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==मथुरा का परिचय (पौराणिक) / Introduction of Mathura==
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[[चित्र:Peacock-Mathura-3.jpg|thumb|250px|मोर, मथुरा<br />Peacock, Mathura]]
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मथुरा, भगवान [[कृष्ण]] की [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थली]] और भारत की परम प्राचीन तथा जगद्-विख्यात नगरी है। [[शूरसेन]] देश की यहाँ राजधानी थी। पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, [[मधु|मधुपुरी]], मधुनगरी, मधुरा आदि। भारतवर्ष का वह भाग जो [[हिमालय]] और विंध्याचल के बीच में पड़ता है, प्राचीनकाल में [[आर्यावर्त]] कहलाता था। यहां पर पनपी हुई भारतीय संस्कृति को जिन धाराओं ने सींचा वे [[गंगा]] और [[यमुना]] की धाराएं थीं। इन्हीं दोनों नदियों के किनारे भारतीय संस्कृति के कई केन्द्र बने और विकसित हुए।
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|caption= मथुरा नगर का [[यमुना नदी]] पार से विहंगम दृश्य <br /> Panoramic View of Mathura Across The Yamuna
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{{भारतकोश पर बने लेख}}
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==मथुरा भौगोलिक संदर्भ==
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मथुरा [[यमुना नदी]] के पश्चिमी तट पर स्थित है। समुद्र तल से ऊँचाई 187 मीटर है। जलवायु-ग्रीष्म 22° से 45° से0, शीत 40° से 32° से0 औसत वर्षा 66 से.मी. जून से सितंबर तक। मथुरा जनपद [[उत्तर प्रदेश]] की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। इसके पूर्व में जनपद [[एटा]], उत्तर में जनपद अलीगढ़, दक्षिण–पूर्व में जनपद [[आगरा]], दक्षिण–पश्चिम में [[राजस्थान]] एवं पश्चिम–उत्तर में [[हरियाणा]] राज्य स्थित हैं। मथुरा, आगरा मण्डल का उत्तर–पश्चिमी ज़िला है। यह Lat. 27° 41'N और Long. 77° 41'E के मध्य स्थित है। मथुरा जनपद में चार तहसीलें –[[माँट]], छाता, [[महावन]] और मथुरा तथा 10 विकास खण्ड हैं – [[नन्दगाँव]], छाता, चौमुहाँ, [[गोवर्धन]], मथुरा , फ़रह, नौहझील, [[मांट]], [[राया]] और [[बलदेव|बल्देव]] हैं।
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[[चित्र:Krishna Birth Place Mathura-13.jpg|[[कृष्ण जन्मभूमि]], मथुरा<br /> Krishna's Birth Place, Mathura|thumb|250px]]
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जनपद का भौगोलिक क्षेत्रफल 3329.4 वर्ग कि.मी. है। जनपद की प्रमुख नदी [[यमुना नदी|यमुना]] है , जो उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई जनपद की कुल चार तहसीलों मांट, मथुरा, महावन और छाता में से होकर बहती है। यमुना का पूर्वी भाग पर्याप्त उपजाऊ है तथा पश्चिमी भाग अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है।
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इस जनपद की प्रमुख नदी यमुना है, इसकी दो सहायक नदियाँ "करवन" तथा "पथवाहा" हैं। यमुना नदी वर्ष भर बहती है तथा जनपद की प्रत्येक तहसील को छूती हुई बहती है। यह प्रत्येक वर्ष अपना मार्ग बदलती रहती है , जिसके परिणाम स्वरूप हज़ारों हैक्टेयर क्षेत्रफल बाढ़ से प्रभावित हो जाता है। यमुना नदी के किनारे की भूमि खादर है। जनपद की वायु शुद्ध एवं स्वास्थ्यवर्धक है। गर्मियों में अधिक गर्मी और सर्दियों में अधिक सर्दी पड़ना यहाँ की विशेषता है। वर्षा के अलावा वर्ष भर शेष समय मौसम सामान्यत: शुष्क रहता है। मई व जून के महीनों में तेज़ गर्म पश्चिमी हवायें (लू)  चलती हैं। जनपद में अधिकांश वर्षा जुलाई व अगस्त माह में होती है। जनपद के पश्चिमी भाग में आजकल बाढ़ का आना सामान्य हो गया है , जिससे काफ़ी क्षेत्र जलमग्न हो जाता है।
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==मथुरा संदर्भ==
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[[शूरसेन]] देश की मुख्य नगरी मथुरा के विषय में आज तक कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हो सका है। किन्तु ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। [[अंगुत्तरनिकाय]]<ref>(1।167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने)</ref> एवं मज्झिम.<ref>मज्झिम.(2।84)</ref> में आया है कि [[बुद्ध]] के एक महान शिष्य [[महाकाच्यायन]] ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी।  [[मैगस्थनीज़|मैगस्थनीज़]] सम्भवत: मथुरा को जानता था और इसके साथ [[कृष्ण|हरेक्लीज]] के सम्बन्ध से भी परिचित था। 'माथुर'<ref>(मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ)</ref> शब्द [[जैमिनि]] के पूर्व मीमांसासूत्र में भी आया है।  यद्यपि [[पाणिनि]] के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण<ref>(पाणिनि, 4।2।82)</ref> में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, [[अर्जुन]]<ref>पाणिनि(4।3।98)</ref>, यादवों के [[अंधक|अन्धक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] लोग, सम्भवत: गोविन्द भी<ref>(3।1।138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्')</ref> ज्ञात थे। 
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[[चित्र:Banke-Bihari-Temple.jpg|250px|thumb|[[बांके बिहारी मन्दिर वृन्दावन|बांके बिहारी जी मन्दिर]], [[वृन्दावन]]<br /> Banke Bihari Temple, Vrindavan]]
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[[पतंजलि]] के महाभाष्य में मथुरा शब्द कई बार आया है।<ref>पतंजलि महाभाष्य(जिल्द 1,पृ. 18, 19 एवं 192, 244, जिल्द 3, पृ. 299 आदि)</ref> कई स्थानों पर वासुदेव द्वारा [[कंस]] के नाश का उल्लेख नाटकीय संकेतों, चित्रों एवं गाथाओं के रूप में आया है। उत्तराध्ययनसूत्र में मथुरा को सौर्यपुर कहा गया है, किन्तु महाभाष्य में उल्लिखित सौर्य नगर मथुरा ही है, ऐसा कहना सन्देहात्मक है। [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]]<ref>महाभारत आदिपर्व(221।46)</ref> में आया है कि मथुरा अति सुन्दर गायों के लिए उन दिनों प्रसिद्ध थी। जब [[जरासंध|जरासन्ध]] के वीर सेनापति हंस एवं डिम्भक यमुना में डूब गये, और जब जरासन्ध दु:खित होकर [[मगध]] चला गया तो [[कृष्ण]] कहते हैं, 'अब हम पुन: प्रसन्न होकर मथुरा में रह सकेंगे'।<ref>महाभारत(सभापर्व 14।41-45)</ref> अन्त में जरासन्ध के लगातार आक्रमणों से तंग आकर कृष्ण ने यादवों को द्वारका में ले जाकर बसाया।<ref>महाभारत(सभापर्व 14।49-50 एवं 67)।</ref>
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{{highleft}}[[वराह पुराण]]<ref>वराह पुराण (152।8 एवं 11)</ref> में आया है- विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता।  पद्म पुराण में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'<ref>पद्म पुराण(4।69।12)।</ref> हरिवंश पुराण<ref>हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व, 57।2-3)</ref> ने मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है, एक श्लोक यों है- 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'<ref>तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। पद्म पुराण (4।69।12); मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्। श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व, 57। 2-3)।</ref>{{highclose}}
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[[ब्रह्म पुराण]] (14।54-56) में आया है कि कृष्ण की सम्मति से वृष्णियों एवं अन्धकों ने [[काल यवन]] के भय से मथुरा का त्याग कर दिया। [[वायु पुराण]]<ref>वायु पुराण(88।185)</ref> का कथन है कि [[राम]] के भाई [[शत्रुघ्न]] ने मधु के पुत्र [[लवण]] को मार डाला और [[मथुरा|मधुवन]] में समुद्धिशाली नगर बनाया।  घट-जातक<ref>(फाँस्बोल, जिल्द 4, पृ. 79-89, संख्या 454)</ref> में मथुरा को उत्तर मथुरा कहा गया है(दक्षिण के पाण्डवों की नगरी भी मधुरा के नाम से प्रसिद्ध थी), वहाँ [[कंस]] एवं वासुदेव की गाथा भी  आयी है जो [[महाभारत]] एवं पुराणों की गाथा से भिन्न है।  [[रघुवंश]]<ref>रघुवंश(15।28)</ref> में इसे मधुरा नाम से शत्रुघ्न द्वारा स्थापित कहा गया है। [[हुएन-सांग|ह्वेनसाँग]] के अनुसार मथुरा में अशोकराज द्वारा तीन [[स्तूप]] बनवाये गये थे, पाँच देवमन्दिर थे और बीस [[संघाराम]] थे, जिनमें 2000 [[बौद्ध]] रहते थे।<ref>(बुद्धिस्ट रिकर्डस आव वेस्टर्न वर्ल्ड, वील, जिल्द 1,पृ. 179)</ref> जेम्स ऐलन<ref>(कैटलोग आव क्वाएंस आव ऐंश्येण्ट इण्डिया, 1936)</ref> का कथन है कि मथुरा के हिन्दू राजाओं के सिक्के ई.पू. द्वितीय शताब्दी के आरम्भ से प्रथम शताब्दी के मध्य भाग तक के हैं।<ref>(और देखिए कैम्ब्रिज हिस्ट्री आव इण्डिया, जिल्द 1,पृ. 538)</ref> एफ्. एस्. ग्राउस की पुस्तक 'मथुरा'<ref>मथुरा(सन् 1880 द्वितीय संस्करण)</ref> भी दृष्टव्य है। मथुरा के इतिहास एवं प्राचीनता के विषय में शिलालेख भी प्रकाश डालते हैं।<ref>मथुराडा. बी. सी. लो कालेख 'मथुरा इन ऐश्येण्ट इण्डिया',जे. ए. एस. आव बंगाल (जिल्द 13, 1947, पृ. 21-30)।</ref> [[खारवेल]] के प्रसिद्ध अभिलेख में कलिंगराज (खारवेल) की उस विजय का वर्णन हैं, जिसमें [[मथुरा|मधुरा]] की ओर यवनराज दिमित का भाग जाना उल्लिखित है।  [[कनिष्क]], [[हुविष्क]] एवं अन्य [[कुषाण]] राजाओं के शिलालेख भी पाये जाते हैं, यथा-महाराज राजाधिराज कनिक्ख<ref>(पंवत् 8, एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 17, पृ. 10)</ref> का नाग-प्रतिमा का शिलालेख; सं. 14 का स्तम्भतल लेख;<ref>सामान्य रूप से कनिष्क की तिथि 78 ई. मानी गयी है। देखिए जे. बी. ओ. आर. एस. (जिल्द 23,1937, पृ. 113-117, डा. ए. बनर्जी-शास्त्री)।</ref> हुविष्क (सं. 33) के राज्यकाल का बोधिसत्व की प्रतिमा के आधार वाला शिलालेख<ref>(एपिग्रै. इण्डि., जिल्द 8, पृ. 181-182);</ref> वासु<ref>(सं. 74, वही, जिल्द 9, पृ. 241)</ref> का शिलालेख; [[शोडास]] <ref>(वही, पृ. 246)</ref> के काल का शिलालेख एवं मथुरा तथा उसके आस-पास के सात [[ब्राह्मी लिपि|ब्राह्मी]] लेख।<ref>(वही, जिल्द 24, पृ. 184-210)।</ref>
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[[चित्र:cows-mathura.jpg|200px|thumb|ब्रज की गौ (गायें)<br />Cows of Braj]]
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एक अन्य मनोरंजक शिलालेख भी है, जिसमें नन्दिबल एवं मथुरा के अभिनेता (शैलालक) के पुत्रों द्वारा नागेन्द्र दधिकर्ण के मन्दिर में प्रदत्त एक प्रस्तर-खण्ड का उल्लेख है।<ref>(वही, जिल्द 1,पृ. 390)।</ref> [[विष्णु पुराण]]<ref>विष्णु पुराण(6।8।31)</ref> से प्रकट होता है कि इसके प्रणयन के पूर्व मथुरा में हरि की एक प्रतिमा प्रतिष्ठापित हुई थी। वायु पुराण ने भविष्यवाणी के रूप में कहा है कि मथुरा, [[प्रयाग]], साकेत एवं [[मगध]] में गुप्तों के पूर्व सात नाग राजा राज्य करेंगे। <ref>नव नाकास्तु (नागास्तु?) भोक्ष्यन्ति पुरीं चम्पावती नृपा:। मथुरां च पुरीं रम्यां नागा भोक्ष्यन्ति सप्त वै।। अनुगंगं प्रयागं च साकेंत मगधांस्तथा। एताञ् जनपदान्सर्वान् भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजा:॥ वायु पुराण (99।382-83); ब्रह्म पुराण (3।74।194)। डा. जायसवाल कृत 'हिस्ट्री ऑफ इण्डिया (150-350 ई.),' पृ. 3-15, जहाँ नाग-वंश के विषय में चर्चा है। </ref> अलबरूनी के भारत<ref>अलबरूनी, भारत(जिल्द 2, पृ0 147)</ref> में आया है कि माहुरा में ब्राह्मणों की भीड़ है।
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उपर्युक्त ऐतिहासिक विवेचन से प्रकट होता है कि ईसा के 5 या 6 शताब्दियों पूर्व मथुरा एक समृद्धिशाली पुरी थी, जहाँ महाकाव्य-कालीन हिन्दू धर्म प्रचलित था, जहाँ आगे चलकर बौद्ध धर्म एवं [[जैन]] धर्म का प्राधान्य हुआ, जहाँ पुन: नागों एवं [[गुप्त|गुप्तों]] में हिन्दू धर्म जागरित हुआ, सातवीं शताब्दी में (जब ह्वेनसाँग यहाँ आया था) जहाँ बौद्ध धर्म एवं हिन्दू धर्म एक-समान पूजित थे और जहाँ पुन: 11वीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद प्रधानता को प्राप्त हो गया।
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[[अग्नि पुराण]]<ref>अग्नि पुराण(11।8-9)</ref> में एक विचित्र बात यह लिखी है कि राम की आज्ञा से भरत ने मथुरा पुरी में शैलूष के तीन कोटि पुत्रों को मार डाला। <ref>अभूत्पूर्मथुरा काचिद्रामोक्तो भरतोवधीत्।  कोटित्रयं च शैलूषपुत्राणां निशितै: शरै:॥ शैलूषं दृप्तगन्धर्व सिन्धुतीरनिवासिनम्। अग्नि पुराण (2।8-9)। विष्णुधर्मोत्तर. (1, अध्याय 201-202)में आया है कि शैलूष के पुत्र गन्धर्वो ने सिन्धु के दोनों तटों की भूमि को तहस-नहस किया और राम ने अपने भाई भरत को उन्हें नष्ट करने को भेजा- 'जहि शैलूषतनयान् गन्धर्वान्, पापनिश्चयान्' (1।202-10)।  शैलूष का अर्थ अभिनेता भी होता है। क्या यह भरतनाट्यशास्त्र के रचयिता भरत के अनुयायियों एवं अन्य अभिनेताओं के झगड़े की ओर संकेत करता है? नाट्यशास्त्र (17।47) ने नाटक के लिए शूरसेन की भाषा को अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त माना है। काणेकृत 'हिस्ट्री आव संस्कृत पोइटिक्स' (पृ0 40, सन् 1951)।</ref> लगभग दो सहस्त्राब्दियों से अधिक काल तक मथुरा कृष्ण-पूजा एवं भागवत धर्म का केन्द्र रही है। [[वराह पुराण]] में मथुरा की महत्ता एवं इसके उपतीर्थों के विषय में लगभग एक सहस्त्र श्लोक पाये जाते हैं<ref>वराह पुराण(अध्याय 152-178)। बृहन्नारदीय. (अध्याय 79-80)</ref>, [[भागवत]]<ref>भागवत. (10)</ref> एवं [[विष्णु पुराण]]<ref>विष्णु पुराण(5-6)</ref> में [[कृष्ण]], [[राधा]], मथुरा, [[वृन्दावन]], [[गोवर्धन]] एवं कृष्णलीला के विषय में बहुत-कुछ लिखा गया है।
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[[पद्म पुराण]]<ref>पद्म पुराण(आदिखण्ड, 21।46-47)</ref> का कथन है कि [[यमुना नदी|यमुना]] जब मथुरा से मिल जाती है तो मोक्ष देती है; यमुना मथुरा में पुण्यफल उत्पन्न करती है और जब यह मथुरा से मिल जाती है तो [[विष्णु]] की भक्ति देती है। [[वराह पुराण]]<ref>वराह पुराण (152।8 एवं 11)</ref> में आया है- विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता।  पद्म पुराण में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'<ref>पद्म पुराण(4।69।12)।</ref> हरिवंश पुराण<ref>हरिवंश पुराण(विष्णुपर्व, 57।2-3)</ref> ने मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है, एक श्लोक यों है- 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'<ref>तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। पद्म पुराण (4।69।12); मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्। श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व, 57। 2-3)।</ref>
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==मथुरा का परिचय==
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[[चित्र:Peacock-Mathura-3.jpg|thumb|250px|[[मोर]], मथुरा<br />Peacock, Mathura]]
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मथुरा, भगवान [[कृष्ण]] की [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थली]] और भारत की परम प्राचीन तथा जगद्-विख्यात नगरी है। [[शूरसेन]] देश की यहाँ राजधानी थी। पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा आदि। भारतवर्ष का वह भाग जो [[हिमालय]] और विंध्याचल के बीच में पड़ता है, प्राचीनकाल में [[आर्यावर्त]] कहलाता था। यहाँ पर पनपी हुई भारतीय संस्कृति को जिन धाराओं ने सींचा वे [[गंगा नदी|गंगा]] और [[यमुना नदी|यमुना]] की धाराएं थीं। इन्हीं दोनों नदियों के किनारे भारतीय संस्कृति के कई केन्द्र बने और विकसित हुए।
 
[[वाराणसी]], [[प्रयाग]], [[कौशाम्बी]], [[हस्तिनापुर]],[[कन्नौज]] आदि कितने ही ऐसे स्थान हैं, परन्तु यह तालिका तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक इसमें मथुरा का समावेश न किया जाय। यह [[आगरा]] और दिल्ली से क्रमश: 58 कि.मी उत्तर-पश्चिम एवं 145 कि. मी दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर स्थित है।
 
[[वाराणसी]], [[प्रयाग]], [[कौशाम्बी]], [[हस्तिनापुर]],[[कन्नौज]] आदि कितने ही ऐसे स्थान हैं, परन्तु यह तालिका तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक इसमें मथुरा का समावेश न किया जाय। यह [[आगरा]] और दिल्ली से क्रमश: 58 कि.मी उत्तर-पश्चिम एवं 145 कि. मी दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर स्थित है।
  
