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==रस के भेद==
रस के भेद
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कुछ आचार्यों ने श्रृंगार रस को रसराज और अन्य रसों की उसी से उत्पत्ति मानी है। आचार्य मम्मट ने रसों की संख्या आठ मानी है- श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत। अब विद्वानों ने भक्ति और वात्सल्य को भी रस मान लिया है। रसखान के काव्य में श्रृंगार रस, भक्ति रस तथा वात्सल्य रस आदि का विवेचन मिलता है।  
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कुछ आचार्यों ने श्रृंगार रस को रसराज और अन्य रसों की उसी से उत्पत्ति मानी है।  
श्रृंगार रस  
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*आचार्य मम्मट ने रसों की संख्या आठ मानी है-  
श्रृंगार रस के दो भेद हैं- 1.संयोग श्रृंगार 2.विप्रलंभ श्रृंगार।  
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#श्रृंगार,  
संयोग श्रृंगार  
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#हास्य,  
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#करुण,  
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#रौद्र,  
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#वीर,  
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#भयानक,  
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#वीभत्स और  
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#अद्भुत।  
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*अब विद्वानों ने भक्ति और वात्सल्य को भी रस मान लिया है।  
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*रसखान के काव्य में 'श्रृंगार रस', 'भक्ति रस' तथा 'वात्सल्य रस' आदि का विवेचन मिलता है।  
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==श्रृंगार रस==
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श्रृंगार रस के दो भेद हैं-  
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#संयोग श्रृंगार  
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#विप्रलंभ श्रृंगार।  
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'''संयोग श्रृंगार'''<br />
 
प्रिय और प्रेमी का मिलन दो प्रकार का हो सकता है- संभोग सहित और संभोग रहित। पहले का नाम संभोग श्रृंगार और दूसरे का नाम संयोग श्रृंगार है।  
 
प्रिय और प्रेमी का मिलन दो प्रकार का हो सकता है- संभोग सहित और संभोग रहित। पहले का नाम संभोग श्रृंगार और दूसरे का नाम संयोग श्रृंगार है।  
Footnote
 
1. सुजान रसखान, 202
 
संभोग श्रृंगार
 
जहां नायक-नायिका की संयोगावस्था में जो पारस्परिक रति रहती है वहां संभोग श्रृंगार होता है। 'संभोग' का अर्थ संभोग सुख की प्राप्ति है। रसखान के काव्य में संभोग श्रृंगार के अनेक उदाहरण मिलते हैं। राधा-कृष्ण मिलन और गोपी-कृष्ण मिलन में कहीं-कहीं संभोग श्रृंगार का पूर्ण परिपाक हुआ है। उदाहरण के लिए—
 
अँखियाँ अँखियाँ सो सकाइ मिलाइ हिलाइ रिझाइ हियो हरिबो।
 
बतियाँ चित्त चोरन चेटक सी रस चारु चरित्रन ऊचरिबो।
 
रसखानि के प्रान सुधा भरिबो अधरान पे त्यों अधरा धरिबो।
 
इतने सब मैन के मोहिनी जंत्र पे मंत्र बसीकर सी करिबो॥(1)
 
इस पद्य में रसखान ने संभोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति नायक और नायिका की श्रृंगारी चेष्टाओं द्वारा करायी है। यद्यपि उन्होंने नायक तथा नायिका या कृष्ण-गोपी शब्द का प्रयोग नहीं किया, तथापि यह पूर्णतया ध्वनित हो रहा है कि यहां गोपी-कृष्ण आलंबन हैं। चित्त चोरन चेटक सी बतियां उद्दीपन विभाव हैं। अंखियां मिलाना, हिलाना, रिझाना आदि अनुभाव हैं। हर्ष संचारी भाव है। संभोग श्रृंगार की पूर्ण अभिव्यक्ति हो रही है। संभोग श्रृंगार के आनंद-सागर में अठखेलियां करते हुए नायक-नायिका का रमणीय स्वरूप देखिए—
 
सोई हुती पिय की छतियाँ लगि बाल प्रवीन महा मुद मानै।
 
केस खुले छहरैं बहरें फहरैं, छबि देखत मन अमाने।
 
वा रस में रसखान पगी रति रैन जगी अखियाँ अनुमानै।
 
चंद पै बिंब औ बिंब पै कैरव कैरव पै मुकतान प्रमानै॥(2)
 
