए। माता सिध्दीदात्री  चार भुजाओं वाली हैं। इनका वाहन सिंह है। ये कमल पुष्प पर आसीन होती हैं। इनकी दाहिनी नीचे वाली भुजा में चक्र,ऊपर वाली भुजा में गदा और बांयी तरफ नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमलपुष्प है। नवरात्र पूजन के नवें दिन इनकी पूजा
 
की जाती है।
 
 
'''ध्यान'''
 
 
वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।<br/ >
 
कमलस्थितां चतुर्भुजा सिध्दीदात्री यशस्वनीम्॥<br/ >
 
स्वर्णावर्णा निर्वाणचक्रस्थितां नवम् दुर्गा त्रिनेत्राम्।<br/ >
 
शख, चक्र, गदा, पदम, धरां सिध्दीदात्री भजेम्॥<br/ >
 
पटाम्बर, परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।<br/ >
 
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥<br/ >
 
प्रफुल्ल वदना पल्लवाधरां कातं कपोला पीनपयोधराम्।<br/ >
 
कमनीयां लावण्यां श्रीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥<br/ >
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
कंचनाभा शखचक्रगदापद्मधरा मुकुटोज्वलो।<br/ >
 
स्मेरमुखी शिवपत्नी सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां नानालंकारं भूषिता।<br/ >
 
नलिस्थितां नलनार्क्षी सिध्दीदात्री नमोअस्तुते॥<br/ >
 
परमानंदमयी देवी परब्रह्म परमात्मा।<br/ >
 
परमशक्ति, परमभक्ति, सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥<br/ >
 
विश्वकर्ती, विश्वभती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता।<br/ >
 
विश्व वार्चिता विश्वातीता सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥<br/ >
 
भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्तकष्टनिवारिणी।<br/ >
 
भव सागर तारिणी सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥<br/ >
 
धर्मार्थकाम प्रदायिनी महामोह विनाशिनी।<br/ >
 
मोक्षदायिनी सिध्दीदायिनी सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥<br/ >
 
 
'''कवच'''
 
 
ओंकारपातु शीर्षो मां ऐं बीजं मां ह्रदयो।<br/ >
 
हीं बीजं सदापातु नभो, गुहो च पादयो॥<br/ >
 
ललाट कर्णो श्रीं बीजपातु क्लीं बीजं मां नेत्र घ्राणो।<br/ >
 
कपोल चिबुको हसौ पातु जगत्प्रसूत्यै मां सर्व वदनो॥<br/ >
 
भगवती सिध्दिदात्री का ध्यान, स्तोत्र व कवच का पाठ करने से 'निर्वाण चक्र' जाग्रत हो जाता है।
 
  
  
  
 
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०६:३४, ६ मार्च २०१० का अवतरण

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नवरात्रि / शारदीय नवरात्र / Navratri

आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक नवरात्रि का त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है । नवरात्रि में देवी माँ के व्रत रखे जाते हैं । स्थान–स्थान पर देवी माँ की मूर्तियाँ बनाकर उनकी विशेष पूजा की जाती हैं । घरों में भी अनेक स्थानों पर कलश स्थापना करदुर्गा सप्तशती पाठ आदि होते हैं । नरीसेमरी में देवी माँ की जोत के लिए श्रृद्धालु आते हैं और पूरे नवरात्रि के दिनों में भारी मेला रहता है । शारदीय नवरात्र आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक यह व्रत किए जाते हैं। भगवती के नौ प्रमुख रूप (अवतार) हैं तथा प्रत्येक बार 9-9 दिन ही ये विशिष्ट पूजाएं की जाती हैं। इस काल को नवरात्र कहा जाता है। वर्ष में दो बार भगवती भवानी की विशेष पूजा की जाती है। इनमें एक नवरात्र तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक होते हैं और दूसरे श्राद्धपक्ष के दूसरे दिन आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल नवमी तक। आश्विन मास के इन नवरात्रों को 'शारदीय नवरात्र' कहा जाता है क्योंकि इस समय शरद ऋतु होती है। इस व्रत में नौ दिन तक भगवती दुर्गा का पूजन, दुर्गा सप्तशती का पाठ तथा एक समय भोजन का व्रत धारण किया जाता है। प्रतिपदा के दिन प्रात: स्नानादि करके संकल्प करें तथा स्वयं या पण्डित के द्वारा मिट्टी की वेदी बनाकर जौ बोने चाहिए। उसी पर घट स्थापना करें। फिर घट के ऊपर कुलदेवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन करें तथा 'दुर्गा सप्तशती' का पाठ कराएं। पाठ-पूजन के समय अखण्ड दीप जलता रहना चाहिएं वैष्णव लोग राम की मूर्ति स्थापित कर रामायण का पाठ करते हैं। दुर्गा अष्टमी तथा नवमी को भगवती दुर्गा देवी की पूर्ण आहुति दी जाती है। नैवेद्य, चला, हलुआ, खीर आदि से भोग लगाकर कन्या तथा छोटे बच्चों को भोजन कराना चाहिएं नवरात्र ही शक्ति पूजा का समय है इसलिए नवरात्र में इन शक्तियों की पूजा करनी चाहिए।

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दुर्गा देवी
Durga Devi
  1. प्रथम शैलपुत्री
  2. द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
  3. तृतीय चंद्रघंटा
  4. चतुर्थ कूष्माण्डा
  5. पंचम स्कन्दमाता
  6. षष्टमं कात्यायनी
  7. सप्तमं कालरात्रि
  8. अष्टमं महागौरी
  9. नवम् सिध्दीदात्री




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