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श्री विश्वामित्र जी को भगवान श्री[[राम]] का दूसरा गुरू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये दण्डकारण्य में यज्ञ कर रहे थे। [[रावण]] के द्वारा वहाँ नियुक्त [[ताड़का]] [[सुबाहु]] और [[मारीच]] जैसे- राक्षस इनके यज्ञ में बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे। विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से जान लिया कि त्रैलोक्य को भय से त्राण दिलाने वाले परब्रह्म श्रीराम का अवतार [[अयोध्या]] में हो गया है। फिर ये अपनी यज्ञ रक्षा के लिये श्री राम को महाराज [[दशरथ]] से माँग ले आये। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हुई। इन्होंने भगवान श्री राम को अपनी विद्याएँ प्रदान कीं और उनका [[मिथिला]] में श्री [[सीता]] जी से विवाह सम्पन्न कराया। महर्षि विश्वामित्र आजीवन पुरूषार्थ और तपस्या के मूर्तिमान प्रतीक रहे। [[सप्तऋषि]] मण्डल में ये आज भी विद्यमान हैं।
 
श्री विश्वामित्र जी को भगवान श्री[[राम]] का दूसरा गुरू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये दण्डकारण्य में यज्ञ कर रहे थे। [[रावण]] के द्वारा वहाँ नियुक्त [[ताड़का]] [[सुबाहु]] और [[मारीच]] जैसे- राक्षस इनके यज्ञ में बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे। विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से जान लिया कि त्रैलोक्य को भय से त्राण दिलाने वाले परब्रह्म श्रीराम का अवतार [[अयोध्या]] में हो गया है। फिर ये अपनी यज्ञ रक्षा के लिये श्री राम को महाराज [[दशरथ]] से माँग ले आये। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हुई। इन्होंने भगवान श्री राम को अपनी विद्याएँ प्रदान कीं और उनका [[मिथिला]] में श्री [[सीता]] जी से विवाह सम्पन्न कराया। महर्षि विश्वामित्र आजीवन पुरूषार्थ और तपस्या के मूर्तिमान प्रतीक रहे। [[सप्तऋषि]] मण्डल में ये आज भी विद्यमान हैं।
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==क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व==
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पुरूषार्थ, सच्ची लगन, उद्यम और तप की गरिमा के रूप में महर्षि विश्वामित्र के समान शायद ही कोई हो। इन्होंने अपने पुरूषार्थ से, अपनी तपस्या के बल से क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व प्राप्त किया, राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने, देवताओं और ऋषियों के लिये पूज्य बन गये और उन्हें सप्तर्षियों में अन्यतम स्थान प्राप्त हुआ। साथ ही सबके लिये वे वन्दनीय भी बन गये। इनकी अपार महिमा है।
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इन्हें अपनी समाधिजा प्रज्ञा से अनेक मन्त्रस्वरूपों का दर्शन हुआ, इसलिये ये 'मन्त्रद्रष्टा ऋषि' कहलाते हैं।
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*[[ऋग्वेद]] के दस मण्डलों में तृतीय मण्डल, जिसमें 62 सूक्त हैं, इन सभी सूक्तों (मन्त्रों का समूह) के द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र ही हैं। इसीलिये तृतीय मण्डल 'वैश्वामित्र-मण्डल' कहलाता है। इस मण्डल में [[इन्द्र]], [[अदिति]], [[अग्निदेव]], [[उषा]], [[अश्विनी]] तथा [[ऋभु]] आदि देवताओं की स्तुतियाँ हैं और अनेक ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म आदि की बातें विस्तृत हैं, अनेक मन्त्रों में गो-महिमा का वर्णन है। तृतीय मण्डल के साथ ही प्रथम, नवम तथा दशम मण्डल की कतिपय ऋचाओं के द्रष्टा विश्वामित्र के मधुच्छन्दा आदि अनेक पुत्र हुए हैं।
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==वैश्वामित्र-मण्डल का वैशिष्टय==
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वैसे तो वेद की महिमा अनन्त है ही, किंतु महर्षि विश्वामित्र जी के द्वारा दृष्ट यह तृतीय मण्डल विशेष महत्त्व का है, क्योंकि इसी तृतीय मण्डल में ब्रह्म-[[गायत्री]] का जो मूल मन्त्र है, वह उपलब्ध होता है। इस ब्रह्म-गायत्री-मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्य महर्षि विश्वामित्र ही हैं। ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है-
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'तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्॥'<br />
