मध्य काल (2)

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इतिहास

मध्य काल : मध्य काल (2)


विदेशी मुसलमानों का सिंध पर आक्रमण

सबसे पहले विदेशी मुसलमानों ने भारत के सिंध राज्य पर कब्ज़ा किया । सिंध-पश्चिमी सीमांत का ऐसा भू-भाग था, जो राजस्थान के विस्तृत मरूस्थल के कारण देश के अन्य भागों से कटा हुआ था । वहाँ की जनसंख्या भी कम थी । जिस समय सिंध पर हमला किया, उस समय वहाँ का शासक 'दाहर' नाम का एक हिन्दू राजा था । उसने अपने सीमित साधनों से आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया और कई बार उन्हें पराजित भी किया किन्तु अंततः उसे हार जाना पड़ा । इसका एक बड़ा कारण यह था कि पराजित मुसलमानों को अपनी शक्ति बढ़ाने की सुविधा थी, जब कि दाहर को मरूस्थल के कारण वह सुविधा नहीं थी । फलतः सिंध राज्य पर मुसलमानों का अधिकार हो गया । उन्होंने वहाँ खूब मार-काट मचाई, और वहाँ के निवासियों की धन-संपत्ति का लूटा तथा उन्हें गुलाम बनाया । जब उन्होंने उन्हें मुसलमान बनाने की चेष्टा की, किन्तु उसमें उन्हें पर्याप्त सफलता नहीं मिली । इस प्रकार भारत का सिंध राज्य मुसलमानों के आक्रमण का प्रथम शिकार हुआ था । सिंध के साथ मुल्तान पर भी आक्रमणकारियों ने अधिकार कर लिया । सिंध का पराजित राजा दाहर कन्नौज के राजा यशोवर्मन का समकालीन था, जो विक्रम की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान था । सिंध के बाद विदेशी मुसलमानों ने भारत में आगे बढ़ने की बहुत चेष्टा की, किंतु राजस्थान के गुर्जर-प्रतिहार राजाओं ने उनके आक्रमण को विफल कर दिया । सिंध और मुलतान पर अरबी मुसलमानों का शासन लगभग 150 वर्ष तक रहा, किंतु वे चेष्टा करने पर भी देश के किसी अन्य भाग पर अधिकार नहीं कर सके । अंत में भारत का यह भाग भी अरबों की पराधीनता से मुक्त हो गया था । वे इस ओर से उदासीन होकर आपस में ही लड़ते-झगड़ते रहे थे ।

पश्चिमोत्तर सीमांत से आक्रमण

पश्चिमी सीमा को अभेद्य जानकर मुसलमानों ने पश्चिमोत्तर सीमांत से आक्रमण किया । आक्रमण करने वाले तुर्क जाति के लोग थे, जो कुछ समय पहले मुसलमान हो गये थे । उनके एक नेता 'सुबुक्तगीन' ने अफगानिस्तान के गजनी नगर पर अधिकार किया और भारत पर आक्रमण करने का प्रयास करने लगा, किंतु वहाँ के हिंदू शाही राजाओं ने उसे सफल नहीं होने दिया ।

