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==गुरू नानक / Guru Nanak==
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==गुरु नानक / Guru Nanak==
[[चित्र:Guru-Nanak.jpg|गुरू नानक<br /> Guru Nanak|thumb|250px]]
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गुरु नानक सिखों के प्रथम गुरु (आदि गुरु) है। इनके अनुयायी इन्हें गुरु नानक, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। 15 अप्रैल, 1469 को पंजाब के तलवंडी नामक स्थान में, एक किसान के घर उत्पन्न हुए। यह स्थान लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है। अब यह 'नानकाना साहब' कहलाता है। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया।
गुरू नानक सिखों के प्रथम गुरु (आदि गुरु) है । इनके अनुयायी इन्हें गुरु नानक, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं । 15 अप्रैल, 1469 को पंजाब के तलवंडी नामक स्थान में, एक किसान के घर उत्पन्न हुए । यह स्थान लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है। अब यह 'नानकाना साहब' कहलाता है। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया ।
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[[चित्र:Guru-Nanak.jpg|गुरु नानक<br /> Guru Nanak|thumb|250px]]
 
==परिचय==
 
==परिचय==
नानक के पिता का नाम कालू एवं माता का नाम तृप्ता था। उनके पिता खत्री जाति एवं बेदी वंश के थे।  वे कृषि और साधारण व्यापार करते थे और गाँव के पटवारी भी थे।  गुरू नानक देव की बाल्यावस्था गाँव में व्यतीत हुई।  बाल्यावस्था से ही उनमें असाधारणता और विचित्रता थी।  उनके साथी जब खेल-कूद में अपना समय व्यतीत करते तो वे नेत्र बन्द कर आत्म-चिन्तन में निमग्न हो जाते थे। इनकी इस प्रवृत्ति से उनके पिता कालू चिन्तित रहते थे।  
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नानक के पिता का नाम कालू एवं माता का नाम तृप्ता था। उनके पिता खत्री जाति एवं बेदी वंश के थे।  वे कृषि और साधारण व्यापार करते थे और गाँव के पटवारी भी थे।  गुरु नानक देव की बाल्यावस्था गाँव में व्यतीत हुई।  बाल्यावस्था से ही उनमें असाधारणता और विचित्रता थी।  उनके साथी जब खेल-कूद में अपना समय व्यतीत करते तो वे नेत्र बन्द कर आत्म-चिन्तन में निमग्न हो जाते थे। इनकी इस प्रवृत्ति से उनके पिता कालू चिन्तित रहते थे।  
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नानक सचे की साची कार।
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सत्यस्वरूप भगवान की कृति संसार भी सत्य है।
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- '''नानक''' (जपुजी, 31)
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सात वर्ष की आयु में वे पढ़ने के लिए गोपाल अध्यापक के पास भेजे गये। एक दिन जब वे पढ़ाई से विरक्त हो, अन्तर्मुख होकर आत्म-चिन्तन में निमग्न थे, अध्यापक ने पूछा- पढ़ क्यों नहीं रहे हो? गुरु नानक का उत्तर था- मैं सारी विद्याएँ और वेद-शास्त्र जानता हूँ। गुरु नानक देव ने कहा- मुझे तो सांसारिक पढ़ाई की अपेक्षा परमात्मा की पढ़ाई अधिक आनन्दायिनी प्रतीत होती है, यह कहकर निम्नलिखित वाणी का उच्चारण किया- मोह को जलाकर (उसे) घिसकर स्याही बनाओ, बुद्धि को ही श्रेष्ठ कागद बनाओ, प्रेम की क़लम बनाओ और चित्त को लेखक। गुरु से पूछ कर विचारपूर्वक लिखो (कि उस परमात्मा का) न तो अन्त है और न सीमा है। <ref>जालि मोह घसि मसु करि, मति कागदु करि सारू। भाउ क़लम करि चितु लेखारी, गुरु पुछि लिखु बीचारू।  लिखु नाम सलाह लिखु लिखु अन्त न पारावारू"।1।6 (श्री गुरु ग्रन्थ, सिरी रागु, महला 1,पृष्ठ 16)</ref> इस पर अध्यापक जी आश्चर्यान्वित हो गये और उन्होंने गुरु नानक को पहुँचा हुआ फ़क़ीर समझकर कहा- तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो। इसके पश्चात गुरु नानक ने स्कूल छोड़ दिया।  वे अपना अधिकांश समय मनन, ध्यानासन, ध्यान एवं सत्संग में व्यतीत करने लगे।  गुरु नानक से सम्बन्धित सभी जन्म साखियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के साधु-महत्माओं का सत्संग किया था। उनमें से बहुत से ऐसे थे, जो धर्मशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे।  अन्त: साक्ष्य के आधार पर यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि गुरु नानक ने फारसी का भी अध्ययन किया था।  'गुरु-ग्रन्थ साहब' में गुरु नानक द्वारा कुछ पद ऐसे रचे गये हैं, जिनमें फारसी शब्दों का आधिक्य है।
 
