"महाविद्या मन्दिर" के अवतरणों में अंतर

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==महाविद्या मन्दिर / Mahavidya Temple==
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[[कृष्ण जन्मभूमि|कृष्ण जन्म भूमि]] के निकट, महाविद्या कॉलोनी, मथुरा में स्थित
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|Location=यह मन्दिर महाविद्या कालोनी, [[मथुरा]] में स्थित है।
[[चित्र:Mahavidya-Temple-1.jpg|महाविद्या मन्दिर, [[मथुरा]]|thumb|250px]]
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|Near=[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[ईदगाह]], [[गर्तेश्वर महादेव]], [[भूतेश्वर महादेव|भूतेश्वर महादेव मन्दिर]], [[कटरा केशवदेव मन्दिर]], [[पोतरा कुण्ड]]
[[मथुरा]] की पश्चिम दिशा में [[रामलीला]] मैदान के निकट एक पहाड़ीनुमा ऊँचे टीले पर स्थित यह भव्य मन्दिर शक्तिपीठों में एक हैं, जिसकी बहुत मान्यता है। [[विजय दशमी]] के दिन [[राम]]–[[लक्ष्मण]] के स्वरूप यहाँ पूजा–अर्चना के पश्चात [[रावण]] वध लीला के लिए जाते हैं। [[पुराण|पुराणों]] के उल्लेख के अनुसार [[द्वापर युग]] में भी शक्ति उपासना का प्रचलन था और यह देवी [[नन्द]] बाबा की कुल देवी थी। कहा जाता है कि [[पाण्डव|पाण्डवों]] ने यहाँ शक्ति प्रतिमा स्थापना के उपरान्त पूजा–अर्चना की। इस समय जो मन्दिर है, उसकी स्थापना मराठों के महाराष्द्रीय उपासकों द्वारा कराई बताई जाती है, जिसका पुनउद्धार तांत्रिक विद्वान शीलचन्द्र द्वारा [[संवत]] 1907 में देवी की वर्तमान प्रतिमा प्रतिष्ठित करके कराया। इस स्थल का बहुत प्राचीन महत्व है।
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|Archeology=निर्माणकाल- अठारहवीं सदी के अंत में
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|Sculpture=यह मन्दिर छोटे से टीले पर स्थित है जहां पैंतीस कदम की सीढ़ियाँ पहुँचती हैं। यह चतुर्भुज आकार का साधारण शिखर है।
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'''महाविद्या मन्दिर''' (अंग्रेज़ी: ''Mahavidya Devi'' or ''Mahavidya Temple'') [[मथुरा]], उत्तर प्रदेश की पश्चिम दिशा में रामलीला मैदान के निकट एक पहाड़ीनुमा ऊँचे टीले पर स्थित भव्य मन्दिर है, जो शक्तिपीठों में से एक है और जिसकी बहुत मान्यता है। [[विजय दशमी]] के दिन [[राम]]–[[लक्ष्मण]] के स्वरूप यहाँ पूजा–अर्चना के पश्चात [[रावण]] वध लीला के लिए जाते हैं। [[पुराण]] उल्लेखानुसार [[द्वापर युग]] में भी शक्ति उपासना का प्रचलन था और यह देवी [[नन्द|नन्दबाबा]] की कुल देवी थी। कहा जाता है कि [[पाण्डव|पाण्डवों]] ने यहाँ शक्ति प्रतिमा स्थापना के उपरान्त पूजा–अर्चना की। इस समय जो मन्दिर है, उसकी स्थापना मराठों के महाराष्द्रीय उपासकों द्वारा कराई गई बताई जाती है, जिसका पुन:उद्धार तांत्रिक विद्वान शीलचन्द्र द्वारा [[संवत]] 1907 में देवी की वर्तमान प्रतिमा प्रतिष्ठित करके कराया गया। इस स्थल का बहुत प्राचीन महत्त्व है।
 
