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[[category:मूर्ति कला]] [[श्रेणी: कोश]]
 
==मूर्ति कला 4 / संग्रहालय / Sculptures / Museum==
 
==बुद्ध जीवन के दृश्य==
 
जातकों के ही समान मथुरा की कलाकृतियों में [[बुद्ध]] के जीवन से सम्बन्धित अनेक घटनाएं अंकित की गई हैं। उनमें से अधोलिखित विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
 
*1. '''जन्म''' (सं. सं. 00.एच 1; 00.एन 2 इत्यादि)
 
इन दृश्यों में एक छायादार घने वृक्ष के नीचे एक स्त्री खड़ी दिखलाई पड़ती हैं जो अपने उठे हुये दाहिने हाथ से वृक्ष की शाखा थामे रहती है और बाएं हाथ से बगल ही में खड़ी हुई दूसरी स्त्री का सहारा-सी लेती रहती हे। उसकी दाहिनी ओर एक मुकुटधारी देवता नवजात शिशु को लेने के लिए दोनों हाथ फैलाये रहता है। इस दृश्य की मूलकथा निम्नांकित है:
 
  
गौतम बुद्ध जिन्हें पहले कुमार सिद्धार्थ कहते थे, [[कपिलवस्तु]] के राजा शुद्धोदन के बेटे थे। इनके जन्म से ही लोगों की सारी इच्छाएं सिद्ध हो गई थीं इसलिए इन्हें सिद्धार्थ कहा जाता    था।<balloon title="ललितविस्तर, 7, पृ0 69 जातमात्रेण सर्वार्था: संसिद्धा:।" style="color:blue">*</balloon> इनकी मां का नाम मायादेवी था जो कुमार के जन्म के समय लुम्बनी (रूम्मनदेई-नेपाल) के उद्यान में एक शालवृक्ष के नीचे खड़ी थीं। उन्होंने अपने दाहिने हाथ से वृक्ष की टहनी को पकड़ लिया था। दैवी प्रभाव के कारण बोधिसत्व ने साधारण मनुष्यों की तरह से जन्म नहीं लिया अपितु अपनी माता के दाहिने पार्श्व से वे प्रगट हुए। सर्वप्रथम उन्हें शक और ब्रह्मा ने अपने हाथों में लिया। ये दोनों देवता मायादेवी के पास ही खड़े थे। माया के पास दिखलाई पड़ने वाली दूसरी स्त्री सम्भवत: उनकी बहिन महाप्रजापति गौतमी है।  
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'''मूर्ति कला 4 / संग्रहालय / Sculptures / Museum'''<br />
*2. '''प्रथम स्नान''' (सं.सं. 00एच 2)
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[[चित्र:Head-of-Jina-Jain-Museum-Mathura-39.jpg|thumb|200px|[[जैन]] मस्तक<br /> Head of Jina<br /> [[जैन संग्रहालय वीथिका|राजकीय जैन संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
इस शिलाखण्ड पर जो दृशृय बना है उसमें ऊँचे आसन पर एक नग्न मानव खड़ा है और उसके अगल-बगल दो मनुष्याकृति सर्प हाथ जोड़े हुए दिखलाई पड़ते हैं। बिलकुल ऊपर की ओर शंख, बांसुरी, मृदंग, और ढोल ये पांच वाद्य बने हुए हैं जो पंचतूर्य के नाम से पहिचाने जाते थे। स्पष्टत: ये वाद्य स्वर्गीय संगीत का प्रतिनिधित्व करते हैं। कथा का रूप इस प्रकार है:
+
==कुषाण-गुप्त, गुप्त व गुप्तोत्तरकालीन मथुरा की कला==
[[बोधिसत्व]] के जन्म लेते ही वहाँ पर एक कमल उत्पन्न हुआ जिस पर वे खड़े हो गये। तत्पश्चात नंद और उपनन्द नामक दो नाग राजाओं ने आकाश में ठंडे और गर्भ पानी की दो धाराएं उत्पन्न की जिनसे बोधिसत्व की प्रथम स्नान कराया गया।<balloon title="जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1906-7 पृ0 152।" style="color:blue">*</balloon>
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*3. '''जम्बू वृक्ष के नीचे कुमार सिद्धार्थ'''
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===कुषाण-गुप्त काल===
इस दृश्य को अंकित करने वाला शिलाखण्ड इस समय [[दिल्ली]] के संग्रहालय में है।<balloon title="A Guide to the Galleries of the National Museum of India, New Delhi, 1956 पृ0 3।" style="color:blue">*</balloon>
+
ईसवी सन् की द्वितीय शताब्दी के अन्तिम पाद में कुषाण वंश के आख़िरी शासक वासुदेव का शासक समाप्त हुआ और इसी के साथ मथुरा की कुषाण कला का उत्कर्ष भी समाप्त हो गया। इसके बाद [[गुप्तों]] के सृदृढ़ शासन की स्थापना तक इस भूप्रदेश में राजनीतिक उथल-पुथल हो रही थी। गुप्तों के समय कला को एक नया मोड़ मिला और साथ ही साथ अब भाव सौंदर्य की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। सौदर्य के मानदण्ड का यह परिवर्तन तत्कालीन जीवन के सभी क्षेत्रों में झलकता हुआ दिखलाई पड़ता है। मूर्तिकला, [[चित्र कला|चित्रकला]], साहित्य, वेशभूषा, [[वास्तुकला]], इत्यादि अनेक क्षेत्रों में इस नवीन जागरण के दर्शन होते हैं, परन्तु स्पष्ट है कि यह जागरण आकाशं में कौंध उठने वाली बिजली के समान एकाएक समुद्भुत नहीं हुआ था। इसके पीछे लगभग एक शताब्दी की परम्परा है। [[शक-कुषाण काल|कुषाण काल]] के अन्तिम दिनों से ही इन नवीन विचारों की सूचना मिलने लगती है। मथुरा कला में देखे जाने वाले इस परिवर्तन युग को यहाँ संक्रमण काल अथवा कुषाण-गुप्त काल कहा गया है। साधारण रूप से सन् 200 से लगभग सन् 325 तक का समय इसमें समाविष्ट हो सकता है।  
कथा निम्नांकित हैं:
 
  
कुमार सिद्धार्थ अपने साथियों के साथ कृषिग्राम गये। वहाँ पर उन्होंने एक सुन्दर जम्बू वृक्ष देखा जिसकी शीतल छाया बड़ी सुहावनी थी। उसी समय उन्होंने एक मुट्ठी-भर घास लेकर वृक्ष के नीचे आसन बनाया और स्वयं ध्यान में लीन हो गये।<balloon title="मिलाइये ललितविस्तर, 11.19, पृ0 93।" style="color:blue">*</balloon>
+
इस युग में निर्मित प्रतिमाओं में कुषाण और [[गुप्त]] दोनों कलाओं के लक्षणों का अद्भुत मेल दिखलाई पड़ता है। यहाँ कलाकार अपनी परंपरागत पद्धति से मूर्ति तो गढ़ता है पर साथ ही साथ उसका ध्यान भावपक्ष की ओर भी लगा रहता है। उदाहरणार्थ सुखासीन कुबेर (सं. सं. सी.) के मुख पर दिखलाई पड़ने वाला सुख और सन्तोष का चित्रण। बुद्ध या तीर्थंकर की मूर्ति बनाते समय कलाकार शांत और स्मित युक्त मुख बनाने की चेष्टा करता है। प्रभा-मण्डल को हस्तिनखों से युक्त तो बनाता है पर बीच वाली ख़ाली जगह में कतिपय नवीन अभिप्रायों का सृजन करता है। चतुर्भुज शिवलिंग को गढ़ते समय चारों मुखों पर चार विशेष प्रकार के भाव प्रदर्शित करने का भी प्रयास करता है। केवल मथुरा कला की ही नहीं, अपितु अन्यत्र पाई गई कुछ मूर्तियाँ भी इस काल की कला का प्रातिनिध्य करती हैं। प्रो0 काड्रिंग्टन ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि कुषाण और गुप्तकाल के बीच वाली खाई को मिलाने वाली चार बुद्ध मूर्तियाँ <ref>ये चार मूर्तियाँ निम्नांकित हैं:<br />
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(क) [[सांची]] की [[स्तूप]] 26 की बुद्धमूर्ति।<br />
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(ख) [[अमरावती]] की खड़ी [[बुद्ध]] प्रतिमा।<br />
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(ग) [[इलाहाबाद]] की खड़ी बुद्ध प्रतिमा।<br />
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(घ) सांची के महास्तूप की आसनस्थ बुद्ध प्रतिमाएं।</ref> विशेष रूप से स्मरणीय हैं।<balloon title="के. डी. बी. काड्रिंग्टन, Mathura of the Gods, मार्ग, खण्ड 9, संख्या 2, मार्च 1956, पृ0 46।" style="color:blue">*</balloon>
  
*4. '''गृह परित्याग'''
+
कुषाण-गुप्त काल की मूर्तियों की साधारण रूप से अधोलिखित विशेषताएं मानी जा सकती हैं;
[[मथुरा]] कला में इस दृश्य का अंकन कम स्थानों पर हुआ है। एक तो मथुरा के संग्रहालय में है (सं. सं. 00.एच3) जो अब बहुत ज्यादा घिस चुका है। दूसरा [[लखनऊ]] संग्रहालय में है (लखनऊ सं. सं. बी 84) परन्तु इसका सबसे अच्छा उदाहरण वह है जिसे डा. फोगल ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ में प्रकाशित किया है।<balloon title="फीगल, फलक 51 ए।" style="color:blue">*</balloon>
+
*1-भौंहों की वक्रता में वृद्धि होती है।<balloon title="सं. सं. 39-40.2831।" style="color:blue">*</balloon>
संसार के दु:खों का कारणपता लगाने की तीव्र इच्छा से कुमार सिद्धार्थ ने एक रात्रि को अपना प्रासाद, सुंदरी पत्नी, नवजात शिशु और सभी प्रकार के भोगविलासों का परित्याग कर दिया। कंठक नाम के घोड़े पर बैठकर सेवक छंदक के साथ वे चुपचाप शहर से चले गये। लगभग छह योजन चलने के बाद वे घोड़े से उतर पड़े। अपना राजकीय वेष और सारे आभूषण उन्होंने छंदक को दिये और घोड़े के साथ उसे लौटने की आज्ञा दी। कुमार को इस प्रकार प्रव्रजित होते हुये देखकर केवल छंदक का ही नहीं बल्कि उस घोड़े का भी दिल भर आया परन्तु आज्ञा पालन करने के लिए उन्हें लौट जाना पड़ा।
+
*2-कानों की लम्बाई बढ़ने लगती है।  
*5. '''बुद्ध का मुट्ठी भर घास लेकर बोधिवृक्ष के पास पहुँचना''' (सं. सं. 18.1389)
+
*3-हास्य को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए होंठो के दोनों छोरों पर हल्के गड्ढे दिखलाई पड़ते हैं। गुप्तकाल में इनकी गहराई और भी बढ़ जाती हे। इन्हें [[संस्कृत]] में सृक्वा, सृक्क, या सृक्किणी कहा जाता है।<balloon title="सं. सं. 63-1, तुलना कीजिये, पंचतंत्र, भाग 1।" style="color:blue">*</balloon> गुप्तकालीन मिट्टी के खिलौनों में तो ये गड्ढे किसी नुकीली वस्तु को गड़ाकर बनाये जाते थे।
दरवाजे की धन्नी पर बने हुए एक दृश्य में बुद्ध की आवक्ष मूर्ति दिखलाई पड़ती है जो उठे हुये बाएं हाथ से वृक्ष की शाखा को पकड़े है। उसके वक्षस्थल के पास तक उठे हुये दाहिने हाथ में किसी चीज की एक गड्डी-सी है। दृश्य की पार्श्व भूमि इस प्रकार है:
+
*4-सारे शरीर की बनावट में छरहरापन तो नहीं दिखलाई पड़ता पर पेट, कमर और जांघों की बनावट अधिक आकर्षक अवश्य हो जाती है।
 +
*5-साधारणतया केशों की रचना, हाथों के अंगदादि अलंकार मेखला आदि की बनावट में प्राचीन कुषाण परंपरा के दर्शन होते हैं।
 +
*6-प्रभावमण्डल में हस्तिनख की अन्तिम पंक्ति तो रहती है पर उसके और केन्द्र के बीच वाले रिक्त स्थान में शनै:-शनै: अलंकरणों का बनना प्रारम्भ होता है जो गुप्तकाल में पहुँचकर पूर्णता को पा लेता है।
  
सुजाता की दी हुई खीर का सेवन करने के बाद जब कुमार सिद्धार्थ ने ध्यानस्थ होने का विचार किया तब वे आसन के लिए घास खोजने लगे। इतने में रास्ते के दाहिनी ओर उन्हें स्वस्तिक नाम का घसियारा दिखलाई पड़ा। उससे उन्होंने मुट्ठी-भर घास मांगी और वे बोधिवृक्ष की ओर चल पड़े।<balloon title="ललितविस्तर, 19, पृ0 207-8।" style="color:blue">*</balloon>
+
===गुप्तकाल===
*6. '''मार का आक्रमण''' (सं.सं. 00.एच 1;00.एन 2 इत्यादि)
+
इस काल की कला का प्रमुख वैशिष्ठय मूर्तिकला ही है। कलाकार के कुशल हाथों में पड़कर इस काल की मिट्टी और पत्थर सौन्दर्य की जीती जागती प्रतिमाओं में बदल जाते थे। गुप्तकालीन कलाकारों ने कुषाण काल के शारीरिक सौंदर्य के उत्तान प्रदर्शन को नहीं अपनाया वरन् स्थूल सौंदर्य और भाव सौंदर्य का सुन्दर योग स्थापित किया। गुप्तकला में विवस्त्र या नग्न चित्रण को कोई स्थान नहीं है जब कि कुषाण कला की वह एक अपनी विशेषता थी। कुषाण कला का पारदर्शक केश विन्यास शरीर के सौष्ठव को, उसके मांसल अवयवों को चमकाने के लिए बनाया जाता था, परन्तु गुप्त काल का वस्त्र विलास उसे सुरूचिपूर्ण ढंग से आच्छादित करने के लिए ही बनता था। वेदिका स्तंभों पर अंकित क्रीड़ारत युवतियों का अंकन गुप्त युग में लोकप्रिय न रहा। अब इन बाहर की प्रतिमाओं की अपेक्षा गर्भगृह के अन्दर संस्थापित उपास्य मूर्ति के सौंदर्य को अधिक मूल्य दिया जाने लगा।
बुद्ध के जीवन की प्रमुखतम घटना होने के कारण मथुरा कला में इसका अंकन अनेक स्थानों पर मिलता है। भूमिस्पर्श मुद्रा में बोधिवृक्ष के नीचे सिद्धार्थ बैठे हुये हैं। उनके पैरों के पास या आसन के नीचे मार या [[कामदेव]] बाण मारते हुए अथवा गर्दन झुकाये हुए दिखलाई पड़ता है। उसका चिह्न मीनध्वज भी बहुधा दिखलाई पड़ता है। कथा इस प्रकार है:
 
  
कुमार सिद्वार्थ को सच्चे ज्ञान को पाने का प्रयास करते हुए देख कर मार ने उनके मार्ग में बाधाएं खड़ी करने का निश्चय किया। प्रथम तो उसने अनेक प्रकार के शस्त्रों को धारण करने वाले भयानक मुखों वाले सैनिकों की सेनाएं भेजीं पर सिद्धार्थ निश्चल रहे। मार के प्रयत्न को देखकर दाहिने हाथ से भूमि को छूते हुए अथवा उसकी शपथ लेते हुये मार के प्रति उन्होंने यह प्रतिज्ञा वाक्य कहे, 'रे मार! इस पक्षपात विहीन, चर-अचर को समान रूप से सुख देने वाली पृथ्वी को साक्षी बना कर मैं शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपने निश्चय और प्रतिज्ञा से कदापि नहीं डिगूँगा। <ref>ललितविस्तर. 21.88, पृ0 233—<br />
+
डा॰ कुमारस्वामी के शब्दों में गुप्तकाल की कला जो मथुरा की कुषाण कला से उद्भूत है, स्वत: एकरूप एवं स्वाभाविक है।<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ0 72।" style="color:blue">*</balloon>  
इयं मही सर्व जगत् प्रतिष्ठा।<br />
+
गुप्तकालीन मानव मूर्तियों की कुछ विशेषताएं, जो बहुधा सर्वसाधारण रूप से देखी जा सकती हैं, निम्नांकित हैं:
अपक्षपाता सचराचरेसमा ॥<br />
+
*1. सादी एवं प्रभावोत्पादक शैली जिसकी सहायता से अनेक भव्य आदर्श साकार हो उठे हैं। बुद्ध की कुछ मूर्तियों में (उदाहरणार्थ सं. सं.00ए5) तथा मथुरा की गुप्तकालीन [[विष्णु]] मूर्ति में जो इस समय राष्ट्रीय संग्रहालय [[दिल्ली]] में है, आध्यात्मिक शान्ति, प्रसन्नता, स्नेह व दयाशीलता के स्पष्ट दर्शन होते हैं।
इयं प्रमाणं मम नास्ति मे मृषा।<br />
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*2. मूर्ति के अंकन में यथार्थ की अपेक्षा आदर्श की मात्रा बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए आंखे अब गोल नहीं होती अपितु वे धनुषाकार भौंहों के साथ कान तक (आकर्ण) फैल जाती हैं और आकार में लम्बी और कोनेदार दिखलाई पड़ती हैं।  
साक्षित्वमस्मिं मम संप्रयच्छतु ॥</ref> अपने प्रथम प्रयास में इस प्रकार पराभव पाकर मार ने अपनी कन्याओं को अर्थात स्वर्ग की अप्सराओं को बुलवाया और बोधिसत्व के मन को चंचल करने के लिए उन्हें भेजा। काम की इन सहेलियों ने बत्तीस प्रकार की स्त्री-मायाओं <ref>ललितविस्तर (मारधर्षण परिवर्त, 21, पृ0 233-34) में वर्णित इन स्त्री-मायाओं में से कई मथुरा कला के वेदिकास्तम्भों पर चित्रित की गई हैं। कुछ के उदाहरण निम्नांकित हैं:<br />
+
*3. पाषाण प्रतिमाओं में आंखों की पुतलियाँ कम ही बनती रहीं और आंखें अधखुली दिखलाई जाती थीं।
(क) बाहूनुत्क्षिप्य विजृम्भमाणान् कक्षान् दर्शयन्तिस्म (सं.सं. 15.977)<br />
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*4. नाम सीधी, कपोल चिकने, होंठ कुछ मोटे तथा गड्ढेदार बनाये जाने लगे। कानों की बनावट में भी महत्त्वपूर्ण अन्तर हो गया।  
(ख) उन्नतान्कठिनान्पयोधरान्दर्शयन्तिस्म (सं.सं.13.286)<br />
+
*5. कुषाण काल में हास्य का प्रदर्शन करने के लिए कभी-कभी दन्तावलि दिखलाई जाती है, पर गुप्तकाल में विशेष प्रकार की मूर्तियों को छोड़कर सामान्यत: केवल मंदस्मित से ही काम लिया गया है।  
(ग) अर्धनिमिलितैर्नयनै: बोधिसत्त्वं निरीक्षन्तेस्म (सं. सं. 00.जे12)<br />
+
*6. विष्णु [[कार्तिकेय]], [[इन्द्र]] आदि मूर्तियों में भौंहों के बीच दिखलाई पड़ने वाला देवत्व का प्रदर्शक ऊर्णा चिह्न अब अदृश्य हो जाता है।
(घ) शिर: स्वंसेषु च पत्रगुप्तांशुकसारिकांश्चोपविष्टानुपदर्शयन्तिस्म (सं. सं. 17.1307, 12.258)</ref> का प्रदर्शन किया और भाँति-भाँति से बोधिसत्व का चित्त चंचल करने का प्रयास किया परन्तु वे भी पूरी तरह असफल रहीं
+
*7. केशों की बनावट में अनेक आकर्षक प्रकार दिखलाई पड़ने लगते हैं।
इस प्रकार अपने सभी प्रयत्नों में असफलता गले बांधकर मार को अपनी पराजय का घोर दु:ख हुआ वह मुंह लटका कर एक ओर बैठ गया।
+
*8. वस्त्र साधारणतया झीने और शरीर से चिपके हुए दिखलाई पड़ते हैं।
*7. '''दो श्रेष्ठियों द्वारा भोजनदान'''
+
*9. कुषाण काल की अपेक्षा अलंकारों की संख्या कम होने लगती है। कुछ चुने हुए आभूषण जैसे कंठ की एकावली, हाथों के अंगद और कंकण, मोतियों का जनेऊ, करधनी और नूपुर ही साधारणतया दिखलाई पड़ते हैं।
यह कलाकृति राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में है।<balloon title="A Guide to the Galleries of the National Museum of India, 1956, पृ0 3।" style="color:blue">*</balloon> बुद्ध के संबोधि प्राप्त करने के सात सप्ताह बाद त्रपुष और भल्लिक नाम के दो व्यापारी अपने अनुयायियों के साथ उस प्रदेश में आये। काशायवस्त्र पहले हुये संबुद्ध कुमार सिद्धार्थ को, जो महापुरूष के बत्तीस लक्षणों से सुशोभित थे, देखकर दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और बुद्ध को प्रथम भोजन देने का सम्मान प्राप्त किया।<balloon title="ललितविस्तर, 24, पृ0 276-77।" style="color:blue">*</balloon>
 
