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अब्दुर्रहीम खाँ, खानखाना मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि थे। अकबरी दरबार के हिन्दी कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे। [[केशव]], आसकरन, मण्डन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। ये [[अकबर]] के अभिभावक [[बैरम खाँ]] के पुत्र थे। इनका जन्म माघ कृष्ण पक्ष गुरुवार, सन 1556 ई॰ में हुआ था। जब ये कुल 5 वर्ष के ही थे, गुजरात के पाटन नगर में (1561 ई॰) इनके पिता की हत्या कर दी गयी। इनका पालन-पोषण स्वयं अकबर की देख-रेख में हुआ। इनकी कार्यक्षमता से प्रभावित होकर अकबर ने 1572 ई॰ में गुजरात की चढ़ाई के अवसर पर इन्हें पाटन की जागीर प्रदान की। अकबर के शासनकाल में उनकी निरन्तर पदोन्नति होती रही। 1576 ई॰ में गुजरात विजय के बाद इन्हें गुजरात की सूबेदारी मिली। 1579 ई॰ में इन्हें 'मीर अर्जु' का पद प्रदान किया गया। 1583 ई॰ में इन्होंने बड़ी योग्यता से गुजरात के उपद्रव का दमन किया। प्रसन्न होकर अकबर ने 1584 ई॰ में इन्हें' खानखाना' की उपाधि और पंचहज़ारी का मनसब प्रदान किया। 1589 ई॰ में इन्हें 'वकील' की पदवी से सम्मानित किया गया। 1604 ई॰ में शाहजादा दानियाल की मृत्यु और [[अबुलफजल]] की हत्या के बाद इन्हें दक्षिण का पूरा अधिकार मिल गया। [[जहाँगीर]] के शासन के प्रारम्भिक दिनों में इन्हें पूर्ववत सम्मान मिलता रहा। 1623 ई॰ में [[शाहजहाँ]] के विद्रोही होने पर इन्होंने जहाँगीर के विरुद्ध उनका साथ दिया। 1625 ई॰ में इन्होंने क्षमा याचना कर ली और पुन: 'खानखाना' की उपाधि मिली। 1626 ई॰ में 70 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हो गयी।
 
अब्दुर्रहीम खाँ, खानखाना मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि थे। अकबरी दरबार के हिन्दी कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे। [[केशव]], आसकरन, मण्डन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। ये [[अकबर]] के अभिभावक [[बैरम खाँ]] के पुत्र थे। इनका जन्म माघ कृष्ण पक्ष गुरुवार, सन 1556 ई॰ में हुआ था। जब ये कुल 5 वर्ष के ही थे, गुजरात के पाटन नगर में (1561 ई॰) इनके पिता की हत्या कर दी गयी। इनका पालन-पोषण स्वयं अकबर की देख-रेख में हुआ। इनकी कार्यक्षमता से प्रभावित होकर अकबर ने 1572 ई॰ में गुजरात की चढ़ाई के अवसर पर इन्हें पाटन की जागीर प्रदान की। अकबर के शासनकाल में उनकी निरन्तर पदोन्नति होती रही। 1576 ई॰ में गुजरात विजय के बाद इन्हें गुजरात की सूबेदारी मिली। 1579 ई॰ में इन्हें 'मीर अर्जु' का पद प्रदान किया गया। 1583 ई॰ में इन्होंने बड़ी योग्यता से गुजरात के उपद्रव का दमन किया। प्रसन्न होकर अकबर ने 1584 ई॰ में इन्हें' खानखाना' की उपाधि और पंचहज़ारी का मनसब प्रदान किया। 1589 ई॰ में इन्हें 'वकील' की पदवी से सम्मानित किया गया। 1604 ई॰ में शाहजादा दानियाल की मृत्यु और [[अबुलफजल]] की हत्या के बाद इन्हें दक्षिण का पूरा अधिकार मिल गया। [[जहाँगीर]] के शासन के प्रारम्भिक दिनों में इन्हें पूर्ववत सम्मान मिलता रहा। 1623 ई॰ में [[शाहजहाँ]] के विद्रोही होने पर इन्होंने जहाँगीर के विरुद्ध उनका साथ दिया। 1625 ई॰ में इन्होंने क्षमा याचना कर ली और पुन: 'खानखाना' की उपाधि मिली। 1626 ई॰ में 70 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हो गयी।
 