हिंदु शाही शासकों की वंश-परंपरा और संघर्ष

मुसलमानों के आंरभिक आक्रमणों को रोकने में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा के हिंदू शाही राजाओं ने बहुत संघर्ष किया । उनके राज्य की सीमाएँ चिनाब नदी से हिंदूकुश पर्वत तक थीं । जब से मुसलमानों ने सिंध राज्य पर आक्रमण किया, तब से महमूद गज़नवी के काल तक हिन्दू शाही राजा ही मुसलमान आक्रमणकारियों का सामना करते रहे । उन्होंने लगभग तीन सौ वर्ष तक मुसलमानों को भारत में प्रवेश नहीं करने दिया । राजस्थान के जैसलमेर राज्य के भाटी राजाओं की वंश-परंपरा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वे श्री कृष्ण की वंश-परंपरा में उन यादवों के वंशज थे, जो शूरसेन राज्य से इधर आ बसे थे । उसी प्रसंग में यह भी बतलाया गया है कि उनमें से बहुत से यदुवंशी भारत के पश्चिमोत्तर भाग में जाकर बस गये थे, और उन्होंने अपने राज्य कायम किये थे । श्रीकृष्ण की 12वीं पीढ़ी में गज नामक एक राजा हुआ था, जिसने खैबर घाटी के पार एक किला बनवाया था, जो उसके नाम से गजनी कहलाता है । राजा गज की नवीं पीढ़ी में राजा मर्यादपति हुआ, जिसने गजनी से लेकर पंजाब तक शासन किया था । वहाँ रहने वाले चगताई, बलोच और पठान उन्हीं यदुवंशियों की संतान है । सम्भावना है कि हिन्दु शाही राजा भी उन यदुवंशियों की परंपरा में ही होंगे । गजनी के मुसलमान शासक सुबुक्तगीन के समय में हिंदू शाही वंश के राजा जयपाल का शासन था। उसका सुबुक्तगीन से कई बार संघर्ष हुआ । सुबुक्तगीन का पुत्र महमूद जब गजनी का शासक हुआ, तब उसने एक विशाल सेना के साथ जयपाल पर आक्रमण किया और उसे पराजित किया । जिससे हिन्दू शाही राजाओं का राज्य लगभग समाप्त हो गया और तुर्क आक्रमणकारियों ने भारत में प्रवेश किया । डा. आशीर्वादीलाल लिखते हैं कि 'हिंदू शाही राज्य एक बाँध की भाँति तुर्की आक्रमणों की बाढ़ को रोके हुए था । उसके टूट जाने से समस्त उत्तरी भारत मुसलमानों आक्रमणों की बाढ़ में डूब गया ।' महमूद गज़नबी पहला मुसलमान आक्रमणकारी था, जिसने भारत के आंतरिक भागों में भी जा कर भीषण लूट-मार की ।

महमूद ग़ज़नवी

यह यमीनी वंश का तुर्क सरदार गजनी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था । उसका जन्म सं. 1028 वि. (ई0 971) में हुआ, 27 वर्ष की आयु में सं. 1055 (ई0 998) में वह शासनाध्यक्ष बना था । महमूद बचपन से भारतवर्ष की अपार समृद्धि और धन-दौलत के विषय में सुनता रहा था । उसके पिता ने एक बार हिंदू शाही राजा जयपाल के राज्य को लूट कर प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त की थी, महमूद भारत की दौलत को लूट कर मालामाल होने के स्वप्न देखा करता था । उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया और यहाँ की अपार सम्पत्ति को वह लूट कर गजनी ले गया था । उसके आक्रमण और लूटमार के काले कारनामों से तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों के पन्ने भरे हुए है । महमूद गजनबी के आक्रमण - महमूद ने पहला आक्रमण हिन्दू शाही राजा जयपाल के विरूद्ध सं. 1058 (29 नबंवर सन् 1001) में किया। उन दोनों में भीषण युद्ध हुआ, परन्तु महमूद की जोशीली और बड़ी सेना ने जयपाल को हरा दिया । इस अपमान से व्यथित होकर वह जीते जी चिता पर बैठ गया और उसने अपने जीवन का अंत कर दिया । जयपाल के पुत्र आनंदपाल और उसके वंशज त्रिलोचन पाल तथा भीमपाल ने कई बार महमूद से युद्ध किया । पर हर बार उन्हें पराजय मिली । सं. 1071 में हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो गया । हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो जाने पर महमूद को खुला मार्ग मिल गया और बाद के आक्रमणों में उसने मुल्तान, लाहौर, नगरकोट और थानेश्वर तक के विशाल भू-भाग में उसने खूब मार-काट की तथा भारतीयों को जबर्दस्ती मुसलमान बनाया । उसका नवाँ (कुछ लेखकों के मतानुसार बारहवाँ) आक्रमण सं. 1074 में कन्नौज के विरूद्ध हुआ था । उसी समय उसने मथुरा पर भी आक्रमण किया और उसे बुरी तरह लूटा ।

