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|'''[[ इतिहास]]'''
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'''मध्य काल / Medieval Period'''<br />
[[हुएन-सांग]] की भारत यात्रा का वृत्तांत चीनी भाषा में लिखा हुआ मिलता है, जो सी-यु-की (Si-Yu-Ki) कहा जाता है । उससे पहिले दूसरे चीनी यात्री [[फाह्यान]] ने भी भारत की यात्रा की थी, जिसका यात्रा-वृत्तांत फो-क्यु-की (Fo-Kkue-Ki) कहलाता हैं । इन दोनों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका हैं । हुएनसांग की यात्रा का विवरण फाह्यान की अपेक्षा अधिक विस्तृत और पूर्ण है । उन दोनों यात्रियों ने जिन स्थानों की यात्रा की थी, उनकी पारस्परिक दूरी का भी उन्होंने उल्लेख किया हैं । उसके लिए फाह्यान ने यहाँ योजन का व्यवहार किया, वहाँ हुएनसांग ने योजन के साथ ही साथ ली का भी प्रयोग किया है
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==हिंदु शासकों की वंश-परंपरा और संघर्ष==
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मुसलमानों के आंरभिक आक्रमणों को रोकने में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा के हिंदू शाही राजाओं ने बहुत संघर्ष किया। उनके राज्य की सीमाएँ चिनाब नदी से [[हिंदूकुश पर्वत]] तक थीं। जब से मुसलमानों ने सिंध राज्य पर आक्रमण किया, तब से [[महमूद ग़ज़नवी]] के काल तक हिन्दू शाही राजा ही मुसलमान आक्रमणकारियों का सामना करते रहे। उन्होंने लगभग तीन सौ वर्ष तक मुसलमानों को भारत में प्रवेश नहीं करने दिया। [[राजस्थान]] के जैसलमेर राज्य के भाटी राजाओं की वंश-परंपरा का उल्लेख करते हुए कहा गया है  कि वे श्री [[कृष्ण]] की वंश-परंपरा में उन [[यादव|यादवों]] के वंशज थे, जो [[शूरसेन]] राज्य से इधर आ बसे थे। उसी प्रसंग में यह भी बतलाया गया है कि उनमें से बहुत से [[यदुवंशी]] भारत के पश्चिमोत्तर भाग में जाकर बस गये थे, और उन्होंने अपने राज्य कायम किये थे। श्रीकृष्ण की 12वीं पीढ़ी में गज नामक एक राजा हुआ था, जिसने [[ख़ैबर घाटी]] के पार एक क़िला बनवाया था, जो उसके नाम से [[ग़ज़नी]] कहलाता है। राजा गज की नवीं पीढ़ी में राजा मर्यादपति हुआ, जिसने गजनी से लेकर पंजाब तक शासन किया था। वहाँ रहने वाले चगताई, बलोच और पठान उन्हीं यदुवंशियों की संतान है। सम्भावना है कि हिन्दू राजा भी उन यदुवंशियों की परंपरा में ही होंगे। ग़ज़नी के मुसलमान शासक सुबुक्तग़ीन के समय में हिंदू शाही वंश के राजा जयपाल का शासन था। उसका सुबुक्तग़ीन से कई बार संघर्ष हुआ। सुबुक्तग़ीन का पुत्र महमूद जब ग़ज़नी का शासक हुआ, तब उसने एक विशाल सेना के साथ जयपाल पर आक्रमण किया और उसे पराजित किया। जिससे हिन्दू शाही राजाओं का राज्य लगभग समाप्त हो गया और तुर्क आक्रमणकारियों ने भारत में प्रवेश किया। डा. आशीर्वादीलाल लिखते हैं कि 'हिंदू शाही राज्य एक बाँध की भाँति तुर्की आक्रमणों की बाढ़ को रोके हुए था। उसके टूट जाने से समस्त उत्तरी भारत मुसलमानों आक्रमणों की बाढ़ में डूब गया।' महमूद ग़ज़नवी पहला मुसलमान आक्रमणकारी था, जिसने भारत के आंतरिक भागों में भी जा कर भीषण लूट-मार की।
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==महमूद ग़ज़नवी==
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यह यमीनी वंश का तुर्क सरदार गजनी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। उसका जन्म सं. 1028 वि. (ई॰ 971) में हुआ,  27 वर्ष की आयु में सं. 1055 (ई॰ 998) में वह शासनाध्यक्ष बना था। महमूद बचपन से भारतवर्ष की अपार समृद्धि और धन-दौलत के विषय में सुनता रहा था। उसके पिता ने एक बार हिंदू शाही राजा जयपाल के राज्य को लूट कर प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त की थी, महमूद भारत की दौलत को लूट कर मालामाल होने के स्वप्न देखा करता था। उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया और यहाँ की अपार सम्पत्ति को वह लूट कर ग़ज़नी ले गया था। उसके आक्रमण और लूटमार के काले कारनामों से तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों के पन्ने भरे हुए है। 
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महमूद ने पहला आक्रमण हिन्दू शाही राजा जयपाल के विरुद्ध सं. 1058 (29 नबंवर सन् 1001) में किया। उन दोनों में भीषण युद्ध हुआ, परन्तु महमूद की जोशीली और बड़ी सेना ने जयपाल को हरा दिया। इस अपमान से व्यथित होकर वह जीते जी चिता पर बैठ गया और उसने अपने जीवन का अंत कर दिया। जयपाल के पुत्र आनंदपाल और उसके वंशज त्रिलोचन पाल तथा भीमपाल ने कई बार महमूद से युद्ध किया। पर हर बार उन्हें पराजय मिली। सं. 1071 में हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो गया। हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो जाने पर महमूद को खुला मार्ग मिल गया और बाद के आक्रमणों में उसने मुल्तान, लाहौर, नगरकोट और थानेश्वर तक के विशाल भू-भाग में उसने ख़ूब मार-काट की तथा भारतीयों को जबर्दस्ती मुसलमान बनाया। उसका नवाँ (कुछ लेखकों के मतानुसार बारहवाँ) आक्रमण सं. 1074 में [[कन्नौज]] के विरुद्ध हुआ था। उसी समय उसने [[मथुरा]] पर भी आक्रमण किया और उसे बुरी तरह लूटा।
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==महमूद की लूट और महावन का युद्ध==
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ग्यारहवीं शती के आरम्भ में उत्तर -पश्चिम की ओर से मुसलमानों के धावे भारत की ओर होने लगे। गजनी का मूर्तिभंजक सुल्तान महमूद ने सत्रह बार भारत पर चढ़ाई की। उसका उद्देश्य लूटपाट करके गजनी लौटना होता था। '''अपने नवें आक्रमण का निशाना उसने [[मथुरा]] को बनाया। उसका वह आक्रमण 1017 ई॰ में हुआ।''' महमूद के मीरमुंशी 'अल-उत्वी' ने अपनी पुस्तक 'तारीखे यामिनी' में इस आक्रमण का वर्णन किया है, जिससे निम्नलिखित बातें ज्ञात होती है। मथुरा को लूटने से पहले महमूद गज़नबी को यहाँ एक भीषण युद्ध करना पड़ा। यह युद्ध मथुरा के समीप [[महावन]] में वहाँ के शासक [[कुलचंद]] के साथ हुआ। महमूद के मीरमुंशी अलउत्वी ने उसका वर्णन अपने ग्रंथ 'तारीख़े यमीन' में किया है। उसने लिखा है – "कुलचंद का दुर्ग महावन में था। उसको अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था। क्योंकि तब तक कोई भी शत्रु उससे पराजित हुए बिना नहीं रहा था। वह विस्तृत राज्य, अपार वैभव, असंख्य वीरों की सेना, विशाल हाथी और सुदृढ़ दुर्गों का स्वामी था, जिनकी ओर किसी को आँख उठा कर देखने का भी साहस नहीं होता था। जब उसे ज्ञात हुआ कि महमूद उस पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है, तब वह अपने सैनिक और हाथियों के साथ उनका मुक़ाबला करने को तैयार हो गया।
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अत्यंत वीरता पूर्वक युद्ध करने पर भी जब महमूद के आक्रमण को विफल नहीं कर पाया, तब उसके सैनिक किले से निकल कर भागने लगे, जिससे वे [[यमुना]] नदी को पार कर अपनी जान बचा सकें। इस प्रकार लगभग 50,000 (पचास हज़ार)सैनिक उस युद्ध में मारे गये या नदी में डूब गये, तब कुलचंद्र ने हताश होकर पहले अपनी रानी और फिर स्वयं को भी तलवार से समाप्त कर दिया। उस अभियान में महमूद को लूट के अन्य सामान के अतिरिक्त 185 सुंदर हाथी भी प्राप्त हुए थे।"
 
