वैशेषिक दर्शन

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परिचय

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प्राय: चार्वाकेतर सभी भारतीय दर्शन मोक्ष प्राप्ति को मानव-जीवन का लक्ष्य मानते हैं। दर्शन शब्द का सामान्य अर्थ है- देखने का माध्यम या साधन<balloon title="दृश्यन्तेऽनेन इति दर्शनम्" style=color:blue>*</balloon> अथवा देखना। स्थूल पदार्थों के संदर्भ में जिसको दृष्टि<balloon title="दर्शनं दृष्टि:" style=color:blue>*</balloon> कहा जाता है, वही सूक्ष्म पदार्थों के सम्बन्ध में अन्तर्द्रष्टि है। भारतीय चिन्तकों ने दर्शन शब्द का प्रयोग स्थूल और सूक्ष्म अर्थात् भौतिक और आध्यात्मिक दोनों अर्थों में किया है, तथापि जहाँ अन्य दर्शनों में आध्यात्मिक चिन्तन पर अधिक बल दिया गया है, वहाँ न्याय दर्शन में प्रमाण-मीमांसा और वैशेषिक दर्शन में प्रमुख रूप से प्रमेय-मीमांसा अर्थात भौतिक पदार्थों का विश्लेषण किया गया है। इस दृष्टि से वैशेषिक दर्शन को अध्यात्मोन्मुख जिज्ञासा प्रधान दर्शन कहा जा सकता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन प्रमुख रूप से इस विचारधारा पर आश्रित रहे हैं कि जगत में जिन वस्तुओं का हमें अनुभव होता है वे सत हैं। अत: उन्होंने दृश्यमान जगत् से परे जो समस्याएँ या गुत्थियाँ हैं, उन पर विचार केन्द्रित करने की अपेक्षा दृश्यमान जगत को वास्तविक मानकर उसकी सत्ता का विश्लेषण करना ही अधिक उपयुक्त समझा।<balloon title="संविदेव भगवती वस्तूपगमे न: प्रमाणम्, न्या. वा. ता. टीका, 2.1.36" style=color:blue>*</balloon> वस्तुवादी और जिज्ञासा प्रधान होने के कारण तथा प्रमेय-प्रधान विश्लेषण के कारण वैशेषिक दर्शन व्यावहारिक या लौकिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की पृथक्-पृथक् वस्तु-सत्ता है, जबकि वेदान्त में यह माना जाता है कि ज्ञाता ज्ञानस्वरूप है और ज्ञेय भी ज्ञान से पृथक् नहीं है। न्याय और वैशेषिक यद्यपि समानतन्त्र हैं, फिर भी न्याय प्रमाण-प्रधान दर्शन है जबकि वैशेषिक प्रमेय-प्रधान। इसके अतिरिक्त अन्य कई संकल्पनाओं में भी इन दोनों दर्शनों का पार्थक्य है।

वैशेषिक नाम का कारण

वैशेषिक दर्शन अपने आप में महत्त्वपूर्ण होने के अतिरिक्त अन्य दर्शनों तथा विद्यास्थानों के प्रतिपाद्य सिद्धान्तों के ज्ञान और विश्लेषण में भी बहुत उपकारक है। कौटिल्य ने वैशेषिक का पृथक् रूप से तो उल्लेख नहीं किया, किन्तु संभवत: समानतन्त्र आन्वीक्षिकी में वैशेषिक का भी अन्तर्भाव मानते हुए कौटिल्य ने यह कहा कि आन्वीक्षिकी सब विद्याओं का प्रदीप है।<balloon title=" प्रदीप: सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम्। आश्रय: सर्वधर्माणां तस्मादान्वीक्षिकी मता॥ कौ. अर्थशास्त्र" style=color:blue>*</balloon>

भारतीय चिन्तन-परम्परा में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त प्रभृति छ: आस्तिक दर्शनों और चार्वाक, बौद्ध, जैन इन तीन नास्तिक दर्शनों का अपना-अपना स्थान व महत्त्व रहा है।