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सात वर्ष की आयु में वे पढ़ने के लिए गोपाल अध्यापक के पास भेजे गये। एक दिन जब वे पढ़ाई से विरक्त हो, अन्तर्मुख होकर आत्म-चिन्तन में निमग्न थे, अध्यापक ने पूछा- पढ़ क्यों नहीं रहे हो? गुरू नानक का उत्तर था- मैं सारी विद्याएँ और वेद-शास्त्र जानता हूँ। गुरू नानक देव ने कहा- मुझे तो सांसारिक पढ़ाई की अपेक्षा परमात्मा की पढ़ाई अधिक आनन्दायिनी प्रतीत होती है, यह कहकर निम्नलिखित वाणी का उच्चारण किया- मोह को जलाकर (उसे) घिसकर स्याही बनाओ, बुद्धि को ही श्रेष्ठ कागद बनाओ, प्रेम की कलम बनाओ और चित्त को लेखक। गुरू से पूछ कर विचारपूर्वक लिखो (कि उस परमात्मा का) न तो अन्त है और न सीमा है। <ref>जालि मोह घसि मसु करि, मति कागदु करि सारू। भाउ कलम करि चितु लेखारी, गुरू पुछि लिखु बीचारू।  लिखु नाम सलाह लिखु लिखु अन्त पारावारू" ।1।6 (श्री गुरू ग्रन्थ, सिरी रागु, महला 1,पृष्ठ 16)</ref> इस पर अध्यापक जी आश्चर्यान्वित हो गये और उन्होंने गुरू नानक को पहुँचा हुआ फकीर समझकर कहा- तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो। इसके पश्चात गुरू नानक ने स्कूल छोड़ दिया।  वे अपना अधिकांश समय मनन, ध्यानासन, ध्यान एवं सत्संग में व्यतीत करने लगे।  गुरू नानक से सम्बन्धित सभी जन्म साखियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के साधु-महत्माओं का सत्संग किया था। उनमें से बहुत से ऐसे थे, जो धर्मशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे।  अन्त: साक्ष्य के आधार पर यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि गुरू नानक ने फारसी का भी अध्ययन किया था।  'गुरू-ग्रन्थ साहब' में गुरू नानक द्वारा कुछ पद ऐसे रचे गये हैं, जिनमें फारसी शब्दों का आधिक्य है।
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गुरु नानक की अन्तमुंखी-प्रवृत्ति तथा विरक्ति-भावना से उनके पिता कालू चिन्तित रहा करते थे।  नानक को विक्षिप्त समझकर कालू ने उन्हें भैंसे चराने का काम दिया। भैंसे चराते-चराते नानक जी सो गये।  भैंसें एक किसान के खेत में चली गयीं और उन्होंने उसकी फ़सल चर डाली।  किसान ने इसका उलाहना दिया किन्तु जब उसका खेत देखा गया, तो सभी आश्चर्य में पड़े गये।  फ़सल का एक पौधा भी नहीं चरा गया था। 9 वर्ष की अवस्था  में उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ।  यज्ञोपवीत के अवसर पर उन्होंने पण्डित से कहा - दया कपास हो, सन्तोष सूत हो, संयम गाँठ हो, (और) सत्य उस जनेउ की पूरन हो।  यही जीव के लिए (आध्यात्मिक) जनेऊ है। ऐ पाण्डे यदि इस प्रकार का जनेऊ तुम्हारे पास हो, तो मेरे गले में पहना दो, यह जनेऊ न तो टूटता है, न इसमें मैल लगता है, न यह जलता है और न यह खोता ही है। <ref>दइया कपाह सन्तोखु सृतु गंढी सतु बटु, एहु जनेऊ जी अका हई ता पाडे धतु।। ना एहु तुटै न मलु लगै ना एहु जले जाए।। (श्री गुरु ग्रन्थ साहिब, आसा की वार, महला 1, पृ0 471) </ref>  
 