==महाविद्या देवी==
 
==महाविद्या देवी==
इन्हें अम्बिका देवी भी कहा जाता है। एक समय महाराज [[नन्द]], [[कृष्ण]], [[बलराम|बलदेव]], [[यशोदा]] देवी और अन्यान्य गोपों के साथ देवयात्रा के उपलक्ष्य में यहीं अम्बिका वन में उपस्थित हुए । वहाँ सब के साथ पवित्र सरस्वती के जल में स्नान कर पशुपति गोकर्ण [[महादेव]] की पूजा अर्चना की। रात्रि में सबके साथ वहीं निवास किया। उसी रात को एक विशाल अजगर ने नन्द बाबा को पकड़ लिया और क्रमश: उनको निगलने लगा तो सभी ने उन्हें बचाने की चेष्टा की , किन्तु सभी असफल हो गये। उस समय नन्द बाबा ने बड़े आर्त्त होकर कृष्ण को पुकारा। बड़े आश्चर्य की बात हुई। ज्योंहि कृष्ण ने अपने पैरों से उसे स्पर्श किया, अजगर ने अपना विशाल सर्प शरीर त्यागकर सुन्दर विद्याधर के रूप में खड़े होकर श्री कृष्ण को प्रणाम किया । श्री कृष्ण के द्वारा पूछे जाने पर उसने अपना परिचय बतलाया कि पहले मैं सुदर्शन नाम का विद्याधर था । मैंने कभी विमान से विचरण करते समय अग्ङीरस नामक कुरूप ऋषियों को देखकर उनका उपहास किया था, जिससे उन्होंने मुझे सर्प योनि ग्रहण करने का अभिशाप दिया । आज वहीं अभिशाप मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ । मैं आपके चरण कमलों के स्पर्श से शापमुक्त ही नहीं, वरन परम कृतार्थ हो गया । वही स्थान महाविद्या देवी के रूप में प्रसिद्ध है ।
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महाविद्या देवी को अम्बिका देवी भी कहा जाता है। एक समय महाराज [[नन्द]], [[कृष्ण]], [[बलराम|बलदेव]], [[यशोदा]] और अन्यान्य गोपों के साथ देवयात्रा के उपलक्ष्य में यहीं [[अम्बिका वन]] में उपस्थित हुए। वहाँ सब के साथ पवित्र सरस्वती के जल में स्नान कर पशुपति गोकर्ण महादेव की पूजा-अर्चना की। रात्रि में सबके साथ वहीं निवास किया। उसी रात को एक विशाल अजगर ने नन्दबाबा को पकड़ लिया और क्रमश: उनको निगलने लगा तो सभी ने उन्हें बचाने की चेष्टा की, किन्तु सभी असफल हो गये। उस समय नन्दबाबा ने बड़े आर्त्त होकर कृष्ण को पुकारा। बड़े आश्चर्य की बात हुई। ज्यों हि कृष्ण ने अपने पैरों से उस अजगर को स्पर्श किया, अजगर ने अपना विशाल सर्प शरीर त्यागकर सुन्दर विद्याधर के रूप में खड़े होकर श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। श्रीकृष्ण के द्वारा पूछे जाने पर उसने अपना परिचय बतलाया कि पहले मैं सुदर्शन नाम का विद्याधर था। मैंने कभी विमान से विचरण करते समय अंगीरस नामक कुरूप ऋषियों को देखकर उनका उपहास किया था, जिससे उन्होंने मुझे सर्प योनि ग्रहण करने का अभिशाप दिया। आज वही अभिशाप मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ। मैं आपके चरण कमलों के स्पर्श से शापमुक्त ही नहीं, वरन परम कृतार्थ हो गया। वही स्थान महाविद्या देवी के रूप में प्रसिद्ध है।
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==आयुर्वेद==
{{Mathura temple}}
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आयुर्वेद भी हमारी सिद्ध विद्या है। इसमें प्रमुख विद्वानों के नाम हैं- हरप्रसाद जी<ref>1822, अनूप शहर में हकीम अफजल अली से शिक्षा,</ref> इनके पुत्र शुजालाल हकीम<ref>राजा अलवर को पुत्रोत्पत्ति</ref>, मोहन, सोहन<ref>हिकमतप्रकाश हिकमत प्रदीप रचना</ref>, डोरा से नाड़ी निदान भँग का उचित निदान बतलाया, षोनम मोनम, अच्चा बच्चा जी वैद्य, कूकाजी, नटवर जी, तप्पीराम, तपियाजी, चौबे गणेशीलाल संगीतज्ञ<ref>चिकित्सा सागर विशाल ग्रंथ लेखक</ref>, विदुरदेव, बाबूदेव शास्त्री<ref>चतु. विद्यालय</ref> लालाराम वैद्य, झूपारामजी, चक्रपाणि शास्त्री, राधाचंद्र, मदनमोहन मुंशी, गोपालजी, गरुड़ध्वज आदि।
[[श्रेणी: कोश]]
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;यंत्रमंत्र
[[category:मन्दिर]]
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श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचंदजी महाराज, श्री वासुदेवजी, श्री केशवदेवजी, श्री करुणा शंकरजी, श्री वृन्दावनजी, वटुकनाथजी, तुलारामजी,विष्णुजी, गणेश दीक्षित, गंगदत्तरंगदत्त, कवि नवनीत, श्री बद्रीदरुजी महाराज, कामेश्वरनाथजी, मूसरा धार चौबे, शिभूराम चौधरी, लक्ष्मणदादा<ref>गंगदत्त रंगदत्त के पिता</ref> आदि।
[[श्रेणी:दर्शनीय-स्थल कोश]]
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;कर्मकांड वेद यज्ञ
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विशिष्टजन नरोत्तमजी, सोहनलालजी, भगवानदत्तजी, याज्ञिक, लक्ष्मणदत्त शास्त्री, बिहारीलाल याज्ञिक, लड्डूगोपाल शास्त्री, लक्ष्मीनारायण वेदनिधि, प्रह्लादजी, कन्हैयालालजी, धारजजी, सामवेदी, गोकुलचंदजी, हेला चेला, बालाजी मौरे, धीरजजी प्रयाग घाट, कैलाशनाथ, ब्रह्मदत्त (लिंगाजी), टिम्माजी, गिरिराज शास्त्री, हुदनाजी, सैंगरजी, आदि।
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==विठ्टलनाथ की ब्रजयात्रा==
