शर्मिष्ठा

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

शर्मिष्ठा / Sharmishtha

शर्मिष्ठा दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या जो शुक्राचार्य की कन्या देवयानी की सखी थी।

शर्मिष्ठा से जुडी कथाएँ

एक बार दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। उनके साथ में गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी भी थी। शर्मिष्ठा अति मानिनी तथा अति सुन्दर राजपुत्री थी किन्तु रूप लावण्य में देवयानी भी किसी प्रकार कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं। उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले। भगवान शंकर को आते देख वे सभी कन्याएँ लज्जावश से से दौड़ कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिये। इस पर देवयानी अति क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली, "रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।" देवयानी ने शर्मिष्ठा को इस प्रकार से और भी अनेक अपशब्द कहे। देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुएँ में धकेल दिया।

देवयानी को कुएँ में धकेल कर शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात दैववश राजा ययाति शिकार खेलते हुये वहाँ पर आ पहुँचे। अपनी प्यास बुझाने के लिये वे कुएँ के निकट गये और उस कुएँ में वस्त्रहीन देवयानी को देखा। उन्होंने देवयानी के देह को ढँकने के लिये अपना दुपट्टा उस पर डाल दिया और उसका हाथ पकड़कर उसे कुएँ से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेमपूर्वक राजा ययाति से कहा, "हे आर्य! आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको अपने पति रूप में स्वीकार करती हूँ। हे वीरश्रेष्ठ! यद्यपि मैं ब्राह्मण पुत्री हूँ किन्तु वृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण मेरा विवाह ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता। इसलिये आप मुझे अपने प्रारब्ध का भोग समझ कर स्वीकार कीजिये।" ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।


राजा ययाति की राजधानी अमरावती थी। शुक्राचार्य की बेटी देवयानी को ब्याहने के बाद ययाति ने उसे अपने महल के अन्त:पुर में प्रतिष्ठित किया। शर्मिष्ठा तथा दासियों के लिए देवयानी की राय से अशोक वाटिका में स्थान बनवाया और अन्न-वस्त्र की व्यवस्था की। कुछ समय बाद देवयानी को गर्भ रहा और एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ।

एक दिन ययाति अशोक वाटिका के पास पहुँच गये और वहां शर्मिष्ठा को देख कर ठिठक गए। ययाति को अकेला देख शर्मिष्ठा भी उनके निकट आयी और बोली, हे राजन् ! जैसे चंद्रमा, इन्द्र, विष्णु, यम और वरुण के महल में कोई स्त्री सुरक्षित रह सकती है , वैसे ही मैं आपके यहाँ सुरक्षित हूं। यहाँ मेरी ओर कौन दृष्टि डाल सकता है ? आप मेरा रूप , कुल और शील जानते हैं। यह मेरे ऋतु का समय है। मैं आपसे उसकी सफलता के लिए प्रार्थना करती हूं। आप मुझे ऋतुदान दीजिए।

ययाति ने शर्मिष्ठा का निवेदन स्वीकार किया और अशोक वाटिका में ही उसकी इच्छा पूरी की। लेकिन ययाति ने यह संबंध बनाए रखा और उसके साहचर्य का सुख भोगते रहे। अंत:पुर में रह रही देवयानी से उन्हें दो पुत्र हुए - यदु और तुर्वसु , और शर्मिष्ठा के साहचर्य से तीन पुत्र हुए - दुह्य , अवु और पुरू। इस प्रकार ययाति का समय आनंदपूर्वक बीतने लगा। एक दिन देवयानी भी विहार के लिए ययाति के साथ अशोक वाटिका में गई।

उसने देखा कि तीन सुन्दर कुमार खेल रहे हैं। उसने पूछा , आर्यपुत्र ! ये सुन्दर कुमार किसके हैं ? इनका सौन्दर्य तो आप जैसा ही मालूम पड़ता है। फिर देवयानी ने उन बच्चों से पूछा , तुम लोगों के नाम क्या हैं ? किस वंश के हो ? तुम्हारे मां - बाप कौन हैं ? बच्चों ने अपनी तोतली भाषा में कहा , हमारी मां हैं शर्मिष्ठा और राजा की ओर संकेत किया, ये हमारे पिता हैं। ऐसा कह वे प्रेम से ययाति के पास दौड़ गए।

देवयानी सारा रहस्य समझ गई। उसने शर्मिष्ठा से कहा , शर्मिष्ठे ! मेरी दासी हो कर भी मेरा अप्रिय करने में तू डरी नहीं ? शर्मिष्ठा ने कहा, हे मधुरहासिनी ! मैंने राजर्षि के साथ जो समागम किया है , वह धर्म और न्याय के अनुसार है। फिर मैं क्यों डरूं ? जब तुम्हारी दासी बन कर मुझे उन्हीं के आश्रय में रहना था, तो तुम्हारे साथ ही मैंने भी उन्हें अपना पति मान लिया। इसके बाद देवयानी ने शर्मिष्ठा को कुछ नहीं कहा। वह पलटी और ययाति की शिकायत अपने पिता शुक्राचार्य से की। शुक्राचार्य ने भी शर्मिष्ठा को कुछ नहीं कहा , पर नाराज हो ययाति का यौवन छीन लिया।