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[[कनिंघम]] का मत है कि वर्तमान काल का एक मील फाह्यान की 6.71 ली के बराबर और हुएनसांग की 6.75 ली के समतुल्य फाह्यान का योजन 6.75 मील के बराबर होता है । कनिघंम के मतानुसार हुएनसांग द्वारा अंकित दूरियों में भ्रांतियाँ भी है । जहाँ हुएनसांग ने एक हजार ली और पश्चिम दिशा लिखा है, वहाँ कभी कभी वह एक सौ ली और पूर्व दिशा ही सिद्ध होती है । हुएनसांग सं. 662 (सन् 635 ई.) में मथुरा आया था । यहाँ आने से पहिले उसने जालंधर में चातुर्मास्य किया था और फिर वैराट होकर [[मथुरा]] पहुँचा था । श्री कनिंघम ने उसकी यात्रा के विविध स्थानों की तारीखें निश्चित की हैं । उसके अनुसार वह सन्  635 की 15 मार्च को जालंधर में था । वहाँ से 25 सितंबर को वह वैराट गया था और 5 अक्टूबर को मथुरा आथा था । मथुरा से चल कर वह 25 अक्टूबर को थानेश्वर पहुँचा था । इस प्रकार वह शरद ऋतु में मथुरा आया और 15 दिन के लगभग यहाँ ठहरा । उसने हर्ष के शासन का विस्तृत विवरण किया है ।
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फरिश्ता ने भी उस युद्ध का उत्वी से मिलता जुलता वर्णन इस प्रकार किया है -"मेरठ आकर सुलतान ने महावन के दुर्ग पर आक्रमण किया था। महावन के शासक कुलचंद्र से उसका सामना हुआ। उस युद्ध में अधिकांश हिन्दू सैनिक यमुना नदी में धकेल दिये गये थे। राजा ने निराश होकर अपने स्त्री-बच्चों का स्वंय वध किया और फिर अपना भी काम तमाम कर डाला। दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। '''महावन की लूट में उसे प्रचुर धन-सम्पत्ति तथा 80 हाथी मिले थे।'''" इन लेखकों ने महमूद गज़नबी के साथ भीषण युद्ध करने वाले योद्धा कुलचंद्र के व्यक्तित्व पर कुछ भी प्रकाश नहीं डाला है। इसके बाद सुलतान महमूद की फ़ौज मथुरा पहुँची।
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यहाँ का वर्णन करते हुए उत्वी लिखता है- "इस शहर में सुलतान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बता कर देवताओं की कृति बताई। नगर का परकोटा पत्थर का बना हुआ था, उसमें नदी के ओर ऊँचे तथा मजबूत आधार-स्तंभों पर बने हुए दो दरवाजे स्थित है। शहर के दोनों ओर हज़ारों मकान बने हुए थे जिनमे लगे हुए देवमंदिर थे। ये सब पत्थर के बने थे, और लोहे की छड़ों द्वारा मजबूत कर दिये गये थे। उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी। शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है।
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सुलतान महमूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न ख़र्च करने पड़ेगें और उस निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये।' सुलतान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें धराशायी कर दिया जाय। बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही। इस लूट में महमूद के हाथ ख़ालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखें बहुमूल्य मणिक्यों से जड़ी हुई थी। इनका मूल्य पचास हज़ार दीनार था। केवल एक सोने की मूर्ति का ही वज़न चौदह मन था। इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर ग़ज़नी ले जाया गया। <balloon title="दे.ग्राउज - मेम्वायर, पृ. 31-32।" style="color:blue">*</balloon>
 
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==यात्रा विवरण==
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1600 ई. के आस-पास फरिश्ता ने मथुरा के विषय में विस्तृत विवरण किया है। महमूद ग़ज़नवी की भारत पर चढ़ाई का विस्तृत वर्णन करते हुए फरिश्ता ने लिखा है कि महमूद मेरठ में लूटपाट कर महावन पहुँचा था। महावन को लूटने के बाद वह मथुरा पहुँचा। फरिश्ता ने लिखा है--"सुलतान ने मथुरा में मूर्तियों को भग्न करवाया और बहुत-सा सोना-चांदी प्राप्त किया। वह मंदिरों को भी तोड़ना चाहता था, पर उसने यह देखकर कि यह काम बड़ा श्रमसाध्य है, अपना विचार बदल दिया। <ref>परन्तु उत्वी ने लिखा है कि सुलतान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर धराशायी कर दिया जाय। फरिश्ता का कथन ठीक मालूम पड़ता है।</ref> उसने गजनी के गवर्नर को मथुरा की बाबत जो लिखा उससे प्रमाणित होता है कि इस शहर तथा यहाँ की इमारतों का उसके मन पर बड़ा असर पड़ा। सुलतान मथुरा में बीस दिन तक ठहरा। इस अवधि में शहर की बड़ी बर्बादी की गई।"<balloon title="जान ब्रिग्स -हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मोहैमेड्न इन पावर इंडिया (कलकत्ता, 1908), जि. 1, पृ. 57-59।" style="color:blue">*</balloon> महमूद के आक्रमण से मथुरा नगर की बड़ी क्षति हुई। यह आक्रमण एक बड़े तूफान की तरह का था। मथुरा को लूटने और बर्बाद करने के बाद लुटेरे यहाँ रूके नहीं। नगर को व्यवस्थित करने और सुधारने में कुछ समय अवश्य लगा होगा। कुलंचन्द्र के बाद उसके वंश के शासकों का कोई विवरण नहीं मिलता।
हुएन-सांग के यात्रा विवरण से तत्कालीन  मथुरा की दशा पर बहुत-कुछ प्रकाश पड़ता है । यह यात्री लगभग 635 ई० में मथुरा आया । इसने मथुरा का जो वर्णन किया है वह संक्षेप में इस प्रकार है--"मथुरा राज्य का क्षेत्रफल 5,000 ली (लगभग  833 मील) तथा उसकी  राजधानी (मथुरा नगर)का विस्तार 20 ली (लगभग 3॥ मील)है । यहाँ की भूमि उत्तम और उपजाऊ है । अन्न की पैदावार अच्छी होती है यहाँ आम बहुत पैदा होता है जो छोटा व बड़ा दो प्रकार का होता है । पहले प्रकार वाला आम छुटपन में हरा रहता है और पकने पर पीला हो जाता है । बडी किस्म वाला आम सदा हरा रहता है । इस राज्य में उत्तम कपास और पीला सोना उत्पन्न होता है ।" मथुरा के निवासियों के विषय में हुएन-सांग लिखता है - "उनका स्वभाव कोमल है और वे दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं । ये लोग तत्त्वज्ञान का गुप्त रूप से अध्ययन करना पसंद करते है । ये परोपकारी हैं और विद्या के प्रति बड़े सम्मान का भाव रखते है ।"
 
 
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मथुरा की उस समय की धार्मिक स्थिति का परिचय हुएन-सांग के निम्नलिखित वर्णन से प्राप्त होता है - "इस नगर में लगभग 20 [[संघाराम]] हैं, जिनमें 2,000 भिक्षु रहते हैं । इन भिक्षुओं में [[हीनयान]] और [[महायन]] इन दोनों मतों के मानने वाले हैं । यहाँ पाँच देव-मन्दिर भी है, जिनमें बहुत से साधु पूजा करते हैं । राजा [[अशोक]] के बनवाये हुए तीन [[स्तूप]] यहाँ विद्यमान हैं । विगत चारों बुद्धों के भी अनेक चिन्ह यहाँ दिखाई देते है । तथागत भगवान के साथियों के पवित्र अवशेषों पर भी स्मारक रूप में कई स्तूप बने हुए है ।.... विभिन्न धार्मिक अवसरों पर संन्यासी लोग बड़ी संख्या में इन स्तूपों का दर्शन करते आते हैं  और बहुमूल्य वस्तुएं भेंट में चढ़ाते है । ये लोग अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार अलग-अलग पवित्र स्थानों का दर्शन-पूजन करते है ।....... विशेष उत्सवों पर झंडे और बहुमूल्य छत्र चारों ओर प्रदर्शित किये जाते हैं और पहाड़ों की घाटियाँ तुमुल घोष से निनादित हो उठती हैं । देश का राजा तथा उसके मंत्री लोग भी बड़े उत्साह के साथ धार्मिक कार्यो को करते है । "
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महमूद ने मथुरा की बहुत बरबादी की इसकी चर्चा अन्य मुसलमान लेखकों ने भी की है। इनमें [[बदायूँनी]] तथा [[फरिश्ता]] के विवरण उल्लेखनीय है। बदायूँनी ने लिखा है - "मथुरा काफिरों के पूजा की जगह है। यहाँ [[वसुदेव]] के लड़के [[कृष्ण]] पैदा हुए। यहाँ असंख्य देव-मंदिर है। सुलतान (महमूद ग़ज़नवी) ने मथुरा को फ़तह किया और उसे बरबाद कर डाला। मुसलमानों के हाथ बड़ी दौलत लगी। सुलतान की आज्ञा से उन्होंने एक देवमूर्ति को तोड़ा, जिसका वज़न 98,300  मिश्कल<balloon title="एक मिश्कल तोल में 96 जौ की तोल के बराबर होता है।" style="color:blue">*</balloon> खरा सोना था। एक बेशकीमती पत्थर मिला, जो तोल में 450 मिश्कल था।  इन सबके अतिरिक्त एक बड़ा हाथी मिला, जो पहाड़ के मानिंद था। यह हाथी राजा गोविदंचंद का था।"<ref>जी रैंकिंग -मुंतखबुत्तवारीख ऑफ अल-बदायूँनी (कलकत्ता, 1845 )। जिल्द 1,पृ. 24-25। यह राजा गोविंदचंद्र कौन था, यह बताना कठिन है। निस्संदेह कनौज के गाहड़वाल राजा गोविंदचंद्र से यह भिन्न था।</ref>
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==महमूद के समय के लेखक और उनके ग्रंथ==
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महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों को जिन लेखकों ने अपनी आँखों से देखकर लिपिबद्ध किया, उनमें 'महमूद अलउत्वी, बुरिहाँ, अलबरूनी और इस्लाम वैराकी' प्रमुख हैं। उनके लिखे हुए विवरण भी उपलब्ध होते है।
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'''1 महमूद अलउत्वी'''<br />
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यह महमूद ग़ज़नवी का मीर मुंशी था, हालाँकि आक्रमणों में वह साथ में नहीं था। उसने सुबुक्तगीन तथा महमूद के शासन-काल का सं. 1077 तक का इतिहास अरबी भाषा में अपने किताब "उल-यमीनी" में लिखा है। इस किताब में महमूद के सं. 1077 तक के आक्रमणों का विस्तृत वर्णन मिलता है। उसका विवरण पक्षपात पूर्ण है। उसने भारतीयों की दुर्बलता और विदेशी मुसलमान आक्रमणकारियों की वीरता का अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण किया है।
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'''2 अलबेरूनी'''<br />
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महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के थोड़े समय बाद [[अलबेरूनी]] नामक प्रसिद्ध मुस्लिम लेखक भारत आया। अलबेरूनी महमूद के दरबार में रहा था। उसने यहाँ आकर [[संस्कृत]] में योग्यता प्राप्त की। भारत में कुछ दिन रहने के बाद अलबेरूनी ने 1030 ई. में 'किताबुलहिंद' नाम की एक बड़ी किताब लिखी जो भारत के विषय में थी। इस पुस्तक में उसने भारतीय इतिहास, साहित्य, [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]], ज्योतिष आदि विषय और यहाँ के नागरिकों का विस्तृत विवरण किया है। अलबेरूनी ने '[[वायु पुराण]]', 'वृहत्संहिता' आदि पुस्तकों के आधार पर [[शूरसेन]] तथा मथुरा का भी विवरण किया।<balloon title="ई 0 सी 0 साचौ -अलबेरुनीज़ इंडिया (लंदन, 1914),जि 1,पृ. 300, 308" style="color:blue">*</balloon> अलबेरूनी ने लिखा है कि 'मथुरा नगर [[यमुना]]-तट पर बसा है।' भगवान वासुदेव ([[कृष्ण]]) के मथुरा में जन्म और उनके चरित्र का वर्णन अलबेरूनी ने विस्तार से किया है।<balloon title="साचौ - वही, पृ. 401 - 405/" style="color:blue">*</balloon>  परंतु उसमें कई बातें भ्रामक  लगती हैं। अपनी पुस्तक में अलबेरूनी ने मथुरा में व्यवह्र्त [[संवत]] का भी विवरण किया है। अलबेरूनी के अनुसार मथुरा और कन्नौज के राज्यों में श्रीहर्ष का संवत् चलता था।<balloon title="वही, जिल्द 2,पृ. 5।" style="color:blue">*</balloon>
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मुस्लिम लेखकों में अलबेरूनी का विवरण प्रायः पक्षपात रहित है। वह भारतीय दर्शन ज्योतिष, इतिहास, आदि का उत्कृष्ट विद्वान और धीर गम्भीर प्रकृति का लेखक था। उसका जन्म एक छोटे से राज्य ख्यादिम में 4 सितंबर सन् 973 में हुआ था। वह महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों में उसके साथ रहा था, किंतु उसको लूट-मार से कोई मतलब नहीं था। वह भारतीयों से निकट संबंध स्थापित कर उनकी भाषा, संस्कृति, धर्मोपासना एवं विद्या-कलाओं की जानकारी प्राप्त करने में लगा रहता था। उसकी सीखने की क्षमता ग़ज़ब की थी। थोड़ी ही कोशिश में बहुत सीखने की उसमें अद्भुत प्रतिभा थी। भारतीय संस्कृति और धर्म-दर्शन का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसने [[संस्कृत]] एवं [[प्राकृत]] भाषाएँ सीखी थीं, और उनके ग्रंथो का अध्ययन किया था। उसने अनेक भारतीय ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद भी किया।
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'''3 इमाम वैराकी'''<br />
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उसका पूरा नाम इमाम, अबुल फ़ज़ल वैराकी था। वह महमूद ग़ज़नवी के दरबार में हाकिम था। उसने जो ग्रंथ लिखा, उसका नाम "तारीख़-ए-अरब ए सुबुक्तगीन" अर्थात सुबुक्तगीन वंश का इतिहास। इसमें सुबुक्तगीन और उसके पुत्र-पौत्र महमूद ग़ज़नवी एवं उसके शासन-काल की घटनाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें प्रासंगिक रूप से महमूद के भारतीय आक्रमणों का भी कुछ विवरण लिखा गया है, जो उल्लेखनीय ईमानदारी का प्रमाण है। ग्रंथ तीन भागों में है। किंतु इस समय उसका केवल तीसरा भाग ही उपलब्ध है। आरंभ के दो भाग नष्ट हो गये। उपलब्ध भाग फ़ारसी भाषा में है।
 
