मौर्य से गुप्तकालीन मथुरा

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
Sushma (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १४:२५, १५ मई २००९ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
पौराणिक मथुरा मौर्य से गुप्तकालीन मथुरा गुप्तकालीन से मुग़ल कालीन मथुरा

मथोरा और क्लीसोबोरा

मथुरा के विषय में बौद्ध साहित्य में अनेक उल्लेख हैं । 600 ई० पू० में मथुरा में अवंतिपुत्र (अवंतिपुत्तो) नाम के राजा का राज्य था । बौद्ध अनुश्रुति (अंगुत्तरनिकाय) के अनुसार उसके शासन काल में स्वयं गौतम बुद्ध मथुरा आए थे । बुद्ध उस समय इस नगरी के लिए अधिक आकर्षित नहीं हुए क्‍योंकि उस समय यहां वैदिक मत सुदृढ़ रूप से स्थापित था (दे० श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी-मथुरा परिचय, प ० 46) चंद्रगुप्त मौर्य के काल में मथुरा मौर्य-शासन के अंतर्गत था । मेगेस्थनीज (जो कि एक ग्रीक राजदूत था) ने सूरसेनाई- मथोरा और क्लीसोबोरा नामक नगरियों का वर्णन किया है और इन नगरों को कृष्ण की उपासना का मुख्य केन्द्र वर्णित किया है । मथुरा में बौद्धधर्म का प्रचार अशोक के समय में अधिक हुआ ।

मथुरा और बौद्ध धर्म

मथुरा और बौद्ध धर्म का घनिष्ठ संबंध था । जो बुद्ध के जीवन-काल से कुषाण-काल तक अक्षु्ण रहा । 'अंगुत्तरनिकाय' के अनुसार भगवान बुद्ध एक बार मथुरा आये थे और यहाँ उपदेश भी दिया था । [१] 'वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त' में भगवान् बुद्ध के द्वारा मथुरा से वेरंजा तक यात्रा किए जाने का वर्णन मिलता है । [२] पालि विवरण से यह ज्ञात होता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बारहवें वर्ष में ही बुद्ध ने मथुरा नगर की यात्रा की थी । [३] मथुरा से लौटकर बुद्ध वेरंजा आये फिर उन्होंने श्रावस्ती की यात्रा की ।[४] भगवान बुद्ध के शिष्य महाकाच्यायन मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आए थे । इस नगर में अशोक के गुरु उपगुप्त [५], ध्रुव (स्कंद पुराण, काशी खंड, अध्याय 20), एवं प्रख्यात गणिका वासवदत्ता [६] भी निवास करती थी ।

व्यापारिक संबंध

मथुरा राज्य का देश के दूसरे भागों से व्यापारिक संबंध था । मथुरा उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों भागों से जुड़ा हुआ था । [७] राजगृह से तक्षशिला जाने वाले उस समय के व्यापारिक मार्ग में यह नगर स्थित था । [८] मथुरा से एक मार्ग वेरंजा, सोरेय्य, कणकुंज होते हुए पयागतिथ्थ जाता था वहाँ से वह गंगा पार कर बनारस पहुँच जाता था । [९] श्रावस्तीऔर मथुरा सड़क मार्ग द्वारा संबद्ध थे (अंगुत्तरनिकाय, भाग 2, पृ 57) । मथुरा का व्यापार पाटलीपुत्र द्वारा जलमार्ग से होता था । वे वस्तुओं का आदान-प्रदान करते थे । उस समय ऐसा लगता था जैसे दोनों पुरियों के बीच नावों का पुल बना हो । [१०] भारत के अन्य प्रमुख व्यापारिक नगरों, इन्द्रप्रस्थ, कौशांबी, श्रावस्ती तथा वैशाली आदि से भी यहाँ के व्यापारियों के वाणिज्यक संबंध थे । [११] बौद्ध ग्रंथों में शूरसेन के शासक अवंतिपुत्र की चर्चा है, जो उज्जयिनीके राजवंश से संबंधित था । इस शासक ने बुद्ध के एक शिष्य महाकाच्यायन से ब्राह्मण धर्म पर वाद-विवाद भी किया था ।[संदर्भ देखें] भगवान् बुद्ध शूरसेन जनपद में एक बार मथुरा गए थे, जहाँ आनन्द ने उन्हें उरुमुंड पर्वत पर स्थित गहरे नीले रंग का एक हरा-भरा वन दिखलाया था (दिव्यावदान, पृ 348-349) । मिलिंदपन्हों (मिलिंदपन्हो (ट्रेंकनर संस्करण), पृ 331) में इसका वर्णन भारत के प्रसिद्ध स्थानों में हुआ है । इसी ग्रंथ में प्रसिद्ध नगरों एवम् उनके निवासियों के नाम के एक प्रसंग में माधुरका (मथुरा के निवासी का भी उल्लेख मिलता है, (मिलिंदपन्हों (ट्रेंकनर संस्करण), पृ 324) जिससे ज्ञात होता है कि राजा मिलिंद (मिनांडर) के समय (150 ई0 पू0) मथुरा नगर पालि परंपरा में एक प्रतिष्ठित नगर के रूप में विख्यात हो चुका था ।