[[वाल्मीकि]] [[रामायण]] में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है-<ref>`एवं भवतु काकुत्स्थ क्रियतां मम शासनम्, राज्ये त्वामभिषेक्ष्यामि मधोस्तु नगरे शुभे। नगरं यमुनाजुष्टं तथा जनपदाञ्शुभान् यो हि वंश समुत्पाद्य पार्थिवस्य निवेशने` उत्तर. 62,16-18 ।</ref> इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है। लवणासुर, जिसको [[शत्रुघ्न]] ने युद्ध में हराकर मारा था इसी मधुदानव का पुत्र था।<balloon title="`तं पुत्रं दुर्विनीतं तु दृष्ट्वा कोधसमन्वित:, मधु: स शोकमापेदे न चैनं किंचिदब्रवीत्`-उत्तर. 61,18।" style="color:blue">*</balloon> इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है। [[रामायण]] में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है।<balloon title="`अर्ध चंद्रप्रतीकाशा यमुनातीरशोभिता, शोभिता गृह-मुख्यैश्च चत्वरापणवीथिकै:, चातुर्वर्ण्य समायुक्ता नानावाणिज्यशोभिता` उत्तर. 70,11।" style="color:blue">*</balloon> इस नगरी को लवणासुर ने भी सजाया संवारा था । <ref>यच्चतेनपुरा शुभ्रं लवणेन कृतं महत्, तच्छोभयति शुत्रध्नो नानावर्णोपशोभिताम्। आरामैश्व विहारैश्च शोभमानं समन्तत: शोभितां शोभनीयैश्च तथान्यैर्दैवमानुषै:` उत्तर. 70-12-13। उत्तर० 70,5 (`इयं मधुपुरी रम्या मधुरा देव-निर्मिता) में इस नगरी को मथुरा नाम से अभिहित किया गया है।</ref> (दानव, दैत्य, राक्षस आदि जैसे संबोधन विभिन्न काल में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, कभी जाति या क़बीले के लिए, कभी आर्य अनार्य संदर्भ में तो कभी दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों के लिए)। प्राचीनकाल से अब तक इस नगर का अस्तित्व अखण्डित रूप से चला आ रहा है।
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[[वाल्मीकि]] [[रामायण]] में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है-<ref>`एवं भवतु काकुत्स्थ क्रियतां मम शासनम्, राज्ये त्वामभिषेक्ष्यामि मधोस्तु नगरे शुभे। नगरं यमुनाजुष्टं तथा जनपदाञ्शुभान् यो हि वंश समुत्पाद्य पार्थिवस्य निवेशने` उत्तर. 62,16-18।</ref> इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है। लवणासुर, जिसको [[शत्रुघ्न]] ने युद्ध में हराकर मारा था इसी मधुदानव का पुत्र था।<ref>`तं पुत्रं दुर्विनीतं तु दृष्ट्वा कोधसमन्वित:, मधु: स शोकमापेदे न चैनं किंचिदब्रवीत्`-उत्तर. 61,18।</ref> इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है। [[रामायण]] में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है।<ref>`अर्ध चंद्रप्रतीकाशा यमुनातीरशोभिता, शोभिता गृह-मुख्यैश्च चत्वरापणवीथिकै:, चातुर्वर्ण्य समायुक्ता नानावाणिज्यशोभिता` उत्तर. 70,11।</ref> इस नगरी को लवणासुर ने भी सजाया संवारा था। <ref>यच्चतेनपुरा शुभ्रं लवणेन कृतं महत्, तच्छोभयति शुत्रध्नो नानावर्णोपशोभिताम्। आरामैश्व विहारैश्च शोभमानं समन्तत: शोभितां शोभनीयैश्च तथान्यैर्दैवमानुषै:` उत्तर. 70-12-13। उत्तर0 70,5 (`इयं मधुपुरी रम्या मधुरा देव-निर्मिता) में इस नगरी को मथुरा नाम से अभिहित किया गया है।</ref> (दानव, दैत्य, राक्षस आदि जैसे संबोधन विभिन्न काल में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, कभी जाति या क़बीले के लिए, कभी आर्य अनार्य संदर्भ में तो कभी दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों के लिए)। प्राचीनकाल से अब तक इस नगर का अस्तित्व अखण्डित रूप से चला आ रहा है।
  
 
==शूरसेन जनपद==
 
==शूरसेन जनपद==
शूरसेन जनपद के नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। शत्रुघ्न के पुत्र का नाम [[शूरसेन]] था। जब सीताहरण के बाद सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में [[म्लेच्छ]]' [[पुलिन्द]], शूरसेन, प्रस्थल , भरत ([[इन्द्रप्रस्थ]] और [[हस्तिनापुर]] के आसपास के प्रान्त), कुरु ([[कुरुदेश]]) (दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि), [[मद्र]], [[कम्बोज]], [[यवन]], [[शक|शकों]] के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके [[दरद देश]] में और [[हिमालय]] पर्वत पर ढूँढ़ो। <ref>बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः।
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[[चित्र:mathura-map.jpg|शूरसेन जनपद का नक्शा<br /> Map Of Shursen Janapada|thumb|250px]]
तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च । प्रस्थलान् भरतांश्र्चैव कुरुंश्र्च सह मद्रकैः॥ 11
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शूरसेन जनपद के नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। शत्रुघ्न के पुत्र का नाम [[शूरसेन]] था। जब सीताहरण के बाद सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल , भरत ([[इन्द्रप्रस्थ]] और [[हस्तिनापुर]] के आसपास के प्रान्त), कुरु ([[कुरुदेश]]) (दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि), मद्र, [[कम्बोज]], [[यवन]], [[शक|शकों]] के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके दरद देश में और [[हिमालय]] पर्वत पर ढूँढ़ो। <ref>बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः।
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तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च। प्रस्थलान् भरतांश्र्चैव कुरुंश्र्च सह मद्रकैः॥ 11
 
काम्बोजयवनांश्र्चैव शकानां पत्तनानि च। अन्वीक्ष्य दरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ ॥ 12</ref> इससे स्पष्ट है कि शत्रुघ्न के पुत्र से पहले ही 'शूरसेन' जनपद नाम अस्तित्व में था। हैहयवंशी [[कार्तवीर्य अर्जुन]] के सौ पुत्रों में से एक का नाम शूरसेन था और उसके नाम पर यह शूरसेन राज्य का नामकरण होने की संम्भावना भी है, किन्तु हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन का मथुरा से कोई सीधा संबंध होना स्पष्ट नहीं है।
 
काम्बोजयवनांश्र्चैव शकानां पत्तनानि च। अन्वीक्ष्य दरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ ॥ 12</ref> इससे स्पष्ट है कि शत्रुघ्न के पुत्र से पहले ही 'शूरसेन' जनपद नाम अस्तित्व में था। हैहयवंशी [[कार्तवीर्य अर्जुन]] के सौ पुत्रों में से एक का नाम शूरसेन था और उसके नाम पर यह शूरसेन राज्य का नामकरण होने की संम्भावना भी है, किन्तु हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन का मथुरा से कोई सीधा संबंध होना स्पष्ट नहीं है।
[[महाभारत]] के समय में मथुरा शूरसेन देश की प्रख्यात नगरी थी। लवणासुर के वधोपरांत शत्रुघ्न ने इस नगरी को पुन: बसाया था। उन्होंने मधुवन के जंगलों को कटवा कर उसके स्थान पर नई नगरी बसाई थी। यहीं कृष्ण का जन्म([[श्री कृष्ण जन्मस्थान]]), यहां के अधिपति [[कंस]] के कारागार में हुआ तथा उन्होंने बचपन ही में अत्याचारी कंस का वध करके देश को उसके अभिशाप से छुटकारा दिलवाया। कंस की मृत्यु के बाद श्री कृष्ण मथुरा ही में बस गए किंतु [[जरासंध]] के आक्रमणों से बचने के लिए उन्होंने मथुरा छोड़ कर [[द्वारका]] पुरी बसाई <ref>`वयं चैव महाराज, जरासंधभयात् तदा, मथुरां संपरित्यज्य यता द्वारावतीं पुरीम्` महा. सभा. 14,67। श्रीमद्भागवत 10,41,20-21-22-23 में कंस के समय की [[मथुरा]] का सुंदर वर्णन है।
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[[महाभारत]] के समय में मथुरा शूरसेन देश की प्रख्यात नगरी थी। [[लवणासुर]] के वधोपरांत शत्रुघ्न ने इस नगरी को पुन: बसाया था। उन्होंने मधुवन के जंगलों को कटवा कर उसके स्थान पर नई नगरी बसाई थी। यहीं कृष्ण का जन्म([[कृष्ण जन्मभूमि|श्री कृष्ण जन्मस्थान]]), यहाँ के अधिपति [[कंस]] के कारागार में हुआ तथा उन्होंने बचपन ही में अत्याचारी कंस का वध करके देश को उसके अभिशाप से छुटकारा दिलवाया। कंस की मृत्यु के बाद श्री कृष्ण मथुरा ही में बस गए किंतु [[जरासंध]] के आक्रमणों से बचने के लिए उन्होंने मथुरा छोड़ कर [[द्वारका]] पुरी बसाई <ref>`वयं चैव महाराज, जरासंधभयात् तदा, मथुरां संपरित्यज्य यता द्वारावतीं पुरीम्` महा. सभा. 14,67। श्रीमद्भागवत 10,41,20-21-22-23 में कंस के समय की मथुरा का सुंदर वर्णन है।
</ref> दशम सर्ग, 58 में मथुरा पर [[कालयवन]] के आक्रमण का वृतांत है। इसने तीन करोड़ म्लेच्छों को लेकर मथुरा को घेर लिया था। <balloon title="`रूरोध मथुरामेत्य तिस भिम्र्लेच्छकोटिभि:" style="color:blue">*</balloon>
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</ref> दशम सर्ग, 58 में मथुरा पर कालयवन के आक्रमण का वृतांत है। इसने तीन करोड़ म्लेच्छों को लेकर मथुरा को घेर लिया था। <ref>`रूरोध मथुरामेत्य तिस भिम्र्लेच्छकोटिभि:</ref>
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==शूरसेन जनपद की सीमा==
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प्राचीन [[शूरसेन]] जनपद का विस्तार दक्षिण में [[चंबल|चंबल]] नदी से लेकर उत्तर में वर्तमान मथुरा नगर से 75 कि. मी. उत्तर में स्थित कुरु([[कुरुदेश]]) राज्य की सीमा तक था। उसकी सीमा पश्चिम में [[मत्स्य]] और पूर्व में [[पांचाल]] जनपद से मिलती थी। मथुरा नगर को महाकाव्यों एवं पुराणों में 'मथुरा' एवं `मधुपुरी' नामों से संबोधित किया गया है।<ref>रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 62, पंक्ति 17</ref> विद्वानों ने `मधुपुरी' की पहचान मथुरा के 6 मील पश्चिम में स्थित वर्तमान '[[महोली]]' से की है।<ref>कृष्णदत्त वाजपेयी, मथुरा, पृ 2</ref> प्राचीन काल में यमुना नदी मथुरा के पास से गुजरती थी, आज भी इसकी स्थिति यही है। [[प्लिनी]] <ref>[[प्लिनी]], नेचुरल हिस्ट्री, भाग 6, पृ 19; तुलनीय ए, कनिंघम, दि ऐंश्‍येंटज्योग्राफी  आफ इंडिया, (इंडोलाजिकल बुक हाउस, [[वाराणसी]], 1963), पृ 315</ref> ने [[यमुना नदी|यमुना]] को जोमेनस कहा है, जो मेथोरा और क्लीसोबोरा <ref>`[[कनिंघम]] ने क्लीसोबेरा की पहचान केशवुर या कटरा केशवदेव के मुहल्ले से की है। यूनानी लेखकों के समय में यमुना की मुख्य धारा या उसकी बड़ी शाखा वर्तमान कटरा या केशव देव के पूर्वी दीवार के समीप से बहती रही होगी ओर उसके दूसरी तरफ मथुरा नगर रहा होगा। देखें, ए, कनिंघम, दि ऐंश्‍येंटज्योग्राफी ऑफ इंडिया, इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963 ई , पृ 315।</ref> के मध्य बहती थी।
  
 
==प्राचीन साहित्य में मथुरा==
 
==प्राचीन साहित्य में मथुरा==
[[हरिवंश पुराण]] <balloon title="हरिवंश पुराण, 1,54" style=color:blue>*</balloon> में भी मथुरा के विलास-वैभव का मनोहर चित्र है।<ref>`सा पुरी परमोदारा साट्टप्रकारतोरणा स्फीता राष्‍ट्रसमाकीर्णा समृद्धबलवाहना। उद्यानवन संपन्ना सुसीमासुप्रतिष्ठिता, प्रांशुप्राकारवसना परिखाकुल मेखला` ।</ref>[[विष्णु पुराण]] में भी मथुरा का उल्लेख है,<balloon title="`संप्राप्तश्र्चापि सायाह्ने सोऽक्रूरो मथुरां पुरीम` 5,19,9 " style="color:blue">*</balloon> विष्णु-पुराण<balloon title="विष्णु-पुराण, 4,5,101" style=color:blue>*</balloon> में शत्रुघ्न द्वारा पुरानी मथुरा के स्थान पर ही नई नगरी के बसाए जाने का उल्लेख है ।<balloon title="`शत्रुघ्नेनाप्यमितबलपराक्रमो मधुपुत्रो लवणो नाम राक्षसोभिहतो मथुरा च निवेशिता` " style="color:blue">*</balloon> इस समय तक मधुरा नाम का रूपांतर मथुरा प्रचलित हो गया था। [[कालिदास]] ने [[रघुवंश]]<balloon title="रघुवंश, 6,48" style=color:blue>*</balloon> में इंदुमती के स्वंयवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति [[सुषेण]] की राजधानी मथुरा में वर्णित की है।<balloon title="'यस्यावरोधस्तनचंदनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले, कलिंदकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मिसंसक्तजलेव भाति` " style="color:blue">*</balloon> इसके साथ ही [[गोवर्धन]] का भी उल्लेख है। [[मल्लिनाथ]] ने 'मथुरा` की टीका करते हुए लिखा है`-'कालिंदीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्मास्यतेति वक्ष्यति` ।[[चित्र:Govindev-temple-1.jpg|[[गोविन्द देव जी का मंदिर]], [[वृन्दावन]]<br /> Govind Dev Temple, Vrindavan|thumb|300px]]
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[[हरिवंश पुराण]] <ref>हरिवंश पुराण, 1,54</ref> में भी मथुरा के विलास-वैभव का मनोहर चित्र है।<ref>`सा पुरी परमोदारा साट्टप्रकारतोरणा स्फीता राष्‍ट्रसमाकीर्णा समृद्धबलवाहना। उद्यानवन संपन्ना सुसीमासुप्रतिष्ठिता, प्रांशुप्राकारवसना परिखाकुल मेखला`।</ref>[[विष्णु पुराण]] में भी मथुरा का उल्लेख है,<ref>`संप्राप्तश्र्चापि सायाह्ने सोऽक्रूरो मथुरां पुरीम` 5,19,9 </ref> विष्णु-पुराण<ref>विष्णु-पुराण, 4,5,101</ref> में शत्रुघ्न द्वारा पुरानी मथुरा के स्थान पर ही नई नगरी के बसाए जाने का उल्लेख है।<ref>`शत्रुघ्नेनाप्यमितबलपराक्रमो मधुपुत्रो लवणो नाम राक्षसोभिहतो मथुरा च निवेशिता` </ref> इस समय तक मधुरा नाम का रूपांतर मथुरा प्रचलित हो गया था। [[कालिदास]] ने [[रघुवंश]]<ref>रघुवंश, 6,48</ref> में इंदुमती के स्वंयवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति [[सुषेण]] की राजधानी मथुरा में वर्णित की है।<ref>'यस्यावरोधस्तनचंदनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले, कलिंदकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मिसंसक्तजलेव भाति` </ref> इसके साथ ही [[गोवर्धन]] का भी उल्लेख है। [[मल्लिनाथ]] ने 'मथुरा` की टीका करते हुए लिखा है`-'कालिंदीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्मास्यतेति वक्ष्यति`।[[चित्र:Govindev-temple-1.jpg|[[गोविन्द देव मन्दिर वृन्दावन|गोविन्द देव मन्दिर]], [[वृन्दावन]]<br /> Govind Dev Temple, Vrindavan|thumb|300px]]
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प्राचीन ग्रंथों-हिन्दू, [[बौद्ध]], [[जैन]] एवं [[यूनानी]] साहित्य में इस जनपद का [[शूरसेन]] नाम अनेक स्थानों पर मिलता है। प्राचीन ग्रंथों में मथुरा का मेथोरा<ref>विष्णु पुराण, 1/12/43 मेक्रिण्डिल, ऐंश्‍येंटइंडिया एज डिस्क्राइब्ड बाई टालेमी (कलकत्ता, 1927), पृ 98</ref>, मदुरा<ref>`मदुरा य सूरसेणा' देखें-इंडियन एण्टिक्वेरी, संख्या 20, पृ 375</ref>, मत-औ-लौ<ref>जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स आफ फ़ाह्यान , द्वितीय संस्करण, 1972), पृ 42</ref>, मो-तु-लो<ref>थामस वाट्र्स, आन युवॉन् च्वाग्स टे्रवेल्स इन इंडिया, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1961 ई) भाग 1, पृ 301</ref> तथा सौरीपुर<ref> हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, भाग 45, पृ 112</ref> (सौर्यपुर) नामों का भी उल्लेख मिलता है। इन उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि शूरसेन जनपद की संज्ञा ईसवी सन् के आरम्भ तक जारी रही <ref>मनुस्मृति, भाग 2, श्लोक 18 और 20</ref> और [[शक]]-[[कुषाण|कुषाणों]] के प्रभुत्व के साथ ही इस जनपद की संज्ञा राजधानी के नाम पर `मथुरा' हो गई। इस परिवर्तन का मुख्य कारण था कि यह नगर शक-कुषाणकालीन समय में इतनी प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका था कि लोग जनपद के नाम को भी मथुरा नाम से पुकारने लगे और कालांतर में जनपद का शूरसेन नाम जनसाधारण के स्मृतिपटल से विस्मृत हो गया।
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==पुराणों में मथुरा==
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पुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है। अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा। ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पाप रहित हो जाते हैं तथा इसमें रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। <ref>ये वसंति महाभागे मथुरायामितरे जना:। तेऽपि यांति परमां सिद्धिं मत्प्रसादन्न संशय: [[वराह पुराण|वाराह पुराण]], पृ 852, श्लोक 20 </ref> [[वराह पुराण]] में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुध्द विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात [[देवता]] हैं।<ref>मथुरायां महापुर्या ये वसंति शुचिव्रता:। बलिभिक्षाप्रदातारो देवास्ते नरविग्रहा:।। तत्रैव, श्लोक 22</ref> [[श्राद्ध]] कर्म का विशेष फल मथुरा में प्राप्त होता है। मथुरा में श्राद्ध करने वालों के पूर्वजों को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है।<ref>मथुराममंडमम् प्राप्य श्राद्धं कृत्वा यथाविधि। तृप्ति प्रयांति पितरो यावस्थित्यग्रजन्मन:।। तत्रैव, श्लोक 19</ref> [[उत्तानपाद]] के पुत्र [[ध्रुव]] ने मथुरा में तपस्या कर के नक्षत्रों में स्थान प्राप्त किया था।<ref>पद्मपुराण, पृ 600, श्लोक 53</ref> पुराणों में मथुरा की महिमा का वर्णन है। [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] के यह पूछने पर कि मथुरा जैसे तीर्थ की महिमा क्या है? महावराह ने कहा था- "मुझे इस वसुंधरा में पाताल अथवा अंतरिक्ष से भी मथुरा अधिक प्रिय है।<ref>वराह पुराण, अध्याय 152</ref> वराह पुराण में भी मथुरा के संदर्भ में उल्लेख मिलता है, यहाँ की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मिलता है।<ref>गोवर्द्धनो गिरिवरो यमुना च महानदी। तयोर्मध्ये पुरोरम्या मथुरा लोकविश्रुता।। वाराहपुराण, अध्याय 165, श्लोक 23</ref> यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है।<ref>`शितिर्योजनानातं मथुरां मत्र मंडलम्।' तत्रैव, अध्याय 158, श्लोक1</ref> इस मंडल में मथुरा, [[गोकुल]], [[वृन्दावन]], [[गोवर्धन]] आदि नगर, ग्राम एवं मंदिर, तड़ाग, कुण्ड, वन एवं अनगणित तीर्थों के होने का विवरण मिलता है। इनका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है। गंगा के समान ही यमुना के गौरवमय महत्त्व का भी विशद विवरण किया गया है। पुराणों में वर्णित राजाओं के शासन एवं उनके वंशों का भी वर्णन प्राप्त होता है।
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[[चित्र:gokul-ghat.jpg|[[यमुना नदी|यमुना]], गोकुल<br /> Yamuna, Gokul|thumb|250px]]
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[[ब्रह्म पुराण]] में [[वृष्णि संघ|वृष्णियों]] एवं [[अंधक|अंधकों]] के स्थान मथुरा पर, राक्षसों के आक्रमण का भी विवरण मिलता है।<ref>ब्रह्म पुराण, अध्याय 14 श्लोक 54</ref> वृष्णियों एवं अंधकों ने डर कर मथुरा को छोड़ दिया था और उन्होंने अपनी राजधानी द्वारावती ([[द्वारिका]]) में प्रतिष्ठित की थी।<ref>हरिवंश पुराण, अध्याय 37</ref> मगध नरेश जरासंध ने 23 [[अक्षौहिणी]] सेना से इस नगरी को घेर लिया था।<ref>हरिवंश पुराण, अध्याय 195, श्लोक 3</ref> अपने महाप्रस्थान के समय [[युधिष्ठर]] ने मथुरा के सिंहासन पर वज्रनाभ को आसीन किया।<ref>स्कन्द पुराण, विष्णु खंड, भागवत माहात्म्य, अध्याय 1</ref> सात नाग-नरेश [[गुप्तवंश]] के उत्कर्ष के पूर्व यहाँ पर राज्य कर रहे थे।<ref>वायुपुराण, अध्याय 99; विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2, पृ 32</ref>
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[[उग्रसेन]] और कंस मथुरा के शासक थे जिस पर [[अंधक|अंधकों]] के उत्तराधिकारी राज्य करते थे।<ref>एफ इ पार्जिटर, ऐंश्‍येंट इंडियन हिस्टारिकल टे्रडिशन पृ 171</ref> कालान्तर में शत्रुघ्न के पुत्रों को मथुरा से [[भीम सात्वत|सात्वत भीम]] ने निकाला तथा उसने तथा उसके पुत्रों ने यहाँ पर राज्य किया।<ref>एफ इ पार्जिटर, ऐंश्‍येंट इंडियन हिस्टारिकल टे्रडिशन, पृ2.11</ref> शूरसेन ने जो शत्रुघ्न का पुत्र था, उसने यमुना के पश्चिम में बसे हुए सात्वत यादवों पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक [[माधव (कृष्ण)|माधव]]<ref>माधव अर्थात मधु का वंशज जो कृष्ण को भी कहा जाता है, कृष्ण मधुसूदन भी हैं किन्तु वह मधुकैटव राक्षस से अर्थ है।</ref> लवण का वध करके मथुरा नगरी को अपनी राजधानी घोषित किया।<ref>विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, (उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1972 ई.) पृ 183</ref>
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मथुरा की स्थापना [[श्रावण]] महीने में होने के कारण ही संभवत: इस माह में उत्सव आदि करने की परंपरा है। पुरातन काल में ही यह नगरी इतनी वैभवशाली थी कि मथुरा नगरी को देवनिर्मिता कहा जाने लगा था।  <ref>इयम् मधुपुरी रम्या मधुरा देवनिर्मिता (देवताओं द्वारा बनाई गई) निवेशं प्राप्नयाच्छीध्रमेश मे स्तु वर: पर:।। [[वाल्मीकि रामायण]], उत्तराकांड, सर्ग 70, पंक्ति 5-6</ref> मथुरा के महाभारत काल के राजवंश को यदु अथवा यदुवंशीय कहा जाता है। यादव वंश में मुख्यत: दो वंश हैं। जिन्हें-वीतिहोत्र एवं सात्वत के नाम से जाना जाता है। सात्वत वर्ग भी कई शाखाओं में बँटा हुआ था। जिनमें वृष्णि, अंधक, देवावृद्ध तथा महाभोज प्रमुख थे।<ref>एफ ई पार्जिटर, ऐंश्‍येंटइंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, तुलनीय, हेमचंद्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास , पृ 107</ref>
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यदु और [[यदु वंश]] का प्रमाण [[ॠग्वेद]] में भी मिलता है। इस वंश का संबंध [[तुर्वश]], द्रुह, अनु एवं पुरु से था।<ref>(ऋग्वेद, 1/108/8)। ऋग्वेद (तत्रैव, 1/36; 18;5/45/1)</ref> से ज्ञात होता है कि यदु तुर्वश किसी दूरस्थ प्रदेश से यहाँ आए थे। वैदिक साहित्य में सात्वतों का भी नाम आता है।<ref>शतानीक: सामंतासु मेध्यम् सत्राजिता हयम् ,आदत्त यज्ञंकाशीनम् भरत: सत्वतामिव।। -शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/21</ref> [[शतपथ ब्राह्मण]] में आता है कि एक बार भरतवंशी शासकों ने सात्वतों से उनके [[यज्ञ]] का घोड़ा छीन लिया था। भरतवंशी शासकों द्वारा [[सरस्वती नदी|सरस्वती]], [[यमुना नदी|यमुना]] और [[गंगा नदी|गंगा]] के तट पर [[यज्ञ]] किए जाने के वर्णन से राज्य की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता है।<ref>शतपथ ब्राह्मण, अध्याय 13/5/4/11; तुल हेमचंद्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पृ 108</ref> सात्वतों का राज्य भी समीपवर्ती क्षेत्रों में ही रहा होगा। इस प्रकार [[महाभारत]] एवं पुराणों में वर्णित सात्वतों का मथुरा से संबंध स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है।
  