*8. '''लोकपालों द्वारा भिक्षापात्रों का दान''' (सं.सं. 00.एच 12)
 
इस शिलाखण्ड पर एक ऊंचे आसन पर बुद्ध बैठे हुये हैं, उनके चारों ओर मुकुटधारी चार भद्र पुरूष हैं जिनके हाथों में एक-एक पात्र है। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार ये लोकपाल हैं।
 
अभिसंबुद्धकुमार सिद्धार्थ का प्रथम भोजन करने का समय निकट आया हुआ जानकर वैश्रवण, धृतराष्ट्र, विरूधक और विरूपाक्ष नाम के चार लोकपाल वहां पर आये। प्रथम तो वे सोने के पात्र लाये थे जिनको बुद्ध ने स्वीकार नहीं किया। इसके बाद क्रमश: वे वैडूर्य, स्फटिक और मसारगल्ल नामक रत्नों के पात्र लाये पर वे सभी अस्वीकृत होते गये। अन्त में वे शिलामय पात्रों को ले आये जो भिक्षु के लिए उपयुक्त थे। बुद्ध ने अपने प्रभाव से इन चार शिलापात्रों को एक पात्र में परिणत कर दिया जिसका उपयोग उन्होंने त्रपुष और भल्लिक के द्वारा दिए गए भोजन के लिए किया।<balloon title="ललितविस्तर 24, पृ0 276-77।" style="color:blue">*</balloon>
 
*9. '''महाब्रह्मा और इन्द्र का आगमन''' (सं. सं. 36.2663)
 
बहुत बार बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध का कोई प्रतीक चिह्न जैसे उनका प्रभामण्डल अथवा स्वयं बुद्ध बने रहते हैं और अगल-बगल में मुकुटधारी [[इन्द्र]] और जटाधारी ब्रह्मा नमस्कार मुद्रा में दिखलाई पड़ते हैं। ललितविस्तार हमें बतलाता है कि सम्बोधि प्राप्त करने के बाद [[महाब्रह्मा]] और [[शक्र]] (इन्द्र) कई बार बुद्ध के पास यह प्रार्थना करने के लिए आये कि वे अपने नवीन ज्ञान का उपदेश लोगों को करें। बड़ी कठिनाइयों के बाद बुद्ध के द्वारा यह प्रार्थना स्वीकार की गई। <ref>[[ललितविस्तर]] 25, पृ0 287-92।<br /> 
 
अभूच्च ते पूर्वभवेष्वियं मति:। तीर्ण: स्वयं तारयिता भवेयम्।<br />
 
असंशयं पारगतोऽसि सांप्रतं। सत्यां प्रतिज्ञां कुरू सत्यविक्रम: ॥32<br />
 
धर्मोल्कया विधम मुनेऽन्धकारा। उच्छ्रेपय त्वं हि तथागतध्वजम्।<br />
 
अयं स काल: प्रतिलाभ्युदीरणे। मृगाधिपो वा नद दुन्दुभिस्वर:॥33<br /> </ref>
 
*10. '''धर्म-चक्र-प्रवर्तन''' (सं.सं. 00.एच 159.4740)
 
बुद्ध द्वारा धर्मचक्र का प्रवर्तन दिखलाने वाले दृश्य अन्य स्थानों के समान मथुरा में भी विपुल हैं। इसमें या तो आसनस्थ बुद्ध व्यवख्यान-मुद्रा में दिखलाये जाते हैं, या सही अर्थ में धर्मचक्र को चलाते हुए दिखलाई पड़ते हैं। बहुधा वे शिष्यों से घिरे हुए रहते हैं। बौद्ध कथायें हमें बतलाती हैं कि शक्र और महाब्रह्मा की प्रार्थना को स्वीकार कर बुद्ध वज्रासन से उतर पड़े और वाराणसी की ओर चले। वहां पर सारनाथ में, जिसे उस समय इसिपतन कहते थे, उन्हें उने पुराने पांच साथी मिले जो आगे चल कर पंच भद्रवर्गीय भिक्षु कहलाये। इन भिक्षुओं को उन्होंने सर्वप्रथम 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' अपना अमूल्य उपदेश दिया और इस प्रकार अपने धर्मचक्र को गति दी।
 
रूपकात्मक भाषा का प्रयोग करते हुए ललितविस्तर बतलाता है कि इस प्रकार बारह तिल्लियों वाले, तीन रत्नों से सुशोभित धर्मचक्र को कौडिन्य, पंच भद्रवर्गीय, छह करोड़ देवता तथा अन्यान्य लोगों के सम्मुख भगवान बुद्ध द्वारा चलाया गया। <ref>ललितविस्तर, 26 42-46, पृ0 305।<br />
 
एवं हि द्वादशाकारं धर्मचक्रंप्रवर्तितम्।<br />
 
कौण्डिन्येन च आज्ञातं निर्वृत्ता रतनात्रय:॥<br />
 
बुद्धो धर्मश्च संघश्च इत्येतद्रतनात्रयम्।<br />
 
X &nbsp;&nbsp; X &nbsp;&nbsp; X<br />
 
कौडिन्यं प्रथमं कृत्वा पंचकाश्चैवभिक्षव:।<br />
 
षष्टीनां देवकोटीनां धर्मचक्षुर्विशोधितम्॥</ref>
 
*11. '''श्रावस्ती के चमत्कार''' (सं.सं. 13.290)
 
इस प्रतिमा में बुद्ध खड़े हैं और उनके कन्धों से ज्वालाएं निकल रही हैं। इस कलाकृति में बुद्ध के प्रातिहार्य का चित्रण है जो उन्होंने [[श्रावस्ती]] (आज का सहेत-महेत) में किया था। बौद्ध कथाओं के अनुसार<ref>[[दिव्यावदान]], 12, पृ0 100</ref> अन्य मतों के आचार्यों द्वारा चुनौती दी जाने पर भगवान बुद्ध ने भी अपना प्रभाव दिखलाने के लिए श्रावस्ती में प्रातिहार्य करने का निश्चय किया। पूर्वनिश्चित समय पर सारे जनसमूह के सम्मुख उन्होंने चार प्रातिहार्य या चमत्कार दिखलाये। ये चार प्रातिहार्य ज्वलन, तपन, वर्षण और विद्योतन के नाम से पहिचाने जाते हैं। आकाश में स्थित बुद्ध के शरीर से जनता ने ज्वालाएं, गर्मी, जल और प्रकाश को निकलते देखा। प्रस्तुत प्रतिमा में ज्वलन प्रातिहार्य दिखलाया गया है।  
 
*12. '''बुद्ध दर्शन के लिए इन्द्र का आगमन अथवा इन्द्रशिला गुफा का दृश्य''' (सं.सं. 00.एच 11;00.एन 3)
 
मथुरा कला में इस दृश्य का चित्रण विपुलता से पाया जाता है। अन्यत्र यथा बुद्ध[[गया]], [[सांची]], [[अमरावती]] एवं [[स्वातनदी की घाटी]] में भी<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 23, पृ0 125-26।" style="color:blue">*</balloon> इसका अंकन मिलता है। मथुरा की कलाकृतियों में बहुधा किया गया गुफा का अंकन [[दिव्यावदान]] के वर्णन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है।<balloon title="मिलाइये- दिव्यावदान 38, मैत्रकन्यकावदान, श्लोक 72-73, पृ0 502।" style="color:blue">*</balloon> पर्वत की गुफा उसमें बैठे हुए बुद्ध, वन का प्रातिनिध्य करने वाले सिंह और मयूर, वीणा पर गायन करने वाला गन्धर्व तथा ऐरावत के साथ इन्द्र का लेखन बड़े ही सुन्दर प्रकार से हुआ है। कथा निम्नांकित है:
 
  
एक समय बुद्ध [[राजगृह]] के पास एक गुफा में बैठे हुए थे। वहाँ उनका पूजन करने के लिए देवराज इन्द्र आया। उसके साथ ऐरावत हाथी तथा अन्त:पुर की अन्य रमणियाँ भी थीं। बुद्ध समाधि में थे। उस समय वहां गन्धर्वराज पंचशिख ने मधुर गायन किया तथा देवराज ने तथागत का पूजन किया।
+
===बुद्धमूर्ति===
*13. '''नालागिरि हाथी का दमन'''
+
[[चित्र:Buddha Mathura Museum-103.jpg|thumb|200px|अभय मुद्रा में आसनस्थ [[बुद्ध]]<br /> Seated Buddha in Abhaya Protection <br /> [[संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
इस दृश्य का अंकन यहाँ कम मिलता है। लखनऊ के राज्य-संग्रहालय<balloon title="लखनऊ संग्रहालय संख्या बी 356" style="color:blue">*</balloon> में केवल एक ऐसी प्रतिमा है जिसमें बुद्ध खड़े हैं और उनके पैरों के पास नालागिरि हाथी पैर झुकाये बैठा है। इस हाथी को मदान्ध बनाकर देवदत्त द्वारा बुद्ध पर छोड़ा गया था, पर तथागत के प्रभाव से वह नम्र हो गया।
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कुषाण काल के समान गुप्तों के समय भी मथुरा नगर कला का एक तीर्थ रहा, पर कला का मुख्य केन्द्र होने का सौभाग्य अब सारनाथ (वाराणसी) को मिला,<balloon title="स्टेला क्रेमरिच, Indian Sculpture, पृ0 63।" style="color:blue">*</balloon> जहाँ [[चुनार]] पत्थर के माध्यम से इस काल की कई अमर कृतियाँ निर्मित हुईं। मथुरा की गुप्त कलाकृतियों में सर्वश्रेष्ठ वह बुद्ध प्रतिमा है जिसने अपने सौन्दर्याभिव्यक्ति के कारण देश की सभी गुप्त कृतियों में एक महत्वपूर्ण स्थान पाया है। इस प्रतिमा के मुखमण्डल पर विलास करने वाला मंदस्मित, शान्त मुद्रा एवं आध्यात्मिक प्रभुता का तेज देखते ही बनता है (सं. सं.00ए5)
*14. '''बुद्ध का स्वर्ग से अवतरण''' (सं.सं. 00.एन 2; 39.2038)
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गुप्तकालीन बुद्ध मूर्तियों में अधोलिखित विशेषताएं अवलोकनीय हैं;
इस दृश्य को पहिचानने का मुख्य लक्षण तीन सीढ़ियों का बनाया जाना है, जिनमें से निचली सीढ़ी के नीचे नमस्कार मुद्रा में झुकी हुई एक स्त्री भी दिखलाई पड़ती है। कुछ नमूनों में इन सीढ़ियों पर तीन प्रतिमाएं भी बनी रहती हैं। बुद्ध के स्वर्गावतरण को कथा इस प्रकार है:
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*1. आध्यात्मिक चिंतन, शान्ति और स्मित के मुख पर स्पष्ट दर्शन।
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*2. शरीर के बनावट में मृदुता।
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*3. वस्त्रों का झीना और पारदर्शक होना।
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*4. वस्त्र की विशेष प्रकार की सिकुड़न। कुषाण काल की मूर्तियों में बहुधा वस्त्र की सिकुड़नें खोदकर बनाई जाती थीं, पर गुप्तकाल में ये धारियाँ उभरी हुई रहती हैं। साथ ही ये वस्त्र हलके और पारदर्शक भी हैं
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*5. अलंकृत प्रभामण्डल। कुषाण काल में प्रभामण्डल के किनारे पर प्राय: अर्धचन्द्र या हस्तिनख की पंक्ति बनी रहती थी पर अब इस के साथ-साथ विकसित कमल, पत्रावली पुष्पलता आदि कई अभिप्राय बने रहते हैं
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*6. घुँघरदार बालों से अलंकृत मस्तक। अब बुद्ध का मुण्डित मस्तक क्वाचित् ही दिखलाई पड़ता है, उस स्थान पर घुँघराले बालों की घुमावदार लटें दिखलाना साधारण प्रथा बन जाती है। <ref>मुण्डित मस्तक युक्त बुद्ध प्रतिमा का केवल एक ही नमूना अब तक ज्ञात है जो लखनऊ के राज्य संग्रहालय में सुरक्षित है और मानकुवर बुद्ध प्रतिमा के नाम से पहिचाना जाता है (लखनऊ संग्रहालय संख्या ओ. 70)।</ref>
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*7. कुषाण काल में भौंहों के बीच दिखलाई पड़ने वाला ऊर्णा चिह्न अब इनी-गिनी मूर्तियों में दिखलाई पड़ता है (सं. सं. 18.1391,33.2337,2309.33इ.)। इन मूर्तियों को केवल परिपाटी के पालन का नमूना कहा जा सकता है। साधारणतया ऊर्णा चिह्न अब कुषाण काल के समान आवश्यक नहीं समझा जाता था।
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*8. अभयमुद्रा दिखलाने वाले हाथ की स्थिति में भी अब परिवर्तन होता है। कुषाण मूर्तियों में यह हाथ लगभग कन्धे तक ऊंचा उठा रहता है, पर गुप्त-बुद्ध प्रतिमा में वह लगभग समकोण बनाते हुए अधिकाधिक कमर तक ही उठता है।<balloon title="मिलाइये- सं. सं.00.ए.1, 39.2831, 00.ए.5 आदि।" style="color:blue">*</balloon>
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*9. दोनों पैरों के बीच में दिखलाई पड़ने वाली वस्तुओं को लुप्त होना।
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*10. कानों की लम्बाई व सारे चेहरे की बनावट तथा हाथों की बनावट में भी अन्तर है। गुप्ताकलीन चेहरे की विशेषताएं पहले बतलाई जा चुकी हैं। हाथ की मुख्य विशेषता उसकी उंगलियों में है। कुषाणकाल में जहाँ पांचों उंगलियाँ मिली हुई दिखलाई पड़ती हैं, वहाँ गुप्तकाल में वे सम्मुख भाग में एक दूसरे से पृथक् मालूम पड़ती हैं।
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*11. हथेलियाँ पर बनने वाले चिह्न गुप्तकाल में कम हो जाते हैं। यहाँ सामुद्रिक रेखायें तो रहती हैं, पर धर्मचक्र और त्रिरत्न नहीं रहते।
  
संबोधि की प्राप्ति के बाद बुद्ध अपनी माता को उपदेश देने के लिए स्वर्ग में गए। वहाँ पर तीन महीने रहकर उन्होंने अनेक उपदेश दिये। तदुपरान्त वे संकाश्य (वर्तमान [[संकाश्य|संकिस्सा]]) नामक स्थान पर पृथ्वीतल पर उतर आये। इस समय स्वर्ग से तीन सीढ़ियाँ लगाई गईं। एक सोने की, दूसरी रत्नों की तथा तीसरी चाँदी की थीं बीचवाली सीढ़ी से बुद्ध उतरे तथा अगल-बगल वाली सीढ़ियों से शक्र और ब्रह्मा उनके साथ आये। उत्पलवर्णा नाम की भिक्षुणी ने सर्वप्रथम उन्हें देखा और उनका स्वागत किया। मूर्तियों में सीढ़ी के पास झुकी हुई स्त्री यही उत्पलवर्णा हैं।
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===जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ===
*15. '''बालकों द्वारा बुद्ध धूलि-दान''' (सं. सं. 00.एच 10)
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[[चित्र:Jain-Tirthankara-Rishabhanatha-Jain-Museum-Mathura-25.jpg|200px|thumb|left|[[ॠषभनाथ तीर्थंकर|तीर्थंकर ऋषभनाथ]]<br /> Tirthankara Rishabhanath<br /> [[जैन संग्रहालय वीथिका|राजकीय जैन संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
इस संग्रहालय में अब तक संगृहीत मूर्तियों में केवल एक ही स्थान पर यह दृश्य अंकित है। गांधार कला में भी इसके नमूने देखे जा सकते हैं।<balloon title="एन.जी. मजुमदार, A Guide to the Sculpture in the Indian Museum, 1937, खण्ड 2, पृ0 58।" style="color:blue">*</balloon> प्रस्तुत शिलाखण्ड पर भिक्षापात्र फैलाकर खड़े हुए बुद्ध के सामने नमस्कार मुद्रा में झुकी हुई दो नन्हीं-सी मानव आकृतियाँ बनीं हैं। बौद्ध कथाएं हमें इस दृश्य को समझने में बड़ी सहायता करती हैं।
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इस काल की बनी हुई तीर्थंकर मूर्तियाँ भी अधिकतर भाव प्रधान हैं। बुद्ध प्रतिमाओं के समान उनके प्रभामण्डल विविध प्रकार से अलंकृत मिलते हैं। हथेलियाँ और पैरों के तलुओं पर धर्मचक्र चिह्न बना रहता है (सं. सं.00बी.1,00बी.11,00बी.28)यह भी विशेष महत्व की बात है कि जहाँ गुप्तकालीन बुद्ध मूर्तियों में ऊर्णा चिह्न बहुधा नहीं मिलता वहाँ [[जैन|जैनियों]] ने इस पद्धति को पूरी तरह से नहीं छोड़ा। ऊर्णा और उष्णीश से युक्त [[जैन संग्रहालय मथुरा|जैन मूर्तियों]] के नमूने मथुरा शैली में विद्यमान हैं (सं. सं.00.बी. 45, 00.बी.51), पर ऐसे नमूने कम हैं।
एक बार बुद्ध राजगृह में भिक्षाटन कर रहे थे। रास्ते में उन्हें दो बालक जिनका नाम जय और विजय था धूल से खेलते हुए मिले। इनमें से एक बालक ने मुट्ठी-भर धूल बुद्ध के भिक्षापात्र में यह कहकर डाल दी कि यह जौ का आटा है, दूसरा इस घटना को देखता रहा। बुद्ध ने इस पांशु अंजलि को बड़े प्रेम से स्वीकार किया और भविष्यवाणी की कि धूलिदान करने वाला बालक भविष्य में सम्राट [[अशोक]] होगा।<balloon title="दिव्यावदान 26— पांशुप्रदानावदान, पृ0 230 ।" style="color:blue">*</balloon>
 
*16. '''नंद और सुन्दरी की कथा''' (सं. सं. 12.186, लखनऊ संग्रहालय संख्या जे 533)
 
अश्वघोष के प्रमुख काव्य सौंदरानन्द की यह मुख्य कथावस्तु है। इसका अंकन मथुरा में नहीं अपितु गांधार कला में भी हुआ है। मथुरा कला में इसका उपयोग द्वार स्तम्भों को सजाने के लिए किया गया है, जिसका सबसे सुन्दर उदाहरण इस समय लखनऊ के राज्य संग्रहालय में है।
 