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रहीम का पारिवारिक जीवन सुखमय नहीं था। बचपन में ही इन्हें पिता के स्नेह से वंचित होना पड़ा। 42 वर्ष की अवस्था में इनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी। इनकी पुत्री विधवा हो गयी थी। इनके तीन पुत्र असमय में ही कालकवलित हो गये थे। आश्रयदाता और गुणग्राहक अकबर की मृत्यु भी इनके सामने ही हुई। इन्होंने यह सब कुछ शान्त भाव से सहन किया। इनके नीति के दोहों में कहीं-कहीं जीवन की दु:खद अनुभूतियाँ मार्मिक उद्गार बनकर व्यक्त हुई हैं।
 
रहीम का पारिवारिक जीवन सुखमय नहीं था। बचपन में ही इन्हें पिता के स्नेह से वंचित होना पड़ा। 42 वर्ष की अवस्था में इनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी। इनकी पुत्री विधवा हो गयी थी। इनके तीन पुत्र असमय में ही कालकवलित हो गये थे। आश्रयदाता और गुणग्राहक अकबर की मृत्यु भी इनके सामने ही हुई। इन्होंने यह सब कुछ शान्त भाव से सहन किया। इनके नीति के दोहों में कहीं-कहीं जीवन की दु:खद अनुभूतियाँ मार्मिक उद्गार बनकर व्यक्त हुई हैं।
 
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अब्दुर्रहीम रहीम खानखाना / Abdurraheem Khankhana

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अब्दुर्रहीम रहीम खानखाना
  • हिन्दी के प्रसिद्ध कवि अब्दुर्रहीम ख़ाँ का जन्म 1556 ई॰ में हुआ था।
  • अकबर के दरबार में इनका महत्वपूर्ण स्थान था। गुजरात के युद्ध में शौर्य प्रदर्शन के कारण अकबर ने इन्हें 'खानखाना' की उपाधि दी थी।
  • रहीम अरबी, तुर्की, फारसी, संस्कृत और हिन्दी के अच्छे ज्ञाता थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था।
  • इनकी ग्यारह रचनाएं प्रसिद्ध हैं। इनके काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार, नीति और भक्ति के भाव मिलते हैं। 70 वर्ष की उम्र में 1626 ई॰ में रहीम का देहांत हो गया।

परिचय

अब्दुर्रहीम खाँ, खानखाना मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि थे। अकबरी दरबार के हिन्दी कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे। केशव, आसकरन, मण्डन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। ये अकबर के अभिभावक बैरम खाँ के पुत्र थे। इनका जन्म माघ कृष्ण पक्ष गुरुवार, सन 1556 ई॰ में हुआ था। जब ये कुल 5 वर्ष के ही थे, गुजरात के पाटन नगर में (1561 ई॰) इनके पिता की हत्या कर दी गयी। इनका पालन-पोषण स्वयं अकबर की देख-रेख में हुआ। इनकी कार्यक्षमता से प्रभावित होकर अकबर ने 1572 ई॰ में गुजरात की चढ़ाई के अवसर पर इन्हें पाटन की जागीर प्रदान की। अकबर के शासनकाल में उनकी निरन्तर पदोन्नति होती रही। 1576 ई॰ में गुजरात विजय के बाद इन्हें गुजरात की सूबेदारी मिली। 1579 ई॰ में इन्हें 'मीर अर्जु' का पद प्रदान किया गया। 1583 ई॰ में इन्होंने बड़ी योग्यता से गुजरात के उपद्रव का दमन किया। प्रसन्न होकर अकबर ने 1584 ई॰ में इन्हें' खानखाना' की उपाधि और पंचहज़ारी का मनसब प्रदान किया। 1589 ई॰ में इन्हें 'वकील' की पदवी से सम्मानित किया गया। 1604 ई॰ में शाहजादा दानियाल की मृत्यु और अबुलफजल की हत्या के बाद इन्हें दक्षिण का पूरा अधिकार मिल गया। जहाँगीर के शासन के प्रारम्भिक दिनों में इन्हें पूर्ववत सम्मान मिलता रहा। 1623 ई॰ में शाहजहाँ के विद्रोही होने पर इन्होंने जहाँगीर के विरुद्ध उनका साथ दिया। 1625 ई॰ में इन्होंने क्षमा याचना कर ली और पुन: 'खानखाना' की उपाधि मिली। 1626 ई॰ में 70 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हो गयी।