  
अधर लगाइ रस प्याइ बाँसुरी बजाइ,  
+
'''संभोग श्रृंगार'''<br />
मेरो नाम गाइ हाइ जादू कियौ मन मैं।  
+
जहां नायक-नायिका की संयोगावस्था में जो पारस्परिक रति रहती है वहां संभोग श्रृंगार होता है। 'संभोग' का अर्थ संभोग सुख की प्राप्ति है। रसखान के काव्य में संभोग श्रृंगार के अनेक उदाहरण मिलते हैं। [[राधा]]-[[कृष्ण]] मिलन और [[गोपी]]-कृष्ण मिलन में कहीं-कहीं संभोग श्रृंगार का पूर्ण परिपाक हुआ है। उदाहरण के लिए—<br />
नटखट नवल सुघर नंदनंदन ने,  
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अँखियाँ अँखियाँ सो सकाइ मिलाइ हिलाइ रिझाइ हियो हरिबो।<br />
करिकै अचेत चेत हरि के जतन मैं।  
+
बतियाँ चित्त चोरन चेटक सी रस चारु चरित्रन ऊचरिबो।<br />
झटपट उलट पुलट पट परिधान,
+
रसखानि के प्रान सुधा भरिबो अधरान पे त्यों अधरा धरिबो।<br />
जान लगीं लालन पै सबै बाम बन मैं।  
+
इतने सब मैन के मोहिनी जंत्र पे मन्त्र बसीकर सी करिबो॥<balloon title="सुजान रसखान, 120" style=color:blue>*</balloon> इस पद्य में रसखान ने संभोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति नायक और नायिका की श्रृंगारी चेष्टाओं द्वारा करायी है। यद्यपि उन्होंने नायक तथा नायिका या कृष्ण-गोपी शब्द का प्रयोग नहीं किया, तथापि यह पूर्णतया ध्वनित हो रहा है कि यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन हैं। चित्त चोरन चेटक सी बतियां उद्दीपन विभाव हैं। अंखियां मिलाना, हिलाना, रिझाना आदि अनुभाव हैं। हर्ष संचारी भाव है। संभोग श्रृंगार की पूर्ण अभिव्यक्ति हो रही है। संभोग श्रृंगार के आनंद-सागर में अठखेलियां करते हुए नायक-नायिका का रमणीय स्वरूप इस प्रकार वर्णित है—<br />
रस रास सरस रंगीलो रसखानि आनि,  
+
सोई हुती पिय की छतियाँ लगि बाल प्रवीन महा मुद मानै।<br />
जानि जोर जुगुति बिलास कियौ जन मैं॥(3)
+
केस खुले छहरैं बहरें फहरैं, छबि देखत मन अमाने।<br />
यहां कृष्ण और गोपियों के संभोग श्रृंगार का चित्रण है। यह चित्र अनुभावों एवं संचारी भावों द्वारा बहुत ही रमणीय बन पड़ा है। संभोग श्रृंगार निरूपण मर्यादावादी भक्त कवियों की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। किन्तु साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए।
+
वा रस में रसखान पगी रति रैन जगी अखियाँ अनुमानै।<br />
Footnote
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चंद पै बिंब औ बिंब पै कैरव कैरव पै मुकतान प्रमानै॥<balloon title="सुजान रसखान, 119" style=color:blue>*</balloon>
1. सुजान रसखान, 120; 2. सुजान रसखान, 119; 3. सुजान रसखान, 32
+
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कि रसखान किसी परम्परा में बंध कर नहीं चले। पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार- 'ये स्वच्छन्द धारा के रीति मुक्त कवि हैं। सूफी संतों और फारसी-साहित्य की प्रवृत्ति से प्रभावित हुए हैं यह असंदिग्ध है।(1) रसखान का यह श्रृंगार निरूपण उनके सूफी काव्य से प्रभावित होने की ओर संकेत करता है।  
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अधर लगाइ रस प्याइ बाँसुरी बजाइ,<br />
संयोग श्रृंगार  
+
मेरो नाम गाइ हाइ जादू कियौ मन मैं।<br />
जहां नायक-नायिका की संयोगावस्था में पारस्परिक रति होती है, पर संभोग सुख प्राप्त नहीं होता, वहां संयोग-श्रृंगार होता है।(2) जो विशद आत्मानुभूति रूप में है उसका पर्यवसान भी प्रेम ही होता है। ऐसा प्रेम किसी वस्तु का, जैसे भोगादि साधन नहीं बनता। इस साध्य-भूत प्रेम का मिलन 'संयोग' कहा जाना चाहिए किन्तु वास्तविकता यह है कि प्रेमी प्रेमिका के प्रेम में मिलन में सान्निध्य की कामना अवश्य होती है। हर प्रेमी अपनी प्रिया से शरीर-सम्बन्ध की इच्छा करता है। इसलिए लौकिक प्रेम के संयोग पक्ष में विशद आत्मानुभूति की कल्पना केवल आदर्श ही प्रतीत होती है। संयोग विशद आत्मानुभूति या अनुभूत्यात्मक प्रेम के अभाव में भी संभव है। संक्षेप में जहां संभोग न होते हुए भी मिलन सुखानुभूति की व्यंजना हो वहां संयोग श्रृंगार मानना चाहिए। रसखान ने गोपी-कृष्ण (राधा-कृष्ण) के मिलन-प्रसंगों में संयोग श्रृंगार की झांकियां प्रस्तुत की हैं। उदाहरणार्थ—
+
नटखट नवल सुघर नंदनंदन ने,<br />
खंजन मील सरोजन को मृग को मद गंजन दीरघ नैना।  
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करिकै अचेत चेत हरि के जतन मैं।<br />
कुंजन तें निकस्यौ मुसकात सु पान भरयौ मुख अमृत बैना।  
+
झटपट उलट पुलट पट परिधान,<br />
जाई रहै मन प्रान बिलोचन कानन मैं रूचि मानत चैना।  
+
जान लगीं लालन पै सबै बाम बन मैं।<br />
रसखानि करयौ घर मो हिय मैं निसिबासर एक पलौ निकसै ना॥(3)
+
रस रास सरस रंगीलो रसखानि आनि,<br />
यहां गोपी-कृष्ण आलंबन विभाव हैं। कृष्ण का स्वरूप कुंजन, कुंजन से मुस्काते, पान खाते निकलना उद्दीपन विभाव हैं संचारी भाव एवं अनुभावों के अभाव में भी दर्शन लाभ द्वारा संयोग-श्रृंगार ध्वनित हो रहा है। इस प्रकार के अनेक उदाहरण रसखान के काव्य में उपलब्ध हैं। कृष्ण के स्वरूप-दर्शन मात्र से ही गोपियों की आंखें प्रेम कनौंडी हो गईं। अंग्रेजी साहित्य के प्रथम दर्शन में प्रेम (लव ऐट फर्स्ट साइट) के दर्शन भी रसखान के श्रृंगार निरूपण में होते हैं—
+
जानि जोर जुगुति बिलास कियौ जन मैं॥<balloon title="सुजान रसखान, 32" style=color:blue>*</balloon> यहाँ कृष्ण और गोपियों के संभोग श्रृंगार का चित्रण है। यह चित्र अनुभावों एवं संचारी भावों द्वारा बहुत ही रमणीय बन पड़ा है। संभोग श्रृंगार निरूपण मर्यादावादी भक्त कवियों की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। किन्तु साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रसखान किसी परम्परा में बंध कर नहीं चले। पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार- 'ये स्वच्छन्द धारा के रीति मुक्त कवि हैं। सूफी संतों और फारसी-साहित्य की प्रवृत्ति से प्रभावित हुए हैं यह असंदिग्ध है।<balloon title="रसखानि (ग्रंथावली), भूमिका, पृ0 14" style=color:blue>*</balloon> रसखान का यह श्रृंगार निरूपण उनके सूफी काव्य से प्रभावित होने की ओर संकेत करता है।<br />
वार हीं गोरस बेंचि री आजु तूँ माइ के मूड़ चढ़ै कत मौंडी।
+
'''संयोग श्रृंगार'''<br />
आवत जात हीं होइगी साँझ भटू जमुना भतरौंड लो औंडी।  
+
जहां नायक-नायिका की संयोगावस्था में पारस्परिक रति होती है, पर संभोग सुख प्राप्त नहीं होता, वहां संयोग-श्रृंगार होता है।<balloon title="काव्यदर्पण, पृ0 173" style=color:blue>*</balloon> जो विशद आत्मानुभूति रूप में है उसका पर्यवसान भी प्रेम ही होता है। ऐसा प्रेम किसी वस्तु का, जैसे भोगादि साधन नहीं बनता। इस साध्य-भूत प्रेम का मिलन 'संयोग' कहा जाना चाहिए किन्तु वास्तविकता यह है कि प्रेमी प्रेमिका के प्रेम में मिलन में सान्निध्य की कामना अवश्य होती है। हर प्रेमी अपनी प्रिया से शरीर-सम्बन्ध की इच्छा करता है। इसलिए लौकिक प्रेम के संयोग पक्ष में विशद आत्मानुभूति की कल्पना केवल आदर्श ही प्रतीत होती है। संयोग विशद आत्मानुभूति या अनुभूत्यात्मक प्रेम के अभाव में भी संभव है। संक्षेप में जहां संभोग न होते हुए भी मिलन सुखानुभूति की व्यंजना हो वहां संयोग श्रृंगार मानना चाहिए। रसखान ने गोपी-कृष्ण (राधा-कृष्ण) के मिलन-प्रसंगों में संयोग श्रृंगार की झांकियां प्रस्तुत की हैं। उदाहरणार्थ—<br />
पार गएँ रसखानि कहै अँखियाँ कहूँ होहिगी प्रेम कनौंडी।  
+
खंजन मील सरोजन को मृग को मद गंजन दीरघ नैना।<br />
राधे बलाई लयौ जाइगी बाज अबै ब्रजराज-सनेह की डौंडी॥(4)
+
कुंजन तें निकस्यौ मुसकात सु पान भरयौ मुख अमृत बैना।<br />
Footnote
+
जाई रहै मन प्रान बिलोचन कानन मैं रूचि मानत चैना।<br />
1. रसखानि (ग्रंथावली), भूमिका, पृ0 14;
+
रसखानि करयौ घर मो हिय मैं निसिबासर एक पलौ निकसै ना॥<balloon title="सुजान रसखान, 31" style=color:blue>*</balloon> यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन विभाव हैं। कृष्ण का स्वरूप कुंजन, कुंजन से मुस्काते, पान खाते निकलना उद्दीपन विभाव हैं संचारी भाव एवं अनुभावों के अभाव में भी दर्शन लाभ द्वारा संयोग-श्रृंगार ध्वनित हो रहा है। इस प्रकार के अनेक उदाहरण रसखान के काव्य में उपलब्ध हैं। कृष्ण के स्वरूप-दर्शन मात्र से ही गोपियों की आंखें प्रेम कनौंडी हो गईं। अंग्रेजी साहित्य के 'प्रथम दर्शन' में प्रेम (लव ऐट फर्स्ट साइट) के दर्शन भी रसखान के श्रृंगार निरूपण में होते हैं—<br />
2. काव्यदर्पण, पृ0 173
+
वार हीं गोरस बेंचि री आजु तूँ माइ के मूड़ चढ़ै कत मौंडी।<br />
3. सुजान रसखान, 31
+
आवत जात हीं होइगी साँझ भटू जमुना भतरौंड लो औंडी।<br />
4. सुजान रसखान, 41
+
पार गएँ रसखानि कहै अँखियाँ कहूँ होहिगी प्रेम कनौंडी।<br />
कृष्ण के दर्शन मात्र से गोपी उनके प्रेमाधीन हो गईं।  
+
राधे बलाई लयौ जाइगी बाज अबै ब्रजराज-सनेह की डौंडी॥<balloon title="सुजान रसखान, 41" style=color:blue>*</balloon> कृष्ण के दर्शन मात्र से गोपी उनके प्रेमाधीन हो गईं। संयोग में हर्ष, उल्लास आदि वर्णन की परम्परा रही है। रसखान ने भी यहाँ उसके दर्शन कराये हैं। कृष्ण के दर्शन कर गोपियां प्रफुल्लित हो रही हें। कभी कृष्ण हंसकर गा रहे हैं कभी गोपियां प्रेममयी हो रही हैं। लज्जायुक्त गोपी घूंघट में से कृष्ण को निहार रही हैं। यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन हैं। बन, बाग, तड़ाग, कंजगली उद्दीपन हैं। विलोकना एवं हंसना अनुभाव हैं। लज्जा संचारी भाव है, स्थायी भाव रति है, श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। रसखान ने दोहे जैसे छोटे छंद में भी हर्ष और उल्लास द्वारा संयोग श्रृंगार की हृदयस्पर्शी व्यंजना की है। उदाहरणार्थ—<br />
संयोग में हर्ष, उल्लास आदि वर्णन की परम्परा रही है। रसखान ने भी यहां उसके दर्शन कराये हैं। कृष्ण के दर्शन कर गोपियां प्रफुल्लित हो रही हें। कभी कृष्ण हंसकर गा रहे हैं कभी गोपियां प्रेममयी हो रही हैं। लज्जायुक्त गोपी घूंघट में से कृष्ण को निहार रही हैं। यहां गोपी-कृष्ण आलंबन हैं। बन, बाग, तड़ाग, कंजगली उद्दीपन हैं। विलोकना एवं हंसना अनुभाव हैं। लज्जा संचारी भाव है, स्थायी भाव रति है, श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है।
+
बंक बिलोकनि हँसनि मुरि मधुर बैन रसखानि।<br />
रसखान ने दोहे जैसे छोटे छंद में भी हर्ष और उल्लास द्वारा संयोग श्रृंगार की हृदयस्पर्शी व्यंजना की है। उदाहरणार्थ—
+
मिले रसिक रसराज दोउ हरखि हिये रसखानि।<balloon title="सुजान रसखान, 109" style=color:blue>*</balloon> उन्होंने निम्नांकित पद में सुंदर रूपक द्वारा संयोग श्रृंगार के समस्त उपकरणों को जुटा दिया है। नायिका नायक से कहती है-<br />
बंक बिलोकनि हँसनि मुरि मधुर बैन रसखानि।  
+
बागन काहे को जाओ पिया घर बैठे ही बाग लगाय दिखाऊँ।<br />
मिले रसिक रसराज दोउ हरखि हिये रसखानि।(1)
+
एड़ी अनार सी मोरि रही, बहियाँ दोउ चम्पे की डार नवाऊँ।<br />
उन्होंने निम्नांकित पद में सुंदर रूपक द्वारा संयोग श्रृंगार के समस्त उपकरणों को जुटा दिया है। नायिका नायक से कहती है-
+
छातिन मैं रस के निबुवा अरु घूँघट खोलि कै दाख चखाऊँ।<br />
बागन काहे को जाओ पिया घर बैठे ही बाग लगाय दिखाऊँ।  
+
ढाँगन के रस के चसके रति फूलनि की रसखानि लुटाऊँ॥<balloon title="सुजान रसखान, 122" style=color:blue>*</balloon> यहाँ श्रृंगार अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है। जिस प्रकार प्रिय के रूप को देखकर घनानन्द की नायिका के हृदय में हर्ष की उमंगें, सागर की तरंगें राग की ध्वनि की भांति उठती हैं। नेत्र रूप राशि का अनुभव करते हैं फिर भी तृषित ही बने रहते हैं; उसी प्रकार कृष्ण के दर्शन से रसखान की गोपियों का मन भी उनके लावण्य-सागर में डूब जाता है। वे रूपसागर में किलोलें करने लगती हैं। कृष्ण-कटाक्ष से उनकी लज्जा का हरण हो जाता है। उदाहरणार्थ—<br />
एड़ी अनार सी मोरि रही, बहियाँ दोउ चम्पे की डार नवाऊँ।  
+
सजनी पुर-बीथिन मैं पिय-गोहन लागी फिरैं जित ही तित धाई।<br />
छातिन मैं रस के निबुवा अरु घूँघट खोलि कै दाख चखाऊँ।  
+
बाँसुरी टेरि सुनाइ अली अपनाइ लई ब्रजराज कन्हाई॥<balloon title="सुजान रसखान, 68" style=color:blue>*</balloon> रसखान के चित्र इतने सुंदर हैं कि बाद के कवि उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके। रीतिकालीन प्रसिद्ध कवि मतिराम<ref>आनन चंद निहारि-निहारि नहीं तनु औधन जीवन वारैं।<br />
ढाँगन के रस के चसके रति फूलनि की रसखानि लुटाऊँ॥(2)
+
चारु चिनौनी चुभी मतिराम हिय मति को गहि ताहि निकारैं।<br />
यहां श्रृंगार अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है। जिस प्रकार प्रिय के रूप को देखकर घनानन्द की नायिका के हृदय में हर्ष की उमंगें, सागर की तरंगें राग की ध्वनि की भांति उठती हैं। नेत्र रूप राशि का अनुभव करते हैं फिर भी तृषित ही बने रहते हैं; उसी प्रकार कृष्ण के दर्शन से रसखान की गोपियों का मन भी उनके लावण्य-सागर में डूब जाता है। वे रूपसागर में किलोलें करने लगती हैं। कृष्ण-कटाक्ष से उनकी लज्जा का हरण हो जाता है। उदाहरणार्थ—
+
क्यों करि धौं मुरली मनि कुण्डल मोर पखा बनमाल बिसारै।<br />
सजनी पुर-बीथिन मैं पिय-गोहन लागी फिरैं जित ही तित धाई।  
+
ते घनि जे ब्रज राज लखैं, गृह काज करैं अरु लाज समारै। --मतिराम ग्रंथावली</ref> के सवैयों पर रसखान के संयोग-वर्णन की गहरी छाप है, किंतु वे रसखान के समान माधुर्य<balloon title="सुजान रसखान, 69" style=color:blue>*</balloon> के अंतस्तल में प्रवेश न कर सके।<br />
बाँसुरी टेरि सुनाइ अली अपनाइ लई ब्रजराज कन्हाई॥(3)
+
'''विप्रलंभ श्रृंगार'''<br />
रसखान के चित्र इतने सुंदर हैं कि बाद के कवि उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके। रीतिकालीन प्रसिद्ध कवि मतिराम(4) के सवैयों पर रसखान के संयोग-वर्णन की गहरी छाप है, किंतु वे रसखान के समान माधुर्य(5) के अंतस्तल में प्रवेश न कर सके।
 
