वाल्मीकि

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वाल्मीकि / Valmiki

चींटियों की बाँबी

संस्कृत भाषा के आदि कवि और आदि काव्य 'रामायण' के रचयिता के रूप में वाल्मीकि की प्रसिद्धि है। इनके पिता महर्षि कश्यप के पुत्र वरूण या आदित्य थे। उपनिषद् के विवरण के अनुसार ये भी अपने भाई भृगु की भांति परम ज्ञानी थे। एकबार ध्यान में बैठे हुए वरूण-पुत्र के शरीर को दीमकों ने अपना ढूह (बांबी) बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब ये दीमक-ढूह से जिसे वाल्मीकि कहते हैं, बाहर निकले तो लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे।

तमसा नदी के तट पर व्याध द्वारा कोंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार डालने पर वाल्मीकि के मुंह से व्याध के लिए शाप के जो उद्गार निकले वे लौकिक छंद में एक श्लोक के रूप में थे। इसी छंद में उन्होंने नारद से सुनी राम की कथा के आधार पर रामायण की रचना की। कुछ लोगों का अनुमान है कि हो सकता है, महाभारत की भांति रामायण भी समय-समय पर कई व्यक्तियों ने लिखी हो और अतिम रूप किसी एक ने दिया हो और वह वाल्मीकि की शिष्य परंपरा का ही हो।

जिस वाल्मीकि के डाकू का जीवन बिताने का उल्लेख मिलता है, उसे रामायण के रचयिता से भिन्न माना जाता है। पौराणिक विवरण के अनुसार यह रत्नाकर नाम का दस्यु था और यात्रियों को मारकर उनके धन से अपना परिवार पालता था। एक दिन नारदजी भी इनके चक्कर में पड़ गए। जब रत्नाकर ने उन्हें भी मारना चाहा तो नारद ने पूछा-जिस परिवार के लिए तुम इतने अपराध करते हो, क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार है ? रत्नाकर नारद को पेड़ से बांधकर इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए घर गया। वह यह जानकर स्तब्ध रह गया कि परिवार का कोई भी व्यक्ति उसके पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं है। लौटकर उसने नारद के चरण पकड़ लिए और डाकू का जीवन छोड़कर तपस्या करने लगा। इसी में उसके शरीर को दीमकों ने अपना घर बनाकर ढक लिया, जिसके कारण यह भी वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

एक अन्य विवरण के अनुसार इसका नाम अग्निशर्मा था और इसे हर बात उलटकर कहने में रस आता था। इसलिए ऋषियों ने डाकू जीवन में इसे 'मरा' शब्द का जाप करने की राय दी। तेरह वर्ण तक मरा रटते-रटते यही 'राम' हो गया। बिहार के चंपारन जिले का भैंसा लोटन गांव वाल्मीकि का आश्रम था जो अब वाल्मीकि नगर कहलाता है।