महमूद की लूट और महावन का युद्ध

ग्यारहवीं शती के आरम्भ में उत्तर -पश्चिम की ओर से मुसलमानों के धावे भारत की ओर होने लगे । गजनी का मूर्तिभंजक सुल्तान महमूद ने सत्रह बार भारत पर चढ़ाई की । उसका उद्देश्य लूटपाट करके गजनी लौटना होता था। अपने नवें आक्रमण का निशाना उसने मथुरा को बनाया । उसका वह आक्रमण 1017 ई0 में हुआ । महमूद के मीरमुंशी 'अल-उत्वी' ने अपनी पुस्तक 'तारीखे यामिनी' में इस आक्रमण का वर्णन किया है, जिससे निम्नलिखित बातें ज्ञात होती है । मथुरा को लूटने से पहले महमूद गज़नबी को यहाँ एक भीषण युद्ध करना पड़ा । यह युद्ध मथुरा के समीप महावन में वहाँ के शासक कुलचंद्र के साथ हुआ । महमूद के मीरमुंशी अलउत्वी ने उसका वर्णन अपने ग्रंथ 'तारीखे यमीन' में किया है । उसने लिखा है – "कुलचंद का दुर्ग महावन में था । उसको अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था । क्योंकि तब तक कोई भी शत्रु उससे पराजित हुए बिना नहीं रहा था । वह विस्तृत राज्य, अपार वैभव, असंख्य वीरों की सेना, विशाल हाथी और सुदृढ़ दुर्गों का स्वामी था, जिनकी ओर किसी को आँख उठा कर देखने का भी साहस नहीं होता था । जब उसे ज्ञात हुआ कि महमूद उस पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है, तब वह अपने सैनिक और हाथियों के साथ उनका मुकाबला करने को तैयार हो गया । अत्यंत वीरता पूर्वक युद्ध करने पर भी जब महमूद के आक्रमण को विफल नहीं कर पाया, तब उसके सैनिक किले से निकल कर भागने लगे, जिससे वे यमुना नदी को पार कर अपनी जान बचा सकें । इस प्रकार लगभग 50,000 (पचास हजार)सैनिक उस युद्ध में मारे गये या नदी में डूब गये, तब कुलचंद्र ने हताश होकर पहले अपनी रानी और फिर स्वयं को भी तलवार से समाप्त कर दिया । उस अभियान में महमूद को लूट के अन्य सामान के अतिरिक्त 185 सुंदर हाथी भी प्राप्त हुए थे ।"


फरिश्ता ने भी उस युद्ध का उत्वी से मिलता जुलता वर्णन इस प्रकार किया है -"मेरठ आकर सुलतान ने महावन के दुर्ग पर आक्रमण किया था । महावन के शासक कुलचंद्र से उसका सामना हुआ । उस युद्ध में अधिकांश हिन्दू सैनिक यमुना नदी में धकेल दिये गये थे । राजा ने निराश होकर अपने स्त्री-बच्चों का स्वंय वध किया और फिर अपना भी काम तमाम कर डाला । दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार हो गया । महावन की लूट में उसे प्रचुर धन-सम्पत्ति तथा 80 हाथी मिले थे ।" इन लेखकों ने महमूद गज़नबी के साथ भीषण युद्ध करने वाले योद्धा कुलचंद्र के व्यक्तित्व पर कुछ भी प्रकाश नहीं डाला है । इसके बाद सुलतान महमूद की फौज मथुरा पहुँची । यहाँ का वर्णन करते हुए उत्वी लिखता है- "इस शहर में सुलतान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बता कर देवताओं की कृति बताई । नगर का परकोटा पत्थर का बना हुआ था, उसमें नदी के ओर ऊँचे तथा मजबूत आधार-स्तंभों पर बने हुए दो दरवाजे स्थित है । शहर के दोनों ओर हजारों मकान बने हुए थे जिनमे लगे हुए देवमंदिर थे । ये सब पत्थर के बने थे, और लोहे की छड़ों द्वारा मजबूत कर दिये गये थे । उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी । शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है । सुलतान महसूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न खर्च करने पड़ेगें और उस निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये ।' सुलतान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें धराशायी कर दिया जाय । बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही । इस लूट में महसूद के हाथ खालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखें बहुमूल्य मणिक्यों से जड़ी हुई थी । इनका मूल्य पचास हजार दीनार था । केवल एक सोने की मूर्ति का ही वजन चौदह मन था । इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर गजनी ले जाया गया ।" [१]

ग़ज़नबी के अन्य आक्रमण

महमूद जब कन्नौज पर आक्रमण करने के लिए आया था, तभी उसने मथुरा को भी लूटा था । वह पहले कन्नौज गया या मथुरा आया, इस बारे में विभिन्न मत मिलते है । अधिकाँश इतिहासकारों का मानना है कि महमूद बुलंदशहर-मेरठ के राजा हरिदत्त को पराजित कर मथुरा आया था । उसने बिना लड़े ही महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली थी । मथुरा में महमूद को लूट का इतना अधिक माल मिला कि उससे लदे हुए जानवरों की लंबी कतार को लेकर कन्नौज जाना संभव नहीं था । उसने एक ही आक्रमण में मथुरा और कन्नौज दोनों नगरों को बर्बाद कर दिया था ।

सोमनाथ के मंदिर का ध्वंस

देश की पश्चिमी सीमा पर प्राचीन कुशस्थली और वर्तमान सौराष्ट्र ( गुजरात) के कठियावाड़ में सागर तट पर सोमनाथ महादेव का प्राचीन मंदिर है । स्कंद पुराण में उल्लेख है – "वैदिक सरस्वती वहाँ सागर में मिलती है, जहाँ सोमेश्वर का मंदिर है, उस पवित्र स्थल के दर्शन करने से अत्यंत पुण्य प्राप्त होता है । वे सोमेश्वर ही सोमनाथ है, जिनका मंदिर काठियावाड के वर्तमान जूनागढ़ राज्य में है ।"

महमूद के समय के लेखक और उनके ग्रंथ

महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों को जिन लेखकों ने अपनी आँखों से देखकर लिपिबद्ध किया, उनमें 'महमूद अलउत्वी, बुरिहाँ, अलबरूनी और इस्लाम वैराकी' प्रमुख हैं । उनके लिखे हुए विवरण भी उपलब्ध होते है ।

  1. महमूद अलउत्वी– यह महमूद ग़ज़नवी का मीर मुंशी था, हालाँकि आक्रमणों में वह साथ में नहीं था । उसने सुबुक्तगीन तथा महमूद के शासन-काल का सं. 1077 तक का इतिहास अरबी भाषा में अपने किताब "उल-यमीनी" में लिखा है । इस किताब में महमूद के सं. 1077 तक के आक्रमणों का विस्तृत वर्णन मिलता है । उसका विवरण पक्षपात पूर्ण है । उसने भारतीयों की दुर्बलता और विदेशी मुसलमान आक्रमणकारियों की वीरता का अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण किया है ।
  2. अलबेरूनी – मुस्लिम लेखकों में अलवेरूनी का विवरण प्रायः पक्षपात रहित है । वह भारतीय दर्शन ज्योतिष, इतिहास, आदि का उत्कृष्ट विद्वान और धीर गम्भीर प्रकृति का लेखक था । उसका जन्म एक छोटे से राज्य ख्यादिम में 4 सितंबर सन् 973 में हुआ था । वह महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों में उसके साथ रहा था, किंतु उसको लूट-मार से कोई मतलब नहीं था । वह भारतीयों से निकट संबंध स्थापित कर उनकी भाषा, संस्कृति, धर्मोपासना एवं विद्या-कलाओं की जानकारी प्राप्त करने में लगा रहता था । उसकी सीखने की क्षमता ग़ज़ब की थी । थोड़ी ही कोशिश में बहुत सीखने की उसमें अद्भुत प्रतिभा थी । भारतीय संस्कृति और धर्म-दर्शन का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसने संस्कृत एवं प्राकृत भाषाएँ सीखी थीं, और उनके ग्रंथो का अध्ययन किया था । उसने अनेक भारतीय ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद भी किया ।
  3. इमाम वैराकी – उसका पूरा नाम इमाम, अबुल फ़ज़ल वैराकी था । वह महमूद ग़ज़नवी के दरबार में हाकिम था । उसने जो ग्रंथ लिखा, उसका नाम "तारीख़-ए-अरब ए सुबुक्तगीन" अर्थात सुबुक्तगीन वंश का इतिहास । इसमें सुबुक्तगीन और उसके पुत्र-पौत्र महमूद ग़ज़नवी एवं उसके शासन-काल की घटनाओं पर प्रकाश डाला गया है । इसमें प्रासंगिक रूप से महमूद के भारतीय आक्रमणों का भी कुछ विवरण लिखा गया है, जो उल्लेखनीय ईमानदारी का प्रमाण है । ग्रंथ तीन भागों में है । किंतु इस समय उसका केवल तीसरा भाग ही उपलब्ध है । आरंभ के दो भाग नष्ट हो गये । उपलब्ध भाग फ़ारसी भाषा में है ।

ग़ज़नबी का अंतिमकाल

अपने अंतिम काल में महमूद गज़नबी असाध्य रोगों से पीड़ित होकर असह्य कष्ट पाता रहा था । अपने दुष्कर्मों को याद कर उसे घोर मानसिक क्लेश था। वह शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से ग्रसित था । उसकी मृत्यु सं. 1087 (सन् 1030 , अप्रैल 30) में हुई थी ।

परवर्ती राजपूत राज्य और उनके राजा

महमूद के आक्रमणके समय में यह देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था । इन राज्यों के राजा राज्य के विस्तार के लिए आपस में युद्ध किया करते थे । मथुरा के चारों ओर भी ऐसे ही राज्य थे । इसके उत्तर में हरियाणा के तोमर राजाओं ने पांडवकालीन इंद्रप्रथ के स्थान पर दिल्ली बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया था । पश्चिम में चाहमान (चौहान) का प्रभुत्व था, जिनकी राजधानी अजमेर थी । दक्षिण में कछवाहें और चंदेल राजाओं के राज्य थे, जिनकी राजधानी क्रमश: ग्वालियर तथा खजुराहो और महोबा थी । पूर्व में गाहड़वाल वंशीय राजाओं का अधिकार था, जिनकी राजधानी कन्नौज थी । सुदूर पूर्व में पाल और बाद में सेन वंशीय राजाओं का अधिकार क्षेत्र था, ये सभी राज्य एक दूसरे से शत्रुता रखते थे और आपस में युद्ध करते हुए अपनी शक्ति का हास किया करते थे । तौमर और चाहमान, चंदेल और गाहड़वाल तथा गाहड़वाल और सेन राजाओं के बीच उस काल में निरंतर युद्ध हुए, उनसे इतिहास के पन्ने रंग हुए है ।

पृथ्वीराज (1168-1192 CE)