प्राचीन ग्रंथों-हिंदू, [[बौद्ध]], [[जैन]] एवं [[यूनानी]] साहित्य में इस जनपद का [[शूरसेन]] नाम अनेक स्थानों पर मिलता है। प्राचीन ग्रंथों में मथुरा का मेथोरा<balloon title="विष्णु पुराण, 1/12/43 मेक्रिण्डिल, ऐंश्‍येंटइंडिया एज डिस्क्राइब्ड बाई टालेमी (कलकत्ता, 1927), पृ 98" style="color:blue">*</balloon>, मदुरा<balloon title="`मदुरा य सूरसेणा' देखें-इंडियन एण्टिक्वेरी, संख्या 20, पृ 375" style="color:blue">*</balloon>, मत--लौ<balloon title="जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स आफ फाह्यान , द्वितीय संस्करण, 1972), पृ 42" style="color:blue">*</balloon>, मो-तु-लो<balloon title="थामस वाट्र्स, आन युवॉन् च्वाग्स टे्रवेल्स इन इंडिया, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1961 ई) भाग 1, पृ 301" style="color:blue">*</balloon> तथा सौरीपुर<balloon title=" हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, भाग 45, पृ 112" style="color:blue">*</balloon> (सौर्यपुर) नामों का भी उल्लेख मिलता है। इन उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि शूरसेन जनपद की संज्ञा ईसवी सन् के आरम्भ तक जारी रही <balloon title="मनुस्मृति, भाग 2, श्लोक 18 और 20" style="color:blue">*</balloon> और [[शक]]-[[कुषाण|कुषाणों]] के प्रभुत्व के साथ ही इस जनपद की संज्ञा राजधानी के नाम पर `मथुरा' हो गई। इस परिवर्तन का मुख्य कारण था कि यह नगर शक-कुषाणकालीन समय में इतनी प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका था कि लोग जनपद के नाम को भी मथुरा नाम से पुकारने लगे और कालांतर में जनपद का शूरसेन नाम जनसाधारण के स्मृतिपटल से विस्मृत हो गया।
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==मथुरा मण्डल==
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मथुरा का मण्डल 20 [[योजन|योजनों]] तक विस्तृत था और इसमें मथुरा पुरी बीच में स्थित थी।<ref>विंशतिर्योजनानां तु माथुरं परिमण्डलम्। तन्मध्ये मथुरा नाम पुरी सर्वोत्तमोत्तमा॥ नारदीय पुराण उत्तर, 79। 20-21</ref> वराह पुराण एवं नारदीय पुराण(उत्तरार्ध, अध्याय 79-80) ने मथुरा एवं इसके आसपास के तीर्थों का उल्लेख किया है। वराह पुराण<ref>वराह पुराण(अध्याय 153 एवं 161। 6-10)</ref> एवं नारदीय पुराण<ref>नारदीय पुराण(उत्तरार्ध, 79।10-18)</ref> ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है, यथा- [[मधुवन]], [[तालवन]], [[कुमुदवन]], [[काम्यवन]], [[बहुलावन]], [[भद्रवन]], [[खदिरवन]], [[महावन]], [[लौहजंघवन]], [[बेलवन|बिल्व]], [[भांडीरवन]] एवं [[वृन्दावन]]। 24 उपवन भी<ref>(ग्राउसकृत मथुरा, पृ. 76)</ref>
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थे जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है।
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[[चित्र:Gokul-Chandrama-Temple-Kama-1.jpg|thumb|250px|चन्द्रमा जी मन्दिर, काम्यवन<br /> Chandrama Ji Temple, Kamyavan]]
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वृन्दावन यमुना के किनारे मथुरा के उत्तर-पश्चिम में था और विस्तार में पाँच योजन था (विष्णु पुराण 5।6।28-40, नारदीय पुराण, उत्तरार्ध 80।6,8 एवं 77)<ref>पद्म. (पाताल, 75।8-14) ने कृष्ण, गोपियों एवं कालिन्दी की गूढ़ व्याख्या उपस्थित की है। गोप-पत्नियाँ योगिनी हैं, कालिन्दी सुषुम्ना है, कृष्ण सर्वव्यापक हैं, आदि।</ref> यही कृष्ण की लीला-भूमि थी। पद्म पुराण (4।69।9) ने इसे [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर वैकुण्ठ माना है। मत्स्य. (13।38) ने राधा को वृन्दावन में देवी दाक्षायणी माना है। कालिदास के काल में यह प्रसिद्ध था।  रघुवंश (6) में नीप कुल के एवं शूरसेन के राजा [[सुषेण]] का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वृन्दावन कुबेर की वाटिका चित्ररथ से किसी प्रकार सुन्दरता में कम नहीं है। इसके उपरान्त गोवर्धन की महत्ता है, जिसे कृष्ण ने अपनी कनिष्ठा अंगुली पर इन्द्र द्वारा भेजी गयी वर्षा से गोप-गोपियों एवं उनके पशुओं को बचाने के लिए उठाया था।<ref>विष्णुपुराण (5।11।15-24)</ref> 
  
==शूरसेन जनपद की सीमा==
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वराहपुराण (164।1) में आया है कि [[गोवर्धन]] मथुरा से पश्चिम लगभग दो योजन हैं।  यह कुछ सीमा तक ठीक है, क्योंकि आजकल वृन्दावन से यह 18 मील है। कूर्म पुराण (1।14।18) का कथन है कि प्राचीन राजा पृथु ने यहाँ तप किया था। हरिवंश एवं पुराणों की चर्चाएँ कभी-कभी ऊटपटाँग एवं एक-दूसरे के विरोध में पड़ जाती हैं। उदाहरणार्थ, हरिवंश (विष्णुपर्व 13।3) में तालवन गोवर्धन से उत्तर यमुना पर कहा गया है, किन्तु वास्तव में यह गोवर्धन से दक्षिण-पूर्व में है। कालिदास (रघुवंश 6।51) ने गोवर्धन की गुफ़ाओं (या गुहाओं कन्दराओं) का उल्लेख किया है। [[गोकुल]] [[ब्रज]] या महावन है जहाँ कृष्ण बचपन में [[नन्द]]-गोप द्वारा पालित-पोषित हुए थे।  कंस के भय से नन्द-गोप गोकुल से वृन्दावन चले आये थे। [[चैतन्य महाप्रभु]] वृन्दावन आये थे।<ref>(देखिए चैतन्यचरितामृत, सर्ग 19 एवं कवि कर्णपूर या परमानन्द दास कृत नाटक चैतन्यचन्द्रोदय, अंक 9)</ref> 16वीं शताब्दी में वृन्दावन के गोस्वामियों, विशेषत: [[सनातन गोस्वामी|सनातन]], [[रूप गोस्वामी|रूप]] एवं [[जीव गोस्वामी|जीव]] के ग्रन्थों के कारण वृन्दावन चैतन्य-भक्ति-सम्प्रदाय का केन्द्र था।<ref>(देखिए प्रो. एस. के. दे कृत 'वैष्णव फेथ एण्ड मूवमेंट इन बेंगाल, 1942, पृ. 83-122)</ref> चैतन्य के समकालीन वल्लभाचार्य एक दूसरे से वृन्दावन में मिले थे।<ref>(देखिए मणिलाल सी. पारिख का वल्लभाचार्य पर ग्रन्थ,पृ. 161)</ref> मथुरा के प्राचीन मन्दिरों को [[औरंगजेब]] ने [[बनारस]] के मन्दिरों की भाँति नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। <ref>देखिए इलिएट एवं डाउसन कृत 'हिस्ट्री आव इण्डिया ऐज टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरिएन', जिल्द 7, पृ0 184, जहाँ 'म-असिर-ए-आलमगीरी' की एक उक्ति इस विषय में इस प्रकार अनूदित हुई है,-"औरंगजेब ने मथुरा के 'देहरा केसु राय' नामक मन्दिर (जो, जैसा कि उस ग्रन्थ में आया है, 33 लाख रुपयों से निर्मित हुआ था) को नष्ट करने की आज्ञा दी, और शीघ्र ही वह असत्यता का शक्तिशाली गढ़ पृथिवी में मिला दिया गया और उसी स्थान पर एक बृहत् मसजिद की नींव डाल दी गयी।"</ref>
प्राचीन [[शूरसेन]] जनपद का विस्तार दक्षिण में [[चंबल]] नदी से लेकर उत्तर में वर्तमान मथुरा नगर से 75 कि. मी. उत्तर में स्थित कुरु([[कुरुदेश]]) राज्य की सीमा तक था। उसकी सीमा पश्चिम में [[मत्स्य]] और पूर्व में [[पांचाल]] जनपद से मिलती थी। मथुरा नगर को महाकाव्यों एवं पुराणों में 'मथुरा' एवं `मधुपुरी' नामों से संबोधित किया गया है।<balloon title="रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 62, पंक्ति 17" style="color:blue">*</balloon> विद्वानों ने `मधुपुरी' की पहचान मथुरा के 6 मील पश्चिम में स्थित वर्तमान '[[महोली]]' से की है।<balloon title="कृष्णदत्त वाजपेयी, मथुरा, पृ 2" style="color:blue">*</balloon> प्राचीन काल में यमुना नदी मथुरा के पास से गुजरती थी, आज भी इसकी स्थिति यही है। [[प्लिनी]] <ref>[[प्लिनी]], नेचुरल हिस्ट्री, भाग 6, पृ 19; तुलनीय ए, कनिंघम, दि ऐंश्‍येंटज्योग्राफी  आफ इंडिया, (इंडोलाजिकल बुक हाउस, [[वाराणसी]], 1963), पृ 315</ref> ने [[यमुना]] को जोमेनस कहा है, जो मेथोरा और क्लीसोबोरा <ref>`[[कनिंघम]] ने क्लीसोबेरा की पहचान केशवुर या कटरा केशवदेव के मुहल्ले से की है। यूनानी लेखकों के समय में यमुना की मुख्य धारा या उसकी बड़ी शाखा वर्तमान कटरा या केशव देव के पूर्वी दीवार के समीप से बहती रही होगी ओर उसके दूसरी तरफ मथुरा नगर रहा होगा। देखें, , कनिंघम, दि ऐंश्‍येंटज्योग्राफी ऑफ इंडिया, इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963 ई , पृ 315 ।</ref> के मध्य बहती थी।
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[[सभा पर्व महाभारत|सभापर्व]] (319।23-24) में ऐसा आया है कि जरासंघ ने गिरिव्रज (मगध की प्राचीन राजधानी, राजगिर) से अपनी गदा फेंकी और वह 99 योजन की दूरी पर कृष्ण के समक्ष मथुरा में गिरी, जहाँ वह गिरी वह स्थान 'गदावसान' के नाम से विश्रुत हुआ। वह नाम कहीं और नहीं मिलता।
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[[ग्राउस]] ने  मथुरा नामक पुस्तक में<ref>(अध्याय 9)</ref> वृन्दावन के मन्दिरों एवं<ref>(अध्याय 11)</ref> गोवर्धन, बरसाना, राधा के जन्म-स्थान एवं नन्दगाँव का उल्लेख किया है। मथुरा एवं उसके आसपास के तीर्थ-स्थलों का डब्लू. एस. कैने कृत 'चित्रमय भारत'<ref>चित्रमय भारत(पृ. 253)</ref> में भी वर्णन है।
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==संस्कृति==
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यहाँ के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज से वातावरण गुन्जायमान रहता है। बाल्यकाल से ही भगवान [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] की सुन्दर मोर के प्रति विशेष कृपा तथा उसके पंखों को शीष मुकुट के रूप में धारण करने से स्कन्द वाहन स्वरूप [[मोर]] को भक्ति साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। सरकार ने मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर इसे संरक्षण दिया है।
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{{highright}}वराह पुराण<ref>वराह पुराण(अध्याय 153 एवं 161। 6-10)</ref> एवं नारदीय पुराण<ref>नारदीय पुराण(उत्तरार्ध, 79।10-18)</ref> ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है, यथा- [[मधुवन]], [[तालवन]], [[कुमुदवन]], [[काम्यवन]], [[बहुलावन]], [[भद्रवन]], [[खदिरवन]], [[महावन]], [[लौहजंघवन]], [[बेलवन|बिल्व]], [[भांडीरवन]] एवं [[वृन्दावन]]। 24 उपवन भी<ref>(ग्राउसकृत मथुरा, पृ. 76)</ref>
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थे जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है। {{highclose}}
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[[चित्र:Holi Barsana Mathura 1.jpg|लट्ठामार होली, [[बरसाना]] <br /> Lathmar Holi, Barsana|thumb|250px|left]]
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[[ब्रज]] की महत्ता प्रेरणात्मक, भावनात्मक व रचनात्मक है तथा साहित्य और कलाओं के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थली है। [[संगीत]], नृत्य एवं अभिनय ब्रज संस्कृति के प्राण बने हैं। ब्रजभूमि अनेकानेक मठों, मूर्तियों, मन्दिरों, महंतो, महात्माओं और महामनीषियों की महिमा से वन्दनीय है। यहाँ सभी सम्प्रदायों की आराधना स्थली है। ब्रज की रज का महात्म्य भक्तों के लिए सर्वोपरि है। इसीलिए [[ब्रज चौरासी कोस की यात्रा|ब्रज चौरासी कोस]] में 21 किलोमीटर की गोवर्धन–[[राधाकुण्ड|राधाकुण्ड]], 27 किलोमीटर की गरूणगोविन्द–[[वृन्दावन]], 5–5कोस की मथुरा–वृन्दावन, 15–15 किलोमीटर की मथुरा, वृन्दावन, 6–6 किलोमीटर नन्दगांव, [[बरसाना]], [[बहुलावन]], [[भांडीरवन]], 9 किलोमीटर की [[गोकुल]], 7.5 किलोमीटर की बल्देव, 4.5–4.5 किलोमीटर की [[मधुवन]], [[लोहवन]], 2 किलोमीटर की [[तालवन]], 1.5 किलोमीटर की [[कुमुदवन]] की नंगे पांव तथा दण्डोती परिक्रमा लगाकर श्रृद्धालु धन्य होते हैं। प्रत्येक त्योहार, उत्सव, ऋतु माह एवं दिन पर परिक्रमा देने का ब्रज में विशेष प्रचलन है। देश के कोने–कोने से आकर श्रृद्धालु ब्रज परिक्रमाओं को धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान मानकर अति श्रद्धा भक्ति के साथ करते हैं। इनसे नैसर्गिक चेतना, धार्मिक परिकल्पना, [[संस्कृति]] के अनुशीलन उन्नयन, मौलिक व मंगलमयी प्रेरणा प्राप्त होती है। आषाढ़ तथा अधिक मास में गोवर्धन पर्वत परिक्रमा हेतु लाखों श्रद्धालु आते हैं। ऐसी अपार भीड़ में भी राष्ट्रीय एकता और सद्भावना के दर्शन होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण, [[बलराम|बलदाऊ]] की लीला स्थली का दर्शन तो श्रद्धालुओं के लिए प्रमुख है ही यहाँ [[अक्रूर|अक्रूर जी]], [[उद्धव|उद्धव जी]], [[नारद|नारद जी]], [[ध्रुव|ध्रुव जी]] और वज्रनाथ जी की यात्रायें भी उल्लेखनीय हैं।
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==ब्रज की जीवन शैली==
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परम्परागत रूप से ब्रजवासी सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं। नित्य स्नान, भजन, मन्दिर गमन, दर्शन–झांकी करना, दीन–दुखियों की सहायता करना, अतिथि सत्कार, लोकोपकार के कार्य, पशु–पक्षियों के प्रति प्रेम, नारियों का सम्मान व सुरक्षा, बच्चों के प्रति स्नेह , उन्हें अच्छी शिक्षा देना तथा लौकिक व्यवहार कुशलता उनकी जीवन शैली के अंग बन चुके हैं। यहाँ कन्या को देवी के समान पूज्य माना जाता है। ब्रज वनितायें पति के साथ दिन–रात कार्य करते हुए कुल की मर्यादा रखकर पति के साथ रहने में अपना जीवन सार्थक मानती है। संयुक्त परिवार प्रणाली साथ रहने, कार्य करने ,एक–दूसरे का ध्यान रखने, छोटे–बड़े के प्रति यथोचित सम्मान , यहाँ की समाजिक व्यवस्था में परिलक्षित होता है। सत्य और संयम ब्रज लोक जीवन के प्रमुख अंग हैं। यहाँ कार्य के सिद्धान्त की महत्ता है और जीवों में परमात्मा का अंश मानना ही दिव्य दृष्टि है।
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[[चित्र:Rath-Yatra-Rang-Ji-Temple-Vrindavan-Mathura-5.jpg|thumb|[[रथ का मेला वृन्दावन|रथ का मेला]], [[वृन्दावन]]]]
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महिलाओं की मांग में सिंदूर, माथे पर बिन्दी, नाक में लौंग या बाली, कानों में कुण्डल या झुमकी–झाली, गले में मंगल सूत्र, हाथों में [[चूड़ी]], पैरों में बिछुआ–चुटकी, महावर और पायजेब या तोड़िया उनकी सुहाग की निशानी मानी जाती हैं। विवाहित महिलायें अपने पति परिवार और गृह की मंगल कामना हेतु [[करवा चौथ]] का व्रत करती हैं, पुत्रवती नारियां संतान के मंगलमय जीवन हेतु [[अहोई अष्टमी]] का व्रत रखती हैं। स्वर्गस्तक सतिया चिन्ह यहाँ सभी मांगलिक अवसरों पर बनाया जाता है और शुभ अवसरों पर नारियल का प्रयोग किया जाता है।
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देश के कोने–कोने से लोग यहाँ पर्वों पर एकत्र होते हैं। जहां विविधता में एकता के साक्षात दर्शन होते हैं। ब्रज में प्राय: सभी मन्दिरों में [[रथ का मेला वृन्दावन|रथयात्रा]] का उत्सव होता है। चैत्र मास में वृन्दावन में [[रंग नाथ जी मन्दिर|रंगनाथ जी]] की सवारी विभिन्न वाहनों पर निकलती है। जिसमें देश के कोने–कोने से आकर भक्त सम्मिलित होते हैं। ज्येष्ठ मास में [[गंगा दशहरा]] के दिन प्रात: काल से ही विभिन्न अंचलों से श्रद्धालु आकर यमुना में स्नान करते हैं। इस अवसर पर भी विभिन्न प्रकार की वेशभूषा और शिल्प के साथ राष्ट्रीय एकता के दर्शन होते हैं , इस दिन छोटे–बड़े सभी कलात्मक ढंग की रंगीन पतंग उड़ाते हैं।
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आषाढ़ मास में  गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा हेतु प्राय: सभी क्षेत्रों से यात्री गोवर्धन आते हैं, जिसमें आभूषणों, परिधानों आदि से क्षेत्र की शिल्प कला उद्भाषित होती है। [[श्रावण]] मास में हिन्डोलों के उत्सव में विभिन्न प्रकार से कलात्मक ढंग से सज्जा की जाती है। भाद्रपद में मन्दिरों में विशेष कलात्मक झांकियां तथा सजावट होती है। आश्विन माह में सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र में कन्याएं घर की दीवारों पर गोबर से विभिन्न प्रकार की कृतियां बनाती हैं, जिनमें कौड़ियों तथा रंगीन चमकदार काग़ज़ों  के आभूषणों से अपनी सांझी को कलात्मक ढंग से सजाकर [[आरती पूजन|आरती]] करती हैं। इसी माह से मन्दिरों में काग़ज़ के सांचों से सूखे रंगों की वेदी का निर्माण कर उस पर अल्पना बनाते हैं। इसको भी 'सांझी' कहते हैं। कार्तिक मास तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से परिपूर्ण रहता है। [[अक्षय तृतीया]] तथा [[देवोत्थान एकादशी]] को मथुरा तथा वृन्दावन  की परिक्रमा लगाई जाती है। [[बसंत पंचमी]] को सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र बसन्ती होता है। फाल्गुन मास में तो जिधर देखो उधर नगाड़ों , झांझ पर चौपाई तथा [[होली]] के रसिया की ध्वनियां सुनाई देती हैं। नन्दगांव तथा बरसाना की [[होली|लठामार होली]], [[बलदेव|दाऊजी का हुरंगा]] जगत प्रसिद्ध है।
  