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गुरू नानक की अन्तमुंखी-प्रवृत्ति तथा विरक्ति-भावना से उनके पिता कालू चिन्तित रहा करते थे।  नानक को विक्षिप्त समझकर कालू ने उन्हें भैंसे चराने का काम दिया। भैंसे चराते-चराते नानक जी सो गये।  भैंसें एक किसान के खेत में चली गयीं और उन्होंने उसकी फसल चर डाली।  किसान ने इसका उलाहना दिया किन्तु जब उसका खेत देखा गया, तो सभी आश्चर्य में पड़े गये।  फसल का एक पौधा भी नहीं चरा गया था। 9 वर्ष की अवस्था  में उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ।  यज्ञोपवीत के अवसर पर उन्होंने पण्डित से कहा - दया कपास हो, सन्तोष सूत हो, संयम गाँठ हो, (और) सत्य उस जनेउ की पूरन हो।  यही जीव के लिए (आध्यात्मिक) जनेऊ है। ऐ पाण्डे यदि इस प्रकार का जनेऊ तुम्हारे पास हो, तो मेरे गले में पहना दो, यह जनेऊ न तो टूटता है, न इसमें मैल लगता है, न यह जलता है और न यह खोता ही है। <ref>दइया कपाह सन्तोखु सृतु गंढी सतु बटु, एहु जनेऊ जी अका हई ता पाडे धतु।। ना एहु तुटै न मलु लगै ना एहु जले न जाए।। (श्री गुरू ग्रन्थ साहिब, आसा की वार, महला 1, पृ0 471) </ref>
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सन 1485 ई॰ में नानक का विवाह बटाला निवासी, मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी है। 28 वर्ष की अवस्था में उनके बड़े पुत्र श्रीचन्द का जन्म हुआ।  31 वर्ष की अवस्था में उनके द्वितीय पुत्र लक्ष्मीदास अथवा लक्ष्मीचन्द उत्पन्न हुए। गुरु नानक के पिता ने उन्हें कृषि, व्यापार आदि में लगाना चाहा किन्तु उनके सारे प्रयास निष्फल सिद्ध हुए।  घोड़े के व्यापार के निमित्त दिये हुए रुपयों को गुरु नानक ने साधुसेवा में लगा दिया और अपने पिताजी से कहा कि यही सच्चा व्यापार है। नवम्बर सन। 1504 ई॰ में उनके बहनोई जयराम (उनकी बड़ी बहिन नानकी के पति) ने गुरु नानक को अपने पास सुल्तानपुर बुला लिया।  नवम्बर, 1504 ई॰ से अक्तूबर 1507 ई॰ तक वे सुल्तानपुर में ही रहें  अपने बहनोई जयराम के प्रयास से वे सुल्तानपुर के गवर्नर दौलत खाँ के यहाँ मादी रख लिये गये।  उन्होंने अपना कार्य अत्यन्त ईमानदारी से पूरा किया।  वहाँ की जनता तथा वहाँ के शासक दौलत खाँ नानक के कार्य से बहुत सन्तुष्ट हुए।  वे अपनी आय का अधिकांश भाग ग़रीबों और साधुओं को दे देते थे। कभी-कभी वे पूरी रात परमात्मा के भजन में व्यतीत कर देते थे।  मरदाना तलवण्डी से आकर यहीं गुरु नानक का सेवक बन गया था और अन्त तक उनके साथ रहा।  गुरु नानक देव अपने पद गाते थे और मरदाना रवाब बजाता था। गुरु नानक नित्य प्रात: बेई नदी में स्नान करने जाया करते थे।  कहते हैं कि एक दिन वे स्नान करने के पश्चात वन में अन्तर्धान हो गये।  उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हुआ।  परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया और कहा- मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ, मैंने तुम्हें आनन्दित किया है।  जो तुम्हारे सम्पर्क में आयेगें, वे भी आनन्दित होगें।  जाओ नाम में रहो, दान दो, उपासना करो, स्वयं नाम लो और दूसरों से भी नाम स्मरण कराओं। इस घटना के पश्चात वे अपने परिवार का भार अपने श्वसुर मूला को सौंपकर विचरण करने निकल पड़े और धर्म का प्रचार करने लगे।  मरदाना उनकी यात्रा में बराबर उनके साथ रहा।
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सन 1485 ई0 में नानक का विवाह बटाला निवासी, मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी है। 28 वर्ष की अवस्था में उनके बड़े पुत्र श्रीचन्द का जन्म हुआ।  31 वर्ष की अवस्था में उनके द्वितीय पुत्र लक्ष्मीदास अथवा लक्ष्मीचन्द उत्पन्न हुए। गुरू नानक के पिता ने उन्हें कृषि, व्यापार आदि में लगाना चाहा किन्तु उनके सारे प्रयास निष्फल सिद्ध हुए।  घोड़े के व्यापार के निमित्त दिये हुए रूपयों को गुरू नानक ने साधुसेवा में लगा दिया और अपने पिताजी से कहा कि यही सच्चा व्यापार है। नवम्बर सन। 1504 ई0 में उनके बहनोई जयराम (उनकी बड़ी बहिन नानकी के पति) ने गुरू नानक को अपने पास सुल्तानपुर बुला लिया।  नवम्बर, 1504 ई0 से अक्तूबर 1507 ई0 तक वे सुल्तानपुर में ही रहें  अपने बहनोई जयराम के प्रयास से वे सुल्तानपुर के गवर्नर दौलत खाँ के यहाँ मादी रख लिये गये।  उन्होंने अपना कार्य अत्यन्त ईमानदारी से पूरा किया।  वहाँ की जनता तथा वहाँ के शासक दौलत खाँ नानक के कार्य से बहुत सन्तुष्ट हुए।  वे अपनी आय का अधिकांश भाग गरीबों और साधुओं को दे देते थे। कभी-कभी वे पूरी रात परमात्मा के भजन में व्यतीत कर देते थे।  मरदाना तलवण्डी से आकर यहीं गुरू नानक का सेवक बन गया था और अन्त तक उनके साथ रहा।  गुरू नानक देव अपने पद गाते थे और मरदाना रवाब बजाता था। गुरू नानक नित्य प्रात: बेई नदी में स्नान करने जाया करते थे।  कहते हैं कि एक दिन वे स्नान करने के पश्चात वन में अन्तर्धान हो गये।  उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हुआ।  परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया और कहा- मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ, मैंने तुम्हें आनन्दित किया है।  जो तुम्हारे सम्पर्क में आयेगें, वे भी आनन्दित होगें।  जाओ नाम में रहो, दान दो, उपासना करो, स्वयं नाम लो और दूसरों से भी नाम स्मरण कराओं। इस घटना के पश्चात वे अपने परिवार का भार अपने श्वसुर मूला को सौंपकर विचरण करने निकल पड़े और धर्म का प्रचार करने लगे।  मरदाना उनकी यात्रा में बराबर उनके साथ रहा।  
 
