नारद

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नारद मुनि / Narad Muni

नारद मुनि, हिन्दु शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों मे से एक हैं । उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है । वे भगवान विष्णु के प्रिय भक्तों में से एक माने जाते है ।


महायोगी नारद जी ब्रह्मा जी के मानसपुत्र हैं। वे प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवज्जप-महती के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर–अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है।


भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं। ये भगवान् के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं इनका जीवन मंगल के लिए ही है। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं।

देवर्षि नारद

देवर्षि नारद, व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरू हैं। श्रीमद्भागवत, जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा रामायण, जो मर्यादा-पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही प्रह्लाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष आदि महान् भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये भागवत धर्म के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वायम्भुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित 'भक्तिसूत्र' बहुत महत्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण श्रीमद् भागवत् गीता के दशम अध्याय में कहते हैं- अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।


नारद के भक्तिसूत्र के अलावा

  • नारद-महापुराण,
  • बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ),
  • नारद-परिव्राज कोपनिषद् नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं। देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ है- सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:।

अर्थात सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए।