युधिष्ठिर

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युधिष्ठिर / Yudhisthira

युधिष्ठिर महाभारत में पांच पाण्डवों में बडे भाई थे। महाभारत के नायकों में समुज्ज्वल चरित्र वाले ज्येष्ठ पाण्डव थे। युधिष्ठिर धर्मराज के पुत्र थे। वे सत्यवादिता एवं धार्मिक आचरण के लिए विख्यात हैं। अनेकानेक धर्म सम्बन्धी प्रश्न एवं उनके उत्तर युधिष्ठिर के मुख से महाभारत में कहलाये गये हैं। शान्तिपर्व में सम्पूर्ण समाजनीति, राजनीति तथा धर्मनीति युधिष्ठिर और भीष्म के संवाद के रूप में प्रस्तुत की गयी है। युधिष्ठिर भाला चलाने मे निपुण थे। वे कभी मिथ्या नही बोलते थे। उनके पिता ने यक्ष बन कर सरोवर पर उनकी परीक्षा भी ली थी।

महाभारत में युधिष्ठिर

राजसूय यज्ञ के बाद युधिष्ठिर ने सम्राट-पद प्राप्त किया। उन्हें बधाई देने के लिए द्वैपायन व्यास आये। बात-ही-बात में उन्हेंने कहा कि प्रत्येक उत्पात का फल 13 वर्ष तक चलता है। अत: शिशुपाल-वध के फलस्वरूप युधिष्ठिर को निमित्त बनाकर एक युद्ध होगा जिसमें क्षत्रियों का विनाश होगा। इस भविष्यवाणी को सुनकर युधिष्ठिर स्वयं मरने का निश्चय करने के लिए उद्यत हो उठे किंतु अर्जुन ने उन्हें समझा-बुझाकर शांत किया।


कौरवों से द्यूतक्रीड़ा में हारने के बाद पांडव तथा द्रौपदी काम्यक वन में चले गये। दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिए अर्जुन तपस्या करने इंद्रकील पर्वत पर चले गये। शेष पांडव तथा द्रौपदी उनकी चिंता में रत थे। उन्हीं दिनों वृहदश्व मुनि ने युधिष्ठिर को भांति-भांति का उपदेश दिया। उन्होंने अश्वविद्या और द्यूतक्रीड़ा का रहस्य भी चारों पांडवों को बता दिया। [१]


महाभारत-युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व युधिष्ठिर क्रमश: भीष्म, द्रोण तथा कृपाचार्य के पास गये। उन्हें प्रणाम कर उनसे विजय-प्राप्ति का वरदान लिया तथा उनसे उन लोगों की मृत्यु का उपाय भी पूछा। भीष्म ने कहा कि वे बाद में बतायेंगे, क्योंकि अभी उनका मृत्युकाल भी नहीं आया है। द्रोण ने कहा-"अप्रिय समाचार' प्राप्त कर मेरे हाथ से शस्त्र गिर जाते हैं- ऐसे समय में कोई मेरा हनन कर सकता है।" कृपाचार्य ने कहा कि युधिष्ठिर की विजय निश्चित है। तदुपरांत युधिष्ठिर ने शल्य को प्रणाम कर प्रार्थना की कि यदि वह कर्ण का सारथी बने और उसे हतोत्साहित करता रहे। शल्य ने स्वीकार कर लिया। महाभारत-युद्ध में द्रोण की इच्छा युधिष्ठिर को बंदी बना लेने की थी। कृष्ण ने यह बात भांप ली थी। घटोत्कच के वध के उपरांत युधिष्ठिर बहुत कातर हो उठे। घटोत्कच ने वनवास काल से ही पांडवों का बहुत साथ दिया था। कृष्ण ने युधिष्ठिर को समझाया कि यदि कर्ण ने घटोत्कच पर शक्ति का प्रयोग न किया होता तो अर्जुन का वध निश्चित था। युद्ध के चौदहवें दिन व्यास मुनि ने प्रकट होकर बताया कि तब से पांचवें दिन पांडवगण विजयी हो जायेंगे तथा वसुधा पर उनका एकछत्र राज्य होगा। अगले दिन द्रोण ने महाभयंकर युद्ध का श्रीगणेश किया। जो रथी सामने आता, वही मारा जाता। श्रीकृष्ण ने पांडवों को समझा-बुझाकर तैयार कर लिया कि वे द्रोण तक अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार पहुंचा दें जिससे कि युद्ध में द्रोण की रूचि समाप्त हो जाय। भीम ने मालव नरेश इंद्रवर्मा के अश्वत्थामा नामक हाथी का वध कर दिया। उसने द्रोण को 'अश्वत्थामा मारा गया' समाचार दिया। द्रोण ने उसपर विश्वास न कर युधिष्ठिर से समाचार की सच्चाई जाननी चाही। युधिष्ठिर अपनी सत्यप्रियता के लिए विख्यात थे। श्रीकृष्ण के अनुरोध पर उन्होंने जोर से कहा "अश्वत्थामा मारा गया है।" और धीरे से यह भी जोड़ दिया कि "हाथी का वध हुआ है।" द्रोण ने उत्तरांश नहीं सुना। अत: उनका समस्त उत्साह मंद पड़ गया। युधिष्ठिर इतने धर्मात्मा थे कि उनका रथ पृथ्वी से चार अंगुल ऊंचा रहता था किंतु उस दिन के असत्य भाषण के उपरांत उनके घोड़े पृथ्वी का स्पर्श करके चलने लगे। कर्ण-वध के उपरांत राजा शल्य ने कौरवों का सेनापतित्व ग्रहण किया। युद्ध में युधिष्ठिर ने चंद्रसेन तथा द्रुमसेन को मार डाला।


महाभारत-युद्ध की समाप्ति पर बचे हुए कौरवपक्षीय नर-नारी, जिनमें धृतराष्ट्र तथा गांधारी प्रमुख थे, तथा श्रीकृष्ण, सात्यकि और पांडवों सहित द्रौपदी, कुन्ती तथा पांचाल विधवाएं कुरूक्षेत्र पहुंचे। वहां युधिष्ठिर ने मृत सैनिकों का (चाहे वे शत्रु वर्ग के हों अथवा मित्रवर्ग के) दाह-संस्कार एवं तर्पण किया। कर्ण को याद कर युधिष्ठिर बहुत विचलित हो उठे। मां से बार-बार कहते रहे-"काश, कि तुमने हमें पहले बता दिया होता कि कर्ण हमारे भाई हैं।" अंत में हताश, निराश और दुखी होकर उन्होंने नारी-जाति को शाप दिया कि वे भविष्य में कभी भी कोई गुह्य रहस्य नहीं छिपा पायेंगी। युधिष्ठिर को राज्य, धन, वैभव से वैरागय हो गया। वे वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहते थे किंतु समस्त भाइयों तथा द्रौपदी ने उन्हें तरह-तरह से समझाकर क्षात्रधर्म का पालन करने के लिए उद्यम किया। [२]

टीका-टिप्पणी

  1. म0भा0, सभापर्व, 46,80
  2. म0 भा0, भीष्मवधपर्व, ।992, द्रोणपर्व, 162, 183, 190, स्त्रीपर्व, 26, 27, शांतिपर्व, राजधर्मानुशासनपर्व