Footnote
 
1. सुजान रसखान, 109; 2. सुजान रसखान, 122; 3. सुजान रसखान, 68
 
4 आनन चंद निहारि-निहारि नहीं तनु औधन जीवन वारैं।  
 
चारु चिनौनी चुभी मतिराम हिय मति को गहि ताहि निकारैं।  
 
क्यों करि धौं मुरली मनि कुण्डल मोर पखा बनमाल बिसारै।  
 
ते घनि जे ब्रज राज लखैं, गृह काज करैं अरु लाज समारै।  
 
--मतिराम ग्रंथावली
 
5. सुजान रसखान, 69
 
विप्रलंभ श्रृंगार
 
 
श्रृंगार रस के दो भेद पहले ही बता दिये हैं। जहां अनुराग तो अति उत्कट हो, परंतु प्रिय समागम न हो उसे विप्रलंभ (वियोग) कहते हैं। विप्रलंभ पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण इन भेदों से चार प्रकार का होता है। रसखान ने करुण विप्रलंभ का निरुपण अपने काव्य में नहीं किया। रसखान का मन निप्रलंभ श्रृंगार-निरूपण में अधिक नहीं रमा। उसका कारण यह हो सकता है कि वे अपनी अन्तर्दृष्टि के कारण कृष्ण को सदैव अपने पास अनुभव करते थे और इस प्रकार की संयोगावस्था में भी वियोग का चित्रण कठिन होता है। रसखान के लौकिक जीवन में हमें घनानन्द की भांति किसी विछोह के दर्शन नहीं होते। इसीलिए उनसे घनानन्द की भांति जीते जागते और हृदयस्पर्शी विरहनिवेदन की आशा करना व्यर्थ ही होगा। रसखान ने वियोग के अनेक चित्र उपस्थित नहीं किये किन्तु जो लिखा है वह मर्मस्पर्शी है जिस पर संक्षेप में विचार किया जाता है।  
 
