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इस ग्रन्थ में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव का सात प्रकरणों में विश्लेषण किया गया है। इस वैशेषिक ग्रन्थ में भाव और अभाव भेद से पदार्थों का विभाग किया गया है। इसमें छ: हेत्वाभास और दो प्रमाण स्वीकार किए गए हैं। अभाव के प्रकारों के निरूपण में इसमें निम्नलिखित रूप से एक नई पद्धति अपनाई गई है—
 
इस ग्रन्थ में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव का सात प्रकरणों में विश्लेषण किया गया है। इस वैशेषिक ग्रन्थ में भाव और अभाव भेद से पदार्थों का विभाग किया गया है। इसमें छ: हेत्वाभास और दो प्रमाण स्वीकार किए गए हैं। अभाव के प्रकारों के निरूपण में इसमें निम्नलिखित रूप से एक नई पद्धति अपनाई गई है—
  
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१४:११, १२ जनवरी २०१० का अवतरण

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वैशेषिक के प्रकीर्ण ग्रन्थ

वैशेषिक सिद्धान्तों की परम्परा अतिप्राचीन है। महाभारत आदि ग्रन्थों में भी इसके तत्त्व उपलब्ध होते हैं। महात्मा बुद्ध और उनके अनुयायियों के कथनों से भी यह प्रमाणित होता है कि सिद्धान्तों के रूप में वैशेषिक का प्रचलन 600 ई. से पहले भी विद्यमान था। महर्षि कणाद ने वैशेषिक सूत्रों का ग्रंथन कब किया? इसके संबन्ध में अनुसन्धाता विद्वान किसी एक तिथि पर अभी तक सहमत नहीं हो पाये, किन्तु अब अधिकतर विद्वानों की यह धारणा बनती जा रही है कि कणाद महात्मा बुद्ध के पूर्ववर्ती थे और सिद्धान्त के रूप में तो वैशेषिक परम्परा अति प्राचीन काल से ही चली आ रही है। वैशेषिक दर्शन पर उपलब्ध भाष्यों में प्रशस्तपाद भाष्य का स्थान अति महत्त्वपूर्ण है। किन्तु कणाद-प्रशस्तपाद के समय के लम्बे अन्तराल में और प्रशस्तपाद के बाद भी बहुत से ऐसे भाष्यकार या व्याख्याकार हुए, जिनके ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं हैं। यत्र-तत्र उनके जो संकेत या अंश उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर विभिन्न अनुसन्धाताओं ने जिन कतिपय कृतियों की जानकारी या खोज की है, उनका संक्षिप्त रूप से उल्लेख करना यहाँ अप्रासंगिक न होगा। असंदिग्ध प्रमाणों की अनुपलब्धता के कारण इनमें से कई ग्रन्थों के रचनाकाल आदि का विभिन्न विद्वानों ने संकेत मात्र किया है। ऐसी कृतियों का सामान्य ढंग से संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैं।

आत्रेय भाष्य

आत्रेय भाष्य नाम से भी वैशेषिक सूत्रों का एक व्याख्यान था। मिथिला विद्यापीठ से प्रकाशित अज्ञातकर्तृक वैशेषिक सूत्र वृत्ति में, वादिराज के 'न्यायविनिश्चयविवरण' में श्रीदेव के 'स्याद्वादरत्नाकर' में, गुणरत्न के 'षड्दर्शनसमुच्चय' में, हरिभद्रसूरि की 'षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति' में तथा भट्टवादीन्द्र के 'कणादसूत्रनिबन्ध' में आत्रेय भाष्य का उल्लेख है। शंकर मिश्र ने वृत्तिकार के नाम से जिस मत का उल्लेख किया है, मिथिलावृत्ति में उसको आत्रेय का मत बताया गया है। आत्रेय का कोइर विशिष्ट मत था, यह बात इससे सिद्ध होती है कि इनके व्याख्यान का उल्लेख 'आत्रेयतन्त्र' के नाम से किया गया है, किन्तु अब यह भाष्य उपलब्ध नहीं है।

कटन्दीव्याख्या : रावणभाष्य

वैशेषिक सूत्रों पर कटन्दी नाम की कोई टीका लिखी गई थी। अष्टम-नवम शताब्दी में मुरारि कवि द्वारा विरचित 'अनर्घराघव' नाटक के पंचम अंक में रावण के मुख से यह कहलाया गया है कि वह वैशेषिक कटन्दी पण्डित है। अनर्घराघव के व्याख्याकार रूचिपति उपाध्याय ने कटन्दी को रावण की रचना बताया है। किन्तु किस रावण ने यह व्याख्या लिखी? यह भी एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर विद्वानों का गहन मतभेद है। किसी के विचार में लंकापति रावण और किसी के मत में रावण नाम का कोई अन्य व्यक्ति इसका रचयिता है। किरणावली भास्कर में पद्मनाभी मिश्र ने उदयनाचार्य के-'सूत्रे वैशद्याभावात् भाष्यस्य विसाररत्वात्'- इन कथन का विश्लेषण करते हुए यह कहा कि उदयनाचार्य द्वारा उल्लिखित भाष्य, रावण द्वारा रचित था, किन्तु नयचक्र में तथा नयचक्र वृत्ति में कटन्दी को एक टीका कहा गया है, जिससे यह भी आभासित होता है कि कटन्दी रावण कृत भाष्य का नाम भी हो सकता है और उस भाष्य की टीका का नाम भी। हाँ, इससे इतना संकेत मिलता है कि वैशेषिक सूत्र का कोई एक भाष्य था, व्याख्याग्रन्थ था, उसका नाम कटन्दी था। अब वह उपलब्ध नहीं है। वह बहुत विस्तृत था तथा प्रशस्तपाद भाष्य से भिन्न था। उसमें उदधृत वचन प्रशस्तपाद भाष्य में नहीं मिलते। 'अन्ये तु प्रधानत्वात् आत्ममन:सन्निकर्षप्रमाणमाद्दु:' –दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय में समागत इस कथा की विशालमलवती में व्याख्या करते समय अन्ये का आशय रावण आदि बताया गया।<balloon title="विमलावती, पृ. 194" style=color:blue>*</balloon> इसी प्रकार नयचक्र में तथा ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य की गोविन्द्रानन्द रचित व्याख्या- रत्नप्रभा में भी रावणप्रणीत भाष्य का उल्लेख है। यथा—'द्वाभ्यां द्वय्णुकाभ्याम् आरब्धकार्ये महत्त्वं दृश्यते। तस्य हेतु: प्रचयो नाम प्रशिथिलावयवसंयोग इति रावणप्रणीतभाष्ये दृश्यत इति चिरन्तनवैशेषिकदृष्ट्या इदमभिहितम्।'