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यदि महर्षि विश्वामित्र न होते तो यह मन्त्र हमें उपलब्ध न होता, उन्हीं की कृपा से- साधना से यह गायत्री-मन्त्र प्राप्त हुआ है। यह मन्त्र सभी वेदमन्त्रों का मूल है- बीज है, इसी से सभी मन्त्रों का प्रादुर्भाव हुआ। इसीलिये गायत्री को 'वेदमाता' कहा जाता है। यह मन्त्र सनातन परम्परा के जीवन में किस तरह अनुस्यूत है तथा इसकी कितनी महिमा है, यह तो स्वानुभव-सिद्ध है। उपनयन-संस्कार में गुरूमुख द्वारा इसी मन्त्र के उपदेश से द्विजत्व प्राप्त होता है और नित्य-संध्याकर्म में मुख्य रूप से प्राणायाम, सूर्योपस्थान आदि द्वारा गायत्री-मन्त्र के जप की सिद्धि में ही सहायता प्राप्त होती है। इस प्रकार यह गायत्री-मन्त्र महर्षि विश्वामित्र की ही देन है और वे इसके आदि आचार्य हैं। अत: गायत्री-उपासना में इनकी कृपा प्राप्त करना भी आवश्यक है। इन्होंने गायत्री-साधना तथा दीर्घकालीन संध्योपासना की तप:शक्ति से काम-क्रोधादि विकारों पर विजय प्राप्त की और ये तपस्या के आदर्श बन गये।
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महर्षि ने केवल वैदिक मन्त्रों के माध्यम से ही गायत्री-उपासना पर बल दिया, अपितु उन्होंने अन्य जिन ग्रन्थों का प्रणयन किया, उनमें भी मुख्यरूप से गायत्री-साधना का ही उपदेश प्राप्त होता है।
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*'विश्वामित्रकल्प,'
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*'विश्वामित्रसंहिता' तथा
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*'विश्वामित्रस्मृति' आदि उनके मुख्य ग्रन्थ हैं। इनमें भी सर्वत्र गायत्रीदेवी की आराधना का वर्णन दिया गया है और यह निर्देश है कि अपने अधिकारानुसार गायत्री-मन्त्र के जप से सभी सिद्धियाँ तो प्राप्त हो ही जाती हैं। इसीलिये केवल इस मन्त्र के जप कर लेने से सभी मन्त्रों का जप सिद्ध हो जाता है।
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*महामुनि विश्वामित्र तपस्या के धनी हैं। इन्हें गायत्री-माता सिद्ध थीं और इनकी पूर्ण कृपा इन्हंो प्राप्त थी। इन्होंने नवीन सृष्टि तथा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग आदि भेजने और ब्रह्मर्षिपद प्राप्त करने-सम्बन्धी जो भी असम्भव कार्य किये, उन सबके पीछे गायत्री-जप एवं संध्योपासना का ही प्रभाव था।
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*भगवती गायत्री कैसी हैं, उनका क्या स्वरूप है, उनकी आराधना कैसे करनी चाहिये, यह सर्वप्रथम आचार्य विश्वामित्र जी ने ही हमें बताया है। उन्होंने भगवती गायत्री को सर्वस्वरूपा बताया है और कहा है कि यह चराचर जगत स्थूल-सूक्ष्म भेद से भगवती का ही विग्रह है, तथापि उपासना और ध्यान की दृष्टि से उनका मूल स्वरूप कैसा है- इस विषय में उनके द्वारा रचित निम्न श्लोक द्रष्टव्य है, जो आज भी गायत्री के उपासकों तथा नित्य संध्या- वन्दनादि करने वालों के द्वारा ध्येय होता रहता है-
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==गायत्री-माता का ध्यान==
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मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणैर्युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम्।
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गायत्रीं वरदाभयांकुशकशा: सुभ्रं कपालं गुणं शंख चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥  (देवीभागवत 12।3)<br />
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अर्थात 'जो मोती मूँगा, सुवर्ण, नीलमणि तथा उज्ज्वल प्रभा के समान वर्णवाले (पाँच) मुखों से सुशोभित हैं। तीन नेत्रों से जिनके मुख की अनुपम शोभा होती है। जिनके रत्नमय मुकुट में चन्द्रमा जड़े हुए हैं, जो चौबीस वर्णों से युक्त हैं तथा जो वरदायिनी गायत्री अपने हाथों में अभय और वरमुद्राएँ, अंकुश, पाश, शुभ्रकपाल, रस्सी, शंख, चक्र और दो कमल धारण करती हैं, हम उनका ध्यान करते हैं'।
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*इस प्रकार महर्षि विश्वामित्र का इस जगत पर महान उपकार ही है। महिमा के विषय में इससे अधिक क्या कहा जा सकता है कि साक्षात भगवान जिन्हें अपना गुरू मानकर उनकी सेवा करते थे। महर्षि ने सभी शास्त्रों तथा धनुर्विद्या के आचार्य श्री[[राम]] को बला, अतिबला आदि विद्याएँ प्रदान कीं, सभी शास्त्रों का ज्ञान प्रदान किया और भगवान श्रीराम की चिन्मय लीलाओं के वे मूल-प्रेरक रहे तथा लीला-सहचर भी बने।
