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श्रीमध्वाचार्य ने अपने माता-पिता के तात्कालिक मोह को अपने अलौकिक ज्ञान के द्वारा निर्मूल कर दिया। इन्होंने ग्यारह वर्ष की अवस्था में अद्वैतमत के विद्वान संन्यासी श्रीअच्युतपक्षाचार्य से संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। इनका संन्यास का नाम पूर्णप्रज्ञ रखा गया। संन्यास के बाद इन्होंने वेदान्त का गम्भीर अध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी विलक्षण थी कि इनके गुरू भी इनकी अलौकिक प्रतिभा से आश्चर्यचकित रह जाते थे। थोड़े ही समय में सम्पूर्ण दक्षिण भारत में इनकी विद्वत्ता की धूम मच गयी।  
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श्रीमध्वाचार्य ने अपने माता-पिता के तात्कालिक मोह को अपने अलौकिक ज्ञान के द्वारा निर्मूल कर दिया। इन्होंने ग्यारह वर्ष की अवस्था में अद्वैतमत के विद्वान संन्यासी श्रीअच्युतपक्षाचार्य से संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। इनका संन्यास का नाम पूर्णप्रज्ञ रखा गया। संन्यास के बाद इन्होंने वेदान्त का गम्भीर अध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी विलक्षण थी कि इनके गुरु भी इनकी अलौकिक प्रतिभा से आश्चर्यचकित रह जाते थे। थोड़े ही समय में सम्पूर्ण दक्षिण भारत में इनकी विद्वत्ता की धूम मच गयी।  
 
==भारत भ्रमण==
 
==भारत भ्रमण==
 
श्रीमध्वाचार्य ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और स्थान-स्थान पर शास्त्रार्थ करके विद्वानों में दुर्लभ ख्याति अर्जित की। इनके शास्त्रार्थ का उद्देश्य भगवद्भक्ति का प्रचार, [[वेद|वेदों]] की प्रामाणिकता की स्थापना, मायावाद का खण्डन तथा शास्त्र-मर्यादा का संरक्षण करना था। गीताभाष्य का निर्माण करने के बाद इन्होंने बदरीनारायण की यात्रा की। वहाँ इनको भगवान [[वेदव्यास]] के दर्शन हुए। अनेक राजा इनके शिष्य हुए। अनेक विद्वानों ने इनसे प्रभावित होकर इनका मत स्वीकार किया। इन्होंने अनेक प्रकार की योग-सिद्धियाँ प्राप्त कीं। बदरीनारायण में श्री [[व्यास]]जी ने इन पर प्रसन्न होकर इन्हें तीन [[शालिग्राम]]-शिलाएँ दी थीं, जिनको इन्होंने सुब्रह्मण्य, मध्यतल और उडुपी मे पधराया।
 
श्रीमध्वाचार्य ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और स्थान-स्थान पर शास्त्रार्थ करके विद्वानों में दुर्लभ ख्याति अर्जित की। इनके शास्त्रार्थ का उद्देश्य भगवद्भक्ति का प्रचार, [[वेद|वेदों]] की प्रामाणिकता की स्थापना, मायावाद का खण्डन तथा शास्त्र-मर्यादा का संरक्षण करना था। गीताभाष्य का निर्माण करने के बाद इन्होंने बदरीनारायण की यात्रा की। वहाँ इनको भगवान [[वेदव्यास]] के दर्शन हुए। अनेक राजा इनके शिष्य हुए। अनेक विद्वानों ने इनसे प्रभावित होकर इनका मत स्वीकार किया। इन्होंने अनेक प्रकार की योग-सिद्धियाँ प्राप्त कीं। बदरीनारायण में श्री [[व्यास]]जी ने इन पर प्रसन्न होकर इन्हें तीन [[शालिग्राम]]-शिलाएँ दी थीं, जिनको इन्होंने सुब्रह्मण्य, मध्यतल और उडुपी मे पधराया।