पारिवारिक जीवन

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रहीम का पारिवारिक जीवन सुखमय नहीं था। बचपन में ही इन्हें पिता के स्नेह से वंचित होना पड़ा। 42 वर्ष की अवस्था में इनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी। इनकी पुत्री विधवा हो गयी थी। इनके तीन पुत्र असमय में ही कालकवलित हो गये थे। आश्रयदाता और गुणग्राहक अकबर की मृत्यु भी इनके सामने ही हुई। इन्होंने यह सब कुछ शान्त भाव से सहन किया। इनके नीति के दोहों में कहीं-कहीं जीवन की दु:खद अनुभूतियाँ मार्मिक उद्गार बनकर व्यक्त हुई हैं।

भाषा

  • रहीम अरबी, तुर्की, फारसी, संस्कृत और हिन्दी के अच्छे जानकार थे। हिन्दू-संस्कृति से ये भली-भाँति परिचित थे। इनकी नीतिपरक उक्तियों पर संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है।
  • कुल मिलाकर इनकी 11 रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनके प्राय: 300 दोहे 'दोहावली' नाम से संगृहीत हैं। मायाशंकर याज्ञिक का अनुमान था कि इन्होंने सतसई लिखी होगी किन्तु वह अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। दोहों में ही रचित इनकी एक स्वतन्त्र कृति 'नगर शोभा' है। इसमें 142 दोहे हैं। इसमें विभिन्न जातियों की स्त्रियों का श्रृंगारिक वर्णन है।
  • रहीम अपने बरवै छन्द के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका 'बरवै है। इनका 'बरवै नायिका भेद' अवधी भाषा में नायिका-भेद का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इसमें भिन्न-भिन्न नायिकाओं के केवल उदाहरण दिये गये हैं। मायाशंकर याज्ञिक ने काशीराज पुस्तकालय और कृष्णबिहारी मिश्र पुस्तकालय की हस्त लिखित प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया है। रहीम ने बरवै छन्दों में गोपी-विरह वर्णन भी किया है।
  • मेवात से इनकी एक रचना 'बरवै' नाम की इसी विषय पर रचित प्राप्त हुई है। यह एक स्वतन्त्र कृति है और इसमें 101 बरवै छन्द हैं। रहीम के श्रृंगार रस के 6 सोरठे प्राप्त हुए हैं। इनके 'श्रृंगार सोरठ' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है किन्तु अभी यह प्राप्त नहीं हो सका है।
  • रहीम की एक कृति संस्कृत और हिन्दी खड़ीबोली की मिश्रित शैली में रचित 'मदनाष्टक' नाम से मिलती है। इसका वर्ण्य-विषय कृष्ण की रासलीला है और इसमें मालिनी छन्द का प्रयोग किया गया है। इसके कई पाठ प्रकाशित हुए हैं। 'सम्मेलन पत्रिका' में प्रकाशित पाठ अधिक प्रामणिक माना जाता है। इनके कुछ भक्ति विषयक स्फुट संस्कृत श्लोक 'रहीम काव्य' या 'संस्कृत काव्य' नाम से प्रसिद्ध हैं। कवि ने संस्कृत श्लोकों का भाव छप्पय और दोहा में भी अनूदित कर दिया है।
  • कुछ श्लोकों में संस्कृत के साथ हिन्दी भाषा का प्रयोग हुआ है। रहीम बहुज्ञ थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। इनका संस्कृत, फारसी और हिन्दी मिश्रित भाषा में' खेट कौतुक जातकम्' नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ भी मिलता है किन्तु यह रचना प्राप्त नहीं हो सकी है। 'भक्तमाल' में इस विषय के इनके दो पद उद्धृत हैं। विद्वानों का अनुमान है कि ये पद 'रासपंचाध्यायी' के अंश हो सकते हैं।
  • रहीम ने 'वाकेआत बाबरी' नाम से बाबर लिखित आत्मचरित का तुर्की से फारसी में भी अनुवाद किया था। इनका एक 'फारसी दीवान' भी मिलता है।
  • रहीम के काव्य का मुख्य विषय श्रृंगार, नीति और भक्ति है। इनकी विष्णु और गंगा सम्बन्धी भक्ति-भावमयी रचनाएँ वैष्णव-भक्ति आन्दोलन से प्रभावित होकर लिखी गयी हैं। नीति और श्रृंगारपरक रचनाएँ दरबारी वातावरण के अनुकूल हैं। रहीम की ख्याति इन्हीं रचनाओं के कारण है। बिहारी और मतिराम जैसे समर्थ कवियों ने रहीम की श्रृंगारिक उक्तियों से प्रभाव ग्रहण किया है। व्यास, वृन्द और रसनिधि आदि कवियों के नीति विषयक दोहे रहीम से प्रभावित होकर लिखे गये हैं। रहीम का ब्रजभाषा और अवधी दोनों पर समान अधिकार था। उनके बरवै अत्यन्त मोहक प्रसिद्ध है कि तुलसीदास को 'बरवै रामायण' लिखने की प्रेरणा रहीम से ही मिली थी। 'बरवै' के अतिरिक्त इन्होंने दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया, मालिनी आदि कई छन्दों का प्रयोग किया है।