श्रृंगार रस के दो भेद पहले ही बता दिये हैं। जहां अनुराग तो अति उत्कट हो, परंतु प्रिय समागम न हो उसे विप्रलंभ (वियोग) कहते हैं। विप्रलंभ पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण इन भेदों से चार प्रकार का होता है। रसखान ने करुण विप्रलंभ का निरुपण अपने काव्य में नहीं किया। रसखान का मन निप्रलंभ श्रृंगार-निरूपण में अधिक नहीं रमा। उसका कारण यह हो सकता है कि वे अपनी अन्तर्दृष्टि के कारण कृष्ण को सदैव अपने पास अनुभव करते थे और इस प्रकार की संयोगावस्था में भी वियोग का चित्रण कठिन होता है। रसखान के लौकिक जीवन में हमें घनानन्द की भांति किसी विछोह के दर्शन नहीं होते। इसीलिए उनसे घनानन्द की भांति जीते जागते और हृदयस्पर्शी विरहनिवेदन की आशा करना व्यर्थ ही होगा। रसखान ने वियोग के अनेक चित्र उपस्थित नहीं किये किन्तु जो लिखा है वह मर्मस्पर्शी है जिस पर संक्षेप में विचार किया जाता है।  
वात्सल्य रस
+
==वात्सल्य रस==
पितृ भक्ति के समान ही पुत्र के प्रति माता-पिता की अनुरक्ति या उनका स्नेह एक अवस्था उत्पन्न करता है, जिसे विद्वानों ने वात्सल्य रस माना है। पण्डित विश्वनाथ ने वात्सल्य रस का स्थायी भाव वत्सलता या स्नेह माना है। पुत्रादि संतान इसके आलंबन हैं। उनकी चेष्टाएं उनकी विद्या-बुद्धि तथा शौर्यादि उद्दीपन हैं। और आलिंगन, स्पर्श, चुंबन, एकटक उसे देखना, पुत्रकादि अनुभाव तथा अनिष्ट-शंका, हर्ष, गर्व आदि उसके संचारी हैं। प्रस्फट चमत्कार के कारण वह इसे स्वतन्त्र रस मानते हैं। इसका वर्णन पद्मगर्भ छवि के समान तथा इसके देवता गौरी आदि षोडश मातृ चक्र हैं। यद्यपि रसखान ने सूरदास की भांति वात्सल्य रस सम्बन्धी अनेक पदों की रचना नहीं की तथापि उनका अल्प वर्णन ही मर्मस्पर्शी तथा रमणीय है। उन्होंने निम्नांकित पर में कृष्ण के छौने स्वरूप के दर्शन कराये हैं।  
+
पितृ भक्ति के समान ही पुत्र के प्रति माता-पिता की अनुरक्ति या उनका स्नेह एक अवस्था उत्पन्न करता है, जिसे विद्वानों ने वात्सल्य रस माना है।  
आजु गई हुती भोर ही हौं रसखानि रई वहि नन्द के भौनहिं।  
+
*पण्डित विश्वनाथ ने वात्सल्य रस का स्थायी भाव वत्सलता या स्नेह माना है। पुत्रादि संतान इसके आलंबन हैं। उनकी चेष्टाएं उनकी विद्या-बुद्धि तथा शौर्यादि उद्दीपन हैं और आलिंगन, स्पर्श, चुंबन, एकटक उसे देखना, पुत्रकादि अनुभाव तथा अनिष्ट-शंका, हर्ष, गर्व आदि उसके संचारी हैं। प्रस्फट चमत्कार के कारण वह इसे स्वतन्त्र रस मानते हैं। इसका वर्णन पद्मगर्भ छवि के समान तथा इसके देवता गौरी आदि षोडश मातृ चक्र हैं। यद्यपि रसखान ने [[सूरदास]] की भांति वात्सल्य रस सम्बन्धी अनेक पदों की रचना नहीं की तथापि उनका अल्पवर्णन ही मर्मस्पर्शी तथा रमणीय है। उन्होंने निम्नांकित पर में कृष्ण के छौने स्वरूप के दर्शन कराये हैं।<br />
वाको जियौ जुग लाख करोर जसोमति को सुख जात कह्यौ नहिं।  
+
आजु गई हुती भोर ही हौं रसखानि रई वहि नन्द के भौनहिं।<br />
तेल लगाइ लगाइ कै अंजन भौहँ बनाइ बनाइ डिठौनहिं।  
+
वाको जियौ जुग लाख करोर जसोमति को सुख जात कह्यौ नहिं।<br />
डालि हमेलनि हार निहारत वारत ज्यौं चुचकारत छौनहिं।(1)
+
तेल लगाइ लगाइ कै अंजन भौहँ बनाइ बनाइ डिठौनहिं।<br />
यहाँ स्थायी भाव वात्सलता है। बाल कृष्ण आलम्बन हैं। उनका सुंदर स्वरूप उद्दीपन है। निहारना, वारना, चुचकारना अनुभाव हैं। हर्ष संचारी भाव है। सबके द्वारा रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है।  
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डालि हमेलनि हार निहारत वारत ज्यौं चुचकारत छौनहिं।<balloon title="सुजान रसखान, 20" style=color:blue>*</balloon> यहाँ स्थायी भाव वात्सलता है। बाल कृष्ण आलम्बन हैं। उनका सुंदर स्वरूप उद्दीपन है। निहारना, वारना, चुचकारना अनुभाव हैं। हर्ष संचारी भाव है। सबके द्वारा रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है।  
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनीं सिर सुंदर चोटी।  
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धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनीं सिर सुंदर चोटी।<br />
खेलत खात फिरैं अंगना पग पैंजनी बाजति पीरी कछौटी।  
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खेलत खात फिरैं अंगना पग पैंजनी बाजति पीरी कछौटी।<br />
Footnote
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वा छबि को रसखानि बिलोकत वारत काम कला निज कोटी।<br />
1. सुजान रसखान, 20
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काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सौं लै गयौ माखन रोटी।<balloon title="सुजान रसखान, 21" style=color:blue>*</balloon> यहाँ बाल कृष्ण आलम्बन हैं, उनकी चेष्टाएं खेलते खाते फिरना उद्दीपन हैं। हर्ष संचारी भाव, वात्सल्यपूर्ण-स्नेह स्थायीभाव द्वारा वात्सल्य रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। यहाँ एक गोपी अपनी सखी से कृष्ण की बाल शोभा का वर्णन करती है तथा कौवे के उनके हाथ से रोटी ले जाते हुए देखकर उसके भाग्य की सराहना करती है। हरि शब्द के प्रयोग से यह स्पष्टतया सिद्ध है कि इस पद्य में वात्सल्य का निरूपण भक्ति-रस से पूर्ण हैं। रसखान के काव्य में वात्सल्य रस के केवल दो ही उदाहरण मिलते हैं। यद्यपि उन्होंने भक्तिकालीन अन्य कवियों की भांति वात्सल्य रस के अनेक पद्य नहीं लिखे, किन्तु दो पद्यों में उनकी कुशल कला की मनोरम व्यंजना हुई है।  
वा छबि को रसखानि बिलोकत वारत काम कला निज कोटी।  
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==भक्तिरस==
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सौं लै गयौ माखन रोटी।(1)
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*[[संस्कृत]] काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों- मम्मट, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि ने रसों की संख्या नौ मानी है। उन्होंने भक्ति को रस-कोटि में नहीं रखा। उनके अनुसार भक्ति देव विषयक रति, भाव ही है। अभिनव गुप्त ने भक्ति का समावेश शांत रस के अंतर्गत किया।<balloon title="अतएवेश्वर प्रणिधान विषये भक्ति श्रद्धे स्मृति मति घृत्युत्साहानुप्रविष्टे अन्यथैवांगम् इति न तयो: पृथग्सत्वेनगणनाम्। अभिनव भारती, जिल्द 1, पृ0 340" style=color:blue>*</balloon>
यहां बाल कृष्ण आलम्बन हैं, उनकी चेष्टाएं खेलते खाते फिरना उद्दीपन हैं। हर्ष संचारी भाव, वात्सल्यपूर्ण-स्नेह स्थायीभाव द्वारा वात्सल्य रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। यहां एक गोपी अपनी सखी से कृष्ण की बाल शोभा का वर्णन करती है तथा कौवे के उनके हाथ से रोटी ले जाते हुए देखकर उसके भाग्य की सराहना करती है। हरि शब्द के प्रयोग से यह स्पष्टतया सिद्ध है कि इस पद्य में वात्सल्य का निरूपण भक्ति-रस से पूर्ण हैं। रसखान के काव्य में वात्सल्य रस के केवल दो ही उदाहरण मिलते हैं। यद्यपि उन्होंने भक्तिकालीन अन्य कवियों की भांति वात्सल्य रस के अनेक पद्य नहीं लिखे, किन्तु दो पद्यों में उनकी कुशल कला की मनोरम व्यंजना हुई है।  
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*धनंजय ने इसको हर्षोत्साह माना।<balloon title="दशरूपक, 4। 83" style=color:blue>*</balloon>
भक्तिरस  
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*भक्ति को रसरूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय [[वैष्णव]] आचार्यों को है। उन्होंने अपने मनोवैज्ञानिक शास्त्रीय विवेचन के आधार पर भक्ति रस को अन्य रसों से उत्तम बताया।
संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों- मम्मट, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि ने रसों की संख्या नौ मानी है। उन्होंने भक्ति को रस-कोटि में नहीं रखा। उनके अनुसार भक्ति देव विषयक रति, भाव ही है। अभिनव गुप्त ने भक्ति का समावेश शांत रस के अंतर्गत किया।(2) धनंजय ने इसको हर्षोत्साह माना।(3)
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*मधुसूदन सरस्वती ने 'भक्ति रसायन' में भक्ति रस की स्थापना की। उनका तर्क है कि 'जब अनुभव के आधार पर सुखविरोधी क्रोध, शोक, भय आदि स्थायी भावों का रसत्व को प्राप्त होना मान लिया गया है तो फिर सहस्त्रगुणित अनुभव सिद्ध भक्ति को रस न मानना अपलाप है, जड़ता है।<balloon title="भक्तिरसायन, 2। 77-78" style=color:blue>*</balloon> वास्तविकता तो यह है कि भक्ति रस पूर्ण रस है, अन्य रस क्षुद्र हैं, भक्तिरस आदित्य है, अन्य रस खद्योत हैं।<balloon title="भक्तिरसायन, 2। 76" style=color:blue>*</balloon>
भक्ति को रसरूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय वैष्णव आचार्यों को है। उन्होंने अपने मनोवैज्ञानिक शास्त्रीय विवेचन के आधार पर भक्ति रस को अन्य रसों से उत्तम बताया। मधुसूदन सरस्वती ने 'भक्ति रसायन' में भक्ति रस की स्थापना की। उनका तर्क है कि 'जब अनुभव के आधार पर सुखविरोधी क्रोध, शोक, भय आदि स्थायी भावों का रसत्व को प्राप्त होना मान लिया गया है तो फिर सहस्त्रगुणित अनुभव सिद्ध भक्ति को रस न मानना अपलाप है, जड़ता है।(4) वास्तविकता तो यह है कि भक्ति रस पूर्ण रस है, अन्य रस क्षुद्र हैं, भक्तिरस आदित्य है, अन्य रस खद्योत हैं।(5)
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*काव्यशास्त्र की दृष्टि से भक्तिरस का स्थायी भाव भगवद्रति है।<balloon title="स्थायी भवो त्र सम्प्रोक्त: श्री कृष्ण विषया रति:। हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2। 5। 2" style=color:blue>*</balloon>
काव्यशास्त्र की दृष्टि से भक्तिरस का स्थायी भाव भगवद्रति है।(6) भक्ति रस के आलंबन भगवान और उनके भक्तगण हैं।(7) भक्तिरस के आश्रय भक्तगण हैं। भगवान का रूप (वस्त्र आदि) और चेष्टाएं उद्दीपन विभाव मानी गई हैं। भारतीय  
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*भक्ति रस के आलंबन भगवान और उनके भक्तगण हैं।<balloon title="हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2। 1। 16" style=color:blue>*</balloon> भक्तिरस के आश्रय भक्तगण हैं। भगवान का रूप (वस्त्र आदि) और चेष्टाएं उद्दीपन विभाव मानी गई हैं।  
Footnote
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*भारतीय काव्य शास्त्र की परम्परा में तैंतीस संचारी माने गये हैं।<balloon title="नाट्यशास्त्र,3/19-22, काव्यप्रकाश, 4।31-34" style=color:blue>*</balloon> भक्ति रस के आचार्यों ने भक्ति रस के विवेचन में तैतीसों को भक्तिरस का संचारी माना है। रसखान के काव्य में निर्वेद<balloon title=" सुजान रसखान, 8" style=color:blue>*</balloon> के साथ-साथ घृति<balloon title="सुजान रसखान, 1" style=color:blue>*</balloon>, हर्ष<balloon title=" सुजान रसखान, 12,13,14,15" style=color:blue>*</balloon> स्मृति<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon> आदि संचारी भावों की निबंधना हुई है। रसखान के काव्य में भक्ति रस के आलम्बन भगवान श्रीकृष्ण हैं। उनका बांसुरी बजाना तथा भक्तों पर रीझना भक्तों की दृष्टि में उद्दीपन विभाव हैं। निम्नांकित पद में भक्ति रस की अकृत्रिम व्यंजना है—<br />
1. सुजान रसखान, 21
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देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगौ।<br />
2. अतएवेश्वर प्रणिधान विषये भक्ति श्रद्धे स्मृति मति घृत्युत्साहानुप्रविष्टे अन्यथैवांगम् इति न तयो: पृथग्सत्वेनगणनाम्। अभिनव भारती, जिल्द 1, पृ0 340
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तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौ गुन, सौ गुन औगुन गाँठि परैगौ।<br />