१२:५७, १४ फ़रवरी २०१० का अवतरण

श्रीमध्वाचार्य / Madhavacharya

परिचय

श्रीमध्वाचार्य का जन्म विक्रम संवत् 1295 की माघ शुक्ल सप्तमी के दिन तमिलनाडु के मंगलूर ज़िले के अन्तर्गत बेललि ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीनारायण भट्ट और इनकी माता का नाम श्रीमती वेदवती था। ऐसा कहा जाता है कि भगवान नारायण की आज्ञा से भक्तिसिद्धान्त की रक्षा और प्रचार के लिये स्वयं श्री वायुदेव ने ही श्रीमध्वाचार्य के रूप में अवतार लिया था। अल्पकाल में ही इनको सम्पूर्ण विद्याओं का ज्ञान प्राप्त हो गया। जब इन्होंने संन्यास लेने की इच्छा प्रकट की, तब इनके माता-पिता ने मोहवश उसका विरोध किया।

सन्यास

श्रीमध्वाचार्य ने अपने माता-पिता के तात्कालिक मोह को अपने अलौकिक ज्ञान के द्वारा निर्मूल कर दिया। इन्होंने ग्यारह वर्ष की अवस्था में अद्वैतमत के विद्वान संन्यासी श्रीअच्युतपक्षाचार्य से संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। इनका संन्यास का नाम पूर्णप्रज्ञ रखा गया। संन्यास के बाद इन्होंने वेदान्त का गम्भीर अध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी विलक्षण थी कि इनके गुरु भी इनकी अलौकिक प्रतिभा से आश्चर्यचकित रह जाते थे। थोड़े ही समय में सम्पूर्ण दक्षिण भारत में इनकी विद्वत्ता की धूम मच गयी।

भारत भ्रमण

श्रीमध्वाचार्य ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और स्थान-स्थान पर शास्त्रार्थ करके विद्वानों में दुर्लभ ख्याति अर्जित की। इनके शास्त्रार्थ का उद्देश्य भगवद्भक्ति का प्रचार, वेदों की प्रामाणिकता की स्थापना, मायावाद का खण्डन तथा शास्त्र-मर्यादा का संरक्षण करना था। गीताभाष्य का निर्माण करने के बाद इन्होंने बदरीनारायण की यात्रा की। वहाँ इनको भगवान वेदव्यास के दर्शन हुए। अनेक राजा इनके शिष्य हुए। अनेक विद्वानों ने इनसे प्रभावित होकर इनका मत स्वीकार किया। इन्होंने अनेक प्रकार की योग-सिद्धियाँ प्राप्त कीं। बदरीनारायण में श्री व्यासजी ने इन पर प्रसन्न होकर इन्हें तीन शालिग्राम-शिलाएँ दी थीं, जिनको इन्होंने सुब्रह्मण्य, मध्यतल और उडुपी मे पधराया।


एक बार किसी व्यापारी का जहाज द्वारका से मालावार जा रहा था। तुलुब के पास वह डूब गया। उस में गोपीचन्दन से ढकी हुई भगवान श्रीकृष्ण की एक मूर्ति थी। मध्वाचार्य को भगवान की आज्ञा प्राप्त हुई और उन्होंने जल से मूर्ति निकालकर उडुपी में उसकी स्थापना की, तभी से वह स्थान मध्वमतानुयायियों का श्रेष्ठतीर्थ हो गया। इन्होंने उडुपी में और भी आठ मन्दिरों की स्थापना की। आज भी लोग उनका दर्शन करके जीवन का वास्तविक लाभ प्राप्त करते हैं। ये अपने जीवन के अन्तिम समय में सरिदन्तर नामक स्थान में रहते थे। यहीं पर इन्होंने अपने पांचभौतिक शरीर का त्याग किया। देहत्याग के अवसर पर इन्होंने अपने शिष्य पद्मनाभतीर्थ को श्रीरामजी की मूर्ति और व्यास जी की दी हुई शालिग्राम शिला देकर अपने मत के प्रचार की आज्ञा दी। इनके शिष्यों के द्वारा अनेक मठ स्थापित हुए। श्रीमध्वाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना, पाखण्डवाद का खण्डन और भगवान की भक्ति का प्रचार करके लाखों लोगों को कल्याणपथ का अनुगामी बनाया।