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कदम्ब टेर से सटी हुई पश्चिम में श्रीरूप गोस्वामी की भजनकुटी स्थित है । श्री रूपगोस्वामी [[कृष्ण]] की मधुर लीलाओं की स्मृति के लिए प्राय: इस निर्जन स्थली में भजन करते थे । वे यहाँ पर अपने प्रिय ग्रन्थों की रचना भी करते थे । उन्हें जब कभी-कभी महाभावमयी [[राधा|राधिका]] के विप्रलम्भ भावों की स्फूर्ति होती, तो हठात इनके मुख से विप्रलम्भ भावमय श्लोक निकल आते थे । उस समय यहाँ के कदम्ब वृक्षों के सारे पत्ते उस विरहाग्नि में सूखकर नीचे गिर जाते तथा  पुन: इनके हृदय में युगल मिलन की स्फूर्ति होते ही इनके पदों को सुनकर कदम्ब वृक्षों में नई-नई कोप लें निकल आती थीं ।  
 
कदम्ब टेर से सटी हुई पश्चिम में श्रीरूप गोस्वामी की भजनकुटी स्थित है । श्री रूपगोस्वामी [[कृष्ण]] की मधुर लीलाओं की स्मृति के लिए प्राय: इस निर्जन स्थली में भजन करते थे । वे यहाँ पर अपने प्रिय ग्रन्थों की रचना भी करते थे । उन्हें जब कभी-कभी महाभावमयी [[राधा|राधिका]] के विप्रलम्भ भावों की स्फूर्ति होती, तो हठात इनके मुख से विप्रलम्भ भावमय श्लोक निकल आते थे । उस समय यहाँ के कदम्ब वृक्षों के सारे पत्ते उस विरहाग्नि में सूखकर नीचे गिर जाते तथा  पुन: इनके हृदय में युगल मिलन की स्फूर्ति होते ही इनके पदों को सुनकर कदम्ब वृक्षों में नई-नई कोप लें निकल आती थीं ।  

१२:४४, २९ जुलाई २००९ का अवतरण


श्रीरूप गोस्वामी की भजन कुटी

कदम्ब टेर से सटी हुई पश्चिम में श्रीरूप गोस्वामी की भजनकुटी स्थित है । श्री रूपगोस्वामी कृष्ण की मधुर लीलाओं की स्मृति के लिए प्राय: इस निर्जन स्थली में भजन करते थे । वे यहाँ पर अपने प्रिय ग्रन्थों की रचना भी करते थे । उन्हें जब कभी-कभी महाभावमयी राधिका के विप्रलम्भ भावों की स्फूर्ति होती, तो हठात इनके मुख से विप्रलम्भ भावमय श्लोक निकल आते थे । उस समय यहाँ के कदम्ब वृक्षों के सारे पत्ते उस विरहाग्नि में सूखकर नीचे गिर जाते तथा पुन: इनके हृदय में युगल मिलन की स्फूर्ति होते ही इनके पदों को सुनकर कदम्ब वृक्षों में नई-नई कोप लें निकल आती थीं ।