अश्वघोष द्वारा वर्णित कथा हम नीचे दे रहे हैं।<balloon title="एन.जी. मजुमदार, A Guide to the Sculpture in the Indian Museum, 1937, खण्ड 2, पृ0 52।" style="color:blue">*</balloon> धम्मपद की टीका में दी हुई कथा में थोड़ा अन्तर है। शाक्य वंश के एक कुमार का नाम नंद था। सुन्दरी उसकी पत्नी थी। एक समय अपने महल के ऊपर वाले मंजिल पर जब दोनों पाति-पत्नि विहार कर रहे थे, उस समय बुद्ध ने नंद के प्रासाद में भिक्षार्थ प्रवेश किया। सेवकों ने उनकी ओर कोई ध्यान न दिया और न उनके आगमन की कोई सूचना दी। फलत: किंचित रूककर बुद्ध बाहर चले गये। उनका इस प्रकार असम्मानित होकर जाना महल की छत पर खड़ी एक सेविका देख रही थी। उसने नंद को यह समाचार दिया। तत्काल नन्द अपनी प्रियतमा की आज्ञा लेकर सौध पर से उतर आया और बुद्ध के पीछे चला। मार्ग में ही उसने बुद्ध को प्रणाम किया और अपराध के लिए क्षमा-याचना की। बुद्धि नन्द को अपने मठ में ले गये और बहुत कुछ उसकी इच्छा के विरूद्ध ही उन्होंनें उसे प्रव्रजित भी किया।
 
  
वे बार बार उसे भौतिक सुखों का परित्याग करने का उपदेश देते थे। पर नन्द पर इन उपदेशों का कोई प्रभाव न पड़ा, वह सदैव खिन्न ही रहा करता था। तब एक दिन बुद्ध उसे अपने साथ स्वर्ग ले गए और वहाँ की अनिंद्य सुन्दरियों का उसे दर्शन कराया। अब उनके सामने नन्द को सुन्दरी का सौन्दर्य फीका मालूम पड़ने लगा और उन्हें पाने की इच्छा जग उठी। बुद्ध ने उन्हें बतलाया कि उन्हें पाने के लिए घोर तप करना होगा। नन्द ने तपस्या प्रारम्भ की। शनै:-शनै: बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द ने वैरागय की भावना जगाई। अन्ततोगत्वा सभी प्रकार के ऐहिक और पारलौकिक सुखों का परित्याग कर नन्द सच्चा विरक्त भिक्षु बन गया।
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तीर्थंकरों के लांछन दिखलाने की पद्धति अभी नहीं चली थी। कुषाणकाल के समान इनके नामों को जानने के लिए हम3 उन पर अंकित शिलालेखों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। [[ऋषभदेव|ऋषभनाथ]] और पार्श्वनाथ तो क्रमश: कन्धों पर हलराते हुए बालों की लटों व मस्तक पर दिखलाई पड़ने वाली सर्प-फणों से पहिचाने जा सकते हैं।
*17. '''तपस्वी ब्राह्मण बावरी की कहानी''' (सं.सं. 00ज.2, ऊपरी भाग)
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तीर्थंकरों की कुछ, ऐसी मूर्तियाँ हैं जो गुप्तकाल और मध्यकाल की संक्रमणावस्था को सूचित करती हैं। उदाहरणार्थ एक तीर्थंकर प्रतिमा (सं. सं. 18.1388) की चरण चौकी पर अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ का लांछन मीन-मिथुन बना है। एक दूसरी तीर्थंकर प्रतिमा (सं.सं.00.बी. 75) पर जैन, बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के अभिप्रायों का अद्भुत संमिश्रण है। मूर्ति तीर्थंकर की है, उनके आसन पर दो मृगों के बीच धर्म-चक्र वाला एक बौद्ध अभिप्राय है और पीछे की ओर कुबेर और [[नवग्रह|नवग्रहों]] की मूर्तियाँ बनी हैं।
एक वेदिका स्तम्भ के ऊपरी फुल्ले में यह दृश्य अंकित है। यहाँ एक छत्रधारी व्यक्ति श्रोताओं के बीच कोई भाषण दे रहा है। [[डा. वासुदेवशरण अग्रवाल]] के मतानुसार यह निम्नांकित कथा का चित्रण है:<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 5।" style="color:blue">*</balloon>
 
  
[[गोदावरी]] के तट पर अपने सोलह शिष्यों के साथ बावरी नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण रहता थां उसके पास एक दिन एक ब्राह्मण आया और 500 मुद्रओं की याचना करने लगा। उक्त धनराशि को न पाकर उसने बावरी को शाप दिया कि आज से सातवें दिन तुम्हारे मस्तक के सात टुकड़े हो जायेगे। बावरी को इस पर घोर दु:ख हुआ पर किसी दयालु देवता ने उसे बुद्ध के पास जाने का सुझाव दिया। अपने सभी शिष्यों को लेकर यह बुद्ध के पास पहुँचा जहाँ प्रत्येक ने बुद्ध से एक-एक प्रश्न पूछा। सबको समाधानकारक उत्तर देकर बुद्ध ने सन्तुष्ट किया।
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===ब्राह्मण धर्म की मूर्तियाँ===
*18. '''बुद्ध का महापरिनिर्वाण'''(सं.सं. 00.एच7, एच8, 00.एच2,इत्यादि)
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इस काल का राजधर्म [[भागवत धर्म]] होने के कारण यह स्वाभाविक था कि [[वेद]]शास्त्रों से अनुमोदित [[ब्राह्मण धर्म]] की ओर प्रजा का झुकाव अधिक रहा हो और इससे सम्बन्धित मूर्तियों का प्रचलन भी अधिक रहा हो। इस सम्बन्ध में निम्नांकित बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं;
बुद्ध जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना होने का कारण इसका अंकन कई स्थानों पर मिलता है। जब बुद्ध की मृत्यु हुई उस समय उनकी आयु 80 वर्ष की थीं वे उन दिनों [[कुशीनगर]] (कसिया, जिला देवरिया, [[उत्तर प्रदेश]]) को जा रहे थे। अपना अंत निकट जानकर उन्होंने आनन्द से दो शाल वृक्षों के बीच चौकी लगाने के लिए कहा, और सिरहाना उत्तर की ओर करके दाहिनी करवट पर लेट गये। इसी समय एक घुमक्कड़ साधु, जिसका नाम सुभद्र था, वहाँ आया। यही बुद्ध का अन्तिम शिष्य हुआ।
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*1. मथुरा शैली में अन्य देवताओं की अपेक्षा [[ब्रह्मा]] की मूर्तियाँ कम बनती थीं।
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*2. विष्णु की मूर्तियों की विपुलता है। प्रारम्भिक विष्णु मूर्तियों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में विष्णु प्रतिमा को गढ़ने के लिए पुरानी कुषाण कालीन विष्णु मूर्ति को ही आधार माना गया था, पर साथ ही साथ नवीन तत्त्वों का भी समावेश तेजी से होने लगा था। उनका सीधा मुकुट अब शनै:-शनै: लुप्त होने लगा और उसका स्थान सिंह-मुख, मकर, मुक्ता, मुक्ता-जाल आदि अलंकरणों से युक्त मुकुट ने ले लिया। गले के आभरण तथा पहनने के वस्त्र में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। बनमाला तथा प्रभामण्डल का निर्माण अब प्रारम्भ हुआ। गुप्तकाल से ही प्रारम्भ होने वाली एक दूसरी महत्त्वूपर्ण विशेषता विष्णु के आयुधपुरुषों की निर्मिति है। मथुरा कला में गदा-देवी व चक्र-पुरुष के दर्शन होते हैं। चारों आयुधों को धारण किये हुए खड़े विष्णु के साथ ही इस काल में आसन पर बैठी हुई प्रतिमाएं भी बनी थीं (सं. सं. 15.512)। साधारण प्रतिमाओं के अतिरिक्त त्रिविक्रम रूप में बनी विष्णु मूर्तियाँ मथुरा से प्राप्त हुई हैं। गुप्तकाल की वैष्णव मूर्तियों में [[नृसिंह अवतार|नृसिंह]]-[[वराह]]-[[विष्णु]] की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस प्रकार की प्रतिमा में तीन मुख होते हैं। इनमें बीच का पुरुष तथा अगल-बगल के मुख वराह और सिंह के होते हैं।
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[[चित्र:Four-Armed-Vishnu-With-Varaha-And-Nrisimha-Faces-Mathura-Museum-17.jpg||200px|thumb|नृसिंह-वराह रूपी [[विष्णु]] की चतुर्भुजी मूर्ति <br />Four Armed Vishnu With Varaha And Nrisimha Faces <br /> [[संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
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*3. इस काल में [[शिव]] मूर्तियाँ भी कम नहीं मिलतीं। मथुरा में तो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में [[शैव|शैवों]] का एक बड़ा केन्द्र रहा जिसका प्रमाण यहाँ से मिला हुआ एक स्तम्भ लेख है। इस काल में शिव की लिंग-रूप और मानव-रूप दोनों प्रकार की मूर्तियाँ मिलती हैं। इनकी प्रथम महत्वपूर्ण विशेषता शिव का तीसरा नेत्र है। कुषाणकाल में यह नेत्र आड़ा बनाया जाता था पर कुषाण-गुप्तकाल से ही यह खड़ा बनाया जाने लगा। शिवलिंगों में साधारण लिंगों के अतिरिक्त एक-मुखी (सं.सं. 14-15.427, 16.1238) व द्विमुखी लिंग (सं.सं. 14-15.462) मिलते हैं। अन्यत्र शिव के चतुर्मुख और पंचमुख लिंग भी मिलते हैं। शिव की मूर्तियों में अर्धनारीश्वर व आलिंगन मुद्रा में शिवपार्वती (सं.सं. 14.474) की प्रतिमाएं अधिक मिलती हैं। मथुरा की शिव प्रतिमाओं की यह एक विशेषता है कि यहाँ जब शिव अपनी शक्ति के साथ होने हैं तब उन्हें अवश्य ही उर्ध्वमेढ्र स्थिति में दिखलाया जाता है जो आदि-पुरुष की अमोघ शक्ति का परिचायक है। शिव-पार्वती की मूर्तियों में अलंकरण व भाव प्रदर्शन की दृष्टि से वह मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जो एक ही ओर नहीं अपितु दोनों ओर समान रूप से बनाई गई हैं (सं.सं. 30-2084)। गुप्तकाल की कुछ मूर्तियों में शिव के परिचायक चिह्नहों में व्याघ्राम्बर (सं.सं. 54.3764;) अर्धचन्द्र या बालेन्दु (सं. सं. 13.362) दिखाई देते हैं।
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*4. भारतीय कलाकृतियों में प्राचीनकाल की [[गणेश]] मूर्तियाँ बहुत ही कम मिली हैं। जिनमें से एक मथुरा से प्राप्त हुई है (सं.सं. 15.758)।
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*5. उपरोक्त मूर्तियों के अतिरिक्त इन्द्र (सं.सं. 46.3226), हरिहर (सं.सं.10.1333), कुबेर (सं.सं. 00.सी.5), यमुना (लखनऊ संग्रहालय जे. 563) आदि की सुन्दर मूर्तियाँ भी मिलती हैं।
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*6. फुटकर मूर्तियों में [[सूर्य]] देवता के एक अनुचर पिंगल की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि इस पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है (सं.सं. 36.2665)।
  
अंत में अपने सभी शिष्यों को निर्वाण के लिए अनन्त प्रयत्न करते रहने का आशीर्वाद देकर भगवान बुद्ध ने अपना पार्थिव देह त्याग दिया। उस समय वहाँ उनके अपने शिष्य, अन्तिम भिक्षु सुभद्र, कुशीनगर के मल्ल शासक आदि के अतिरिक्त कई देवतागण भी उपस्थित थे।  
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==गुप्तोत्तरकालीन मूर्तियाँ==
कलाकृतियों में राजा के समान दिखलाई पड़ने वाला पुरूष बहुधा मल्लों का अधिपति है। नीचे की ओर ध्यानस्थ सुभद्र है तथा अन्य भिक्षु शोकमुद्रा में खड़े हैं। वृक्ष के ऊपर वृक्ष देवता भी दिखलाई पड़ता है।
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गुप्तोत्तरकाल में सभी सम्प्रदायों की मूर्तियाँ तो ख़ूब बनती रहीं पर कला और सौन्दर्य की दृष्टि से उनमें गुप्तकाल की सर्वांग सुन्दरता नहीं दिखलाई पड़ती है। बहुत सी मूर्तियों में मौलिकता का अभाव है। तथापि इन मूर्तियों का एक अपना सौन्दर्य है। मथुरा कला की मध्यकालीन प्रतिमाओं की मुख्य रूप से अधोलिखित विशेषताएं गिनाई जा सकती हैं;
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*(1) मथुरा की कलाकृतियों के लिए अब तक जहां चित्तेदार लाल पत्थर का प्रयोग होता था वहां अब [[मध्य काल]] में पहुँचते-पहुँचते भूरे रंग के बलुए पत्थर का प्रयोग होने लगा और कलाकारों ने लाल पत्थर की मूर्तियां गढ़ने के लिए आश्रय देना समाप्त-सा कर दिया।  
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*(2) इस काल की प्रतिमाओं में मांसलता और छोटा क़द अधिक दिखलाई पड़ता है। साथ ही साथ कवि-संकेत-सिद्ध सौंदर्य के मानदण्डों को जैसे विशाल आकर्ण-नेत्र, शुक-चंचु के समान नासिका, निकली हुई कोनेदार ठोड़ी, स्त्रियों के अविरल स्तन-युग्म, इत्यादि को प्रमुख रूप से अपनाया गया।
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*(3) इसके साथ-साथ अलंकारों के अंकन की मात्रा भी बढ़ गई। भारी कंठ-भूषण, अलंकारों से भरे हुए हाथ, भारी वज़न की मेखलायें या रशना-जाल, ऊंचे उठे हुए मुकुट, पुष्पों से शोभित धमिल्ल एवं नयनरम्य केशभार इस काल की मूर्तियों में बड़ी ही रूचि से बनाये जाते थे।  
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*(4) मथुरा की मध्यकालीन मूर्तियाँ अधिकतर समूचे पत्थर की पटिया पर उकेर कर बनाई गई हैं, चारों ओर से देखी जाने वाली मूर्तियां कम हैं।
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*(5) इस समय की पुरुष मूर्तियों में मस्तक के केशों का अंकन भी ध्यान देने योग्य है। कुषाण काल में मुकुट के नीचे कानों के ऊपर थोड़े केश दिखलाये जाते थे। गुप्त काल में मुख पर इस प्रकार के बाल दिखलाना बंद हो गया, उन्हें कन्धों पर विपुलता से लहराते हुए दिखलाने लगे थे। गुप्तोत्तर काल में भाल के ठीक ऊपर काढ़े हुए बालों की एक छोटी-सी पंक्ति दिखलाई पड़ने लगती है।  
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*(6) इस काल की मूर्तियों की दृष्टि में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। अब इनकी दृष्टि अन्तर्मुखी नहीं है, अपितु दर्शक या भक्त की ओर पूरी तरह अवलोकन करने वाली है। [[चित्र:Head-of-Jina-Jain-Museum-Mathura-22.jpg|thumb|200px|जैन मस्तक <br /> Head of a Jina<br /> [[जैन संग्रहालय वीथिका|राजकीय जैन संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
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उस काल तक पहुँचते-पहुँचते बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म के मूर्तिशास्त्र बहुत अधिक विकसित हो चुके थे और विभिन्न देवी देवताओं के अनेक ध्यान लोकप्रिय हो रहे थे। इस बदलती हुई परिस्थिति के फलस्वरूप हमें यहाँ अनेक नवीन प्रकार की मूर्तियां मिलती हैं। इनमें कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रतिमाओं की यहाँ चर्चा की जा रही है।  
  
==अन्य बौद्ध दृश्य==
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===(क)जैन धर्म की प्रतिमाएं===
*(क)रामग्राम में नागों द्वारा स्तूप का संरक्षण (सं. सं.00जे 71 पृष्ठ भाग)
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इस काल की बनी जैन मूर्तियों में भावपक्ष तो निर्बल है पर मूर्तिशास्त्र की दृष्टि से वे अधिक पूर्ण हैं। अब केवल तीर्थंकरों के लांछन ही नहीं अपितु कहीं-कहीं उनके साथ के यक्ष आदि भी बने रहते हैं। इससे तीर्थंकर की पहिचान करना सहज हो जाता है। इन प्रतिमाओं की दूसरी विशेष बात यह है कि अब बुद्ध और जैन प्रतिमा के मस्तकों में विशेष अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। प्रभामण्डल, उष्णीश, छत्रावलि, विद्याधर आदि वस्तुएं दोनों में पायी जाती है।
बहुधा कलाकृतियों में ऐसे भी स्तूप दिखलाई पड़ते है जो नागों द्वारा घिरे हुये रहते हैं। इस प्रकार का स्तूप रामग्राम के प्रसिद्ध स्तूप का चित्रण माना जाता है जिसमें बुद्ध के पवित्र अवशेष रखे हुए थें बात यह थी कि बुद्ध के महानिर्वाण के उपरान्त उनकी धातुओं या पांचभौतिक अवशेषों को आठ भागों में विभक्त कर आठ स्तूप बनाये गये थे। उसमें एक रामग्राम का स्तूप भी था। अशोक ने आगे चलकर इनमें से सात स्तूपों को खोला और उनमें निहित पवित्र अवशेषों को लेकर चौरासी हजार स्तूपों का निर्माण कराया। परन्तु वह आठवां अर्थात रामग्राम का स्तूप नहीं खोल सका क्योंकि उसका संरक्षण नागगण बड़ी सावधानी से करते थे।
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समय के साथ-साथ जैनों का देवता-संघ भी बढ़ता गया और उनकी मूर्तियां निर्माण होती गई। मथुरा के संग्रहालय में जैनों के एक देवता क्षेत्रपाल की एक प्रतिमा विद्यमान है। यह भैरव का ही एक स्वरूप है। इसी प्रकार जैनों की एक प्रसिद्ध देवी चक्रेश्वरी की मूर्ति यहाँ देखी जा सकती है जिसके सभी हाथों मे चक्र बने हैं। अन्य देवताओं में सिंहारूढ़ अम्बिका एवं कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हुए स्त्री-पुरुष या 'युगलिया'<balloon title="यह पहिचान डा॰ ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ने की है।" style="color:blue">*</balloon> प्रतिमा (सं.सं. 15.1111) दर्शनीय हैं। [[चित्र:Buddha-Mathura-Museum-46.jpg|200px|thumb|[[बुद्ध]]<br /> Buddha<br />  [[संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
*(ख)लंका के राजा द्वारा सुमन की सहायता से बुद्ध-धातु की प्राप्ति (सं.सं. 17.1270)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 151-52 ।" style="color:blue">*</balloon>
 
एक पाषाण खण्ड पर चलता हुआ अलंकृत हाथी बना है तथा 'शस्तख धतु' ये शब्द लिखे हैं। कथा इस प्रकार है:
 
लंका में बुद्ध के धातु-अवशेष न होने के कारण महेन्द्र लंका का परित्याग करना चाहते थे। वहाँ के राजा ने उन्हें ऐसा न करने की प्रार्थना की तथा सुमन को भेजकर भारत से उसने बुद्ध के धातु-अवशेष प्राप्त करने का निश्चय किया। सुमन भारत आये, फिर वे स्वर्ग गये जहाँ से इन्द्र द्वारा उन्हें बुद्ध के गले की दाहिनी हड्डी (दक्खिनक्खक) मिली। लंका में राजकीय हाथी के मस्तक पर उसे पक्षराकर उसका विशेष सम्मान किया गया।
 
  
==पूजन दृश्य==
+
===() बौद्ध मूर्तियाँ===
कथा दृश्यों के अतिरिक्त कई दृश्यों में भक्तगण स्तूप, धर्मचक्र, गंधकुटी या बुद्ध का निवास स्थान, बोधिवृक्ष का मन्दिर या इस प्रकार की पूजनीय वस्तुओं का पूजन करते हुए, अथवा हाथों में पूजन सामग्री लेकर चलते हुए दिखलाई पड़ते हैं। कुछ दृश्यों में स्तूपों का पूजन करने वाले किन्नर और सुपर्ण भी देखे जा सकते है। इन्हें आकाश में उड़ता हुआ दिखलाया गया है।
 
==ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित कथाएं==
 
मथुरा की कलाकृतियों में इस प्रकार की कथाओं की संख्या बहुत ही थोड़ी हैं निम्नांकित कथा-दृश्य विशेष महत्त्वपूर्ण है:--
 