प्रकटार्थविवरण में भी यह यह कहा गया है कि—'रावणप्रणीते भाष्ये यद् द्वाभ्यां द्वय्णुकाभ्याम् आरब्धे कार्येयत् महत्त्वम् उत्पद्यते तस्य प्रचय: समवायिकारणमित्युक्तम्।'

किरणावली में उदयनाचार्य द्वारा उल्लिखित भाष्य पद्मनाभ मिश्र की दृष्टि से भी रावणभाष्य ही है। इस प्रकार अनर्घराघव में प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या विशालामलवती में, रत्नप्रभा में, प्रकटार्थविवरण में, तथा किरणावली भास्कर में उपर्युक्त रूप से जिस कटन्दी भाष्य का उल्लेख है, उसको अधिकतर विद्वान लंकापति रावण कृत भाष्य मानते हैं, किन्तु कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार रावण कटन्दी का पण्डित था, न कि कटन्दी का रचयिता। फिर भी, किसी विद्वान या लंकापति रावण ने वैशेषिक सूत्र पर भाष्य लिखा था, इस बात से अधिकतर विद्वान सहमत हैं।

चन्द्रमति (मतिचन्द्र) कृत दशपदार्थशास्त्र (दशपदार्थी)

प्रशस्तपाद भाष्य को आधार रखते हुए चन्द्रमति या मतिचन्द्र ने दशपदार्थ शास्त्र की रचना की थी। फ्राउवाल्नर प्रभृति विद्वानों के अनुसार इनका नाम चन्द्रमति है किन्तु उई प्रभृति विद्वान चन्द्रमति की अपेक्षा मतिचन्द्र नाम को अधिक ग्राह्य मानते हैं। इनका समय 700 ई. से पूर्व माना जाता है। चन्द्रमति या मतिचन्द्र द्वारा रचित इस ग्रन्थ में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय और विशेष इन छ: पदार्थों के अतिरिक्त शक्ति, अशक्ति, सामान्य-विशेष, और अभाव इन चार अन्य का भी पदार्थों में परिगणन किया गया है। इनका यह मन्तव्य है कि जैसे भाव पदार्थों के विरोध में अभाव का पदार्थत्व है, उसी प्रकार शक्ति के अभाव रूप में अशक्ति को पदार्थ माना जाना चाहिए।<balloon title="रत्नप्रभा, ब्र. सू. भा. 2.2.11" style=color:blue>*</balloon>(यह ग्रन्थ मूलरूप में उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसका एक चीनी अनुवाद मिलता है, जिसका संस्कृत अनुवाद गंगानाथ झा अनुसंधान पत्रिका के 19वें अंक में प्रकाशित हुआ है।) इस ग्रन्थ के अतिरिक्त किसी भी अन्य ग्रन्थ में दश पदार्थों की चर्चा नहीं है।

तरणिमिश्र विरचित रत्नकोश

रत्नकोश नामक ग्रन्थ भी अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इसके लेखक का भी कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता, किन्तु कतिपय संदर्भों और आलोचना-प्रसंगों में जैसे कि रुचिदत्त मिश्र ने तत्त्व चिन्तामणि प्रकाश में तथा गदाधर ने शक्तिवाद में रत्नकोशकार का नाम तरणि मिश्र बताया है। प्राचीन न्याय-वैशेषिक के अनेक आचार्यों ने इसके अनेक सिद्धान्तों का खण्डन-मण्डन किया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि रत्नकोश एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ था।<balloon title="श्रीनिवास शास्त्री प्रशस्तपाद भाष्य हिन्दी अनुवाद, पृ. 8" style=color:blue>*</balloon>मणिकण्ठ मिश्र (1200 ई.) ने न्यायरत्न में, गंगेशोपाध्याय (1300 ई.) ने तत्त्वचिन्तामणि में तथा द्वितीयवाचस्पति मिश्र (1450) ने तत्त्वालोक में रत्नकोश का उल्लेख किया है। हरिराम तर्कवागीश ने तो रत्नकोश विचार नाम का एक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा है। इस प्रकार मूलरूप में उपलब्ध न होने पर भी प्राय: इस ग्रन्थ की चर्चा की जाती है और इसके उद्धरणों का समादरपूर्वक उल्लेख किया जाता है।

