मृदगलोपनिषद

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

<sidebar>

  • सुस्वागतम्
    • mainpage|मुखपृष्ठ
    • ब्लॉग-चिट्ठा-चौपाल|ब्लॉग-चौपाल
      विशेष:Contact|संपर्क
    • समस्त श्रेणियाँ|समस्त श्रेणियाँ
  • SEARCH
  • LANGUAGES

__NORICHEDITOR__

  • ॠग्वेदीय उपनिषद
    • अक्षमालिकोपनिषद|अक्षमालिकोपनिषद
    • आत्मबोधोपनिषद|आत्मबोधोपनिषद
    • ऐतरेयोपनिषद|ऐतरेयोपनिषद
    • कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद|कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद
    • नादबिन्दुपनिषद|नादबिन्दुपनिषद
    • निर्वाणोपनिषद|निर्वाणोपनिषद
    • बहवृचोपनिषद|बहवृचोपनिषद
    • मृदगलोपनिषद|मृदगलोपनिषद
    • राधोपनिषद|राधोपनिषद
    • सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद|सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद

</sidebar>

मुदगलोपनिषद / Mrudgalopnishad

इस उपनिषद में चार खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में यजुर्वेदोक्त पुरुष सूक्त के सोलह मन्त्र हैं। दूसरे खण्ड में भगवान द्वारा शरणागत इन्द्र को दिये गये उपदेश हैं। इसी में उसके अनिरुद्ध पुरुष द्वारा ब्रह्माजी को अपनी काया को हव्य मानकर व्यक्त पुरुष को अग्नि में हवन करने का निर्देश है। तीसरे खण्ड में विभिन्न योनियों के साधकों द्वारा विभिन्न रूपों में उस पुरुष की उपासना की गयी है। चौथे खण्ड में उक्त पुरुष की विलक्षणता तथा उसके प्रकट होने के विविध घटकों का वर्णन करते हुए साधना द्वारा पुरुष-रूप हो जाने का कथन है। अन्त में इस गूढ़ ज्ञान को प्रकट करने के अनुशासन का उल्लेख है।

प्रथम खण्ड

'पुरुष सूक्त' के प्रथम मन्त्र में भगवान विष्णु की सर्वव्यापी विभूति का विशद वर्णन है। शेष मन्त्रों में भी लोकनायक विष्णु की शाश्वत उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। उन्हें सर्वकालव्यापी कहा गया है। विष्णु मोक्ष के देने वाले हैं। उनका स्वरूप चतुर्व्यूह है। यह चराचर प्रकृति उनके अधीन है। जीवन के साथ प्रकृति (माया) का गहरा सम्बन्ध है। सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति श्रीहरि विष्णु द्वारा ही हुई है। जो साधक इस 'पुरुष सूक्त' को ज्ञान द्वारा आत्मसात करता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति प्राप्त करता है।

दूसरा खण्ड

  • प्रथम खण्ड के 'पुरुष सूक्त' में जिस विशिष्ट वैभव का वर्णन किया गया है, उसे उपदेश द्वारा वासुदेव ने इन्द्र को प्रदान किया था। इस खण्ड में पुन: दो खण्डों द्वारा उस परम कल्याणकारी रहस्य को भगवान ने इन्द्र को दिया।
  • वह पुरुष (परमात्मा) नाम-रूप और ज्ञान से परे होने के कारण विश्व के समस्त प्राणियों के लिए अगम्य है। फिर भी अपने अनेक रूपों द्वारा वह समस्त लोकों में प्रकट होता है। वह पुरुष-रूप में अवतार लेकर सभी कालों में 'नारायण' के रूप में अभिव्यक्त होता है और जीवों का कल्याण करता है। वह सर्वशक्तिमान है। उसका चतुर्भुज स्वरूप परमधाम वैकुण्ठ में सदैव निवास करता है। उसी ने प्रकृति का प्रादुर्भाव किया। इस खण्ड में जीव और आत्मा के मिलन द्वारा 'मोक्ष' की प्राप्ति का वर्णन है।

तीसरा खण्ड

इस खण्ड में परमात्मा के अजन्मे स्वरूप का वर्णन है, जो विभिन्न रूपों में अपने अंश को प्रकट करता रहता है। उस विराट पुरुष की उपासना सभी साधकों ने अग्निदेव के रूप में की है। यजुर्वेदीय याज्ञिक उसे 'यह यजु है' ऐसा मानते हैं और उसे सभी यज्ञीय कर्मों में नियोजित करते हैं। देवगण उसे 'अमृत' के रूप में ग्रहण करते हैं और असुर 'माया' के रूप में जानते हैं। जो भी जिस-जिस भावना से उसकी उपासना करता है, वह परमतत्त्व उसके लिए उसी भाव का हो जाता है। ब्रह्मज्ञानी उसे 'अहम् ब्रह्मास्मि' के रूप में स्वीकार करते हैं। इस भाव से वह उन्हीं के अनुरूप हो जाता है।

चौथा खण्ड

  • वह ब्रह्म तीनों तापों, छह कोशों, छह उर्मियों और सभी प्रकार के विकारों से रहित विलक्षण हैं ये तीन ताप 'अध्यात्मिक', 'आधिभौतिक' और 'आधिदैविक' हैं। वह उनसे परे है।
  • छह कोश, चर्म, मांस, अस्थि, स्नायु, रक्त औ मज्जा कहे गये हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य, छह शत्रु हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय- ये पांच शरीर के कोश हैं।
  • इसी प्रकार छह भाव विकार क्रमश: प्रिय होना, प्रादुर्भूत होना, वर्द्धित होना, परिवर्तित होना, क्षय तथा विनाश होना बताये गये हैं।
  • छह उर्मियां- क्षुधा, पिपासा, शोक, मोह, वृद्धावस्था और मृत्यु को कहा गया है।
  • छह भ्रम— कुल, गोत्र, जाति, वर्ण, आश्रम और रूप हैं।
  • वह परमात्मा इन सभी के योग से जीव के शरीर में प्रवेश करता है और इन सभी भावों से तटस्थ भी रहता है। ऐसी सामर्थ्य किसी अन्य में नहीं है। जो व्यक्ति प्रतिदिन इस उपनिषद का पारायण करता है, वह अग्नि की भांति पवित्र हो जाता है तथा वायु की भांति शुद्ध हो जाता हैं वह आदित्य के समान प्रखर होता है। वह सभी रोगों से रहित हो जाता है। वह श्री-सम्पन्न और पुत्र-पौत्रादि से समृद्ध हो जाता है। वह सभी विकारों से मुक्त हो जाता है। ऐसा ज्ञान प्राप्त करने वाला गुरु और शिष्य, दोनों ही इसी जन्म में पूर्ण पुरुष का पद प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।



सम्बंधित लिंक