  • सांख्य में त्रिविध दु:खों की निवृत्ति को,
  • योग में चित्तवृत्ति के निरोध को,
  • मीमांसा में धर्म की जिज्ञासा को और
  • वेदान्त में ब्रह्म की जिज्ञासा को नि:श्रेयस का साधन बताया गया है; जबकि वैशेषिक में पदार्थों के तत्त्वज्ञानरूपी धर्म अर्थात् उनके सामान्य और विशिष्ट रूपों के विश्लेषण से पारलौकिक नि:श्रेयस के साथ-साथ इह लौकिक अभ्युदय को भी साध्य माना गया है।<balloon title="यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:। वै. सू. 1.1.2" style=color:blue>*</balloon> अन्य दर्शनों में प्राय: ज्ञान की सत्ता<balloon title="सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" style=color:blue>*</balloon> को सिद्ध मान कर उसके अस्तित्वबोध और विज्ञान को मोक्ष या नि:श्रेय का साधन बताया गया है, किन्तु वैशेषिक में दृश्यमान वस्तुओं के साधर्म्य-वैधर्म्यमूलक तत्त्वज्ञान को साध्य माना गया है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में लोकधर्मिता तथा वैज्ञानिकता से समन्वित आध्यात्मिकता परिलक्षित होती है। यही कारण है कि न्याय-वैशेषिक को व्याकरण के समान अन्य शास्त्रों के ज्ञान का भी उपकारक या प्रदीप कहा गया है।<balloon title="काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्।" style=color:blue>*</balloon>

अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म को ही एकमात्र सत कहा गया है। बौद्धों ने सर्व शून्यं जैसे कथन किये, सांख्यों ने प्रकृति-पुरुष के विवेक की बात की। इस प्रकार इन सबने भौतिक जगत् के सामूहिक या सर्वसामान्य किसी एक तत्त्व को भौतिक जगत् से बाहर ढूँढ़ने का प्रयत्न किया। किन्तु वैशेषिकों ने न केवल समग्र ब्रह्माण्ड का, अपितु प्रत्येक पदार्थ का तत्त्व उसके ही अन्दर ढूँढ़ने का प्रयास किया और यह बताया कि प्रत्येक वस्तु का निजी वैशिष्ट्रय ही उसका तत्त्व या स्वरूप है और प्रत्येक वस्तु अपने आप में एक सत्ता है। इस मूल भावना के साथ ही वैशेषिकों ने दृश्यमान जगत की सभी वस्तुओं को छ: या सात वर्गों में समाहित करके वस्तुवादी दृष्टि से अपने मन्तव्य प्रस्तुत किये। इन छ: या सात पदार्थों में सर्वप्रथम द्रव्य का उल्लेख किया गया है, क्योंकि उसको ही केन्द्रित करके अन्य पदार्थ अपनी सत्ता का भान कराते हैं। पहले तो वैशेषिकों ने छ: ही पदार्थ माने थे, पर बाद में उनको यह आभास हुआ कि वस्तुओं के भाव की तरह उनका अभाव भी वस्तुतत्त्व के निरूपण में सहायक होता है। अत: गुण, कर्म सामान्य विशेष के साथ-साथ अभाव का भी वैशेषिक पदार्थों में समावेश किया गया। अभिप्राय यह है कि सभी 'वस्तुओं का निजी वैशिष्ट्रय ही उनका स्वभाव है' – क्या इस आधार पर ही इस शास्त्र को वैशेषिक कहा गया? इस जिज्ञासा के समाधान के संदर्भ में अनेक विद्वानों ने जो विचार प्रस्तुत किये, उनका सार इस प्रकार है –

  1. विशेष पदार्थ से युक्त होने के कारण यह शास्त्र वैशेषिक कहलाता है। अन्य दर्शनों में विशेष का उपदेश वैसा नहीं है जैसा कि इसमें है। विशेष को स्वतन्त्र पदार्थ मानने के कारण इस दर्शन की अन्य दर्शनों से भिन्नता है। विशेष पदार्थ व्यावर्तक है। अत: इस शास्त्र की संज्ञा वैशेषिक है।
  2. विशेष गुणों का उच्छेद ही मुक्ति है, न कि दु:ख का आत्यन्तिक उच्छेद। मुक्ति का प्रतिपादन चार्वाकेतर सभी दर्शन करते हैं, किन्तु विशेष गुण को लेकर मुक्ति का प्रतिपादन इसी दर्शन में किया गया है।
  3. विगत: शेष: यत्र स विशेष:- इस प्रकार का विग्रह करने पर विशेष का अर्थ 'निरवशेष' हो जाता है और इस प्रकार सभी पदार्थों का छ: या सात में अन्तर्भाव हो जाता है।
  4. 'विशेषणं विशेष:'—ऐसा विग्रह करने पर यह अर्थ हो जाता है कि पदार्थों के लक्षण- परीक्षण द्वारा जो शास्त्र उनका बोध करवाये, वह वैशेषिक है।
  5. इस दर्शन में आत्मा के भेद तथा उसमें रहने वाले विशेष गुणों का व्याख्यान किया गया है। कपिल ने आत्मा के भेदों को स्वीकार किया, किन्तु उनको विशेष गुण वाला नहीं माना। वेदान्त तो आत्मा के भेद और गुणों को स्वीकार नहीं करता। अत: आत्मा के विशेष गुण और भेद स्वीकार करने से इस दर्शन को वैशेषिक कहा जाता है।
  6. अनेक पाश्चात्त्य और भारतीय विद्वानों ने वैशेषिक को डिफरेन्सियलिस्ट दर्शन कहा है, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह भेदबुद्धि (वैशिष्ट्रय-विचार) पर आधारित होने के कारण भेदवादी है।[१]