उसे 'राय पिथौरा' भी कहा जाता है । वह चौहान राजवंश का अत्यंत प्रसिद्ध राजा था । वह तोमर वंश के राजा अनंग पाल का दौहित्र (बेटी का बेटा) था और उसके बाद दिल्ली का राजा हुआ । उसके अधिकार में दिल्ली से लेकर अजमेर तक का विस्तृत भूभाग था । पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया । उससे पहले तोमर नरेश ने एक गढ़ के निर्माण का शुभारंभ किया था, जिसे पृथ्वीराज ने विशाल रूप देकर पूरा किया । वह उसके नाम पर पिथौरागढ़ कहलाता है, और दिल्ली के पुराने किले के नाम से जीर्णावस्था में विद्यमान है । कन्नौज का राजा जयचंद्र पृथ्वीराज की वृद्धि के कारण उससे ईर्ष्या करने लगा था । वह उसका विद्वेषी हो गया था । पृथ्वीराज ने अपने समय के विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी को कई बार पराजित किया । अंत में अपने प्रमाद और जयंचद्र के द्वेष के कारण वह पराजित हो गया और उसकी मृत्यु हो गई । उसका मृत्यु काल सं. 1248 माना जाता है । उसके पश्चात् मुहम्मद गौरी ने कन्नौज नरेश जयचंद्र को भी हराया और मार डाला । आपसी द्वेष के कारण उन दोनों की हार और मृत्यु हुई । पृथ्वीराज से संबंधित घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन चंदबरदाई कृत "पृथ्वीराज रासों" नामक ग्रंथ में हुआ है ।

मुहम्मद गौरी (1162-1206)

जिस समय मथुरा मंडल के उत्तर-पश्चिम में पृथ्वीराज और दक्षिण-पूर्व में जयचंद्र जैसे महान नरेशों के शक्तिशाली राज्य थे, उस समय भारत के पश्चिम उत्तर के सीमांत पर शाहबुद्दीन मुहम्मद गौरी नामक एक मुसलमान सरदार ने महमूद गज़नवी के वंशजों से राज्याधिकार छीन कर एक नये इस्लामी राज्य की स्थापना की थी । मुहम्मद गौरी बड़ा महत्वाकांक्षी और साहसी था । वह महमूद गज़नबी की भाँति भारत पर आक्रमण करने का इच्छुक था, किंतु उसका उद्देश्य गज़नबी से अलग था । वह लूटमार के साथ ही साथ इस देश में मुस्लिम राज्य भी स्थापित करना चाहता था। उस काल में पश्चिमी पंजाब तक और दूसरी ओर मुल्तान एवं सिंध तक मुसलमानों का अधिकार था, जिसके अधिकांश भाग पर महमूद के वंशज गज़नबी सरदार शासन करते थे। मुहम्मद गौरी को भारत के आंतरिक भाग तक पहुँचने के लिए पहले उन मुसलमान शासकों से और फिर वहाँ के वीर राजपूतों से युद्ध करना था, अतः वह पूरी तैयारी के साथ भारत पर आक्रमण करने का आयोजन करने लगा ।