 
==यात्राएँ==
 
==यात्राएँ==
*गुरू नानक की पहली 'उदासी' (विचरण यात्रा) अक्तूबर , 1507 ई0 में 1515 ई0 तक रही। इस यात्रा में उन्होंने [[हरिद्वार]], [[अयोध्या]], [[प्रयाग]], [[काशी]] , [[गया]], पटना, असम, [[जगन्नाथपुरी]], [[रामेश्वर]], [[सोमनाथ]], [[द्वारिका]], नर्मदातट, बीकानेर, [[पुष्कर]]तीर्थ, [[दिल्ली]], पानीपत, [[कुरूक्षेत्र]], मुल्तान, लाहौर आदि स्थानों में भ्रमण किया।  उन्होंने बहुतों का हृदय परिवर्तन किया।  ठगों को साधु बनाया, वेश्याओं का अन्त:करण शुद्ध कर नाम का दान दिया, कर्मकाण्डियों को बाह्याडम्बरों से निकालकर रागात्मिकता भक्ति में लगाया, अहंकारियों का अहंकार दूर कर उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया।  यात्रा से लौटकर वे दो वर्ष तक अपने माता-पिता के साथ रहे।   
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*गुरु नानक की पहली 'उदासी' (विचरण यात्रा) अक्तूबर , 1507 ई॰ में 1515 ई॰ तक रही। इस यात्रा में उन्होंने [[हरिद्वार]], [[अयोध्या]], [[प्रयाग]], [[काशी]] , [[गया]], पटना, असम, [[जगन्नाथपुरी]], [[रामेश्वर]], [[सोमनाथ]], [[द्वारिका]], नर्मदातट, बीकानेर, [[पुष्कर]]तीर्थ, [[दिल्ली]], पानीपत, [[कुरुक्षेत्र]], मुल्तान, लाहौर आदि स्थानों में भ्रमण किया।  उन्होंने बहुतों का हृदय परिवर्तन किया।  ठगों को साधु बनाया, वेश्याओं का अन्त:करण शुद्ध कर नाम का दान दिया, कर्मकाण्डियों को बाह्याडम्बरों से निकालकर रागात्मिकता भक्ति में लगाया, अहंकारियों का अहंकार दूर कर उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया।  यात्रा से लौटकर वे दो वर्ष तक अपने माता-पिता के साथ रहे।   
*उनकी दूसरी 'उदासी' 1517 ई0 से 1518 ई0 तक यानी एक वर्ष की रही।  इसमें उन्होंने ऐमनाबाद, सियालकोट, सुमेर पर्वत आदि की यात्रा की और अन्त में वे करतारपुर पहुँचे।
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*उनकी दूसरी 'उदासी' 1517 ई॰ से 1518 ई॰ तक यानी एक वर्ष की रही।  इसमें उन्होंने ऐमनाबाद, सियालकोट, सुमेर पर्वत आदि की यात्रा की और अन्त में वे करतारपुर पहुँचे।
*तीसरी 'उदासी' 1518 ई0 से 1521 ई0 तक लगभग तीन वर्ष की रही।  इसमें उन्होंने रियासत बहावलपुर, साधुबेला (सिन्धु), [[मक्का]], [[मदीना]], बगदाद, बल्ख बुखारा, काबुल, कन्धार, ऐमानाबाद आदि स्थानों की यात्रा की।  1521 ई0 में ऐमराबाद पर [[बाबर]] का आक्रमण गुरू नानक ने स्वयं अपनी आँखों से देखा था। अपनी यात्राओं को समाप्त कर वे करतारपुर में बस गये और 1521 ई0 से 1539 ई0 तक वहीं रहे।
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*तीसरी 'उदासी' 1518 ई॰ से 1521 ई॰ तक लगभग तीन वर्ष की रही।  इसमें उन्होंने रियासत बहावलपुर, साधुबेला (सिन्धु), [[मक्का]], [[मदीना]], बगदाद, बल्ख बुखारा, काबुल, कन्धार, ऐमानाबाद आदि स्थानों की यात्रा की।  1521 ई॰ में ऐमराबाद पर [[बाबर]] का आक्रमण गुरु नानक ने स्वयं अपनी आँखों से देखा था। अपनी यात्राओं को समाप्त कर वे करतारपुर में बस गये और 1521 ई॰ से 1539 ई॰ तक वहीं रहे।
 
==व्यक्तित्व==  
 
==व्यक्तित्व==  
गुरूनानक का व्यक्तित्व असाधारण था। उनमें पैगम्बर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्मसुधारक, समाज-सुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबन्धु सभी के गुण उत्कृष्ट मात्रा में विद्यमान थे।  उनमें विचार-शक्ति और क्रिया-शक्ति का अपूर्व सामंजस्य था। उन्होंने पूरे देश की यात्रा की। लोगों पर उनके विचारों का असाधारण प्रभाव पड़ा।  उनमें सभी गुण मौजूद थे। पैगंबर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्मसुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबंधु आदि सभी गुण जैसे एक व्यक्ति में सिमटकर आ गए थे।  उनकी रचना 'जपुजी' का सिक्खों के लिए वही महत्व है जो हिंदुओं के लिए [[गीता]] का है।
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गुरुनानक का व्यक्तित्व असाधारण था। उनमें पैगम्बर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्मसुधारक, समाज-सुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबन्धु सभी के गुण उत्कृष्ट मात्रा में विद्यमान थे।  उनमें विचार-शक्ति और क्रिया-शक्ति का अपूर्व सामंजस्य था। उन्होंने पूरे देश की यात्रा की। लोगों पर उनके विचारों का असाधारण प्रभाव पड़ा।  उनमें सभी गुण मौजूद थे। पैगंबर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्मसुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबंधु आदि सभी गुण जैसे एक व्यक्ति में सिमटकर आ गए थे।  उनकी रचना 'जपुजी' का सिक्खों के लिए वही महत्व है जो हिंदुओं के लिए [[गीता]] का है।
 
 
 
==रचनाएँ और शिक्षाएँ==
 
==रचनाएँ और शिक्षाएँ==
[[चित्र:gurudwara.jpg| गुरुद्वारा-मथुरा<br /> Gurudwara-mathura|thumb|200px]]
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[[चित्र:gurudwara.jpg| गुरुद्वारा-[[मथुरा]]<br /> Gurudwara-mathura|thumb|250px]]
'श्री गुरू-ग्रन्थ साहब' में उनकी रचनाएँ 'महला 1' के नाम से संकलित हैं। गुरू नानक की शिक्षा का मूल निचोड़ यही है कि परमात्मा एक, अनन्त, सर्वशक्तिमान, सत्य, कर्त्ता, निर्भय, निर्वर, अयोनि, स्वयंभू है। वह सर्वत्र व्याप्त है। मूर्ति-पूजा आदि निरर्थक है। बाह्य साधनों से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता।  आन्तरिक साधना ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र उपाय है।  गुरू-कृपा, परमात्मा कृपा एवं शुभ कर्मों का आचरण इस साधना के अंग हैं।  नाम-स्मरण उसका सर्वोपरि तत्व है, और 'नाम' गुरू के द्वारा ही प्राप्त होता है। गुरू नानक की वाणी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से ओत-प्रोत है।  उनकी वाणी में यत्र-तत्र तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति की मनोहर झाँकी मिलती है, जिसमें उनकी असाधारण देश-भक्ति और राष्ट्र-प्रेम परिलक्षित होता है।  उन्होंने हिंन्दूओं-मुसलमानों दोनों की प्रचलित रूढ़ियों एवं कुसंस्कारों की तीव्र भर्त्सना की है और उन्हे सच्चे हिन्दू अथवा सच्चे मुसलमान बनने की विधि बतायी है। सन्त-साहित्य में गुरू नानक ही एक ऐसे व्यक्ति हैं; जिन्होंने स्त्रियों की निन्दा नहीं की, अपितु उनकी महत्ता स्वीकार की है। गुरूनानक देव जी ने अपने अनु‍यायियों को जीवन की दस शिक्षाएँ दी-  
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'श्री गुरु-ग्रन्थ साहब' में उनकी रचनाएँ 'महला 1' के नाम से संकलित हैं। गुरु नानक की शिक्षा का मूल निचोड़ यही है कि परमात्मा एक, अनन्त, सर्वशक्तिमान, सत्य, कर्त्ता, निर्भय, निर्वर, अयोनि, स्वयंभू है। वह सर्वत्र व्याप्त है। मूर्ति-पूजा आदि निरर्थक है। बाह्य साधनों से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता।  आन्तरिक साधना ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र उपाय है।  गुरु-कृपा, परमात्मा कृपा एवं शुभ कर्मों का आचरण इस साधना के अंग हैं।  नाम-स्मरण उसका सर्वोपरि तत्व है, और 'नाम' गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है। गुरु नानक की वाणी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से ओत-प्रोत है।  उनकी वाणी में यत्र-तत्र तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति की मनोहर झाँकी मिलती है, जिसमें उनकी असाधारण देश-भक्ति और राष्ट्र-प्रेम परिलक्षित होता है।  उन्होंने हिंन्दूओं-मुसलमानों दोनों की प्रचलित रूढ़ियों एवं कुसंस्कारों की तीव्र भर्त्सना की है और उन्हे सच्चे हिन्दू अथवा सच्चे मुसलमान बनने की विधि बतायी है। सन्त-साहित्य में गुरु नानक ही एक ऐसे व्यक्ति हैं; जिन्होंने स्त्रियों की निन्दा नहीं की, अपितु उनकी महत्ता स्वीकार की है। गुरुनानक देव जी ने अपने अनु‍यायियों को जीवन की दस शिक्षाएँ दी-  
 