एक समय श्री सनातन गोस्वामी श्री रूप गोस्वामी से मिलने के लिए यहाँ आये । उन दोनों में कृष्ण की रसमयी कथाएँ होने लगीं । दोनों कृष्ण कथा में इतने आविष्ट हो गये कि उन्हें समय का ध्यान नहीं रहा । दोपहर के पश्चात आवेश कुछ कम होने पर श्री रूप गोस्वामी ने सोचा 'प्रसाद ग्रहण करने का समय हो गया है, किन्तु मेरे पास कुछ भी नहीं है, जो श्री सनातन गोस्वामी को खिला सकूँ ।' इसलिए कुछ चिन्तित हो गये इतने में ही साधारण वेश में एक सुन्दर सी बालिका वहाँ उपस्थित हुई और रूप गोस्वामी को कहने लगी- 'बाबा ! मेरी मैया ने चावल, दूध और चीनी मेरे हाथों से भेजी है, तुम शीघ्र खीर बनाकर पा लेना ।' यह कहकर वह चली गई । किन्तु थोड़ी देर में वह पुन: लौट आई । बाबा ! तुम्हें बातचीत करने से ही अवसर नहीं । अत: मैं स्वयं ही पाक कर देती हूँ । ऐसा कहकर उसने झट से आसपास से सूखे कण्डे लाकर अपनी फूँक से ही आग पैदाकर थोड़ी ही देर में अत्यन्त मधुर एवं सुगन्धित खीर प्रस्तुत कर दी और बोलीं- 'बाबा ! ठाकुरजी का भोग लगाकर जल्दी से पा लो । मेरी मैया डाँटेगी । मैं जा रही हूँ ।' ऐसा कहकर वह चली गई । श्रीरूप गोस्वामी ने श्रीकृष्ण को समर्पित कर खीर सनातन गोस्वामी के आगे गोस्वामी के आगे धर दी । दोनों भाईयों ने जब खीर खाई तो उन्हें राधाकृष्ण की स्फूर्ति हो आई । वे हा राधे ! हा राधे ! कहकर विलाप करने लगे । सनातन गोस्वामी ने कहा ' मैंने ऐसी मधुर खीर जीवन में कभी नही पायी रूप, क्या भोजन के लिए तुमने मन-ही-मन अभिलाषा की थी ? वह किशोरी और कोई नहीं महाभावमयी कृष्णप्रिया राधिकाजी ही थीं । भविष्य में तुम उन्हें इस प्रकार कष्ट मत देना ।' अपनी त्रुटि समझकर श्रीरूप गोस्वामी बड़ा ही खेद करने लगे । जब उन्हें कुछ झपकी आई तो सपने में श्रीराधिका जी ने उन्हें दर्शन देकर अपने मधुर वचनों से उन्हें सांत्वना दी ।

नन्दबाग

श्रीरूप गोस्वामी की भजन-कुटी के समीप ही दक्षिण में नन्दबाग है । यहाँ महाराज नन्द का बगीचा था । तरह-तरह के फल और फूलों से लदे हुए हरे-भरे वृक्ष और लताएँ थी । नन्द महाराज की यहाँ एक खिड़क (गोशाला) भी थी । कृष्ण बलदेव यहाँ गोदोहन का भी कार्य करते थे तथा सखाओं के साथ अखाड़े में मल्लक्रीड़ा का अभ्यास भी करते थे । राधिकाजी अपनी सहेलियों के साथ जावट से नन्दभवन जाते समय इसी मार्ग से जाती थीं ।

प्रसंग

एक समय राधिका सहेलियों के साथ पाक क्रिया के लिए नन्दभवन आ रही थीं । यहाँ आने से पूर्व कुछ दूर से सखियों ने ग्वाल बालों के साथ कृष्ण को गोदोहन करते देखा । ललिता सखी ने कहा- हम इस मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग से चलें । ब्रज का लम्पट चूड़ामणि गोदोहन करते हुए सतृष्ण नयनों से हमारी ओर देख रहा है । वह कुछ-न कुछ छेड़खानी करेगा । ही । हम कुछ घूमकर दूसरे रास्ते से चलें । किन्तु राधिकाजी ने कहा- वह लम्पट क्या कर लेगा ? हम निर्भय होकर इसी रास्ते से चलें । ऐसा कहकर सखियों के साथ वे इसी मार्ग से चलने लगीं । जब वे अग्रसर होकर अत्यन्त निकट आ गई तब कृष्ण ने गोदोहन करते हुए राधिका के मुखमण्डल पर दूण्ध की ऐसी धार मारी, जिससे राधा जी का सारा मुखमण्डल दुग्धमय हो गया । फिर तो सखा और सखियों में आनन्द की हिलोंरे उठने लगीं । सभी हँसने लगें । राधिकाजी ने भौंहें तानकर कृष्ण की ओर देखा । कुछ दूर आगे बढ़ने पर उनके गले की मुक्तामाला टूटकर पृथ्वी पर गिर गई । वे बैठकर बिखरी हुई मुक्ताओं का चयन करने लगीं । सखियों ने मन ही मन राधा जी का भाव भाँप लिया कि मुक्ता चयन के बहाने वे प्रियतम का कुछ क्षणों के लिए दर्शन कर रही हैं । श्रीरूप गोस्वामी ने इन सब लीला- स्मृतियों को अपने उज्ज्वलनीलमणि आदि ग्रन्थों में गागर में सागर की भाँति संजोकर रखा है ।