उद्योतकर रचित भारद्वाजवृत्ति

शंकर मिश्र ने उपस्कार में धर्म के लक्षण का निरूपण करते हुए किसी वृत्तिकार के आशय को उद्धृत किया है। शंकर मिश्र ने जिस वृत्ति क उल्लेख किया, वह भारद्वाज कृत वृत्ति है। यह विचार न्यायकन्दली की भूमिका में श्रीविन्ध्येश्वरी प्रसाद शास्त्री ने भी व्यक्त किया है। न्यायवार्तिक के रचयिता उद्योतकर का वैशेषिक में भी समान अधिकार था। वैशेषिक के रूप में भी उद्योतकर की ख्याति है। तत्कालीन अपव्याख्यानों से उद्विग्न होकर ही सम्भवत: उद्योतकर न यह वृत्ति लिखी थी। न्यायवार्तिक में वैशेषिक सूत्र का यत्र तत्र पर्याप्त उल्लेख है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि उद्योतकर भारद्वाज ने ही यह वृत्ति लिखी होगी। भारद्वाज उद्योतकर का गोत्रनाम था। उद्योतकर का समय 600 शती ई. माना जाता है।

चन्द्रानन्द वृत्ति

चन्द्रानन्द द्वारा रचित वैशेषिक सूत्र व्याख्या चन्द्रानन्दवृत्ति के रूप में प्रचलित हुई। चन्द्रानन्द ने वैशेषिक सूत्र का जो पाठ अपनाया है, वह शंकरमिश्र स्वीकृत मिथिला विद्यापीठ के पाठ से तथा वाराणसी एवं कलकत्ता आदि से प्रकाशित सूत्र पाठों से बहुत भिन्न हैं चन्द्रानन्द व्याख्या में वैशेषिक सूत्र के अन्तिम तीन अध्यायों में आह्निकों का विधान नहीं है। चन्द्रानन्द का समय 700 ई. बताया जाता है। इस वृत्ति में वार्त्तिककार उद्योतकर का नामत: उल्लेख किया गया है।<balloon title=" द्र. चन्द्रानन्दवृत्ति, ग. ओ. सी. नं. 136, बड़ौदा" style=color:blue>*</balloon>

वरदराज रचित तार्किकरक्षा

तार्किकरक्षा के रचयिता वरदराज का समय 1050 ई. के आसपास माना जाता है। वरदराज ने तार्किकरक्षा पर सार संग्रह नाम की एक स्वोपज्ञटीका भी लिखी। तार्किकरक्षा पर विष्णु स्वामी के शिष्य ज्ञानपूर्ण ने लघुदीपिका तथा मल्लिनाथ ने निष्कण्टका नामक टीका लिखी थी। माधवाचार्य 14वीं शती द्वारा विरचित सर्वदर्शन संग्रह में भी वरदराज का उल्लेख है। वरदराज का वैशिष्टय यह है कि इन्होंने वैशेषिक सूत्र परिगणित पदार्थों का प्रमेय में अन्तर्भाव करके उनका विश्लेषण किया है। इस ग्रन्थ में तीन परिच्छेद है।। पहले में प्रमाण-लक्षण, दूसरे में जाति के भेद, और तीसरे में निग्रहस्थान और उसके भेदों का निरूपण किया गया हैं तार्किकरक्षा में वरदराज ने इस बात का विशृलेषण करने का प्रयास किया है कि द्रव्य-गुणों आदि पदार्थों का ज्ञान मोक्षप्राप्ति का साधन नहीं है, अत: गौतम ने उनका विस्तृत निरूपण नहीं किया।<balloon title="मोक्षे साक्षादनङ्गत्वादक्षपादैर्न लक्षितम्। ता. र." style=color:blue>*</balloon>

शिवादित्य रचित सप्तपदार्थी

सप्तपदार्थी के रचयिता शिवादित्य का समय 950-1050 ई. माना जाता है। वैशेषिक सम्मत छ: पदार्थों के अतिरिक्त अभाव को सातवाँ पदार्थ निरूपित कर शिवादित्य ने वैशेषिकों के चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। पदार्थ-संख्या के संबन्ध् में सूत्रकार कणाद और भाष्यकार प्रशस्तपाद के मत का अतिक्रमण करके शिवादित्य ने अपने मत की स्थापना की। वैशेषिक सूत्र में तीन और न्यायसूत्र में परिगणित पाँच हेत्वाभासों के स्थान पर शिवादित्य ने छ: हेत्वाभास माने। प्रशस्तपाद ने दश दिशाओं का निर्देश किया, जबकि सप्तपदार्थी में दिशाओं की संख्या ग्यारह बताई गई है। इसी प्रकार कई अन्य सिद्धान्तों के प्रवर्तन में भी शिवादित्य ने अपने मौलिक विचारों का उद्भावन करके वैशेषिक के आचार्यों में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है। तत्त्वचिन्तामणि के प्रत्यक्षखण्ड के निर्विकल्पक-प्रकरण में गंगेश ने शिवादित्य का उल्लेख किया और खण्डनखण्डखाद्य के प्रमाण लक्षण के विश्लेषण के अवसर पर शिवादित्य के लक्षणों की समीक्षा की। यह शिवादित्य के महत्व को प्रतिपादित करता है। आज भी वैशेषिक के जिन ग्रन्थों के पठन-पाठन का अत्यधिक प्रचलन है, उनमें सप्तपदार्थी प्रमुख हैं

सप्तपदार्थी पर अनेक टीकाएँ लिखी गईं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं<balloon title="जिनंवर्धनी; लालभाई ग्रन्थ दलपत भाई ग्रन्थमाला सं. 1 में प्रकाशित" style=color:blue>*</balloon>—