#ईश्वर एक है।  
 
#ईश्वर एक है।  
 
#सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।  
 
#सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।  
पंक्ति २८: पंक्ति ३३:
 
#बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएँ।  
 
#बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएँ।  
 
#सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा माँगनी चाहिए।  
 
#सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा माँगनी चाहिए।  
#मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से जरूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।  
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#मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।  
 
#सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।  
 
#सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।  
#भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए जरूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।  
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#भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए ज़रूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।  
 
==प्रकृति चित्रण==
 
==प्रकृति चित्रण==
गुरू नानक की कविता में कहीं-कहीं प्रकृति का बड़ा सुन्दर चित्रण मिलता है। 'तखारी' राग के बारहमाहाँ (बारहमासा) में प्रत्येक मास का हृदयग्राही वर्णन है। चैत्र में सारा वन प्रफुल्लित हो जाता है, पुष्पों पर भ्रमरों का गुंजन बड़ा ही सुहावना लगता है। बैशाख में शाखाएँ अनेक वेश धारण करती हैं।  इसी प्रकार ज्येष्ठ-आषाढ़ की तपती धरती, सावन-भादों की रिमझिम, दादर, मोर, कोयलों की पुकारें, दामिनी की चमक, सर्पों एवं मच्छरों के दर्शन आदि का रोचक वर्णन है। प्रत्येक ऋत की विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है।
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गुरु नानक की कविता में कहीं-कहीं प्रकृति का बड़ा सुन्दर चित्रण मिलता है। 'तखारी' राग के बारहमाहाँ (बारहमासा) में प्रत्येक मास का हृदयग्राही वर्णन है। चैत्र में सारा वन प्रफुल्लित हो जाता है, पुष्पों पर भ्रमरों का गुंजन बड़ा ही सुहावना लगता है। वैशाख में शाखाएँ अनेक वेश धारण करती हैं।  इसी प्रकार ज्येष्ठ-आषाढ़ की तपती धरती, सावन-भादों की रिमझिम, दादर, मोर, कोयलों की पुकारें, दामिनी की चमक, सर्पों एवं मच्छरों के दर्शन आदि का रोचक वर्णन है। प्रत्येक ऋत की विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है।
 
==राग और रस==
 
==राग और रस==
गुरू नानक की वाणी में शान्त एवं श्रृंगार रस की प्रधानता है।  इन दोनों रसों के अतिरिक्त, करूण, भयानक, वीर रौद्र, अद्भूत, हास्य और वीभत्स रस भी मिलते हैं। उनकी कविता में वैसे तो सभी प्रसिद्ध अलंकार मिल जाते हैं, किन्तु उपमा और रूपक अलंकारों की प्रधानता है। कहीं-कहीं अन्योक्तियाँ बड़ी सुन्दर बन पड़ी हैं। गुरू नानक ने अपनी रचना में निम्नलिखित उन्नीस रागों के प्रयोग किये हैं- सिरी, माझ, गऊड़ी, आसा, गूजरी, बडहंस, सोरठि, धनासरी, तिलंग, सही, बिलावल, रामकली, मारू, तुखारी, भरेउ, वसन्त, सारंग, मला, प्रभाती।
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गुरु नानक की वाणी में शान्त एवं श्रृंगार रस की प्रधानता है।  इन दोनों रसों के अतिरिक्त, करुण, भयानक, वीर रौद्र, अद्भूत, हास्य और वीभत्स रस भी मिलते हैं। उनकी कविता में वैसे तो सभी प्रसिद्ध अलंकार मिल जाते हैं, किन्तु उपमा और रूपक अलंकारों की प्रधानता है। कहीं-कहीं अन्योक्तियाँ बड़ी सुन्दर बन पड़ी हैं। गुरु नानक ने अपनी रचना में निम्नलिखित उन्नीस रागों के प्रयोग किये हैं- सिरी, माझ, गऊड़ी, आसा, गूजरी, बडहंस, सोरठि, धनासरी, तिलंग, सही, बिलावल, रामकली, मारू, तुखारी, भरेउ, वसन्त, सारंग, मला, प्रभाती।
 