वैशेषिक शब्द की व्युत्पत्ति

वैशेषिक शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न भाष्यकारों, टीकाकारों और वृत्तिकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की। उनमें से कुछ का यहाँ उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा।

  1. आचार्य चन्द्र : वैशेषिक विशिष्टोपदेष्टा।
  2. चन्द्रकान्त : यदिदं वैशेषिकं नाम शास्त्रमारब्धं तत्खलु तन्त्रान्तरात् विशेषस्यार्थ- स्याभिधानात् (चन्द्रकान्तभाष्यम्)।
  3. मणिभद्रसूरि: नैयायिकेभ्यो द्रव्यगुणादिसामग्र्या विशिष्टमिति वैशेषिकम् (षड्दर्शनसमुच्चय-वृत्ति- पृ. 4)।
  4. गुणरत्न: नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा: एवं वैशेषिकम् (विनयादिभ्य: स्वार्थे इक्) तद् वैशेषिकं विदन्ति अधीयते वा (तद्वैत्यधीत इत्यणि) वैशेषिका: तेषामिदं वैशेषिकम् (षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति)।
  5. उदयनाचार्य: (क)विशेषो व्यवच्छेद: तत्त्वनिश्चय: तेन व्यवहरन्तीत्यर्थ: (किरणावली पृ. 613), (ख) तत्त्वमनारोपितं रूपम्। तच्च साधर्म्यवैधर्म्याभ्यामेव विविच्यते (किरणावली पृ. 5)
  6. श्रीधर : साधर्म्य-वैधर्म्यम् एव तत्त्वम् (अस्यार्थ: - वैधर्मरूपात् तत्त्वात् उत्पन्नं यत् शास्त्रं तदेव वैशेषिकम्) – न्यायकन्दली)।
  7. दुर्वेकमिश्र : द्रव्यकुणकर्मसामान्यविशेषसमवायात्मके पदार्थविशेषे व्यवहरन्तीति वैशेषिका: (धर्मोत्तरप्रदीप:)।
  8. आधुनिक समीक्षक : उदयवीर शास्त्री प्रभृति अधिकतर विद्वानों का भी यही विचार है –कणाद ने जिन परम सूक्ष्म पृथिव्यादि भूततत्त्वों को जगत् का मूल उपादान माना है, उनका नाम विशेष है। अत: इसी आधार पर इस शास्त्र का नाम वैशेषिक पड़ा।<balloon title="वै. द. विद्योदयभाष्य, पृ. 19" style=color:blue>*</balloon>

वैशेषिकसूत्र में वैशेषिक शब्द केवल एक बार प्रयुक्त हुआ है<balloon title="(1) वै. सू. 10.2.7" style=color:blue>*</balloon>- जिसका अर्थ है- विशेषता।

उपर्युक्त कथनों पर विचार करने के अनन्तर यही मत समुचित प्रतीत होता है कि नित्य और अनित्य पदार्थों के अन्तिम परमाणुओं में रहने वाले और उनको एक दूसरे से व्यावृत्त करने वाले विशेष नामक पदार्थ की उद्भावना पर आधारित होने के कारण इस दर्शन का नाम वैशेषिक पड़ा। योगसूत्र पर अपने भाष्य में व्यास ने भी इसी मत का समर्थन किया है।<balloon title="योगसूत्र व्यासभाष्य, 1.4.9" style=color:blue>*</balloon>

टीका-टिप्पणी

  1. (a) Dictionaries of Asian Philosphies, IR, P 186
    (b) Encyclopaidia Betannika, Vol, X, P. 327
    (c) The Word Vishesha is derived from Vishesha which means difference and the doctrine is so designated because according to it diversity and not the unity is a root of Universe: Hiriyanna, OIP. P. 225

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