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1600 वि. में गो. विठ्टलनाथजी ने ब्रजयात्रा की, तब श्री उजागरवंश को पौरोहित्य का वृत्ति पत्र लिखा-
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'स्वस्ति श्री मद्विट्ठल दीक्षितानां मथुरा क्षेत्रे तीर्थ पुरोहितो उजागर शर्मा माथुरोस्ति'- वि. संवत 1600।
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इस लेख की फोटो प्रति 1989 वि. में कांकरौली के गोस्वामी श्री ब्रजभूषण लाल ने अपनी ब्रज यात्रा के अवसर पर ली थी जो अब काँकरौली विद्या विभाग के ग्रंथागार में है। इस सम्बन्ध में प्राचीन मर्यादा के अनुसार श्रीराधाचन्द ने लिखा है- चतुर्णा संप्रदायाणां माचार्ये धर्म वित्तमै:, उद्धवोजागरौ पादौ पूजितानिश्च भक्तित:
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1644 वि. में गोस्वामीजी को गोकुल की भूमि का पट्टा मिला और तब से वे गोकुल में रहने लगे। श्री उद्धवाचार्य देवजी ने ही 1559 वि. में पूरनमलखत्री के द्रव्य से श्रीनाथजी का मन्दिर हीरामन मिस्त्री से तैयार कराया और अनेक विध सेवाओं और उत्सवों के बाद औरंगजेब के प्रहार से रक्षा हेतु श्री नाथजी को 1726 वि. में मेवाड़ ले जाया गया। इस वंश में गो. श्री गोकुलनाथजी, श्री हरिरामजी, श्री गोपेश्वरजी, तिलकायत श्री गोवर्धननाथजी, श्री दाऊजी, श्री यदुनाथजी, श्री रमणप्रभु जी, श्री मधुसूदनलालजी, श्री द्वारकेशलालजी, श्री माधवरायजी, श्री गोपाललालजी, आदि अनेक आदरणीय महापुरूष हुए हैं। जिनके हस्तलेख चौबों के यहाँ हैं।
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चैतन्य महाप्रभु का माध्व गौडीय संप्रदाय है। 1572 वि. में श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा पधारे। यमुना देखकर प्रेमोन्मत्त हुए जल में कूद पड़े और हरिकीर्तन नृत्य करने लगे। उस समय श्री उद्धवाचार्य देवजी के पौत्र विरक्त वृत्तिधारी श्री दामोदरजी मिहारी वहाँ थे, वे भी अपनी माधवेन्द्र पुरी जी से प्राप्त दीक्षा के अनुसार कीर्तन नृत्य करने लगे। श्री चैतन्य देव ने उन्हें आलिंगन किया और गुरु भाई तथा तीर्थ गुरु की तरह मान दिया चरणों में गिर गये।
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मथुरा आइया केल विश्राम स्नान। यमुना तट चव्वीस घाटे प्रभु केल स्नान।।
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सेई विप्र प्रभु केल दिखायतीर्थ स्थान। स्वायंभू विश्रान्त दीर्घविष्णु भूतेश्वर।।
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महाविद्या गोकर्ण देखला निस्तर। सेई ब्राह्मण प्रभु संग ते लाइल।।
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मधुबन तालबन कुमुदबन गेइला। देखला बारह बने ब्रज धाम।।
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विश्रान्त से श्री दामोदर जी उन्हें घर ले गये, प्रसाद अर्पण आदि करके प्रभु का सस्नेह सत्कार किया। प्रभु ने उनके साथ मथुरा परिक्रमा के सभी तीर्थ दर्शन किये, मथुरा के केशव देव दीर्घविष्णु महाविद्या भूतेश्वर गोकर्ण आदि तीर्थ दर्शन किये, फिर उन्हीं के साथ 12 बनोंयुक्त ब्रज की यात्रा की।
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==गुरुगादी पदासीन गृहस्थ आचार्य==
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'''श्रीगोपाल मन्दिर पीठ के''' आचार्यों में श्री मौजीरामजी, मठोलजी, बंशाजी, श्री नंदनजी महाराज<ref>इनसे शास्त्रार्थ में पराजय के भय से स्वामी दयानंद रातोंरात भाग गये थे।</ref>, श्री योगीराज बाबा रज्जूजी, 1920 वि. जन्म<ref>योगचर्या सिद्ध दिव्य दृष्ठा</ref>, श्री विष्णुजी महाराज जन्म 1956 वि.<ref>गोपाल वेद पाठशाला संस्थापक</ref> तथा वर्तमान में श्री विठ्ठलेशजी महाराज इस गादी के सरल शुद्ध विद्वान इष्ट सेवी और आदर्श चरित्र हैं। चौवों में इनके हज़ारों शिष्य हैं।
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'''श्री विद्या आदि पीठ के''' लोक वंदित सिद्ध आचार्यों में दक्ष गोत्रिय श्री मकरंदजी महाराज 1742 वि., श्री पतिजी 1772, श्री मोहनजी 1794, श्री गुरु शंकर मुनिजी 1822, श्री चेतरामजी 1850, स्वनामधन्य श्री शीलचंदजी बाबा गुरु 1861-1905, श्री वासुदेवजी 1887, श्री केशवदेवजी (भैयाजी) 1928, श्री शिवप्रकाशजी 1960, श्री करुणा शंकरजी 1968, आदि महानुभाव हुए हैं।