मथुरा जैन और साहित्य

'ललितविस्तर' में मथुरा घनी आबादी वाला नगर वर्णित है तथा राजा सुबाहु की राजधानी बताया गया है ।[१२] 'अंगुत्तरनिकाय' के 'पंचकनिपात' में मथुरा के पाँच दोषों का वर्णन है । यहाँ की सड़कें विषम, धूलयुक्त, भयंकर कुत्तों तथा राक्षसों से युक्त थीं तथा यहाँ भिक्षा भी सुलभ नहीं थी । [१३] परंतु बाद में मथुरा के इन दोषों का संकेत नहीं मिलता । अत: यह कहा जा सकता है कि बाद के दिनों में यह नगरी इन सब दोषों से मुक्त हो चुकी थी । युवानच्वांग (ह्वेन सांग) के यात्रावृत्त में तथा बौद्ध साहित्य में अशोक के गुरू उपगुप्त का विवरण मिलता है जो मथुरा नगर के निवासी थे । जैन श्रुति के अनुसार जैन संघ की दूसरी परिषद् मथुरा में स्कंदिलाचार्य ने की थी जिसमें 'माथुर वाचना` नाम द्वारा जैन आगमों के संहिताबद्ध विवरण का उल्लेख किया गया था । 5वीं शती ई० के आखरी वर्षों में अकाल पड़ने के कारण यह 'वाचना` समाप्त प्रायः हो गई थी । तीसरी परिषद् में आगमों का पुनरूद्धार किया गया । इस परिषद का आयोजन वल्लभिपुर में किया गया । 'विविधतीर्थकल्प' में मथुरा में दो जैन साधुओं-धर्मरूचि और धर्मघोष के निवासस्थान होने का विवरण प्राप्त होता है । मथुरा की श्रीसंपन्नता का भी वर्णन जैन साहित्य में भी मिलता है - "मथुरा बारह योजन लंबी और नौ योजन चौड़ी थी । नगरी के चारों ओर परकोटा खिंचा हुआ था और वह हर-मंदिरों, जिनशालाओं, सरोवरों आदि से संपन्न थी । जैन साधु वृक्षों से भरे हुए भूधरमणि उद्यान में निवास करते थे । इस उद्यान के स्वामी कुबेर ने यहाँ एक जैन स्तूप बनवाया था जिसमें सुपार्श्व की मूर्ति प्रतिष्ठित थी ।" मथुरा के भंडीर यक्ष के मंदिर का उल्लेख 'विविधतीर्थकल्प' में भी मिलता है । मथुरा में ताल, भंडीर कौल, बहुल, बिल्व और लोहजंघ नाम के बगीचे थे । इस ग्रंथ में अर्कस्थल, वीरस्थल, पद्यस्थल, कुशस्थल और महास्थल नामक पांच पवित्र जैन स्थलों का भी वर्णन है । 12 वनों के नाम भी इस ग्रंथ में मिलते हैं- वृंदावन, मधुवन, तालवन, कुमुदवन, लौहजंघवन, भांडीरवन, बिल्ववन, खदिरवन, काम्यिकवन, कोलवन, बहुलावन और महावन ।

