शबरी

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भक्तिमती शबरी / Shabri

शबरी का जन्म भील कुल में हुआ था। वह भीलराज की एकमात्र कन्या थीं उसका विवाह एक पशु स्वभाव के क्रूर व्यक्ति से निश्चय हुआ। अपने विवाह के अवसर पर अनेक निरीह पशुओं को बलि के लिये लाया गया देखकर शबरी का हृदय दया से भर गया। उसके संस्कारों में दया, अहिंसा और भगवद्धक्ति थी। विवाह की रात्रि में शबरी पिता के अपयश की चिन्ता छोड़कर बिना किसी को बताये जंगल की ओर चल पड़ी। रात्रि भर वह जी-तोड़कर भागती रही और प्रात:काल महर्षि मतंग के आश्रम में पहुँची। त्रिकालदर्शी ऋषि ने उसे संस्कारी बालिका समझकर अपने आश्रम में स्थान दिया। उन्होंने शबरी को गुरुमन्त्र देकर नाम –जप की विधि भी समझायी।


महर्षि मतंग ने सामाजिक बहिष्कार स्वीकार किया, किन्तु शरणागता शबरी का त्याग नहीं किया। महर्षि का अन्त निकट था। उनके वियोग की कल्पना मात्र से शबरी व्याकुल हो गयी। महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया- बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहनां प्रभु राम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आयेंगे। प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है। वे तो भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं।' शबरी का मन अप्रत्याशित आनन्द से भर गया और महर्षि की जीवन-लीला समाप्त हो गयी।


शबरी अब वृद्धा हो गयी थी।'प्रभु आयेंगे' गुरुदेव की यह वाणी उसके कानों में गूँजती रहती थी और इसी विश्वास पर वह कर्मकाण्डी ऋषियों के अनाचार शान्ति से सहती हुई अपनी साधना में लगी रही। वह नित्य भगवान के दर्शन की लालसा से अपनी कुटिया को साफ करती, उनके भोग के लिये फल लाकर रखती। आख़िर शबरी की प्रतीक्षा पूरी हुई। अभी वह भगवान के भोग के लिये मीठे-मीठे फलों का चखकर और उन्हें धोकर दोनों में सजा ही रही थी कि अचानक एक वृद्ध ने उसे सूचना दी- 'शबरी! तेरे राम भ्राता सहित आ रहे हैं।' वृद्ध के शब्दों ने शबरी में नवीन चेतना का संचार कर दिया। वह बिना लकुट लिये हड़बड़ी में भागी। श्री राम को देखते ही वह निहाल हो गयी और उनके चरणों में लोट गयी। देह की सुध भूलकर वह श्री राम के चरणों को अपने अश्रुजल से धोने लगी। किसी तरह भगवान श्री राम ने उसे उठाया। अब वह आगे-आगे उन्हें मार्ग दिखाती अपनी कुटिया की ओर चलने लगी। कुटिया में पहुँच कर उसने भगवान का चरण धोकर उन्हें आसन पर बिठाया। फलों के दोने उनके सामने रखकर वह स्नेहसिक्त वाणी में बोली- 'प्रभु! मैं आपको अपने हाथों से फल खिलाऊँगी। खाओगे न भीलनी के हाथ के फल? वैसे तो नारी जाति ही अधम है और मैं तो अन्त्यज, मूढ और गँवार हूँ। 'कहते-कहते शबरी की वाणी रूक गयी और उसके नेत्रों से अश्रुजल छलक पड़े।
श्री राम ने कहा-'बूढ़ी माँ! मैं तो एक भक्ति का ही नाता मानता हूँ। जाति-पाति, कुल, धर्म सब मेरे सामने गौण हैं। मुझे भूख लग रही है, जल्दी से मुझे फल खिलाकर तृप्त कर दो।' शबरी भगवान को फल खिलाती आती थी और वे बार-बार माँगकर खाते जाते थे। महर्षि मतंग की वाणी आज सत्य हो गयी और पूर्ण हो गयी शबरी की साधना। उसने भगवान को सीता की खोज के लिये सुग्रीव से मित्रता करने की सलाह दी और स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके सदा के लिये श्री राम के चरणों में लीन हो गयी। श्री राम-भक्ति की अनुपम पात्र शबरी धन्य है।

रामायण से

सीता को ढूंढ़ते हुए राम शबरी के आश्रम में पहुंचे। शबरी ने उनका आतिथ्य-सत्कार किया तथा कहा-'मैं जिन ऋषियों की सेवा करती थी, आपके चित्रकूट पर्वत पर पहुंचते ही वे सब असाधारण विमानों पर आरूढ़ होकर स्वर्ग चले गये तथा कह गये कि आप यहाँ पर आयेंगे और मैं आप लोगों का सत्कार करके अविनाशी लोक प्राप्त करूंगी। अत: मैंने यहाँ उत्पन्न होनेवाले फल-फूल आपके लिए एकत्र कर रखे हैं।' राम से आज्ञा प्राप्त करके शबरी ने अग्निकुण्ड में प्रवेश कर अपनी काया होम कर दी तथा स्वर्गलोक के लिए प्रस्थान किया।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, अरण्य कांड, सर्ग 74, 11-35" style="color:blue">*</balloon>

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