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*क्षमा की मूर्ति [[वसिष्ठ]] के साथ विश्वामित्र का जो विवाद हुआ, प्रतिस्पर्धा हुई, वह भी लोकशिक्षा का ही एक रूप है। इस आख्यान से गो-महिमा, त्याग का आदर्श, क्षमा की शक्ति, तपस्या की शक्ति, उद्यम की महिमा, पुरूषार्थ एवं प्रयत्न की दृढ़ता, कर्मयोग, सच्ची लगन और निष्ठा एवं दृढ़तापूर्वक कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। इस आख्यान से लोक को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि काम, क्रोध आदि साधना के महान बाधक हैं, जब तक व्यक्ति इनके मोहपाश में रहता है; उसका अभ्युदय सम्भव नहीं, किंतु जब वह इन आसुरी सम्पदाओं का परित्याग कर दैवी-सम्पदा का आश्रय लेता है तो वह सर्वपूज्य, सर्वमान्य तथा भगवान का प्रियपात्र हो जाता है। महर्षि वसिष्ठ से जब वे परास्त हो गये, तब उन्होंने तपोबल का आश्रय लिया, काम-क्रोध के वशीभूत होने का उन्हें अनुभव हुआ, अन्त में सर्वस्व त्याग कर वे अनासक्त पथ के पथिक बन गये और जगद्वन्द्य हो गये। [[ब्रह्मा]] जी स्वयं उपस्थित हुए, उन्होंने उन्हें बड़े आदर से ब्रह्मर्षिपद प्रदान किया। महर्षि वसिष्ठ ने उनकी महिमा का स्थापन किया और उन्हें हृदय से लगा लिया। दो महान संतों का अद्भुत मिलन हुआ। देवताओं ने पुष्पवृष्टि की।
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*सत्यधर्म के आदर्श राजर्षि [[हरिश्चन्द्र]] का नाम कौन नहीं जानता? किंतु महर्षि विश्वामित्र की दारूण परीक्षा से ही हरिश्चन्द्र की सत्यता में निखार आया, उस वृत्तान्त में महर्षि अत्यन्त निष्ठुर से प्रतीत होते हैं, किंतु महर्षि ने हरिश्चन्द्र को सत्यधर्म की रक्षा का आदर्श बनाने तथा उनकी कीर्ति को सर्वश्रुत एवं अखण्ड बनाने के लिये ही उनकी इतनी कठोर परीक्षा ली। अन्त में उन्होंने उनका राजैश्वर्य उन्हें लौटा दिया, [[रोहिताश्व]] को जीवित कर दिया और महर्षि विश्वामित्र की परीक्षा रूपी कृपा प्रसाद से ही हरिश्चन्द्र राजा से राजर्षि हो गये, सबके लिये आदर्श बन गये।
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*ऐतरेय ब्राह्मण आदि में भी हरिश्चन्द्र के आख्यान तथा शुन:शेप के आख्यान में महर्षि विश्वामित्र की महिमा का वर्णन आया है।
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*ऋग्वेद के तृतीय मण्डल में 30वें, 33वें तथा 53वें सूक्त में महर्षि विश्वामित्र का परिचयात्मक विवरण आया है। वहाँ से ज्ञान होता है कि ये कुशिक गोत्रोत्पन्न कौशिक थे ऋग्वेद(3।26।2-3)। ये कौशिक लोग महान ज्ञानी थे, सारे संसार का रहस्य जानते थे (3।29।15)। 53वें सूक्त के 9वें मन्त्र से ज्ञात होता है कि महर्षि विश्वामित्र अतिशय सामर्थ्यशाली, अतीन्द्रियार्थद्रष्टा, देदीप्यमान तेजों के जनयिता और अध्वर्यु आदि में उपदेष्टा हैं तथा राजा सुदास के यज्ञ के आचार्य रहे हैं।
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महर्षि विश्वामित्र के आविर्भाव का विस्तृत आख्यान पुराणों तथा महाभारत आदि में आया है। तदनुसार कुशिकवंश में उत्पन्न चन्द्रवंशी महाराज गाधिकी सत्यवती नामक एक श्रेष्ठ कन्या हुई । जिसका विवाह मुनिश्रेष्ठ भृगुपुत्र ऋचीक के साथ सम्पन्न हुआ। ऋचीक ने पत्नी की सेवा से प्रसन्न होकर अपने तथा महाराज गाधि को पुत्रसम्पन्न होने के लिये यज्ञिय चरूको अभिमन्त्रित कर सत्यवती को प्रदान करते हुए कहा- 'देवि! यह दिव्यचरू दो भागों में विभक्त है। इसके भक्षण से यथेष्ट पुत्र की प्राप्ति होगी। इसका एक भाग तुम ग्रहण करना और दूसरा भाग अपनी माता को दे देना। इससे तुम्हें एक श्रेष्ठ महातपस्वी पुत्र प्राप्त होगा और तुम्हारी माता को क्षत्रिय शक्तिसम्पन्न तेजस्वी पुत्र होगा।' सत्यवती यह दोनों चरू-भाग प्राप्त कर बड़ी प्रसन्न हुईं।
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अपनी श्रेष्ठ पत्नी सत्यवती को ऐसा निर्देश देकर महर्षि ऋचीक तपस्या के लिये अरण्य में चले गये। इसी समय महाराज गाधि भी तीर्थदर्शन के प्रसंगवश अपनी कन्या सत्यवती का समाचार जानने आश्रम में आये। इधर सत्यवती ने पति द्वारा प्राप्त चरू के दोनों भाग माता को दे दिये और दैवयोग से माता द्वारा चरू-भक्षण में विपर्यय हो गया। जो भाग सत्यवती को प्राप्त होना था, उसे माता ने ग्रहण कर लिया और जो भाग माता के लिये उद्दिष्ट था, उसे सत्यवती ने ग्रहण कर लिया। ऋषि-निर्मित चरू का प्रभाव अक्षुण्ण था, अमोघ था। चरू के प्रभाव से गाधि-पत्नी तथा देवी सत्यवती- दोनों में गर्भ के चिह्न स्पष्ट होने लगे।
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इधर ऋचीक मुनि ने योगबल से जान लिया कि चरूभक्षण में विपर्यय हो गया है। यह जानकर सत्यवती निराश हो गयीं, परंतु मुनि ने उन्हें आश्वस्त किया। यथासमय सत्यवती की परम्परा में पुत्ररूप में जमदग्नि पैदा हुए और उन्हीं के पुत्र परशुराम हुए। दुसरी ओर गाधि-पत्नी ने चरू के प्रभाव से दिव्य ब्रह्मशक्ति-सम्पन्न महर्षि विश्वामित्र के अनेक पुत्र-पौत्र हुए, जिनसे कुशिकवंश विख्यात हुआ। ये गोत्रकार ऋषियों में परिगणित हैं। आज भी सप्तर्षियों में स्थित होकर महर्षि विश्वामित्र जगत के कल्याण में निरत हैं।
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०६:५०, २२ अक्टूबर २००९ का अवतरण