रचनाएं

इनका काव्य इनके सहज उद्गारों की अभिव्यक्ति है। इन उद्गारों में इनका दीर्घकालीन अनुभव निहित है। ये सच्चे और संवेदनशील हृदय के व्यक्ति थे। जीवन में आने वाली कटु-मधुर परिस्थितियों ने इनके हृदय-पट पर जो बहुविध अनुभूति रेखाएँ अंकित कर दी थी, उन्हीं के अकृत्रिम अंकन में इनके काव्य की रमणीयता का रहस्य निहित है। इनके 'बरवै नायिका भेद' में काव्य रीति का पालन ही नहीं हुआ है, वरन उसके माध्यम से भारतीय गार्हस्थ्य-जीवन के लुभावने चित्र भी सामने आये हैं। मार्मिक होने के कारण ही इनकी उक्तियाँ सर्वसाधारण में विशेष रूप से प्रचलित हैं। रहीम-काव्य के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें-

  1. रहीम रत्नावली (सं0 मायाशंकर याज्ञिक-1928 ई॰) और
  2. रहीम विलास (सं0 ब्रजरत्नदास-1948 ई॰, द्वितीयावृत्ति) प्रामाणिक और विश्वसनीय हैं। इनके अतिरिक्त
  3. रहिमन विनोद (हि0 सा0 सम्मे0),
  4. रहीम 'कवितावली (सुरेन्द्रनाथ तिवारी),
  5. रहीम' (रामनरेश त्रिपाठी),
  6. रहिमन चंद्रिका (रामनाथ सुमन),
  7. रहिमन शतक (लाला भगवानदीन) आदि संग्रह भी उपयोगी हैं।

रहीम के दोहे

  • रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग।

ज्यों सरितन सूख परे, कुआं खनावत लोग।।
कविवर रहीम कहते हैं कि यदि कोई दानी मनुष्य दरिद्र भी हो तो भी उससे याचना करना बुरा नहीं है क्योंकि वह तब भी उनके पास कुछ न कुछ रहता ही है। जैसे नदी सूख जाती है तो लोग उसके अंदर कुएं खोदकर उसमें से पानी निकालते हैं।

  • रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।

जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवारि।।
कविवर रहीम के अनुसार बड़े लोगों की संगत में छोटों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि विपत्ति के समय उनकी भी सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है। जिस तरह तलवार के होने पर सुई की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि जहां वह काम कर सकती है तलवार वहां लाचार होती है।


रहीम एक सहृदय स्वाभिमानी, उदार, विनम्र, दानशील, विवेकी, वीर और व्युत्पन्न व्यक्ति थे। ये गुणियों का आदर करते थे। इनकी दानशीलता की अनेक कथाएं प्रचलित है। इनके व्यक्तित्व से अकबरी दरबार गौरवान्वित हुआ था और इनके काव्य से हिन्दी समृद्ध हुई है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

सहायक ग्रन्थ-

  1. अकबरी दरबार के हिन्दी कवि: डा॰ सरयूप्रसाद अग्रवाल;
  2. रहिमन विलास : ब्रजरत्नदास;
  3. रहीम रत्नावली : मायाशंकर याज्ञिक।

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