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श्री शंकर मुनिजी को जयपुर के जगन्नाथ पंडितराज सम्राट दीक्षित ने श्री विद्या यंत्रराज तथा पूजारत्न ग्रंथ समर्पित किया। इन्होंने ही श्री महाविद्या देवी मंदिर का शिखरबंद निर्माण कराकर दीक्षित महोदय को महाविद्या उपासना की सिद्धि उपलब्ध करायी। श्री शीलचंद जी की जिव्हा पर बाग्भत बीज मंत्र अनूप शहर में गंगा तट पर श्रीगंगा माता ने स्वयं प्रकट होकर स्थापित कर वाणी सिद्ध महापुरुष बना दिया था। इनके सैकड़ों शिष्य चौवों में तथा अन्यत्र हुए हैं। श्री महाविद्या जी की नवपीठ प्रतिष्ठा, दशभुजी गणेश स्थापना, विश्रान्त मुकट मंदिर तथा श्री द्वारिकाधीश स्थापना आदि अनेक महान कार्य इनके द्वारा हुए हैं। गंगदत्त रंगदत्त, ब्रह्मानंद सरस्वती, बूंटी सिद्ध, गणेशीलाल संगीत मार्तण्ड इनके शिष्य थे। श्रीगोपाल सुन्दरी और पीतांबरा तथा वाला पद्धतियाँ इनकी रचित हैं। श्री वासुदेव बवुआजी की जिव्हा पर वाग्वादिनी सरस्वती माता विराजती थीं। अर्कीमंडी के राजा ध्यानसिंह, कामवन के गो. देवकीनंदनजी, काशी नरेश आदि इनके अनेक भक्त और शिष्य थे। श्री केशवदेव भैयाजी असाधारण तेजस्वी और शास्त्र प्रवक्ता थे। इनका शिष्य आन्हिक बहुत विस्तृत तथा ग्रंथ प्रणयन अति गहन चिंतनमय था। आपकी कृपा से गो. गोपाललालजी कठिन रोग से मुक्त तथा भरतपुर के घाऊजी को वृद्ध अवस्था में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। आपकी अनेक उपासना पद्धति श्री वालात्रिपुरसुन्दरी, बगुलामुखी, भुवनेश्वरी, तारा आदि की रचित हैं।
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श्री शिवप्रकाशजी लाल बाबा गम्भीर अल्पभाषी विद्वान थे। कलकत्ता के कापालिक आचार्य चांबदिया ओझा को आपने तंत्र शास्त्र में नतमस्तक कर उससे श्री यंत्र भेंट में प्राप्त किया। श्री करुणा शंकरजी सार्वदेशिक विद्वान थे। राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद जी उप राष्ट्रपति वासप्पादानप्पा जत्तीराजपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी महोदय तथा मथुरा विद्वत्सभा, काशी तांत्रिक सम्मेलन, संस्कृत अकादमी, उत्तर प्रदेश, गायत्रीयागदतिया, ललितात्रिपुरसुन्दरी पीठ उरई, गंगेश्वरानंद वेद पीठ आदि से आप सम्मानित किये गये। आपके रचित तंत्र के अनेक ग्रंथ हैं। वर्तमान में इनकी गादी पर श्री पृथ्वीधरणजी विराजमान हैं। जो सीधे सरल सौम्य और संकोची गम्भीर प्रकृति के हैं। श्री लालबाबा महाराज को प्रधान गादी पर श्री लक्ष्मी पतिजी (मुन्ना बाबा) विराजमान हैं, जो एकनिष्ठा उपासना तंत्र-ज्ञान और तेजस्विता की मूर्ति हैं। स्नेह भाव और सौहार्द इन्होंने स्वाभाविक ही पाया। श्री लालबाबा की पूज्य मातु श्री माया देवी (महारानीजी) भी परम बिदुषी कृपानिष्ठ और सर्व कल्याण भावनामयी महान आत्मा थीं, जिनके आशीर्वाद प्राय: सिद्ध और मंगलकारी ही होते थे। इस गादी के हज़ारों शिष्य चौबे तथा अन्य लोग हैं। इस गादी के शिष्य धूजी चौबे ने घोर अकाल की आशंका वाले अवर्षण काल में मंत्र बल से इन्द्रलोक जाकर इन्द्रदेव द्वारा मूसलाधार वर्षा करायी जिससे उनका नाम ही 'मूसराधार चौबे' पड़ गया।
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==वर्तमान मन्दिर==
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यहाँ वर्तमान में जो भव्य मंदिर है, उसका निर्माण 15वीं शताब्दी में जयपुर के जगन्नाथ पंडितराज सामराज दीक्षित द्वारा कराया गया था। दीक्षित जी उच्च कोटि के तांत्रिक और खगोलविद थे। सवाई माधोपुर की सम्राटवेध शाला इस बात का प्रमाण है। ऐसी ही एक वेधशाला उन्होंने [[मथुरा]] में भी बनवायी थी जिसके अवशेष जयसिंहपुरा में आज भी हैं। खगोलविद होने के साथ ही आप उच्च स्तर के आध्यात्मिक साधक भी थे। कहते हैं कि आपके साथ दो माया सिंह रहा करते थे जो आपके पूजन आदि का प्रबन्ध करते थे। आप जब अम्बिका वन आये तो महाविद्या उपासना की सिद्धि के लिये प्रयत्न किया, किन्तु असफल रहने पर किसी गुरु की खोज करने लगे। आपने जब माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों से उनके गुरु श्री शंकरमुनि जी महाराज के विषय में सुना तो इनके दर्शन की इच्छा की। कहते हैं कि जब शंकरमुनि जी महाराज अम्बिका वन पहुंचे तो दीक्षित जी के दोनों सिंह पाषाण सिंह बन गये और स्वयं दीक्षित जी की समाधि लग गयी। तदन्तर, माथुर चतुर्वेद कुलगुरु श्री शंकरमुनि जी महाराज ने महाविद्या देवी मंदिर का शिखरबन्ध निर्माण कराकर दीक्षित जी को महाविद्या उपासना की सिद्धि उपलब्ध करायी।
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सामराज दीक्षित जी ने शंकरमुनि जी महाराज को स्वलिखित बहुमूल्य पूजारत्न ग्रंथ भेंट किया जो ऊर्ध्वाम्नाय श्रीपीठ, श्रीजी दरबार में आज भी सुरक्षित है। कालान्तर में महाविद्या मंदिर के जर्जर हो जाने पर 1907 के आस-पास ऊर्ध्वाम्नाय पीठाधीश्वर माथुर चतुर्वेद कुलगुरु श्री शीलचंद्राचार्य जी महाराज द्वारा यहां शतचण्डी यज्ञ कराकर अपने पूर्वज श्री शंकरमुनि जी महाराज द्वारा निर्मित इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया। जिसका शिलालेख अभी कुछ समय पूर्व तक मंदिर में लगा हुआ था किंतु अब अनुपलब्ध है।
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==वीथिका==
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चित्र:Mahavidya-Temple-Mathura-2.jpg|महाविद्या मन्दिर, [[मथुरा]]<br />Mahavidya Temple, Mathura
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==सम्बंधित लिंक==
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[[en:Mahavidya Devi]]
 