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महर्षि विश्वामित्र / Vishvamitra

महर्षि विश्वामित्र महाराज गाधि के पुत्र थे। कुशवंश में पैदा होने के कारण इन्हें कौशिक भी कहते हैं। ये बड़े ही प्रजापालक तथा धर्मात्मा राजा थें एक बार ये सेना को साथ लेकर जंगल में शिकार खेलने के लिये गये। वहाँ पर ये महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर पहुँचे। महर्षि वसिष्ठ नु इनसे इनकी तथा राज्य की कुशल-क्षेम पूछी और सेनासहित आतिथ्य-सत्कार स्वीकार करने की प्रार्थना की।
विश्वामित्र ने कहा- 'भगवन! हमारे साथ लाखों सैनिक हैं। आपने जो फल-फूल दिये, उसी से हमारा सत्कार हो गया। अब हमें जाने की आज्ञा दें।'
महर्षि वसिष्ठ ने उनसे बार-बार पुन: आतिथ्य स्वीकार करने का आग्रह किया। उनके विनय को देखकर विश्वामित्र ने अपनी स्वीकृति दे दी। महर्षि वसिष्ठ ने अपने योगबल और कामधेनु की सहायता से विश्वामित्र को सैनिकों सहित भलीभाँति तृप्त कर दिया। कामधेनु के विलक्षण प्रभाव से विश्वामित्र चकित हो गये। वह कामधेनु को अपने साथ ले जाने लगे। कामधेनु ने अपने प्रभाव से लाखों सैनिक पैदा किये। विश्वामित्र की सेना भाग गयी और वे पराजित हो गये। इससे विश्वामित्र को बड़ी ग्लानि हुई। उन्होंने अपना राज-पाट छोड़ दिया। वे जंगल में जाकर ब्रह्मर्षि होने के लिये कठोर तपस्या करने लगे।