  1. जिनवर्धनी— वाग्भटालंकार के व्याख्याता जिन राजसूरि के शिष्य अनादितीर्थापरनामा, जिनवर्धन सूरि (1418 ई.) ने इस टीका की रचना की।
  2. मितभाषिणी – सप्तपदार्थी पर माधवसरस्वती (1500 ई.) द्वारा रचित इस मितभाषिणी व्याख्या में वैशेषिक के मन्तव्यों का संक्षिप्तीकरण किया गया है।
  3. पदार्थचन्द्रिका – शेष शाङर्गधर के आत्मज शेषानन्ताचार्य (1600 ई.) द्वारा सप्तपदार्थी पर पदार्थचन्द्रिकानाम्नी एक टीका लिखी गई।
  4. शिशुबोधिनी – भैरवेन्द्र नाम के किसी आचार्य ने सप्तपदार्थी पर शिशुबोधिनी नामक टीका लिखी।

वल्लभाचार्य रचित न्यायलीलावती

न्यायलीलावती वल्लभाचार्य (1175 ई.) कृत एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसमें वैशेषिक मितमाषिणी; विजयनगर ग्रन्थमाला सं. 6 में प्रकाशित, पदार्थचन्द्रिका; कलकत्ता से.सी.नं. 8 में प्रकाशित, शिशुबोधिनी; क.सं.सी.सं. 8 में प्रकाशित के सिद्धान्तों का बड़ी प्रौढ़ि के साथ निरूपण किया गया है। इसमें विभाग, वैधर्म्य, साधर्म्य और प्रक्रिया नामक चार परिच्छेद हैं, जिनको सत्ताईस प्रकरणों में विभक्त किया गया है। उद्देश, लक्षण और परीक्षा नामक तीन शास्त्रप्रवृत्तियों में से इसमें परीक्षा नामक प्रवृत्ति के विश्लेषण पर अधिक बल दिया गया है। प्रत्येक विषय पर विचार के अन्त में सम्बन्धित प्रकरण का सार पद्यबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है।

विद्याभूषण प्रभृति विद्वानों का यह मत है कि न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य और शुद्धादैत मत के प्रवर्तक वल्लभाचार्य दो विभिन्न व्यक्ति थे। गंगेश की तत्त्वचिन्तामणि में हेतुद्वय का खण्डन किया गया है। अत: न्यायलीलावती और तत्त्वचिन्तामणि में पूर्वापरता दिखाई देती है। गंगेशोपाध्याय के पुत्र बर्धमानोपाध्याय ने न्यायलीलावती पर प्रकाश नाम की व्याख्या लिखी, अत: यह स्पष्ट है कि न्यायलीलावती का न्याय और वैशेषिक दोनों दर्शनों के पूर्वाचार्यों ने भी बड़ा महत्त्व माना है।

वल्लभाचार्य ने छ: ही पदार्थ माने तथा अभाव, तमस्, ज्ञातता, सादृश्य आदि के पदार्थत्व का खण्डन किया। न्यायलीलावती में उदयनाचार्य, भासर्वज्ञ, श्रीधर तथा कुमारिल भट्ट आदि के मतों का खण्डन किया गया है। इस ग्रन्थ में आचार्य वाचस्पति मिश्र, धर्मकीर्ति, व्योमशिवाचार्य, चरकाचार्य आदि आचार्य का तथा कर्नाटक, काश्मीर, वाराणसी आदि नगरों का भी उल्लेख है। श्रीवल्लभ ने इर्श्वरसिद्धि नामक एक अन्य ग्रन्थ की भी रचना की थी, किन्तु वह अब उपलब्ध नहीं है। वल्लभाचार्य ने उदयनाचार्य (10 शती) का उल्लेख किया और चित्सुखाचार्य (1200 ई.) तथा वादीन्द्र 1225 ई. ने वल्लभाचार्य का उल्लेख किया। अत: श्रीवल्लभाचार्य का समय बारहवीं शती का पूर्वार्द्ध सिद्ध होता है। न्यायलीलावती पर आचार्यों ने अनेक टीकाएँ लिखीं, उनमें से कुछ के नाम निम्नलिखित हैं—

  1. न्यायलीलावतीप्रकाश - वर्धमान उपाध्याय
  2. न्यायलीलावतीविवेक - पक्षधर मिश्र
  3. न्यायलीलावतीकण्ठाभरण - शंकर मिश्र
  4. न्यायलीलावतीवर्धमानेन्दु - वाचस्पति मिश्र द्वितीय
  5. न्यायलीलावतीविभूति - रधुनाथ शिरोमणि
  6. न्यायलीलावतीप्रकाश - रामकृष्ण भट्टाचार्य
  7. न्यायलीलावतीरहस्यफक्किका - मथुरानाथ तर्कवागीश
  8. न्यायलीलावतीदर्पण - वटेश्वरोपाध्याय

न्यायलीलावती की टीकाओं में से न्यायलीलावतीविवेक (पक्षधर मिश्र) और न्यायलीलावतीरहस्य (मथुरानाथ) अभी अमुद्रित हैं। इनकी पाण्डुलिपियाँ लन्दन पुस्तकालय में उपलब्ध हैं।