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०६:१७, २३ सितम्बर २०२१ के समय का अवतरण

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स्थानीय सूचना
महाविद्या मन्दिर

Mahavidya-Temple-1.jpg
मार्ग स्थिति: यह मन्दिर महाविद्या कालोनी, मथुरा में स्थित है।
आस-पास: कृष्ण जन्मभूमि, ईदगाह, गर्तेश्वर महादेव, भूतेश्वर महादेव मन्दिर, कटरा केशवदेव मन्दिर, पोतरा कुण्ड
पुरातत्व: निर्माणकाल- अठारहवीं सदी के अंत में
वास्तु: यह मन्दिर छोटे से टीले पर स्थित है जहां पैंतीस कदम की सीढ़ियाँ पहुँचती हैं। यह चतुर्भुज आकार का साधारण शिखर है।
स्वामित्व:
प्रबन्धन:
स्त्रोत: इंटैक
अन्य लिंक:
अन्य:
सावधानियाँ:
मानचित्र:
अद्यतन: 2009

महाविद्या मन्दिर (अंग्रेज़ी: Mahavidya Devi or Mahavidya Temple) मथुरा, उत्तर प्रदेश की पश्चिम दिशा में रामलीला मैदान के निकट एक पहाड़ीनुमा ऊँचे टीले पर स्थित भव्य मन्दिर है, जो शक्तिपीठों में से एक है और जिसकी बहुत मान्यता है। विजय दशमी के दिन राम–लक्ष्मण के स्वरूप यहाँ पूजा–अर्चना के पश्चात रावण वध लीला के लिए जाते हैं। पुराण उल्लेखानुसार द्वापर युग में भी शक्ति उपासना का प्रचलन था और यह देवी नन्दबाबा की कुल देवी थी। कहा जाता है कि पाण्डवों ने यहाँ शक्ति प्रतिमा स्थापना के उपरान्त पूजा–अर्चना की। इस समय जो मन्दिर है, उसकी स्थापना मराठों के महाराष्द्रीय उपासकों द्वारा कराई गई बताई जाती है, जिसका पुन:उद्धार तांत्रिक विद्वान शीलचन्द्र द्वारा संवत 1907 में देवी की वर्तमान प्रतिमा प्रतिष्ठित करके कराया गया। इस स्थल का बहुत प्राचीन महत्त्व है।