==भाषा==
 
==भाषा==
भाषा की दृष्टि से गुरू नानक की वाणी में फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिन्धी, [[ब्रजभाषा]], खड़ीबोली आदि के प्रयोग हुए हैं। [[संस्कृत]], अरबी और फारसी के अनेक शब्द ग्रहण किये गये हैं। 1521 तक इन्होंने तीन यात्राचक्र पूरे किए, जिनमें भारत, फारस और अरब के मुख्य मुख्य स्थानों का भ्रमण किया । 1539 में इनकी मृत्यु हुई । आपने गुरूगद्दी का भार गुरू अंगददेव (बाबा लहना) को सौंप दिया और स्वयं करतारपुर में 'ज्योति' में लीन हो गए।  गुरू नानक आंतरिक साधना को सर्वव्यापी परमात्मा की प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे।  वे रूढ़ियों के कट्टर विरोधी थे। गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु-सभी के गुण समेटे हुए थे ।
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भाषा की दृष्टि से गुरु नानक की वाणी में फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिन्धी, [[ब्रजभाषा]], खड़ीबोली आदि के प्रयोग हुए हैं। [[संस्कृत]], अरबी और फारसी के अनेक शब्द ग्रहण किये गये हैं। 1521 तक इन्होंने तीन यात्राचक्र पूरे किए, जिनमें भारत, फारस और अरब के मुख्य मुख्य स्थानों का भ्रमण किया। 1539 में इनकी मृत्यु हुई। आपने गुरुगद्दी का भार गुरु अंगददेव (बाबा लहना) को सौंप दिया और स्वयं करतारपुर में 'ज्योति' में लीन हो गए।  गुरु नानक आंतरिक साधना को सर्वव्यापी परमात्मा की प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे।  वे रूढ़ियों के कट्टर विरोधी थे। गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु-सभी के गुण समेटे हुए थे।
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#द सिख रिलीजन : मैक्स आर्थर मैकालिफ (खण्ड 1) क्लैरेंडन प्रेस आक्सफोर्ड, 1909 ई0;  
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#लाइफ आफ गुरू नानक देव: करतार सिंह, सिख पब्लिशिंग हाउस, अमृतसर।]
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१२:५५, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण

गुरु नानक / Guru Nanak

गुरु नानक सिखों के प्रथम गुरु (आदि गुरु) है। इनके अनुयायी इन्हें गुरु नानक, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। 15 अप्रैल, 1469 को पंजाब के तलवंडी नामक स्थान में, एक किसान के घर उत्पन्न हुए। यह स्थान लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है। अब यह 'नानकाना साहब' कहलाता है। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया।

गुरु नानक
Guru Nanak

परिचय

नानक के पिता का नाम कालू एवं माता का नाम तृप्ता था। उनके पिता खत्री जाति एवं बेदी वंश के थे। वे कृषि और साधारण व्यापार करते थे और गाँव के पटवारी भी थे। गुरु नानक देव की बाल्यावस्था गाँव में व्यतीत हुई। बाल्यावस्था से ही उनमें असाधारणता और विचित्रता थी। उनके साथी जब खेल-कूद में अपना समय व्यतीत करते तो वे नेत्र बन्द कर आत्म-चिन्तन में निमग्न हो जाते थे। इनकी इस प्रवृत्ति से उनके पिता कालू चिन्तित रहते थे।

Blockquote-open.gif नानक सचे की साची कार। सत्यस्वरूप भगवान की कृति संसार भी सत्य है। - नानक (जपुजी, 31) Blockquote-close.gif

सात वर्ष की आयु में वे पढ़ने के लिए गोपाल अध्यापक के पास भेजे गये। एक दिन जब वे पढ़ाई से विरक्त हो, अन्तर्मुख होकर आत्म-चिन्तन में निमग्न थे, अध्यापक ने पूछा- पढ़ क्यों नहीं रहे हो? गुरु नानक का उत्तर था- मैं सारी विद्याएँ और वेद-शास्त्र जानता हूँ। गुरु नानक देव ने कहा- मुझे तो सांसारिक पढ़ाई की अपेक्षा परमात्मा की पढ़ाई अधिक आनन्दायिनी प्रतीत होती है, यह कहकर निम्नलिखित वाणी का उच्चारण किया- मोह को जलाकर (उसे) घिसकर स्याही बनाओ, बुद्धि को ही श्रेष्ठ कागद बनाओ, प्रेम की क़लम बनाओ और चित्त को लेखक। गुरु से पूछ कर विचारपूर्वक लिखो (कि उस परमात्मा का) न तो अन्त है और न सीमा है। [१] इस पर अध्यापक जी आश्चर्यान्वित हो गये और उन्होंने गुरु नानक को पहुँचा हुआ फ़क़ीर समझकर कहा- तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो। इसके पश्चात गुरु नानक ने स्कूल छोड़ दिया। वे अपना अधिकांश समय मनन, ध्यानासन, ध्यान एवं सत्संग में व्यतीत करने लगे। गुरु नानक से सम्बन्धित सभी जन्म साखियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के साधु-महत्माओं का सत्संग किया था। उनमें से बहुत से ऐसे थे, जो धर्मशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। अन्त: साक्ष्य के आधार पर यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि गुरु नानक ने फारसी का भी अध्ययन किया था। 'गुरु-ग्रन्थ साहब' में गुरु नानक द्वारा कुछ पद ऐसे रचे गये हैं, जिनमें फारसी शब्दों का आधिक्य है।