वादिवागीश्वरविरचित मानमनोहर

मानमानोहर के रचयिता वादिवागीश्वराचार्य का समय लगभग 1100-1200 ई. माना जा सकता है। यह शक्तिवाममार्गी थे। इन्हेंने न्यायलक्ष्मीविलास नामक एक अन्य ग्रन्थ भी लिखा था, जो कि अब उपलब्ध नहीं है। मानमनोहर नामक ग्रन्थ में व्योमशिवाचार्य, न्यायलीलावतीकार श्रीवल्लभाचार्य, न्यायकन्दलीकार श्रीधराचार्य, भासर्वज्ञ, आनन्दबोध आदि आचार्यों का उल्लेख है। जबकि चित्सुखाचार्य ने इनके मत का खण्डन किया है, अत: मानमनोहर के निर्माता वादिवागीश्वराचार्य चित्सुख (1200-1300 ई.) के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। इस ग्रन्थ का प्रकाशन षड्दर्शन-ग्रन्थमाला वाराणसी से हुआ। इस ग्रन्थ में निम्नलिखित दस प्रकरण हैं- सिद्धि, द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव, पदार्थान्तरनिरास तथा मोक्ष। इसमें बौद्धमत का खण्डन करते हुए अनुमानप्रधान युक्तियों से ईंश्वर, अवयवी और परमाणु की सिद्धि की गई है। इसमें आत्मनिरूपण के संदर्भ में आत्मा के ज्ञानाश्रयत्व का प्रतिपादन और अद्वैतमतसिद्ध ज्ञानात्मैकत्ववाद तथा अखण्डत्ववाद का खण्डन किया गया है।

मानमनोहर में दो ही प्रमाण स्वीकार किये गये हैं और वेद को पौरुषेय बताया गया है। वादिवागीश्वर ने माता-पिता के ब्राह्मणत्व को पुत्र के ब्राह्मणत्व का नियामक माना है। मानमनोहर में अप्रमा के दो भेद बताये गये हैं-- (क) निश्चयात्मक और (ख) अनिश्चयात्मक, तथा संशय आदि का इन्हीं में अन्तर्भाव बताया गया है। वादिवागीश्वराचार्य ने सभी पदार्थों की सिद्धि अनुमान से की है। इनकी अनुमान-प्रवणता का इनके उत्तरवर्ती अद्वैती आचार्य आनन्दानुभव ने पदार्थतत्त्वनिर्णय तथा न्यायरत्नदीपावली में एवं चित्सुखाचार्य ने तत्त्वप्रदीपिका में उपहासपूर्वक खण्डन किया है। मानमनोहर में शक्ति, सादृश्य, प्रधान और तमस् के पदार्थत्व का खण्डन किया गया हे। 'नीलं तम:' जैसे अनुभव को भ्रम की संज्ञा देते हुए वादिवागीश्वर कहते हैं कि यह उपचार मात्र है।

वादीन्द्रभट्ट (शंकरकिंकर) विरचित कणाद सूत्र निबन्धवृत्ति

न्यायसार के व्याख्याकार राघव भट्ट के गुरु, श्रीसिंहराज सभा के धर्माध्यक्ष, महाविद्याविडम्बन के रचचिता, योगेश्वर के शिष्य, तथा वादीन्द्रभट्ट उपनाम से विख्यात शंकरकिंकर नामक आचार्य ने वैशेषिक सूत्र पर व्याख्या लिखी थी[१] जिसका नाम कणादसूत्र-निबन्धवृत्ति था। इनका समय 13वीं शती के आसपास माना जाता है।

अज्ञातकर्तृक मिथिलावृत्ति

वैशेषिक सूत्र पर अनेक वृत्तिग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। मिथिला विद्यापीठ ग्रन्थमाला (सं. 5) में नवम अध्याय के पहले आह्निक तक किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा लिखित एक वृत्ति उपलब्ध होती है। इसमें केवल 333 सूत्र हैं, अत: यह अपूर्ण ही कही जा सकती है। यह मिथिलावृत्तिकार उपस्कारकर्त्ता शंकर मिश्र से प्राचीन प्रतीत होते हैं, क्योंकि इस वृत्ति में प्रशस्तपाद, उदयनाचार्य, भासर्वज्ञ, मानमनोहरकार वादिवागीश्वर का नामग्रहणपूर्वक उल्लेख मिलता है। यह वृत्ति शंकरकिंकराभिधान वादीन्द्रभट्टकृत कणादसूत्रनिबन्ध के साथ विषय और भाषा की दृष्टि से साम्य रखती है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि यह वृत्ति वादीन्द्ररचित व्याख्याग्रन्थ का सार है। वादिवागीश्वर का समय आठवीं से बारहवीं शती के बीच माना जाता है।<balloon title="आड्यार; ब्रह्मविद्यापात्रिका, खण्ड-6, पृ. 35-40" style=color:blue>*</balloon> किन्तु कतिपय विद्वानों का यह मत है कि यह वृत्ति चन्द्रानन्दवृत्ति तथा उपस्कार से पूर्व की है। किसी निश्चित लेखक के नाम के अभाव में ग्रन्थमाला के आधार पर इसको मिथिलावृत्ति कहा जाता है। यह ज्ञातव्य है कि एक अन्य वृत्ति वल्लाल सेन (1158-1178 ई.) के समय में लिखी गई थीं इसमें भी अन्तिम अध्याय का आह्निकों में विभाजन नहीं है।

