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*[[मथुरा]] में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बांसुरी [[ब्रज]] का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भगवान श्री [[कृष्ण]] की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें मुरलीधर और वंशीधर आदि नामों से पुकारा जाता है।
मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बांसुरी ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है । भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें मुरलीधर और वंशीधर आदि नामों से पुकारा जाता है । वर्तमान में भी ब्रज के लोकसंगीत में ढोल मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा, पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है ।
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*वर्तमान में भी ब्रज के लोकसंगीत में [[ढोल]] [[मृदंग]], [[झांझ]], [[मंजीरा]], [[ढप]], [[नगाड़ा]], [[पखावज]], [[एकतारा]] आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है।
  बांसुरी अत्यंत लोकप्रिय सुषिस वाद्य यंत्र माना जाता है , क्यों वह प्राकृतिक बांस से बनाया जाता है , इसलिये लोग उसे बांस बांसुरी भी कहते हैं ।
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*बांसुरी अत्यंत लोकप्रिय सुषिस वाद्य यंत्र माना जाता है, क्यों वह प्राकृतिक बांस से बनाया जाता है, इसलिये लोग उसे बांस बांसुरी भी कहते हैं।
  बांसुरी बनाने की प्रक्रिया काफी कठिन नहीं है , सब से पहले बांसुरी के अंदर के गांठों को हटाया जाता है , फिर उस के शरीर पर कुल सात छेद खोदे जाते हैं । सब से पहला छेद मुंह से फूंकने के लिये छोड़ा जाता है , बाकी छेद अलग अलग आवाज निकले का काम देते हैं ।  
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*बांसुरी बनाने की प्रक्रिया काफ़ी कठिन नहीं है, सब से पहले बांसुरी के अंदर के गांठों को हटाया जाता है, फिर उस के शरीर पर कुल सात छेद खोदे जाते हैं। सब से पहला छेद मुंह से फूंकने के लिये छोड़ा जाता है, बाक़ी छेद अलग अलग आवाज निकले का काम देते हैं।  
          बांसुरी देखने में छोटा व सरल लगता है , पर उस का इतिहास कोई सात हजार वर्ष पुराना है । करीब चार हजार पांच सौ वर्षों से पहले हड्डी बांसुरी को बांस बांसुरी का रूप दिया । सातवीं शताब्दी से बांसुरी को फिर सुधार कर उस के शरीर पर एक सूक्ष्म चादर छेद लगाया गया , जिस से उस की अभिव्यक्ति काफी बड़े हद तक विकसित हुई और बजाने की तकनीक कला भी बुलंदी पर पहुंच गयी । दसवीं शताब्दी में कविताओं को गाने के रूप में सुनाया जाता था , अतः बांसुरी कविताओं के गाने में प्रमुख वाद्य यंत्र की भूमिका निभाने लगा था , साथ ही स्थानीय औपेरों और अल्पसंख्यक जातियों की संगीत मंडलियों में बांसुरी का स्थान भी अपरिहार्य रहा ।
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*बांसुरी की अभिव्यक्त शक्ति अत्यंत विविधतापूर्ण है, उस से लम्बे, ऊंचे, चंचल, तेज व भारी प्रकारों के सूक्ष्म भाविक मधुर संगीत बजाया जाता है। लेकिन इतना ही नहीं, वह विभिन्न प्राकृतिक आवाजों की नक़ल करने में निपुण है, मिसाल के लिये उससे नाना प्रकार के पक्षियों की आवाज हू। व हू नक्लक़ की जा सकती है।       
बांसुरी की अभिव्यक्त शक्ति अत्यंत विविधतापूर्ण है , उस से लम्बे , ऊंचे , चंचल , तेज व भारी प्रकारों के सूक्ष्म भाविक मधुर संगीत बजाया जाता है । लेकिन इतना ही नहीं , वह विभिन्न प्राकृतिक आवाजों की नकल करने में निपुण है , मिसाल के लिये वह  नाना प्रकार के पक्षियों की आवाज हू व हू नकल कर सकता है ।
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*बांसुरी की बजाने की तकनीक कलाएं समृद्ध ही नहीं, उस की किस्में भी विविधतापूर्ण हैं, जैसे मोटी लम्बी बांसुरी, पतली नाटी बांसुरी, सात छेदों वाली बांसुरी और ग्यारह छेदों वाली बांसुरी आदि देखने को मिलते हैं और उस की बजाने की शैली भी भिन्न रूपों में पायी जाती है।
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*बांसुरी,वंसी ,वेणु ,वंशिका कई सुंदर नामो से सुसज्जित है।
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*प्राचीनकाल में लोक संगीत का प्रमुख वाद्य था बाँसुरी।
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*[[मुरली]] और श्री [[कृष्ण]] एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। मुरली के बिना श्री कृष्ण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनकी मुरली के नाद रूपी ब्रह्म ने सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को आलोकित और सम्मोहित किया।
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*कृष्ण के बाद भी भारत में बाँसुरी रही, पर कुछ खोयी खोयी सी, मौन सी। मानो श्री कृष्ण की याद में उसने स्वयं को भुला दिया हो, उसका अस्तित्व तो भारत वर्ष में सदैव रहा।
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*वह कृष्ण प्रिया थी, किंतु श्री हरी के विरह में जो हाल उनके गोप गोपिकाओ का हुआ कुछ वैसा ही बाँसुरी का भी हुआ।
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*युग बदल गए, बाँसुरी की अवस्था जस की तस रही, युगों बाद [[कलि युग]] में पंडित पन्नालाल घोष जी ने अपने अथक परिश्रम से बांसुरी वाद्य में अनेक परिवर्तन कर, उसकी वादन शैली में परिवर्तन कर बाँसुरी को पुनः भारतीय संगीत में सम्माननीय स्थान दिलाया। लेकिन उनके बाद पुनः: बाँसुरी एकाकी हो गई।
  