==पुराणों में मथुरा==
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==ब्रज का प्राचीन संगीत==
पुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है। अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा। ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पाप रहित हो जाते हैं तथा इसमें रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। <ref>ये वसंति महाभागे मथुरायामितरे जना:। तेऽपि यांति परमां सिद्धिं मत्प्रसादन्न संशय: [[वराह पुराण|वाराह पुराण]], पृ 852, श्लोक 20 </ref> [[वराह पुराण]] में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुध्द विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात [[देवता]] हैं।<balloon title="मथुरायां महापुर्या ये वसंति शुचिव्रता:। बलिभिक्षाप्रदातारो देवास्ते नरविग्रहा:।। तत्रैव, श्लोक 22" style="color:blue">*</balloon> [[श्राद्ध]] कर्म का विशेष फल मथुरा में प्राप्त होता है। मथुरा में श्राद्ध करने वालों के पूर्वजों को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है।<balloon title="मथुराममंडमम् प्राप्य श्राद्धं कृत्वा यथाविधि। तृप्ति प्रयांति पितरो यावस्थित्यग्रजन्मन:।। तत्रैव, श्लोक 19" style="color:blue">*</balloon> [[उत्तनिपाद]] के पुत्र [[ध्रुव]] ने मथुरा में तपस्या कर के नक्षत्रों में स्थान प्राप्त किया था।<balloon title="पद्मपुराण, पृ 600, श्लोक 53" style="color:blue">*</balloon> पुराणों में मथुरा की महिमा का वर्णन है। [[पृथ्वी]] के यह पूछने पर कि मथुरा जैसे तीर्थ की महिमा क्या है? महावराह ने कहा था- "मुझे इस वसुंधरा में पाताल अथवा अंतरिक्ष से भी मथुरा अधिक प्रिय है।<balloon title="वराह पुराण, अध्याय 152" style="color:blue">*</balloon> वराह पुराण में भी मथुरा के संदर्भ में उल्लेख मिलता है, यहाँ की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मिलता है।<balloon title="गोवर्द्धनो गिरिवरो यमुना च महानदी। तयोर्मध्ये पुरोरम्या मथुरा लोकविश्रुता।। वाराहपुराण, अध्याय 165, श्लोक 23" style="color:blue">*</balloon> यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है।<balloon title="`शितिर्योजनानातं मथुरां मत्र मंडलम्।' तत्रैव, अध्याय 158, श्लोक1" style="color:blue">*</balloon> इस मंडल में मथुरा, [[गोकुल]], [[वृन्दावन]], [[गोवर्धन]] आदि [[नगर]], [[ग्राम]] एवं [[मंदिर]], तड़ाग, [[कुण्ड]], [[वन]] एवं अनगणित [[तीर्थ|तीर्थों]] के होने का विवरण मिलता है। इनका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है। गंगा के समान ही यमुना के गौरवमय महत्त्व का भी विशद विवरण किया गया है। पुराणों में वर्णित राजाओं के शासन एवं उनके वंशों का भी वर्णन प्राप्त होता है।
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[[Image:Akbar-Tansen-Haridas.jpg|तानसेन<br /> Tansen|thumb|250px]]
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ब्रज के प्राचीन संगीतज्ञों की प्रामाणिक जानकारी 16वीं शताब्दी के [[भक्तिकाल]] से मिलती है। इस काल में अनेकों संगीतज्ञ वैष्णव संत हुए। संगीत शिरोमणि [[स्वामी हरिदास जी]], इनके गुरु आशुधीर जी तथा उनके शिष्य [[तानसेन]] आदि का नाम सर्वविदित है। [[बैजूबावरा]] के गुरु भी [[हरिदास|श्री हरिदास]] जी कहे जाते हैं, किन्तु बैजू बावरा ने [[अष्टछाप]] के कवि संगीतज्ञ [[गोविंदस्वामी|गोविन्द स्वामी जी]] से ही संगीत का अभ्यास किया था। निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीभट्ट जी इसी काल में भक्त, कवि और संगीतज्ञ हुए। अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कवि [[सूरदास]], [[नंददास|नन्ददास]], [[परमानन्ददास]] जी आदि भी इसी काल में प्रसिद्ध कीर्तनकार, कवि और गायक हुए, जिनके कीर्तन बल्लभकुल के मन्दिरों में गाये जाते हैं। स्वामी हरिदास जी ने ही वस्तुत: ब्रज–संगीत के [[ध्रुपद]]–[[धमार]] की गायकी और [[रासलीला|रास–नृत्य]] की परम्परा चलाई।
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===संगीत===
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मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, [[बांसुरी]] ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें मुरलीधर और वंशीधर आदि नामों से पुकारा जाता है। वर्तमान में भी ब्रज के लोकसंगीत में [[ढोल]] [[मृदंग]], [[झांझ]], [[मंजीरा]], ढप, [[नगाड़ा]],पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है।
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16 वीं शती से मथुरा में रास के वर्तमान रूप का प्रारम्भ हुआ। यहाँ सबसे पहले [[वल्लभाचार्य|बल्लभाचार्य]] जी ने स्वामी हरदेव के सहयोग से [[विश्राम घाट|विश्रांत घाट]] पर रास किया। रास ब्रज की अनोखी देन है, जिसमें संगीत के गीत गद्य तथा नृत्य का समिश्रण है। ब्रज के साहित्य के सांस्कृतिक एवं कलात्मक जीवन को रास बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है। अष्टछाप के कवियों के समय ब्रज में संगीत की मधुरधारा प्रवाहित हुई। सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास आदि स्वयं गायक थे। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में विविध प्रकार के गीतों का अपार भण्डार भर दिया।
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[[चित्र:Kambojika-1.jpg|thumb|200px|[[कम्बोजिका]]<br />Kambojika<br />[[राजकीय संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]], मथुरा]]
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स्वामी हरिदास  संगीत शास्त्र के प्रकाण्ड आचार्य एवं गायक थे। तानसेन जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी उनके शिष्य थे। सम्राट [[अकबर]] भी स्वामी जी के मधुर संगीत- गीतों को सुनने का लोभ संवरण न कर सका और इसके लिए भेष बदलकर उन्हें सुनने वृन्दावन आया करता था। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन लम्बे समय तक संगीत के केन्द्र बने रहे और यहाँ दूर से संगीत कला सीखने आते रहे।
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===लोक गीत===
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ब्रज में अनेकानेक गायन शैलियां प्रचलित हैं और रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद, रसिया आदि गायकी के साथ रासलीला का आयोजन होता है। श्रावण मास में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गायी जाने वाली मल्हार गायकी का प्रादुर्भाव ब्रज से ही है। लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चौबोला, बहल–तबील, भगत आदि संगीत भी समय –समय पर सुनने को मिलता है। इसके अतिरिक्त ऋतु गीत, घरेलू गीत, सांस्कृतिक गीत समय–समय पर विभिन्न वर्गों में गाये जाते हैं।
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===कला===
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यहाँ स्थापत्य तथा मूर्ति कला के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण युग [[शक-कुषाण काल|कुषाण काल]] के प्रारम्भ से [[गुप्त काल]] के अन्त तक रहा। यद्यपि इसके बाद भी ये कलायें 12वीं शती के अन्त तक जारी रहीं। इसके बाद लगभग 350 वर्षों तक मथुरा कला का प्रवाह अवरूद्ध रहा, पर 16वीं शती से कला का पुनरूत्थान साहित्य, संगीत तथा चित्रकला के रूप में दिखाई पड़ने लगता है।
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==होली==
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{{Main|होली}}
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[[चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 11.jpg|[[होली]], [[कृष्ण जन्मभूमि]], मथुरा |thumb|250px]]
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[[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] [[राधा]] और [[गोपी|गोपियों]]–ग्वालों के बीच की होली के रूप में गुलाल, रंग केसर की पिचकारी से ख़ूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल 9 [[बरसाना]] से होता है। वहां की [[होली बरसाना विडियो 1|लठामार होली]] जग प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली [[नन्दगांव]] में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। धूलेंड़ी को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके बाद हुरंगे चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ लाठियों, कोड़ों आदि से पुरुषों को घेरती हैं। [[बरसाना]] और नंदगाँव की लठमार होली तो जगप्रसिद्ध है। "नंदगाँव के कुँवर कन्हैया, बरसाने की गोरी रे रसिया" और ‘बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी’ गीतों के साथ ही [[ब्रज]] की [[होली]] की मस्ती शुरू होती है। वैसे तो होली पूरे [[भारत]] में मनाई जाती है लेकिन ब्रज की होली ख़ास मस्ती भरी होती है. वजह ये कि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। उत्तर भारत के बृज क्षेत्र में [[बसंत पंचमी]] से ही होली का चालीस दिवसीय उत्सव आरंभ हो जाता है। नंदगाँव एवं बरसाने से ही होली की विशेष उमंग जागृत होती है। जब नंदगाँव के गोप गोपियों पर रंग डालते, तो नंदगांव की गोपियां उन्हें ऐसा करनेसे रोकती थीं और न माननेपर लाठी मारना शुरू करती थीं। होली की टोलियों में नंदगाँव के पुरूष होते हैं क्योंकि कृष्ण यहीं के थे और बरसाने की महिलाएं क्योंकि राधा बरसाने की थीं। दिलचस्प बात ये होती है कि ये होली बाकी भारत में खेली जाने वाली होली से पहले खेली जाती है। दिन शुरू होते ही नंदगाँव के हुरियारों की टोलियाँ बरसाने पहुँचने लगती हैं. साथ ही पहुँचने लगती हैं कीर्तन मंडलियाँ। इस दौरान भाँग-ठंढई का ख़ूब इंतज़ाम होता है। ब्रजवासी लोगों की चिरौंटा जैसी आखों को देखकर भाँग ठंढई की व्यवस्था का अंदाज़ लगा लेते हैं। बरसाने में टेसू के फूलों के भगोने तैयार रहते हैं। दोपहर तक घमासान लठमार होली का समाँ बंध चुका होता है। नंदगाँव के लोगों के हाथ में पिचकारियाँ होती हैं और बरसाने की महिलाओं के हाथ में लाठियाँ, और शुरू हो जाती है होली।
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{{seealso|मथुरा होली चित्र वीथिका|बरसाना होली चित्र वीथिका|बलदेव होली चित्र वीथिका}}
  
[[ब्रह्मपुराण]] में [[वृष्णि संघ|वृष्णियों]] एवं [[अंधक|अंधकों]] के स्थान मथुरा पर, राक्षसों के आक्रमण का भी विवरण मिलता है।<balloon title="ब्रह्म पुराण, अध्याय 14 श्लोक 54" style=color:blue>*</balloon> वृष्णियों एवं अंधकों ने डर कर मथुरा को छोड़ दिया था और उन्होंने अपनी राजधानी द्वारावती ([[द्वारिका]]) में प्रतिष्ठित की थी।<balloon title="हरिवंश पुराण, अध्याय 37" style=color:blue>*</balloon> मगध नरेश जरासंध ने 23 [[अक्षौहिणी]] सेना से इस नगरी को घेर लिया था।<balloon title="हरिवंश पुराण, अध्याय 195, श्लोक 3" style="color:blue">*</balloon> अपने महाप्रस्थान के समय [[युधिष्ठर]] ने मथुरा के सिंहासन पर [[वज्रनाभ]] को आसीन किया।<balloon title="स्कन्द पुराण, विष्णु खंड, भागवत माहात्म्य, अध्याय 1" style=color:blue>*</balloon> [[सात नाग-नरेश]] [[गुप्तवंश]] के उत्कर्ष के पूर्व यहाँ पर राज्य कर रहे थे।<balloon title="वायुपुराण, अध्याय 99; विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2, पृ 32" style="color:blue">*</balloon>
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==मथुरा ज़िले के प्रमुख मन्दिर==
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भगवान श्रीकृष्ण के जन्म स्थान पर महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से एक विशाल मन्दिर बना है। यह देशी–विदशी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। मन्दिर में भगवान श्रीकृष्ण का सुन्दर विग्रह है। समीप ही सुविधा युक्त अतिथि ग्रह तथा धर्मार्थ आयुर्वेदिक चिकित्सालय है। अतिथि ग्रह के निकट विशाल भागवत भवन है। यहाँ शोध पीठ एवं बाल मन्दिर भी है। इसके पीछे केशवदेव जी का प्राचीन मन्दिर भी स्थित है।
  