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"नगर में पूर्व 5 -6 ली (लगभग 2 मील) चलने पर एक ऊँचे संघाराम में पहुँचते है । उसके अगल-बगल गुफाएं बनी है । यह संघाराम पूज्य [[उपगुप्त]] के द्वारा बनवाया गया था । इसके भीतर एक स्तूप है, जिसमें तथागत के नाखून रखे हैं । संघाराम के उत्तर में 20 फुट ऊँची और 30 फुट चौड़ी एक गुफा है । इसमें चार इंच लम्बे लकड़ी के टुकड़े भरे हैं । महात्मा उपगुप्त जिन लोगों को [[बौद्ध धर्म]] में दीक्षित कर उन्हें अर्हत् पद प्राप्त कराते थे [ उसकी संख्या मालूम रहे, इसलिए ] उनमें से प्रत्येक विवाहित युग्म का एक टुकड़ा उस कमरे में डाल देते थे । जो लोग अविवाहित होते थे, उनके अर्हत् हो जाने पर भी उनकी कोई गणना नहीं रखी जाती थी । "
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अपने अंतिम काल में महमूद ग़ज़नवी असाध्य रोगों से पीड़ित होकर असह्य कष्ट पाता रहा था। अपने दुष्कर्मों को याद कर उसे घोर मानसिक क्लेश था। वह शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से ग्रसित था। उसकी मृत्यु सं. 1087 (सन् 1030 , अप्रैल 30) में हुई थी।
"यहाँ  से 24 - 25 ली (लगभग 4 मील) दक्षिण-पूर्व में एक बड़ा सूखा तालाब है, जिसके पास ही एक स्तूप है । यहीं पर, जब भगवान [[बुध्द]]  घूमघाम रहे थे, एक बन्दर ने उन्हें थोड़ा शहद दिया, जिसे बुद्ध ने थोड़े जल के साथ मिश्रित कर उसे अपने शिष्यओं में बँटवा दिया । इससे बन्दर को इतनी खुशी हुई कि वह एक खड्ड में गिर कर मर गया और अपने पूर्वोक्त पुण्यजन्य  कृत्य के कारण अगले जन्म उसने मनुष्य - योनि प्राप्त की । इस सूखे तालाब के उत्तर में थोड़ी ही दूर पर एक घना जंगल था जिसमें पिछले चार बुद्धों के चरण-चिन्ह सुरक्षित हैं । इसके निकट ही उन स्थानों पर बने हुए स्तूप हैं, जहाँ  सारिपुत्र  तथा बुद्ध के अन्य 1,250 महान शिष्यों ने कठोर तपस्या की थी । यहीं धर्म-प्रचारार्थ आये हुए भगवान् बुद्ध के स्मारक स्थान हैं ।" [संदर्भ देखें]
 
  
हुएन-सांग के इस विवरण से पता चलता है । उसके समय में मथुरा-राज्य बहुत विस्तृत था । कनिंघम का कहना है कि उस समय के मथुरा-राज्य में वर्तमान बैराट और अतंरजीखेड़ा के बीच राज्य ही नहीं, वरन आगरा के दक्षिण में नरवर और शिवपुरी तक तथा पूर्व में काली सिंध नदी तक का भूभाग रहा होगा । [संदर्भ देखें] कनिंघम के अनुसार इस राज्य में मथुरा-आगरा जिलों के अतिरिक्त भरतपुर, करौली और धौलपुर तथा ग्वालियर राज्य का उत्तरी आधा भाग शामिल रहा होगा । पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जिझौती से तथा दक्षिण में मालवाकी  सीमा से मिलती रही होगी ।
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==परवर्ती राजपूत राज्य और उनके राजा==
इस यात्री के विवरण से यह भी ज्ञात होता है कि ई० सातवीं शती में मथुरा की भूमि बहुत अधिक उपजाऊ थी । वर्तमान समय में यहाँ आम कम होता है और कपास की उपज भी  इतनी अधिक नहीं होती । संभवतः अब से 1300 वर्ष पहले यहाँ इन वस्तुओं की, अन्न की पैदावार अधिक होती रही हो । परंतु हुएन-सांग ने  पीले सोने के विषय में जो विवरण किया है वह सही नहीं है, क्योंकि आजकल मथुरा की जमीन में कहीं भी स्वर्ण खनन नहीं होता है ।
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महमूद के आक्रमण के समय में यह देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। इन राज्यों के राजा राज्य के विस्तार के लिए आपस में युद्ध किया करते थे। मथुरा के चारों ओर भी ऐसे ही राज्य थे। इसके उत्तर में हरियाणा के तोमर राजाओं ने [[पांडव]] कालीन [[इन्द्रप्रस्थ]] के स्थान पर [[दिल्ली]] बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया था। पश्चिम में चाहमान (चौहान) का प्रभुत्व था, जिनकी राजधानी अजमेर थी। दक्षिण में कछवाहे और चंदेल राजाओं के राज्य थे, जिनकी राजधानी क्रमश: [[ग्वालियर]] तथा [[खजुराहो]] और [[महोबा]] थी। पूर्व में गाहड़वाल वंशीय राजाओं का अधिकार था, जिनकी राजधानी [[कन्नौज]] थी। सुदूर पूर्व में पाल और बाद में सेन वंशीय राजाओं का अधिकार क्षेत्र था, ये सभी राज्य एक दूसरे से शत्रुता रखते थे और आपस में युद्ध करते हुए अपनी शक्ति का ह्रास किया करते थे। तौमर और चाहमान, चंदेल और गाहड़वाल तथा गाहड़वाल और सेन राजाओं के बीच उस काल में निरंतर युद्ध हुए, उनसे इतिहास के पन्ने रंग हुए है।
  
हुएन-सांग ने मथुरा की धार्मिक स्थिति का बहुत अच्छा वर्णन किया है । सातवीं शती के पूर्वार्ध में भी यहाँ बौद्ध धर्म का बहुत प्रचार था । फाह्यान (ई० 400) ने जब मथुरा में प्रवास किया था तब से इस समय तक यहाँ के बौद्ध मतावलम्बियों की संख्या में काफी कमी हो गयी थी । फाह्यान ने मथुरा के बौद्ध संघारामों के विषय में, जिनमें अनुमानतः 3,000 बौद्ध सन्यासियों का निवास थे । हुएन-सांग के समय वहाँ संघारामों की संख्या संम्भवतः उतनी ही रही, पर बौद्ध-संन्यासी घट कर 2,000  ही रह गये थे । मथुरा में बौद्ध धर्म की अवनति का मुख्य था कि पौराणिक हिंदू धर्म की उन्नति प्रारम्भ हो गयी थी । हुएन-सांग ने मथुरा के पाँच बड़े हिंदू-मंदिरों का विवरण अपनी पुस्तक में किया है, इस मन्दिर में बहुत सारे पुजारी रह कर पूजा करते थे ।
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==पृथ्वीराज(1168-1192 CE)==
मथुरा के किसी भी नगर के नाम का उल्लेख हुएन-सांग ने नहीं किया है, राजधानी मथुरा नगर का भी नाम उसके वर्णन में नहीं आया, न प्रसिद्ध यमुना नदी या यहाँ के पहाड़-वनों आदि का ही वर्णन मिलता है ।
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उसे 'राय पिथौरा' भी कहा जाता है। वह चौहान राजवंश का अत्यंत प्रसिद्ध राजा था। वह तोमर वंश के राजा अनंगपाल का दौहित्र (बेटी का बेटा) था और उसके बाद दिल्ली का राजा हुआ। उसके अधिकार में दिल्ली से लेकर अजमेर तक का विस्तृत भूभाग था। [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] ने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया। उससे पहले तोमर नरेश ने एक गढ़ के निर्माण का शुभारंभ किया था, जिसे पृथ्वीराज ने विशाल रूप देकर पूरा किया। वह उसके नाम पर पिथौरागढ़ कहलाता है, और दिल्ली के पुराने किले के नाम से जीर्णावस्था में विद्यमान है। कन्नौज का राजा जयचंद्र पृथ्वीराज की वृद्धि के कारण उससे ईर्ष्या करने लगा था। वह उसका विद्वेषी हो गया था। पृथ्वीराज ने अपने समय के विदेशी आक्रमणकारी [[मुहम्मद ग़ोरी]] को कई बार पराजित किया। अंत में अपने प्रमाद और [[जयचंद्र|जयंचद्र]] के द्वेष के कारण वह पराजित हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसका मृत्यु काल सं. 1248 माना जाता है। उसके पश्चात मुहम्मद ग़ोरी ने कन्नौज नरेश जयचंद्र को भी हराया और मार डाला। आपसी द्वेष के कारण उन दोनों की हार और मृत्यु हुई। पृथ्वीराज से संबंधित घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन [[चंदबरदाई]] कृत "[[पृथ्वीराज रासो]]" नामक ग्रंथ में हुआ है।
  
मथुरा के बड़े बौद्ध विहारों का नाम भी हुएन-सांग ने नही दिया है । उसके विवरण से केवल इतना पता चलता है कि यहाँ बहुत से बौद्ध-स्तूप एवं विहार बने हुए थे । हुएन-सांग द्वारा वर्णित उपगुप्त [संदर्भ] के संघाराम की पहचान पर विद्वानों में काफी मतभेद है ।  हुएन-सांग के लेखानुसार मथुरा नगर में पूर्व दिशा में लगभग एक मील चलने पर यह संघाराम मिलता था । कनिंघम ने 'पूर्व' की जगह 'पश्चिम' दिशा को ठीक माना है और कनिंघम ने उक्त संघाराम की स्थिति वर्तमान कटरा मुहल्ले में पुरातन 'यशविहार' के स्थान पर मानी है । [संदर्भ देखें] ग्राउस का मत है कि उपगुप्त वाला विहार कंकाली टीला पर रहा होगा । [संदर्भ देखें] परन्तु इस संबंध में ग्राउस ने कोई पुष्ट प्रमाण नही दिया ।
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==मुहम्मद ग़ोरी (1162-1206)==
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जिस समय मथुरा मंडल के उत्तर-पश्चिम में पृथ्वीराज और दक्षिण-पूर्व में जयचंद्र जैसे महान नरेशों के शक्तिशाली राज्य थे, उस समय भारत के पश्चिम उत्तर के सीमांत पर शाहबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी नामक एक मुसलमान सरदार ने महमूद ग़ज़नवी के वंशजों से राज्याधिकार छीन कर एक नये इस्लामी राज्य की स्थापना की थी। मुहम्मद ग़ोरी बड़ा महत्वाकांक्षी और साहसी था। वह महमूद गज़नबी की भाँति भारत पर आक्रमण करने का इच्छुक था, किंतु उसका उद्देश्य गज़नबी से अलग था। वह लूटमार के साथ ही साथ इस देश में मुस्लिम राज्य भी स्थापित करना चाहता था। उस काल में पश्चिमी पंजाब तक और दूसरी ओर मुल्तान एवं सिंध तक मुसलमानों का अधिकार था, जिसके अधिकांश भाग पर महमूद के वंशज गज़नबी सरदार शासन करते थे।
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मुहम्मद ग़ोरी को भारत के आंतरिक भाग तक पहुँचने के लिए पहले उन मुसलमान शासकों से और फिर वहाँ के वीर राजपूतों से युद्ध करना था, अतः वह पूरी तैयारी के साथ भारत पर आक्रमण करने का आयोजन करने लगा।
  
हुएनसांग के लिखे हुए मथुरा राज्य के विवरण से डा. रामशंकर त्रिपाठी का मत है कि उस काल में मथुरा का राज्य हर्ष के साम्राज्य के अंतर्गत नहीं होगा । हुएनसांग मथुरा में हर्ष के शासन के उत्तर काल में आया था वह समझा जा सकता है ।
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'''ग़ोरी का आक्रमण'''<br />
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मुहम्मद ग़ोरी ने अपना पहला आक्रमण 1191 में मुल्तान पर किया था, जिसमें वहाँ के मुसलमान शासक को पराजित होना पड़ा। उससे उत्साहित होकर उसने अपना दूसरा आक्रमण 1192 में गुजरात के बघेल राजा भीम द्वितीय की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर किया, किंतु राजपूत वीरों की प्रबल मार से वह पराजित हो गया। इस प्रकार भारत के हिंदू राजाओं की ओर मुँह उठाते ही उसे आंरभ में ही चोट खानी पड़ी थी। किंतु वह महत्वाकांक्षी मुसलमान आक्रांता उस पराजय से हतोत्साहित नहीं हुआ। उसने अपने अभियान का मार्ग बदल दिया। वह [[पेशावर]] और [[पंजाब]] होकर भारत-विजय का आयोजन करने लगा। उस काल में पेशावर और पंजाब के शासक महमूद के जो वंशज थे, वे शक्तिहीन हो गये थे, अतः उन्हें पराजित करना ग़ोरी को सरल ज्ञात हुआ। फलतः सं. 1226 में पेशावर पर आक्रमण कर वहाँ के ग़ज़नवी शासक को परास्त किया। उसके बाद उसने पंजाब के अधिकांश भाग को ग़ज़नवी के वंशजों से छीन लिया और वहाँ पर अपनी सृदृढ़ क़िलेबंदी कर भारत के हिंदू राजाओं पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा।
  
ककांली टीला बहुत प्राचीन काल से ही जैन धर्म का बड़ा केन्द्र था और लगभग ई० 11 वी शती तक मथुरा जैन-धर्म का केन्द्र रहा । उस स्थान पर बौद्धों के किसी बड़े स्तूप या विहार का पता नहीं चलता । सम्भवतः उपगुप्त वाला संघाराम या तो आजकल का 'सप्तर्षि-टीला' था या उसके पूर्व में कुछ आगे उस स्थान पर जिसे आजकल 'बुद्ध तीर्थ' के नाम से जाना जाता है ।
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==पृथ्वीराज की मृत्यु==
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मुहम्मद ग़ोरी उस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए तैयारी करने लगा। अगले वर्ष वह 1 लाख 20 हज़ार चुने हुए अश्वारोहियों की विशाल सेना लेकर फिर तराइन के मैदान में आ डटा। उधर पृथ्वीराज ने भी उससे मोर्चा लेने के लिए कई राजपूत राजाओं को आमन्त्रित किया था। कुछ राजाओं ने तो अपनी सेनाएँ भेज दी; किंतु उस समय का गाहड़वाल वंशीय कन्नौज नरेश जयचंद्र उससे तटस्थ ही रहा। किवदंती है कि पृथ्वीराज से विद्वेष रखने के कारण जयचंद्र ने ही मुहम्मद ग़ोरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया था। इस किंवदंती की सत्यता का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है; अतः जयचंद्र पर देशद्रोह का दोषारोपण भी अप्रमाणिक ज्ञात होता है। उसमें केवल इतनी ही सत्यता है कि उसने उस अवसर पर पृथ्वीराज की सहायता नहीं की थी। पृथ्वीराज के राजपूत योद्धाओं ने उस बार भी ग़ोरी की सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था; किंतु देश के दुर्भाग्य से उन्हें पराजित होना पड़ा।
  
हर्ष भारत के अंतिम हिन्दू सम्राटों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है । उसके यशस्वी शासन काल के 40 वर्ष राजनैतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक सभी दृष्टियों अत्यंत महत्वपूर्ण हैं ।  हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में बहुत से छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये थे ।
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इस प्रकार सं. 1248 के उस युद्ध में मुहम्मद ग़ोरी की विजय और पृथ्वीराज की पराजय हुई थी। उस काल में यहाँ के राजा-प्रजा की जैसी मानसिक अवस्था थी, वही वास्तव में मुसलमानों की विजय और हिंदूओं की पराजय का कारण हुई थी। यह सब होते हुए भी यदि उस काल के राजागण तनिक भी बुद्धि से काम लेकर आपस में लड़ने के बजाय देश के सामान्य शत्रु से मोर्चा लेते, तो वे विदेशी आक्रमणकारियों से कदापि पराजित नहीं होते। फलतः भारत भूमि को भी पराधीनता के बंधन में न बँधना पड़ता। कम से कम उस काल के दो वीर राजा पृथ्वीराज और जयचंद्र में ही यदि विद्वेष न होता और वे दोनों ही मिल कर शत्रु से युद्ध करते, तब भी आक्रमणकारियों की पराजय निश्चित थी। किंतु देश के दुर्भाग्य से वैसा नहीं हुआ और भारत भूमि पर मुसलमानों का राज्य स्थापित हो गया। '''उसका शिलान्यास जयचंद्र की पराजय वाले जिस युद्ध-स्थल में हुआ था, वह फीरोजाबाद के निकटवर्ती चंदवार ग्राम मथुरामंडल का ही एक स्थान है।''' इसे दैव की विडंबना ही कहा जावेगा कि इस पावन प्रदेश में ही भारत माता को विदेशियों की पराधीनता में बँधना पड़ा था।
हर्ष के कोई सन्तान नहीं थी, और उसका कोई योग्य संबंधी भी नहीं था अतः उसे उत्तराधिकारी के लिए झगड़े होना स्वाभाविक था । उसके कारण ही हर्ष का विशाल राज्य टुकड़े होकर अनेक छोटे राज्यों में बँट गया था । उन राज्यों पर हर्ष के सरदार सामंतों ने अधिकार कर अपना स्वतंत्र शासन चलाया । मथुरा राज्य भी तब संभवतः स्वाधीन हो गया था । उसका राजा मथुरा के प्राचीन यादव अथवा नाग वंश का था, या किसी वंश का था, इसका उल्लेख नहीं मिलता है
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==आल्हाखण्ड' और महोबा का युद्ध==
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'[[आल्हाखण्ड]]' एक लोक काव्य है, जिसका रचयिता जगनिक या जगनायक नामक कोई भाट कवि माना जाता है। इस ग्रंथ में पृथ्वीराज और महोबा के विख्यात योद्धा आल्हा-ऊदल के युद्धों का अत्यंत वीरतापूर्ण वर्णन हुआ है। पृथ्वीराज ने अपनी वीरता के प्रदर्शन और राज्य विस्तार के लिए अपने समकालीन कई राजाओं से अनेक युद्ध किये थे। उनमें महोबा के युद्ध ने लोक-गाथाओं में अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की है। उसी का वर्णन 'आल्हाखंड' में किया गया है, किंतु इसमें वर्णित घटनाओं का ऐतिहासिक मूल्य नगण्य है। आल्हाखंड से ज्ञात होता है पृथ्वीराज के समय महोबा का चंदेल राजा परमाल था,वह इतिहास में परमर्दिदेव के नाम से प्रसिद्ध हैं। परमाल स्वयं तो कोई बड़ा वीर नहीं था, किंतु उसके सामंत आल्हा-ऊदल के कारण उसकी शक्ति बहुत बढ़ी हुई थी। आल्हा-ऊदल दोनो भाई थे। आल्हा के पुत्र का नाम इंदल था। वे तीनों वीर योद्धा 'बनाफर' जाति के राजपूत थे। आल्हा का एक मौसेरा भाई मलखान था, जो चंदेल राजा की ओर से सिरसा का शासक था। वह भी प्रबल वीर था। उन सबने परमाल की तरफ से पृथ्वीराज से युद्ध किया था। परमाल की सैन्य शक्ति पृथ्वीराज की अपेक्षा बहुत कम थीं , किंतु अपने उन महावीर योद्धाओं के कारण उसने पृथ्वीराज से कड़ा संघर्ष किया था। 'आल्हाखंड' में आल्हा-ऊदल की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण कथन किया गया है। उसमें कई अवसर पर पृथ्वीराज की हार बतलाई गई है, जो कल्पना मात्र है। महोबा के युद्ध में पृथ्वीराज के अनेक वीर सेनानायक मारे गये थे, किंतु परिणाम में उसकी जीत और परमाल की हार हुई थी। आल्हा-ऊदल भी संभवतः उसी युद्ध में वीर-गति को प्राप्त हुए थे। वह युद्ध सं. 1239 के लगभग हुआ था।
  