तीर्थ

विश्रांतिक तीर्थ (विश्राम घाट) असिकुंडा तीर्थ (असकुंडा घाट) वैकुंठ तीर्थ, कालिंजर तीर्थ और चक्रतीर्थ नामक पांच प्रसिद्ध मंदिरों का वर्णन किया गया है । इस ग्रंथ में कालवेशिक, सोमदेव, कंबल और संबल, इन जैन साधुओं को मथुरा का बतलाया गया है । जब यहाँ एक बार घोर अकाल पड़ा था तब मथुरा के एक जैन नागरिक खंडी ने अनिवार्य रूप से जैन आगमों के पाठन की प्रथा चलाई थी । यह जैन धर्म और कला का भी अत्यंत प्राचीन काल से प्रमुख स्थान था । जैन ग्रंथों मे उल्लेख है कि यहाँ पार्श्वनाथ महावीर स्वामी ने भी प्रवास किया था । [१४] पउमचरिय[१५] में एक वर्णन मिलता है कि सात साधुओं द्वारा सबसे पहले मथुरा में ही श्वेतांबर जैन संम्प्रदाय का प्रचार व प्रसार किया गया । जैन सूत्रों में मथुरा को 'पाखंडिगर्भ' कहा गया है । युग प्रधान आर्य-रक्षित आचार्य विहार करते हुए मथुरा आए और वे `भूतगुहा' नामक चैत्य में भी ठहरे थे (आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ 411) । जैन परंम्पराओं से पता चलता है कि मथुरा में देवताओं द्वारा निर्मित तथा रत्नों से जड़ा हुआ एक[१६] स्तूप था ।[१७] 'वृहत्कल्पभाष्य' (बृहत्कल्पभाष्य, 5/1536) में वर्णित है कि जिस प्रकार `धर्मचक्र' के लिए उत्तरापथ और `जीवंत स्वामी' प्रतिमा के लिए कोशल नगरी प्रसिद्ध है, देवनिर्मित स्तूप के लिए मथुरा प्रसिद्ध है । मथुरा के इस स्तूप का सबसे प्राचीन उल्लेख व्यवहारभाष्य में मिलता है (व्यवहारभाष्य, 5/27/28) । मथुरा में जैन धर्म का बड़ा प्रसार था । मथुरा नगरी में गृहों के निर्माण में आलों (उतरंग) मंगलार्थ `अर्हत प्रतिमा' बनायी जाती थी । `मंगलचैत्य' मथुरा नगर और उसके आसपास के छियानवे ग्रामों के घरों और चौराहों पर बनाए गए थे (बृहत्कल्पभाष्य, 1/1774) । यह नगर व्यापार का भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था । विशेषकर सूती एवं रेशमी वस्त्र के लिए यह प्रसिद्ध था । (आवश्यक टीका (हरिभद्र), पृ 307) । यहाँ के नागरिक मुख्यत: व्यापारी थे, कृषक नहीं (बृहत्कल्पभाष्य, 1/1239) । व्यापार मुख्यत: स्थलमार्ग से किया जाता था । (आचारांगचूर्णि, पृ 280)