आशीषेश्वर महादेव

नन्दबाग से ठीक पूर्व में थोड़ी दूर पर ही आशीषेश्वर महादेव एवं आशीषेश्वर कुण्ड है । यहाँ स्नानकर पर्जन्य महाराज सर्वप्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले आशीषेश्वर महादेव की आराधना करते थे । थोड़ी सी आराधना के द्वारा ही प्रसन्न होकर मनोवाच्छित आशीर्वाद प्रदान करते हैं, इसलिए इनको आशीषेश्वर महादेव कहते हैं । कोई-कोई ब्रजवासी ऐसा भी कहते हैं कि इन्हीं के आशीष से पर्जन्य महाराज को सर्वगुणसम्पन्न पाँच पुत्र और श्रीकृष्ण जैसे सर्वगुण-सम्पन्न पौत्र की प्राप्ति हुई थी ।

जलविहार कुण्ड

आशीषेश्वर कुण्ड के पश्चिम में जलविहार कुण्ड है । यहाँ कृष्ण सखाओं के साथ जलविहार करते हैं ।

जोगिया स्थल

कृष्णकुण्ड के उत्तर-पूर्व में स्थित वृक्ष और लताओं से परिवेष्टित यह एक मनोरम स्थल है यहाँ महादेव शंकर कृष्ण की आराधना करते है। । इसलिए इसको महादेवजी की बैठक भी कहते हैं । कृष्ण का दर्शन पाने के लिए वे ब्रज में पागल से होकर इधर-उधर डोल रहे थे परन्तु बहुत चेष्टा करने पर भी कृष्ण का दर्शन नहीं पा सके । क्योंकि कृष्ण कभी सोते रहते तो कभी यशोदा का स्तन पान करते रहते । विशेषकर माँ यशोदा जटा-जूट धारण किये, सर्पों की माला पहने, बैल पर सवार, त्रिशूलधारी विचित्रवेश वाले जोगी को देखकर कहीं मेरे बालक को नजर नहीं लग जाये , इसलिए बालकृष्ण का दर्शन कराना भी चाहती थी । अन्त में हारकर यहीं पर आसन लगाकर शिव ने अलख जगाई अर्थात डमरू बजाते हुए जोर-जोर से 'अलख निरजंन'-अलख निजंन पुकारने लगे । वे जितने ही जोर से अलख निरंजन कहते हुए डमरू बजाते, नन्दभवन में बालकृष्ण उतने ही जोर से क्रन्दन करने लगते । न डमरू बजना थमता, न कृष्ण का क्रन्दन ही । अन्त में सयानी वृद्ध गोपियों ने यशोदा जी को परामर्श दिया, 'हो न हो यह उसी जोगी की करतूत है । वह निश्चित ही कोई मन्त्र जानता है, अत: क्यों न उस जोगी को बुलाकर बच्चे को शान्त किया जाय । गोपियों के परामर्श से वृद्ध गोपियाँ शिवरूपी योगी के पास आई और उनसे बोलीं-अरे जोगी ! नन्दरानी यशोमती तुम्हें नन्दभवन में बुला रही हैं ।, चलो इतना सुनते ही शंकरजी बड़े आनन्दित होकर नन्दभवन में पधारे । वहाँ उन्होंने राई और नमक हाथों में लेकर बालकृष्ण के सिर पर स्पर्शकर आशीर्वाद दिया । शंकर के हाथों का स्पर्श पाते ही नन्दलाला का रोदन रूक गया और वे हँसकर किलकारी मारने लगे । जोगी की आश्चर्यजनक महिमा देखकर नन्दरानी बड़ी प्रसन्न हुई और अपनी मोतियों की माला उन्हें दान में दी और जोगी से बोलीं- 'जोगी ! तुम इसी नन्दभवन में रहो और जब-जब मेरा लाला रोए, तब-तब दर्शन देकर उसे शान्त करते रहना । सूरदास ने इस विषय का अपने पद में भावपूर्ण वर्णन किया हैं [१]