शंकरमिश्ररचित उपस्कारवृत्ति

भवनाथ मिश्र और भवानी के पुत्र, श्रीनाथ के भ्रातृव्य, रघुदेवोपाध्याय के शिष्य, शंकरमिश्र (1400-1500 ई.) द्वारा रचित उपस्कार नामक वृत्ति काशी संस्कृत ग्रन्थमाला में प्रकाशित हुई, इसमें प्रशस्तदेव, धर्मकीर्ति, दिङ्नाग, उद्योतकर, उदयन, वल्लभाचार्य आदि का निर्देश उपलब्ध होता है। उपस्कार ही वैशेषिक सूत्रों के अध्ययन का प्रमुख आधार है। प्रो. एच. उई का मत है कि यह व्याख्या प्रशस्तपाद भाष्य से प्रभावित प्रतीत होती है और कहीं-कहीं यह सूत्र के अभिप्राय से दूर हो गई है। इसमें सूत्रसंख्या 370 है। उपस्कार में कहीं-कहीं नव्यन्याय की शैली में सूत्रों के अर्थ को स्पष्ट किया गया है। शंकर मिश्र ने वेदान्त पर भी ग्रन्थ लिखे हैं। उपस्कार पर विवृतिनाम्नी एक व्याख्या गौडदेशीय जयनारायण तर्कपंचानन ने 1867 ई. में लिखी।<balloon title="उपस्कार पर विवृतिनाम्नी टीका; बिबलियोथिका इन्डिका ग्रन्थमाला, बी. 134 में प्रकाशित है।" style=color:blue>*</balloon>

पद्मनाभ रचित कणाद रहस्यवृत्ति

बलभद्र और विजयश्री के पुत्र, न्यायबोधिनीकार गोवर्धन मिश्र के ज्येष्ठ भ्राता, पद्मनाभ मिश्र (1600 ई.) द्वारा इस वृत्ति की रचना की गई। किन्तु यह अभी तक अमुद्रित है।<balloon title="कणादरहस्याख्यावृत्ति की पाण्डुलिपि तंजाउर पुस्तकालय में उपलब्ध है।" style=color:blue>*</balloon>

गंगाधर सूरि रचित सिद्धान्त चन्द्रिका वृत्ति

बाधूल गोत्रोत्पन्न, देवसिंहमखि के पुत्र, विश्वरूपयति के शिष्य, भास्करराय के गुरु तथा तञ्जाउर-अधीश शाहजीनृपति के समकालीन, गंगाधर वाजपेयी नाम से प्रसिद्ध, गंगाधरसूरि (1650 ई.) द्वारा सिद्धान्त चन्द्रिका नामक वृत्ति की रचना की गई।<balloon title="सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति विरुवनन्तपुरम् पुस्तकमाला टी-एस-एस-25 में मुद्रित है" style=color:blue>*</balloon> इसकी एक व्याख्या प्रसादाख्या भी मूलकार के द्वारा रचित है।<balloon title="प्रसादाख्या व्याख्या की पाण्डुलिपि आड्यार पुस्तकालय तथा मद्रास राजकीय पुस्तकालय में उपलब्ध है" style=color:blue>*</balloon>

नागो जी भट्ट रचित पदार्थ दीपिकावृत्ति

शिवभट्ट तथा सती देवी के पुत्र, महाराष्ट्र में उत्पन्न, श्रृंगिवेरपुराधीश रामवर्मा द्वारा पोषित, भट्टोजि दीक्षित के पुत्र, हरिदीक्षित के शिष्य, गंगाराम वैद्यनाथ पायगुण्डे बाब शर्मा के गुरु, बालशर्मा के पिता, परिभाषेन्दुशेखर आदि के रचयिता, वैयाकरण नागोजी भट्ट (1670-1750 ई.) द्वारा पदार्थ दीपिकाख्या वैशेषिक सूत्रवृत्ति की रचना की गई थी, ऐसा उल्लेख सेन्ट्रल प्राविन्स बरार की पुस्तकसूची में उपलब्ध होता है।

कतिपय अन्य वृत्तियाँ

वैशेषिक दर्शन पर कुछ अन्य आधुनिक वृत्तियाँ भी हैं तद्यथा—

  1. देवदत्त शर्मा (1898 ई.) द्वारा रचित भाष्याख्या वृत्ति (मुरादाबाद से मुद्रित)
  2. चन्द्रकान्त तर्कालंकार (1887 ई.) द्वारा रचित तत्त्वावलीवृत्ति (चौ.से.मी. 48 में मुद्रित)
  3. पंचानन तर्कभट्टाचार्य (1406 ई.) द्वारा रचित परीक्षावृत्ति (कलकत्ता से मुद्रित)
  4. उत्तमूर वीरराघवाचार्य स्वामी (1950 ई.) द्वारा रचित रसायनाख्यावृत्ति (मद्रास से मुद्रित)
  5. चयनी उपनामक (वीरभद्र वाजपेयी के पुत्र) द्वारा रचित नयभूषणाख्यावृत्ति (अपूर्ण तथा अमुद्रित, मद्रास तथा अड्यार पुस्तकालय में उपलब्ध है)
  6. गंगाधर कविरत्न द्वारा संपादित भारद्वाजवृत्ति (त्रुटिपूर्ण, कलकत्ता से प्रकाशित)
  7. काशीनाथ शर्मा द्वारा वेदभास्करभाष्यामिधा वृत्ति (होशियारपुर से मुद्रित)

सर्वदेव रचित प्रमाणमंजरी

इस ग्रन्थ में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव का सात प्रकरणों में विश्लेषण किया गया है। इस वैशेषिक ग्रन्थ में भाव और अभाव भेद से पदार्थों का विभाग किया गया है। इसमें छ: हेत्वाभास और दो प्रमाण स्वीकार किए गए हैं। अभाव के प्रकारों के निरूपण में इसमें निम्नलिखित रूप से एक नई पद्धति अपनाई गई है—

अभाव

जन्य:
(प्रध्वंस:)
अजन्य:
विनाशी
(प्रागभाव:)
अविनाशी
समानाधकिरणानिषेध:


(इतरेतराभाव:)

असमानाधिकरणनिषेध:


(अत्यन्ताभाव:)


इसके रचयिता सर्वदेव का समय पन्द्रहवीं शती से पूर्व माना जाता है। प्रमाणमंजरी पर अद्वयारण्य, वामनभट्ट और बलभद्र द्वारा टीकाओं की रचना की गई है। ये टीकाएँ राजस्थान पुरातन ग्रन्थामाला में प्रकाशित हुई हैं।

रधुनाथ शिरोमणिरचित पदार्थ तत्त्व निरूपणम् (पदार्थखण्डनम्)

रघुनाथ शिरोमणि का जन्म सिलहर (आसाम) में हुआ था। विद्याभूषण के अनुसार इनका समय 1477-1557 ई. है। इनके पूर्वज मिथिला से आसाम में गये थे। इनके पिता का नाम गोविन्द चक्रवर्ती और माता का नाम सीता देवी था। गोविन्द चक्रवर्ती की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाने के कारण इनकी माता ने बड़े कष्ट के साथ इनका पालन किया। यात्रियों के एक दल के साथ वह गंगास्नान करने के लिए नवद्वीप पहुँची। संयोगवश उसने वासुदेव सार्वभौम के घर पर आश्रय प्राप्त किया। बासुदेव से ही रघुनाथ को विद्या प्राप्त हुई। बाद में रघुनाथ ने मिथिला पहुँच कर पक्षधर मिश्र से न्याय का अध्ययन किया। रधुनाथ ने अनेक ग्रन्थों की रचना की— 1.उदयन के आत्मतत्त्वविवेक और न्यायकुसुमांजलि पर टीका 2.श्रीहर्ष के खण्डनखण्डखाद्य पर - दीधिति 3.वल्लभ की न्यायलीलावती पर - दीधिति 4.गंगेश की तत्त्वचिन्तामणि पर - दीधिति 5.वर्धमान के किरणावलीप्रकाश पर - दीधिति रधुनाथ सभी विद्यास्थानों में दक्ष थे। उन्होंने अपनी शास्त्रार्थधौरेयता के संबन्ध में जो कथन किये, वे आज भी विद्वद्वर्ग में चर्चा के विषय बने रहते हैं। रधुनाथ द्वारा वैशेषिक दर्शन पर रचित पदार्थतत्त्वनिरूपण नामक ग्रन्थ पदार्थखण्डनम् तथा पदार्थविवेचनम् के अपर नामों से भी ख्यात है। रधुनाथ ने वैशेषिक के सात पदार्थों की समीक्षा की और विशेष के पदार्थत्व का खण्डन किया। इसी प्रकार उन्होंने नौ द्रव्यों के स्थान पर छ: द्रव्य माने। आकाश, काल और दिशा रधुनाथ की दृष्टि में तीन अलग-अलग द्रव्य नहीं, अपितु एक ही द्रव्य के तीन रूप हैं। उन्होंने परमाणु और द्वयणुक की संकल्पना का खण्डन किया और पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व और संख्या को गुण नहीं माना। 1.4.19 वैशेषिकप्रधान प्रकरण-ग्रन्थ प्रकरण एक विशेष प्रकार के ग्रन्थ होते हैं। इनमें सम्बद्धशास्त्र की समग्र विषयवस्तु का नहीं, अपितु उसके अंशों का ऐसा विश्लेषण किया जाता है जो परम्परा से कुछ भिन्न और नये मन्तव्यों से युक्त भी हो सकता है। न्याय और वैशेषिक के सिद्धान्तों में से कुछ अंशों (शास्त्रैकदेश) को चुनकर रचित प्रकरणग्रन्थों की संख्या पर्याप्त है। प्राय: जिन प्रकरणग्रन्थों में न्याय में परिगणित सोलह पदार्थों में वैशेषिकनिर्दिष्ट सात पदार्थों का अन्तर्भाव किया गया है, वे न्यायप्रधान प्रकरणग्रन्थ हैं- जैसे भासर्वज्ञ (1000 ई.) का न्यायसार, वरदराज (12वीं शती) की तार्किकरक्षा और केशव मिश्र 13वीं शती की तर्कभाषा, और जिन ग्रन्थों में वैशेषिक के सात पदार्थों में न्याय के सोलह पदार्थों का अन्तर्भाव किया गया है, वे वैशेषिकप्रधान प्रकरण-ग्रन्थ हैं- जैसे अन्नंभट्ट का तर्कसंग्रह, विश्वनाथ पंचानन का भाषापरिच्छेद और लौगाक्षिभास्कर की तर्ककौमुदी। यहाँ हम इन्हीं ग्रन्थकारों और ग्रन्थों का संक्षेप में उल्लेख कर रहे हैं- यो तो उदयनाचार्य की लक्षणावली और शिवादित्य की सप्तपदार्थी भी प्रकरण-ग्रन्थ ही है। किन्तु उनका उल्लेख प्रकीर्ण ग्रन्थों में पहले कर दिया गया है। 1.4.19.1 अन्नंभट्टविरचित तर्कसंग्रह अन्नंभट्ट आन्ध्रप्रदेश के चित्तूर जिले के रहने वाले थे। उन्होंने न्याय और वैशेषिक के पदार्थों का एक साथ विश्लेषण किया और न्याय के सोलह पदार्थों का वैशेषिक के सात पदार्थों में अन्तर्भाव दिखाया। इन्होंने गुण के अन्तर्गत बुद्धि और बुद्धि के अन्तर्गत प्रमाणों का विवेचन किया है। अन्नंभट्ट ने अपने इस ग्रन्थ पर तर्कसंग्रहदीपिकानाम्नी एक स्वोपज्ञ टीका भी लिखी। इस ग्रन्थ पर लगभग पैंतीस टीकाएँ उपलब्ध हैं। अन्नंभट्ट का समय सत्रहवीं शती माना जाता है। 