गुरु नानक की अन्तमुंखी-प्रवृत्ति तथा विरक्ति-भावना से उनके पिता कालू चिन्तित रहा करते थे। नानक को विक्षिप्त समझकर कालू ने उन्हें भैंसे चराने का काम दिया। भैंसे चराते-चराते नानक जी सो गये। भैंसें एक किसान के खेत में चली गयीं और उन्होंने उसकी फ़सल चर डाली। किसान ने इसका उलाहना दिया किन्तु जब उसका खेत देखा गया, तो सभी आश्चर्य में पड़े गये। फ़सल का एक पौधा भी नहीं चरा गया था। 9 वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। यज्ञोपवीत के अवसर पर उन्होंने पण्डित से कहा - दया कपास हो, सन्तोष सूत हो, संयम गाँठ हो, (और) सत्य उस जनेउ की पूरन हो। यही जीव के लिए (आध्यात्मिक) जनेऊ है। ऐ पाण्डे यदि इस प्रकार का जनेऊ तुम्हारे पास हो, तो मेरे गले में पहना दो, यह जनेऊ न तो टूटता है, न इसमें मैल लगता है, न यह जलता है और न यह खोता ही है। [२]


सन 1485 ई॰ में नानक का विवाह बटाला निवासी, मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी है। 28 वर्ष की अवस्था में उनके बड़े पुत्र श्रीचन्द का जन्म हुआ। 31 वर्ष की अवस्था में उनके द्वितीय पुत्र लक्ष्मीदास अथवा लक्ष्मीचन्द उत्पन्न हुए। गुरु नानक के पिता ने उन्हें कृषि, व्यापार आदि में लगाना चाहा किन्तु उनके सारे प्रयास निष्फल सिद्ध हुए। घोड़े के व्यापार के निमित्त दिये हुए रुपयों को गुरु नानक ने साधुसेवा में लगा दिया और अपने पिताजी से कहा कि यही सच्चा व्यापार है। नवम्बर सन। 1504 ई॰ में उनके बहनोई जयराम (उनकी बड़ी बहिन नानकी के पति) ने गुरु नानक को अपने पास सुल्तानपुर बुला लिया। नवम्बर, 1504 ई॰ से अक्तूबर 1507 ई॰ तक वे सुल्तानपुर में ही रहें अपने बहनोई जयराम के प्रयास से वे सुल्तानपुर के गवर्नर दौलत खाँ के यहाँ मादी रख लिये गये। उन्होंने अपना कार्य अत्यन्त ईमानदारी से पूरा किया। वहाँ की जनता तथा वहाँ के शासक दौलत खाँ नानक के कार्य से बहुत सन्तुष्ट हुए। वे अपनी आय का अधिकांश भाग ग़रीबों और साधुओं को दे देते थे। कभी-कभी वे पूरी रात परमात्मा के भजन में व्यतीत कर देते थे। मरदाना तलवण्डी से आकर यहीं गुरु नानक का सेवक बन गया था और अन्त तक उनके साथ रहा। गुरु नानक देव अपने पद गाते थे और मरदाना रवाब बजाता था। गुरु नानक नित्य प्रात: बेई नदी में स्नान करने जाया करते थे। कहते हैं कि एक दिन वे स्नान करने के पश्चात वन में अन्तर्धान हो गये। उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया और कहा- मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ, मैंने तुम्हें आनन्दित किया है। जो तुम्हारे सम्पर्क में आयेगें, वे भी आनन्दित होगें। जाओ नाम में रहो, दान दो, उपासना करो, स्वयं नाम लो और दूसरों से भी नाम स्मरण कराओं। इस घटना के पश्चात वे अपने परिवार का भार अपने श्वसुर मूला को सौंपकर विचरण करने निकल पड़े और धर्म का प्रचार करने लगे। मरदाना उनकी यात्रा में बराबर उनके साथ रहा।

यात्राएँ

  • गुरु नानक की पहली 'उदासी' (विचरण यात्रा) अक्तूबर , 1507 ई॰ में 1515 ई॰ तक रही। इस यात्रा में उन्होंने हरिद्वार, अयोध्या, प्रयाग, काशी , गया, पटना, असम, जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, सोमनाथ, द्वारिका, नर्मदातट, बीकानेर, पुष्करतीर्थ, दिल्ली, पानीपत, कुरुक्षेत्र, मुल्तान, लाहौर आदि स्थानों में भ्रमण किया। उन्होंने बहुतों का हृदय परिवर्तन किया। ठगों को साधु बनाया, वेश्याओं का अन्त:करण शुद्ध कर नाम का दान दिया, कर्मकाण्डियों को बाह्याडम्बरों से निकालकर रागात्मिकता भक्ति में लगाया, अहंकारियों का अहंकार दूर कर उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। यात्रा से लौटकर वे दो वर्ष तक अपने माता-पिता के साथ रहे।
  • उनकी दूसरी 'उदासी' 1517 ई॰ से 1518 ई॰ तक यानी एक वर्ष की रही। इसमें उन्होंने ऐमनाबाद, सियालकोट, सुमेर पर्वत आदि की यात्रा की और अन्त में वे करतारपुर पहुँचे।
  • तीसरी 'उदासी' 1518 ई॰ से 1521 ई॰ तक लगभग तीन वर्ष की रही। इसमें उन्होंने रियासत बहावलपुर, साधुबेला (सिन्धु), मक्का, मदीना, बगदाद, बल्ख बुखारा, काबुल, कन्धार, ऐमानाबाद आदि स्थानों की यात्रा की। 1521 ई॰ में ऐमराबाद पर बाबर का आक्रमण गुरु नानक ने स्वयं अपनी आँखों से देखा था। अपनी यात्राओं को समाप्त कर वे करतारपुर में बस गये और 1521 ई॰ से 1539 ई॰ तक वहीं रहे।

व्यक्तित्व

गुरुनानक का व्यक्तित्व असाधारण था। उनमें पैगम्बर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्मसुधारक, समाज-सुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबन्धु सभी के गुण उत्कृष्ट मात्रा में विद्यमान थे। उनमें विचार-शक्ति और क्रिया-शक्ति का अपूर्व सामंजस्य था। उन्होंने पूरे देश की यात्रा की। लोगों पर उनके विचारों का असाधारण प्रभाव पड़ा। उनमें सभी गुण मौजूद थे। पैगंबर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्मसुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबंधु आदि सभी गुण जैसे एक व्यक्ति में सिमटकर आ गए थे। उनकी रचना 'जपुजी' का सिक्खों के लिए वही महत्व है जो हिंदुओं के लिए गीता का है।