गौरी का आक्रमण

मुहम्मद गौरी ने अपना पहला आक्रमण 1191 में मुल्तान पर किया था, जिसमें वहाँ के मुसलमान शासक को पराजित होना पड़ा । उससे उत्साहित होकर उसने अपना दूसरा आक्रमण 1192 में गुजरात के बघेल राजा भीम द्वितीय की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर किया, किंतु राजपूत वीरों की प्रबल मार से वह पराजित हो गया । इस प्रकार भारत के हिंदु राजाओं की ओर मुँह उठाते ही उसे आंरभ में ही चोट खानी पड़ी थी । किंतु वह महत्वाकांक्षी मुसलमान आक्रांता उस पराजय से हतोत्साहित नहीं हुआ । उसने अपने अभियान का मार्ग बदल दिया । वह पेशावर और पंजाब होकर भारत-विजय का आयोजन करने लगा । उस काल में पेशावर और पंजाब के शासक महमूद के जो वंशज थे, वे शक्तिहीन हो गये थे, अतः उन्हें पराजित करना गौरी को सरल ज्ञात हुआ । फलतः सं. 1226 में पेशावर पर आक्रमण कर वहाँ के गज़नबी शासक को परास्त किया । उसके बाद उसने पंजाब के अधिकांश भाग को गज़नबी के वंशजों से छीन लिया और वहाँ पर अपनी सृदृढ़ किलेबंदी कर भारत के हिंदू राजाओं पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा। आल्हा कथा 'आल्हाखंड' और महोबा का युद्ध – 'आल्हाखंड' एक लोक काव्य है, जिसका रचयिता जगनिक या जगनायक नामक कोई भाट कवि माना जाता है । इस ग्रंथ में पृथ्वीराज और महोबा के विख्यात योद्धा आल्हा-ऊदल के युद्धों का अत्यंत वीरतापूर्ण वर्णन हुआ है । पृथ्वीराज ने अपनी वीरता के प्रदर्शन और राज्य विस्तार के लिए अपने समकालीन कई राजाओं से अनेक युद्ध किये थे । उनमें महोबा के युद्ध ने लोक-गाथाओं में अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की है । उसी का वर्णन 'आल्हाखंड' में किया गया है, किंतु इसमें वर्णित घटनाओं का ऐतिहासिक मूल्य नगण्य है । आल्हाखंड से ज्ञात होता है पृथ्वीराज के समय महोबा का चंदेल राजा परमाल था,वह इतिहास में परमर्दिदेव के नाम से प्रसिध्द हैं । परमाल स्वयं तो कोई बड़ा वीर नहीं था, किंतु उसके सामंत आल्हा-ऊदल के कारण उसकी शक्ति बहुत बढ़ी हुई थी । आल्हा-ऊदल दोनो भाई थे । आल्हा के पुत्र का नाम इंदल था । वे तीनों वीर योद्धा 'बनाफर' जाति के राजपूत थे । आल्हा का एक मौसेरा भाई मलखान था, जो चंदेल राजा की ओर से सिरसा का शासक था । वह भी प्रबल वीर था । उन सबने परमाल की तरफ से पृथ्वीराज से युद्ध किया था । परमाल की सैन्य शक्ति पृथ्वीराज की अपेक्षा बहुत कम थीं , किंतु अपने उन महावीर योद्धाओं के कारण उसने पृथ्वीराज से कड़ा संघर्ष किया था । 'आल्हाखंड' में आल्हा-ऊदल की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण कथन किया गया है । उसमें कई अवसर पर पृथ्वीराज की हार बतलाई गई है, जो कल्पना मात्र है । महोबा के युद्ध में पृथ्वीराज के अनेक वीर सेनानायक मारे गये थे, किंतु परिणाम में उसकी जीत और परमाल की हार हुई थी । आल्हा-ऊदल भी संभवतः उसी युद्ध में वीर-गति को प्राप्त हुए थे । वह युद्ध सं. 1239 के लगभग हुआ था ।