1.4.19.2 विश्वनाथपंचानन-विरचित भाषापरिच्छेद विश्वनाथ पंचानन का जन्म 17वीं शती में नवद्वीप बंगाल में हुआ था। इनके पिता का नाम विद्यानिवास था। यह रघुनाथ शिरोमणि की शिष्य-परम्परा में गिने जाते हैं। इनके द्वारा रचित भाषारिच्छेद नामक ग्रन्थ कारिकावली अपर नाम से भी विख्यात है। इन्होंने भाषापरिच्छेद पर एक स्वोपज्ञ टीका लिखी, जिसका नाम न्यायसिद्धान्तमुक्तावली है। विश्वनाथ ने सात पदार्थों का परिगणन करके उनमें से द्रव्य के एक भेद आत्मा को बुद्धि का आश्रय बताया। बुद्धि के दो भेद- (1) अनुभूति और (2) स्मृति माने एवं अनुभूति के अन्तर्गत प्रमाणों का निरूपण किया। 1.4.19.3 लौगाक्षिभास्कर-रचित तर्ककौमुदी इनका वास्तविक नाम भास्कर और उपनाम लोगाक्षि था। इन्होंने मणिकर्णिका घाट का उल्लेख किया, अत: ऐसा प्रतीत होता है कि यह बनारस में रहते थे। इनका समय 1700 ई. माना जाता है। तर्ककौमुदी ग्रन्थ में इन्होंने द्रव्य, गुण, आदि सात पदार्थों का उल्लेख करके बुद्धि को आत्मा का गुण बताया तथा बुद्धि के दो भेद माने- (1) अनुभव और (2) स्मृति। अनुभव के भी इन्होंने दो भेद माने (1) प्रमा और (2) अप्रमा। प्रमा के भी दो भेद किये- (1) प्रत्यक्ष और (2) अनुमान। इस प्रकार इन्होंने न्याय के पदार्थों का वैशेषिक के पदार्थों में अन्तर्भाव बताया है। 1.4.20 वेणीदत्तरचित पदार्थमण्डनम् रधुनाथ शिरोमणि के ग्रन्थ पदार्थखण्डनम् (पदार्थनिरूपणम्) में उल्लिखित सूत्रविरोधी मन्तव्यों में से अनेक मन्तव्यों का खण्डन करते हुए वैशेषिक पदार्थों की मान्यताओं में कतिपय नवीन मन्तव्यों को जोड़ते हुए वेणीदत्त (अठारहवीं शतीं) ने 'पदार्थमण्डनम्' नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में उन्होंने पदार्थों का जो विश्लेषण किया, उसमें खण्डन-मण्डन ही नहीं, अपितु कई नये तथ्य और मन्तव्य भी प्रस्तुत किये हैं। वेणीदत्त सात नहीं, अपितु द्रव्य, गुण, कर्म, धर्म, और अभाव इन पाँच पदार्थों को मानते हैं। वह गुणों की संख्या भी चौबीस नहीं अपितु उन्नीस मानने के पक्ष में हैं। इनके ग्रन्थ के नाम से प्रतीत तो ऐसा होता है कि वेणीदत्त ने रघुनाथ शिरोमणि के मत का प्रत्याख्यान करने के लिए ग्रन्थ लिखा होगा, पर विशेष को पदार्थ न मानकर इन्होंने रघुनाथ के मत से अपनी सहमति भी प्रकट की है। इन्होंने यह कहा कि वह रघुनाथ के श्रुतिसूत्रविरुद्ध विचारों का खण्डन करते हैं। अत: सभी बातों में उनकी रघुनाथ से असहमति नहीं है। यह ग्रन्थ अठारहवीं शती में लिखा गया था। अत: यह आधुनिक चिन्तन की दृष्टि से भी ध्यान देने योग्य है। 1.5 प्रथमाध्याय का सार व समाहार वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद द्वारा वर्तमान वैशेषिक सूत्र के संग्रथन का समय भले ही 600 ई.पू. के आसपास माना जाता हो, किन्तु वैशेषिक शास्त्र की परम्परा अति प्राचीन है। वैशेषिक साहित्य का ज्ञात इतिहास 600 ई. पूर्व से अठारहवीं शती तक व्यापृत रहा है। इस लम्बी कालावधि में अनेक भाष्यकारों, टीकाकारों, वृत्तिकारों, और प्रकीर्ण ग्रन्थकारों ने वैशेषिक के चिन्तन को आगे बढ़ाया। न्यायवैशेषिक के अनेक आचार्यों ने दोनों दर्शनों को समन्वित रूप से प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया। वस्तुत: न्याय के अधिकतर आचार्यों का कहीं न कहीं वैशेषिक का संस्पर्श किये बिना काम नहीं चला, अत: वैसे तो वैशेषिक वाङमय में अनेक नैयायिकों और न्याय के ग्रन्थों का भी उल्लेख किया जाना अपेक्षित है, फिर भी यहाँ हमने केवल उन्हीं नैयायिकों और न्यायग्रन्थों का उल्लेख किया, जो वैशेषिक के चिन्तन से साक्षात् सम्बद्ध हैं।


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  1. क. कणादसूत्रनिबन्धवृत्ति की अपूर्ण प्रतियाँ मद्रास तथा बड़ौदा पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं। ख. J.O.I. Baroda, VoleX, No-1, PP. 22-31,