        बांसुरी की बजाने की तकनीक कलाएं समृद्ध ही नहीं , उस की किस्में भी विविधतापूर्ण हैं , जैसे मोटा लम्बा बांसुरी , पतला नाटा बांसुरी , सात छेदों वाला बांसुरी और ग्यारह छेदों वाला बांसुरी आदि आदि देखने को मिलते हैं और उस की बजाने की शैली भी दक्षिण व उत्तर दोनों शाखाओं में भिन्न रूपों में पायी जाती है ।
 
  
    दक्षिण शाखा की शैली सूक्ष्म व स्वच्छ लगती है , संगीतकार इसी प्रकार का संगीत बजाने में मुख्य रूप से मोटे लम्बे बांसुरी का प्रयोग करते हैं । क्योंकि इस प्रकार के बांसुरी की आवाज मुलायम मीठी व भावुक है , यह शैली मुख्यतः दक्षिण चीन में प्रचलित है ।
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    जबकि उत्तर शाखा की शैली तेज व जबरदस्त लगती है , इसी प्रकार का संगीत बजाने में आम तौर पर पतले नाटे बांसुरी का प्रयोग किया जाता है । क्योंकि इसी प्रकार का बांसुरी पतला व नाटा है , इसलिये उस की आवाज ऊंची व शक्तिशाली है , यह शैली मुख्य रूप से उत्तर चीन में लोकप्रिय है
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[[Category:संगीत]]
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१२:५८, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण

बांसुरी / Bansuri

  • मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बांसुरी ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भगवान श्री कृष्ण की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें मुरलीधर और वंशीधर आदि नामों से पुकारा जाता है।
  • वर्तमान में भी ब्रज के लोकसंगीत में ढोल मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा, पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है।
  • बांसुरी अत्यंत लोकप्रिय सुषिस वाद्य यंत्र माना जाता है, क्यों वह प्राकृतिक बांस से बनाया जाता है, इसलिये लोग उसे बांस बांसुरी भी कहते हैं।
  • बांसुरी बनाने की प्रक्रिया काफ़ी कठिन नहीं है, सब से पहले बांसुरी के अंदर के गांठों को हटाया जाता है, फिर उस के शरीर पर कुल सात छेद खोदे जाते हैं। सब से पहला छेद मुंह से फूंकने के लिये छोड़ा जाता है, बाक़ी छेद अलग अलग आवाज निकले का काम देते हैं।
  • बांसुरी की अभिव्यक्त शक्ति अत्यंत विविधतापूर्ण है, उस से लम्बे, ऊंचे, चंचल, तेज व भारी प्रकारों के सूक्ष्म भाविक मधुर संगीत बजाया जाता है। लेकिन इतना ही नहीं, वह विभिन्न प्राकृतिक आवाजों की नक़ल करने में निपुण है, मिसाल के लिये उससे नाना प्रकार के पक्षियों की आवाज हू। व हू नक्लक़ की जा सकती है।
  • बांसुरी की बजाने की तकनीक कलाएं समृद्ध ही नहीं, उस की किस्में भी विविधतापूर्ण हैं, जैसे मोटी लम्बी बांसुरी, पतली नाटी बांसुरी, सात छेदों वाली बांसुरी और ग्यारह छेदों वाली बांसुरी आदि देखने को मिलते हैं और उस की बजाने की शैली भी भिन्न रूपों में पायी जाती है।
  • बांसुरी,वंसी ,वेणु ,वंशिका कई सुंदर नामो से सुसज्जित है।
  • प्राचीनकाल में लोक संगीत का प्रमुख वाद्य था बाँसुरी।
  • मुरली और श्री कृष्ण एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। मुरली के बिना श्री कृष्ण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनकी मुरली के नाद रूपी ब्रह्म ने सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को आलोकित और सम्मोहित किया।
  • कृष्ण के बाद भी भारत में बाँसुरी रही, पर कुछ खोयी खोयी सी, मौन सी। मानो श्री कृष्ण की याद में उसने स्वयं को भुला दिया हो, उसका अस्तित्व तो भारत वर्ष में सदैव रहा।
  • वह कृष्ण प्रिया थी, किंतु श्री हरी के विरह में जो हाल उनके गोप गोपिकाओ का हुआ कुछ वैसा ही बाँसुरी का भी हुआ।
  • युग बदल गए, बाँसुरी की अवस्था जस की तस रही, युगों बाद कलि युग में पंडित पन्नालाल घोष जी ने अपने अथक परिश्रम से बांसुरी वाद्य में अनेक परिवर्तन कर, उसकी वादन शैली में परिवर्तन कर बाँसुरी को पुनः भारतीय संगीत में सम्माननीय स्थान दिलाया। लेकिन उनके बाद पुनः: बाँसुरी एकाकी हो गई।