हर्ष के पश्चात् कन्नौज के राजसिंहासन पर कौन आसीन हुआ और वह किस राजवंश का था, इसका प्रमाणिक उल्लेख उपलब्ध नहीं है । चीनी लेखकों के वृतांतों से पता चलता है कि हर्ष के बाद वेंग-हिउंत्सें नामक दूत की अध्यक्षता में एक चीनी प्रतिनिधी दल भारत आया था । अर्जुन (या अरूणाश्र्व ) नामक हर्ष के मंत्री ने, जो गद्दी पर बैठ गया था, चीनी दल पर हमला कर दिया था । तिब्बत और नेपाल से मदद ले कर वेंग-हिउंत्से ने अर्जुन को हराकर भगा दिया । चीनी लेखकों का यह विवरण अतिश्योक्तिपूर्ण मालूम पड़ता है । किंतु वह राज्य में शान्ति और व्यवस्था कायम करने में असमर्थ सिद्ध हुआ । फलतः वह बहुत थोड़े काल तक ही राज्याधिकारी रहा था । उक्त चीनी उल्लेख इतना भ्रमात्मक है कि उसके आधार पर अर्जुन के अस्तित्व की बाद संदिग्ध हो जाती है ।
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==पृथ्वीराज रासो' और 'आल्हाखण्ड' की तुलना==
यशोवर्मन (लगभग 700 -740ई०)--आठवीं शती के प्रारंभ में कन्नौज के यशोवर्मन नामक शासक का विवरण मिलता है । यशोवर्मन के वंश के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नही है । यह भी संभव है कि वह कन्नौज के मौखरी-वंश से ही संबंधित रहा हो । यशोवर्मन के राजकवि वाक्पति ने 'गौड़वहो' नाम के प्राकृत ग्रन्थ में जो लिखा है, उससे यशोवर्मन की अनेक विजय-यात्राओं का ज्ञान होता है । काश्मीर के शासक ललितादित्य ने कनौज पर हमला कर यशोवर्मन को पराजित कर दिया था । इस युद्ध का विवरण कल्हण की 'राजतंरगिणी' [संदर्भ देखें] में मिलता है । इस विजय के बाद यमुना नदी के किनारे तक का प्रदेश, जिसमें  मथुरा भी था, ललितादित्य के अधिकार में हो गया था । किन्तु यह शासन बहुत ही कम समय तक रहा । 
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ये दोनों ही ऐतिहासिक काव्य कहे जाते हैं, किंतु दोनों ही घटनाएँ इतिहास द्वारा प्रमाणिक सिद्ध नहीं होती है। 'पृथ्वीराज रासो' में पृथ्वीराज की और 'आल्हाखण्ड' में आल्हा-ऊदल की वीरता का अतिरंजित और अतिशयोक्तिपूर्ण कथन किया गया है। 'पृथ्वीराज रासो' का रचयिता चंदवरदाई और 'आल्हाखंड' का रचयिता जगनिक दोनों ही भाट थे। उन दोनों की रचनाएँ ही मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं। जो रचनाएँ इस समय मिलती हैं , दोनों ही रचनाएँ लोक काव्य की श्रेणी की हैं और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में बड़ी लोकप्रिय रहीं हैं। जहाँ तक लोकप्रियता और प्रसिद्धि का प्रश्न है, 'आल्हाखण्ड' का स्थान 'पृथ्वीराज रासो' से कहीं ऊँचा है, किंतु काव्योत्कर्ष की दृष्टि से उसकी रासों से कोई तुलना नहीं है।
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==मथुरा के स्थान पर 'ब्रज'==
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महमूद ग़ज़नवी द्वारा मथुरा के शासक कुलचंद्र की पराजय होने के उपरांत मथुरा राज्य का गौरव और उसका राजनैतिक महत्व समाप्त सा हो गया था। उसके पश्चात जब मुहम्मद ग़ोरी ने इस भू भाग पर अधिकार कर लिया, तब इसका रहा-सहा राजनैतिक गौरव भी जाता रहा था। उस काल में मथुरा राज्य जैसी किसी राजनैतिक ईकाई का न तो कोई अस्तिस्व शेष था, और न उसकी कोई सार्थकता ही थी। फलतः मथुरा मंडल के जिस धार्मिक स्वरूप का निर्माण किया था, वह '[[ब्रजमंडल]]' अथवा 'ब्रजप्रदेश' कहा जाने लगा। उस समय से इस पुण्यस्थल का इन्हीं नामों से प्रचलन रहा है।
  
यशोवर्मन एक बहुत ही शक्तिशाली शासक था । उसके शासन में कन्नौज के साथ-साथ मथुरा की भी उन्नति हुई होगी । यशोवर्मन विद्या और कला का बहुत प्रेमी था । इसकी राज-सभा में वाक्पति के अतिरिक्त भवभूति जैसे महान कवि और नाटककार थे । भवभूति ने उत्तररामचरित, मालतीमाधव आदि कई नाटकों की रचना की, जो संस्कृत साहित्य में नाटय साहित्य की सर्वोत्तम रचनाएं मानी जाती है । वाक्पति कृत प्राकृत काव्य  “गौडवहो” और भवभूति कृत संस्कृत नाटक 'उत्तर रामचरित्' एवं 'मालती माधव' प्रसिद्ध हैं । हर्षवर्धन एवं यशोवर्मन् जैसे विद्वान राजाओं और उसके आश्रित कवियों एवं नाटककारों द्वारा उस काल में साहित्य की बड़ी उन्नति हुई थी ।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
हर्ष के बाद भी युगांतरकारी घटनाएँ – हर्षवर्धन के बाद इस देश में ऐसी अनेक अभूतपूर्व घटनाएँ हुई जिन्होंने इतिहास को नया मोड़ दिया । हर्ष का विशाल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होकर अनेक छोटे राज्यों में विभाजित हो गया । फिर शताब्दियों तक कोई ऐसा प्रभावशाली राजा नहीं हुआ, जो हर्ष की तरह इस देश को एकता से सूत्र में बाँध कर यहाँ व्यापक रूप से शांति और व्यवस्था कायम करता । उस काल में यहाँ जो छोटे-बड़े अनेक राज्य बने थे, उनके राजागण अधिकतर राजपूत जातियों के थे ।
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<references/>
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==सम्बंधित लिंक==
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{{History3}}
  
राजपूत जातियों का उदय और प्रसार इस काल की महत्वपूर्ण घटना है, जिसने कई शताब्दियों तक देश की राजनैतिक स्थिति पर अपनी महत्ता की छाप छोड़ी । बौद्ध धर्म ने विगत अनेक शताब्दियों से इस देश के सांस्कृतिक जीवन को समृद्धिशाली बनाते हुए विदेशों को भी संदेश दिया और हर्ष के समय तक अपना गौरव बनाये रखा, वह लुप्तप्रायः हो गया । उसी समय में भारत के सुदूर पश्चिम में इस्लाम के रूप में एक नई शक्ति का उदय और प्रसार हुआ । उसने दूसरे देशों के साथ ही भारत में भी अपना विस्तार कर यहाँ के जनजीवन को पूरी तरह झकझोर दिया और देश की धार्मिक और राजनैतिक परिस्थिति को प्रभावित किया । इन घटनाओं का इस समय और उसके बाद भी काफी प्रभाव रहा ।
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[[Category:कोश]]
[[category:राजनैतिक इतिहास]]
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[[Category:मध्य काल]]
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१३:००, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण

मध्य काल : मध्य काल (2)