कृष्णकुण्ड

यह सघन कदम्ब वृक्षों के भीतर एक अत्यन्त रमणीय सरोवर है जो नन्दीश्वर पर्वत की पूर्वदिशा में निकट ही अवस्थित है । श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ जल क्रीड़ा करते थे । इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोचारण के लिए जाने आने का मार्ग है । यहाँ प्यासी गऊओं को कृष्ण जलपान भी कराते थे छीत स्वामी ने गोचारण का अपने पदों में बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है ।[२] उद्धवजी जब नन्दगाँव पधारे तो रातभर नन्दभवन में श्रीनन्द-यशोदा में सांत्वना देते रहे । ब्राह्म मुहूर्त के समय उद्धवजी वहाँ से आकर इसी कुण्ड में स्नानकर कुण्ड के दक्षिणी तट पर प्रात:कालीन सन्ध्या आह्निक करने बैठे । उसी समय उन्होंने कुछ दूरी पर कदम्ब-क्यारी में अलक्षित गोपियों को देखा वे सन्ध्या- आह्निक के पश्चात् कदम्ब-क्यारी में गोपियों से मिले ।

छाछ कुण्ड और झगड़ाकी कुण्ड

कृष्णकुण्ड के पश्चिम और कुछ उत्तर की ओर थोड़ी ही दूर पर कृष्ण एवं सखा गोपियां से छाछ माँगकर पीते थे गोपियों इन्हें प्रेम से छाछ पिलाती थीं । कभी-कभी वे, मुझे पहले लेने दो, मुझे पहले लेने दो ! ऐसा कहकर परस्पर लड़ते-झगड़ते थे । इस बाल लीला के कारण इस कुण्ड का नाम छाछ कुण्ड और झगड़ा की कुण्ड पड़ा ।

सूर्यकुण्ड

यह कृष्णकुण्ड से दक्षिण की ओर राजमार्ग पर दाहिनी ओर अवस्थित है । यहाँ सूर्यनारायण कृष्ण का त्रिभंग ललितरूप दर्शन कर अधीर हो गये थे तथा कुछ देर के लिए अपनी गति भी भूल गये ।

ललिता कुण्ड

सूर्यकुण्ड से पूर्व दिशा में हरे-भरे वनों के भीतर एक बड़ा ही रमणीय सरोवर है यह ललिताजी के स्नान करने का स्थान है कभी –कभी ललिताजी किसी छल-बहाने से राधिका को यहाँ लाकर उनका कृष्ण के साथ मिलन कराती थीं । यह कुण्ड नन्दगाँव के पूर्व दिशा में है ।