'पृथ्वीराज रासो' और 'आल्हाखंड' की तुलना – ये दोनों ही ऐतिहासिक काव्य कहे जाते हैं, किंतु दोनों ही घटनाएँ इतिहास द्वारा प्रमाणिक सिद्ध नहीं होती है । 'पृथ्वीराजरासो' में पृथ्वीराज की और 'आल्हाखंड' में आल्हा-ऊदल की वीरता का अतिरंजित और अतिशयोक्तिपूर्ण कथन किया गया है । 'पृथ्वीराज रासो' का रचयिता चंदवरदाई और 'आल्हाखंड' का रचयिता जगनिक दोनों ही भाट थे । उन दोनों की रचनाएँ ही मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं । जो रचनाएँ इस समय मिलती हैं , दोनों ही रचनाएँ लोक काव्य की श्रेणी की हैं और दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में बड़ी लोकप्रिय रहीं हैं । जहाँ तक लोकप्रियता और प्रसिद्धि का प्रश्न है, 'आल्हाखंड' का स्थान 'पृथ्वीराजरासो' से कहीं ऊँचा है, किंतु काव्योत्कर्ष की दृष्टि से उसकी रासो से कोई तुलना नहीं है । पृथ्वीराज की पराजय और मृत्यु : - मुहम्मद गौरी उस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए तैयारी करने लगा । अगले वर्ष वह 1 लाख 20 हजार चुने हुए अश्वारोहियों की विशाल सेना लेकर फिर तराइन के मैदान में आ डटा । उधर पृथ्वीराज ने भी उससे मोर्चा लेने के लिए कई राजपूत राजाओं को आमंत्रित किया था । कुछ राजाओं ने तो अपनी सेनाएँ भेज दी; किंतु उस समय का गाहड़वाल वंशीय कन्नौज नरेश जयचंद्र उससे तटस्थ ही रहा । किवदंती है कि पृथ्वीराज से विद्वेष रखने के कारण जयचंद्र ने ही मुहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था । इस किंवदंती की सत्यता का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है; अतः जयचंद्र पर देशद्रोह का दोषारोपण भी अप्रमाणिक ज्ञात होता है । उसमें केवल इतनी ही सत्यता है कि उसने उस अवसर पर पृथ्वीराज की सहायता नहीं की थी । पृथ्वीराज के राजपूत योद्धाओं ने उस बार भी मुसलमानी सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था; किंतु देश के दुर्भाग्य से उन्हें पराजित होना पड़ा । इस प्रकार सं. 1248 के उस युद्ध में मुहम्मद गौरी की विजय और पृथ्वीराज की पराजय हुई थी । उस काल में यहाँ के राजा-प्रजा की जैसी मानसिक अवस्था थी, वही वास्तव में मुसलमानों की विजय और हिंदूओं की पराजय का कारण हुई थी । यह सब होते हुए भी यदि उस काल के राजागण तनिक भी बुद्धि से काम लेकर आपस में लड़ने के बजाय देश के सामान्य शत्रु से मोर्चा लेते, तो वे विदेशी आक्रमणकारियों से कदापि पराजित नहीं होते । फलतः भारत भूमि को भी पराधीनता के बंधन में न बँधना पड़ता । कम से कम उस काल के दो वीर राजा पृथ्वीराज और जयचंद्र में ही यदि विद्वेष न होता और वे दोनों ही मिल कर शत्रु से युद्ध करते, तब भी आक्रमणकारियों की पराजय निश्चित थी । किंतु देश के दुर्भाग्य से वैसा नहीं हुआ और भारत भूमि पर मुसलमानों का राज्य स्थापित हो गया । उसका शिलान्यास जयचंद्र की पराजय वाले जिस युद्ध-स्थल में हुआ था, वह फीरोजाबाद के निकटवर्ती चंदवार ग्राम मथुरामंडल का ही एक स्थान है । इसे दैव की विडंबना ही कहा जावेगा कि इस पावन प्रदेश में ही भारत माता को विदेशियों की पराधीनता में बँधना पड़ा था । मथुरा राज्य के स्थान पर 'ब्रज' नाम – महमूद गज़नबी द्वारा मथुरा के शासक कुलचंद्र की पराजय होने के उपरांत मथुरा राज्य का गौरव और उसका राजनैतिक महत्व समाप्त सा हो गया था । उसके पश्चात जब मुहम्मद गौरी ने इस भू भाग पर अधिकार कर लिया, तब इसका रहा-सहा राजनैतिक गौरव भी जाता रहा था । उस काल में मथुरा राज्य जैसी किसी राजनैतिक ईकाई का न तो कोई अस्तिस्व शेष था, और न उसकी कोई सार्थकता ही थी । फलतः मथुरा मंडल के जिस धार्मिक स्वरूप का निर्माण किया था, वह 'ब्रजमंडल' अथवा 'ब्रजप्रदेश' कहा जाने लगा । उस समय से इस पुण्यस्थल का इन्हीं नामों से प्रचलन रहा है ।

  1. दे.ग्राउज - मेम्वायर, पृ. 31-32 ।