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यह वैष्णव [[पुराण]] है। इस पुराण में श्री[[कृष्ण]] को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर राशि। ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।  [[विष्णु]] के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।
 
यह वैष्णव [[पुराण]] है। इस पुराण में श्री[[कृष्ण]] को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर राशि। ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।  [[विष्णु]] के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।

०७:२५, २४ जुलाई २००९ का अवतरण

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ब्रह्म वैवर्त पुराण / Brahm Vaivart Purana

यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर राशि। ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है। विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।

कृष्ण से ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर नारायण का जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा, सावित्री, कामदेव, रति, अग्नि, वरूण, वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के 'गोलोक' में स्थित हो गए।

सृष्टि निर्माण के उपरान्त रास मण्डल में उनके अर्द्ध वाम अंग से राधा का जन्म हुआ। रोमकूपों से ग्वाल बाल और गोपियों का जन्म हुआ। गायें, हंस, तुरंग और सिंह प्रकट हुए। शिव वाहन के लिए बैल, ब्रह्मा के लिए हंस, धर्म के लिए तुरंग (अश्व) और दुर्गा के लिए सिंह दिए गए।

यह पुराण कहता है कि इस ब्रह्माण्ड में असंख्य विश्व विद्यमान हैं। प्रत्येक विश्व के अपने-अपने विष्णु, ब्रह्मा और महेश हैं। इन सभी विश्वों से ऊपर गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण निवास करते हैं। इस पुराण के चार खण्ड हैं- ब्रह्म खण्ड, प्रकृति खण्ड, गणपति खण्ड और श्रीकृष्ण जन्म खण्ड। इन चारों में दो सौ अठारह अध्याय हैं।

ब्रह्म खण्ड

ब्रह्म खण्ड में कृष्ण चरित्र की विविध लीलाओं और सृष्टि क्रम का वर्णन प्राप्त होता है। कृष्ण के शरीर से ही समस्त देवी-देवताओं को आविर्भाव माना गया है। इस खण्ड में भगवान सूर्य द्वारा संकलित एक स्वतन्त्र 'आयुर्वेद संहिता' का भी उल्लेख मिलता है। आयुर्वेद समस्त रोगों का परिज्ञान करके उनके प्रभाव को नष्ट करने की सामर्थ्य रखता है। इसी खण्ड में श्रीकृष्ण के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप में राधा का आविर्भाव उनके वाम अंग से दिखाया गया है।

प्रकृति खण्ड

प्रकृति खण्ड में विभिन्न देवियों के आविर्भाव और उनकी शक्तियों तथा चरित्रों का सुन्दर विवरण प्राप्त होता है। इस खण्ड का प्रारम्भ 'पंचदेवीरूपा प्रकृति' के वर्णन से होता है। ये पांच रूप – यशदुर्गा, महालक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री और सावित्री के हैं, जो अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए रूप धारण करती हैं इनके अतिरिक्त सर्वोपरि रासेश्वरी रूप राधा का है। राधा-कृष्ण चरित्र और राधा जी की पूजा-अर्चना का संक्षिप्त परिचय इस खण्ड में प्राप्त होता है। इन देवियों के विभिन्न नामों का उल्लेख भी प्रकृति खण्ड में है।

गणपति खण्ड

गणपति खण्ड में गणेश जी के जन्म की कथा और पुण्यक व्रत की महिमा का वर्णन किया गया हैं गणेश जी के चरित्र और लीलाओं का वर्णन भी इस खण्ड में है। बालक गणेश को जब शनिदेव देख लेते हैं तो उनके दृष्टिपात से गणेश जी का सिर कटकर गिर जाता है। तब पार्वती की प्रार्थना पर विष्णुजी हाथी का सिर काटकर गणेश के धड़ पर लगाकर उन्हें जीवित कर देते हैं। गणेश जी के आठ विघ्ननाशक नामों की सूची इस खण्ड में इस प्रकार दी गई है- विघ्नेश, गणेश, हेरम्ब, गजानन, लंबोदर, एकदंत, शूर्पकर्ण और विनायक। इसी खण्ड में 'सूर्य कवच' तथा 'सूर्य स्तोत्र' का भी वर्णन है। अन्त में यह कहा गया है कि गणेश जी की पूजा में तुलसी दल कभी नहीं अर्पित करना चाहिए। परशुराम और राज सुचन्द्र के वध के प्रसंग में 'दशाक्षरी विद्या' , 'काली कवच' और 'दुर्गा कवच' का वर्णन भी इसी खण्ड में मिलता है।

श्रीकृष्ण जन्म खण्ड

श्रीकृष्ण जन्म खण्ड एक सौ एक अध्यायों में फैला सबसे बड़ा खण्ड है। इसमें श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। 'श्रीमद्भागवत' में भी इसी प्रकार श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन उपलब्ध होता है। इस खण्ड में योगनिद्रा द्वारा वर्णित 'श्रीकृष्ण कवच' का उल्लेख है जिसके पाठ से दैहिक, दैविक तथा भौतिक भयों का समूल नाश हो जाता है। श्रीकृष्ण के तेंतीस नामों की सूची भी इस खण्ड में दी गई है।

बलराम जी के नौ नामों और राधा जी के सोलह नामों का वर्णन भी श्रीकृष्ण जन्म खण्ड में प्राप्त होता है। इसी खण्ड में सौ के लगभग उन वस्तुओं, द्रव्यों और अनुष्ठानों की सूची भी दी गई है जिनके मात्र से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इसी खण्ड में तिथि विशेष में विभिन्न तीर्थों में स्नान करने और पुण्य लाभ पाने का उल्लेख किया गया है। 'कार्तिक पूर्णिमा' में राधा जी की पूजा-अर्चना करने पर बल दिया गया है, जो विशेष फलदायी है।

इसी खण्ड में कहा गया है कि 'अन्नदान' से बढ़कर कोई दूसरा दान नहीं है। भगवान के ग्यारह नामों- राम, नारायण, अनंत, मुकुंद, मधुसूदन, कृष्ण, केशव, कंसरि, हरे, वैकुण्ठ और वामन को अत्यन्त पुण्यदायक तथा सहस्त्र कोटि जन्मों का पाप नष्ट करने वाला बताया गया है।

'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में रासलीला का वर्णन 'भागवत पुराण' के रास पंचाध्यायी से काफी भिन्न है। 'भागवत पुराण' का वर्णन साहित्यिक और सात्विक है जबकि 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' का वर्णन अत्यन्त श्रृंगारिक तथा कहीं-कहीं अश्लील भी है। इस पुराण में सृष्टि का मूल श्रीकृष्ण को बताया गया है। परन्तु ब्रह्म निरूपण के दार्शनिक विवेचन में वेदान्त-विद्धान्त को ही स्वीकार किया गया है। इस पुराण में पूतना, कुब्जा, जाम्बवती तथा कृष्ण की मृत्यु के प्रसंग अन्य पुराणों से भिन्न हैं। गणेश जन्म में भी विचित्रता है। इस पुराण के अन्य विषयों में पर्वत, नदी, वृक्ष, ग्राम, नगर आदि की उत्पत्ति, मनु-शतरूपा की कथा, ब्रह्मा की पीठ से दरिद्रा का जन्म, मालावती एवं कालपुरूष संवाद, दिनचर्या, श्रीकृष्ण, शिव और ब्रह्माण्ड कवचों का वर्णन, गंगा वर्णन तथा शिव स्तोत्र आदि का उल्लेख भी शामिल है।