3. दशरूपक, 4 । 83
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बाँसुरीवारो बड़े रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।<br />
4. भक्तिरसायन, 2 । 77-78
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लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिय की हरैगौ।<balloon title="सुजान रसखान, 7" style=color:blue>*</balloon> रसखान देश-विदेश के राजाओं को त्यागकर भगवान [[कृष्ण]] की शरण में आए हैं। उनका विश्वास है कि श्रीकृष्ण शीघ्र ही उन पर अनुग्रह करके संकटों का निवारण करेंगे। सभी प्रकार के प्रेमियों की यह विशेषता होती है कि वे अपने प्रेम पात्र में संबद्ध पदार्थों के संपर्क से आनन्द का अनुभव करते हैं। भक्ति में भी यह विशेषता द्रष्टव्य है। भक्त भगवान के अधिक-से-अधिक सान्निध्य में रहना चाहता है। अपनी लीला का भक्तों को आनंद देने वाले भगवान की लीलाभूमि, भक्तों के लिए विशेष आनन्ददायिनी होती है। उस भूमि से संबद्ध प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ भगवान की महिमा से मंडित दिखायी पड़ता है। अत: भक्त कवि जन्मजन्मांतर तक उस लीलाभूमि से संबंध बनाये रखना चाहता है—<br />
5. भक्तिरसायन, 2 । 76
+
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।<br />
6. स्थायी भवो त्र सम्प्रोक्त: श्री कृष्ण विषया रति:। हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2 । 5 । 2
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जौ पसु हौं तौ कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।<br />
7. हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2 । 1 । 16
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पाहन हौं तौ वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर-धारन।<br />
काव्य शास्त्र की परम्परा में तैंतीस संचारी माने गये हैं।(1) भक्ति रस के आचार्यों ने भक्ति रस के विवेचन में तैतीसों को भक्तिरस का संचारी माना है। रसखान के काव्य में निर्वेद(2) के साथ-साथ घृति(3), हर्ष(4) स्मृति(5) आदि संचारी भावों की निबंधना हुई है। रसखान के काव्य में भक्ति रस के आलम्बन भगवान श्रीकृष्ण हैं। उनका बांसुरी बजाना तथा भक्तों पर रीझना भक्तों की दृष्टि में उद्दीपन विभाव हैं। निम्नांकित पद में भक्ति रस की अकृत्रिम व्यंजना है—
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जौ खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन॥<balloon title="सुजान रसखान, 1" style=color:blue>*</balloon> यहाँ भगवान कृष्ण आलंबन हैं, उनका गोवर्धन पर्वत को धारण करना उद्दीपन विभाव है, घृति संचारी भाव के द्वारा भक्तिरस का परिपाक हो रहा है। निम्न पद में आत्म समर्पण की भावना है। रसखान द्वारा किया गया हर कार्य केवल भगवान के लिए हो, ऐसी अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहते हैं—<br />
देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगौ।
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बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।<br />
तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौ गुन, सौ गुन औगुन गाँठि परैगौ।
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हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।<br />
बाँसुरीवारो बड़े रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
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जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।<br />
लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिय की हरैगौ।(6)
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त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सो हे रसखानी॥<balloon title="सुजान रसखान,4; नाट्यशास्त्र, 3।19-22" style=color:blue>*</balloon> उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन में यह स्पष्ट है कि रसखान ने भक्तिरस के अनेक पद लिखे हैं, तथापि उनके काव्यों में भक्तिरस की प्रधानता नहीं है। वे प्रमुख रूप से श्रृंगार के कवि हैं। उनका श्रृंगार कृष्ण की लीलाओं पर आश्रित है। अतएव सामान्य पाठक को यह भ्रांति हो सकती है कि उनके अधिकांश पद भक्ति रस की अभिव्यक्ति करते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से जिन पदों के द्वारा पाठक के मन में स्थित ईश्वर विषयक-रतिभाव रसता नहीं प्राप्त करता, उन पदों को भक्ति रस व्यंजक मानना तर्क संगत नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि रसखान भक्त थे और उन्होंने अपनी रचनाओं में भजनीय कृष्ण का सरस रूप से निरूपण किया है।
रसखान देश-विदेश के राजाओं को त्यागकर भगवान कृष्ण की शरण में आए हैं। उनका विश्वास है कि श्रीकृष्ण शीघ्र ही उन पर अनुग्रह करके संकटों का निवारण करेंगे। सभी प्रकार के प्रेमियों की यह विशेषता होती है कि वे अपने प्रेम पात्र में संबद्ध पदार्थों के संपर्क से आनन्द का अनुभव करते हैं। भक्ति में भी यह विशेषता द्रष्टव्य है। भक्त भगवान के अधिक-से-अधिक सान्निध्य में रहना चाहता है। अपनी लीला का भक्तों को आनंद देने वाले भगवान की लीलाभूमि, भक्तों के लिए विशेष आनन्ददायिनी होती है। उस भूमि से संबद्ध प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ भगवान की महिमा से मंडित दिखायी पड़ता है। अत: भक्त कवि जन्मजन्मांतर तक उस लीलाभूमि से संबंध बनाये रखना चाहता है—
+
==शांतरस==
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
+
संसार से अत्यन्त निर्वेद होने पर या तत्त्व ज्ञान द्वारा वैराग्य का उत्कर्ष होने पर शांत रस की प्रतीति होती है। 'शांत रस वह रस है जिसमें 'शम' रूप स्थायी भाव का आस्वाद हुआ करता है। इसके आश्रय उत्तम प्रकृति के व्यक्ति हैं, इसका वर्ण कुंद-श्वेत अथवा चंद्र-श्वेत है। इसके देवता श्री भगवान नारायण हैं। अनित्यता किंवा दु:खमयता आदि के कारण समस्त सांसारिक विषयों की नि:सारता का ज्ञान अथवा साक्षात् परमात्म स्वरूप का ज्ञान ही इसका आलम्बन-विभाव है। इसके उद्दीपन हैं पवित्र आश्रम, भगवान की लीला भूमियां, तीर्थ स्थान, रम्य कानन, साधु-संतों के संग आदि आदि। रोमांच आदि इसके अनुभाव हैं इसके व्यभिचारी भाव हैं- निर्वेद, हर्ष, स्मृति, मति, जीव, दया आदि। <ref>शान्त: शमस्थायिभाव उत्तम प्रकृतिमेत:।<br />
जौ पसु हौं तौ कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
+
कुंदे सुंदरच्छाय: श्री नारायण दैवत:॥<br />
पाहन हौं तौ वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर-धारन।
+
अनित्यत्वादि शेष वस्तुनि: सारता तु या।<br />
जौ खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन॥(7)
+
परमात्मस्वरूपं वा तस्यालंवनमिष्यते॥<br />
यहां भगवान कृष्ण आलंबन हैं, उनका गोवर्धन पर्वत को धारण करना उद्दीपन विभाव है, घृति संचारी भाव के द्वारा भक्तिरस का परिपाक हो रहा है। निम्न पद में आत्म समर्पण की भावना है। रसखान द्वारा किया गया हर कार्य केवल भगवान के लिए हो, ऐसी अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहते हैं—
+
पुण्याश्रम हरि क्षेत्र तीर्थ रम्य वनादय:।<br />
बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।
+
महापुरुष संगाद्यास्तस्योद्दीपन रूपिण:॥<br />
हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।
+
रोमाश्चाद्यानु भावास्तथास्यु व्यभिचारिण:।<br />
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।
+
निर्वेद हर्ष स्मरण मति भूत दया दय:॥  - साहित्य दर्पण, पृ0 263</ref> रसखान संसार की असारता से ऊब उठे हैं, सार तत्त्व की पहचानते हैं। इसलिए उनके काव्य में कहीं-कहीं शांत रस का पुट मिल जाता है। वे कहते हैं कि किसी प्रकार सोच न करके माखन-चाखनहार का ध्यान करो जिन्होंने महापापियों का उद्धार किया है।<br />
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सो हे रसखानी॥(8)
+
द्रौपदी औ गनिका गज गीध अजामिल सों कियौ सो न निहारो। <br />
Footnote
+
गौतम-गेहिनी कैसी तरी, प्रहलाद कों कैसें हरयौ दुख भारो।<br />
1. नाट्यशास्त्र, 3।19-22, काव्यप्रकाश, 4।31-34
+
काहे कों सोच करै रसखानि कहा करि हैं रबिनंद बिचारो।<br />
2. सुजान रसखान, 8; 3. सुजान रसखान, 1; 4. सुजान रसखान, 12,13,14,15; 5. सुजान रसखान, 18; 6. सुजान रसखान, 7; 7. सुजान रसखान, 1; 8. सुजान रसखान, 4
+
ता खन जा खन राखियै माखन-चाखनहारो सो राखनहारो।<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon> यहाँ कृष्ण आलंबन हैं, उनके द्वारा किये गए कार्य उद्दीपन विभाव हैं। संचारी भाव स्मृति है। निर्वेद स्थायी भाव द्वारा शांत रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है।<br />
उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन में यह स्पष्ट है कि रसखान ने भक्तिरस के अनेक पद लिखे हैं, तथापि उनके काव्यों में भक्तिरस की प्रधानता नहीं है। वे प्रमुख रूप से श्रृंगार के कवि हैं। उनका श्रृंगार कृष्ण की लीलाओं पर आश्रित है। अतएव सामान्य पाठक को यह भ्रांति हो सकती है कि उनके अधिकांश पद भक्ति रस की अभिव्यक्ति करते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से जिन पदों के द्वारा पाठक के मन में स्थित ईश्वर-विषयक-रतिभाव रसता नहीं प्राप्त करता, उन पदों को भक्ति रस व्यंजक मानना तर्क संगत नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि रसखान भक्त थे और उन्होंने अपनी रचनाओं में भजनीय कृष्ण का सरस रूप से निरूपण किया है।  
+
सुनियै सब की कहियै न कछू रहियै इमि या मन-बागर मैं।<br />
शांतरस
+
करियै ब्रत-नेम सचाई लियें, जिन तें तरियै मन-सागर मैं।<br />
संसार से अत्यन्त निर्वेद होने पर या तत्त्व ज्ञान द्वारा वैराग्य का उत्कर्ष होने पर शांत रस की प्रतीति होती है। ''शांत रस वह रस है जिसमें 'शम' रूप स्थायी भाव का आस्वाद हुआ करता है। इसके आश्रय उत्तम प्रकृति के व्यक्ति हैं, इसका वर्ण कुंद-श्वेत अथवा चंद्र-श्वेत है। इसके देवता श्री भगवान नारायण हैं। अनित्यता किंवा दु:खमयता आदि के कारण समस्त सांसारिक विषयों की नि:सारता का ज्ञान अथवा साक्षात् परमात्म स्वरूप का ज्ञान ही इसका आलम्बन-विभाव है। इसके उद्दीपन हैं पवित्र आश्रम, भगवान की लीला भूमियां, तीर्थ स्थान, रम्य कानन, साधु-संतों के संग आदि आदि। रोमांच आदि इसके अनुभाव हैं इसके व्यभिचारी भाव हैं- निर्वेद, हर्ष, स्मृति, मति, जीव, दया आदि।(1)
+
मिलियै सब सों दुरभाव बिना, रहियै सतसंग उजागर मैं।<br />
रसखान संसार की असारता से ऊब उठे हैं, सार तत्त्व की पहचानते हैं। इसलिए उनके काव्य में कहीं-कहीं शांत रस का पुट मिल जाता है। वे कहते हैं कि किसी प्रकार सोच न करके माखन-चाखनहार का ध्यान करो जिन्होंने महापापियों का उद्धार किया है।
+
रसखानि गुबिंदहिं यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागर मैं।<balloon title="सुजान रसखान, 8" style=color:blue>*</balloon>
द्रौपदी औ गनिका गज गीध अजामिल सों कियौ सो न निहारो।
+
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
गौतम-गेहिनी कैसी तरी, प्रहलाद कों कैसें हरयौ दुख भारो।
+
<references/>
काहे कों सोच करै रसखानि कहा करि हैं रबिनंद बिचारो।
+
==सम्बंधित लिंक==
ता खन जा खन राखियै माखन-चाखनहारो सो राखनहारो।(2)
+
{{रसखान2}}
Footnote
+
{{रसखान}}
1. शान्त: शमस्थायिभाव उत्तम प्रकृतिमेत:।
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[[Category:कोश]]
कुंदे सुंदरच्छाय: श्री नारायण दैवत:॥
+
[[Category:कवि]]
अनित्यत्वादि शेष वस्तुनि: सारता तु या।
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__INDEX__
परमात्मस्वरूपं वा तस्यालंवनमिष्यते॥
 