[[उग्रसेन]] और कंस मथुरा के शासक थे जिस पर [[अंधक|अंधकों]] के उत्तराधिकारी राज्य करते थे।<balloon title="एफ इ पार्जिटर, ऐंश्‍येंट इंडियन हिस्टारिकल टे्रडिशन पृ 171" style="color:blue">*</balloon> कालान्तर में शत्रुघ्न के पुत्रों को मथुरा से [[भीम सात्वत|सात्वत भीम]] ने निकाला तथा उसने तथा उसके पुत्रों ने यहाँ पर राज्य किया।<balloon title="एफ इ पार्जिटर, ऐंश्‍येंट इंडियन हिस्टारिकल टे्रडिशन, पृ2.11" style="color:blue">*</balloon> शूरसेन ने जो शत्रुघ्न का पुत्र था, उसने यमुना के पश्चिम में बसे हुए सात्वत यादवों पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक [[माधव]]<balloon title="माधव अर्थात मधु का वंशज जो कृष्ण को भी कहा जाता है, कृष्ण मधुसूदन भी हैं किन्तु वह मधुकैटव राक्षस से अर्थ है।" style=color:blue>*</balloon> लवण का वध करके मथुरा नगरी को अपनी राजधानी घोषित किया।<balloon title="विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, (उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1972 ई.) पृ 183" style=color:blue>*</balloon>
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{| class="brajtable" border="1" width="100%" style="text-align:center"
मथुरा की स्थापना [[श्रावण]] महीने में होने के कारण ही संभवत: इस माह में उत्सव आदि करने की परंपरा है। पुरातन काल में ही यह नगरी इतनी वैभवशाली थी कि मथुरा नगरी को देवनिर्मिता कहा जाने लगा था। <ref>इयम् मधुपुरी रम्या मधुरा देवनिर्मिता<balloon title="देवताओं द्वारा बनाई गई" style=color:blue>*</balloon> निवेशं प्राप्नयाच्छीध्रमेश मे स्तु वर: पर:।। [[वाल्मीकि रामायण]], उत्तराकांड, सर्ग 70, पंक्ति 5-6</ref> मथुरा के महाभारत काल के राजवंश को यदु अथवा यदुवंशीय कहा जाता है। यादव वंश में मुख्यत: दो वंश हैं। जिन्हें-[[वीतिहोत्र]] एवं सात्वत के नाम से जाना जाता है। सात्वत वर्ग भी कई शाखाओं में बँटा हुआ था। जिनमें वृष्णि, अंधक, देवावृद्ध तथा महाभोज प्रमुख थे।<balloon title="एफ ई पार्जिटर, ऐंश्‍येंटइंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, तुलनीय, हेमचंद्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास , पृ 107" style="color:blue">*</balloon>
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यदु और [[यदु वंश]] का प्रमाण [[ॠग्वेद]] में भी मिलता है। इस वंश का संबंध [[तुर्वश]], [[द्रुह]], [[अनु]] एवं [[पुरु]] से था।<balloon title="(ऋग्वेद, 1/108/8)। ऋग्वेद (तत्रैव, 1/36; 18;5/45/1)" style="color:blue">*</balloon> से ज्ञात होता है कि यदु तुर्वश किसी दूरस्थ प्रदेश से यहाँ आए थे। वैदिक साहित्य में सात्वतों का भी नाम आता है।<balloon title="शतानीक: सामंतासु मेध्यम् सत्राजिता हयम् ,आदत्त यज्ञंकाशीनम् भरत: सत्वतामिव।। -शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/21" style="color:blue">*</balloon> [[शतपथ ब्राह्मण]] में आता है कि एक बार भरतवंशी शासकों ने सात्वतों से उनके [[यज्ञ]] का घोड़ा छीन लिया था। भरतवंशी शासकों द्वारा [[सरस्वती]], [[यमुना]] और [[गंगा]] के तट पर [[यज्ञ]] किए जाने के वर्णन से राज्य की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता है।<balloon title="शतपथ ब्राह्मण, अध्याय 13/5/4/11; तुल हेमचंद्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास, पृ 108" style="color:blue">*</balloon> सात्वतों का राज्य भी समीपवर्ती क्षेत्रों में ही रहा होगा। इस प्रकार [[महाभारत]] एवं पुराणों में वर्णित सात्वतों का मथुरा से संबंध स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है।
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! style="width:15%"| नाम
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! style="width:58%"| संक्षिप्त विवरण
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! style="width:12%"|मानचित्र लिंक
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| [[कृष्ण जन्मभूमि]]
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| style="text-align:left"|भगवान [[कृष्ण|श्री कृष्ण]] की जन्मभूमि का ना केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्व है बल्कि वैश्विक स्तर पर मथुरा जनपद भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। आज वर्तमान में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षण मन्दिर के रूप में स्थापित है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन आते हैं [[कृष्ण जन्मभूमि|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Krishna Birth Place Mathura-13.jpg|कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा|150px]]
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| [http://maps.google.com/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=shri+krishna+janm+bhoomi&sll=27.505493,77.665958&sspn=0.016596,0.042272&ie=UTF8&hq=shri+krishna+janm+bhoomi&hnear=&ll=27.509794,77.665873&spn=0.033495,0.084543&z=14 गूगल मानचित्र]
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| [[द्वारिकाधीश मन्दिर|द्वारिकाधीश मन्दिर]]
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| style="text-align:left"|मथुरा नगर के राजाधिराज बाज़ार में स्थित यह मन्दिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला एवं सौन्दर्य के लिए अनुपम है। [[ग्वालियर]] राज के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुल दास पारीख ने इसका निर्माण 1814–15 में प्रारम्भ कराया, जिनकी मृत्यु पश्चात इनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी सेठ लक्ष्मीचन्द्र ने मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण कराया [[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Dwarikadish-temple-1.jpg|द्वारिकाधीश मन्दिर|150px]]
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| [http://maps.google.com/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=dwarkadhish+temple+mathura&sll=27.509794,77.665873&sspn=0.035399,0.084543&ie=UTF8&hq=dwarkadhish+temple&hnear=Mathura,+Uttar+Pradesh+281001,+India&ll=27.510022,77.684669&spn=0.033495,0.084543&z=14 गूगल मानचित्र]
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| [[राजकीय संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]]
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| style="text-align:left"|मथुरा का यह विशाल संग्रहालय डेम्पीयर नगर, मथुरा में स्थित है। भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन है। भारतीय कला के इतिहास में यहीं पर सर्वप्रथम हमें शासकों की लेखों से अंकित मानवीय आकारों में बनी प्रतिमाएं दिखलाई पड़ती हैं  [[राजकीय संग्रहालय मथुरा|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Mathura-Museum-1.jpg|राजकीय संग्रहालय|150px]]
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| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=mathura+museum&sll=27.576574,77.682352&sspn=0.020694,0.042272&ie=UTF8&hq=museum&hnear=Mathura,+Uttar+Pradesh+281001&z=16&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[बांके बिहारी मन्दिर वृन्दावन|बांके बिहारी मन्दिर]]
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| style="text-align:left"|बांके बिहारी मंदिर मथुरा ज़िले के [[वृंदावन]] धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी [[कृष्ण]] का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री [[हरिदास]] जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया [[बांके बिहारी मन्दिर वृन्दावन|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Banke-Bihari-Temple.jpg|150px|बांके बिहारी मन्दिर]]
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| [http://maps.google.com/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=banke+bihari+temple+vrindavan&sll=28.386568,79.425488&sspn=0.083666,0.110378&ie=UTF8&hq=banke+bihari+temple&hnear=Vrindavan,+Mathura,+Uttar+Pradesh+281124,+India&ll=27.581215,77.691042&spn=0.010061,0.013797&z=16&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[रंग नाथ जी मन्दिर|रंग नाथ जी मन्दिर]]
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| style="text-align:left"|श्री सम्प्रदाय के संस्थापक [[रामानुज|रामानुजाचार्य]] के विष्णु-स्वरूप भगवान रंगनाथ या रंगजी के नाम से रंग जी का मन्दिर सेठ लखमीचन्द के भाई सेठ गोविन्ददास और राधाकृष्ण दास द्वारा निर्माण कराया गया था। उनके महान गुरु [[संस्कृत]] के आचार्य स्वामी रंगाचार्य द्वारा दिये गये मद्रास के रंग नाथ मन्दिर की शैली के मानचित्र के आधार पर यह बना था। इसकी बाहरी दीवार की लम्बाई 773 फीट और चौड़ाई 440 फीट है [[रंग नाथ जी मन्दिर|.... और पढ़ें]]
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|[[चित्र:Rang-ji-temple-2.jpg|150px|रंग नाथ जी मन्दिर]]
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| [http://maps.google.com/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=rang+nath+temple+vrindavan&sll=27.581215,77.691042&sspn=0.010061,0.013797&ie=UTF8&ll=27.583269,77.704196&spn=0.020122,0.027595&z=15&iwloc=lyrftr:m,12219994355026929546,27.582242,77.70175 गूगल मानचित्र]
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| [[गोविन्द देव जी का मंदिर|गोविन्द देव मन्दिर]]
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| style="text-align:left"|गोविन्द देव जी का मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। मंदिर का निर्माण ई. 1590 में तथा इसे बनाने में 5 से 10 वर्ष लगे। मंदिर की भव्यता का अनुमान इस उद्धरण से लगाया जा सकता है [[औरंगज़ेब]] ने शाम को टहलते हुए, दक्षिण-पूर्व में दूर से दिखने वाली रौशनी के बारे जब पूछा तो पता चला कि यह चमक [[वृन्दावन]] के वैभवशाली मंदिरों की है [[गोविन्द देव जी का मंदिर|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Govind-dev-temple-6.jpg|150px|गोविन्द देव मन्दिर]]
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| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=Govindji+Temple,+Vrindavan,+Uttar+Pradesh&sll=21.125498,81.914063&sspn=43.661359,86.572266&ie=UTF8&hq=Govindji+Temple,&hnear=Vrindavan,+Mathura,+Uttar+Pradesh+281124&ll=27.581462,77.69954&spn=0.010346,0.021136&z=16&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[इस्कॉन मन्दिर|इस्कॉन मन्दिर]]
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| style="text-align:left"|[[वृन्दावन]] के आधुनिक मन्दिरों में यह एक भव्य मन्दिर है। इसे अंग्रेज़ों का मन्दिर भी कहते हैं। केसरिया वस्त्रों में हरे रामा–हरे कृष्णा की धुन में तमाम विदेशी महिला–पुरुष यहाँ देखे जाते हैं। मन्दिर में राधा कृष्ण की भव्य प्रतिमायें हैं और अत्याधुनिक सभी सुविधायें हैं [[इस्कॉन मन्दिर|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Iskcon-Temple-1.jpg|इस्कॉन मन्दिर वृन्दावन|150px]]
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| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=Iskcon+Temple+vrindavan&sll=21.125498,81.914063&sspn=43.661359,86.572266&ie=UTF8&hq=Iskcon+Temple&hnear=Vrindavan,+Mathura,+Uttar+Pradesh+281124&ll=27.576574,77.682352&spn=0.020694,0.042272&z=15&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[मदन मोहन जी का मंदिर|मदन मोहन मन्दिर]]
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| style="text-align:left"|[[श्रीकृष्ण]] भगवान के अनेक नामों में से एक प्रिय नाम मदनमोहन भी है। इसी नाम से एक मंदिर मथुरा ज़िले के [[वृंदावन]] धाम में विद्यमान है। विशालकायिक नाग के फन पर भगवान चरणाघात कर रहे हैं। पुरातनता में यह मंदिर [[गोविन्द देव जी का मंदिर|गोविन्द देव जी के मंदिर]] के बाद आता है [[मदन मोहन जी का मंदिर|.... और पढ़ें]] 
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| [[चित्र:Madan-Mohan-Temple-4.jpg|100px|मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन]]
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| [[दानघाटी|दानघाटी मंदिर]]
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| style="text-align:left"|मथुरा–[[डीग|डीग]] मार्ग पर [[गोवर्धन]] में यह मन्दिर स्थित है। गिर्राजजी की परिक्रमा हेतु आने वाले लाखों श्रृद्धालु इस मन्दिर में पूजन करके अपनी परिक्रमा प्रारम्भ कर पूर्ण लाभ कमाते हैं। ब्रज में इस मन्दिर की बहुत महत्ता है। यहाँ अभी भी इस पार से उसपार या उसपार से इस पार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय [[कृष्ण]] ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक–झोंक के साथ दानलीला की है [[दानघाटी|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Danghati Temple Govardhan Mathura 2.jpg|100px|दानघाटी]]
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| [http://maps.google.co.in/maps?f=d&source=s_d&saddr=Major+District+Road+70/MDR+70&daddr=27.50066,77.65306+to:Pagal+Baba+Temple&geocode=FVyKowEdovydBA;FXSgowEdROSgBCnnLCTn2XNzOTESPc4ps-4wlA;FXSgowEdROSgBA&hl=en&mra=dvme&mrcr=0&mrsp=1&sz=12&via=1&sll=27.488477,77.5597&sspn=0.165682,0.338173&ie=UTF8&ll=27.487867,77.561417&spn=0.165683,0.338173&z=12 गूगल मानचित्र]
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| [[मानसी गंगा|मानसी गंगा]]
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| style="text-align:left"|[[गोवर्धन]] गाँव के बीच में श्री मानसी गंगा है। परिक्रमा करने में दायीं और पड़ती है और पूंछरी से लौटने पर भी दायीं और इसके दर्शन होते हैं। मानसी गंगा के पूर्व दिशा में- श्री मुखारविन्द, श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर, श्री किशोरीश्याम मन्दिर, श्री गिरिराज मन्दिर, श्री मन्महाप्रभु जी की बैठक, श्री राधाकृष्ण मन्दिर स्थित हैं [[मानसी गंगा|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Mansi-Ganga-1.jpg|150px|मानसी गंगा]]
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| [[कुसुम सरोवर|कुसुम सरोवर]]
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| style="text-align:left"|मथुरा में [[गोवर्धन]] से लगभग 2 किलोमीटर दूर [[राधाकुण्ड गोवर्धन|राधाकुण्ड]] के निकट स्थापत्य कला के नमूने का एक समूह [[जवाहर सिंह]] द्वारा अपने पिता [[सूरजमल]] ( ई.1707-1763) की स्मृति में बनवाया गया। कुसुम सरोवर गोवर्धन के परिक्रमा मार्ग में स्थित एक रमणीक स्थल है जो अब सरकार के संरक्षण में है [[कुसुम सरोवर|.... और पढ़ें]] 
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| [[चित्र:Kusum-sarovar-01.jpg|150px|कुसुम सरोवर]]
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| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=kusum+sarovar+govardhan&sll=21.125498,81.914063&sspn=44.429312,86.572266&ie=UTF8&hq=kusum+sarovar&hnear=kusum+sarovar,+Mathura,+Uttar+Pradesh&ll=27.537348,77.483826&spn=0.069714,0.169086&z=13&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[जयगुरुदेव मन्दिर|जयगुरुदेव मन्दिर]]
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| style="text-align:left"|मथुरा में [[आगरा]]-[[दिल्ली]] राजमार्ग पर स्थित जय गुरुदेव आश्रम की लगभग डेढ़ सौ एकड़ भूमि पर संत बाबा जय गुरुदेव की एक अलग ही दुनिया बसी हुई है। उनके देश विदेश में 20 करोड़ से भी अधिक अनुयायी हैं। उनके अनुयायियों में अनपढ़ किसान से लेकर प्रबुद्ध वर्ग तक के लोग हैं [[जयगुरुदेव मन्दिर|.... और पढ़ें]]  
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| [[चित्र:Jai-Gurudev-Temple-1.jpg|150px|जयगुरुदेव मन्दिर]]
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| [[राधा रानी मंदिर|राधा रानी मंदिर]]
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| style="text-align:left"|इस मंदिर को [[बरसाना|बरसाने]] की लाड़ली जी का मंदिर भी कहा जाता है। [[राधा]] का यह प्राचीन मंदिर मध्यकालीन है जो लाल और पीले पत्थर का बना है। राधा-[[कृष्ण]] को समर्पित इस भव्य और सुन्दर  मंदिर का निर्माण राजा वीर सिंह ने 1675 में करवाया था। बाद में स्थानीय लोगों द्वारा पत्थरों को इस मंदिर में लगवाया। [[राधा रानी मंदिर|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Barsana-temple-3.jpg|150px|राधा रानी मंदिर]]
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| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=barsana+temple+barsana&sll=27.502181,77.46048&sspn=0.316096,0.676346&ie=UTF8&hq=barsana+temple&hnear=Barsana,+Bharatpur,+Rajasthan&ll=27.652666,77.373426&spn=0.009864,0.021136&z=16&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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| [[नन्द जी मंदिर|नन्द जी मंदिर]]
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| style="text-align:left"|[[नन्द]] जी का मंदिर, [[नन्दगाँव]] में स्थित है। नन्दगाँव [[ब्रजमंडल]] का प्रसिद्ध तीर्थ है। [[गोवर्धन]] से 16 मील पश्चिम उत्तर कोण में, [[कोसी]] से 8 मील दक्षिण में तथा [[वृन्दावन]] से 28 मील पश्चिम में नन्दगाँव स्थित है। नन्दगाँव की प्रदक्षिणा (परिक्रमा) चार मील की है। यहाँ पर [[कृष्ण]] लीलाओं से सम्बन्धित 56 कुण्ड हैं। जिनके दर्शन में 3–4 दिन लग जाते हैं [[नन्द जी मंदिर|.... और पढ़ें]]
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| [[चित्र:Nand-Ji-Temple-1.jpg|150px|नन्द जी मंदिर]]
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| [http://maps.google.co.in/maps?f=q&source=s_q&hl=en&geocode=&q=nandgaon+mathura&sll=27.581462,77.69954&sspn=0.010346,0.021136&ie=UTF8&cd=1&hq=nandgaon&hnear=Mathura,+Uttar+Pradesh+281001&ll=27.728514,77.332764&spn=0.630883,1.352692&z=10 गूगल मानचित्र]
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|}
  
 
==वीथिका==
 
==वीथिका==
 
<gallery widths="145px" perrow="4">
 
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चित्र:Krishna-Birth-Place-Mathura-8.jpg|[[कृष्ण जन्मभूमि]], मथुरा<br />Krishna's Janm Bhumi, Mathura
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चित्र:Krishna-Birth-Place-Mathura-9.jpg|[[कृष्ण जन्मभूमि]], मथुरा<br /> Krishna's Birth Place, Mathura
चित्र:kambojika-1.jpg|महाराज्ञी [[कम्बोजिका]]<br />Kambojika
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चित्र:Keshi-Ghat-1.jpg|[[केशी घाट|केशी घाट]], [[वृन्दावन]]<br /> Keshi Ghat, Vrindavan
चित्र:Govind-dev-temple-6.jpg|[[गोविन्द देव जी का मंदिर]], [[वृन्दावन]]<br />Govind Dev Temple, Vrindavan
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चित्र:Rang-Ji-Temple-6.jpg|[[रंग नाथ जी मन्दिर|रंग नाथ जी मन्दिर]], [[वृन्दावन]]<br /> Rang Nath Ji Temple, Vrindavan
चित्र:kusum-sarovar-01.jpg|[[कुसुम सरोवर]], [[गोवर्धन]]<br /> Kusum Sarovar, Govardhan
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चित्र:barsana-temple-3.jpg|[[राधा रानी मंदिर|राधा रानी मंदिर]], [[बरसाना]]<br /> Radha Rani Temple, Barsana
चित्र:dwarikadish-temple-1.jpg|[[द्वारिकाधीश मन्दिर]], मथुरा<br />Dwarikadish Temple, Mathura
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चित्र:Buddha-3.jpg|[[बुद्ध]] प्रतिमा, मथुरा<br /> Buddha, Mathura  
चित्र:Banke-Bihari-Temple.jpg|[[बांके बिहारी मन्दिर]], [[वृन्दावन]]<br />Banke Bihari Temple, Vrindavan
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चित्र:barsana-holi-1.jpg|लट्ठामार [[होली]], [[बरसाना]]<br /> Lathmar Holi, Barsana
चित्र:Mathura-Museum-1.jpg|राजकीय संग्रहालय, मथुरा<br />Govt. Museum, Mathura
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चित्र:Iskcon-Temple-1.jpg|[[इस्कॉन मन्दिर]], [[वृन्दावन]]<br /> Iskcon Temple, Vrindavan
चित्र:Vishram-Ghat-11.jpg|[[यमुना]] स्नान, [[विश्राम घाट]], मथुरा<br />Yamuna Snan, Vishram Ghat, Mathura
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चित्र:Raman-Reti-Ashram-2.jpg|रमण रेती आश्रम, [[महावन]]<br /> Raman Reti Ashram, Mahavan
चित्र:Holi-Gate-2.jpg|[[होली दरवाज़ा]], मथुरा<br />Holi Gate, Mathura
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चित्र:Dwarikadish-Temple-Mathura-1.jpg|[[द्वारिकाधीश मन्दिर|द्वारिकाधीश मन्दिर]], मथुरा<br /> Dwarikadish Temple, Mathura
चित्र:Buddha-3.jpg|[[बुद्ध]] प्रतिमा<br />Buddha Image
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चित्र:kusum-sarovar-01.jpg|[[कुसुम सरोवर|कुसुम सरोवर]], [[गोवर्धन]]<br /> Kusum Sarovar, Govardhan
चित्र:Jain-Museum-Mathura-2.jpg|[[जैन संग्रहालय मथुरा|राजकीय जैन संग्रहालय]], मथुरा<br />Govt. Jain Museum, Mathura
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चित्र:rangeshwar-1.jpg|[[रंगेश्वर महादेव|रंगेश्वर महादेव मन्दिर]], मथुरा<br /> Rangeshwar Mahadev Temple, Mathura
चित्र:barsana-temple-3.jpg|[[राधा]] रानी मंदिर, [[बरसाना]]<br /> Radha Rani Temple, Barsana
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चित्र:Kansa-Fair-2.jpg|[[कंस मेला]], मथुरा<br /> Kans Fair, Mathura
चित्र:Radha-Krishna-Janmbhumi-Mathura-1.jpg|[[राधा]]-[[कृष्ण]], [[कृष्ण जन्मभूमि]], मथुरा<br />Radha - Krishna, Krishna's Birth Place, Mathura
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चित्र:Radha-Krishna-Janmbhumi-Mathura-1.jpg|[[राधा]]-[[कृष्ण]], [[कृष्ण जन्मभूमि]], मथुरा<br /> Radha - Krishna, Krishna's Birth Place, Mathura
चित्र:madan-mohan-temple-1.jpg|[[मदन मोहन जी का मंदिर]], [[वृन्दावन]]<br />Madan Mohan temple, Vrindavan
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चित्र:Vishram-Ghat-11.jpg|[[यमुना नदी|यमुना]] स्नान, [[विश्राम घाट|विश्राम घाट]], मथुरा<br /> Yamuna Snan, Vishram Ghat, Mathura
चित्र:kanishk.jpg|[[कनिष्क]]<br />Kanishka
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चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-3.jpg|[[गुरु पूर्णिमा]] पर भजन-कीर्तन करते श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], मथुरा<br /> Devotees Chanting Bhajans On Guru Purnima, Govardhan
चित्र:rang-ji-temple-2.jpg|[[रंग नाथ जी का मन्दिर]], [[वृन्दावन]]<br /> Rang Nath Ji Temple, Vrindavan
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चित्र:Mansi-Ganga-1.jpg|[[मानसी गंगा|मानसी गंगा]], [[गोवर्धन]]<br /> Mansi Ganga, Govardhan
चित्र:Cenotaph-Baldev-Singh-2.jpg|राजा बलदेव सिंह [[भरतपुर]] स्मारक, [[गोवर्धन]]<br /> Raja Baldeo Singh Cenotaph, Govardhan 
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चित्र:Ravana-Ramlila-Mathura-2.jpg|[[रावण]], [[रामलीला]], मथुरा<br /> Ravana, Ramlila, Mathura
चित्र:Keshi-Ghat-1.jpg|[[केशी घाट]], [[वृन्दावन]]<br />Keshi Ghat, Vrindavan
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चित्र:Haridev-Temple-Front.jpg|[[हरिदेव जी मंदिर|हरिदेव जी मंदिर]], [[गोवर्धन]]<br /> Haridev Ji Temple, Govardhan
चित्र:barsana-holi-1.jpg|लट्ठामार होली, बरसाना<br />Lathmar Holi, Barsana
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चित्र:Yamuna-Chunri-Manorath-1.jpg|चुनरी मनोरथ, [[यमुना नदी|यमुना]] , मथुरा<br /> Chunri Manorath, Yamuna, Mathura
चित्र:gopi-nath-temple-1.jpg|[[गोपी नाथ जी मन्दिर]], [[वृन्दावन]]<br /> Gopi Nath Ji Temple, Vrindavan
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चित्र:Danghati Temple Govardhan Mathura 2.jpg|[[दानघाटी|दानघाटी मन्दिर]], [[गोवर्धन]]<br /> DanGhati Temple, Govardhan
चित्र:Vima Taktu.jpg|[[विम तक्षम]]<br />Vima Taktu
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चित्र:Radha Kund Govardhan Mathura 2.jpg|[[राधाकुण्ड]], मथुरा<br /> Radha Kund, Govardhan, Mathura
चित्र:Baldev-Temple-3.jpg|[[होली]], दाऊजी मन्दिर, [[बलदेव मन्दिर|बलदेव]]<br />Holi, Dauji Temple, Baldev
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चित्र:Dwarikadish-temple-1.jpg|[[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|द्वारिकाधीश मन्दिर]], मथुरा<br /> Dwarkadhish Temple, Mathura
चित्र:Danghati Temple Govardhan Mathura 2.jpg|[[दानघाटी]] मंदिर, गोवर्धन<br />Danghati Temple, Govardhan
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चित्र:jaipur-temple-barsana.jpg|जयपुर मंदिर, बरसाना<br />Jaipur Temple, Barsana
चित्र:Ghats-of-Yamuna-4.jpg|[[यमुना के घाट]], मथुरा<br />Ghats of Yamuna, Mathura
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चित्र:Baldev-Temple-1.jpg|दाऊजी मन्दिर, [[बलदेव मन्दिर|बलदेव]]<br /> Dauji Temple, Baldev
 