उत्खनन

मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से अनेक जैन मूर्तियाँ तथा दो जैन स्तूपों के अवशेष मिले हैं । इसमें सबसे प्राचीन स्तूप का निर्माण तीसरी शताब्दी ई. पू. में हुआ होगा (जैन जर्नल, भाग 3 (अप्रैल 1969 ई.), पृ 185-186) । मथुरा का यह स्तूप प्रारंभ में स्वर्णजटित था । इसे `कुबेरा' नामक देवी ने सातवें तीर्थंकर 'सुपार्श्वनाथ' की स्मृति में बनवाया था । कंकाली टीले के उत्खनन से अन्य प्रमाण भी मिले हैं , सबसे महत्त्वपूर्ण शक प्रदेश के महाक्षत्रप षोडास [शोडास] का अभिलेख है (एपिग्राफिया इंडिका, भाग 2, पृ 199) । इस अभिलेख में अर्हत वर्धमान की प्रार्थना की गई है । यहाँ एक श्राविका (समन वाविका) का भी उल्लेख मिलता है, जिसने अपने तीन पुत्रों- घनघोष, पोथघोष और पलघोष के साथ प्रार्थना की थी । तत्कालीन समाज के व्यापारी तथा निम्न वर्ग दोनों समुदायों के व्यक्ति बहुत बड़ी संख्या मे जैन धर्मानुयायी थे; क्योंकि दान देने वालों में कोषाध्यक्ष, गंधी, धातुकर्मी, गोष्ठियों के सदस्य, ग्राम प्रमुख, सार्थवाहों की पत्नियाँ, नर्तकों की पत्नियाँ, स्वर्णकार तथा गणिका जैसे वर्गों के व्यक्ति थे ।[१८] इन शिलालेखों में विभिन्न गणों, कुलों, शाखाओं तथा संभागों का वर्णन है । जैन संघ सुगठित एवं सुव्यवस्थित था । इस काल में मूर्तिपूजा पूर्णरूपेण स्थापित एवं प्रचलित हो चुकी थी । [१९] बौद्ध, शैव, वैष्णव आदि अनेक धर्मों की तरह मथुरा राज्य जैन धर्मावलंबियों का भी एक पवित्र स्थान रहा है । एक अनुश्रुति में मथुरा को इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ [२०] की जन्मभूमि बताया गया है, किंतु उत्तरपुराण में इनकी जन्मभूमि मिथिला वर्णित है( बी.सी भट्टाचार्य, जैन आइकोनोग्राफी (लाहौर, 1939), पृ 79) । विविधतीर्थकल्प से ज्ञात होता है कि नेमिनाथ का मथुरा में विशिष्ट स्थान था (विविधतीर्थकल्प, पृ 80) । मथुरा पर प्राचीन काल से ही विदेशी आक्रामक जातियों, शक, यवन एवं कुषाणों का शासन रहा । इन राजाओं ने विकसित बौद्ध एवं जैन (श्रमण-परंपरा ) को अपनाकर इन धर्मों को प्रचारित किया । यह स्थान प्राचीन काल से ही व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हो गया था । अहिंसावादी जैन धर्मावलंबियों ने कृषि-कार्य में होने वाली हिंसा के कारण ही आजीविका का प्रधान माध्यम व्यापार और वाणिज्य को माना है । इस प्रकार बौद्ध एवं जैन धर्म में विश्वास करने वालों का मुख्यत: विकास व्यापारिक केंदों में भी दृष्टिगत होता है । पाँचवी शताब्दी ई. में फाह्यान भारत आया तो उसने भिक्षुओं से भरे हुए अनेक विहार देखे । सातवीं शताब्दी में ह्वेनसाँग ने भी यहाँ अनेक विहारों को देखा । इन दोनों चीनी यात्रियों ने अपनी यात्रा में यहाँ का वर्णन किया है । "पीतू" देश से होता हुआ चीनी यात्री फाह्यान 80 योजन चलकर मताउला [२१] (मथुरा) जनपद पहुँचा था ।