*1. '''वसुदेव का कृष्ण को गोकुल ले जाना''' (सं. सं. 17.1344)
 
एक शिलाखण्ड पर कृष्ण-चरित्र से सम्बन्धित इस कथा का अंकन किया गया है। उन दिनों मथुरा में कंस का शासन चल रहा था उसके पिता उग्रसेन के एक मंत्री का नाम वसुदेव था। वसुदेव के कार्यों से प्रसन्न होकर कंस ने अपनी बहन देवकी उनके साथ ब्याह दी पर बारात के समय ही भविष्यवाणी हुई कि वसुदेव और देवकी के आठवें पुत्र के हाथ से कंस का निधन होगा। यह सुनते ही कंस ने दोनों को कारागृह में डलवा दिया और वहाँ पर उत्पन्न इनके छह पुत्रों को भी मार डाला। सातवां पुत्र उत्पन्न ही नहीं हुआ अथवा उसकी उत्पत्ति गुप्त रखी गई। आठवें कृष्ण थे। इन्हें कंस के कठोर पंजों से बचाने के लिये वसुदेव ने जन्म के बाद तत्काल ही अपने मित्र नन्द के यहाँ गोकुल पहुँचा दिया। ऐसा करने के लिये उन्हें यमुना को लांघना पड़ा। पानी वरस रहा था, रात का समय था परन्तु कथा हमें बतलाती है कि मार्ग में [[शेषनाग]] अपने फणों से इनका संरक्षण करते रहे। प्रस्तुत शिलाखण्ड में यमुना नदी, दोनों हाथ उठाए हुए वसुदेव और शेषनाग स्पष्ट पहिचाने जा सकते हैं।
 
*2. '''श्रीकृष्ण का केशी के साथ युद्ध''' (सं.सं. 58.4476)
 
कृष्ण-लीला से सम्बन्धित कुषाण काल की यह दूसरी कलाकृति है। ऐसा लगता है कि यह भार-संतुलन का कोई एक साधन था जिसके बाहरी भाग पर कृष्ण लीला के दृश्य बने थे। प्रस्तुत शिलाखण्ड पर एक उछलता हुआ पुष्ट घोड़ा बना है जिसकी गर्दन पर किसी पुरूष की लात पड़ रही है। मल्ल विद्या से श्रीकृष्ण का सम्बन्ध होने के कारण हो सकता है कि यह केशी-वध की घटना का अंकन हो। कथा के अनुसार गोकुल में रहने वाले बालक श्रीकृष्ण को मारने के लिए कंस ने अपने अनेक अनुयायी भेजे जिन्होंने विविध रूप लेकर कृष्ण को नष्ट करने का असफल प्रयत्न किया। केशी भी उनमें से एक था जिसने घोड़े का रूप बनाकर कृष्ण पर आक्रमण किया पर अन्त में वह कृष्ण द्वारा मारा गया।<balloon title="विष्णुपुराण, पंचम अंश, सोलहवाँ अध्याय।" style="color:blue">*</balloon>
 
*3. '''कालिय नाग का दमन''' (सं.सं. 47.3374)
 
गुप्तोत्तर काल में कालिय दमन की घटना को अंकित करना कलाकारों का प्रिय विषय रहा है। प्रस्तुत मूर्ति भी उसी प्रवृत्ति का एक नमूना है। वैष्णव कथाएं हमें बताती हैं कि उन दिनों यमुना में कालिय नाम का एक भंयकर विषधर सांप रहता था जिसने सम्पूर्ण वातावरण को विषमय बना रखा था। यमुना के जल में गिरे हुए गेंद को निकालने के बहाने से श्रीकृष्ण जल में कूद पड़े और कालिय को पकड़कर उसके फण पर नाचने लगे। कृष्ण ने कालिय पर पूर्ण रूप से विजय पा ली किन्तु नाग की रानियों द्वारा विनय किये जाने पर उन्होंने नाग के जीवन को बचा दिया। कालिय को श्रीकृष्ण ने उस स्थान को छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी।<ref>विष्णुपुराण, पंचम अंश, 5,7,44 (गीताप्रेस प्रति)<br />
 
आनम्य चापि हस्ताभ्यामुभाभ्यां मध्यमं शिर:।<br />
 
आरूह्याभुग्न शिरस: प्रणनर्त्तोरूविक्रम: ॥</ref>
 
*4. '''श्रीकृष्ण का गोवर्द्धन पर्वत उठाना''' (सं. सं. डी. 47)
 
यह कलाकृति गुप्तोत्तर काल की है जो श्रीकृष्ण के गोवर्द्धन पर्वत धारण करने के दृश्य को अंकित करती है। यह लाल चित्तेदार पत्थर पर बनी है जिसकी गणना मथुरा कला की सुन्दरतम कलाकृतियों में की जा सकती है।<ref>गोवर्धनधारी कृष्ण की कुषाण-गुप्तकालीन मृण्मयी मूर्ति रंगमहल से मिली है जो आज बीकानेर संग्रहालय में है- ललितकला, संख्या 8, फलक 21।</ref> मूल कथा का स्वरूप निम्नांकित है:
 
  
कृष्ण के कहने पर वृज के लोगों ने वर्षा के देवता इन्द्र की पूजा करने की अपनी पुरानी परम्परा छोड़ दी और उसके विपरीत वे गोवर्द्धन पहाड़ की पूजा करने लगे। इस अपमान से क्रुद्ध होकर इन्द्र ने वृज पर घोर वर्षा करना प्रारम्भ किया। डरे हुए वृजवासी श्रीकृष्ण के पास पहुँचे। इस पर श्रीकृष्ण ने अपने हाथ पर गोवर्द्वन पर्वत उठाकर वृजवासियों के लिए एक विशाल सुरक्षित स्थान का निर्माण किया। सम्पूर्ण वृज को बहा देने के प्रयत्न में अपने को असफल देखकर इन्द्र का गर्व सूर्ण हो गया और उसने आकर श्रीकृष्ण से क्षमा प्रार्थना की।<balloon title="विष्णुपुराण, पंचम अंश, 10वाँ अध्याय।" style="color:blue">*</balloon>
+
इस काल की मथुरा में बनी बुद्ध मूर्तियों की संख्या अधिक नहीं है। कुछ के टूटे हुए सिर संग्रहालय में हैं जिन पर क्वचित उष्णीश और उर्णा विद्यमान है। बोधिसत्वों की स्वतन्त्र मूर्तियां बनना इस काल में मथुरा में बंद-सा हो गया थां इतिहास भी हमें बतलाता है कि आठवीं शताब्दी के बाद अर्थात [[शंकराचार्य]] के समय में [[बौद्ध]] धर्म भारत से लगभग उठ गया था। इसलिये इन मूर्तियों का न मिलना स्वाभाविक ही है।
*5. '''रावण द्वारा कैलाश को उठाना''' (सं.सं. 35.2577)
+
===(ग)वैष्णव मूर्तियां===
गुप्तकाल से मध्यकाल तक इस कथा का अंकन [[शैव मत|शैव]] कलाकारों का प्रिय विषय रहा। प्रस्तुत शिलाखण्ड पर एक पर्वत-शिखर पर शिव-पार्वती बैठे हुए दिखलाई पड़ते हैं जिसे एक राक्षस कंधों पर उठाने का असफल प्रयत्न कर रहा है।  
+
मथुरा संग्रहालय की मध्यकालीन [[वैष्णव]] प्रतिमाओं में सबसे महत्वपूर्ण मूर्ति आसनस्थ चतुर्भुज-विष्णु की है। इस काल में खड़े या शेष पर लेटे हुये विष्णु की प्रतिमाएँ साधारण रूप से बनती थीं, पर बैठे हुये विष्णु जिन्हें बुद्ध अवतार का प्रतीक समझते हैं, कम दिखलाई पड़ते हैं। प्रस्तुत मूर्ति अपनी पूर्णता के कारण विशेष रूप से दर्शनीय है। अन्य प्रकार की विष्णु मूर्तियों में गुप्त काल की अपेक्षा अलंकरणों की विपुलता है। साथ ही साथ ब्रह्मा, शिव, आयुधपुरुष, श्रीदेवी व भूदेवी, नवग्रह, दश अवतार आदि अनेक छोटी मूर्तियां आस पास बनी दिखलाई पड़ती हैं। इस काल की एक अन्य विशेषता विष्णु के वक्षस्थल पर दिखलाई पड़ने वाला चतुर्दल कौस्तुभ है जो मथुरा की कुषाण और गुप्तकालीन कला में अदृश्य था।
इस दृश्य से सम्बन्धित कथा हमें बतलाती है कि एक बार लंका का राजा रावण कुबेर को पराजित करके लौट रहा था। शरवन नामक स्थान के पास आते ही उसके विमान की गति अकस्मात अवरूद्ध होगई। कारण का पता लगाने पर उसे मालूम हुआ कि उक्त स्थान पर शिव पार्वती विहार कर रहे हैं अतएव वहाँ किसी का भी जाना रोक दिया गया है। अपनी गति को कुंठित जानकर अपमानित रावण ने क्रोध से समूचे कैलाश को उखाड़ डालने का निश्चय किया और पूरी शक्ति लगाकर वह ऐसा करने लगा। कैलाश कम्पित हो उठा और उमा भयभीत हो गईं शिव ने इस बात को जान लिया और अपने पैर के अंगूठे से कैलाश को दबा दिया जिसके नीचे रावण भी दबने लगा। अब रावण ने क्षमा प्रार्थना की और बाद में शिव ने उसे क्षमा दान दे दिया।<balloon title="गोपीनाथ राव, Elements of Hindu Iconography, खण्ड 2, भाग 1, पृ0 217-18।" style="color:blue">*</balloon>
+
अन्य प्रकार की वैष्णव मूर्तियों में शेषशायी विष्णु (सं.सं. 12.256), वामन अवतार (सं.सं. 15.1025), वराह अवतार (सं.सं. 18.1114) व बलराम (सं. सं. 18.1515) की मूर्तियां मुख्य हैं।
*6. '''श्रृंगी ऋषि की कथा''' (सं. सं.00.जे7; 11.151)
+
===(घ)शैव व अन्य मूर्तियाँ===
मथुरा से मिले हुए एक वेदिका स्तम्भ पर तरूण श्रृंगी भौचक्का-सा खड़ा है। दूसरे स्थान पर उसे हम राजकुमारी के साथ प्रणय-क्रीड़ा करते हुए पाते हैं।
+
इनमें आलिंगन मुद्रा में उमामहेश्वर (00.डी 14), आसनस्थ शिव (00.डी 43,44) हरगौरी (10.139) आदि मूर्तियां व कतिपय शिवलिंगों को गिनाया जा सकता है।  
श्रृंगी ऋषि की कथा ब्राह्मण साहित्य में ही नही बौद्ध साहित्य में भी मिलती हैं। श्रृंगी एक ऋषि का बेटा था। वह वन में जन्म से ही ऐसे स्थान पर रहा था जहाँ स्त्रियों का दर्शन दुर्लभ था। एक राजा चाहता था कि उसके राज्य में पड़े हुए अकाल की शांति के लिए यह तरूण ब्रह्मचारी वहां आए। अतएव उसने उसे बुलाने के लिए राजकुमारी को भेजा। शनै:-शनै: राजकुमारी की काम चेष्टाओं का प्रभाव ब्रह्मचारी पर पड़ता गया और एक दिन वह उसके नौका पर बैठ कर चल पड़ा। बाद में राजा के द्वारा वह राजकुमारी उसके साथ ब्याह दी गई।<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS, खण्ड 24-25, पृ0 7-10 ।" style="color:blue">*</balloon>
+
अन्य देवी देवताओं की मूर्तियों में विशेष रूप से ध्यान देने योग्य निम्नांकित प्रतिमाएं हैं:
 +
नृत्य गणेश (सं. सं. 12.189), आलिंगन मुद्रा में सपत्नीक गणेश (सं.सं. 15.1112), देव सेनापति कार्तिकेय को ब्रह्मा व शिव द्वारा अभिषेक (सं.सं. 14.466), अग्नि जिसमें उसके वाहन मेष को पुरुष रूप में दिखलाया गया है (सं.सं. 00.डी.24), हनुमान (सं.सं.00डी 27), कुबेर और गणेश के साथ लक्ष्मी (सं.सं. 15.1119), शिव लिंग और गणेश से युक्त तपस्या में लीन [[पार्वती]] (सं.सं.15.1044), तीन पैरों वाले भृंगी ऋषि (सं.सं. 17.1289), महिषासुरमर्दिनी (सं.सं. 15.541), वीरभद्र और गणेश के बीच सप्तमातृकाएं, (सं.सं. 15.552), उषा व प्रत्यूषा के साथ रथ पर बैठे सूर्य (सं.सं.00.डी.45), दण्ड-पिंगल के साथ खड़े सूर्य (सं.सं. 16.1220) आदि।
 +
==मथुरी कलाकृतियों में अंकित कथा-दृश्य==
 +
यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि मथुरा की कला किसी धर्म विशेष से बंधी हुई नहीं है। इसके आचार्यों ने ब्राह्मण, बौद्ध व जैन धर्मों की समान रूप से सेवा की है। फलत: इसमें अनेक विषयों का अंकन हुआ है।<balloon title="मुख्यत: उन्हीं कथा-दृश्यों की विस्तार से चर्चा की गई है जो पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा में विद्यमान हैं।" style="color:blue">*</balloon>
  
==फुटकर दृश्य==
+
'''साधारणतया इन विभिन्न कथा-दृश्यों को निम्नांकित रूप से बाँटा जा सकता है;'''
यहां की कलाकृतियों में जैन कथाओं का तो अभाव सा है। एक शिलापट्ट पर, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय में है (लखनऊ संग्रहालय संख्या जे. 626)तीर्थकर महावीर के गर्भ के संक्रमण की कथा अंकित है।
+
*() बौद्ध कथाएं।
दूसरे एक वेदिका स्तम्भ के टुकड़े पर (लखनऊ संग्रहालय जे. 334) पंचतंत्र की एक कथा का दृश्य बना हुआ है जिसका सम्बन्ध तीक्ष्णाविषाण नामक बैल और प्रलोभक नामक सियार की कथा से जान पड़ता है।
+
*() ब्राह्मण धर्म के कथा-दृश्य।
==मथुरा कला से सम्बन्धित अन्य ज्ञातव्य विषय==
+
*(ग) फुटकर कथाएं।
पिछले अध्यायों में मथुरा की कला- विशेषतया पुरातत्व संग्रहालय मथुरा में प्रदर्शित पाषाण मूर्तियों की कला- का परिचय पूरा हुआ। यह तो स्पष्ट ही है यह परिचय अतिशय संक्षिप्त है और इसलिए इसमें माथुरी कला और इससे सम्बन्धित अनेक बातों का केवल संकेत ही किया गया है। तथापि साधारण पाठक के लिए कुछ बातें ऐसी बच जाती हैं जिनकी किंचित विस्तार से चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है।
+
इनमें बौद्ध कथाओं की संख्या सर्वाधिक है। यह अवश्य ही आश्चर्य का विषय है कि जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र होते हुए भी माथुरी कला में जैन कथाओं का अंकन बहुत ही थोड़ा है। ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित कथाओं की भी बहुलता नहीं है। अतएव प्रथम बौद्ध कथाओं को लें।
==मथुरा कला का माध्यम==
 
उत्तर गुप्तकाल के प्रारम्भ तक मथुरा के कलाकारों ने जो मूर्तियाँ बनाई या भवन निर्माण किए उनके लिए उन्होंने एक विशेष प्रकार का लाल चित्तेदार पत्थर काम में लाया। यह पत्थर मथुरा में अब भी विपुलता से व्यवहृत होता है। इसकी प्राप्ति रूपवास, टंकपुर और फतेहपुर सीकरी की खानों से होती है। मूर्ति गढ़ने की दृष्टि से यह पत्थर पर्याप्त मृदु होता है, पर इस पर लोनों का असर अधिक होता है। इसी का फल यह है कि कितनी ही मूर्तियाँ काल के प्रभाव से अब गली जा रही हैं। संभव है कि इसके दुर्गण को देखकर ही मध्यकाल के प्रारम्भ से कलाकारों ने मूर्तियों के लिए उसका प्रयोग करना छोड़ दिया हो।
 
==मथुरा कला का विस्तार==
 
कुषाण और गुप्त काल में कला-केन्द्र के रूप में मथुरा की प्रसिद्धि बहुत बढ़ गई थी। यहाँ की मूर्तियों के मांग देश भर में तो थी ही पर भारत के बाहर भी यहाँ की मूर्तियाँ भेजी जाती थीं। मथुरा कला का प्रभाव दक्षिण पूर्वी एशिया तथा चीन के शाँत्सी स्थान तक देखा जाता है।<balloon title="मार्ग, खण्ड 15, सं. 2, मार्च 1962, पृ0 3 संपादकीय।" style="color:blue">*</balloon> अब तक जिन विभिन्न स्थानों से मथुरा की मूर्तियाँ पाई जा चुकी हैं, उनकी सूची <ref>यह तालिका निम्नांकित आधारों पर बनाई गई है—<br />
 
(क) मथुरा तथा लखनऊ संग्रहालयों की पंजिकाएँ।<br />
 
(ख) कुमारस्वामी, HIIA., पृ0 60, पा. टि. 1।<br />
 
(ग) वही, पृ0 66, पा.टी. 2,3 ।<br />
 
(घ) फेब्री, सी0एल0, Mathura of the Gods, मार्ग, मार्च 1954, पृ0 13 ।<br />
 
(ङ) संपादकीय, मार्ग, खण्ड 15, संख्या 2, मार्च 1962 ।<br />
 
(च) प्रयाग संग्रहालय के अध्यक्ष डा0 सतीशचन्द्र काला की सूचनाएँ।</ref>निम्नांकित है:
 