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यमुना
मथुरा नगर का यमुना नदी पार से विहंगम दृश्य
Panoramic View of Mathura Across The Yamuna
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मथुरा भौगोलिक संदर्भ

मथुरा यमुना नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। समुद्र तल से ऊँचाई 187 मीटर है। जलवायु-ग्रीष्म 22° से 45° से0, शीत 40° से 32° से0 औसत वर्षा 66 से.मी. जून से सितंबर तक। मथुरा जनपद उत्तर प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। इसके पूर्व में जनपद एटा, उत्तर में जनपद अलीगढ़, दक्षिण–पूर्व में जनपद आगरा, दक्षिण–पश्चिम में राजस्थान एवं पश्चिम–उत्तर में हरियाणा राज्य स्थित हैं। मथुरा, आगरा मण्डल का उत्तर–पश्चिमी ज़िला है। यह Lat. 27° 41'N और Long. 77° 41'E के मध्य स्थित है। मथुरा जनपद में चार तहसीलें –माँट, छाता, महावन और मथुरा तथा 10 विकास खण्ड हैं – नन्दगाँव, छाता, चौमुहाँ, गोवर्धन, मथुरा , फ़रह, नौहझील, मांट, राया और बल्देव हैं।

कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Krishna's Birth Place, Mathura

जनपद का भौगोलिक क्षेत्रफल 3329.4 वर्ग कि.मी. है। जनपद की प्रमुख नदी यमुना है , जो उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई जनपद की कुल चार तहसीलों मांट, मथुरा, महावन और छाता में से होकर बहती है। यमुना का पूर्वी भाग पर्याप्त उपजाऊ है तथा पश्चिमी भाग अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है।

इस जनपद की प्रमुख नदी यमुना है, इसकी दो सहायक नदियाँ "करवन" तथा "पथवाहा" हैं। यमुना नदी वर्ष भर बहती है तथा जनपद की प्रत्येक तहसील को छूती हुई बहती है। यह प्रत्येक वर्ष अपना मार्ग बदलती रहती है , जिसके परिणाम स्वरूप हज़ारों हैक्टेयर क्षेत्रफल बाढ़ से प्रभावित हो जाता है। यमुना नदी के किनारे की भूमि खादर है। जनपद की वायु शुद्ध एवं स्वास्थ्यवर्धक है। गर्मियों में अधिक गर्मी और सर्दियों में अधिक सर्दी पड़ना यहाँ की विशेषता है। वर्षा के अलावा वर्ष भर शेष समय मौसम सामान्यत: शुष्क रहता है। मई व जून के महीनों में तेज़ गर्म पश्चिमी हवायें (लू) चलती हैं। जनपद में अधिकांश वर्षा जुलाई व अगस्त माह में होती है। जनपद के पश्चिमी भाग में आजकल बाढ़ का आना सामान्य हो गया है , जिससे काफ़ी क्षेत्र जलमग्न हो जाता है।

मथुरा संदर्भ

शूरसेन देश की मुख्य नगरी मथुरा के विषय में आज तक कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हो सका है। किन्तु ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। अंगुत्तरनिकाय[१] एवं मज्झिम.[२] में आया है कि बुद्ध के एक महान शिष्य महाकाच्यायन ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। मैगस्थनीज़ सम्भवत: मथुरा को जानता था और इसके साथ हरेक्लीज के सम्बन्ध से भी परिचित था। 'माथुर'[३] शब्द जैमिनि के पूर्व मीमांसासूत्र में भी आया है। यद्यपि पाणिनि के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण[४] में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, अर्जुन[५], यादवों के अन्धक-वृष्णि लोग, सम्भवत: गोविन्द भी[६] ज्ञात थे।

पतंजलि के महाभाष्य में मथुरा शब्द कई बार आया है।[७] कई स्थानों पर वासुदेव द्वारा कंस के नाश का उल्लेख नाटकीय संकेतों, चित्रों एवं गाथाओं के रूप में आया है। उत्तराध्ययनसूत्र में मथुरा को सौर्यपुर कहा गया है, किन्तु महाभाष्य में उल्लिखित सौर्य नगर मथुरा ही है, ऐसा कहना सन्देहात्मक है। आदिपर्व[८] में आया है कि मथुरा अति सुन्दर गायों के लिए उन दिनों प्रसिद्ध थी। जब जरासन्ध के वीर सेनापति हंस एवं डिम्भक यमुना में डूब गये, और जब जरासन्ध दु:खित होकर मगध चला गया तो कृष्ण कहते हैं, 'अब हम पुन: प्रसन्न होकर मथुरा में रह सकेंगे'।[९] अन्त में जरासन्ध के लगातार आक्रमणों से तंग आकर कृष्ण ने यादवों को द्वारका में ले जाकर बसाया।[१०]

Blockquote-open.gifवराह पुराण[११] में आया है- विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। पद्म पुराण में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'[१२] हरिवंश पुराण[१३] ने मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है, एक श्लोक यों है- 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'[१४]Blockquote-close.gif

ब्रह्म पुराण (14।54-56) में आया है कि कृष्ण की सम्मति से वृष्णियों एवं अन्धकों ने काल यवन के भय से मथुरा का त्याग कर दिया। वायु पुराण[१५] का कथन है कि राम के भाई शत्रुघ्न ने मधु के पुत्र लवण को मार डाला और मधुवन में समुद्धिशाली नगर बनाया। घट-जातक[१६] में मथुरा को उत्तर मथुरा कहा गया है(दक्षिण के पाण्डवों की नगरी भी मधुरा के नाम से प्रसिद्ध थी), वहाँ कंस एवं वासुदेव की गाथा भी आयी है जो महाभारत एवं पुराणों की गाथा से भिन्न है। रघुवंश[१७] में इसे मधुरा नाम से शत्रुघ्न द्वारा स्थापित कहा गया है। ह्वेनसाँग के अनुसार मथुरा में अशोकराज द्वारा तीन स्तूप बनवाये गये थे, पाँच देवमन्दिर थे और बीस संघाराम थे, जिनमें 2000 बौद्ध रहते थे।[१८] जेम्स ऐलन[१९] का कथन है कि मथुरा के हिन्दू राजाओं के सिक्के ई.पू. द्वितीय शताब्दी के आरम्भ से प्रथम शताब्दी के मध्य भाग तक के हैं।[२०] एफ्. एस्. ग्राउस की पुस्तक 'मथुरा'[२१] भी दृष्टव्य है। मथुरा के इतिहास एवं प्राचीनता के विषय में शिलालेख भी प्रकाश डालते हैं।[२२] खारवेल के प्रसिद्ध अभिलेख में कलिंगराज (खारवेल) की उस विजय का वर्णन हैं, जिसमें मधुरा की ओर यवनराज दिमित का भाग जाना उल्लिखित है। कनिष्क, हुविष्क एवं अन्य कुषाण राजाओं के शिलालेख भी पाये जाते हैं, यथा-महाराज राजाधिराज कनिक्ख[२३] का नाग-प्रतिमा का शिलालेख; सं. 14 का स्तम्भतल लेख;[२४] हुविष्क (सं. 33) के राज्यकाल का बोधिसत्व की प्रतिमा के आधार वाला शिलालेख[२५] वासु[२६] का शिलालेख; शोडास [२७] के काल का शिलालेख एवं मथुरा तथा उसके आस-पास के सात ब्राह्मी लेख।[२८]


ब्रज की गौ (गायें)
Cows of Braj

एक अन्य मनोरंजक शिलालेख भी है, जिसमें नन्दिबल एवं मथुरा के अभिनेता (शैलालक) के पुत्रों द्वारा नागेन्द्र दधिकर्ण के मन्दिर में प्रदत्त एक प्रस्तर-खण्ड का उल्लेख है।[२९] विष्णु पुराण[३०] से प्रकट होता है कि इसके प्रणयन के पूर्व मथुरा में हरि की एक प्रतिमा प्रतिष्ठापित हुई थी। वायु पुराण ने भविष्यवाणी के रूप में कहा है कि मथुरा, प्रयाग, साकेत एवं मगध में गुप्तों के पूर्व सात नाग राजा राज्य करेंगे। [३१] अलबरूनी के भारत[३२] में आया है कि माहुरा में ब्राह्मणों की भीड़ है।

उपर्युक्त ऐतिहासिक विवेचन से प्रकट होता है कि ईसा के 5 या 6 शताब्दियों पूर्व मथुरा एक समृद्धिशाली पुरी थी, जहाँ महाकाव्य-कालीन हिन्दू धर्म प्रचलित था, जहाँ आगे चलकर बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का प्राधान्य हुआ, जहाँ पुन: नागों एवं गुप्तों में हिन्दू धर्म जागरित हुआ, सातवीं शताब्दी में (जब ह्वेनसाँग यहाँ आया था) जहाँ बौद्ध धर्म एवं हिन्दू धर्म एक-समान पूजित थे और जहाँ पुन: 11वीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद प्रधानता को प्राप्त हो गया।

अग्नि पुराण[३३] में एक विचित्र बात यह लिखी है कि राम की आज्ञा से भरत ने मथुरा पुरी में शैलूष के तीन कोटि पुत्रों को मार डाला। [३४] लगभग दो सहस्त्राब्दियों से अधिक काल तक मथुरा कृष्ण-पूजा एवं भागवत धर्म का केन्द्र रही है। वराह पुराण में मथुरा की महत्ता एवं इसके उपतीर्थों के विषय में लगभग एक सहस्त्र श्लोक पाये जाते हैं[३५], भागवत[३६] एवं विष्णु पुराण[३७] में कृष्ण, राधा, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन एवं कृष्णलीला के विषय में बहुत-कुछ लिखा गया है।

पद्म पुराण[३८] का कथन है कि यमुना जब मथुरा से मिल जाती है तो मोक्ष देती है; यमुना मथुरा में पुण्यफल उत्पन्न करती है और जब यह मथुरा से मिल जाती है तो विष्णु की भक्ति देती है। वराह पुराण[३९] में आया है- विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। पद्म पुराण में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'[४०] हरिवंश पुराण[४१] ने मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है, एक श्लोक यों है- 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'[४२]

मथुरा का परिचय

मोर, मथुरा
Peacock, Mathura

मथुरा, भगवान कृष्ण की जन्मस्थली और भारत की परम प्राचीन तथा जगद्-विख्यात नगरी है। शूरसेन देश की यहाँ राजधानी थी। पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा आदि। भारतवर्ष का वह भाग जो हिमालय और विंध्याचल के बीच में पड़ता है, प्राचीनकाल में आर्यावर्त कहलाता था। यहाँ पर पनपी हुई भारतीय संस्कृति को जिन धाराओं ने सींचा वे गंगा और यमुना की धाराएं थीं। इन्हीं दोनों नदियों के किनारे भारतीय संस्कृति के कई केन्द्र बने और विकसित हुए। वाराणसी, प्रयाग, कौशाम्बी, हस्तिनापुर,कन्नौज आदि कितने ही ऐसे स्थान हैं, परन्तु यह तालिका तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक इसमें मथुरा का समावेश न किया जाय। यह आगरा और दिल्ली से क्रमश: 58 कि.मी उत्तर-पश्चिम एवं 145 कि. मी दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर स्थित है।

वाल्मीकि रामायण में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है-[४३] इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है। लवणासुर, जिसको शत्रुघ्न ने युद्ध में हराकर मारा था इसी मधुदानव का पुत्र था।[४४] इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है। रामायण में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है।[४५] इस नगरी को लवणासुर ने भी सजाया संवारा था। [४६] (दानव, दैत्य, राक्षस आदि जैसे संबोधन विभिन्न काल में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, कभी जाति या क़बीले के लिए, कभी आर्य अनार्य संदर्भ में तो कभी दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों के लिए)। प्राचीनकाल से अब तक इस नगर का अस्तित्व अखण्डित रूप से चला आ रहा है।

शूरसेन जनपद

शूरसेन जनपद का नक्शा
Map Of Shursen Janapada

शूरसेन जनपद के नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। शत्रुघ्न के पुत्र का नाम शूरसेन था। जब सीताहरण के बाद सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल , भरत (इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के आसपास के प्रान्त), कुरु (कुरुदेश) (दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि), मद्र, कम्बोज, यवन, शकों के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके दरद देश में और हिमालय पर्वत पर ढूँढ़ो। [४७] इससे स्पष्ट है कि शत्रुघ्न के पुत्र से पहले ही 'शूरसेन' जनपद नाम अस्तित्व में था। हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन के सौ पुत्रों में से एक का नाम शूरसेन था और उसके नाम पर यह शूरसेन राज्य का नामकरण होने की संम्भावना भी है, किन्तु हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन का मथुरा से कोई सीधा संबंध होना स्पष्ट नहीं है। महाभारत के समय में मथुरा शूरसेन देश की प्रख्यात नगरी थी। लवणासुर के वधोपरांत शत्रुघ्न ने इस नगरी को पुन: बसाया था। उन्होंने मधुवन के जंगलों को कटवा कर उसके स्थान पर नई नगरी बसाई थी। यहीं कृष्ण का जन्म(श्री कृष्ण जन्मस्थान), यहाँ के अधिपति कंस के कारागार में हुआ तथा उन्होंने बचपन ही में अत्याचारी कंस का वध करके देश को उसके अभिशाप से छुटकारा दिलवाया। कंस की मृत्यु के बाद श्री कृष्ण मथुरा ही में बस गए किंतु जरासंध के आक्रमणों से बचने के लिए उन्होंने मथुरा छोड़ कर द्वारका पुरी बसाई [४८] दशम सर्ग, 58 में मथुरा पर कालयवन के आक्रमण का वृतांत है। इसने तीन करोड़ म्लेच्छों को लेकर मथुरा को घेर लिया था। [४९]

शूरसेन जनपद की सीमा

प्राचीन शूरसेन जनपद का विस्तार दक्षिण में चंबल नदी से लेकर उत्तर में वर्तमान मथुरा नगर से 75 कि. मी. उत्तर में स्थित कुरु(कुरुदेश) राज्य की सीमा तक था। उसकी सीमा पश्चिम में मत्स्य और पूर्व में पांचाल जनपद से मिलती थी। मथुरा नगर को महाकाव्यों एवं पुराणों में 'मथुरा' एवं `मधुपुरी' नामों से संबोधित किया गया है।[५०] विद्वानों ने `मधुपुरी' की पहचान मथुरा के 6 मील पश्चिम में स्थित वर्तमान 'महोली' से की है।[५१] प्राचीन काल में यमुना नदी मथुरा के पास से गुजरती थी, आज भी इसकी स्थिति यही है। प्लिनी [५२] ने यमुना को जोमेनस कहा है, जो मेथोरा और क्लीसोबोरा [५३] के मध्य बहती थी।

प्राचीन साहित्य में मथुरा

हरिवंश पुराण [५४] में भी मथुरा के विलास-वैभव का मनोहर चित्र है।[५५]विष्णु पुराण में भी मथुरा का उल्लेख है,[५६] विष्णु-पुराण[५७] में शत्रुघ्न द्वारा पुरानी मथुरा के स्थान पर ही नई नगरी के बसाए जाने का उल्लेख है।[५८] इस समय तक मधुरा नाम का रूपांतर मथुरा प्रचलित हो गया था। कालिदास ने रघुवंश[५९] में इंदुमती के स्वंयवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण की राजधानी मथुरा में वर्णित की है।[६०] इसके साथ ही गोवर्धन का भी उल्लेख है। मल्लिनाथ ने 'मथुरा` की टीका करते हुए लिखा है`-'कालिंदीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्मास्यतेति वक्ष्यति`।

प्राचीन ग्रंथों-हिन्दू, बौद्ध, जैन एवं यूनानी साहित्य में इस जनपद का शूरसेन नाम अनेक स्थानों पर मिलता है। प्राचीन ग्रंथों में मथुरा का मेथोरा[६१], मदुरा[६२], मत-औ-लौ[६३], मो-तु-लो[६४] तथा सौरीपुर[६५] (सौर्यपुर) नामों का भी उल्लेख मिलता है। इन उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि शूरसेन जनपद की संज्ञा ईसवी सन् के आरम्भ तक जारी रही [६६] और शक-कुषाणों के प्रभुत्व के साथ ही इस जनपद की संज्ञा राजधानी के नाम पर `मथुरा' हो गई। इस परिवर्तन का मुख्य कारण था कि यह नगर शक-कुषाणकालीन समय में इतनी प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका था कि लोग जनपद के नाम को भी मथुरा नाम से पुकारने लगे और कालांतर में जनपद का शूरसेन नाम जनसाधारण के स्मृतिपटल से विस्मृत हो गया।

पुराणों में मथुरा

पुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है। अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा। ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पाप रहित हो जाते हैं तथा इसमें रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। [६७] वराह पुराण में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुध्द विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात देवता हैं।[६८] श्राद्ध कर्म का विशेष फल मथुरा में प्राप्त होता है। मथुरा में श्राद्ध करने वालों के पूर्वजों को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है।[६९] उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने मथुरा में तपस्या कर के नक्षत्रों में स्थान प्राप्त किया था।[७०] पुराणों में मथुरा की महिमा का वर्णन है। पृथ्वी के यह पूछने पर कि मथुरा जैसे तीर्थ की महिमा क्या है? महावराह ने कहा था- "मुझे इस वसुंधरा में पाताल अथवा अंतरिक्ष से भी मथुरा अधिक प्रिय है।[७१] वराह पुराण में भी मथुरा के संदर्भ में उल्लेख मिलता है, यहाँ की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मिलता है।[७२] यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है।[७३] इस मंडल में मथुरा, गोकुल, वृन्दावन, गोवर्धन आदि नगर, ग्राम एवं मंदिर, तड़ाग, कुण्ड, वन एवं अनगणित तीर्थों के होने का विवरण मिलता है। इनका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है। गंगा के समान ही यमुना के गौरवमय महत्त्व का भी विशद विवरण किया गया है। पुराणों में वर्णित राजाओं के शासन एवं उनके वंशों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

यमुना, गोकुल
Yamuna, Gokul

ब्रह्म पुराण में वृष्णियों एवं अंधकों के स्थान मथुरा पर, राक्षसों के आक्रमण का भी विवरण मिलता है।[७४] वृष्णियों एवं अंधकों ने डर कर मथुरा को छोड़ दिया था और उन्होंने अपनी राजधानी द्वारावती (द्वारिका) में प्रतिष्ठित की थी।[७५] मगध नरेश जरासंध ने 23 अक्षौहिणी सेना से इस नगरी को घेर लिया था।[७६] अपने महाप्रस्थान के समय युधिष्ठर ने मथुरा के सिंहासन पर वज्रनाभ को आसीन किया।[७७] सात नाग-नरेश गुप्तवंश के उत्कर्ष के पूर्व यहाँ पर राज्य कर रहे थे।[७८]

उग्रसेन और कंस मथुरा के शासक थे जिस पर अंधकों के उत्तराधिकारी राज्य करते थे।[७९] कालान्तर में शत्रुघ्न के पुत्रों को मथुरा से सात्वत भीम ने निकाला तथा उसने तथा उसके पुत्रों ने यहाँ पर राज्य किया।[८०] शूरसेन ने जो शत्रुघ्न का पुत्र था, उसने यमुना के पश्चिम में बसे हुए सात्वत यादवों पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक माधव[८१] लवण का वध करके मथुरा नगरी को अपनी राजधानी घोषित किया।[८२] मथुरा की स्थापना श्रावण महीने में होने के कारण ही संभवत: इस माह में उत्सव आदि करने की परंपरा है। पुरातन काल में ही यह नगरी इतनी वैभवशाली थी कि मथुरा नगरी को देवनिर्मिता कहा जाने लगा था। [८३] मथुरा के महाभारत काल के राजवंश को यदु अथवा यदुवंशीय कहा जाता है। यादव वंश में मुख्यत: दो वंश हैं। जिन्हें-वीतिहोत्र एवं सात्वत के नाम से जाना जाता है। सात्वत वर्ग भी कई शाखाओं में बँटा हुआ था। जिनमें वृष्णि, अंधक, देवावृद्ध तथा महाभोज प्रमुख थे।[८४] यदु और यदु वंश का प्रमाण ॠग्वेद में भी मिलता है। इस वंश का संबंध तुर्वश, द्रुह, अनु एवं पुरु से था।[८५] से ज्ञात होता है कि यदु तुर्वश किसी दूरस्थ प्रदेश से यहाँ आए थे। वैदिक साहित्य में सात्वतों का भी नाम आता है।[८६] शतपथ ब्राह्मण में आता है कि एक बार भरतवंशी शासकों ने सात्वतों से उनके यज्ञ का घोड़ा छीन लिया था। भरतवंशी शासकों द्वारा सरस्वती, यमुना और गंगा के तट पर यज्ञ किए जाने के वर्णन से राज्य की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता है।[८७] सात्वतों का राज्य भी समीपवर्ती क्षेत्रों में ही रहा होगा। इस प्रकार महाभारत एवं पुराणों में वर्णित सात्वतों का मथुरा से संबंध स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है।