प्रसंग

एक समय कृष्ण ने श्रीमती राधिका को देवर्षि नारद से सावधान रहने के लिए कहा उन्होंने कहा-देवर्षि बड़े अटपटे स्वभाव के ऋषि हैं । कभी-कभी ये बाप-बेटे, माता-पिता या पति –पत्नी में विवाद भी करा देते हैं । अत: इनसे सावधान रहना ही उचित है । किन्तु श्रीमतीजी ने इस बात को हँसकर टाल दिया । एक दिन ललिताजी वन से बेली, चमेली आदि पुष्पों का चयनकर कृष्ण के लिए एक सुन्दर फूलों का हार बना रहीं थीं । हार पूर्ण हो जाने पर वह उसे बिखेर देतीं और फिर से नया हार गूँथने लगतीं । वे ऐसा बार-बार कर रही थीं । कहीं वृक्षों की ओट से नारदजी ललिताजी के पास पहुँचे और उनसे पुन:-पुन: हारको गूँथने और बिखेरने का कारण पूछा । ललिताजी ने कहा कि मैं हार गूँथना पूर्णकर लेती हूँ तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह हार कृष्ण के लिए या तो छोटा है , या बड़ा है । इसलिए मैं ऐसा कर रही हूँ । कौतुकी नारदजी ने कहा-कृष्ण तो पास ही में खेल रहे हैं । अत: क्यों न उन्हें पास ही बिठाकर उनके गले का माप लेकर हार बनाओ ? ऐसा सुनकर ललिताजी ने कृष्ण को बुलाकर कृष्ण के अनुरूप सुन्दर हार गूँथकर कृष्ण को पहनाया । अब कृष्ण ललिताजी के साथ राधाजी की प्रतीक्षा करने लगे । क्योंकि श्रीमती राधिका ने ललिता से पहले ही ऐसा कहा था कि तुम हार बनाओ, मैं तुरन्त आ रही हूँ । किन्तु उनके आने में कुछ विलम्ब हो गया । सखियाँ उनका श्रृंगार कर रही थीं । नारदजी ने पहले से ही श्रीकृष्ण से यह वचन ले लिया था कि वे श्रीललिता और श्रीकृष्ण युगल को एक साथ झूले पर झूलते हुए दर्शन करना चाहते हैं । अत: आज अवसर पाकर उन्होंने श्रीकृष्ण को वचन का स्मरण करा कर ललिताजी के साथ झूले पर झूलने के लिए पुन:-पुन: अनुरोध करने लगे । नारदजी के पुन:-पुन: अनुरोध से राधिका की प्रतीक्षा करते हुए दोनों झूले में एक साथ बैठकर झूलने लगे । इधर देवर्षि, 'ललिता-कृष्ण की जय हो, ललिता-कृष्ण की जय हो', कीर्तन करते हुए श्रीमती राधिका के निकट उपस्थित हुए । श्रीमती राधिका ने देवर्षि नारदजी को प्रणाम कर पूछा- देर्वषि ! आज आप बड़े प्रसन्न होकर ललिता-कृष्ण का जयगान कर रहे हैं । कुछ आश्चर्य की बात अवश्य है । आखिर बात क्या है ? नारदजी मुस्कराते हुए बोले-'अहा ! क्या सुन्दर दृश्य है । कृष्ण सुन्दर वनमाला धारणकर ललिताजी के साथ झूल रहे हे। आपको विश्वास न हो तो आप स्वयं वहाँ पधारकर देखें । परन्तु श्रीमतीजी को नारदजी के वचनों पर विश्वास नहीं हुआ । मेरी अनुपस्थिति में ललिताजी के साथ झूला कैसे सम्भव है ? वे स्वयं उठकर आई और दूर से उन्हें झूलते हुए देखा अब तो उन्हें बड़ा रोष हुआ । वे लौट आई और अपने कुञ्ज में मान करके बैठ गई । इधर कृष्ण राधाजी के आने में विलम्ब देखकर स्वयं उनके निकट आये उन्होंने नारदजी की सारी करतूतें बतलाकर किसी प्रकार उनका मन शान्त किया तथा उन्हें साथ लेकर झूले पर झूलने लगे । ललिता और विशाखा उन्हें झुलाने लगीं । यह मधुर लीला यहीं पर सम्पन्न हुई थी कुण्ड के निकट ही झूला झूलने का स्थान तथा नारद कुण्ड है ।