  
{| border="0" cellpadding="5" cellspacing="0"
+
==बौद्ध कथा-दृश्य==
| 1. [[तक्षशिला]]         
+
इन्हें यहाँ दो रूपों में समझा जा सकता है- एक तो बुद्ध के अतीत जन्मों की कथाएं और दूसरे बुद्ध जीवन के दृश्य। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार बृद्धत्त्व की प्राप्ति के पूर्व बुद्ध ने कई जन्म लिये थे। इन जन्मों की कथाएं जातक कथाओं के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन कथाओं को वेदिकास्तम्भों पर, सूचिकाओं पर अथवा दीवारों पर अंकित करना प्राचीनकाल की सामान्य परिपाटी थी जिसके नमूने भरहूत, सांची, अमरावती आदि स्थानों पर तथा गान्धार कला में भी प्रचुरता से मिलते हैं। मथुरा की कला भी इस नियम के लिए अपवाद नहीं है। यहाँ की कलाकृतियों में अब तक बारह जातकों की पहचान हो चुकी हैं। इनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है।
| तक्षशिला, पश्चिमी पाकिस्तान
+
*1. '''दु:खोपादान जातक''' (सं.सं. 15.586)<ref>[[वासुदेवशरण अग्रवाल]], Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS, खण्ड 24-25, पृ0 38-39।</ref>
|-
+
इसका अंकन एक वेदिका स्तम्भ पर किया गया है। जिसमें एक फुल्ले में पर्णशाला के सामने एक बैठा हुआ साधु दिखलाई पड़ता है। ठीक उसी के पास उसकी ओर मुँह किए एक सांप, हिरन, कौवा तथा कबूतर भी बने हैं।
| 2. [[सारनाथ]]         
 
| [[वाराणसी]] के पास, [[उत्तर प्रदेश]]
 
|-
 
| 3. [[श्रावस्ती]]         
 
| सहेतमहेत, जिला गोंडा- बहराइच
 
|-
 
| 4. [[भरतपुर]]         
 
| भरतपुर, [[राजस्थान]]
 
|-
 
|5. बुद्ध [[गया]]         
 
| गया, बिहार
 
|-
 
|6. [[राजगृह]]       
 
| राजगीर, बिहार
 
|-
 
|7. साँची या श्री पर्वत         
 
| [[सांची]], मध्य प्रदेश
 
|-
 
|8. बाजिदपुर         
 
| कानपुर से 6 मील दक्षिण, उत्तर प्रदेश
 
|-
 
|9. [[कुशीनगर]]       
 
| कसिया, उत्तर प्रदेश
 
|-
 
|10. [[अमरावती]]       
 
| अमरावती, जिला गुन्तुर, मद्रास राज्य
 
|-
 
|11. टण्डवा   
 
| सहेत-महेत के पास, उत्तर प्रदेश
 
|-
 
|12. [[पाटलीपुत्र]] 
 
| पटना, बिहार
 
|-
 
|13. लहरपुर
 
| जिला सीतापुर, उत्तर प्रदेश
 
|-
 
|14. [[आगरा]]
 
| आगरा, उत्तर प्रदेश
 
|-
 
|15. एटा
 
| एटा, उत्तर प्रदेश
 
|-
 
|16. [[मूसानगर]]
 
| कानपुर से 30 मील दक्षिण-पश्चिम, उत्तर प्रदेश
 
|-
 
|17. पलवल
 
| जिला गुड़गाँव, पंजाब
 
|-
 
|18. तूसारन विहार
 
| प्रतापगढ़ से 30 मील दक्षिण-पश्चिम, उत्तर प्रदेश
 
|-
 
|19. ओसियां
 
| जोधपुर से 32 मील उत्तर-पश्चिम, राजस्थान
 
|-
 
|20. भीटा
 
| देवरिया के पास, जिला [[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]]
 
|-
 
|21. [[कौशाम्बी]]
 
| इलाहाबाद के पास, उत्तर प्रदेश
 
|}
 
  
==मथुरा में कला के प्राचीन स्थान==
+
कथा इस प्रकार है कि एकबार चार भिक्षुओं में दु:ख के मूल कारण के विषय में बात चली। चारों के मत भिन्न थे अतएव वे शंका निवृत्ति के लिए बुद्ध के पास गये। बुद्ध ने पूर्व जन्म की एक घटना को बतलाते हुये उनका समाधान किया। उन्होंने बतलाया कि एक वन में रहने वाले हिरन, कौवा, सांप तथा कबूतर में पहले एक बार ऐसा ही वाद उठ पड़ा था। कबूतर का मत था कि प्रेम दु:ख का मूल उपादान है, कौवे के मतानुसार यह उपादान भूख थी, सांप घृणा को मूल उपादान बतलाता था और हिरन सोच रहा था कि भय के अतिरिक्त दूसरा कोई उपादान नहीं हो सकता। निकट ही रहने वाले एक साधु सवे यह प्रश्न पूछा गया। उसने बतलाया कि तुम सभी अंशत: सच बतला रहे हो पर दु:ख के मूलतम उपादान तक नहीं पहुँच रहे हो। देह धारण ही सभी दु:खों का मूल कारण है।
यद्यपि मथुरा कला की कृतियाँ आज भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं, तथापि यह ध्यान देने योगय बात है जिन स्थानों पर ये मूर्तियां विद्यमान थीं या पूजित होती थीं उन विशाल भवनों, स्तूपों और विहारों का अब कोई भी चिह्न विद्यमान नहीं है। केवल कहीं-कहीं पर टीले बने पड़े हैं इसलिये इन स्थानों के प्राचीन नाम आदि जानने के लिए हमें उन शिलालेखों का सहारा लेना पड़ता है जो मथुरा के विभिन्न भागों से मिले हैं। साधारणतया यह अनुमान किया गया है कि जिस स्तूप या विहार का नाम जिस लेख या लेखांकित मूर्ति से मिला है, संभवत: उस विहार के टूटने पर वह मूर्ति वहीं पड़ी रही होगी। अतएव हम मूर्ति के प्राप्तिस्थान को ही उसमें उल्लेखित स्तूप या विहार की भूमि कह सकते हैं। यदि यह अनुमान सत्य है तो प्राचीन मथुरा के उन सांस्कृतिक केन्द्रों के स्थान कुछ निम्नांकित रूप से समझे जा सकते हैं <ref>प्रस्तुत तालिका निम्नांकित आधारों पर बनाई गई हैं:<br />
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समारोप करते हुए बुद्ध ने बतलाया कि उस जन्म में साधु वे स्वयं थे और विवाद करने वाले चार भिक्षु चार जानवर थे। यह जातक कथा आज के उपलब्ध पाली साहित्य में नहीं मिलती, अपितु बुद्ध जीवन से सम्बन्धित एक चीनी ग्रंथ में इसका विवरण मिलता है।
() वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS.<br />
+
*2. '''सिसुमार अथवा वानरिन्द जातक''' (सं.सं. 00.जे 42; 12.195) <ref>यह जातक कथा मथुरा से प्राप्त एक अन्य वेदिका स्तम्भ पर भी अंकित है, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय में विद्यमान है। देखिये- लोझेन, डी ले फयू जे.वी., Two Notes on Mathura Sculptures, India Antiqua फोगल-स्मृति ग्रंथ, लीडन 1947, पृ0 235-39।</ref>
(ख) जेनेर्ट, के.एल. Heinrich Luders, Mathura Inscriptions, गाटिंजन, जर्मनी, 1961 ।<br />
+
यह कथा दो वेदिका स्तम्भों पर अंकित मिलती है। इसमें एक मगर और बन्दर को एक साथ दिखलाया गया है। कथा यह है कि एक समय बोधिसत्व बन्दर के रूप में एक नदी के तट पर निवास करते थे। उसी नदी में मगर का एक जोड़ा भी रहता था। एक बार मगर की पत्नी ने बन्दर का कलेजा खाने की इच्छा अपने पति के पास प्रगट की। प्रियतमा की इच्छा पूरी करने के लिए मगर ने बन्दर से दोस्ती की और एक दिन उसे सुझाया कि बन्दर को चाहिए कि वह नदी के दूसरे तट पर लगे हुये ताजे और मधुर फलों को खाया करे और इसके लिए वह स्वयं उसे पार ले जाया करेगा। बन्दर मगर की बातों में आ गया और उसकी पीठ पर बैठकर नदी में चल पड़ा। बीच धारा में पहुँचकर मगर ने उसे सही बात बतलाई और स्वयं पानी में डूबने लगा। चतुर बन्दर हँस पड़ा, उसने कहा आश्चर्य है कि तुम्हें यह पता ही नहीं है कि बन्दर लोग कभी अपना कलेजा अपने साथ नहीं रखते, अन्यथा कूदने फांटने में उसके टुकड़े-टुकड़े हो जायँ। वे तो उसे पेड़ों पर लटका के रखते हैं। मूर्ख मगर ने इस बात पर विश्वास कर लिया और बन्दर का कलेजा पाने के लालच से उसे पुन: किनारे पर ले आया। अब बन्दर कूद पड़ा और मगर की बुद्धिहीनता पर हँसने लगा।
(ग) अन्य सम्बन्धित लेख व पंजिकांए।<br />
+
जातकों के अतिरिक्त थोड़े परिवर्तनों के साथ यह कथा पंचतंत्र में भी मिलती है।
श्रीकृष्णदत्त बाजपेयी ने दो और विहार, मनिहिर और ककाटिका विहार भी गिनाये हैं, पर उनके स्थान नहीं दिये हैं, -- वृज का इतिहास, भाग 2, पृ0 66 । </ref>:
+
*3. '''महासुतसोम जातक''' (सं.सं. 14.431,00 जे.23)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 15।" style="color:blue">*</balloon> इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक प्रस्तर खण्ड पर मिलता है। यहाँ एक पुरुष कन्धे पर बहेंगी लिये जा रहा है जिसके दोनों छोरों से एक-एक मानव आकृति लटक रही है।
===जैन स्थान===
+
इस जातक की कथा के अनुसार एक समय वाराणसी के किसी राजा को मानव का माँस खाने की रूचि उत्पन्न हो गई। अपनी दुष्ट इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसने कितने ही निरीह मनुष्यों को मरवा डाला। जब इसका भेद खुला तब लोगों ने उसे राज्य से निकाल दिया। वह भी एक जंगल में रहकर वहाँ आने वाले पथिकों को मारकर खाने लगा। एक बार उसके पैर में चोट आई। अतएव उसने वृक्षदेवता की मनौती की कि उसका व्रण एक सप्ताह में ठीक होने पर वह एक सौ एक कुमारों की बलि चढ़ावेगा। संयोग से उसका पैर ठीक हो गया। अब अपनी मनौती की पूर्ति के लिए उसने एक सौ कुमारों को पकड़कर एक वृक्ष से लटका दिया। अन्तिम कुमार बोधिसत्त्व सुतसोम थे जिन्हें इस नरभक्षक ने पकड़ लिया, पर बोधिसत्त्व के अदम्य साहस, निर्भीकता आदि गुणों से वह बड़ा प्रभावित हुआ और अन्ततोगत्वा उसकी सम्पूर्ण जीवन-धारा को पलट देने में बोधिसत्त्व सुतसोम पूरी तरह सफल हो गये।
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*4. '''रोमक अथवा परावत जातक''' (सं.सं. 00.आई 4)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, वही, खंड 23, पृ0 128।" style="color:blue">*</balloon>
| देवनिर्मित बौद्ध स्तूप         
+
यह जातक अपने मूल स्थान पर कई भागों में अंकित थां इस समय अवशिष्ट शिलाखण्ड पर केवल दो भाग देखे जा सकते हैं। कथा-दृश्य के ऊपर मालाधारी यक्षों की पंक्ति बनी हुई थी। यहाँ हम कुछ साधू व
| कंकाली टीला
+
एक कबूतर देखते हैं। इन साधुओं में एक दूसरे की अपेक्षा अवस्था में वृद्धि है। यह अनुमान उसकी दाढ़ी से किया जा सकता है। इस जातक की कथा का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है:
|}
 
  
===बौद्ध स्थान===
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एक समय बोधिसत्त्व ने कबूतरों के राजा का जन्म लिया था। कबूतरों का यह झुण्ड जंगल में रहने वाले एक साधु के यहाँ नियमित रूप से जाता रहा। यह साधु एक गुफ़ा के पास रहा करता था। वृद्धावस्था के कारण आगे चलकर वह साधु उस स्थान को छोड़कर कहीं चला गया और उस स्थान पर एक दूसरा तरूण साधु आकर रहने लगा। कबूतरों का झुण्ड अब भी आता रहा। एक दिन इस नवीन साधु को कबूतरों का माँस खाने को मिला जो उसे बहुत ही अच्छा लगां इस विषय में उसका लोभ बढ़ा और उसने इन कबूतरों के झुण्ड में शिकार करने की सोची। दूसरे दिन वह अपने कपड़ों में डण्डा छिपाकर कबूतरों की राह देखने लगा। उसकी चेष्टाओं से बोधिसत्त्व को उसके कपट व्यवहार का पता लग गया और उन्होंने अपने अनुयायियों को वहाँ जाने से रोक दिया। अब इस तरूण साधु का कपट खुल गया और अन्ततोगत्वा पास-पड़ौस वालों के डर से उसने वह स्थान छोड़ दिया।
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*5. '''वेस्सन्तर जातक''' (सं.सं. 00.जे 4 पृष्ठ भाग)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ05।" style="color:blue">*</balloon> इस जातक कथा का अंकन कलाकारों का प्रिय विषय रहा। भरहूत और सांची की कलाकृतियों में भी यह प्रचुर रूप से अंकित है। मथुरा में यह कई भागों भागों में दिखलाया गया था। संग्रहालय में प्रदर्शित वेदिका-स्तम्भ के पिछले भाग पर इसके कुछ दृश्य मुख्यत: कुमार वेस्सन्तर और याचक ब्राह्मण, कुमार द्वारा ब्राह्मण को अपने दोनों पुत्रों का दान तथा एकाकिनी स्त्रीमूर्ति कदाचित वेस्सन्तर की पत्नी अंकित हैं।
| 1. यशाविहार     
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उस समय बोधिसत्व ने आदर्श दानी के रूप में कुमार वेस्सन्तर के नाम से जन्म लिया था। उन्होंने अपना श्वेत वर्ण का मंगल-गज, ब्राह्मणों को दान में दे दिया। फलस्वरूप उन्हें पत्नी और पुत्रों के साथ देशत्याग करना पड़ा। रास्ते में उन्होंने ब्राह्मण के मांगने पर अपना रथ और घोड़े भी दे दिये। अब यह कुटुम्ब एक पर्वत पर रहने लगा, पर यहाँ भी पूजक नाम का एक ब्राह्मण आ पहुँचा जिसने कुमार से उसके दोनों पुत्रों की याचना की। पत्नी की अनुपस्थिति में भी कुमार ने ब्राह्मण की प्रार्थना स्वीकार कीं वस्तुत: यह ब्राह्मण कुमार वेस्सन्तर की परीक्षा लेने आया था। बाद में शक देवता के प्रभाव से कुमार का सारा कुटुम्ब और उसका पुराना ऐश्वर्य सब कुछ उसे मिल गये।
| कटरा केशवदेव
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*.6 '''पाद-कुसल-माणव जातक''' (सं.सं. 12.191)<balloon title="वही, पृ0 34 पूरी कहानी के लिए देखिए आनन्द कौसल्यायन, जातक (हिन्दी), खण्ड 4, पृ0 163।" style="color:blue">*</balloon> एक वेदिका स्तम्भ के मध्य में यह अंकित है। यहाँ हम एक अश्व-मुखी यक्षी को एक तरूण पुरुष के कन्धे को छूते हुये देखते हैं।
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जातक कथा हमें बतलाती है कि किसी समय वाराणसी की एक रानी ने झूठी शपथ ली, जिस पाप के कारण वह घुड़मुँही यक्षी बनी। उसने तब तीन वर्षों तक वैश्रवण कुबेर की सेवा की और यह वर प्राप्त किया कि एक निश्चित परिसर के भीतर प्रवेश करने वालों को वह खा सकेगी। एक दिन एक सुन्दर और धनवान ब्राह्मण युवक उसके चंगुल में फंस गया। परन्तु यह यक्षी उसके सौंदर्य पर लुब्ध हो गई और उसने उसे अपना पति बना लिया। परन्तु वह कहीं भाग न जाय इस भय से वह उसे सदा एक गुफ़ा में कैद किये रहती थीं उससे इस यक्षी के एक बैटा उत्पन्न हुआ जो बोधिसत्त्व था। बोधिसत्व ने पैरों की चाप को सुनकर मनुष्य को पहचानने की कला में कुशलता प्राप्त की और इस विद्या की सहायता से अपने पिता को घुड़मुँही यक्षी की कैद से छुड़ा लिया।
| 2. एक स्तूप         
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*.7 '''कच्छप जातक''' (सं.सं. 00.जे 36)<balloon title="इ.बी. कावेल, The Jatakas संख्या 215; जे. फोगल The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1906-7, पृ0 157।" style="color:blue">*</balloon>
| कटरा केशवदेव
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ऊपर वाले जातक के समान यह भी एक वेदिका स्तंभ के पिछले भाग पर अंकित है। यहाँ एक कछुए को दो पुरुष लकड़ियों से पीटते हुए दिखलाई पड़ते हैं।
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बात यह थी कि एक बकवादी कछुए और दो हंसों में मित्रता हो गई। हंसों ने कछुओं को अपने देश में चलने के लिए निमन्त्रित किया। कछुए को बात जंच गई। हंसों ने एक छड़ी ली और कछुए को उसे बीचोबीच अपने मुँह में पकड़ने के लिए कहा। उसके ऐसा करने पर दोनों पक्षी अपनी चोंच में उस छड़ी को पकड़कर उड़ चले। गांव के बच्चों ने जब यह विचित्र दृश्य देखा तब उन्होंने कछुए की हंसी उड़ाना प्रारम्भ किया। बकवादी कछुआ उसे न सह सका। जैसे ही उत्तर देने के लिए उसने मुँह खोला, वह भूमि पर आ गिरा और मर गया।
| 3. एक स्तूप         
+
डा॰ फोगल ने इस कथा की चर्चा करते हुए ठीक ही कहा है कि मथुरा कलाकृति में इस कथा का अंकन जातक-ग्रन्थों के आधार पर नहीं, अपितु पंचतंत्र के आधार पर हुआ है, जिसमें कहा गया है कि कछुए की मृत्यु ऊपर से गिरकर नहीं, परन्तु ग्रामवासियों की मार के कारण हुई थी।
| जमालपुर टीला
+
*8. '''उलूक जातक''' (सं.सं. 00.जे41)<balloon title="वही, संख्या 270, वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 19।" style="color:blue">*</balloon>
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इसका अंकन भी एक वेदिका स्तंभ के पृष्ठभाग पर किया गया है। यहाँ हम एक उल्लू को आसन पर बैठे हुए देखते हैं। दो बन्दर अगल-बगल खड़े होकर उसका अभिषेक कर रहे हैं। कथा के अनुसार पक्षियों ने एक समय उल्लू को अपना राजा चुना। उसका अभिषेक होने ही जा रहा था कि कौवे ने इस बात का विरोध किया और वह स्वयं आकाश में उड़ गया। उल्लू भी उसका पीछा करने के लिए आकाश में उड़ चला। इधर पक्षियों ने एक सुनहले हंस को अपना राजा चुना।
| 4. हुविष्क विहार     
+
*9. ''' दीपंकर जातक''' (सं.सं. 0.एच 10. लखनऊ संग्रहालय संख्या बी 22)<balloon title="दिव्यावदान, 18 धर्मरूच्यावदान, पृ0 152-55, जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1909-10, पृ0 72।" style="color:blue">*</balloon>
| जमालपुर टीला
+
इस जातक का सम्पूर्ण अंकन अब तक माथुरीकला में नहीं मिला है, परन्तु महत्त्वपूर्ण बातों का अंकन अवश्य है जैसे दीपंकर को फूल चढ़ाना तथा उनके सम्मुख सुमति का भूमि पर अपने केश फैलाना। जातक की पाली तथा संस्कृत कथाओं में कुछ अन्तर है। कथा का साधारण रूप निम्नांकित है:
|-
 
|5. रौशिक विहार     
 
| प्राचीन आलीक, संभवत: वर्तमान अड़ींग
 
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|6. आपानक विहार       
 
| भरतपुर दरवाजा
 
|-
 
|7. खण्ड विहार         
 
| महोली टीला
 
|-
 
|8. प्रावारक विहार     
 
| मधुवन, महोली
 
|-
 
|9. क्रोष्टुकीय विहार       
 
| कंसखार के पास
 
|-
 
|10. चूतक विहार   
 
| माता की गली
 
|-
 
|11. सुवर्णकार विहार 
 
| जमुना बाग, सदर बाजार
 
|-
 
|12. श्री विहार
 
| गऊघाट
 
|-
 
|13. अमोहस्सी (अमोघदासी) का विहार
 
| कटरा केशवदेव  
 
|-
 
|14. मधुरावणक विहार
 
| चौबारा टीला
 
|-
 
|15. श्रीकुण्ड विहार
 
| हुविष्क विहार के पास
 
|-
 
|16. धर्महस्तिक का विहार
 
| नौगवां, मथुरा से 4.5 मील द..
 