पुण्याश्रम हरि क्षेत्र तीर्थ रम्य वनादय:।
 
महापुरुष संगाद्यास्तस्योद्दीपन रूपिण:॥
 
रोमाश्चाद्यानु भावास्तथास्यु व्यभिचारिण:।
 
निर्वेद हर्ष स्मरण मति भूत दया दय:॥        - साहित्य दर्पण, पृ0 263
 
2. सुजान रसखान, 18
 
यहां कृष्ण आलंबन हैं, उनके द्वारा किये गए कार्य उद्दीपन विभाव हैं। संचारी भाव स्मृति है। निर्वेद स्थायी भाव द्वारा शांत रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है।
 
सुनियै सब की कहियै न कछू रहियै इमि या मन-बागर मैं।
 
करियै ब्रत-नेम सचाई लियें, जिन तें तरियै मन-सागर मैं।
 
मिलियै सब सों दुरभाव बिना, रहियै सतसंग उजागर मैं।
 
रसखानि गुबिंदहिं यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागर मैं।(1)
 
Footnote
 
1. सुजान रसखान, 8;
 

१३:०३, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण

रस के भेद

कुछ आचार्यों ने श्रृंगार रस को रसराज और अन्य रसों की उसी से उत्पत्ति मानी है।

  • आचार्य मम्मट ने रसों की संख्या आठ मानी है-
  1. श्रृंगार,
  2. हास्य,
  3. करुण,
  4. रौद्र,
  5. वीर,
  6. भयानक,
  7. वीभत्स और
  8. अद्भुत।
  • अब विद्वानों ने भक्ति और वात्सल्य को भी रस मान लिया है।
  • रसखान के काव्य में 'श्रृंगार रस', 'भक्ति रस' तथा 'वात्सल्य रस' आदि का विवेचन मिलता है।

श्रृंगार रस

श्रृंगार रस के दो भेद हैं-

  1. संयोग श्रृंगार
  2. विप्रलंभ श्रृंगार।

संयोग श्रृंगार
प्रिय और प्रेमी का मिलन दो प्रकार का हो सकता है- संभोग सहित और संभोग रहित। पहले का नाम संभोग श्रृंगार और दूसरे का नाम संयोग श्रृंगार है।

संभोग श्रृंगार
जहां नायक-नायिका की संयोगावस्था में जो पारस्परिक रति रहती है वहां संभोग श्रृंगार होता है। 'संभोग' का अर्थ संभोग सुख की प्राप्ति है। रसखान के काव्य में संभोग श्रृंगार के अनेक उदाहरण मिलते हैं। राधा-कृष्ण मिलन और गोपी-कृष्ण मिलन में कहीं-कहीं संभोग श्रृंगार का पूर्ण परिपाक हुआ है। उदाहरण के लिए—
अँखियाँ अँखियाँ सो सकाइ मिलाइ हिलाइ रिझाइ हियो हरिबो।
बतियाँ चित्त चोरन चेटक सी रस चारु चरित्रन ऊचरिबो।
रसखानि के प्रान सुधा भरिबो अधरान पे त्यों अधरा धरिबो।
इतने सब मैन के मोहिनी जंत्र पे मन्त्र बसीकर सी करिबो॥<balloon title="सुजान रसखान, 120" style=color:blue>*</balloon> इस पद्य में रसखान ने संभोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति नायक और नायिका की श्रृंगारी चेष्टाओं द्वारा करायी है। यद्यपि उन्होंने नायक तथा नायिका या कृष्ण-गोपी शब्द का प्रयोग नहीं किया, तथापि यह पूर्णतया ध्वनित हो रहा है कि यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन हैं। चित्त चोरन चेटक सी बतियां उद्दीपन विभाव हैं। अंखियां मिलाना, हिलाना, रिझाना आदि अनुभाव हैं। हर्ष संचारी भाव है। संभोग श्रृंगार की पूर्ण अभिव्यक्ति हो रही है। संभोग श्रृंगार के आनंद-सागर में अठखेलियां करते हुए नायक-नायिका का रमणीय स्वरूप इस प्रकार वर्णित है—
सोई हुती पिय की छतियाँ लगि बाल प्रवीन महा मुद मानै।
केस खुले छहरैं बहरें फहरैं, छबि देखत मन अमाने।
वा रस में रसखान पगी रति रैन जगी अखियाँ अनुमानै।
चंद पै बिंब औ बिंब पै कैरव कैरव पै मुकतान प्रमानै॥<balloon title="सुजान रसखान, 119" style=color:blue>*</balloon>