तपस्या करते हुए सबसे पहले मेनका अप्सरा के माध्यम से विश्वामित्र के जीवन में काम का विघ्न आया। ये सब कुछ छोड़कर मेनका के प्रेम में डूब गये। जब इन्हें होश आया तो इनके मान में पश्चात्ताप का उदय हुआ। ये पुन: कठोर तपस्या में लगे और सिद्ध हो गये। काम के बाद क्रोध ने भी विश्वामित्र को पराजित किया। राजा त्रिशंकु सदेह स्वर्ग जाना चाहते थे। यह प्रकृति के नियमों के विरूद्ध होने के कारण वसिष्ठ जी ने उनका कामनात्मक यज्ञ कराना स्वीकार नहीं किया। विश्वामित्र के तप का तेज उस समय सर्वाधिक था। त्रिशंकु विश्वामित्र के पास गये। वसिष्ठ ने पुराने वैर को स्मरण करके विश्वामित्र ने उनका रा कराना स्वीकार कर लिया। सभी ऋषि इस यज्ञ में आये, किन्तु वसिष्ठ के सौ पुत्र नहीं आये। इस पर क्रोध के वशीभूत होकर विश्वामित्र ने उन्हें मार डाला। अपनी भयंकर भूल का ज्ञान होने पर विश्वामित्र ने पुन: तप किया और क्रोध पर विजय करके ब्रह्मर्षि हुए। सच्ची लगन और सतत उद्योग से सब कुछ सम्भव है, विश्वामित्र ने इसे सिद्ध कर दिया।


श्री विश्वामित्र जी को भगवान श्रीराम का दूसरा गुरू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये दण्डकारण्य में यज्ञ कर रहे थे। रावण के द्वारा वहाँ नियुक्त ताड़का सुबाहु और मारीच जैसे- राक्षस इनके यज्ञ में बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे। विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से जान लिया कि त्रैलोक्य को भय से त्राण दिलाने वाले परब्रह्म श्रीराम का अवतार अयोध्या में हो गया है। फिर ये अपनी यज्ञ रक्षा के लिये श्री राम को महाराज दशरथ से माँग ले आये। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हुई। इन्होंने भगवान श्री राम को अपनी विद्याएँ प्रदान कीं और उनका मिथिला में श्री सीता जी से विवाह सम्पन्न कराया। महर्षि विश्वामित्र आजीवन पुरूषार्थ और तपस्या के मूर्तिमान प्रतीक रहे। सप्तऋषि मण्डल में ये आज भी विद्यमान हैं।

क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व

पुरूषार्थ, सच्ची लगन, उद्यम और तप की गरिमा के रूप में महर्षि विश्वामित्र के समान शायद ही कोई हो। इन्होंने अपने पुरूषार्थ से, अपनी तपस्या के बल से क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व प्राप्त किया, राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने, देवताओं और ऋषियों के लिये पूज्य बन गये और उन्हें सप्तर्षियों में अन्यतम स्थान प्राप्त हुआ। साथ ही सबके लिये वे वन्दनीय भी बन गये। इनकी अपार महिमा है। इन्हें अपनी समाधिजा प्रज्ञा से अनेक मन्त्रस्वरूपों का दर्शन हुआ, इसलिये ये 'मन्त्रद्रष्टा ऋषि' कहलाते हैं।