महाविद्या देवी

महाविद्या देवी को अम्बिका देवी भी कहा जाता है। एक समय महाराज नन्द, कृष्ण, बलदेव, यशोदा और अन्यान्य गोपों के साथ देवयात्रा के उपलक्ष्य में यहीं अम्बिका वन में उपस्थित हुए। वहाँ सब के साथ पवित्र सरस्वती के जल में स्नान कर पशुपति गोकर्ण महादेव की पूजा-अर्चना की। रात्रि में सबके साथ वहीं निवास किया। उसी रात को एक विशाल अजगर ने नन्दबाबा को पकड़ लिया और क्रमश: उनको निगलने लगा तो सभी ने उन्हें बचाने की चेष्टा की, किन्तु सभी असफल हो गये। उस समय नन्दबाबा ने बड़े आर्त्त होकर कृष्ण को पुकारा। बड़े आश्चर्य की बात हुई। ज्यों हि कृष्ण ने अपने पैरों से उस अजगर को स्पर्श किया, अजगर ने अपना विशाल सर्प शरीर त्यागकर सुन्दर विद्याधर के रूप में खड़े होकर श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। श्रीकृष्ण के द्वारा पूछे जाने पर उसने अपना परिचय बतलाया कि पहले मैं सुदर्शन नाम का विद्याधर था। मैंने कभी विमान से विचरण करते समय अंगीरस नामक कुरूप ऋषियों को देखकर उनका उपहास किया था, जिससे उन्होंने मुझे सर्प योनि ग्रहण करने का अभिशाप दिया। आज वही अभिशाप मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ। मैं आपके चरण कमलों के स्पर्श से शापमुक्त ही नहीं, वरन परम कृतार्थ हो गया। वही स्थान महाविद्या देवी के रूप में प्रसिद्ध है।

आयुर्वेद

आयुर्वेद भी हमारी सिद्ध विद्या है। इसमें प्रमुख विद्वानों के नाम हैं- हरप्रसाद जी[१] इनके पुत्र शुजालाल हकीम[२], मोहन, सोहन[३], डोरा से नाड़ी निदान भँग का उचित निदान बतलाया, षोनम मोनम, अच्चा बच्चा जी वैद्य, कूकाजी, नटवर जी, तप्पीराम, तपियाजी, चौबे गणेशीलाल संगीतज्ञ[४], विदुरदेव, बाबूदेव शास्त्री[५] लालाराम वैद्य, झूपारामजी, चक्रपाणि शास्त्री, राधाचंद्र, मदनमोहन मुंशी, गोपालजी, गरुड़ध्वज आदि।

यंत्रमंत्र

श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचंदजी महाराज, श्री वासुदेवजी, श्री केशवदेवजी, श्री करुणा शंकरजी, श्री वृन्दावनजी, वटुकनाथजी, तुलारामजी,विष्णुजी, गणेश दीक्षित, गंगदत्तरंगदत्त, कवि नवनीत, श्री बद्रीदरुजी महाराज, कामेश्वरनाथजी, मूसरा धार चौबे, शिभूराम चौधरी, लक्ष्मणदादा[६] आदि।

कर्मकांड वेद यज्ञ

विशिष्टजन नरोत्तमजी, सोहनलालजी, भगवानदत्तजी, याज्ञिक, लक्ष्मणदत्त शास्त्री, बिहारीलाल याज्ञिक, लड्डूगोपाल शास्त्री, लक्ष्मीनारायण वेदनिधि, प्रह्लादजी, कन्हैयालालजी, धारजजी, सामवेदी, गोकुलचंदजी, हेला चेला, बालाजी मौरे, धीरजजी प्रयाग घाट, कैलाशनाथ, ब्रह्मदत्त (लिंगाजी), टिम्माजी, गिरिराज शास्त्री, हुदनाजी, सैंगरजी, आदि।

विठ्टलनाथ की ब्रजयात्रा

1600 वि. में गो. विठ्टलनाथजी ने ब्रजयात्रा की, तब श्री उजागरवंश को पौरोहित्य का वृत्ति पत्र लिखा-

'स्वस्ति श्री मद्विट्ठल दीक्षितानां मथुरा क्षेत्रे तीर्थ पुरोहितो उजागर शर्मा माथुरोस्ति'- वि. संवत 1600।

इस लेख की फोटो प्रति 1989 वि. में कांकरौली के गोस्वामी श्री ब्रजभूषण लाल ने अपनी ब्रज यात्रा के अवसर पर ली थी जो अब काँकरौली विद्या विभाग के ग्रंथागार में है। इस सम्बन्ध में प्राचीन मर्यादा के अनुसार श्रीराधाचन्द ने लिखा है- चतुर्णा संप्रदायाणां माचार्ये धर्म वित्तमै:, उद्धवोजागरौ पादौ पूजितानिश्च भक्तित:।

1644 वि. में गोस्वामीजी को गोकुल की भूमि का पट्टा मिला और तब से वे गोकुल में रहने लगे। श्री उद्धवाचार्य देवजी ने ही 1559 वि. में पूरनमलखत्री के द्रव्य से श्रीनाथजी का मन्दिर हीरामन मिस्त्री से तैयार कराया और अनेक विध सेवाओं और उत्सवों के बाद औरंगजेब के प्रहार से रक्षा हेतु श्री नाथजी को 1726 वि. में मेवाड़ ले जाया गया। इस वंश में गो. श्री गोकुलनाथजी, श्री हरिरामजी, श्री गोपेश्वरजी, तिलकायत श्री गोवर्धननाथजी, श्री दाऊजी, श्री यदुनाथजी, श्री रमणप्रभु जी, श्री मधुसूदनलालजी, श्री द्वारकेशलालजी, श्री माधवरायजी, श्री गोपाललालजी, आदि अनेक आदरणीय महापुरूष हुए हैं। जिनके हस्तलेख चौबों के यहाँ हैं।