उद्धवक्यारी या विशाखा-कुण्ड

ललिताकुण्ड से दक्षिण-पूर्व दिशा में कुछ ही दूर कदम्ब-क्यारी या उद्धव-क्यारी स्थित है । यथार्थ में यह विशाखाजी का कुञ्ज है । पास ही विशाखा कुण्ड है । विशाखाजी कदम्ब वृक्षों से घिरे हुए निर्जन रमणीय वन में राधाकृष्ण युगल का परस्पर मिलन कराती थी । कभी-कभी यहाँ कृष्ण सहेलियों को लेकर राधाजी के साथ रास भी करते थे । रासवेदी भी यहाँ दर्शनीय है । सरोवर के स्वच्छ एवं सुगन्धित जल में नाना-प्रकार से जलविहार भी करते थे । श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर सारा ब्रज विरह-समुद्र में डूब गया । गोप-गोपियों की बात ही क्या ? पशु, पक्षी भी भोजन-पान सब कुछ त्यागकर कृष्ण विरह में व्याकुल हो गये । कृष्ण की प्रियतम गोपियाँ अक्रूर के रथ के साथ कृष्ण के पीछे-पीछे यहाँ तक आकर बेसुध होकर गिर पड़ी । वे फिर कभी घर नहीं लौटीं । अलक्षित रूप में विरह से व्याकुल होकर राधाजी इसी गहन वन में किसी प्रकार कृष्ण के आने की आशा में दिन गिनती थीं । उनके प्राण कण्ठतक आ गये थे उसी समय कृष्ण के दूत उद्धव जी विरह व्यथित गोपियों को सांत्वना देने के लिए यहाँ पधारे । किन्तु श्रीमती राधिका की वरह-दशा देखकर उन्होंने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया । परन्तु कुछ कह नहीं सके । इसी समय विरह व्याकुल श्रीमती राधिका एक भँवरे को कृष्ण का दूत समझकर दिव्योन्माद में चित्रजल्प, प्रजल्प आदि करने लगीं । वे भँवरे को कृष्ण का दूत समझकर कभी डाँटती-फटकारतीं, कभी उलाहना देतीं, कभी उपदेश देती, कभी दूत का सम्मान करतीं तो कभी उसे प्रियतम का कुशलक्षेम पूछतीं । उसे देख-सुनकर उद्धवजी आश्चर्यचकित हो गये । आये थे गुरू बनकर उपदेश देने के लिए किन्तु, शिष्य बन गये । उन्होंने सांत्वना देने के लिए कृष्ण कुछ सन्देश गोपियों को सुनाये । किन्तु उससे गोपियों की विरह वेदना और भी तीव्र हो गई । गोपियां ने कहा -ऊधो मन न भयो दस बीस, एक हुतो सो गयो श्याम संग, को आराधे ईश । और भी, ऊधो जोग कहाँ राखें, यहाँ रोम रोम श्याम है । अन्त में उद्धवजी ने गोपियों के चरणों की धूल ग्रहण करने के लिए ब्रज में गुल्म, लता, घास के रूप में जन्म ग्रहण करने की अभिलाषा करते हुए गोपियों की चरण धूलि की वन्दना की- [३]मेरे लिये तो यह परम सौभाग्य की बात होगी कि मैं इस वृन्दावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि-जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ । अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन ब्रजाग्ङनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी इनकी चरण-रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा धन्य हैं ये गोपियाँ ! देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन सम्बन्धियों तथा लोक-वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके, इन्होंने भगवान् की पदवी-उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है ।


नन्दबाबा के ब्रज में रहने वाली ब्रजाग्ङनाओं की चरण-धूलि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ । अहा इन गोपियों ने भगवान् कृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोकों को पवित्र कर रहा है और पवित्र करता रहेगा । [४] यह लीला स्थली एक ओर महासम्भोग रसमयी तथा दूसरी ओर महाविप्रलम्भ रसमयी भूमि है । इसके दर्शन और स्पर्श से साधक का जीवन कृतार्थ हो जाता है ।