रचनाएँ और शिक्षाएँ

गुरुद्वारा-मथुरा
Gurudwara-mathura

'श्री गुरु-ग्रन्थ साहब' में उनकी रचनाएँ 'महला 1' के नाम से संकलित हैं। गुरु नानक की शिक्षा का मूल निचोड़ यही है कि परमात्मा एक, अनन्त, सर्वशक्तिमान, सत्य, कर्त्ता, निर्भय, निर्वर, अयोनि, स्वयंभू है। वह सर्वत्र व्याप्त है। मूर्ति-पूजा आदि निरर्थक है। बाह्य साधनों से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। आन्तरिक साधना ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। गुरु-कृपा, परमात्मा कृपा एवं शुभ कर्मों का आचरण इस साधना के अंग हैं। नाम-स्मरण उसका सर्वोपरि तत्व है, और 'नाम' गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है। गुरु नानक की वाणी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से ओत-प्रोत है। उनकी वाणी में यत्र-तत्र तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति की मनोहर झाँकी मिलती है, जिसमें उनकी असाधारण देश-भक्ति और राष्ट्र-प्रेम परिलक्षित होता है। उन्होंने हिंन्दूओं-मुसलमानों दोनों की प्रचलित रूढ़ियों एवं कुसंस्कारों की तीव्र भर्त्सना की है और उन्हे सच्चे हिन्दू अथवा सच्चे मुसलमान बनने की विधि बतायी है। सन्त-साहित्य में गुरु नानक ही एक ऐसे व्यक्ति हैं; जिन्होंने स्त्रियों की निन्दा नहीं की, अपितु उनकी महत्ता स्वीकार की है। गुरुनानक देव जी ने अपने अनु‍यायियों को जीवन की दस शिक्षाएँ दी-

  1. ईश्वर एक है।
  2. सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।
  3. ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है।
  4. ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।
  5. ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए।
  6. बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएँ।
  7. सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा माँगनी चाहिए।
  8. मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।
  9. सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।
  10. भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए ज़रूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।

प्रकृति चित्रण

गुरु नानक की कविता में कहीं-कहीं प्रकृति का बड़ा सुन्दर चित्रण मिलता है। 'तखारी' राग के बारहमाहाँ (बारहमासा) में प्रत्येक मास का हृदयग्राही वर्णन है। चैत्र में सारा वन प्रफुल्लित हो जाता है, पुष्पों पर भ्रमरों का गुंजन बड़ा ही सुहावना लगता है। वैशाख में शाखाएँ अनेक वेश धारण करती हैं। इसी प्रकार ज्येष्ठ-आषाढ़ की तपती धरती, सावन-भादों की रिमझिम, दादर, मोर, कोयलों की पुकारें, दामिनी की चमक, सर्पों एवं मच्छरों के दर्शन आदि का रोचक वर्णन है। प्रत्येक ऋत की विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है।

राग और रस

गुरु नानक की वाणी में शान्त एवं श्रृंगार रस की प्रधानता है। इन दोनों रसों के अतिरिक्त, करुण, भयानक, वीर रौद्र, अद्भूत, हास्य और वीभत्स रस भी मिलते हैं। उनकी कविता में वैसे तो सभी प्रसिद्ध अलंकार मिल जाते हैं, किन्तु उपमा और रूपक अलंकारों की प्रधानता है। कहीं-कहीं अन्योक्तियाँ बड़ी सुन्दर बन पड़ी हैं। गुरु नानक ने अपनी रचना में निम्नलिखित उन्नीस रागों के प्रयोग किये हैं- सिरी, माझ, गऊड़ी, आसा, गूजरी, बडहंस, सोरठि, धनासरी, तिलंग, सही, बिलावल, रामकली, मारू, तुखारी, भरेउ, वसन्त, सारंग, मला, प्रभाती।

भाषा

भाषा की दृष्टि से गुरु नानक की वाणी में फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिन्धी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के प्रयोग हुए हैं। संस्कृत, अरबी और फारसी के अनेक शब्द ग्रहण किये गये हैं। 1521 तक इन्होंने तीन यात्राचक्र पूरे किए, जिनमें भारत, फारस और अरब के मुख्य मुख्य स्थानों का भ्रमण किया। 1539 में इनकी मृत्यु हुई। आपने गुरुगद्दी का भार गुरु अंगददेव (बाबा लहना) को सौंप दिया और स्वयं करतारपुर में 'ज्योति' में लीन हो गए। गुरु नानक आंतरिक साधना को सर्वव्यापी परमात्मा की प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे। वे रूढ़ियों के कट्टर विरोधी थे। गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु-सभी के गुण समेटे हुए थे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जालि मोह घसि मसु करि, मति कागदु करि सारू। भाउ क़लम करि चितु लेखारी, गुरु पुछि लिखु बीचारू। लिखु नाम सलाह लिखु लिखु अन्त न पारावारू"।1।6 (श्री गुरु ग्रन्थ, सिरी रागु, महला 1,पृष्ठ 16)
  2. दइया कपाह सन्तोखु सृतु गंढी सतु बटु, एहु जनेऊ जी अका हई ता पाडे धतु।। ना एहु तुटै न मलु लगै ना एहु जले न जाए।। (श्री गुरु ग्रन्थ साहिब, आसा की वार, महला 1, पृ0 471)

[सहायक ग्रन्थ-

  1. द सिख रिलीजन : मैक्स आर्थर मैकालिफ (खण्ड 1) क्लैरेंडन प्रेस आक्सफोर्ड, 1909 ई॰;
  2. लाइफ आफ गुरु नानक देव: करतार सिंह, सिख पब्लिशिंग हाउस, अमृतसर।]

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