  • ऋग्वेद के दस मण्डलों में तृतीय मण्डल, जिसमें 62 सूक्त हैं, इन सभी सूक्तों (मन्त्रों का समूह) के द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र ही हैं। इसीलिये तृतीय मण्डल 'वैश्वामित्र-मण्डल' कहलाता है। इस मण्डल में इन्द्र, अदिति, अग्निदेव, उषा, अश्विनी तथा ऋभु आदि देवताओं की स्तुतियाँ हैं और अनेक ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म आदि की बातें विस्तृत हैं, अनेक मन्त्रों में गो-महिमा का वर्णन है। तृतीय मण्डल के साथ ही प्रथम, नवम तथा दशम मण्डल की कतिपय ऋचाओं के द्रष्टा विश्वामित्र के मधुच्छन्दा आदि अनेक पुत्र हुए हैं।

वैश्वामित्र-मण्डल का वैशिष्टय

वैसे तो वेद की महिमा अनन्त है ही, किंतु महर्षि विश्वामित्र जी के द्वारा दृष्ट यह तृतीय मण्डल विशेष महत्त्व का है, क्योंकि इसी तृतीय मण्डल में ब्रह्म-गायत्री का जो मूल मन्त्र है, वह उपलब्ध होता है। इस ब्रह्म-गायत्री-मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्य महर्षि विश्वामित्र ही हैं। ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है-

'तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्॥'
यदि महर्षि विश्वामित्र न होते तो यह मन्त्र हमें उपलब्ध न होता, उन्हीं की कृपा से- साधना से यह गायत्री-मन्त्र प्राप्त हुआ है। यह मन्त्र सभी वेदमन्त्रों का मूल है- बीज है, इसी से सभी मन्त्रों का प्रादुर्भाव हुआ। इसीलिये गायत्री को 'वेदमाता' कहा जाता है। यह मन्त्र सनातन परम्परा के जीवन में किस तरह अनुस्यूत है तथा इसकी कितनी महिमा है, यह तो स्वानुभव-सिद्ध है। उपनयन-संस्कार में गुरूमुख द्वारा इसी मन्त्र के उपदेश से द्विजत्व प्राप्त होता है और नित्य-संध्याकर्म में मुख्य रूप से प्राणायाम, सूर्योपस्थान आदि द्वारा गायत्री-मन्त्र के जप की सिद्धि में ही सहायता प्राप्त होती है। इस प्रकार यह गायत्री-मन्त्र महर्षि विश्वामित्र की ही देन है और वे इसके आदि आचार्य हैं। अत: गायत्री-उपासना में इनकी कृपा प्राप्त करना भी आवश्यक है। इन्होंने गायत्री-साधना तथा दीर्घकालीन संध्योपासना की तप:शक्ति से काम-क्रोधादि विकारों पर विजय प्राप्त की और ये तपस्या के आदर्श बन गये।


महर्षि ने केवल वैदिक मन्त्रों के माध्यम से ही गायत्री-उपासना पर बल दिया, अपितु उन्होंने अन्य जिन ग्रन्थों का प्रणयन किया, उनमें भी मुख्यरूप से गायत्री-साधना का ही उपदेश प्राप्त होता है।

  • 'विश्वामित्रकल्प,'
  • 'विश्वामित्रसंहिता' तथा
  • 'विश्वामित्रस्मृति' आदि उनके मुख्य ग्रन्थ हैं। इनमें भी सर्वत्र गायत्रीदेवी की आराधना का वर्णन दिया गया है और यह निर्देश है कि अपने अधिकारानुसार गायत्री-मन्त्र के जप से सभी सिद्धियाँ तो प्राप्त हो ही जाती हैं। इसीलिये केवल इस मन्त्र के जप कर लेने से सभी मन्त्रों का जप सिद्ध हो जाता है।
  • महामुनि विश्वामित्र तपस्या के धनी हैं। इन्हें गायत्री-माता सिद्ध थीं और इनकी पूर्ण कृपा इन्हंो प्राप्त थी। इन्होंने नवीन सृष्टि तथा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग आदि भेजने और ब्रह्मर्षिपद प्राप्त करने-सम्बन्धी जो भी असम्भव कार्य किये, उन सबके पीछे गायत्री-जप एवं संध्योपासना का ही प्रभाव था।
  • भगवती गायत्री कैसी हैं, उनका क्या स्वरूप है, उनकी आराधना कैसे करनी चाहिये, यह सर्वप्रथम आचार्य विश्वामित्र जी ने ही हमें बताया है। उन्होंने भगवती गायत्री को सर्वस्वरूपा बताया है और कहा है कि यह चराचर जगत स्थूल-सूक्ष्म भेद से भगवती का ही विग्रह है, तथापि उपासना और ध्यान की दृष्टि से उनका मूल स्वरूप कैसा है- इस विषय में उनके द्वारा रचित निम्न श्लोक द्रष्टव्य है, जो आज भी गायत्री के उपासकों तथा नित्य संध्या- वन्दनादि करने वालों के द्वारा ध्येय होता रहता है-