अधर लगाइ रस प्याइ बाँसुरी बजाइ,
मेरो नाम गाइ हाइ जादू कियौ मन मैं।
नटखट नवल सुघर नंदनंदन ने,
करिकै अचेत चेत हरि के जतन मैं।
झटपट उलट पुलट पट परिधान,
जान लगीं लालन पै सबै बाम बन मैं।
रस रास सरस रंगीलो रसखानि आनि,
जानि जोर जुगुति बिलास कियौ जन मैं॥<balloon title="सुजान रसखान, 32" style=color:blue>*</balloon> यहाँ कृष्ण और गोपियों के संभोग श्रृंगार का चित्रण है। यह चित्र अनुभावों एवं संचारी भावों द्वारा बहुत ही रमणीय बन पड़ा है। संभोग श्रृंगार निरूपण मर्यादावादी भक्त कवियों की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। किन्तु साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रसखान किसी परम्परा में बंध कर नहीं चले। पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार- 'ये स्वच्छन्द धारा के रीति मुक्त कवि हैं। सूफी संतों और फारसी-साहित्य की प्रवृत्ति से प्रभावित हुए हैं यह असंदिग्ध है।<balloon title="रसखानि (ग्रंथावली), भूमिका, पृ0 14" style=color:blue>*</balloon> रसखान का यह श्रृंगार निरूपण उनके सूफी काव्य से प्रभावित होने की ओर संकेत करता है।
संयोग श्रृंगार
जहां नायक-नायिका की संयोगावस्था में पारस्परिक रति होती है, पर संभोग सुख प्राप्त नहीं होता, वहां संयोग-श्रृंगार होता है।<balloon title="काव्यदर्पण, पृ0 173" style=color:blue>*</balloon> जो विशद आत्मानुभूति रूप में है उसका पर्यवसान भी प्रेम ही होता है। ऐसा प्रेम किसी वस्तु का, जैसे भोगादि साधन नहीं बनता। इस साध्य-भूत प्रेम का मिलन 'संयोग' कहा जाना चाहिए किन्तु वास्तविकता यह है कि प्रेमी प्रेमिका के प्रेम में मिलन में सान्निध्य की कामना अवश्य होती है। हर प्रेमी अपनी प्रिया से शरीर-सम्बन्ध की इच्छा करता है। इसलिए लौकिक प्रेम के संयोग पक्ष में विशद आत्मानुभूति की कल्पना केवल आदर्श ही प्रतीत होती है। संयोग विशद आत्मानुभूति या अनुभूत्यात्मक प्रेम के अभाव में भी संभव है। संक्षेप में जहां संभोग न होते हुए भी मिलन सुखानुभूति की व्यंजना हो वहां संयोग श्रृंगार मानना चाहिए। रसखान ने गोपी-कृष्ण (राधा-कृष्ण) के मिलन-प्रसंगों में संयोग श्रृंगार की झांकियां प्रस्तुत की हैं। उदाहरणार्थ—
खंजन मील सरोजन को मृग को मद गंजन दीरघ नैना।
कुंजन तें निकस्यौ मुसकात सु पान भरयौ मुख अमृत बैना।
जाई रहै मन प्रान बिलोचन कानन मैं रूचि मानत चैना।
रसखानि करयौ घर मो हिय मैं निसिबासर एक पलौ निकसै ना॥<balloon title="सुजान रसखान, 31" style=color:blue>*</balloon> यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन विभाव हैं। कृष्ण का स्वरूप कुंजन, कुंजन से मुस्काते, पान खाते निकलना उद्दीपन विभाव हैं संचारी भाव एवं अनुभावों के अभाव में भी दर्शन लाभ द्वारा संयोग-श्रृंगार ध्वनित हो रहा है। इस प्रकार के अनेक उदाहरण रसखान के काव्य में उपलब्ध हैं। कृष्ण के स्वरूप-दर्शन मात्र से ही गोपियों की आंखें प्रेम कनौंडी हो गईं। अंग्रेजी साहित्य के 'प्रथम दर्शन' में प्रेम (लव ऐट फर्स्ट साइट) के दर्शन भी रसखान के श्रृंगार निरूपण में होते हैं—
वार हीं गोरस बेंचि री आजु तूँ माइ के मूड़ चढ़ै कत मौंडी।
आवत जात हीं होइगी साँझ भटू जमुना भतरौंड लो औंडी।
पार गएँ रसखानि कहै अँखियाँ कहूँ होहिगी प्रेम कनौंडी।
राधे बलाई लयौ जाइगी बाज अबै ब्रजराज-सनेह की डौंडी॥<balloon title="सुजान रसखान, 41" style=color:blue>*</balloon> कृष्ण के दर्शन मात्र से गोपी उनके प्रेमाधीन हो गईं। संयोग में हर्ष, उल्लास आदि वर्णन की परम्परा रही है। रसखान ने भी यहाँ उसके दर्शन कराये हैं। कृष्ण के दर्शन कर गोपियां प्रफुल्लित हो रही हें। कभी कृष्ण हंसकर गा रहे हैं कभी गोपियां प्रेममयी हो रही हैं। लज्जायुक्त गोपी घूंघट में से कृष्ण को निहार रही हैं। यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन हैं। बन, बाग, तड़ाग, कंजगली उद्दीपन हैं। विलोकना एवं हंसना अनुभाव हैं। लज्जा संचारी भाव है, स्थायी भाव रति है, श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। रसखान ने दोहे जैसे छोटे छंद में भी हर्ष और उल्लास द्वारा संयोग श्रृंगार की हृदयस्पर्शी व्यंजना की है। उदाहरणार्थ—
बंक बिलोकनि हँसनि मुरि मधुर बैन रसखानि।
मिले रसिक रसराज दोउ हरखि हिये रसखानि।<balloon title="सुजान रसखान, 109" style=color:blue>*</balloon> उन्होंने निम्नांकित पद में सुंदर रूपक द्वारा संयोग श्रृंगार के समस्त उपकरणों को जुटा दिया है। नायिका नायक से कहती है-
बागन काहे को जाओ पिया घर बैठे ही बाग लगाय दिखाऊँ।
एड़ी अनार सी मोरि रही, बहियाँ दोउ चम्पे की डार नवाऊँ।
छातिन मैं रस के निबुवा अरु घूँघट खोलि कै दाख चखाऊँ।
ढाँगन के रस के चसके रति फूलनि की रसखानि लुटाऊँ॥<balloon title="सुजान रसखान, 122" style=color:blue>*</balloon> यहाँ श्रृंगार अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है। जिस प्रकार प्रिय के रूप को देखकर घनानन्द की नायिका के हृदय में हर्ष की उमंगें, सागर की तरंगें राग की ध्वनि की भांति उठती हैं। नेत्र रूप राशि का अनुभव करते हैं फिर भी तृषित ही बने रहते हैं; उसी प्रकार कृष्ण के दर्शन से रसखान की गोपियों का मन भी उनके लावण्य-सागर में डूब जाता है। वे रूपसागर में किलोलें करने लगती हैं। कृष्ण-कटाक्ष से उनकी लज्जा का हरण हो जाता है। उदाहरणार्थ—
सजनी पुर-बीथिन मैं पिय-गोहन लागी फिरैं जित ही तित धाई।
बाँसुरी टेरि सुनाइ अली अपनाइ लई ब्रजराज कन्हाई॥<balloon title="सुजान रसखान, 68" style=color:blue>*</balloon> रसखान के चित्र इतने सुंदर हैं कि बाद के कवि उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके। रीतिकालीन प्रसिद्ध कवि मतिराम[१] के सवैयों पर रसखान के संयोग-वर्णन की गहरी छाप है, किंतु वे रसखान के समान माधुर्य<balloon title="सुजान रसखान, 69" style=color:blue>*</balloon> के अंतस्तल में प्रवेश न कर सके।
विप्रलंभ श्रृंगार
श्रृंगार रस के दो भेद पहले ही बता दिये हैं। जहां अनुराग तो अति उत्कट हो, परंतु प्रिय समागम न हो उसे विप्रलंभ (वियोग) कहते हैं। विप्रलंभ पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण इन भेदों से चार प्रकार का होता है। रसखान ने करुण विप्रलंभ का निरुपण अपने काव्य में नहीं किया। रसखान का मन निप्रलंभ श्रृंगार-निरूपण में अधिक नहीं रमा। उसका कारण यह हो सकता है कि वे अपनी अन्तर्दृष्टि के कारण कृष्ण को सदैव अपने पास अनुभव करते थे और इस प्रकार की संयोगावस्था में भी वियोग का चित्रण कठिन होता है। रसखान के लौकिक जीवन में हमें घनानन्द की भांति किसी विछोह के दर्शन नहीं होते। इसीलिए उनसे घनानन्द की भांति जीते जागते और हृदयस्पर्शी विरहनिवेदन की आशा करना व्यर्थ ही होगा। रसखान ने वियोग के अनेक चित्र उपस्थित नहीं किये किन्तु जो लिखा है वह मर्मस्पर्शी है जिस पर संक्षेप में विचार किया जाता है।

वात्सल्य रस

पितृ भक्ति के समान ही पुत्र के प्रति माता-पिता की अनुरक्ति या उनका स्नेह एक अवस्था उत्पन्न करता है, जिसे विद्वानों ने वात्सल्य रस माना है।

  • पण्डित विश्वनाथ ने वात्सल्य रस का स्थायी भाव वत्सलता या स्नेह माना है। पुत्रादि संतान इसके आलंबन हैं। उनकी चेष्टाएं उनकी विद्या-बुद्धि तथा शौर्यादि उद्दीपन हैं और आलिंगन, स्पर्श, चुंबन, एकटक उसे देखना, पुत्रकादि अनुभाव तथा अनिष्ट-शंका, हर्ष, गर्व आदि उसके संचारी हैं। प्रस्फट चमत्कार के कारण वह इसे स्वतन्त्र रस मानते हैं। इसका वर्णन पद्मगर्भ छवि के समान तथा इसके देवता गौरी आदि षोडश मातृ चक्र हैं। यद्यपि रसखान ने सूरदास की भांति वात्सल्य रस सम्बन्धी अनेक पदों की रचना नहीं की तथापि उनका अल्पवर्णन ही मर्मस्पर्शी तथा रमणीय है। उन्होंने निम्नांकित पर में कृष्ण के छौने स्वरूप के दर्शन कराये हैं।

आजु गई हुती भोर ही हौं रसखानि रई वहि नन्द के भौनहिं।
वाको जियौ जुग लाख करोर जसोमति को सुख जात कह्यौ नहिं।
तेल लगाइ लगाइ कै अंजन भौहँ बनाइ बनाइ डिठौनहिं।
डालि हमेलनि हार निहारत वारत ज्यौं चुचकारत छौनहिं।<balloon title="सुजान रसखान, 20" style=color:blue>*</balloon> यहाँ स्थायी भाव वात्सलता है। बाल कृष्ण आलम्बन हैं। उनका सुंदर स्वरूप उद्दीपन है। निहारना, वारना, चुचकारना अनुभाव हैं। हर्ष संचारी भाव है। सबके द्वारा रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनीं सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरैं अंगना पग पैंजनी बाजति पीरी कछौटी।
वा छबि को रसखानि बिलोकत वारत काम कला निज कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सौं लै गयौ माखन रोटी।<balloon title="सुजान रसखान, 21" style=color:blue>*</balloon> यहाँ बाल कृष्ण आलम्बन हैं, उनकी चेष्टाएं खेलते खाते फिरना उद्दीपन हैं। हर्ष संचारी भाव, वात्सल्यपूर्ण-स्नेह स्थायीभाव द्वारा वात्सल्य रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। यहाँ एक गोपी अपनी सखी से कृष्ण की बाल शोभा का वर्णन करती है तथा कौवे के उनके हाथ से रोटी ले जाते हुए देखकर उसके भाग्य की सराहना करती है। हरि शब्द के प्रयोग से यह स्पष्टतया सिद्ध है कि इस पद्य में वात्सल्य का निरूपण भक्ति-रस से पूर्ण हैं। रसखान के काव्य में वात्सल्य रस के केवल दो ही उदाहरण मिलते हैं। यद्यपि उन्होंने भक्तिकालीन अन्य कवियों की भांति वात्सल्य रस के अनेक पद्य नहीं लिखे, किन्तु दो पद्यों में उनकी कुशल कला की मनोरम व्यंजना हुई है।