पूर्णमासीजी की गुफा

विशाखा कुञ्ज या कदम्ब-क्यारी के दक्षिण-पूर्व में नन्दगाँव से एक मील की दूरी पर पूर्णमासीजी का कुण्ड है यहाँ पूर्णमासीजी की कुटीर है । ये कृष्णलीला के समय वृद्ध तपस्विनी के रूप में गेरूए वस्त्र धारण कर गाँव से दूर निर्जन स्थान में रहती थीं । नन्दादि सभी ब्रजवासी इनके प्रति बड़ी ही श्रद्धा रखते थे तथा इनका आशीर्वाद लेकर ही कोई कार्य करते थे ये पहले अवन्तीपुरी में अपने पति पुत्र के साथ रहती थी । सान्दीपति मुनि इनके पुत्र हैं । मधुमंगल सान्दीपति के पुत्र और नान्दीमुखी सान्दीपनि मुनि की कन्या थी पूर्णमासीजी कृष्ण के जन्म से पूर्व ही अपने पौत्र मधुमंगल और पौत्रीनान्दीमुखी को साथ लेकर नन्दगाँव में चली आई थीं । वे प्रतिदिन प्रात:काल नन्दभवनमें आकर कृष्ण का दर्शन करती थीं । तथा कृष्णको आशीर्वाद देतीं थी । ये श्रीकृष्ण की स्वरूपशक्तिगत समष्टि लीलाशक्ति की मूर्त विग्रह-स्वरूपिणी हैं । प्रकट लीला में देवर्षि नारदजी की शिष्या हैं तथा श्रीराधाकृष्ण युगल की सारी लीलाओं की पुष्टि करती हैं ।

नान्दीमुखीका निवास-स्थान

पूर्णमासी गुफा के पास ही नान्दीमुखी का निवास स्थान है । ये पूर्णमासीजी की पौत्री हैं तथा कृष्णलीला की विविध प्रकार से पुष्टिकारिणी हैं ।

डोमन वन और रूनकी-झुनकी कुण्ड

पूर्णमासीजी की गुफा से लगा हुआ डोमनवन है । डोमनवन में ही रूनकी-झुनकी कुण्ड हैं । डोमन का तात्पर्य दो मन से है । यहाँ रूनकी-झुनकी सखियों का कुञ्ज हैं । ये दोनों सखियाँ नाना प्रकार के बहाने बनाकर यहाँ पर राधाकृष्ण मिलन कराती थीं । तथा दोनों को झूले पर बैठाकर आनन्द से झुलाती थीं । यहाँ राधाकृष्ण दोनों का मन मिलने के कारण यह डोमन नाम से प्रसिद्ध है । किसी भक्त ने प्रेम भरे अपने पद में इसका वर्णन किया है-

इत सों आई कुमरि किशोरी उत सों नन्दकिशोर ।

दो मिल वन क्रीड़ा करत बोलत पंछी मोर ।।

टीका-टिप्पणी

  1. चल रे जोगी नन्दभवन में यसुमति तोहि बुलावे । लटकत लटकत संकर आवै मनमें मोद बढ़ावे ।। नन्दभवन में आयो जोगी राई नोन कर लीनो । बार फेर लाला के ऊपर हाथ शीश पर दीनो ।। विथा भई अब दूर बदन की किलक उठे नन्दलाला । खुशी भई नन्दजूकी रानी दीनी मोतियन माला ।। रहुरे जी नन्दभवन में ब्रज को बासो कीजै । जब जब मेरो लाला रोवै तब तब दर्शयन दीजै ।। तुम तो जोगी परम मनोहर तुमको वेद बखाने । (शिवबोले) बूढ़ो बाबा नाम हमारो सूरश्याम मोहि जानें ।।
  2. आगे गाय पाछैं गाय इत गाय उत गाय । गोविन्द हो गायनहों में बसवों को भावैं । । गायन के संग धावें गायन में सचुपावें । गायन की खुर रज अंगसों लगावें ।। गायन सों व्रजछायौ वैकुण्ड हु बिसरायौ । गायन के हेत कर लै उठावें ।। छीत स्वामी गिरिधारी विट्ठलेष वपुधारी । ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवें ।।
  3. आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् । या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथञ्च हित्वा भेजुमुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ।।
  4. वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश: । यासां हरिकथोद्रीतं पुनाति भुवनत्रयम् ।। श्रीमद्भागवत 10/47/61,63