मध्य काल / Medieval Period

हिंदु शासकों की वंश-परंपरा और संघर्ष

मुसलमानों के आंरभिक आक्रमणों को रोकने में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा के हिंदू शाही राजाओं ने बहुत संघर्ष किया। उनके राज्य की सीमाएँ चिनाब नदी से हिंदूकुश पर्वत तक थीं। जब से मुसलमानों ने सिंध राज्य पर आक्रमण किया, तब से महमूद ग़ज़नवी के काल तक हिन्दू शाही राजा ही मुसलमान आक्रमणकारियों का सामना करते रहे। उन्होंने लगभग तीन सौ वर्ष तक मुसलमानों को भारत में प्रवेश नहीं करने दिया। राजस्थान के जैसलमेर राज्य के भाटी राजाओं की वंश-परंपरा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वे श्री कृष्ण की वंश-परंपरा में उन यादवों के वंशज थे, जो शूरसेन राज्य से इधर आ बसे थे। उसी प्रसंग में यह भी बतलाया गया है कि उनमें से बहुत से यदुवंशी भारत के पश्चिमोत्तर भाग में जाकर बस गये थे, और उन्होंने अपने राज्य कायम किये थे। श्रीकृष्ण की 12वीं पीढ़ी में गज नामक एक राजा हुआ था, जिसने ख़ैबर घाटी के पार एक क़िला बनवाया था, जो उसके नाम से ग़ज़नी कहलाता है। राजा गज की नवीं पीढ़ी में राजा मर्यादपति हुआ, जिसने गजनी से लेकर पंजाब तक शासन किया था। वहाँ रहने वाले चगताई, बलोच और पठान उन्हीं यदुवंशियों की संतान है। सम्भावना है कि हिन्दू राजा भी उन यदुवंशियों की परंपरा में ही होंगे। ग़ज़नी के मुसलमान शासक सुबुक्तग़ीन के समय में हिंदू शाही वंश के राजा जयपाल का शासन था। उसका सुबुक्तग़ीन से कई बार संघर्ष हुआ। सुबुक्तग़ीन का पुत्र महमूद जब ग़ज़नी का शासक हुआ, तब उसने एक विशाल सेना के साथ जयपाल पर आक्रमण किया और उसे पराजित किया। जिससे हिन्दू शाही राजाओं का राज्य लगभग समाप्त हो गया और तुर्क आक्रमणकारियों ने भारत में प्रवेश किया। डा. आशीर्वादीलाल लिखते हैं कि 'हिंदू शाही राज्य एक बाँध की भाँति तुर्की आक्रमणों की बाढ़ को रोके हुए था। उसके टूट जाने से समस्त उत्तरी भारत मुसलमानों आक्रमणों की बाढ़ में डूब गया।' महमूद ग़ज़नवी पहला मुसलमान आक्रमणकारी था, जिसने भारत के आंतरिक भागों में भी जा कर भीषण लूट-मार की।

महमूद ग़ज़नवी

यह यमीनी वंश का तुर्क सरदार गजनी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। उसका जन्म सं. 1028 वि. (ई॰ 971) में हुआ, 27 वर्ष की आयु में सं. 1055 (ई॰ 998) में वह शासनाध्यक्ष बना था। महमूद बचपन से भारतवर्ष की अपार समृद्धि और धन-दौलत के विषय में सुनता रहा था। उसके पिता ने एक बार हिंदू शाही राजा जयपाल के राज्य को लूट कर प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त की थी, महमूद भारत की दौलत को लूट कर मालामाल होने के स्वप्न देखा करता था। उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया और यहाँ की अपार सम्पत्ति को वह लूट कर ग़ज़नी ले गया था। उसके आक्रमण और लूटमार के काले कारनामों से तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों के पन्ने भरे हुए है।


महमूद ने पहला आक्रमण हिन्दू शाही राजा जयपाल के विरुद्ध सं. 1058 (29 नबंवर सन् 1001) में किया। उन दोनों में भीषण युद्ध हुआ, परन्तु महमूद की जोशीली और बड़ी सेना ने जयपाल को हरा दिया। इस अपमान से व्यथित होकर वह जीते जी चिता पर बैठ गया और उसने अपने जीवन का अंत कर दिया। जयपाल के पुत्र आनंदपाल और उसके वंशज त्रिलोचन पाल तथा भीमपाल ने कई बार महमूद से युद्ध किया। पर हर बार उन्हें पराजय मिली। सं. 1071 में हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो गया। हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो जाने पर महमूद को खुला मार्ग मिल गया और बाद के आक्रमणों में उसने मुल्तान, लाहौर, नगरकोट और थानेश्वर तक के विशाल भू-भाग में उसने ख़ूब मार-काट की तथा भारतीयों को जबर्दस्ती मुसलमान बनाया। उसका नवाँ (कुछ लेखकों के मतानुसार बारहवाँ) आक्रमण सं. 1074 में कन्नौज के विरुद्ध हुआ था। उसी समय उसने मथुरा पर भी आक्रमण किया और उसे बुरी तरह लूटा।

महमूद की लूट और महावन का युद्ध

ग्यारहवीं शती के आरम्भ में उत्तर -पश्चिम की ओर से मुसलमानों के धावे भारत की ओर होने लगे। गजनी का मूर्तिभंजक सुल्तान महमूद ने सत्रह बार भारत पर चढ़ाई की। उसका उद्देश्य लूटपाट करके गजनी लौटना होता था। अपने नवें आक्रमण का निशाना उसने मथुरा को बनाया। उसका वह आक्रमण 1017 ई॰ में हुआ। महमूद के मीरमुंशी 'अल-उत्वी' ने अपनी पुस्तक 'तारीखे यामिनी' में इस आक्रमण का वर्णन किया है, जिससे निम्नलिखित बातें ज्ञात होती है। मथुरा को लूटने से पहले महमूद गज़नबी को यहाँ एक भीषण युद्ध करना पड़ा। यह युद्ध मथुरा के समीप महावन में वहाँ के शासक कुलचंद के साथ हुआ। महमूद के मीरमुंशी अलउत्वी ने उसका वर्णन अपने ग्रंथ 'तारीख़े यमीन' में किया है। उसने लिखा है – "कुलचंद का दुर्ग महावन में था। उसको अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था। क्योंकि तब तक कोई भी शत्रु उससे पराजित हुए बिना नहीं रहा था। वह विस्तृत राज्य, अपार वैभव, असंख्य वीरों की सेना, विशाल हाथी और सुदृढ़ दुर्गों का स्वामी था, जिनकी ओर किसी को आँख उठा कर देखने का भी साहस नहीं होता था। जब उसे ज्ञात हुआ कि महमूद उस पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है, तब वह अपने सैनिक और हाथियों के साथ उनका मुक़ाबला करने को तैयार हो गया।

अत्यंत वीरता पूर्वक युद्ध करने पर भी जब महमूद के आक्रमण को विफल नहीं कर पाया, तब उसके सैनिक किले से निकल कर भागने लगे, जिससे वे यमुना नदी को पार कर अपनी जान बचा सकें। इस प्रकार लगभग 50,000 (पचास हज़ार)सैनिक उस युद्ध में मारे गये या नदी में डूब गये, तब कुलचंद्र ने हताश होकर पहले अपनी रानी और फिर स्वयं को भी तलवार से समाप्त कर दिया। उस अभियान में महमूद को लूट के अन्य सामान के अतिरिक्त 185 सुंदर हाथी भी प्राप्त हुए थे।"


फरिश्ता ने भी उस युद्ध का उत्वी से मिलता जुलता वर्णन इस प्रकार किया है -"मेरठ आकर सुलतान ने महावन के दुर्ग पर आक्रमण किया था। महावन के शासक कुलचंद्र से उसका सामना हुआ। उस युद्ध में अधिकांश हिन्दू सैनिक यमुना नदी में धकेल दिये गये थे। राजा ने निराश होकर अपने स्त्री-बच्चों का स्वंय वध किया और फिर अपना भी काम तमाम कर डाला। दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। महावन की लूट में उसे प्रचुर धन-सम्पत्ति तथा 80 हाथी मिले थे।" इन लेखकों ने महमूद गज़नबी के साथ भीषण युद्ध करने वाले योद्धा कुलचंद्र के व्यक्तित्व पर कुछ भी प्रकाश नहीं डाला है। इसके बाद सुलतान महमूद की फ़ौज मथुरा पहुँची।

यहाँ का वर्णन करते हुए उत्वी लिखता है- "इस शहर में सुलतान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बता कर देवताओं की कृति बताई। नगर का परकोटा पत्थर का बना हुआ था, उसमें नदी के ओर ऊँचे तथा मजबूत आधार-स्तंभों पर बने हुए दो दरवाजे स्थित है। शहर के दोनों ओर हज़ारों मकान बने हुए थे जिनमे लगे हुए देवमंदिर थे। ये सब पत्थर के बने थे, और लोहे की छड़ों द्वारा मजबूत कर दिये गये थे। उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी। शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है।

सुलतान महमूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न ख़र्च करने पड़ेगें और उस निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये।' सुलतान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें धराशायी कर दिया जाय। बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही। इस लूट में महमूद के हाथ ख़ालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखें बहुमूल्य मणिक्यों से जड़ी हुई थी। इनका मूल्य पचास हज़ार दीनार था। केवल एक सोने की मूर्ति का ही वज़न चौदह मन था। इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर ग़ज़नी ले जाया गया। <balloon title="दे.ग्राउज - मेम्वायर, पृ. 31-32।" style="color:blue">*</balloon>


1600 ई. के आस-पास फरिश्ता ने मथुरा के विषय में विस्तृत विवरण किया है। महमूद ग़ज़नवी की भारत पर चढ़ाई का विस्तृत वर्णन करते हुए फरिश्ता ने लिखा है कि महमूद मेरठ में लूटपाट कर महावन पहुँचा था। महावन को लूटने के बाद वह मथुरा पहुँचा। फरिश्ता ने लिखा है--"सुलतान ने मथुरा में मूर्तियों को भग्न करवाया और बहुत-सा सोना-चांदी प्राप्त किया। वह मंदिरों को भी तोड़ना चाहता था, पर उसने यह देखकर कि यह काम बड़ा श्रमसाध्य है, अपना विचार बदल दिया। [१] उसने गजनी के गवर्नर को मथुरा की बाबत जो लिखा उससे प्रमाणित होता है कि इस शहर तथा यहाँ की इमारतों का उसके मन पर बड़ा असर पड़ा। सुलतान मथुरा में बीस दिन तक ठहरा। इस अवधि में शहर की बड़ी बर्बादी की गई।"<balloon title="जान ब्रिग्स -हिस्ट्री आफ दि राइज आफ दि मोहैमेड्न इन पावर इंडिया (कलकत्ता, 1908), जि. 1, पृ. 57-59।" style="color:blue">*</balloon> महमूद के आक्रमण से मथुरा नगर की बड़ी क्षति हुई। यह आक्रमण एक बड़े तूफान की तरह का था। मथुरा को लूटने और बर्बाद करने के बाद लुटेरे यहाँ रूके नहीं। नगर को व्यवस्थित करने और सुधारने में कुछ समय अवश्य लगा होगा। कुलंचन्द्र के बाद उसके वंश के शासकों का कोई विवरण नहीं मिलता।