बौद्ध धर्म

इस समय यहाँ बौद्ध धर्म अपने विकास की चरम सीमा पर था । उसने लिखा है कि यहाँ 20 से भी अधिक संघाराम थे, जिनमें लगभग तीन सहस्र से अधिक भिक्षु रहा करते थे । [२२] यहाँ के निवासी अत्यंत श्रद्धालु और साधुओं का आदर करने वाले थे । राजा भिक्षा (भेंट) देते समय अपने मुकुट उतार लिया करते थे और अपने परिजन तथा अमात्यों के साथ अपने हाथों से दान करते (देते) थे । यहाँ अपने आपसी झगड़ों को स्वयं तय किया जाता था; किसी न्यायाधीश या कानून की शरण नहीं लेनी पड़ती थीं । नागरिक राजा की भूमि को जोतते थे तथा उपज का कुछ भाग राजकोष में देते थे । मथुरा की जलवायु शीतोष्ण थी । नागरिक सुखी थे । राजा प्राणदंड नहीं देता था, शारीरिक दंड भी नहीं दिया जाता था । अपराधी को अवस्थानुसार उत्तर या मध्यम अर्थदंड दिया जाता था (जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फाह्यान, पृ 43) । अपराधों की पुनरावृत्ति होने पर दाहिना हाथ काट दिया जाता था । फाह्यान लिखता हैं कि पूरे राज्य में चांडालों को छोड़कर कोई निवासी जीव-हिंसा नहीं करता था । मद्यपान नहीं किया जाता था और न ही लहसुन-प्याज का सेवन किया जाता था । चांडाल (दस्यु) नगर के बाहर निवास करते थे । क्रय-विक्रय में सिक्कों एवं कौड़ियों का प्रचलन था ( जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फाह्यान, पृ 43) । बुद्ध के निर्वाण के बाद विभिन्न जनपदों के राजाओं और सेठों ने भिक्षुओं के लिए विहारों का निर्माण करवाया । साथ ही खेत, वन, घर, उपवन प्रजा और पशुओं को दान कर दिया । दान की गई वस्तुओं का वर्णन ताम्रपत्र पर उल्लिखित है । फाह्यान लिखता है कि यह परंपरा पुरातन समय से चली आ रही है और आज भी उसी रूप में चल रही है (तत्रैव, पृ 43) । श्रमणों का कार्य शुभ कार्यों से धनोपार्जन करना, सूत्र का पाठ करना और ध्यान लगाना था । जब किसी साम्राज्य के अतिथि आते थे तो स्थाई रहने वाले भिक्षु उनका स्वागत करते थे (तत्रैव, पृ 44) ।

फाह्यान ने संघ के स्थान पर सारिपुत्त, महामौद्गलायन और काश्यप के बने स्तूपों को देखा । सारिपुत्त कुलीन ब्राह्मण थे । फाह्यान ने लिखा है कि जब भिक्षुक वार्षिक अन्नहार पाते थे । भिक्षु उन्हें लेकर यथाभाग आपस में बाँट लेते थे । धर्म और संघा के नियम परंपरा आज भी वैसी ही है, जैसा कि बुद्ध के समय प्रचलित थी। ह्वेनसाँग 635 ई (संवत् 692) में मथुरा आया था । [२३] ह्वेनसाँग ने मथुरा नगर के विषय में विस्तार से लिखा है- कि इस नगर का विस्तार 5000 ली (लगभग 833 मील) और नगर (राजधानी) की परिधि 20 ली (लगभग 3.5 मील) थी ।