गायत्री-माता का ध्यान

मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणैर्युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम्।

गायत्रीं वरदाभयांकुशकशा: सुभ्रं कपालं गुणं शंख चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥ (देवीभागवत 12।3)
अर्थात 'जो मोती मूँगा, सुवर्ण, नीलमणि तथा उज्ज्वल प्रभा के समान वर्णवाले (पाँच) मुखों से सुशोभित हैं। तीन नेत्रों से जिनके मुख की अनुपम शोभा होती है। जिनके रत्नमय मुकुट में चन्द्रमा जड़े हुए हैं, जो चौबीस वर्णों से युक्त हैं तथा जो वरदायिनी गायत्री अपने हाथों में अभय और वरमुद्राएँ, अंकुश, पाश, शुभ्रकपाल, रस्सी, शंख, चक्र और दो कमल धारण करती हैं, हम उनका ध्यान करते हैं'।

  • इस प्रकार महर्षि विश्वामित्र का इस जगत पर महान उपकार ही है। महिमा के विषय में इससे अधिक क्या कहा जा सकता है कि साक्षात भगवान जिन्हें अपना गुरू मानकर उनकी सेवा करते थे। महर्षि ने सभी शास्त्रों तथा धनुर्विद्या के आचार्य श्रीराम को बला, अतिबला आदि विद्याएँ प्रदान कीं, सभी शास्त्रों का ज्ञान प्रदान किया और भगवान श्रीराम की चिन्मय लीलाओं के वे मूल-प्रेरक रहे तथा लीला-सहचर भी बने।
  • क्षमा की मूर्ति वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का जो विवाद हुआ, प्रतिस्पर्धा हुई, वह भी लोकशिक्षा का ही एक रूप है। इस आख्यान से गो-महिमा, त्याग का आदर्श, क्षमा की शक्ति, तपस्या की शक्ति, उद्यम की महिमा, पुरूषार्थ एवं प्रयत्न की दृढ़ता, कर्मयोग, सच्ची लगन और निष्ठा एवं दृढ़तापूर्वक कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। इस आख्यान से लोक को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि काम, क्रोध आदि साधना के महान बाधक हैं, जब तक व्यक्ति इनके मोहपाश में रहता है; उसका अभ्युदय सम्भव नहीं, किंतु जब वह इन आसुरी सम्पदाओं का परित्याग कर दैवी-सम्पदा का आश्रय लेता है तो वह सर्वपूज्य, सर्वमान्य तथा भगवान का प्रियपात्र हो जाता है। महर्षि वसिष्ठ से जब वे परास्त हो गये, तब उन्होंने तपोबल का आश्रय लिया, काम-क्रोध के वशीभूत होने का उन्हें अनुभव हुआ, अन्त में सर्वस्व त्याग कर वे अनासक्त पथ के पथिक बन गये और जगद्वन्द्य हो गये। ब्रह्मा जी स्वयं उपस्थित हुए, उन्होंने उन्हें बड़े आदर से ब्रह्मर्षिपद प्रदान किया। महर्षि वसिष्ठ ने उनकी महिमा का स्थापन किया और उन्हें हृदय से लगा लिया। दो महान संतों का अद्भुत मिलन हुआ। देवताओं ने पुष्पवृष्टि की।
  • सत्यधर्म के आदर्श राजर्षि हरिश्चन्द्र का नाम कौन नहीं जानता? किंतु महर्षि विश्वामित्र की दारूण परीक्षा से ही हरिश्चन्द्र की सत्यता में निखार आया, उस वृत्तान्त में महर्षि अत्यन्त निष्ठुर से प्रतीत होते हैं, किंतु महर्षि ने हरिश्चन्द्र को सत्यधर्म की रक्षा का आदर्श बनाने तथा उनकी कीर्ति को सर्वश्रुत एवं अखण्ड बनाने के लिये ही उनकी इतनी कठोर परीक्षा ली। अन्त में उन्होंने उनका राजैश्वर्य उन्हें लौटा दिया, रोहिताश्व को जीवित कर दिया और महर्षि विश्वामित्र की परीक्षा रूपी कृपा प्रसाद से ही हरिश्चन्द्र राजा से राजर्षि हो गये, सबके लिये आदर्श बन गये।
  • ऐतरेय ब्राह्मण आदि में भी हरिश्चन्द्र के आख्यान तथा शुन:शेप के आख्यान में महर्षि विश्वामित्र की महिमा का वर्णन आया है।
  • ऋग्वेद के तृतीय मण्डल में 30वें, 33वें तथा 53वें सूक्त में महर्षि विश्वामित्र का परिचयात्मक विवरण आया है। वहाँ से ज्ञान होता है कि ये कुशिक गोत्रोत्पन्न कौशिक थे ऋग्वेद(3।26।2-3)। ये कौशिक लोग महान ज्ञानी थे, सारे संसार का रहस्य जानते थे (3।29।15)। 53वें सूक्त के 9वें मन्त्र से ज्ञात होता है कि महर्षि विश्वामित्र अतिशय सामर्थ्यशाली, अतीन्द्रियार्थद्रष्टा, देदीप्यमान तेजों के जनयिता और अध्वर्यु आदि में उपदेष्टा हैं तथा राजा सुदास के यज्ञ के आचार्य रहे हैं।