महमूद ने मथुरा की बहुत बरबादी की इसकी चर्चा अन्य मुसलमान लेखकों ने भी की है। इनमें बदायूँनी तथा फरिश्ता के विवरण उल्लेखनीय है। बदायूँनी ने लिखा है - "मथुरा काफिरों के पूजा की जगह है। यहाँ वसुदेव के लड़के कृष्ण पैदा हुए। यहाँ असंख्य देव-मंदिर है। सुलतान (महमूद ग़ज़नवी) ने मथुरा को फ़तह किया और उसे बरबाद कर डाला। मुसलमानों के हाथ बड़ी दौलत लगी। सुलतान की आज्ञा से उन्होंने एक देवमूर्ति को तोड़ा, जिसका वज़न 98,300 मिश्कल<balloon title="एक मिश्कल तोल में 96 जौ की तोल के बराबर होता है।" style="color:blue">*</balloon> खरा सोना था। एक बेशकीमती पत्थर मिला, जो तोल में 450 मिश्कल था। इन सबके अतिरिक्त एक बड़ा हाथी मिला, जो पहाड़ के मानिंद था। यह हाथी राजा गोविदंचंद का था।"[२]

महमूद के समय के लेखक और उनके ग्रंथ

महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों को जिन लेखकों ने अपनी आँखों से देखकर लिपिबद्ध किया, उनमें 'महमूद अलउत्वी, बुरिहाँ, अलबरूनी और इस्लाम वैराकी' प्रमुख हैं। उनके लिखे हुए विवरण भी उपलब्ध होते है।

1 महमूद अलउत्वी
यह महमूद ग़ज़नवी का मीर मुंशी था, हालाँकि आक्रमणों में वह साथ में नहीं था। उसने सुबुक्तगीन तथा महमूद के शासन-काल का सं. 1077 तक का इतिहास अरबी भाषा में अपने किताब "उल-यमीनी" में लिखा है। इस किताब में महमूद के सं. 1077 तक के आक्रमणों का विस्तृत वर्णन मिलता है। उसका विवरण पक्षपात पूर्ण है। उसने भारतीयों की दुर्बलता और विदेशी मुसलमान आक्रमणकारियों की वीरता का अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण किया है।

2 अलबेरूनी

महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के थोड़े समय बाद अलबेरूनी नामक प्रसिद्ध मुस्लिम लेखक भारत आया। अलबेरूनी महमूद के दरबार में रहा था। उसने यहाँ आकर संस्कृत में योग्यता प्राप्त की। भारत में कुछ दिन रहने के बाद अलबेरूनी ने 1030 ई. में 'किताबुलहिंद' नाम की एक बड़ी किताब लिखी जो भारत के विषय में थी। इस पुस्तक में उसने भारतीय इतिहास, साहित्य, दर्शन, ज्योतिष आदि विषय और यहाँ के नागरिकों का विस्तृत विवरण किया है। अलबेरूनी ने 'वायु पुराण', 'वृहत्संहिता' आदि पुस्तकों के आधार पर शूरसेन तथा मथुरा का भी विवरण किया।<balloon title="ई 0 सी 0 साचौ -अलबेरुनीज़ इंडिया (लंदन, 1914),जि 1,पृ. 300, 308" style="color:blue">*</balloon> अलबेरूनी ने लिखा है कि 'मथुरा नगर यमुना-तट पर बसा है।' भगवान वासुदेव (कृष्ण) के मथुरा में जन्म और उनके चरित्र का वर्णन अलबेरूनी ने विस्तार से किया है।<balloon title="साचौ - वही, पृ. 401 - 405/" style="color:blue">*</balloon> परंतु उसमें कई बातें भ्रामक लगती हैं। अपनी पुस्तक में अलबेरूनी ने मथुरा में व्यवह्र्त संवत का भी विवरण किया है। अलबेरूनी के अनुसार मथुरा और कन्नौज के राज्यों में श्रीहर्ष का संवत् चलता था।<balloon title="वही, जिल्द 2,पृ. 5।" style="color:blue">*</balloon>


मुस्लिम लेखकों में अलबेरूनी का विवरण प्रायः पक्षपात रहित है। वह भारतीय दर्शन ज्योतिष, इतिहास, आदि का उत्कृष्ट विद्वान और धीर गम्भीर प्रकृति का लेखक था। उसका जन्म एक छोटे से राज्य ख्यादिम में 4 सितंबर सन् 973 में हुआ था। वह महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों में उसके साथ रहा था, किंतु उसको लूट-मार से कोई मतलब नहीं था। वह भारतीयों से निकट संबंध स्थापित कर उनकी भाषा, संस्कृति, धर्मोपासना एवं विद्या-कलाओं की जानकारी प्राप्त करने में लगा रहता था। उसकी सीखने की क्षमता ग़ज़ब की थी। थोड़ी ही कोशिश में बहुत सीखने की उसमें अद्भुत प्रतिभा थी। भारतीय संस्कृति और धर्म-दर्शन का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसने संस्कृत एवं प्राकृत भाषाएँ सीखी थीं, और उनके ग्रंथो का अध्ययन किया था। उसने अनेक भारतीय ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद भी किया।

3 इमाम वैराकी
उसका पूरा नाम इमाम, अबुल फ़ज़ल वैराकी था। वह महमूद ग़ज़नवी के दरबार में हाकिम था। उसने जो ग्रंथ लिखा, उसका नाम "तारीख़-ए-अरब ए सुबुक्तगीन" अर्थात सुबुक्तगीन वंश का इतिहास। इसमें सुबुक्तगीन और उसके पुत्र-पौत्र महमूद ग़ज़नवी एवं उसके शासन-काल की घटनाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें प्रासंगिक रूप से महमूद के भारतीय आक्रमणों का भी कुछ विवरण लिखा गया है, जो उल्लेखनीय ईमानदारी का प्रमाण है। ग्रंथ तीन भागों में है। किंतु इस समय उसका केवल तीसरा भाग ही उपलब्ध है। आरंभ के दो भाग नष्ट हो गये। उपलब्ध भाग फ़ारसी भाषा में है।


अपने अंतिम काल में महमूद ग़ज़नवी असाध्य रोगों से पीड़ित होकर असह्य कष्ट पाता रहा था। अपने दुष्कर्मों को याद कर उसे घोर मानसिक क्लेश था। वह शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से ग्रसित था। उसकी मृत्यु सं. 1087 (सन् 1030 , अप्रैल 30) में हुई थी।

परवर्ती राजपूत राज्य और उनके राजा

महमूद के आक्रमण के समय में यह देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। इन राज्यों के राजा राज्य के विस्तार के लिए आपस में युद्ध किया करते थे। मथुरा के चारों ओर भी ऐसे ही राज्य थे। इसके उत्तर में हरियाणा के तोमर राजाओं ने पांडव कालीन इन्द्रप्रस्थ के स्थान पर दिल्ली बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया था। पश्चिम में चाहमान (चौहान) का प्रभुत्व था, जिनकी राजधानी अजमेर थी। दक्षिण में कछवाहे और चंदेल राजाओं के राज्य थे, जिनकी राजधानी क्रमश: ग्वालियर तथा खजुराहो और महोबा थी। पूर्व में गाहड़वाल वंशीय राजाओं का अधिकार था, जिनकी राजधानी कन्नौज थी। सुदूर पूर्व में पाल और बाद में सेन वंशीय राजाओं का अधिकार क्षेत्र था, ये सभी राज्य एक दूसरे से शत्रुता रखते थे और आपस में युद्ध करते हुए अपनी शक्ति का ह्रास किया करते थे। तौमर और चाहमान, चंदेल और गाहड़वाल तथा गाहड़वाल और सेन राजाओं के बीच उस काल में निरंतर युद्ध हुए, उनसे इतिहास के पन्ने रंग हुए है।

पृथ्वीराज(1168-1192 CE)

उसे 'राय पिथौरा' भी कहा जाता है। वह चौहान राजवंश का अत्यंत प्रसिद्ध राजा था। वह तोमर वंश के राजा अनंगपाल का दौहित्र (बेटी का बेटा) था और उसके बाद दिल्ली का राजा हुआ। उसके अधिकार में दिल्ली से लेकर अजमेर तक का विस्तृत भूभाग था। पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया। उससे पहले तोमर नरेश ने एक गढ़ के निर्माण का शुभारंभ किया था, जिसे पृथ्वीराज ने विशाल रूप देकर पूरा किया। वह उसके नाम पर पिथौरागढ़ कहलाता है, और दिल्ली के पुराने किले के नाम से जीर्णावस्था में विद्यमान है। कन्नौज का राजा जयचंद्र पृथ्वीराज की वृद्धि के कारण उससे ईर्ष्या करने लगा था। वह उसका विद्वेषी हो गया था। पृथ्वीराज ने अपने समय के विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद ग़ोरी को कई बार पराजित किया। अंत में अपने प्रमाद और जयंचद्र के द्वेष के कारण वह पराजित हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसका मृत्यु काल सं. 1248 माना जाता है। उसके पश्चात मुहम्मद ग़ोरी ने कन्नौज नरेश जयचंद्र को भी हराया और मार डाला। आपसी द्वेष के कारण उन दोनों की हार और मृत्यु हुई। पृथ्वीराज से संबंधित घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन चंदबरदाई कृत "पृथ्वीराज रासो" नामक ग्रंथ में हुआ है।

मुहम्मद ग़ोरी (1162-1206)