[२४] ह्वेनसाँग के इस विवरण के आधार पर कनिंघम ने मथुरा राज्य में केवल बैराट और अतरंजी जनपदों के बीच के भूभाग को ही नहीं वरन् आगरा से परे दक्षिण में नरवर और श्यौपुरी तक तथा पूर्व में सिंध नदी तक के विस्तृत क्षेत्र को भी माना है ।[२५] ह्वेनसाँग ने मथुरा राज्य की उपज और राज्य के निवासियों के संबंध में भी विस्तृत विवरण किया है । उसने लिखा है कि यहाँ की भूमि उपजाऊ है और अन्न उत्पादन के लिए उपयुक्त है । यहाँ कपास की अच्छी उपज होती थी । यहाँ के नागरिक सह्रदय, विनम्र और सहनशील थे । लोग कर्म में विश्वास रखते थे तथा नैतिक तथा बौद्धिक श्रेष्ठता का आदर करते थे ।[२६] इनमें हीनयान और महायान दोनों मतों के समर्थक थे । इनके अतिरिक्त यहाँ पाँच देवमंदिर थे जिनमें सभी धर्मों के अनुयायी पूजा करते थे । तथागत के पवित्र अवशेषों पर भी स्मारक रूप में कई स्तूप बने हुए थे । इन स्तूपों के दर्शन के लिए धार्मिक अवसरों पर संन्यासी बड़ी संख्या में आते थे और वस्तुएँ भेंट में देते थे । ये संन्यासी अपने संप्रदायों के अनुसार अलग-अलग पवित्र स्थानों की पूजा करते थे । ह्वेनसाँग ने लिखा है कि नगर से एक मील पूर्व की ओर उपगुप्त द्वारा बनवाया गया एक संघाराम था । इसके अन्दर एक स्तूप था । जिसमें तथागत के नाखून रखे हुए थे । संघाराम के उत्तर में 20 फुट ऊँची और 30 फुट चौड़ी एक गुफा थी । उपगुप्त द्वारा निर्मित संघाराम को ग्राउस ने कंकाली टीले पर माना है । [२७] कनिंघम ने इस संघाराम का वर्णन नगर के पश्चिम में किया है । विहार से 24-25 ली (लगभग 5 मील) दक्षिण-पूर्व में एक तालाब था, जो सूख गया था उसके किनारे एक स्तूप था । ह्वेनसाँग के अनुसार बुद्ध के आगमन के समय एक बंदर ने उन्हें थोड़ा-सा मधु दिया जिसे बुद्ध ने थोड़े-से फलों के साथ मिश्रित करके अपने शिष्यों में वितरित करवा दिया था । बंदर को इतनी प्रसन्नता हुई कि वह एक गड्ढे में गिरकर मर गया और अपने पूर्वोक्त-पुण्यजन्यकृत्य के कारण अगले जन्म में मनुष्य योनि प्राप्त करने में सफल रहा । [२८] इस तालाब के पास ही एक घना जंगल था, जिसमें चार बुद्धों के चरण-चिन्ह सुरक्षित थे । यहीं पर वे स्तूप हैं जहाँ पर सारिपुत्र तथा बुद्ध के अन्य 1250 शिष्यों ने कठिनतम तपस्या की थी । [२९]