महर्षि विश्वामित्र के आविर्भाव का विस्तृत आख्यान पुराणों तथा महाभारत आदि में आया है। तदनुसार कुशिकवंश में उत्पन्न चन्द्रवंशी महाराज गाधिकी सत्यवती नामक एक श्रेष्ठ कन्या हुई । जिसका विवाह मुनिश्रेष्ठ भृगुपुत्र ऋचीक के साथ सम्पन्न हुआ। ऋचीक ने पत्नी की सेवा से प्रसन्न होकर अपने तथा महाराज गाधि को पुत्रसम्पन्न होने के लिये यज्ञिय चरूको अभिमन्त्रित कर सत्यवती को प्रदान करते हुए कहा- 'देवि! यह दिव्यचरू दो भागों में विभक्त है। इसके भक्षण से यथेष्ट पुत्र की प्राप्ति होगी। इसका एक भाग तुम ग्रहण करना और दूसरा भाग अपनी माता को दे देना। इससे तुम्हें एक श्रेष्ठ महातपस्वी पुत्र प्राप्त होगा और तुम्हारी माता को क्षत्रिय शक्तिसम्पन्न तेजस्वी पुत्र होगा।' सत्यवती यह दोनों चरू-भाग प्राप्त कर बड़ी प्रसन्न हुईं। अपनी श्रेष्ठ पत्नी सत्यवती को ऐसा निर्देश देकर महर्षि ऋचीक तपस्या के लिये अरण्य में चले गये। इसी समय महाराज गाधि भी तीर्थदर्शन के प्रसंगवश अपनी कन्या सत्यवती का समाचार जानने आश्रम में आये। इधर सत्यवती ने पति द्वारा प्राप्त चरू के दोनों भाग माता को दे दिये और दैवयोग से माता द्वारा चरू-भक्षण में विपर्यय हो गया। जो भाग सत्यवती को प्राप्त होना था, उसे माता ने ग्रहण कर लिया और जो भाग माता के लिये उद्दिष्ट था, उसे सत्यवती ने ग्रहण कर लिया। ऋषि-निर्मित चरू का प्रभाव अक्षुण्ण था, अमोघ था। चरू के प्रभाव से गाधि-पत्नी तथा देवी सत्यवती- दोनों में गर्भ के चिह्न स्पष्ट होने लगे। इधर ऋचीक मुनि ने योगबल से जान लिया कि चरूभक्षण में विपर्यय हो गया है। यह जानकर सत्यवती निराश हो गयीं, परंतु मुनि ने उन्हें आश्वस्त किया। यथासमय सत्यवती की परम्परा में पुत्ररूप में जमदग्नि पैदा हुए और उन्हीं के पुत्र परशुराम हुए। दुसरी ओर गाधि-पत्नी ने चरू के प्रभाव से दिव्य ब्रह्मशक्ति-सम्पन्न महर्षि विश्वामित्र के अनेक पुत्र-पौत्र हुए, जिनसे कुशिकवंश विख्यात हुआ। ये गोत्रकार ऋषियों में परिगणित हैं। आज भी सप्तर्षियों में स्थित होकर महर्षि विश्वामित्र जगत के कल्याण में निरत हैं।

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