जिस समय मथुरा मंडल के उत्तर-पश्चिम में पृथ्वीराज और दक्षिण-पूर्व में जयचंद्र जैसे महान नरेशों के शक्तिशाली राज्य थे, उस समय भारत के पश्चिम उत्तर के सीमांत पर शाहबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी नामक एक मुसलमान सरदार ने महमूद ग़ज़नवी के वंशजों से राज्याधिकार छीन कर एक नये इस्लामी राज्य की स्थापना की थी। मुहम्मद ग़ोरी बड़ा महत्वाकांक्षी और साहसी था। वह महमूद गज़नबी की भाँति भारत पर आक्रमण करने का इच्छुक था, किंतु उसका उद्देश्य गज़नबी से अलग था। वह लूटमार के साथ ही साथ इस देश में मुस्लिम राज्य भी स्थापित करना चाहता था। उस काल में पश्चिमी पंजाब तक और दूसरी ओर मुल्तान एवं सिंध तक मुसलमानों का अधिकार था, जिसके अधिकांश भाग पर महमूद के वंशज गज़नबी सरदार शासन करते थे। मुहम्मद ग़ोरी को भारत के आंतरिक भाग तक पहुँचने के लिए पहले उन मुसलमान शासकों से और फिर वहाँ के वीर राजपूतों से युद्ध करना था, अतः वह पूरी तैयारी के साथ भारत पर आक्रमण करने का आयोजन करने लगा।

ग़ोरी का आक्रमण
मुहम्मद ग़ोरी ने अपना पहला आक्रमण 1191 में मुल्तान पर किया था, जिसमें वहाँ के मुसलमान शासक को पराजित होना पड़ा। उससे उत्साहित होकर उसने अपना दूसरा आक्रमण 1192 में गुजरात के बघेल राजा भीम द्वितीय की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर किया, किंतु राजपूत वीरों की प्रबल मार से वह पराजित हो गया। इस प्रकार भारत के हिंदू राजाओं की ओर मुँह उठाते ही उसे आंरभ में ही चोट खानी पड़ी थी। किंतु वह महत्वाकांक्षी मुसलमान आक्रांता उस पराजय से हतोत्साहित नहीं हुआ। उसने अपने अभियान का मार्ग बदल दिया। वह पेशावर और पंजाब होकर भारत-विजय का आयोजन करने लगा। उस काल में पेशावर और पंजाब के शासक महमूद के जो वंशज थे, वे शक्तिहीन हो गये थे, अतः उन्हें पराजित करना ग़ोरी को सरल ज्ञात हुआ। फलतः सं. 1226 में पेशावर पर आक्रमण कर वहाँ के ग़ज़नवी शासक को परास्त किया। उसके बाद उसने पंजाब के अधिकांश भाग को ग़ज़नवी के वंशजों से छीन लिया और वहाँ पर अपनी सृदृढ़ क़िलेबंदी कर भारत के हिंदू राजाओं पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा।

पृथ्वीराज की मृत्यु

मुहम्मद ग़ोरी उस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए तैयारी करने लगा। अगले वर्ष वह 1 लाख 20 हज़ार चुने हुए अश्वारोहियों की विशाल सेना लेकर फिर तराइन के मैदान में आ डटा। उधर पृथ्वीराज ने भी उससे मोर्चा लेने के लिए कई राजपूत राजाओं को आमन्त्रित किया था। कुछ राजाओं ने तो अपनी सेनाएँ भेज दी; किंतु उस समय का गाहड़वाल वंशीय कन्नौज नरेश जयचंद्र उससे तटस्थ ही रहा। किवदंती है कि पृथ्वीराज से विद्वेष रखने के कारण जयचंद्र ने ही मुहम्मद ग़ोरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया था। इस किंवदंती की सत्यता का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है; अतः जयचंद्र पर देशद्रोह का दोषारोपण भी अप्रमाणिक ज्ञात होता है। उसमें केवल इतनी ही सत्यता है कि उसने उस अवसर पर पृथ्वीराज की सहायता नहीं की थी। पृथ्वीराज के राजपूत योद्धाओं ने उस बार भी ग़ोरी की सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था; किंतु देश के दुर्भाग्य से उन्हें पराजित होना पड़ा।

इस प्रकार सं. 1248 के उस युद्ध में मुहम्मद ग़ोरी की विजय और पृथ्वीराज की पराजय हुई थी। उस काल में यहाँ के राजा-प्रजा की जैसी मानसिक अवस्था थी, वही वास्तव में मुसलमानों की विजय और हिंदूओं की पराजय का कारण हुई थी। यह सब होते हुए भी यदि उस काल के राजागण तनिक भी बुद्धि से काम लेकर आपस में लड़ने के बजाय देश के सामान्य शत्रु से मोर्चा लेते, तो वे विदेशी आक्रमणकारियों से कदापि पराजित नहीं होते। फलतः भारत भूमि को भी पराधीनता के बंधन में न बँधना पड़ता। कम से कम उस काल के दो वीर राजा पृथ्वीराज और जयचंद्र में ही यदि विद्वेष न होता और वे दोनों ही मिल कर शत्रु से युद्ध करते, तब भी आक्रमणकारियों की पराजय निश्चित थी। किंतु देश के दुर्भाग्य से वैसा नहीं हुआ और भारत भूमि पर मुसलमानों का राज्य स्थापित हो गया। उसका शिलान्यास जयचंद्र की पराजय वाले जिस युद्ध-स्थल में हुआ था, वह फीरोजाबाद के निकटवर्ती चंदवार ग्राम मथुरामंडल का ही एक स्थान है। इसे दैव की विडंबना ही कहा जावेगा कि इस पावन प्रदेश में ही भारत माता को विदेशियों की पराधीनता में बँधना पड़ा था।

आल्हाखण्ड' और महोबा का युद्ध

'आल्हाखण्ड' एक लोक काव्य है, जिसका रचयिता जगनिक या जगनायक नामक कोई भाट कवि माना जाता है। इस ग्रंथ में पृथ्वीराज और महोबा के विख्यात योद्धा आल्हा-ऊदल के युद्धों का अत्यंत वीरतापूर्ण वर्णन हुआ है। पृथ्वीराज ने अपनी वीरता के प्रदर्शन और राज्य विस्तार के लिए अपने समकालीन कई राजाओं से अनेक युद्ध किये थे। उनमें महोबा के युद्ध ने लोक-गाथाओं में अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की है। उसी का वर्णन 'आल्हाखंड' में किया गया है, किंतु इसमें वर्णित घटनाओं का ऐतिहासिक मूल्य नगण्य है। आल्हाखंड से ज्ञात होता है पृथ्वीराज के समय महोबा का चंदेल राजा परमाल था,वह इतिहास में परमर्दिदेव के नाम से प्रसिद्ध हैं। परमाल स्वयं तो कोई बड़ा वीर नहीं था, किंतु उसके सामंत आल्हा-ऊदल के कारण उसकी शक्ति बहुत बढ़ी हुई थी। आल्हा-ऊदल दोनो भाई थे। आल्हा के पुत्र का नाम इंदल था। वे तीनों वीर योद्धा 'बनाफर' जाति के राजपूत थे। आल्हा का एक मौसेरा भाई मलखान था, जो चंदेल राजा की ओर से सिरसा का शासक था। वह भी प्रबल वीर था। उन सबने परमाल की तरफ से पृथ्वीराज से युद्ध किया था। परमाल की सैन्य शक्ति पृथ्वीराज की अपेक्षा बहुत कम थीं , किंतु अपने उन महावीर योद्धाओं के कारण उसने पृथ्वीराज से कड़ा संघर्ष किया था। 'आल्हाखंड' में आल्हा-ऊदल की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण कथन किया गया है। उसमें कई अवसर पर पृथ्वीराज की हार बतलाई गई है, जो कल्पना मात्र है। महोबा के युद्ध में पृथ्वीराज के अनेक वीर सेनानायक मारे गये थे, किंतु परिणाम में उसकी जीत और परमाल की हार हुई थी। आल्हा-ऊदल भी संभवतः उसी युद्ध में वीर-गति को प्राप्त हुए थे। वह युद्ध सं. 1239 के लगभग हुआ था।

पृथ्वीराज रासो' और 'आल्हाखण्ड' की तुलना

ये दोनों ही ऐतिहासिक काव्य कहे जाते हैं, किंतु दोनों ही घटनाएँ इतिहास द्वारा प्रमाणिक सिद्ध नहीं होती है। 'पृथ्वीराज रासो' में पृथ्वीराज की और 'आल्हाखण्ड' में आल्हा-ऊदल की वीरता का अतिरंजित और अतिशयोक्तिपूर्ण कथन किया गया है। 'पृथ्वीराज रासो' का रचयिता चंदवरदाई और 'आल्हाखंड' का रचयिता जगनिक दोनों ही भाट थे। उन दोनों की रचनाएँ ही मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं। जो रचनाएँ इस समय मिलती हैं , दोनों ही रचनाएँ लोक काव्य की श्रेणी की हैं और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में बड़ी लोकप्रिय रहीं हैं। जहाँ तक लोकप्रियता और प्रसिद्धि का प्रश्न है, 'आल्हाखण्ड' का स्थान 'पृथ्वीराज रासो' से कहीं ऊँचा है, किंतु काव्योत्कर्ष की दृष्टि से उसकी रासों से कोई तुलना नहीं है।

मथुरा के स्थान पर 'ब्रज'

महमूद ग़ज़नवी द्वारा मथुरा के शासक कुलचंद्र की पराजय होने के उपरांत मथुरा राज्य का गौरव और उसका राजनैतिक महत्व समाप्त सा हो गया था। उसके पश्चात जब मुहम्मद ग़ोरी ने इस भू भाग पर अधिकार कर लिया, तब इसका रहा-सहा राजनैतिक गौरव भी जाता रहा था। उस काल में मथुरा राज्य जैसी किसी राजनैतिक ईकाई का न तो कोई अस्तिस्व शेष था, और न उसकी कोई सार्थकता ही थी। फलतः मथुरा मंडल के जिस धार्मिक स्वरूप का निर्माण किया था, वह 'ब्रजमंडल' अथवा 'ब्रजप्रदेश' कहा जाने लगा। उस समय से इस पुण्यस्थल का इन्हीं नामों से प्रचलन रहा है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परन्तु उत्वी ने लिखा है कि सुलतान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर धराशायी कर दिया जाय। फरिश्ता का कथन ठीक मालूम पड़ता है।
  2. जी रैंकिंग -मुंतखबुत्तवारीख ऑफ अल-बदायूँनी (कलकत्ता, 1845 )। जिल्द 1,पृ. 24-25। यह राजा गोविंदचंद्र कौन था, यह बताना कठिन है। निस्संदेह कनौज के गाहड़वाल राजा गोविंदचंद्र से यह भिन्न था।

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