|-
 
|17. महासांघिकों का विहार
 
| पालिखेड़ा, गोवर्धन के पास
 
|-
 
|18. पुष्यद (त्ता) का विहार
 
| सोंख
 
|-
 
|19. लद्यस्क्कबिहार
 
| मण्डी रामदास
 
|-
 
|20. धर्मक की पत्नी की चैत्य-कुटी
 
| मथुरा जंकशन
 
|-
 
|21. उत्तरं हारूष का विहार
 
| अन्योर
 
|-
 
|22. गुहा विहार
 
| सप्तर्षि टीला
 
|}
 
  
===ब्राह्मण सम्प्रदाय===
+
सुमति नामक एक वेदज्ञ ब्राह्मण को एक राजा से दान में कई वस्तुएं मिलीं। इनमें एक कन्या भी थीं सुमति ने कन्या को ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया क्योंकि वह आजन्म ब्रह्मचारी रहना चाहता था। कन्या सुमति पर मुग्ध हो चुकी थी, परन्तु उसके द्वारा अस्वीकार किये जाने पर वह दीपावती नामक नगरी में जाकर ईश्वर सेवा में समय बिताने लगी। इधर सुमति को कुछ विचित्र स्वप्न हुए जिनका अर्थ समझने के लिए उसे दीपावती नगरी में जाकर वहां पधारने वाले दीपंकर बुद्ध से मिलने का आदेश हुआ। सुमति को चाहने वाली वह कन्या भी दीपंकर का पूजन करना चाहती थी। इधर दीपावती के राजा ने अपने यहाँ आने वाले दीपंकर की पूजा के लिए नगर के सम्पूर्ण पुष्पों पर अधिकार कर लियां फलत: कन्या को पूजन के लिए फूल न मिल सके। अतएव उसने अपनी तपस्या के प्रभाव से सात कमलों को विकसित कराया। यही कठिनाई सुमति के सामने भी थीं एकाएक उसने इस कन्या को फूल ले जाते हुए देखा। उसने फूलों की याचना की। पहले तो कन्या ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी, पद बाद में एक शर्त पर उसे पांच पुष्प देना स्वीकार किया। शर्त यह थी कि दीपंकर को पुष्प समर्पण करते समय सुमति अपने मन में उस कन्या को अगले जन्म में पत्नी रूप में पाने की कामना रखे। सुमति ने इसे स्वीकार किया और दोनों दीपंकर का दर्शन करने के लिए चले। सुमति ने दीपंकर को जो पांच फूल चढ़ाये वे भूमि पर तो नहीं गिरे अपितु बुद्ध के मस्तक के ऊपर एक माला के रूप में स्थित हो गये। उसी प्रकार कन्या के द्वारा समर्पित पुष्प भी दीपंकर के कानों पर स्थित हो गये। वर्षा के कारण इस समय रास्ते में कीचड़ हो रहा था। दीपंकर को चलने में कठिनाई हो रही है यह देखकर सुमति ने अपना मस्तक [[पृथ्वी]] पर झुका दिया और अपने केश बिछाकर बुद्ध को चलने के लिए मार्ग बना दिया। बुद्ध ने उसके केशों पर पैर रखे और भविष्यवाणी की कि अगले जन्म में सुमति शाक्य मुनि के रूप में उत्पन्न होंगे।
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+
*10. '''शिबि जातक'''<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 19; कावेल, ई॰बी, The Jatak., संख्या 499।" style="color:blue">*</balloon>
| 1. दधिकर्ण नाग का मन्दिर         
+
मथुरा से प्राप्त एक वेदिका स्तंभ के पृष्ठभाग पर यह जातक कथा अंकित है। इसे शिबि जातक के नाम से पुकारा गया है पर यहाँ दिखलाई पड़ने वाला दृश्य पाली जातक कथा से मेल नहीं खाता। संभवत: यह ब्राह्मण संप्रदाय में प्रचलित राजा शिबि की कथा है जिसने एक कबूतर को बचाने के लिए अपने शरीर का मांस देना स्वीकार किया था।
| जमालपुर टीला
+
*11. '''व्याघ्री जातक''' (सं. सं. 00 जे.5; 32.2280)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, वही, खण्ड 24-25, पृ0 50।" style="color:blue">*</balloon>
|-
+
दोनों कलाकृतियों में यह जातक-दृश्य बड़े ही घिसे हुए हैं।
| 2. वासुदेव का चतु:शाल मन्दिर         
 
| कटरा केशवदेव
 
|-
 
| 3. गुप्तकालीन विष्णु मन्दिर       
 
| कटरा केशवदेव
 
|-
 
| 4. कपिलेश्वर व उपमितेश्वर के मन्दिर       
 
| रंगेश्वर महादेव के पास
 
|-
 
|5. यज्ञभूमि         
 
| ईसापुर, यमुना के पार कृष्ण गंगा घाट के सामने
 
|-
 
|6. पंचवीर वृष्णियों का मन्दिर       
 
| मोरा गाँव
 
|-
 
|7. सेनाहस्ति व भोण्डिक की पुष्करिणी         
 
| छड़गाँव, मथुरा से दक्षिण
 
|}
 
  
===अन्य===
+
उपरोक्त जातक कथाओं के अतिरिक्त मथुरा कला में अधोलिखित दो अन्य जातकों का अंकन भी मिलता है, पर ये कलाकृतियां मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में नहीं हैं।  
{| border="0" cellpadding="5" cellspacing="0"
 
| कुषाण राजाओं के देवकुल
 
| माँट तथा गोकर्णेश्वर
 
|}
 
===मथुरा कला की प्राचीन मूर्तियों का पुन: उपयोग===
 
मथुरा की कई प्राचीन मूर्तियाँ ऐसी भी हैं जिनका एक से अधिक बार उपयोग किया गया है। ऐसे कुछ नमूने इस संग्रहालय में, कुछ कलकत्ते के और कुछ लखनऊ के राज्य संग्रहालय में हैं। मूर्तियों का इस प्रकार का उपयोग तीन रूपों में किया गया है। एक तो टूटी हुई मूर्ति को पत्थरों के रूप में पुन: काम में लिया गया है। कुछ टूटी हुई तीर्थकर प्रतिमाओं तथा जैन कथाओं से अंकित शिलापट्टों पर लेख लिखे गये हैं और कुछ को काट-छांट कर उन्हें वेदिका स्तंभ या सूचिकाओं में परिवर्तित कर दिया गया है।<balloon title="लखनऊ संग्रहालय, मूर्ति संख्या जे 354 से जे 358 तक।" style="color:blue">*</balloon> हो सकता है कि यह कार्य जैन और बौद्धों के परस्पर संघर्ष के फलस्वरूप किया गया हो। ऐसे संघर्ष के प्रमाण जैन साहित्य में विद्यमान हैं।<balloon title="नीलकंड पुरूषोत्तम जोशी, जैनस्तूप और पुरातत्व, श्रीमहावीर स्मृति ग्रंथ, खण्ड 1, 1948-49, पृ0 1888 ।" style="color:blue">*</balloon>
 
  
दूसरे रूप का उपयोग इससे सर्वथा भिन्न है। इसमें निहित भावना द्वेष मूलक नहीं है, पर बहुधा पहले से बनी बनाई मूर्ति के सौन्दर्य पर रीझकर उसे अपने सम्प्रदाय के अनुकूल बना लेने की है। इसका सबसे सुन्दर उदाहरण मथुरा संग्रहालय की एक बोधिसत्व की मूर्ति (सं. सं. 17.1348) है जिसे वैष्णवों ने त्रिपुँड्र आदि लगाकर अपने अनुकूल बना लिया है।
+
()वलाहस्स जातक<balloon title="जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1909-10, पृ0 72, फलक 26 सी.।" style="color:blue">*</balloon>
मूर्तियों के पुन'पयोग के तीसरे रूप में घिसी या टूटी हुई मूर्ति को अधिक बिगाड़ने की नहीं पर उसको पुन: बनाने के भावना काम करती थी। इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक शालभंजिका की विशाल प्रतिमा (सं. सं. 40.2887) है जिसके पैर पुन: गढ़े गये हैं, भले ही यह गढ़ान अपने मूल सौन्दर्य के स्तर नहीं पा सकी है।
 
  
==माथुरी कला पर प्रकाश डालने वाला प्राचीन साहित्य==
+
(ख)महिलामुख जातक <ref>यह कलाकृति इस समय कलकत्ते के संग्रहालय में है: जे. फोगल, La Sculpture de Mathura फलक 20 ए; कावेल, ई॰ बी0, The Jataka, भाग 2 संख्या 26,196</ref>
मथुरा के इस विशाल कलाभण्डार को समझने के लिए प्राचीन साहित्य की ओर दृष्टिक्षेप करना अत्यन्त आवश्यक है। सबसे अधिक उपयोगी समकालीन साहित्य है, इसके बाद पूर्ववर्ती और परवर्ती साहित्य आता है। माथुरीकला में प्रयुक्त विभिन्न अभिप्रायों की कुंजियाँ इसी साहित्य में छिपी पड़ी हैं। इस कला में प्रदर्शित अभिप्रायों को समझने के लिए तथा इसमें प्रदर्शित वस्तुओं के मूल नाम जानने के लिए हमें साहित्य के पन्ने ही उलटने पड़ते हैं। मथुरा में जैन, बौद्ध व ब्राह्मण तीनों धर्म पनपे, अतएव इन तीनों धर्मों के प्राचीन धर्मग्रन्थ, कलाग्रन्थ, आख्यान और उपाख्यान हमारी बड़ी सहायता करते हैं। इनमें भी निम्नांकित ग्रन्थ इस दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं-
+
 
*1.[[ललितविस्तर]]
+
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
*2.रायपसेंणिय सुत्त
 
*3.अंगविज्जा
 
*4.[[विनयपिटक]]-महावग्ग और चुल्लवग्ग
 
*5.[[अश्वघोष]] का [[बुद्ध चरित्र]]
 
*6.अश्वघोष का सौदरानन्द
 
*7.[[अग्नि पुराण|अग्नि]], [[लिंग पुराण|लिंग]], [[मत्स्य पुराण|मत्स्य]], [[वायु पुराण|वायु]], [[कूर्म पुराण|कूर्म]], [[वाराह पुराण|वाराह]], [[वामन पुराण|वामन]] आदि पुराणों के कुछ अंश
 
*8.महावस्तु
 
*9.[[पंचतन्त्र]]
 
*10.[[दिव्यावदान]]
 
*11.अवदानशतक
 
*12.[[जातक कथाएं]]।
 
==समापन==
 
मथुरा कला का यह सामान्य परिचय है। भारतीय कला के इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में अब तक कई समस्याएं नवीन प्रकाश की अपेक्षा रखती हैं। मथुरा के क्षेत्र में शास्त्रीय ढंग का उत्खनन, समूचे कलासंग्रह का विस्तृत अध्ययन और प्रकाशन आदि कार्य कदाचित इन समस्याओं को सुलझाने में सहायक हो सकेंगे।     
 
==टीका-टिप्पणी==
 
 
<references/>
 
<references/>
 +
[[Category:मूर्ति कला]]
 +
[[Category: कोश]]
 
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१३:०२, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण

मूर्ति कला : मूर्ति कला 2 : मूर्ति कला 3 : मूर्ति कला 4 : मूर्ति कला 5 : मूर्ति कला 6


मूर्ति कला 4 / संग्रहालय / Sculptures / Museum

कुषाण-गुप्त, गुप्त व गुप्तोत्तरकालीन मथुरा की कला

कुषाण-गुप्त काल

ईसवी सन् की द्वितीय शताब्दी के अन्तिम पाद में कुषाण वंश के आख़िरी शासक वासुदेव का शासक समाप्त हुआ और इसी के साथ मथुरा की कुषाण कला का उत्कर्ष भी समाप्त हो गया। इसके बाद गुप्तों के सृदृढ़ शासन की स्थापना तक इस भूप्रदेश में राजनीतिक उथल-पुथल हो रही थी। गुप्तों के समय कला को एक नया मोड़ मिला और साथ ही साथ अब भाव सौंदर्य की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। सौदर्य के मानदण्ड का यह परिवर्तन तत्कालीन जीवन के सभी क्षेत्रों में झलकता हुआ दिखलाई पड़ता है। मूर्तिकला, चित्रकला, साहित्य, वेशभूषा, वास्तुकला, इत्यादि अनेक क्षेत्रों में इस नवीन जागरण के दर्शन होते हैं, परन्तु स्पष्ट है कि यह जागरण आकाशं में कौंध उठने वाली बिजली के समान एकाएक समुद्भुत नहीं हुआ था। इसके पीछे लगभग एक शताब्दी की परम्परा है। कुषाण काल के अन्तिम दिनों से ही इन नवीन विचारों की सूचना मिलने लगती है। मथुरा कला में देखे जाने वाले इस परिवर्तन युग को यहाँ संक्रमण काल अथवा कुषाण-गुप्त काल कहा गया है। साधारण रूप से सन् 200 से लगभग सन् 325 तक का समय इसमें समाविष्ट हो सकता है।

इस युग में निर्मित प्रतिमाओं में कुषाण और गुप्त दोनों कलाओं के लक्षणों का अद्भुत मेल दिखलाई पड़ता है। यहाँ कलाकार अपनी परंपरागत पद्धति से मूर्ति तो गढ़ता है पर साथ ही साथ उसका ध्यान भावपक्ष की ओर भी लगा रहता है। उदाहरणार्थ सुखासीन कुबेर (सं. सं. सी.) के मुख पर दिखलाई पड़ने वाला सुख और सन्तोष का चित्रण। बुद्ध या तीर्थंकर की मूर्ति बनाते समय कलाकार शांत और स्मित युक्त मुख बनाने की चेष्टा करता है। प्रभा-मण्डल को हस्तिनखों से युक्त तो बनाता है पर बीच वाली ख़ाली जगह में कतिपय नवीन अभिप्रायों का सृजन करता है। चतुर्भुज शिवलिंग को गढ़ते समय चारों मुखों पर चार विशेष प्रकार के भाव प्रदर्शित करने का भी प्रयास करता है। केवल मथुरा कला की ही नहीं, अपितु अन्यत्र पाई गई कुछ मूर्तियाँ भी इस काल की कला का प्रातिनिध्य करती हैं। प्रो0 काड्रिंग्टन ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि कुषाण और गुप्तकाल के बीच वाली खाई को मिलाने वाली चार बुद्ध मूर्तियाँ [१] विशेष रूप से स्मरणीय हैं।<balloon title="के. डी. बी. काड्रिंग्टन, Mathura of the Gods, मार्ग, खण्ड 9, संख्या 2, मार्च 1956, पृ0 46।" style="color:blue">*</balloon>

कुषाण-गुप्त काल की मूर्तियों की साधारण रूप से अधोलिखित विशेषताएं मानी जा सकती हैं;

  • 1-भौंहों की वक्रता में वृद्धि होती है।<balloon title="सं. सं. 39-40.2831।" style="color:blue">*</balloon>
  • 2-कानों की लम्बाई बढ़ने लगती है।
  • 3-हास्य को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए होंठो के दोनों छोरों पर हल्के गड्ढे दिखलाई पड़ते हैं। गुप्तकाल में इनकी गहराई और भी बढ़ जाती हे। इन्हें संस्कृत में सृक्वा, सृक्क, या सृक्किणी कहा जाता है।<balloon title="सं. सं. 63-1, तुलना कीजिये, पंचतंत्र, भाग 1।" style="color:blue">*</balloon> गुप्तकालीन मिट्टी के खिलौनों में तो ये गड्ढे किसी नुकीली वस्तु को गड़ाकर बनाये जाते थे।
  • 4-सारे शरीर की बनावट में छरहरापन तो नहीं दिखलाई पड़ता पर पेट, कमर और जांघों की बनावट अधिक आकर्षक अवश्य हो जाती है।
  • 5-साधारणतया केशों की रचना, हाथों के अंगदादि अलंकार मेखला आदि की बनावट में प्राचीन कुषाण परंपरा के दर्शन होते हैं।
  • 6-प्रभावमण्डल में हस्तिनख की अन्तिम पंक्ति तो रहती है पर उसके और केन्द्र के बीच वाले रिक्त स्थान में शनै:-शनै: अलंकरणों का बनना प्रारम्भ होता है जो गुप्तकाल में पहुँचकर पूर्णता को पा लेता है।

गुप्तकाल

इस काल की कला का प्रमुख वैशिष्ठय मूर्तिकला ही है। कलाकार के कुशल हाथों में पड़कर इस काल की मिट्टी और पत्थर सौन्दर्य की जीती जागती प्रतिमाओं में बदल जाते थे। गुप्तकालीन कलाकारों ने कुषाण काल के शारीरिक सौंदर्य के उत्तान प्रदर्शन को नहीं अपनाया वरन् स्थूल सौंदर्य और भाव सौंदर्य का सुन्दर योग स्थापित किया। गुप्तकला में विवस्त्र या नग्न चित्रण को कोई स्थान नहीं है जब कि कुषाण कला की वह एक अपनी विशेषता थी। कुषाण कला का पारदर्शक केश विन्यास शरीर के सौष्ठव को, उसके मांसल अवयवों को चमकाने के लिए बनाया जाता था, परन्तु गुप्त काल का वस्त्र विलास उसे सुरूचिपूर्ण ढंग से आच्छादित करने के लिए ही बनता था। वेदिका स्तंभों पर अंकित क्रीड़ारत युवतियों का अंकन गुप्त युग में लोकप्रिय न रहा। अब इन बाहर की प्रतिमाओं की अपेक्षा गर्भगृह के अन्दर संस्थापित उपास्य मूर्ति के सौंदर्य को अधिक मूल्य दिया जाने लगा।

डा॰ कुमारस्वामी के शब्दों में गुप्तकाल की कला जो मथुरा की कुषाण कला से उद्भूत है, स्वत: एकरूप एवं स्वाभाविक है।<balloon title="आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ0 72।" style="color:blue">*</balloon> गुप्तकालीन मानव मूर्तियों की कुछ विशेषताएं, जो बहुधा सर्वसाधारण रूप से देखी जा सकती हैं, निम्नांकित हैं:

  • 1. सादी एवं प्रभावोत्पादक शैली जिसकी सहायता से अनेक भव्य आदर्श साकार हो उठे हैं। बुद्ध की कुछ मूर्तियों में (उदाहरणार्थ सं. सं.00ए5) तथा मथुरा की गुप्तकालीन विष्णु मूर्ति में जो इस समय राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में है, आध्यात्मिक शान्ति, प्रसन्नता, स्नेह व दयाशीलता के स्पष्ट दर्शन होते हैं।
  • 2. मूर्ति के अंकन में यथार्थ की अपेक्षा आदर्श की मात्रा बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए आंखे अब गोल नहीं होती अपितु वे धनुषाकार भौंहों के साथ कान तक (आकर्ण) फैल जाती हैं और आकार में लम्बी और कोनेदार दिखलाई पड़ती हैं।
  • 3. पाषाण प्रतिमाओं में आंखों की पुतलियाँ कम ही बनती रहीं और आंखें अधखुली दिखलाई जाती थीं।
  • 4. नाम सीधी, कपोल चिकने, होंठ कुछ मोटे तथा गड्ढेदार बनाये जाने लगे। कानों की बनावट में भी महत्त्वपूर्ण अन्तर हो गया।
  • 5. कुषाण काल में हास्य का प्रदर्शन करने के लिए कभी-कभी दन्तावलि दिखलाई जाती है, पर गुप्तकाल में विशेष प्रकार की मूर्तियों को छोड़कर सामान्यत: केवल मंदस्मित से ही काम लिया गया है।
  • 6. विष्णु कार्तिकेय, इन्द्र आदि मूर्तियों में भौंहों के बीच दिखलाई पड़ने वाला देवत्व का प्रदर्शक ऊर्णा चिह्न अब अदृश्य हो जाता है।
  • 7. केशों की बनावट में अनेक आकर्षक प्रकार दिखलाई पड़ने लगते हैं।
  • 8. वस्त्र साधारणतया झीने और शरीर से चिपके हुए दिखलाई पड़ते हैं।
  • 9. कुषाण काल की अपेक्षा अलंकारों की संख्या कम होने लगती है। कुछ चुने हुए आभूषण जैसे कंठ की एकावली, हाथों के अंगद और कंकण, मोतियों का जनेऊ, करधनी और नूपुर ही साधारणतया दिखलाई पड़ते हैं।

बुद्धमूर्ति

अभय मुद्रा में आसनस्थ बुद्ध
Seated Buddha in Abhaya Protection
राजकीय संग्रहालय, मथुरा

कुषाण काल के समान गुप्तों के समय भी मथुरा नगर कला का एक तीर्थ रहा, पर कला का मुख्य केन्द्र होने का सौभाग्य अब सारनाथ (वाराणसी) को मिला,<balloon title="स्टेला क्रेमरिच, Indian Sculpture, पृ0 63।" style="color:blue">*</balloon> जहाँ चुनार पत्थर के माध्यम से इस काल की कई अमर कृतियाँ निर्मित हुईं। मथुरा की गुप्त कलाकृतियों में सर्वश्रेष्ठ वह बुद्ध प्रतिमा है जिसने अपने सौन्दर्याभिव्यक्ति के कारण देश की सभी गुप्त कृतियों में एक महत्वपूर्ण स्थान पाया है। इस प्रतिमा के मुखमण्डल पर विलास करने वाला मंदस्मित, शान्त मुद्रा एवं आध्यात्मिक प्रभुता का तेज देखते ही बनता है (सं. सं.00ए5) गुप्तकालीन बुद्ध मूर्तियों में अधोलिखित विशेषताएं अवलोकनीय हैं;

