वासिष्ठ धर्मसूत्र

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वासिष्ठ धर्मसूत्र/ vasishth Dharmsutra

भट्ट कुमारिल ने वासिष्ठ धर्मसूत्र का सम्बन्ध श्रग्वेद से स्थापित किया है।<balloon title="तन्त्रवार्तिक, पृष्ठ 179" style=color:blue>*</balloon> म. म. काणे ने भी इससे सहमति व्यक्त की है, किन्तु उनकी मान्यतानुसार ऋग्वेदियों ने इसे अपने कल्प के पूरक रूप में बाद में ही स्वीकार किया।<balloon title="धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग" style=color:blue>*</balloon> धर्मसूत्रगत उपनयन, अनध्याय, स्नातक के व्रतों और पञ्चमहायज्ञों से सम्बद्ध प्रकरणों का शांखायन गृह्यसूत्रगत तद्विषयक सामग्री से बहुत सादृश्य है। आश्वलायन गृह्यसूत्र के भी कुछ अंशों से इसकी समानता है। इनके अतिरिक्त पारस्कर गृह्यसूत्र के कतिपय सूत्रों का साम्य भी इसके साथ परिलक्षित होता है। धर्मसूत्रों में गौतम धर्मसूत्र के साथ इसका विशेष सम्बन्ध है। गौतम के सोलहवें और वासिष्ठ के दूसरे अध्यायों में अक्षरशः साम्य दिखलाई देता है।

वासिष्ठ धर्मसूत्र की उपलब्ध पाण्डुलिपियों और प्रकाशित संस्करणों में स्वरूपगत पुष्न्कल वैभिन्न्य है। जीवानंद के संस्करण में लगभग 21 अध्याय हैं तथा आनन्दाश्रम और डॉ. फ्यूहरर् के संस्करणों में 30 अध्याय हैं। इसकी संरचना प्रायः पद्यात्मक है। सूत्रों का परिमाण बहुत कम है। बहुसंख्यक प्राचीन व्याख्याकारों, यथा विश्वरूप, मेधातिथि प्रभृति ने वासिष्ठ धर्मसूत्र को अत्यन्त आदरपूर्वक उद्धृत किया है। इसमें प्रतिपादित विषयों का विवरण इस प्रकार हैः–
अध्याय-1

धर्म का लक्षण, आर्यावर्त्त की सीमा, पाप का विचार, तीनों वर्गों की स्त्रियों के साथ ब्राह्मण के विवाह का विधान, छह प्रकार के विवाह, लोकव्यवहार पर राजा का नियन्त्रण, उपज के षष्ठांश की राजकर रूपता।

अध्याय-2

चातुर्वर्ण्य विचार, आचार्य का महत्व, दरिद्रता की स्थिति में क्षा़त्र और वैश्यवृत्ति के स्वीकरण की मान्यता, कुसीद (ब्याज लेने) की निन्दा।

अध्याय-3

अज्ञ ब्राह्मण की निन्दा, गुप्त धन प्राप्ति की विधि, आत्मरक्षा कें लिए आततायी के वध की अनुज्ञा, पंक्तिपावनी परिषद्, आचमन तथा शौचादि के नियम, विभिन्न द्रव्यों की संस्कार–विधि।

अध्याय-4

चातुर्वर्ण्यविधान, संस्कारों का महत्व, अतिथि सत्कार, मधुपर्क, जन्म और मृत्यु विषयक अशौच।

अध्याय-5

स्त्रियों की निर्भरता और रजस्वला स्थिति के नियम।

अध्याय-6

आचार की प्रशंसा, वेग, संवेग तथा मलमूत्रादि त्याग के लिए नियम, ब्राह्मण की नीति, शूद्र की विशेषता, शूद्र के घर में खाने की निनदा, व्यवहार नियम तथा उत्तम सन्तान का नियम।

अध्याय-7

चतुराश्रम और ब्रह्चारी के कर्त्तव्य।

अध्याय-8

गृहस्थ का धर्म और अतिथि–अर्चा की विधि।

अध्याय-9

अरण्यवासी तपस्वी (वानप्रस्थ) के नियम।

अध्याय-10

सन्यासी के नियम।

अध्याय-11

स्वतन्त्र सम्मान का अधिकारी, भोजन परिवेशन का क्रम, श्राद्ध के नियम और काल, उपनयन, अग्निहोत्र के नियम, समय, दण्ड, मेखला आदि।

अध्याय-12

स्नातक व्यवहार का विधान।

अध्याय-13

उपाक्रम (वेदपाठ आरम्भ) के नियम, अनध्याय के नियम, अभिवादन विधि, अभिवादन में पौर्वापर्य विधान, मार्गगमन के नियम।

अध्याय-14

भक्ष्याभक्ष्य निर्णय।

अध्याय-15

पोष्यपुत्रजन्य नियम।

अध्याय-16

न्याय की व्यवस्था, त्रिविध प्रमाणपत्र, साक्षी और अधिकार, जबर्दस्ती अधिकार करने का नियम, राजा के उपदेश, साक्षी होने की योग्यता, मिथ्या नियम, संकल्पकारी को क्षमा करने की विधि।

अध्याय-17

औरस पुत्र की प्रशंसा, क्षेत्रज पुत्र के विषय में मतभेद, 12 प्रकार के पुत्र, भाइयों के मध्य सम्पत्ति का बँटवारा, व्यस्क कन्या के विवाह का नियम, उत्तराधिकार–नियम।

अध्याय-18

चाण्डाल जैसी प्रतिलोम जाति, शूद्र के लिए वेदश्रवण और वेदाध्ययन का निषेध।

अध्याय-19

राजा के कर्त्तव्य, रक्षा और दण्ड।

अध्याय-20

ज्ञात अथवा अज्ञात रूप में कृत पाप का प्रायश्चित्त।

अध्याय-21

ब्राह्मण स्त्री के साथ व्यभिचार करने तथा गौ–हत्या करने का प्रायश्चित्त।

अध्याय-22

अभक्ष्य–भक्षण जनित पाप का प्रयश्चित्त।

अध्याय-23

ब्रह्मचारी के द्वारा मैथुन करने तथा सुरापान करने पर प्रायश्चित्त।

अध्याय-24

कृच्छ्र और अतिकृच्छ्र व्रत।

अध्याय-25

गुप्त तपस्या और लघु पापों के लिए व्रताचरण।

अध्याय-26,27

प्राणायम की उपादेयता, वेदमन्त्र तथा गायत्री की उपादेयता।

अध्याय-28

स्त्रियों की प्रशंसा, अघमर्षण सूक्त और दान की प्रशंसा।

अध्याय-29

दान, ब्रह्चर्य और तपस्या के सुफल।

अध्याय-30

सत्य, धर्म और ब्राह्मणों की स्तुति।