मथुरा मण्डल

मथुरा का मण्डल 20 योजनों तक विस्तृत था और इसमें मथुरा पुरी बीच में स्थित थी।[८८] वराह पुराण एवं नारदीय पुराण(उत्तरार्ध, अध्याय 79-80) ने मथुरा एवं इसके आसपास के तीर्थों का उल्लेख किया है। वराह पुराण[८९] एवं नारदीय पुराण[९०] ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है, यथा- मधुवन, तालवन, कुमुदवन, काम्यवन, बहुलावन, भद्रवन, खदिरवन, महावन, लौहजंघवन, बिल्व, भांडीरवन एवं वृन्दावन। 24 उपवन भी[९१] थे जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है।

चन्द्रमा जी मन्दिर, काम्यवन
Chandrama Ji Temple, Kamyavan

वृन्दावन यमुना के किनारे मथुरा के उत्तर-पश्चिम में था और विस्तार में पाँच योजन था (विष्णु पुराण 5।6।28-40, नारदीय पुराण, उत्तरार्ध 80।6,8 एवं 77)।[९२] यही कृष्ण की लीला-भूमि थी। पद्म पुराण (4।69।9) ने इसे पृथ्वी पर वैकुण्ठ माना है। मत्स्य. (13।38) ने राधा को वृन्दावन में देवी दाक्षायणी माना है। कालिदास के काल में यह प्रसिद्ध था। रघुवंश (6) में नीप कुल के एवं शूरसेन के राजा सुषेण का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वृन्दावन कुबेर की वाटिका चित्ररथ से किसी प्रकार सुन्दरता में कम नहीं है। इसके उपरान्त गोवर्धन की महत्ता है, जिसे कृष्ण ने अपनी कनिष्ठा अंगुली पर इन्द्र द्वारा भेजी गयी वर्षा से गोप-गोपियों एवं उनके पशुओं को बचाने के लिए उठाया था।[९३]

वराहपुराण (164।1) में आया है कि गोवर्धन मथुरा से पश्चिम लगभग दो योजन हैं। यह कुछ सीमा तक ठीक है, क्योंकि आजकल वृन्दावन से यह 18 मील है। कूर्म पुराण (1।14।18) का कथन है कि प्राचीन राजा पृथु ने यहाँ तप किया था। हरिवंश एवं पुराणों की चर्चाएँ कभी-कभी ऊटपटाँग एवं एक-दूसरे के विरोध में पड़ जाती हैं। उदाहरणार्थ, हरिवंश (विष्णुपर्व 13।3) में तालवन गोवर्धन से उत्तर यमुना पर कहा गया है, किन्तु वास्तव में यह गोवर्धन से दक्षिण-पूर्व में है। कालिदास (रघुवंश 6।51) ने गोवर्धन की गुफ़ाओं (या गुहाओं कन्दराओं) का उल्लेख किया है। गोकुल ब्रज या महावन है जहाँ कृष्ण बचपन में नन्द-गोप द्वारा पालित-पोषित हुए थे। कंस के भय से नन्द-गोप गोकुल से वृन्दावन चले आये थे। चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन आये थे।[९४] 16वीं शताब्दी में वृन्दावन के गोस्वामियों, विशेषत: सनातन, रूप एवं जीव के ग्रन्थों के कारण वृन्दावन चैतन्य-भक्ति-सम्प्रदाय का केन्द्र था।[९५] चैतन्य के समकालीन वल्लभाचार्य एक दूसरे से वृन्दावन में मिले थे।[९६] मथुरा के प्राचीन मन्दिरों को औरंगजेब ने बनारस के मन्दिरों की भाँति नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। [९७]

सभापर्व (319।23-24) में ऐसा आया है कि जरासंघ ने गिरिव्रज (मगध की प्राचीन राजधानी, राजगिर) से अपनी गदा फेंकी और वह 99 योजन की दूरी पर कृष्ण के समक्ष मथुरा में गिरी, जहाँ वह गिरी वह स्थान 'गदावसान' के नाम से विश्रुत हुआ। वह नाम कहीं और नहीं मिलता।

ग्राउस ने मथुरा नामक पुस्तक में[९८] वृन्दावन के मन्दिरों एवं[९९] गोवर्धन, बरसाना, राधा के जन्म-स्थान एवं नन्दगाँव का उल्लेख किया है। मथुरा एवं उसके आसपास के तीर्थ-स्थलों का डब्लू. एस. कैने कृत 'चित्रमय भारत'[१००] में भी वर्णन है।

संस्कृति

यहाँ के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज से वातावरण गुन्जायमान रहता है। बाल्यकाल से ही भगवान श्रीकृष्ण की सुन्दर मोर के प्रति विशेष कृपा तथा उसके पंखों को शीष मुकुट के रूप में धारण करने से स्कन्द वाहन स्वरूप मोर को भक्ति साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। सरकार ने मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर इसे संरक्षण दिया है।

Blockquote-open.gifवराह पुराण[१०१] एवं नारदीय पुराण[१०२] ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है, यथा- मधुवन, तालवन, कुमुदवन, काम्यवन, बहुलावन, भद्रवन, खदिरवन, महावन, लौहजंघवन, बिल्व, भांडीरवन एवं वृन्दावन। 24 उपवन भी[१०३] थे जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है। Blockquote-close.gif

लट्ठामार होली, बरसाना
Lathmar Holi, Barsana

ब्रज की महत्ता प्रेरणात्मक, भावनात्मक व रचनात्मक है तथा साहित्य और कलाओं के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थली है। संगीत, नृत्य एवं अभिनय ब्रज संस्कृति के प्राण बने हैं। ब्रजभूमि अनेकानेक मठों, मूर्तियों, मन्दिरों, महंतो, महात्माओं और महामनीषियों की महिमा से वन्दनीय है। यहाँ सभी सम्प्रदायों की आराधना स्थली है। ब्रज की रज का महात्म्य भक्तों के लिए सर्वोपरि है। इसीलिए ब्रज चौरासी कोस में 21 किलोमीटर की गोवर्धन–राधाकुण्ड, 27 किलोमीटर की गरूणगोविन्द–वृन्दावन, 5–5कोस की मथुरा–वृन्दावन, 15–15 किलोमीटर की मथुरा, वृन्दावन, 6–6 किलोमीटर नन्दगांव, बरसाना, बहुलावन, भांडीरवन, 9 किलोमीटर की गोकुल, 7.5 किलोमीटर की बल्देव, 4.5–4.5 किलोमीटर की मधुवन, लोहवन, 2 किलोमीटर की तालवन, 1.5 किलोमीटर की कुमुदवन की नंगे पांव तथा दण्डोती परिक्रमा लगाकर श्रृद्धालु धन्य होते हैं। प्रत्येक त्योहार, उत्सव, ऋतु माह एवं दिन पर परिक्रमा देने का ब्रज में विशेष प्रचलन है। देश के कोने–कोने से आकर श्रृद्धालु ब्रज परिक्रमाओं को धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान मानकर अति श्रद्धा भक्ति के साथ करते हैं। इनसे नैसर्गिक चेतना, धार्मिक परिकल्पना, संस्कृति के अनुशीलन उन्नयन, मौलिक व मंगलमयी प्रेरणा प्राप्त होती है। आषाढ़ तथा अधिक मास में गोवर्धन पर्वत परिक्रमा हेतु लाखों श्रद्धालु आते हैं। ऐसी अपार भीड़ में भी राष्ट्रीय एकता और सद्भावना के दर्शन होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण, बलदाऊ की लीला स्थली का दर्शन तो श्रद्धालुओं के लिए प्रमुख है ही यहाँ अक्रूर जी, उद्धव जी, नारद जी, ध्रुव जी और वज्रनाथ जी की यात्रायें भी उल्लेखनीय हैं।

ब्रज की जीवन शैली

परम्परागत रूप से ब्रजवासी सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं। नित्य स्नान, भजन, मन्दिर गमन, दर्शन–झांकी करना, दीन–दुखियों की सहायता करना, अतिथि सत्कार, लोकोपकार के कार्य, पशु–पक्षियों के प्रति प्रेम, नारियों का सम्मान व सुरक्षा, बच्चों के प्रति स्नेह , उन्हें अच्छी शिक्षा देना तथा लौकिक व्यवहार कुशलता उनकी जीवन शैली के अंग बन चुके हैं। यहाँ कन्या को देवी के समान पूज्य माना जाता है। ब्रज वनितायें पति के साथ दिन–रात कार्य करते हुए कुल की मर्यादा रखकर पति के साथ रहने में अपना जीवन सार्थक मानती है। संयुक्त परिवार प्रणाली साथ रहने, कार्य करने ,एक–दूसरे का ध्यान रखने, छोटे–बड़े के प्रति यथोचित सम्मान , यहाँ की समाजिक व्यवस्था में परिलक्षित होता है। सत्य और संयम ब्रज लोक जीवन के प्रमुख अंग हैं। यहाँ कार्य के सिद्धान्त की महत्ता है और जीवों में परमात्मा का अंश मानना ही दिव्य दृष्टि है।

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महिलाओं की मांग में सिंदूर, माथे पर बिन्दी, नाक में लौंग या बाली, कानों में कुण्डल या झुमकी–झाली, गले में मंगल सूत्र, हाथों में चूड़ी, पैरों में बिछुआ–चुटकी, महावर और पायजेब या तोड़िया उनकी सुहाग की निशानी मानी जाती हैं। विवाहित महिलायें अपने पति परिवार और गृह की मंगल कामना हेतु करवा चौथ का व्रत करती हैं, पुत्रवती नारियां संतान के मंगलमय जीवन हेतु अहोई अष्टमी का व्रत रखती हैं। स्वर्गस्तक सतिया चिन्ह यहाँ सभी मांगलिक अवसरों पर बनाया जाता है और शुभ अवसरों पर नारियल का प्रयोग किया जाता है।

देश के कोने–कोने से लोग यहाँ पर्वों पर एकत्र होते हैं। जहां विविधता में एकता के साक्षात दर्शन होते हैं। ब्रज में प्राय: सभी मन्दिरों में रथयात्रा का उत्सव होता है। चैत्र मास में वृन्दावन में रंगनाथ जी की सवारी विभिन्न वाहनों पर निकलती है। जिसमें देश के कोने–कोने से आकर भक्त सम्मिलित होते हैं। ज्येष्ठ मास में गंगा दशहरा के दिन प्रात: काल से ही विभिन्न अंचलों से श्रद्धालु आकर यमुना में स्नान करते हैं। इस अवसर पर भी विभिन्न प्रकार की वेशभूषा और शिल्प के साथ राष्ट्रीय एकता के दर्शन होते हैं , इस दिन छोटे–बड़े सभी कलात्मक ढंग की रंगीन पतंग उड़ाते हैं।

आषाढ़ मास में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा हेतु प्राय: सभी क्षेत्रों से यात्री गोवर्धन आते हैं, जिसमें आभूषणों, परिधानों आदि से क्षेत्र की शिल्प कला उद्भाषित होती है। श्रावण मास में हिन्डोलों के उत्सव में विभिन्न प्रकार से कलात्मक ढंग से सज्जा की जाती है। भाद्रपद में मन्दिरों में विशेष कलात्मक झांकियां तथा सजावट होती है। आश्विन माह में सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र में कन्याएं घर की दीवारों पर गोबर से विभिन्न प्रकार की कृतियां बनाती हैं, जिनमें कौड़ियों तथा रंगीन चमकदार काग़ज़ों के आभूषणों से अपनी सांझी को कलात्मक ढंग से सजाकर आरती करती हैं। इसी माह से मन्दिरों में काग़ज़ के सांचों से सूखे रंगों की वेदी का निर्माण कर उस पर अल्पना बनाते हैं। इसको भी 'सांझी' कहते हैं। कार्तिक मास तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से परिपूर्ण रहता है। अक्षय तृतीया तथा देवोत्थान एकादशी को मथुरा तथा वृन्दावन की परिक्रमा लगाई जाती है। बसंत पंचमी को सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र बसन्ती होता है। फाल्गुन मास में तो जिधर देखो उधर नगाड़ों , झांझ पर चौपाई तथा होली के रसिया की ध्वनियां सुनाई देती हैं। नन्दगांव तथा बरसाना की लठामार होली, दाऊजी का हुरंगा जगत प्रसिद्ध है।

ब्रज का प्राचीन संगीत

तानसेन
Tansen

ब्रज के प्राचीन संगीतज्ञों की प्रामाणिक जानकारी 16वीं शताब्दी के भक्तिकाल से मिलती है। इस काल में अनेकों संगीतज्ञ वैष्णव संत हुए। संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी, इनके गुरु आशुधीर जी तथा उनके शिष्य तानसेन आदि का नाम सर्वविदित है। बैजूबावरा के गुरु भी श्री हरिदास जी कहे जाते हैं, किन्तु बैजू बावरा ने अष्टछाप के कवि संगीतज्ञ गोविन्द स्वामी जी से ही संगीत का अभ्यास किया था। निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीभट्ट जी इसी काल में भक्त, कवि और संगीतज्ञ हुए। अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कवि सूरदास, नन्ददास, परमानन्ददास जी आदि भी इसी काल में प्रसिद्ध कीर्तनकार, कवि और गायक हुए, जिनके कीर्तन बल्लभकुल के मन्दिरों में गाये जाते हैं। स्वामी हरिदास जी ने ही वस्तुत: ब्रज–संगीत के ध्रुपद–धमार की गायकी और रास–नृत्य की परम्परा चलाई।

संगीत

मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बांसुरी ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है। भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें मुरलीधर और वंशीधर आदि नामों से पुकारा जाता है। वर्तमान में भी ब्रज के लोकसंगीत में ढोल मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा,पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है। 16 वीं शती से मथुरा में रास के वर्तमान रूप का प्रारम्भ हुआ। यहाँ सबसे पहले बल्लभाचार्य जी ने स्वामी हरदेव के सहयोग से विश्रांत घाट पर रास किया। रास ब्रज की अनोखी देन है, जिसमें संगीत के गीत गद्य तथा नृत्य का समिश्रण है। ब्रज के साहित्य के सांस्कृतिक एवं कलात्मक जीवन को रास बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है। अष्टछाप के कवियों के समय ब्रज में संगीत की मधुरधारा प्रवाहित हुई। सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास आदि स्वयं गायक थे। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में विविध प्रकार के गीतों का अपार भण्डार भर दिया।

स्वामी हरिदास संगीत शास्त्र के प्रकाण्ड आचार्य एवं गायक थे। तानसेन जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी उनके शिष्य थे। सम्राट अकबर भी स्वामी जी के मधुर संगीत- गीतों को सुनने का लोभ संवरण न कर सका और इसके लिए भेष बदलकर उन्हें सुनने वृन्दावन आया करता था। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन लम्बे समय तक संगीत के केन्द्र बने रहे और यहाँ दूर से संगीत कला सीखने आते रहे।

लोक गीत

ब्रज में अनेकानेक गायन शैलियां प्रचलित हैं और रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद, रसिया आदि गायकी के साथ रासलीला का आयोजन होता है। श्रावण मास में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गायी जाने वाली मल्हार गायकी का प्रादुर्भाव ब्रज से ही है। लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चौबोला, बहल–तबील, भगत आदि संगीत भी समय –समय पर सुनने को मिलता है। इसके अतिरिक्त ऋतु गीत, घरेलू गीत, सांस्कृतिक गीत समय–समय पर विभिन्न वर्गों में गाये जाते हैं।

कला

यहाँ स्थापत्य तथा मूर्ति कला के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण युग कुषाण काल के प्रारम्भ से गुप्त काल के अन्त तक रहा। यद्यपि इसके बाद भी ये कलायें 12वीं शती के अन्त तक जारी रहीं। इसके बाद लगभग 350 वर्षों तक मथुरा कला का प्रवाह अवरूद्ध रहा, पर 16वीं शती से कला का पुनरूत्थान साहित्य, संगीत तथा चित्रकला के रूप में दिखाई पड़ने लगता है।

होली

श्रीकृष्ण राधा और गोपियों–ग्वालों के बीच की होली के रूप में गुलाल, रंग केसर की पिचकारी से ख़ूब खेलते हैं। होली का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल 9 बरसाना से होता है। वहां की लठामार होली जग प्रसिद्ध है। दसवीं को ऐसी ही होली नन्दगांव में होती है। इसी के साथ पूरे ब्रज में होली की धूम मचती है। धूलेंड़ी को प्राय: होली पूर्ण हो जाती है, इसके बाद हुरंगे चलते हैं, जिनमें महिलायें रंगों के साथ लाठियों, कोड़ों आदि से पुरुषों को घेरती हैं। बरसाना और नंदगाँव की लठमार होली तो जगप्रसिद्ध है। "नंदगाँव के कुँवर कन्हैया, बरसाने की गोरी रे रसिया" और ‘बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी’ गीतों के साथ ही ब्रज की होली की मस्ती शुरू होती है। वैसे तो होली पूरे भारत में मनाई जाती है लेकिन ब्रज की होली ख़ास मस्ती भरी होती है. वजह ये कि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। उत्तर भारत के बृज क्षेत्र में बसंत पंचमी से ही होली का चालीस दिवसीय उत्सव आरंभ हो जाता है। नंदगाँव एवं बरसाने से ही होली की विशेष उमंग जागृत होती है। जब नंदगाँव के गोप गोपियों पर रंग डालते, तो नंदगांव की गोपियां उन्हें ऐसा करनेसे रोकती थीं और न माननेपर लाठी मारना शुरू करती थीं। होली की टोलियों में नंदगाँव के पुरूष होते हैं क्योंकि कृष्ण यहीं के थे और बरसाने की महिलाएं क्योंकि राधा बरसाने की थीं। दिलचस्प बात ये होती है कि ये होली बाकी भारत में खेली जाने वाली होली से पहले खेली जाती है। दिन शुरू होते ही नंदगाँव के हुरियारों की टोलियाँ बरसाने पहुँचने लगती हैं. साथ ही पहुँचने लगती हैं कीर्तन मंडलियाँ। इस दौरान भाँग-ठंढई का ख़ूब इंतज़ाम होता है। ब्रजवासी लोगों की चिरौंटा जैसी आखों को देखकर भाँग ठंढई की व्यवस्था का अंदाज़ लगा लेते हैं। बरसाने में टेसू के फूलों के भगोने तैयार रहते हैं। दोपहर तक घमासान लठमार होली का समाँ बंध चुका होता है। नंदगाँव के लोगों के हाथ में पिचकारियाँ होती हैं और बरसाने की महिलाओं के हाथ में लाठियाँ, और शुरू हो जाती है होली।

इन्हें भी देखें: मथुरा होली चित्र वीथिका, बरसाना होली चित्र वीथिका, एवं बलदेव होली चित्र वीथिका

मथुरा ज़िले के प्रमुख मन्दिर

भगवान श्रीकृष्ण के जन्म स्थान पर महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से एक विशाल मन्दिर बना है। यह देशी–विदशी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। मन्दिर में भगवान श्रीकृष्ण का सुन्दर विग्रह है। समीप ही सुविधा युक्त अतिथि ग्रह तथा धर्मार्थ आयुर्वेदिक चिकित्सालय है। अतिथि ग्रह के निकट विशाल भागवत भवन है। यहाँ शोध पीठ एवं बाल मन्दिर भी है। इसके पीछे केशवदेव जी का प्राचीन मन्दिर भी स्थित है।