  • 1. आध्यात्मिक चिंतन, शान्ति और स्मित के मुख पर स्पष्ट दर्शन।
  • 2. शरीर के बनावट में मृदुता।
  • 3. वस्त्रों का झीना और पारदर्शक होना।
  • 4. वस्त्र की विशेष प्रकार की सिकुड़न। कुषाण काल की मूर्तियों में बहुधा वस्त्र की सिकुड़नें खोदकर बनाई जाती थीं, पर गुप्तकाल में ये धारियाँ उभरी हुई रहती हैं। साथ ही ये वस्त्र हलके और पारदर्शक भी हैं
  • 5. अलंकृत प्रभामण्डल। कुषाण काल में प्रभामण्डल के किनारे पर प्राय: अर्धचन्द्र या हस्तिनख की पंक्ति बनी रहती थी पर अब इस के साथ-साथ विकसित कमल, पत्रावली पुष्पलता आदि कई अभिप्राय बने रहते हैं
  • 6. घुँघरदार बालों से अलंकृत मस्तक। अब बुद्ध का मुण्डित मस्तक क्वाचित् ही दिखलाई पड़ता है, उस स्थान पर घुँघराले बालों की घुमावदार लटें दिखलाना साधारण प्रथा बन जाती है। [२]
  • 7. कुषाण काल में भौंहों के बीच दिखलाई पड़ने वाला ऊर्णा चिह्न अब इनी-गिनी मूर्तियों में दिखलाई पड़ता है (सं. सं. 18.1391,33.2337,2309.33इ.)। इन मूर्तियों को केवल परिपाटी के पालन का नमूना कहा जा सकता है। साधारणतया ऊर्णा चिह्न अब कुषाण काल के समान आवश्यक नहीं समझा जाता था।
  • 8. अभयमुद्रा दिखलाने वाले हाथ की स्थिति में भी अब परिवर्तन होता है। कुषाण मूर्तियों में यह हाथ लगभग कन्धे तक ऊंचा उठा रहता है, पर गुप्त-बुद्ध प्रतिमा में वह लगभग समकोण बनाते हुए अधिकाधिक कमर तक ही उठता है।<balloon title="मिलाइये- सं. सं.00.ए.1, 39.2831, 00.ए.5 आदि।" style="color:blue">*</balloon>
  • 9. दोनों पैरों के बीच में दिखलाई पड़ने वाली वस्तुओं को लुप्त होना।
  • 10. कानों की लम्बाई व सारे चेहरे की बनावट तथा हाथों की बनावट में भी अन्तर है। गुप्ताकलीन चेहरे की विशेषताएं पहले बतलाई जा चुकी हैं। हाथ की मुख्य विशेषता उसकी उंगलियों में है। कुषाणकाल में जहाँ पांचों उंगलियाँ मिली हुई दिखलाई पड़ती हैं, वहाँ गुप्तकाल में वे सम्मुख भाग में एक दूसरे से पृथक् मालूम पड़ती हैं।
  • 11. हथेलियाँ पर बनने वाले चिह्न गुप्तकाल में कम हो जाते हैं। यहाँ सामुद्रिक रेखायें तो रहती हैं, पर धर्मचक्र और त्रिरत्न नहीं रहते।

जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ

इस काल की बनी हुई तीर्थंकर मूर्तियाँ भी अधिकतर भाव प्रधान हैं। बुद्ध प्रतिमाओं के समान उनके प्रभामण्डल विविध प्रकार से अलंकृत मिलते हैं। हथेलियाँ और पैरों के तलुओं पर धर्मचक्र चिह्न बना रहता है (सं. सं.00बी.1,00बी.11,00बी.28)। यह भी विशेष महत्व की बात है कि जहाँ गुप्तकालीन बुद्ध मूर्तियों में ऊर्णा चिह्न बहुधा नहीं मिलता वहाँ जैनियों ने इस पद्धति को पूरी तरह से नहीं छोड़ा। ऊर्णा और उष्णीश से युक्त जैन मूर्तियों के नमूने मथुरा शैली में विद्यमान हैं (सं. सं.00.बी. 45, 00.बी.51), पर ऐसे नमूने कम हैं।

तीर्थंकरों के लांछन दिखलाने की पद्धति अभी नहीं चली थी। कुषाणकाल के समान इनके नामों को जानने के लिए हम3 उन पर अंकित शिलालेखों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ तो क्रमश: कन्धों पर हलराते हुए बालों की लटों व मस्तक पर दिखलाई पड़ने वाली सर्प-फणों से पहिचाने जा सकते हैं। तीर्थंकरों की कुछ, ऐसी मूर्तियाँ हैं जो गुप्तकाल और मध्यकाल की संक्रमणावस्था को सूचित करती हैं। उदाहरणार्थ एक तीर्थंकर प्रतिमा (सं. सं. 18.1388) की चरण चौकी पर अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ का लांछन मीन-मिथुन बना है। एक दूसरी तीर्थंकर प्रतिमा (सं.सं.00.बी. 75) पर जैन, बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के अभिप्रायों का अद्भुत संमिश्रण है। मूर्ति तीर्थंकर की है, उनके आसन पर दो मृगों के बीच धर्म-चक्र वाला एक बौद्ध अभिप्राय है और पीछे की ओर कुबेर और नवग्रहों की मूर्तियाँ बनी हैं।

ब्राह्मण धर्म की मूर्तियाँ

इस काल का राजधर्म भागवत धर्म होने के कारण यह स्वाभाविक था कि वेदशास्त्रों से अनुमोदित ब्राह्मण धर्म की ओर प्रजा का झुकाव अधिक रहा हो और इससे सम्बन्धित मूर्तियों का प्रचलन भी अधिक रहा हो। इस सम्बन्ध में निम्नांकित बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं;

  • 1. मथुरा शैली में अन्य देवताओं की अपेक्षा ब्रह्मा की मूर्तियाँ कम बनती थीं।
  • 2. विष्णु की मूर्तियों की विपुलता है। प्रारम्भिक विष्णु मूर्तियों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में विष्णु प्रतिमा को गढ़ने के लिए पुरानी कुषाण कालीन विष्णु मूर्ति को ही आधार माना गया था, पर साथ ही साथ नवीन तत्त्वों का भी समावेश तेजी से होने लगा था। उनका सीधा मुकुट अब शनै:-शनै: लुप्त होने लगा और उसका स्थान सिंह-मुख, मकर, मुक्ता, मुक्ता-जाल आदि अलंकरणों से युक्त मुकुट ने ले लिया। गले के आभरण तथा पहनने के वस्त्र में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। बनमाला तथा प्रभामण्डल का निर्माण अब प्रारम्भ हुआ। गुप्तकाल से ही प्रारम्भ होने वाली एक दूसरी महत्त्वूपर्ण विशेषता विष्णु के आयुधपुरुषों की निर्मिति है। मथुरा कला में गदा-देवी व चक्र-पुरुष के दर्शन होते हैं। चारों आयुधों को धारण किये हुए खड़े विष्णु के साथ ही इस काल में आसन पर बैठी हुई प्रतिमाएं भी बनी थीं (सं. सं. 15.512)। साधारण प्रतिमाओं के अतिरिक्त त्रिविक्रम रूप में बनी विष्णु मूर्तियाँ मथुरा से प्राप्त हुई हैं। गुप्तकाल की वैष्णव मूर्तियों में नृसिंह-वराह-विष्णु की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस प्रकार की प्रतिमा में तीन मुख होते हैं। इनमें बीच का पुरुष तथा अगल-बगल के मुख वराह और सिंह के होते हैं।
नृसिंह-वराह रूपी विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति
Four Armed Vishnu With Varaha And Nrisimha Faces
राजकीय संग्रहालय, मथुरा
  • 3. इस काल में शिव मूर्तियाँ भी कम नहीं मिलतीं। मथुरा में तो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में शैवों का एक बड़ा केन्द्र रहा जिसका प्रमाण यहाँ से मिला हुआ एक स्तम्भ लेख है। इस काल में शिव की लिंग-रूप और मानव-रूप दोनों प्रकार की मूर्तियाँ मिलती हैं। इनकी प्रथम महत्वपूर्ण विशेषता शिव का तीसरा नेत्र है। कुषाणकाल में यह नेत्र आड़ा बनाया जाता था पर कुषाण-गुप्तकाल से ही यह खड़ा बनाया जाने लगा। शिवलिंगों में साधारण लिंगों के अतिरिक्त एक-मुखी (सं.सं. 14-15.427, 16.1238) व द्विमुखी लिंग (सं.सं. 14-15.462) मिलते हैं। अन्यत्र शिव के चतुर्मुख और पंचमुख लिंग भी मिलते हैं। शिव की मूर्तियों में अर्धनारीश्वर व आलिंगन मुद्रा में शिवपार्वती (सं.सं. 14.474) की प्रतिमाएं अधिक मिलती हैं। मथुरा की शिव प्रतिमाओं की यह एक विशेषता है कि यहाँ जब शिव अपनी शक्ति के साथ होने हैं तब उन्हें अवश्य ही उर्ध्वमेढ्र स्थिति में दिखलाया जाता है जो आदि-पुरुष की अमोघ शक्ति का परिचायक है। शिव-पार्वती की मूर्तियों में अलंकरण व भाव प्रदर्शन की दृष्टि से वह मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जो एक ही ओर नहीं अपितु दोनों ओर समान रूप से बनाई गई हैं (सं.सं. 30-2084)। गुप्तकाल की कुछ मूर्तियों में शिव के परिचायक चिह्नहों में व्याघ्राम्बर (सं.सं. 54.3764;) अर्धचन्द्र या बालेन्दु (सं. सं. 13.362) दिखाई देते हैं।
  • 4. भारतीय कलाकृतियों में प्राचीनकाल की गणेश मूर्तियाँ बहुत ही कम मिली हैं। जिनमें से एक मथुरा से प्राप्त हुई है (सं.सं. 15.758)।
  • 5. उपरोक्त मूर्तियों के अतिरिक्त इन्द्र (सं.सं. 46.3226), हरिहर (सं.सं.10.1333), कुबेर (सं.सं. 00.सी.5), यमुना (लखनऊ संग्रहालय जे. 563) आदि की सुन्दर मूर्तियाँ भी मिलती हैं।
  • 6. फुटकर मूर्तियों में सूर्य देवता के एक अनुचर पिंगल की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि इस पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है (सं.सं. 36.2665)।

गुप्तोत्तरकालीन मूर्तियाँ

गुप्तोत्तरकाल में सभी सम्प्रदायों की मूर्तियाँ तो ख़ूब बनती रहीं पर कला और सौन्दर्य की दृष्टि से उनमें गुप्तकाल की सर्वांग सुन्दरता नहीं दिखलाई पड़ती है। बहुत सी मूर्तियों में मौलिकता का अभाव है। तथापि इन मूर्तियों का एक अपना सौन्दर्य है। मथुरा कला की मध्यकालीन प्रतिमाओं की मुख्य रूप से अधोलिखित विशेषताएं गिनाई जा सकती हैं;

  • (1) मथुरा की कलाकृतियों के लिए अब तक जहां चित्तेदार लाल पत्थर का प्रयोग होता था वहां अब मध्य काल में पहुँचते-पहुँचते भूरे रंग के बलुए पत्थर का प्रयोग होने लगा और कलाकारों ने लाल पत्थर की मूर्तियां गढ़ने के लिए आश्रय देना समाप्त-सा कर दिया।
  • (2) इस काल की प्रतिमाओं में मांसलता और छोटा क़द अधिक दिखलाई पड़ता है। साथ ही साथ कवि-संकेत-सिद्ध सौंदर्य के मानदण्डों को जैसे विशाल आकर्ण-नेत्र, शुक-चंचु के समान नासिका, निकली हुई कोनेदार ठोड़ी, स्त्रियों के अविरल स्तन-युग्म, इत्यादि को प्रमुख रूप से अपनाया गया।
  • (3) इसके साथ-साथ अलंकारों के अंकन की मात्रा भी बढ़ गई। भारी कंठ-भूषण, अलंकारों से भरे हुए हाथ, भारी वज़न की मेखलायें या रशना-जाल, ऊंचे उठे हुए मुकुट, पुष्पों से शोभित धमिल्ल एवं नयनरम्य केशभार इस काल की मूर्तियों में बड़ी ही रूचि से बनाये जाते थे।
  • (4) मथुरा की मध्यकालीन मूर्तियाँ अधिकतर समूचे पत्थर की पटिया पर उकेर कर बनाई गई हैं, चारों ओर से देखी जाने वाली मूर्तियां कम हैं।
  • (5) इस समय की पुरुष मूर्तियों में मस्तक के केशों का अंकन भी ध्यान देने योग्य है। कुषाण काल में मुकुट के नीचे कानों के ऊपर थोड़े केश दिखलाये जाते थे। गुप्त काल में मुख पर इस प्रकार के बाल दिखलाना बंद हो गया, उन्हें कन्धों पर विपुलता से लहराते हुए दिखलाने लगे थे। गुप्तोत्तर काल में भाल के ठीक ऊपर काढ़े हुए बालों की एक छोटी-सी पंक्ति दिखलाई पड़ने लगती है।
  • (6) इस काल की मूर्तियों की दृष्टि में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। अब इनकी दृष्टि अन्तर्मुखी नहीं है, अपितु दर्शक या भक्त की ओर पूरी तरह अवलोकन करने वाली है।

उस काल तक पहुँचते-पहुँचते बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म के मूर्तिशास्त्र बहुत अधिक विकसित हो चुके थे और विभिन्न देवी देवताओं के अनेक ध्यान लोकप्रिय हो रहे थे। इस बदलती हुई परिस्थिति के फलस्वरूप हमें यहाँ अनेक नवीन प्रकार की मूर्तियां मिलती हैं। इनमें कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रतिमाओं की यहाँ चर्चा की जा रही है।

(क)जैन धर्म की प्रतिमाएं

इस काल की बनी जैन मूर्तियों में भावपक्ष तो निर्बल है पर मूर्तिशास्त्र की दृष्टि से वे अधिक पूर्ण हैं। अब केवल तीर्थंकरों के लांछन ही नहीं अपितु कहीं-कहीं उनके साथ के यक्ष आदि भी बने रहते हैं। इससे तीर्थंकर की पहिचान करना सहज हो जाता है। इन प्रतिमाओं की दूसरी विशेष बात यह है कि अब बुद्ध और जैन प्रतिमा के मस्तकों में विशेष अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। प्रभामण्डल, उष्णीश, छत्रावलि, विद्याधर आदि वस्तुएं दोनों में पायी जाती है।

समय के साथ-साथ जैनों का देवता-संघ भी बढ़ता गया और उनकी मूर्तियां निर्माण होती गई। मथुरा के संग्रहालय में जैनों के एक देवता क्षेत्रपाल की एक प्रतिमा विद्यमान है। यह भैरव का ही एक स्वरूप है। इसी प्रकार जैनों की एक प्रसिद्ध देवी चक्रेश्वरी की मूर्ति यहाँ देखी जा सकती है जिसके सभी हाथों मे चक्र बने हैं। अन्य देवताओं में सिंहारूढ़ अम्बिका एवं कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हुए स्त्री-पुरुष या 'युगलिया'<balloon title="यह पहिचान डा॰ ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ने की है।" style="color:blue">*</balloon> प्रतिमा (सं.सं. 15.1111) दर्शनीय हैं।

(ख) बौद्ध मूर्तियाँ

इस काल की मथुरा में बनी बुद्ध मूर्तियों की संख्या अधिक नहीं है। कुछ के टूटे हुए सिर संग्रहालय में हैं जिन पर क्वचित उष्णीश और उर्णा विद्यमान है। बोधिसत्वों की स्वतन्त्र मूर्तियां बनना इस काल में मथुरा में बंद-सा हो गया थां इतिहास भी हमें बतलाता है कि आठवीं शताब्दी के बाद अर्थात शंकराचार्य के समय में बौद्ध धर्म भारत से लगभग उठ गया था। इसलिये इन मूर्तियों का न मिलना स्वाभाविक ही है।

(ग)वैष्णव मूर्तियां

मथुरा संग्रहालय की मध्यकालीन वैष्णव प्रतिमाओं में सबसे महत्वपूर्ण मूर्ति आसनस्थ चतुर्भुज-विष्णु की है। इस काल में खड़े या शेष पर लेटे हुये विष्णु की प्रतिमाएँ साधारण रूप से बनती थीं, पर बैठे हुये विष्णु जिन्हें बुद्ध अवतार का प्रतीक समझते हैं, कम दिखलाई पड़ते हैं। प्रस्तुत मूर्ति अपनी पूर्णता के कारण विशेष रूप से दर्शनीय है। अन्य प्रकार की विष्णु मूर्तियों में गुप्त काल की अपेक्षा अलंकरणों की विपुलता है। साथ ही साथ ब्रह्मा, शिव, आयुधपुरुष, श्रीदेवी व भूदेवी, नवग्रह, दश अवतार आदि अनेक छोटी मूर्तियां आस पास बनी दिखलाई पड़ती हैं। इस काल की एक अन्य विशेषता विष्णु के वक्षस्थल पर दिखलाई पड़ने वाला चतुर्दल कौस्तुभ है जो मथुरा की कुषाण और गुप्तकालीन कला में अदृश्य था। अन्य प्रकार की वैष्णव मूर्तियों में शेषशायी विष्णु (सं.सं. 12.256), वामन अवतार (सं.सं. 15.1025), वराह अवतार (सं.सं. 18.1114) व बलराम (सं. सं. 18.1515) की मूर्तियां मुख्य हैं।

(घ)शैव व अन्य मूर्तियाँ

इनमें आलिंगन मुद्रा में उमामहेश्वर (00.डी 14), आसनस्थ शिव (00.डी 43,44) हरगौरी (10.139) आदि मूर्तियां व कतिपय शिवलिंगों को गिनाया जा सकता है। अन्य देवी देवताओं की मूर्तियों में विशेष रूप से ध्यान देने योग्य निम्नांकित प्रतिमाएं हैं: नृत्य गणेश (सं. सं. 12.189), आलिंगन मुद्रा में सपत्नीक गणेश (सं.सं. 15.1112), देव सेनापति कार्तिकेय को ब्रह्मा व शिव द्वारा अभिषेक (सं.सं. 14.466), अग्नि जिसमें उसके वाहन मेष को पुरुष रूप में दिखलाया गया है (सं.सं. 00.डी.24), हनुमान (सं.सं.00डी 27), कुबेर और गणेश के साथ लक्ष्मी (सं.सं. 15.1119), शिव लिंग और गणेश से युक्त तपस्या में लीन पार्वती (सं.सं.15.1044), तीन पैरों वाले भृंगी ऋषि (सं.सं. 17.1289), महिषासुरमर्दिनी (सं.सं. 15.541), वीरभद्र और गणेश के बीच सप्तमातृकाएं, (सं.सं. 15.552), उषा व प्रत्यूषा के साथ रथ पर बैठे सूर्य (सं.सं.00.डी.45), दण्ड-पिंगल के साथ खड़े सूर्य (सं.सं. 16.1220) आदि।

मथुरी कलाकृतियों में अंकित कथा-दृश्य

यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि मथुरा की कला किसी धर्म विशेष से बंधी हुई नहीं है। इसके आचार्यों ने ब्राह्मण, बौद्ध व जैन धर्मों की समान रूप से सेवा की है। फलत: इसमें अनेक विषयों का अंकन हुआ है।<balloon title="मुख्यत: उन्हीं कथा-दृश्यों की विस्तार से चर्चा की गई है जो पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा में विद्यमान हैं।" style="color:blue">*</balloon>

साधारणतया इन विभिन्न कथा-दृश्यों को निम्नांकित रूप से बाँटा जा सकता है;

  • (क) बौद्ध कथाएं।
  • (ख) ब्राह्मण धर्म के कथा-दृश्य।
  • (ग) फुटकर कथाएं।

इनमें बौद्ध कथाओं की संख्या सर्वाधिक है। यह अवश्य ही आश्चर्य का विषय है कि जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र होते हुए भी माथुरी कला में जैन कथाओं का अंकन बहुत ही थोड़ा है। ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित कथाओं की भी बहुलता नहीं है। अतएव प्रथम बौद्ध कथाओं को लें।