भक्तिरस

  • संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों- मम्मट, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि ने रसों की संख्या नौ मानी है। उन्होंने भक्ति को रस-कोटि में नहीं रखा। उनके अनुसार भक्ति देव विषयक रति, भाव ही है। अभिनव गुप्त ने भक्ति का समावेश शांत रस के अंतर्गत किया।<balloon title="अतएवेश्वर प्रणिधान विषये भक्ति श्रद्धे स्मृति मति घृत्युत्साहानुप्रविष्टे अन्यथैवांगम् इति न तयो: पृथग्सत्वेनगणनाम्। अभिनव भारती, जिल्द 1, पृ0 340" style=color:blue>*</balloon>
  • धनंजय ने इसको हर्षोत्साह माना।<balloon title="दशरूपक, 4। 83" style=color:blue>*</balloon>
  • भक्ति को रसरूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय वैष्णव आचार्यों को है। उन्होंने अपने मनोवैज्ञानिक शास्त्रीय विवेचन के आधार पर भक्ति रस को अन्य रसों से उत्तम बताया।
  • मधुसूदन सरस्वती ने 'भक्ति रसायन' में भक्ति रस की स्थापना की। उनका तर्क है कि 'जब अनुभव के आधार पर सुखविरोधी क्रोध, शोक, भय आदि स्थायी भावों का रसत्व को प्राप्त होना मान लिया गया है तो फिर सहस्त्रगुणित अनुभव सिद्ध भक्ति को रस न मानना अपलाप है, जड़ता है।<balloon title="भक्तिरसायन, 2। 77-78" style=color:blue>*</balloon> वास्तविकता तो यह है कि भक्ति रस पूर्ण रस है, अन्य रस क्षुद्र हैं, भक्तिरस आदित्य है, अन्य रस खद्योत हैं।<balloon title="भक्तिरसायन, 2। 76" style=color:blue>*</balloon>
  • काव्यशास्त्र की दृष्टि से भक्तिरस का स्थायी भाव भगवद्रति है।<balloon title="स्थायी भवो त्र सम्प्रोक्त: श्री कृष्ण विषया रति:। हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2। 5। 2" style=color:blue>*</balloon>
  • भक्ति रस के आलंबन भगवान और उनके भक्तगण हैं।<balloon title="हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2। 1। 16" style=color:blue>*</balloon> भक्तिरस के आश्रय भक्तगण हैं। भगवान का रूप (वस्त्र आदि) और चेष्टाएं उद्दीपन विभाव मानी गई हैं।
  • भारतीय काव्य शास्त्र की परम्परा में तैंतीस संचारी माने गये हैं।<balloon title="नाट्यशास्त्र,3/19-22, काव्यप्रकाश, 4।31-34" style=color:blue>*</balloon> भक्ति रस के आचार्यों ने भक्ति रस के विवेचन में तैतीसों को भक्तिरस का संचारी माना है। रसखान के काव्य में निर्वेद<balloon title=" सुजान रसखान, 8" style=color:blue>*</balloon> के साथ-साथ घृति<balloon title="सुजान रसखान, 1" style=color:blue>*</balloon>, हर्ष<balloon title=" सुजान रसखान, 12,13,14,15" style=color:blue>*</balloon> स्मृति<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon> आदि संचारी भावों की निबंधना हुई है। रसखान के काव्य में भक्ति रस के आलम्बन भगवान श्रीकृष्ण हैं। उनका बांसुरी बजाना तथा भक्तों पर रीझना भक्तों की दृष्टि में उद्दीपन विभाव हैं। निम्नांकित पद में भक्ति रस की अकृत्रिम व्यंजना है—

देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगौ।
तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौ गुन, सौ गुन औगुन गाँठि परैगौ।
बाँसुरीवारो बड़े रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिय की हरैगौ।<balloon title="सुजान रसखान, 7" style=color:blue>*</balloon> रसखान देश-विदेश के राजाओं को त्यागकर भगवान कृष्ण की शरण में आए हैं। उनका विश्वास है कि श्रीकृष्ण शीघ्र ही उन पर अनुग्रह करके संकटों का निवारण करेंगे। सभी प्रकार के प्रेमियों की यह विशेषता होती है कि वे अपने प्रेम पात्र में संबद्ध पदार्थों के संपर्क से आनन्द का अनुभव करते हैं। भक्ति में भी यह विशेषता द्रष्टव्य है। भक्त भगवान के अधिक-से-अधिक सान्निध्य में रहना चाहता है। अपनी लीला का भक्तों को आनंद देने वाले भगवान की लीलाभूमि, भक्तों के लिए विशेष आनन्ददायिनी होती है। उस भूमि से संबद्ध प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ भगवान की महिमा से मंडित दिखायी पड़ता है। अत: भक्त कवि जन्मजन्मांतर तक उस लीलाभूमि से संबंध बनाये रखना चाहता है—
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तौ कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तौ वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर-धारन।
जौ खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन॥<balloon title="सुजान रसखान, 1" style=color:blue>*</balloon> यहाँ भगवान कृष्ण आलंबन हैं, उनका गोवर्धन पर्वत को धारण करना उद्दीपन विभाव है, घृति संचारी भाव के द्वारा भक्तिरस का परिपाक हो रहा है। निम्न पद में आत्म समर्पण की भावना है। रसखान द्वारा किया गया हर कार्य केवल भगवान के लिए हो, ऐसी अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहते हैं—
बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।
हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सो हे रसखानी॥<balloon title="सुजान रसखान,4; नाट्यशास्त्र, 3।19-22" style=color:blue>*</balloon> उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन में यह स्पष्ट है कि रसखान ने भक्तिरस के अनेक पद लिखे हैं, तथापि उनके काव्यों में भक्तिरस की प्रधानता नहीं है। वे प्रमुख रूप से श्रृंगार के कवि हैं। उनका श्रृंगार कृष्ण की लीलाओं पर आश्रित है। अतएव सामान्य पाठक को यह भ्रांति हो सकती है कि उनके अधिकांश पद भक्ति रस की अभिव्यक्ति करते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से जिन पदों के द्वारा पाठक के मन में स्थित ईश्वर विषयक-रतिभाव रसता नहीं प्राप्त करता, उन पदों को भक्ति रस व्यंजक मानना तर्क संगत नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि रसखान भक्त थे और उन्होंने अपनी रचनाओं में भजनीय कृष्ण का सरस रूप से निरूपण किया है।

शांतरस

संसार से अत्यन्त निर्वेद होने पर या तत्त्व ज्ञान द्वारा वैराग्य का उत्कर्ष होने पर शांत रस की प्रतीति होती है। 'शांत रस वह रस है जिसमें 'शम' रूप स्थायी भाव का आस्वाद हुआ करता है। इसके आश्रय उत्तम प्रकृति के व्यक्ति हैं, इसका वर्ण कुंद-श्वेत अथवा चंद्र-श्वेत है। इसके देवता श्री भगवान नारायण हैं। अनित्यता किंवा दु:खमयता आदि के कारण समस्त सांसारिक विषयों की नि:सारता का ज्ञान अथवा साक्षात् परमात्म स्वरूप का ज्ञान ही इसका आलम्बन-विभाव है। इसके उद्दीपन हैं पवित्र आश्रम, भगवान की लीला भूमियां, तीर्थ स्थान, रम्य कानन, साधु-संतों के संग आदि आदि। रोमांच आदि इसके अनुभाव हैं इसके व्यभिचारी भाव हैं- निर्वेद, हर्ष, स्मृति, मति, जीव, दया आदि। [२] रसखान संसार की असारता से ऊब उठे हैं, सार तत्त्व की पहचानते हैं। इसलिए उनके काव्य में कहीं-कहीं शांत रस का पुट मिल जाता है। वे कहते हैं कि किसी प्रकार सोच न करके माखन-चाखनहार का ध्यान करो जिन्होंने महापापियों का उद्धार किया है।
द्रौपदी औ गनिका गज गीध अजामिल सों कियौ सो न निहारो।
गौतम-गेहिनी कैसी तरी, प्रहलाद कों कैसें हरयौ दुख भारो।
काहे कों सोच करै रसखानि कहा करि हैं रबिनंद बिचारो।
ता खन जा खन राखियै माखन-चाखनहारो सो राखनहारो।<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon> यहाँ कृष्ण आलंबन हैं, उनके द्वारा किये गए कार्य उद्दीपन विभाव हैं। संचारी भाव स्मृति है। निर्वेद स्थायी भाव द्वारा शांत रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है।
सुनियै सब की कहियै न कछू रहियै इमि या मन-बागर मैं।
करियै ब्रत-नेम सचाई लियें, जिन तें तरियै मन-सागर मैं।
मिलियै सब सों दुरभाव बिना, रहियै सतसंग उजागर मैं।
रसखानि गुबिंदहिं यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागर मैं।<balloon title="सुजान रसखान, 8" style=color:blue>*</balloon>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आनन चंद निहारि-निहारि नहीं तनु औधन जीवन वारैं।
    चारु चिनौनी चुभी मतिराम हिय मति को गहि ताहि निकारैं।
    क्यों करि धौं मुरली मनि कुण्डल मोर पखा बनमाल बिसारै।
    ते घनि जे ब्रज राज लखैं, गृह काज करैं अरु लाज समारै। --मतिराम ग्रंथावली
  2. शान्त: शमस्थायिभाव उत्तम प्रकृतिमेत:।
    कुंदे सुंदरच्छाय: श्री नारायण दैवत:॥
    अनित्यत्वादि शेष वस्तुनि: सारता तु या।
    परमात्मस्वरूपं वा तस्यालंवनमिष्यते॥
    पुण्याश्रम हरि क्षेत्र तीर्थ रम्य वनादय:।
    महापुरुष संगाद्यास्तस्योद्दीपन रूपिण:॥
    रोमाश्चाद्यानु भावास्तथास्यु व्यभिचारिण:।
    निर्वेद हर्ष स्मरण मति भूत दया दय:॥ - साहित्य दर्पण, पृ0 263

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