नाम संक्षिप्त विवरण चित्र मानचित्र लिंक
कृष्ण जन्मभूमि भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि का ना केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्व है बल्कि वैश्विक स्तर पर मथुरा जनपद भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। आज वर्तमान में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षण मन्दिर के रूप में स्थापित है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन आते हैं .... और पढ़ें कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा गूगल मानचित्र
द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा नगर के राजाधिराज बाज़ार में स्थित यह मन्दिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला एवं सौन्दर्य के लिए अनुपम है। ग्वालियर राज के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुल दास पारीख ने इसका निर्माण 1814–15 में प्रारम्भ कराया, जिनकी मृत्यु पश्चात इनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी सेठ लक्ष्मीचन्द्र ने मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण कराया .... और पढ़ें द्वारिकाधीश मन्दिर गूगल मानचित्र
राजकीय संग्रहालय मथुरा का यह विशाल संग्रहालय डेम्पीयर नगर, मथुरा में स्थित है। भारतीय कला को मथुरा की यह विशेष देन है। भारतीय कला के इतिहास में यहीं पर सर्वप्रथम हमें शासकों की लेखों से अंकित मानवीय आकारों में बनी प्रतिमाएं दिखलाई पड़ती हैं .... और पढ़ें राजकीय संग्रहालय गूगल मानचित्र
बांके बिहारी मन्दिर बांके बिहारी मंदिर मथुरा ज़िले के वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया .... और पढ़ें बांके बिहारी मन्दिर गूगल मानचित्र
रंग नाथ जी मन्दिर श्री सम्प्रदाय के संस्थापक रामानुजाचार्य के विष्णु-स्वरूप भगवान रंगनाथ या रंगजी के नाम से रंग जी का मन्दिर सेठ लखमीचन्द के भाई सेठ गोविन्ददास और राधाकृष्ण दास द्वारा निर्माण कराया गया था। उनके महान गुरु संस्कृत के आचार्य स्वामी रंगाचार्य द्वारा दिये गये मद्रास के रंग नाथ मन्दिर की शैली के मानचित्र के आधार पर यह बना था। इसकी बाहरी दीवार की लम्बाई 773 फीट और चौड़ाई 440 फीट है .... और पढ़ें रंग नाथ जी मन्दिर गूगल मानचित्र
गोविन्द देव मन्दिर गोविन्द देव जी का मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। मंदिर का निर्माण ई. 1590 में तथा इसे बनाने में 5 से 10 वर्ष लगे। मंदिर की भव्यता का अनुमान इस उद्धरण से लगाया जा सकता है औरंगज़ेब ने शाम को टहलते हुए, दक्षिण-पूर्व में दूर से दिखने वाली रौशनी के बारे जब पूछा तो पता चला कि यह चमक वृन्दावन के वैभवशाली मंदिरों की है .... और पढ़ें गोविन्द देव मन्दिर गूगल मानचित्र
इस्कॉन मन्दिर वृन्दावन के आधुनिक मन्दिरों में यह एक भव्य मन्दिर है। इसे अंग्रेज़ों का मन्दिर भी कहते हैं। केसरिया वस्त्रों में हरे रामा–हरे कृष्णा की धुन में तमाम विदेशी महिला–पुरुष यहाँ देखे जाते हैं। मन्दिर में राधा कृष्ण की भव्य प्रतिमायें हैं और अत्याधुनिक सभी सुविधायें हैं .... और पढ़ें इस्कॉन मन्दिर वृन्दावन गूगल मानचित्र
मदन मोहन मन्दिर श्रीकृष्ण भगवान के अनेक नामों में से एक प्रिय नाम मदनमोहन भी है। इसी नाम से एक मंदिर मथुरा ज़िले के वृंदावन धाम में विद्यमान है। विशालकायिक नाग के फन पर भगवान चरणाघात कर रहे हैं। पुरातनता में यह मंदिर गोविन्द देव जी के मंदिर के बाद आता है .... और पढ़ें मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन
दानघाटी मंदिर मथुरा–डीग मार्ग पर गोवर्धन में यह मन्दिर स्थित है। गिर्राजजी की परिक्रमा हेतु आने वाले लाखों श्रृद्धालु इस मन्दिर में पूजन करके अपनी परिक्रमा प्रारम्भ कर पूर्ण लाभ कमाते हैं। ब्रज में इस मन्दिर की बहुत महत्ता है। यहाँ अभी भी इस पार से उसपार या उसपार से इस पार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय कृष्ण ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक–झोंक के साथ दानलीला की है .... और पढ़ें दानघाटी गूगल मानचित्र
मानसी गंगा गोवर्धन गाँव के बीच में श्री मानसी गंगा है। परिक्रमा करने में दायीं और पड़ती है और पूंछरी से लौटने पर भी दायीं और इसके दर्शन होते हैं। मानसी गंगा के पूर्व दिशा में- श्री मुखारविन्द, श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर, श्री किशोरीश्याम मन्दिर, श्री गिरिराज मन्दिर, श्री मन्महाप्रभु जी की बैठक, श्री राधाकृष्ण मन्दिर स्थित हैं .... और पढ़ें मानसी गंगा
कुसुम सरोवर मथुरा में गोवर्धन से लगभग 2 किलोमीटर दूर राधाकुण्ड के निकट स्थापत्य कला के नमूने का एक समूह जवाहर सिंह द्वारा अपने पिता सूरजमल ( ई.1707-1763) की स्मृति में बनवाया गया। कुसुम सरोवर गोवर्धन के परिक्रमा मार्ग में स्थित एक रमणीक स्थल है जो अब सरकार के संरक्षण में है .... और पढ़ें कुसुम सरोवर गूगल मानचित्र
जयगुरुदेव मन्दिर मथुरा में आगरा-दिल्ली राजमार्ग पर स्थित जय गुरुदेव आश्रम की लगभग डेढ़ सौ एकड़ भूमि पर संत बाबा जय गुरुदेव की एक अलग ही दुनिया बसी हुई है। उनके देश विदेश में 20 करोड़ से भी अधिक अनुयायी हैं। उनके अनुयायियों में अनपढ़ किसान से लेकर प्रबुद्ध वर्ग तक के लोग हैं .... और पढ़ें जयगुरुदेव मन्दिर
राधा रानी मंदिर इस मंदिर को बरसाने की लाड़ली जी का मंदिर भी कहा जाता है। राधा का यह प्राचीन मंदिर मध्यकालीन है जो लाल और पीले पत्थर का बना है। राधा-कृष्ण को समर्पित इस भव्य और सुन्दर मंदिर का निर्माण राजा वीर सिंह ने 1675 में करवाया था। बाद में स्थानीय लोगों द्वारा पत्थरों को इस मंदिर में लगवाया। .... और पढ़ें राधा रानी मंदिर गूगल मानचित्र
नन्द जी मंदिर नन्द जी का मंदिर, नन्दगाँव में स्थित है। नन्दगाँव ब्रजमंडल का प्रसिद्ध तीर्थ है। गोवर्धन से 16 मील पश्चिम उत्तर कोण में, कोसी से 8 मील दक्षिण में तथा वृन्दावन से 28 मील पश्चिम में नन्दगाँव स्थित है। नन्दगाँव की प्रदक्षिणा (परिक्रमा) चार मील की है। यहाँ पर कृष्ण लीलाओं से सम्बन्धित 56 कुण्ड हैं। जिनके दर्शन में 3–4 दिन लग जाते हैं .... और पढ़ें नन्द जी मंदिर गूगल मानचित्र

वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (1।167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने)
  2. मज्झिम.(2।84)
  3. (मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ)
  4. (पाणिनि, 4।2।82)
  5. पाणिनि(4।3।98)
  6. (3।1।138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्')
  7. पतंजलि महाभाष्य(जिल्द 1,पृ. 18, 19 एवं 192, 244, जिल्द 3, पृ. 299 आदि)
  8. महाभारत आदिपर्व(221।46)
  9. महाभारत(सभापर्व 14।41-45)
  10. महाभारत(सभापर्व 14।49-50 एवं 67)।
  11. वराह पुराण (152।8 एवं 11)
  12. पद्म पुराण(4।69।12)।
  13. हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व, 57।2-3)
  14. तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। पद्म पुराण (4।69।12); मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्। श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व, 57। 2-3)।
  15. वायु पुराण(88।185)
  16. (फाँस्बोल, जिल्द 4, पृ. 79-89, संख्या 454)
  17. रघुवंश(15।28)
  18. (बुद्धिस्ट रिकर्डस आव वेस्टर्न वर्ल्ड, वील, जिल्द 1,पृ. 179)
  19. (कैटलोग आव क्वाएंस आव ऐंश्येण्ट इण्डिया, 1936)
  20. (और देखिए कैम्ब्रिज हिस्ट्री आव इण्डिया, जिल्द 1,पृ. 538)
  21. मथुरा(सन् 1880 द्वितीय संस्करण)
  22. मथुराडा. बी. सी. लो कालेख 'मथुरा इन ऐश्येण्ट इण्डिया',जे. ए. एस. आव बंगाल (जिल्द 13, 1947, पृ. 21-30)।
  23. (पंवत् 8, एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 17, पृ. 10)
  24. सामान्य रूप से कनिष्क की तिथि 78 ई. मानी गयी है। देखिए जे. बी. ओ. आर. एस. (जिल्द 23,1937, पृ. 113-117, डा. ए. बनर्जी-शास्त्री)।
  25. (एपिग्रै. इण्डि., जिल्द 8, पृ. 181-182);
  26. (सं. 74, वही, जिल्द 9, पृ. 241)
  27. (वही, पृ. 246)
  28. (वही, जिल्द 24, पृ. 184-210)।
  29. (वही, जिल्द 1,पृ. 390)।
  30. विष्णु पुराण(6।8।31)
  31. नव नाकास्तु (नागास्तु?) भोक्ष्यन्ति पुरीं चम्पावती नृपा:। मथुरां च पुरीं रम्यां नागा भोक्ष्यन्ति सप्त वै।। अनुगंगं प्रयागं च साकेंत मगधांस्तथा। एताञ् जनपदान्सर्वान् भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजा:॥ वायु पुराण (99।382-83); ब्रह्म पुराण (3।74।194)। डा. जायसवाल कृत 'हिस्ट्री ऑफ इण्डिया (150-350 ई.),' पृ. 3-15, जहाँ नाग-वंश के विषय में चर्चा है।
  32. अलबरूनी, भारत(जिल्द 2, पृ0 147)
  33. अग्नि पुराण(11।8-9)
  34. अभूत्पूर्मथुरा काचिद्रामोक्तो भरतोवधीत्। कोटित्रयं च शैलूषपुत्राणां निशितै: शरै:॥ शैलूषं दृप्तगन्धर्व सिन्धुतीरनिवासिनम्। अग्नि पुराण (2।8-9)। विष्णुधर्मोत्तर. (1, अध्याय 201-202)में आया है कि शैलूष के पुत्र गन्धर्वो ने सिन्धु के दोनों तटों की भूमि को तहस-नहस किया और राम ने अपने भाई भरत को उन्हें नष्ट करने को भेजा- 'जहि शैलूषतनयान् गन्धर्वान्, पापनिश्चयान्' (1।202-10)। शैलूष का अर्थ अभिनेता भी होता है। क्या यह भरतनाट्यशास्त्र के रचयिता भरत के अनुयायियों एवं अन्य अभिनेताओं के झगड़े की ओर संकेत करता है? नाट्यशास्त्र (17।47) ने नाटक के लिए शूरसेन की भाषा को अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त माना है। काणेकृत 'हिस्ट्री आव संस्कृत पोइटिक्स' (पृ0 40, सन् 1951)।
  35. वराह पुराण(अध्याय 152-178)। बृहन्नारदीय. (अध्याय 79-80)
  36. भागवत. (10)
  37. विष्णु पुराण(5-6)
  38. पद्म पुराण(आदिखण्ड, 21।46-47)
  39. वराह पुराण (152।8 एवं 11)
  40. पद्म पुराण(4।69।12)।
  41. हरिवंश पुराण(विष्णुपर्व, 57।2-3)
  42. तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। पद्म पुराण (4।69।12); मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्। श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व, 57। 2-3)।
  43. `एवं भवतु काकुत्स्थ क्रियतां मम शासनम्, राज्ये त्वामभिषेक्ष्यामि मधोस्तु नगरे शुभे। नगरं यमुनाजुष्टं तथा जनपदाञ्शुभान् यो हि वंश समुत्पाद्य पार्थिवस्य निवेशने` उत्तर. 62,16-18।
  44. `तं पुत्रं दुर्विनीतं तु दृष्ट्वा कोधसमन्वित:, मधु: स शोकमापेदे न चैनं किंचिदब्रवीत्`-उत्तर. 61,18।
  45. `अर्ध चंद्रप्रतीकाशा यमुनातीरशोभिता, शोभिता गृह-मुख्यैश्च चत्वरापणवीथिकै:, चातुर्वर्ण्य समायुक्ता नानावाणिज्यशोभिता` उत्तर. 70,11।
  46. यच्चतेनपुरा शुभ्रं लवणेन कृतं महत्, तच्छोभयति शुत्रध्नो नानावर्णोपशोभिताम्। आरामैश्व विहारैश्च शोभमानं समन्तत: शोभितां शोभनीयैश्च तथान्यैर्दैवमानुषै:` उत्तर. 70-12-13। उत्तर0 70,5 (`इयं मधुपुरी रम्या मधुरा देव-निर्मिता) में इस नगरी को मथुरा नाम से अभिहित किया गया है।
  47. बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः। तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च। प्रस्थलान् भरतांश्र्चैव कुरुंश्र्च सह मद्रकैः॥ 11 काम्बोजयवनांश्र्चैव शकानां पत्तनानि च। अन्वीक्ष्य दरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ ॥ 12
  48. `वयं चैव महाराज, जरासंधभयात् तदा, मथुरां संपरित्यज्य यता द्वारावतीं पुरीम्` महा. सभा. 14,67। श्रीमद्भागवत 10,41,20-21-22-23 में कंस के समय की मथुरा का सुंदर वर्णन है।
  49. `रूरोध मथुरामेत्य तिस भिम्र्लेच्छकोटिभि:
  50. रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 62, पंक्ति 17
  51. कृष्णदत्त वाजपेयी, मथुरा, पृ 2
  52. प्लिनी, नेचुरल हिस्ट्री, भाग 6, पृ 19; तुलनीय ए, कनिंघम, दि ऐंश्‍येंटज्योग्राफी आफ इंडिया, (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963), पृ 315
  53. `कनिंघम ने क्लीसोबेरा की पहचान केशवुर या कटरा केशवदेव के मुहल्ले से की है। यूनानी लेखकों के समय में यमुना की मुख्य धारा या उसकी बड़ी शाखा वर्तमान कटरा या केशव देव के पूर्वी दीवार के समीप से बहती रही होगी ओर उसके दूसरी तरफ मथुरा नगर रहा होगा। देखें, ए, कनिंघम, दि ऐंश्‍येंटज्योग्राफी ऑफ इंडिया, इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963 ई , पृ 315।
  54. हरिवंश पुराण, 1,54
  55. `सा पुरी परमोदारा साट्टप्रकारतोरणा स्फीता राष्‍ट्रसमाकीर्णा समृद्धबलवाहना। उद्यानवन संपन्ना सुसीमासुप्रतिष्ठिता, प्रांशुप्राकारवसना परिखाकुल मेखला`।
  56. `संप्राप्तश्र्चापि सायाह्ने सोऽक्रूरो मथुरां पुरीम` 5,19,9
  57. विष्णु-पुराण, 4,5,101
  58. `शत्रुघ्नेनाप्यमितबलपराक्रमो मधुपुत्रो लवणो नाम राक्षसोभिहतो मथुरा च निवेशिता`
  59. रघुवंश, 6,48
  60. 'यस्यावरोधस्तनचंदनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले, कलिंदकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मिसंसक्तजलेव भाति`
  61. विष्णु पुराण, 1/12/43 मेक्रिण्डिल, ऐंश्‍येंटइंडिया एज डिस्क्राइब्ड बाई टालेमी (कलकत्ता, 1927), पृ 98
  62. `मदुरा य सूरसेणा' देखें-इंडियन एण्टिक्वेरी, संख्या 20, पृ 375
  63. जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स आफ फ़ाह्यान , द्वितीय संस्करण, 1972), पृ 42
  64. थामस वाट्र्स, आन युवॉन् च्वाग्स टे्रवेल्स इन इंडिया, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1961 ई) भाग 1, पृ 301
  65. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, भाग 45, पृ 112
  66. मनुस्मृति, भाग 2, श्लोक 18 और 20
  67. ये वसंति महाभागे मथुरायामितरे जना:। तेऽपि यांति परमां सिद्धिं मत्प्रसादन्न संशय: वाराह पुराण, पृ 852, श्लोक 20
  68. मथुरायां महापुर्या ये वसंति शुचिव्रता:। बलिभिक्षाप्रदातारो देवास्ते नरविग्रहा:।। तत्रैव, श्लोक 22
  69. मथुराममंडमम् प्राप्य श्राद्धं कृत्वा यथाविधि। तृप्ति प्रयांति पितरो यावस्थित्यग्रजन्मन:।। तत्रैव, श्लोक 19
  70. पद्मपुराण, पृ 600, श्लोक 53
  71. वराह पुराण, अध्याय 152
  72. गोवर्द्धनो गिरिवरो यमुना च महानदी। तयोर्मध्ये पुरोरम्या मथुरा लोकविश्रुता।। वाराहपुराण, अध्याय 165, श्लोक 23
  73. `शितिर्योजनानातं मथुरां मत्र मंडलम्।' तत्रैव, अध्याय 158, श्लोक1
  74. ब्रह्म पुराण, अध्याय 14 श्लोक 54
  75. हरिवंश पुराण, अध्याय 37
  76. हरिवंश पुराण, अध्याय 195, श्लोक 3
  77. स्कन्द पुराण, विष्णु खंड, भागवत माहात्म्य, अध्याय 1
  78. वायुपुराण, अध्याय 99; विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2, पृ 32
  79. एफ इ पार्जिटर, ऐंश्‍येंट इंडियन हिस्टारिकल टे्रडिशन पृ 171
  80. एफ इ पार्जिटर, ऐंश्‍येंट इंडियन हिस्टारिकल टे्रडिशन, पृ2.11
  81. माधव अर्थात मधु का वंशज जो कृष्ण को भी कहा जाता है, कृष्ण मधुसूदन भी हैं किन्तु वह मधुकैटव राक्षस से अर्थ है।
  82. विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, (उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1972 ई.) पृ 183
  83. इयम् मधुपुरी रम्या मधुरा देवनिर्मिता (देवताओं द्वारा बनाई गई) निवेशं प्राप्नयाच्छीध्रमेश मे स्तु वर: पर:।। वाल्मीकि रामायण, उत्तराकांड, सर्ग 70, पंक्ति 5-6
  84. एफ ई पार्जिटर, ऐंश्‍येंटइंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, तुलनीय, हेमचंद्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास , पृ 107
  85. (ऋग्वेद, 1/108/8)। ऋग्वेद (तत्रैव, 1/36; 18;5/45/1)
  86. शतानीक: सामंतासु मेध्यम् सत्राजिता हयम् ,आदत्त यज्ञंकाशीनम् भरत: सत्वतामिव।। -शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/21
  87. शतपथ ब्राह्मण, अध्याय 13/5/4/11; तुल हेमचंद्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पृ 108
  88. विंशतिर्योजनानां तु माथुरं परिमण्डलम्। तन्मध्ये मथुरा नाम पुरी सर्वोत्तमोत्तमा॥ नारदीय पुराण उत्तर, 79। 20-21
  89. वराह पुराण(अध्याय 153 एवं 161। 6-10)
  90. नारदीय पुराण(उत्तरार्ध, 79।10-18)
  91. (ग्राउसकृत मथुरा, पृ. 76)
  92. पद्म. (पाताल, 75।8-14) ने कृष्ण, गोपियों एवं कालिन्दी की गूढ़ व्याख्या उपस्थित की है। गोप-पत्नियाँ योगिनी हैं, कालिन्दी सुषुम्ना है, कृष्ण सर्वव्यापक हैं, आदि।
  93. विष्णुपुराण (5।11।15-24)
  94. (देखिए चैतन्यचरितामृत, सर्ग 19 एवं कवि कर्णपूर या परमानन्द दास कृत नाटक चैतन्यचन्द्रोदय, अंक 9)
  95. (देखिए प्रो. एस. के. दे कृत 'वैष्णव फेथ एण्ड मूवमेंट इन बेंगाल, 1942, पृ. 83-122)
  96. (देखिए मणिलाल सी. पारिख का वल्लभाचार्य पर ग्रन्थ,पृ. 161)
  97. देखिए इलिएट एवं डाउसन कृत 'हिस्ट्री आव इण्डिया ऐज टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरिएन', जिल्द 7, पृ0 184, जहाँ 'म-असिर-ए-आलमगीरी' की एक उक्ति इस विषय में इस प्रकार अनूदित हुई है,-"औरंगजेब ने मथुरा के 'देहरा केसु राय' नामक मन्दिर (जो, जैसा कि उस ग्रन्थ में आया है, 33 लाख रुपयों से निर्मित हुआ था) को नष्ट करने की आज्ञा दी, और शीघ्र ही वह असत्यता का शक्तिशाली गढ़ पृथिवी में मिला दिया गया और उसी स्थान पर एक बृहत् मसजिद की नींव डाल दी गयी।"
  98. (अध्याय 9)
  99. (अध्याय 11)
  100. चित्रमय भारत(पृ. 253)
  101. वराह पुराण(अध्याय 153 एवं 161। 6-10)
  102. नारदीय पुराण(उत्तरार्ध, 79।10-18)
  103. (ग्राउसकृत मथुरा, पृ. 76)


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