बौद्ध कथा-दृश्य

इन्हें यहाँ दो रूपों में समझा जा सकता है- एक तो बुद्ध के अतीत जन्मों की कथाएं और दूसरे बुद्ध जीवन के दृश्य। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार बृद्धत्त्व की प्राप्ति के पूर्व बुद्ध ने कई जन्म लिये थे। इन जन्मों की कथाएं जातक कथाओं के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन कथाओं को वेदिकास्तम्भों पर, सूचिकाओं पर अथवा दीवारों पर अंकित करना प्राचीनकाल की सामान्य परिपाटी थी जिसके नमूने भरहूत, सांची, अमरावती आदि स्थानों पर तथा गान्धार कला में भी प्रचुरता से मिलते हैं। मथुरा की कला भी इस नियम के लिए अपवाद नहीं है। यहाँ की कलाकृतियों में अब तक बारह जातकों की पहचान हो चुकी हैं। इनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है।

  • 1. दु:खोपादान जातक (सं.सं. 15.586)[३]

इसका अंकन एक वेदिका स्तम्भ पर किया गया है। जिसमें एक फुल्ले में पर्णशाला के सामने एक बैठा हुआ साधु दिखलाई पड़ता है। ठीक उसी के पास उसकी ओर मुँह किए एक सांप, हिरन, कौवा तथा कबूतर भी बने हैं।

कथा इस प्रकार है कि एकबार चार भिक्षुओं में दु:ख के मूल कारण के विषय में बात चली। चारों के मत भिन्न थे अतएव वे शंका निवृत्ति के लिए बुद्ध के पास गये। बुद्ध ने पूर्व जन्म की एक घटना को बतलाते हुये उनका समाधान किया। उन्होंने बतलाया कि एक वन में रहने वाले हिरन, कौवा, सांप तथा कबूतर में पहले एक बार ऐसा ही वाद उठ पड़ा था। कबूतर का मत था कि प्रेम दु:ख का मूल उपादान है, कौवे के मतानुसार यह उपादान भूख थी, सांप घृणा को मूल उपादान बतलाता था और हिरन सोच रहा था कि भय के अतिरिक्त दूसरा कोई उपादान नहीं हो सकता। निकट ही रहने वाले एक साधु सवे यह प्रश्न पूछा गया। उसने बतलाया कि तुम सभी अंशत: सच बतला रहे हो पर दु:ख के मूलतम उपादान तक नहीं पहुँच रहे हो। देह धारण ही सभी दु:खों का मूल कारण है। समारोप करते हुए बुद्ध ने बतलाया कि उस जन्म में साधु वे स्वयं थे और विवाद करने वाले चार भिक्षु चार जानवर थे। यह जातक कथा आज के उपलब्ध पाली साहित्य में नहीं मिलती, अपितु बुद्ध जीवन से सम्बन्धित एक चीनी ग्रंथ में इसका विवरण मिलता है।

  • 2. सिसुमार अथवा वानरिन्द जातक (सं.सं. 00.जे 42; 12.195) [४]

यह कथा दो वेदिका स्तम्भों पर अंकित मिलती है। इसमें एक मगर और बन्दर को एक साथ दिखलाया गया है। कथा यह है कि एक समय बोधिसत्व बन्दर के रूप में एक नदी के तट पर निवास करते थे। उसी नदी में मगर का एक जोड़ा भी रहता था। एक बार मगर की पत्नी ने बन्दर का कलेजा खाने की इच्छा अपने पति के पास प्रगट की। प्रियतमा की इच्छा पूरी करने के लिए मगर ने बन्दर से दोस्ती की और एक दिन उसे सुझाया कि बन्दर को चाहिए कि वह नदी के दूसरे तट पर लगे हुये ताजे और मधुर फलों को खाया करे और इसके लिए वह स्वयं उसे पार ले जाया करेगा। बन्दर मगर की बातों में आ गया और उसकी पीठ पर बैठकर नदी में चल पड़ा। बीच धारा में पहुँचकर मगर ने उसे सही बात बतलाई और स्वयं पानी में डूबने लगा। चतुर बन्दर हँस पड़ा, उसने कहा आश्चर्य है कि तुम्हें यह पता ही नहीं है कि बन्दर लोग कभी अपना कलेजा अपने साथ नहीं रखते, अन्यथा कूदने फांटने में उसके टुकड़े-टुकड़े हो जायँ। वे तो उसे पेड़ों पर लटका के रखते हैं। मूर्ख मगर ने इस बात पर विश्वास कर लिया और बन्दर का कलेजा पाने के लालच से उसे पुन: किनारे पर ले आया। अब बन्दर कूद पड़ा और मगर की बुद्धिहीनता पर हँसने लगा। जातकों के अतिरिक्त थोड़े परिवर्तनों के साथ यह कथा पंचतंत्र में भी मिलती है।

  • 3. महासुतसोम जातक (सं.सं. 14.431,00 जे.23)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 15।" style="color:blue">*</balloon> इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक प्रस्तर खण्ड पर मिलता है। यहाँ एक पुरुष कन्धे पर बहेंगी लिये जा रहा है जिसके दोनों छोरों से एक-एक मानव आकृति लटक रही है।

इस जातक की कथा के अनुसार एक समय वाराणसी के किसी राजा को मानव का माँस खाने की रूचि उत्पन्न हो गई। अपनी दुष्ट इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसने कितने ही निरीह मनुष्यों को मरवा डाला। जब इसका भेद खुला तब लोगों ने उसे राज्य से निकाल दिया। वह भी एक जंगल में रहकर वहाँ आने वाले पथिकों को मारकर खाने लगा। एक बार उसके पैर में चोट आई। अतएव उसने वृक्षदेवता की मनौती की कि उसका व्रण एक सप्ताह में ठीक होने पर वह एक सौ एक कुमारों की बलि चढ़ावेगा। संयोग से उसका पैर ठीक हो गया। अब अपनी मनौती की पूर्ति के लिए उसने एक सौ कुमारों को पकड़कर एक वृक्ष से लटका दिया। अन्तिम कुमार बोधिसत्त्व सुतसोम थे जिन्हें इस नरभक्षक ने पकड़ लिया, पर बोधिसत्त्व के अदम्य साहस, निर्भीकता आदि गुणों से वह बड़ा प्रभावित हुआ और अन्ततोगत्वा उसकी सम्पूर्ण जीवन-धारा को पलट देने में बोधिसत्त्व सुतसोम पूरी तरह सफल हो गये।

  • 4. रोमक अथवा परावत जातक (सं.सं. 00.आई 4)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, वही, खंड 23, पृ0 128।" style="color:blue">*</balloon>

यह जातक अपने मूल स्थान पर कई भागों में अंकित थां इस समय अवशिष्ट शिलाखण्ड पर केवल दो भाग देखे जा सकते हैं। कथा-दृश्य के ऊपर मालाधारी यक्षों की पंक्ति बनी हुई थी। यहाँ हम कुछ साधू व एक कबूतर देखते हैं। इन साधुओं में एक दूसरे की अपेक्षा अवस्था में वृद्धि है। यह अनुमान उसकी दाढ़ी से किया जा सकता है। इस जातक की कथा का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है:

एक समय बोधिसत्त्व ने कबूतरों के राजा का जन्म लिया था। कबूतरों का यह झुण्ड जंगल में रहने वाले एक साधु के यहाँ नियमित रूप से जाता रहा। यह साधु एक गुफ़ा के पास रहा करता था। वृद्धावस्था के कारण आगे चलकर वह साधु उस स्थान को छोड़कर कहीं चला गया और उस स्थान पर एक दूसरा तरूण साधु आकर रहने लगा। कबूतरों का झुण्ड अब भी आता रहा। एक दिन इस नवीन साधु को कबूतरों का माँस खाने को मिला जो उसे बहुत ही अच्छा लगां इस विषय में उसका लोभ बढ़ा और उसने इन कबूतरों के झुण्ड में शिकार करने की सोची। दूसरे दिन वह अपने कपड़ों में डण्डा छिपाकर कबूतरों की राह देखने लगा। उसकी चेष्टाओं से बोधिसत्त्व को उसके कपट व्यवहार का पता लग गया और उन्होंने अपने अनुयायियों को वहाँ जाने से रोक दिया। अब इस तरूण साधु का कपट खुल गया और अन्ततोगत्वा पास-पड़ौस वालों के डर से उसने वह स्थान छोड़ दिया।

  • 5. वेस्सन्तर जातक (सं.सं. 00.जे 4 पृष्ठ भाग)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ05।" style="color:blue">*</balloon> इस जातक कथा का अंकन कलाकारों का प्रिय विषय रहा। भरहूत और सांची की कलाकृतियों में भी यह प्रचुर रूप से अंकित है। मथुरा में यह कई भागों भागों में दिखलाया गया था। संग्रहालय में प्रदर्शित वेदिका-स्तम्भ के पिछले भाग पर इसके कुछ दृश्य मुख्यत: कुमार वेस्सन्तर और याचक ब्राह्मण, कुमार द्वारा ब्राह्मण को अपने दोनों पुत्रों का दान तथा एकाकिनी स्त्रीमूर्ति कदाचित वेस्सन्तर की पत्नी अंकित हैं।

उस समय बोधिसत्व ने आदर्श दानी के रूप में कुमार वेस्सन्तर के नाम से जन्म लिया था। उन्होंने अपना श्वेत वर्ण का मंगल-गज, ब्राह्मणों को दान में दे दिया। फलस्वरूप उन्हें पत्नी और पुत्रों के साथ देशत्याग करना पड़ा। रास्ते में उन्होंने ब्राह्मण के मांगने पर अपना रथ और घोड़े भी दे दिये। अब यह कुटुम्ब एक पर्वत पर रहने लगा, पर यहाँ भी पूजक नाम का एक ब्राह्मण आ पहुँचा जिसने कुमार से उसके दोनों पुत्रों की याचना की। पत्नी की अनुपस्थिति में भी कुमार ने ब्राह्मण की प्रार्थना स्वीकार कीं वस्तुत: यह ब्राह्मण कुमार वेस्सन्तर की परीक्षा लेने आया था। बाद में शक देवता के प्रभाव से कुमार का सारा कुटुम्ब और उसका पुराना ऐश्वर्य सब कुछ उसे मिल गये।

  • .6 पाद-कुसल-माणव जातक (सं.सं. 12.191)<balloon title="वही, पृ0 34 पूरी कहानी के लिए देखिए आनन्द कौसल्यायन, जातक (हिन्दी), खण्ड 4, पृ0 163।" style="color:blue">*</balloon> एक वेदिका स्तम्भ के मध्य में यह अंकित है। यहाँ हम एक अश्व-मुखी यक्षी को एक तरूण पुरुष के कन्धे को छूते हुये देखते हैं।

जातक कथा हमें बतलाती है कि किसी समय वाराणसी की एक रानी ने झूठी शपथ ली, जिस पाप के कारण वह घुड़मुँही यक्षी बनी। उसने तब तीन वर्षों तक वैश्रवण कुबेर की सेवा की और यह वर प्राप्त किया कि एक निश्चित परिसर के भीतर प्रवेश करने वालों को वह खा सकेगी। एक दिन एक सुन्दर और धनवान ब्राह्मण युवक उसके चंगुल में फंस गया। परन्तु यह यक्षी उसके सौंदर्य पर लुब्ध हो गई और उसने उसे अपना पति बना लिया। परन्तु वह कहीं भाग न जाय इस भय से वह उसे सदा एक गुफ़ा में कैद किये रहती थीं उससे इस यक्षी के एक बैटा उत्पन्न हुआ जो बोधिसत्त्व था। बोधिसत्व ने पैरों की चाप को सुनकर मनुष्य को पहचानने की कला में कुशलता प्राप्त की और इस विद्या की सहायता से अपने पिता को घुड़मुँही यक्षी की कैद से छुड़ा लिया।

  • .7 कच्छप जातक (सं.सं. 00.जे 36)<balloon title="इ.बी. कावेल, The Jatakas संख्या 215; जे. फोगल The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1906-7, पृ0 157।" style="color:blue">*</balloon>

ऊपर वाले जातक के समान यह भी एक वेदिका स्तंभ के पिछले भाग पर अंकित है। यहाँ एक कछुए को दो पुरुष लकड़ियों से पीटते हुए दिखलाई पड़ते हैं। बात यह थी कि एक बकवादी कछुए और दो हंसों में मित्रता हो गई। हंसों ने कछुओं को अपने देश में चलने के लिए निमन्त्रित किया। कछुए को बात जंच गई। हंसों ने एक छड़ी ली और कछुए को उसे बीचोबीच अपने मुँह में पकड़ने के लिए कहा। उसके ऐसा करने पर दोनों पक्षी अपनी चोंच में उस छड़ी को पकड़कर उड़ चले। गांव के बच्चों ने जब यह विचित्र दृश्य देखा तब उन्होंने कछुए की हंसी उड़ाना प्रारम्भ किया। बकवादी कछुआ उसे न सह सका। जैसे ही उत्तर देने के लिए उसने मुँह खोला, वह भूमि पर आ गिरा और मर गया। डा॰ फोगल ने इस कथा की चर्चा करते हुए ठीक ही कहा है कि मथुरा कलाकृति में इस कथा का अंकन जातक-ग्रन्थों के आधार पर नहीं, अपितु पंचतंत्र के आधार पर हुआ है, जिसमें कहा गया है कि कछुए की मृत्यु ऊपर से गिरकर नहीं, परन्तु ग्रामवासियों की मार के कारण हुई थी।

  • 8. उलूक जातक (सं.सं. 00.जे41)<balloon title="वही, संख्या 270, वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 19।" style="color:blue">*</balloon>

इसका अंकन भी एक वेदिका स्तंभ के पृष्ठभाग पर किया गया है। यहाँ हम एक उल्लू को आसन पर बैठे हुए देखते हैं। दो बन्दर अगल-बगल खड़े होकर उसका अभिषेक कर रहे हैं। कथा के अनुसार पक्षियों ने एक समय उल्लू को अपना राजा चुना। उसका अभिषेक होने ही जा रहा था कि कौवे ने इस बात का विरोध किया और वह स्वयं आकाश में उड़ गया। उल्लू भी उसका पीछा करने के लिए आकाश में उड़ चला। इधर पक्षियों ने एक सुनहले हंस को अपना राजा चुना।

  • 9. दीपंकर जातक (सं.सं. 0.एच 10. लखनऊ संग्रहालय संख्या बी 22)<balloon title="दिव्यावदान, 18 धर्मरूच्यावदान, पृ0 152-55, जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1909-10, पृ0 72।" style="color:blue">*</balloon>

इस जातक का सम्पूर्ण अंकन अब तक माथुरीकला में नहीं मिला है, परन्तु महत्त्वपूर्ण बातों का अंकन अवश्य है जैसे दीपंकर को फूल चढ़ाना तथा उनके सम्मुख सुमति का भूमि पर अपने केश फैलाना। जातक की पाली तथा संस्कृत कथाओं में कुछ अन्तर है। कथा का साधारण रूप निम्नांकित है:

सुमति नामक एक वेदज्ञ ब्राह्मण को एक राजा से दान में कई वस्तुएं मिलीं। इनमें एक कन्या भी थीं सुमति ने कन्या को ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया क्योंकि वह आजन्म ब्रह्मचारी रहना चाहता था। कन्या सुमति पर मुग्ध हो चुकी थी, परन्तु उसके द्वारा अस्वीकार किये जाने पर वह दीपावती नामक नगरी में जाकर ईश्वर सेवा में समय बिताने लगी। इधर सुमति को कुछ विचित्र स्वप्न हुए जिनका अर्थ समझने के लिए उसे दीपावती नगरी में जाकर वहां पधारने वाले दीपंकर बुद्ध से मिलने का आदेश हुआ। सुमति को चाहने वाली वह कन्या भी दीपंकर का पूजन करना चाहती थी। इधर दीपावती के राजा ने अपने यहाँ आने वाले दीपंकर की पूजा के लिए नगर के सम्पूर्ण पुष्पों पर अधिकार कर लियां फलत: कन्या को पूजन के लिए फूल न मिल सके। अतएव उसने अपनी तपस्या के प्रभाव से सात कमलों को विकसित कराया। यही कठिनाई सुमति के सामने भी थीं एकाएक उसने इस कन्या को फूल ले जाते हुए देखा। उसने फूलों की याचना की। पहले तो कन्या ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी, पद बाद में एक शर्त पर उसे पांच पुष्प देना स्वीकार किया। शर्त यह थी कि दीपंकर को पुष्प समर्पण करते समय सुमति अपने मन में उस कन्या को अगले जन्म में पत्नी रूप में पाने की कामना रखे। सुमति ने इसे स्वीकार किया और दोनों दीपंकर का दर्शन करने के लिए चले। सुमति ने दीपंकर को जो पांच फूल चढ़ाये वे भूमि पर तो नहीं गिरे अपितु बुद्ध के मस्तक के ऊपर एक माला के रूप में स्थित हो गये। उसी प्रकार कन्या के द्वारा समर्पित पुष्प भी दीपंकर के कानों पर स्थित हो गये। वर्षा के कारण इस समय रास्ते में कीचड़ हो रहा था। दीपंकर को चलने में कठिनाई हो रही है यह देखकर सुमति ने अपना मस्तक पृथ्वी पर झुका दिया और अपने केश बिछाकर बुद्ध को चलने के लिए मार्ग बना दिया। बुद्ध ने उसके केशों पर पैर रखे और भविष्यवाणी की कि अगले जन्म में सुमति शाक्य मुनि के रूप में उत्पन्न होंगे।

  • 10. शिबि जातक<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 19; कावेल, ई॰बी, The Jatak., संख्या 499।" style="color:blue">*</balloon>

मथुरा से प्राप्त एक वेदिका स्तंभ के पृष्ठभाग पर यह जातक कथा अंकित है। इसे शिबि जातक के नाम से पुकारा गया है पर यहाँ दिखलाई पड़ने वाला दृश्य पाली जातक कथा से मेल नहीं खाता। संभवत: यह ब्राह्मण संप्रदाय में प्रचलित राजा शिबि की कथा है जिसने एक कबूतर को बचाने के लिए अपने शरीर का मांस देना स्वीकार किया था।

  • 11. व्याघ्री जातक (सं. सं. 00 जे.5; 32.2280)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, वही, खण्ड 24-25, पृ0 50।" style="color:blue">*</balloon>

दोनों कलाकृतियों में यह जातक-दृश्य बड़े ही घिसे हुए हैं।

उपरोक्त जातक कथाओं के अतिरिक्त मथुरा कला में अधोलिखित दो अन्य जातकों का अंकन भी मिलता है, पर ये कलाकृतियां मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में नहीं हैं।

(क)वलाहस्स जातक<balloon title="जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1909-10, पृ0 72, फलक 26 सी.।" style="color:blue">*</balloon>

(ख)महिलामुख जातक [५]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ये चार मूर्तियाँ निम्नांकित हैं:
    (क) सांची की स्तूप 26 की बुद्धमूर्ति।
    (ख) अमरावती की खड़ी बुद्ध प्रतिमा।
    (ग) इलाहाबाद की खड़ी बुद्ध प्रतिमा।
    (घ) सांची के महास्तूप की आसनस्थ बुद्ध प्रतिमाएं।
  2. मुण्डित मस्तक युक्त बुद्ध प्रतिमा का केवल एक ही नमूना अब तक ज्ञात है जो लखनऊ के राज्य संग्रहालय में सुरक्षित है और मानकुवर बुद्ध प्रतिमा के नाम से पहिचाना जाता है (लखनऊ संग्रहालय संख्या ओ. 70)।
  3. वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS, खण्ड 24-25, पृ0 38-39।
  4. यह जातक कथा मथुरा से प्राप्त एक अन्य वेदिका स्तम्भ पर भी अंकित है, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय में विद्यमान है। देखिये- लोझेन, डी ले फयू जे.वी., Two Notes on Mathura Sculptures, India Antiqua फोगल-स्मृति ग्रंथ, लीडन 1947, पृ0 235-39।
  5. यह कलाकृति इस समय कलकत्ते के संग्रहालय में है: जे. फोगल, La Sculpture de Mathura फलक 20 ए; कावेल, ई॰ बी0, The Jataka, भाग 2 संख्या 26,196