चैतन्य महाप्रभु का माध्व गौडीय संप्रदाय है। 1572 वि. में श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा पधारे। यमुना देखकर प्रेमोन्मत्त हुए जल में कूद पड़े और हरिकीर्तन नृत्य करने लगे। उस समय श्री उद्धवाचार्य देवजी के पौत्र विरक्त वृत्तिधारी श्री दामोदरजी मिहारी वहाँ थे, वे भी अपनी माधवेन्द्र पुरी जी से प्राप्त दीक्षा के अनुसार कीर्तन नृत्य करने लगे। श्री चैतन्य देव ने उन्हें आलिंगन किया और गुरु भाई तथा तीर्थ गुरु की तरह मान दिया चरणों में गिर गये।

मथुरा आइया केल विश्राम स्नान। यमुना तट चव्वीस घाटे प्रभु केल स्नान।। सेई विप्र प्रभु केल दिखायतीर्थ स्थान। स्वायंभू विश्रान्त दीर्घविष्णु भूतेश्वर।। महाविद्या गोकर्ण देखला निस्तर। सेई ब्राह्मण प्रभु संग ते लाइल।। मधुबन तालबन कुमुदबन गेइला। देखला बारह बने ब्रज धाम।।

विश्रान्त से श्री दामोदर जी उन्हें घर ले गये, प्रसाद अर्पण आदि करके प्रभु का सस्नेह सत्कार किया। प्रभु ने उनके साथ मथुरा परिक्रमा के सभी तीर्थ दर्शन किये, मथुरा के केशव देव दीर्घविष्णु महाविद्या भूतेश्वर गोकर्ण आदि तीर्थ दर्शन किये, फिर उन्हीं के साथ 12 बनोंयुक्त ब्रज की यात्रा की।

गुरुगादी पदासीन गृहस्थ आचार्य

श्रीगोपाल मन्दिर पीठ के आचार्यों में श्री मौजीरामजी, मठोलजी, बंशाजी, श्री नंदनजी महाराज[७], श्री योगीराज बाबा रज्जूजी, 1920 वि. जन्म[८], श्री विष्णुजी महाराज जन्म 1956 वि.[९] तथा वर्तमान में श्री विठ्ठलेशजी महाराज इस गादी के सरल शुद्ध विद्वान इष्ट सेवी और आदर्श चरित्र हैं। चौवों में इनके हज़ारों शिष्य हैं।

श्री विद्या आदि पीठ के लोक वंदित सिद्ध आचार्यों में दक्ष गोत्रिय श्री मकरंदजी महाराज 1742 वि., श्री पतिजी 1772, श्री मोहनजी 1794, श्री गुरु शंकर मुनिजी 1822, श्री चेतरामजी 1850, स्वनामधन्य श्री शीलचंदजी बाबा गुरु 1861-1905, श्री वासुदेवजी 1887, श्री केशवदेवजी (भैयाजी) 1928, श्री शिवप्रकाशजी 1960, श्री करुणा शंकरजी 1968, आदि महानुभाव हुए हैं।

श्री शंकर मुनिजी को जयपुर के जगन्नाथ पंडितराज सम्राट दीक्षित ने श्री विद्या यंत्रराज तथा पूजारत्न ग्रंथ समर्पित किया। इन्होंने ही श्री महाविद्या देवी मंदिर का शिखरबंद निर्माण कराकर दीक्षित महोदय को महाविद्या उपासना की सिद्धि उपलब्ध करायी। श्री शीलचंद जी की जिव्हा पर बाग्भत बीज मंत्र अनूप शहर में गंगा तट पर श्रीगंगा माता ने स्वयं प्रकट होकर स्थापित कर वाणी सिद्ध महापुरुष बना दिया था। इनके सैकड़ों शिष्य चौवों में तथा अन्यत्र हुए हैं। श्री महाविद्या जी की नवपीठ प्रतिष्ठा, दशभुजी गणेश स्थापना, विश्रान्त मुकट मंदिर तथा श्री द्वारिकाधीश स्थापना आदि अनेक महान कार्य इनके द्वारा हुए हैं। गंगदत्त रंगदत्त, ब्रह्मानंद सरस्वती, बूंटी सिद्ध, गणेशीलाल संगीत मार्तण्ड इनके शिष्य थे। श्रीगोपाल सुन्दरी और पीतांबरा तथा वाला पद्धतियाँ इनकी रचित हैं। श्री वासुदेव बवुआजी की जिव्हा पर वाग्वादिनी सरस्वती माता विराजती थीं। अर्कीमंडी के राजा ध्यानसिंह, कामवन के गो. देवकीनंदनजी, काशी नरेश आदि इनके अनेक भक्त और शिष्य थे। श्री केशवदेव भैयाजी असाधारण तेजस्वी और शास्त्र प्रवक्ता थे। इनका शिष्य आन्हिक बहुत विस्तृत तथा ग्रंथ प्रणयन अति गहन चिंतनमय था। आपकी कृपा से गो. गोपाललालजी कठिन रोग से मुक्त तथा भरतपुर के घाऊजी को वृद्ध अवस्था में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। आपकी अनेक उपासना पद्धति श्री वालात्रिपुरसुन्दरी, बगुलामुखी, भुवनेश्वरी, तारा आदि की रचित हैं।