टीका-टिप्पणी

  1. अंगुत्तनिकाय, भाग 2, पृ 57; तत्रैव, भाग 3,पृ 257
  2. भरत सिंह उपापध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ 109
  3. `दिव्यावदान, पृ 348 में उल्लिखित है कि भगवान बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण काल से कुछ पहले ही मथुरा की यात्रा की थी-"भगवान्......परिनिर्वाणकालसमये..........मथुरामनुप्राप्त:। पालि परंपरा से इसका मेल बैठाना कठिन है।
  4. उल्लेखनीय है कि वेरंजा उत्तरापथ मार्ग पर पड़ने वाला बुद्धकाल में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो मथुरा और सोरेय्य के मध्य स्थित था।
  5. वी ए स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया (चतुर्थ संस्करण), पृ 199
  6. `मथुरायां वासवदत्ता नाम गणिकां।' दिव्यावदान (कावेल एवं नीलवाला संस्करण), पृ 352
  7. आर सी शर्मा, बुद्धिस्ट् आर्ट आफ मथुरा, पृ 5
  8. भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धिकालीन भारतीय भूगोल, पृ 440
  9. मोती चंद्र, सार्थवाह, (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1953) 16
  10. यावच्च मथुरां यावच्च पाटलिपुत्रं अंतराय नौसङ् कमोवस्थापित:'।
  11. जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ् पालि प्रापर नेम्स, भाग 2, पृ 930
  12. `इयं मथुरा नगरी ऋद्धा च स्फीता च क्षेमा च सुभिक्षाचाकार्षाबाहुजन महुष्या। ललितविस्तर, पृ 21; विमलचरण लाहा, ज्योग्राफिकल एसेज, पृ 26। रोचक है कि पुराणों में राजा सुबाहु को शूरसेन का भाई और शत्रुध्न का पुत्र बताया गया है अत: ललितविस्तर का कंसकुल का शूरसेनों का शासक सुबाहु से उसकी समता नहीं की जा सकती। संभव है यह कोई अन्य बुद्धपूर्वकालीन शूरसेन जनपद का शासक रहा हो।
  13. `पंच इसमें भिक्खवे आदीवना मथुरायम्। कतमें पंच ? विषमा, बहुरजा, चंडसुनख, बाल्यक्खा दुल्लभपिंडो। इमे खो भिक्खवे पंच आदोरवा मधुरायंति।' अंगुत्तरनिकाय,भाग 3, पृ. 256
  14. विषाकसूत्र, पृ 26, नायाधम्मकहाओ, पृ 156
  15. पउमचरिय, 2/2/89; ये सात साधु निम्नलिखित थे- (सुरमंत्र, श्रीमंत्र, श्रीतिलम, सर्वसुंदर, अनिल, ललित और जयमित्र
  16. रोचक है यह देवनिर्मित शब्द स्तूप की प्राचीनता की ओर इंगित करता है, जब मानवीय निर्माण की परंपरा से भी पीछे देवनिर्माण की परंपरा में लोगों का विश्वास था।
  17. जगदीशचंद्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ 219; वासुदेवशरण अग्रवाल, भारतीय कला,
  18. एस बी देव हिस्ट्री ऑफ जैन माँनकिज्म, (पूना, 1959), पृ 101
  19. अमलानंद घोष, जैन कला एवं स्थापत्य (नई दिल्ली, 1975), पृ 30
  20. बीस़ी भट्टाचार्य, जैन आइकोनोग्राफी (लाहौर, 1939), पृ 80
  21. `मूचा' (मोर का शहर) का विस्तार 27° 30' उत्तरी आक्षांश से 77° 43' पूर्वी देशांतर तक था। यह कृष्ण की जन्मस्थली थी जिसका राजचिन्ह मोर था।
  22. जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फाह्यान , पृ 42
  23. ए कनिंघम, ऐंश्‍येंटज्योग्राफी, ऑफ इंडिया, , प्रस्तावना, पृ 5
  24. थामस वाट्र्स, ऑन युवॉन् च्वाँग ट्रेवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृ 301
  25. ए कनिंघम, ऐंश्‍येंटज्योग्राफी ऑफ इंडिया, पृ 327-28
  26. ग्राउस, मथुरा ए डिस्ट्रिक्ट मेमायर, (तृतीय संस्करण, 1883), पृ 4ह्वेनसाँग द्वारा वर्णित तथ्य आजकल मथुरा में नहीं दिखलाई पड़ते। मथुरा की भूमि न तो पैदावार योग्य है और न कपास की फसल ही अच्छी होती है। ऐसी स्थिति में यह भ्रम उत्पन्न होता है कि ह्वेनसाँग ने मथुरा के नाम पर किसी अन्य स्थान का विवरण तो नहीं लिखा है। ग्राउस का मत है ह्वेनसाँग के समय में मथुरा में मैनपुरी, आगरा, शिकोहाबाद तथा मुस्तफाबाद के कुछ परगने भी सम्मिलित रहे हों।
  27. ग्राउस, मथुरा ए डिस्ट्रिक्ट मेमायर (तृतीय संस्करण, 1883), पृ 113; उल्लेख्य हैं कि कंकाली टीला प्राचीन काल से ही जैनियों का एक बड़ा केन्द्र था और 11 वीं शताब्दी तक बना रहा। अत: इस अविध में यहाँ बौद्धों के किसी बड़े स्तूप या विहार का होता असंगत प्रतीत होता है। बहुत संभव है कि यह संघाराम या तो वर्तमान सप्तर्षि टीला पर था या उससे पूर्व की ओर था जो आजकल बुद्ध तीर्थ के नाम से विख्यात है।
  28. ग्राउस महोदय ने बंदर वाले स्तूप का स्थान (दमदम) डीह निश्चित किया है। जो सराय जमालपुर के निकट और कटरा से दक्षिणी-पूर्व थोड़ी दूर पर है। कनिंघम भी इसकी पुष्टि करते हैं। इस बंदर का इतिहास बहुधा बौद्ध प्रस्तरों में प्रदर्शित किया गया है।
  29. थामस बाट्र्स, ऑन् यूवान् च्वांग्स् ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृ 311