श्री शिवप्रकाशजी लाल बाबा गम्भीर अल्पभाषी विद्वान थे। कलकत्ता के कापालिक आचार्य चांबदिया ओझा को आपने तंत्र शास्त्र में नतमस्तक कर उससे श्री यंत्र भेंट में प्राप्त किया। श्री करुणा शंकरजी सार्वदेशिक विद्वान थे। राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद जी उप राष्ट्रपति वासप्पादानप्पा जत्तीराजपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी महोदय तथा मथुरा विद्वत्सभा, काशी तांत्रिक सम्मेलन, संस्कृत अकादमी, उत्तर प्रदेश, गायत्रीयागदतिया, ललितात्रिपुरसुन्दरी पीठ उरई, गंगेश्वरानंद वेद पीठ आदि से आप सम्मानित किये गये। आपके रचित तंत्र के अनेक ग्रंथ हैं। वर्तमान में इनकी गादी पर श्री पृथ्वीधरणजी विराजमान हैं। जो सीधे सरल सौम्य और संकोची गम्भीर प्रकृति के हैं। श्री लालबाबा महाराज को प्रधान गादी पर श्री लक्ष्मी पतिजी (मुन्ना बाबा) विराजमान हैं, जो एकनिष्ठा उपासना तंत्र-ज्ञान और तेजस्विता की मूर्ति हैं। स्नेह भाव और सौहार्द इन्होंने स्वाभाविक ही पाया। श्री लालबाबा की पूज्य मातु श्री माया देवी (महारानीजी) भी परम बिदुषी कृपानिष्ठ और सर्व कल्याण भावनामयी महान आत्मा थीं, जिनके आशीर्वाद प्राय: सिद्ध और मंगलकारी ही होते थे। इस गादी के हज़ारों शिष्य चौबे तथा अन्य लोग हैं। इस गादी के शिष्य धूजी चौबे ने घोर अकाल की आशंका वाले अवर्षण काल में मंत्र बल से इन्द्रलोक जाकर इन्द्रदेव द्वारा मूसलाधार वर्षा करायी जिससे उनका नाम ही 'मूसराधार चौबे' पड़ गया।





वर्तमान मन्दिर

यहाँ वर्तमान में जो भव्य मंदिर है, उसका निर्माण 15वीं शताब्दी में जयपुर के जगन्नाथ पंडितराज सामराज दीक्षित द्वारा कराया गया था। दीक्षित जी उच्च कोटि के तांत्रिक और खगोलविद थे। सवाई माधोपुर की सम्राटवेध शाला इस बात का प्रमाण है। ऐसी ही एक वेधशाला उन्होंने मथुरा में भी बनवायी थी जिसके अवशेष जयसिंहपुरा में आज भी हैं। खगोलविद होने के साथ ही आप उच्च स्तर के आध्यात्मिक साधक भी थे। कहते हैं कि आपके साथ दो माया सिंह रहा करते थे जो आपके पूजन आदि का प्रबन्ध करते थे। आप जब अम्बिका वन आये तो महाविद्या उपासना की सिद्धि के लिये प्रयत्न किया, किन्तु असफल रहने पर किसी गुरु की खोज करने लगे। आपने जब माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों से उनके गुरु श्री शंकरमुनि जी महाराज के विषय में सुना तो इनके दर्शन की इच्छा की। कहते हैं कि जब शंकरमुनि जी महाराज अम्बिका वन पहुंचे तो दीक्षित जी के दोनों सिंह पाषाण सिंह बन गये और स्वयं दीक्षित जी की समाधि लग गयी। तदन्तर, माथुर चतुर्वेद कुलगुरु श्री शंकरमुनि जी महाराज ने महाविद्या देवी मंदिर का शिखरबन्ध निर्माण कराकर दीक्षित जी को महाविद्या उपासना की सिद्धि उपलब्ध करायी।

सामराज दीक्षित जी ने शंकरमुनि जी महाराज को स्वलिखित बहुमूल्य पूजारत्न ग्रंथ भेंट किया जो ऊर्ध्वाम्नाय श्रीपीठ, श्रीजी दरबार में आज भी सुरक्षित है। कालान्तर में महाविद्या मंदिर के जर्जर हो जाने पर 1907 के आस-पास ऊर्ध्वाम्नाय पीठाधीश्वर माथुर चतुर्वेद कुलगुरु श्री शीलचंद्राचार्य जी महाराज द्वारा यहां शतचण्डी यज्ञ कराकर अपने पूर्वज श्री शंकरमुनि जी महाराज द्वारा निर्मित इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया। जिसका शिलालेख अभी कुछ समय पूर्व तक मंदिर में लगा हुआ था किंतु अब अनुपलब्ध है।

वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1822, अनूप शहर में हकीम अफजल अली से शिक्षा,
  2. राजा अलवर को पुत्रोत्पत्ति
  3. हिकमतप्रकाश हिकमत प्रदीप रचना
  4. चिकित्सा सागर विशाल ग्रंथ लेखक
  5. चतु. विद्यालय
  6. गंगदत्त रंगदत्त के पिता
  7. इनसे शास्त्रार्थ में पराजय के भय से स्वामी दयानंद रातोंरात भाग गये थे।
  8. योगचर्या सिद्ध दिव्य दृष्ठा
  9. गोपाल वेद पाठशाला संस्थापक

सम्बंधित लिंक

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