शारीरिकोपनिषद

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शारीरिकोपनिषद

कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित यह उपनिषद सृष्टि-प्रक्रिया का विशद वर्णन करता है। शरीर में विद्यमान पंचतत्त्वों का इसमें परिचय दिया गया है तथा शरीर स्थित सभी इन्द्रियों से परिचित कराया गया है। शरीर में अन्त:करण के चार बिन्दु कहां पर स्थित हैं तथा अनेकानेक तत्त्वों का विवेचन भी इस उपनिषद में किया गया है। 'तत्त्वबोध' की दृष्टि से इस उपनिषद का विशेष महत्त्व है। इसमें कुल बीस मन्त्र हैं।

पंचमहाभूतों का समुच्चय

हमारा यह शरीर पांच महाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश का सन्तुलित समुच्चय है। इनका सन्तुलित मिश्रण ही शरीर का आकार ग्रहण करता है। इसमें छठा तत्त्व 'प्राण' है, जिससे यह जीवन्त हो उठता है। शरीर का ठोस पदार्थ पृथिवीतत्त्व है, द्रव्य पदार्थ-जलतत्त्व है, उष्मा- अग्नितत्त्व है, सतत गतिशील- वायुतत्त्व है और छिद्रयुक्त ख़ाली स्थान- आकाशतत्त्व है। ये पांचों तत्त्व 'प्राण' द्वारा ही सक्रिय हो पाते हैं। उससे पूर्व शरीर का कोई महत्त्व नहीं है।

पांच ज्ञानेन्द्रियां

आंख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं, जिनका संचालन 'मन' के द्वारा होता है।

पांच कर्मोन्द्रियां

वाणी, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ (जननेन्द्रिय) पांच ही कर्मेन्दियां हैं। इनका संचालन भी 'मन' द्वारा होता है।

चार अन्त:करण बिन्दु

'मन,' 'बुद्धि, 'चित्त' (हृदय) और 'अहंकार, 'ये चार अन्त:करण बिन्दु कहे गये हैं। मन के द्वारा संकल्प-विकल्प किया जाता है। बुद्धि द्वारा निश्चय किया जाता है, चित्त द्वारा अवधारणा और अहंकार द्वारा अभिमान प्रकट किया जाता है। मन का स्थान गले का ऊपरी भाग, बुद्धि का स्थान मुख, चित्त का स्थान नाभि और अहंकार का स्थान हृदय है।

पंचमहाभूतों के अंश और गुण

  1. अस्ति, त्वचा, नाड़ी, रोम कूप तथा मांस पृथ्वी तत्त्व के अंश और शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध गुण हैं।
  2. मूत्र, कफ, रक्त, शुक्राणु तथा श्वेद (पसीना) जल तत्त्व के अंश हैं और शब्द, स्पर्श, रूप और रस गुण हैं।
  3. क्षुधा (भूख), पिपासा (प्यास), आलस्य, मोह और मैथुन अग्नि तत्त्व के अंश हैं और शब्द, स्पर्श और रूप, ये तीन गुण हैं।
  4. फैलाना, दौड़ना, गति, उड़ना, पलकों आदि का संचालन वायु तत्त्व के अंश हैं और शब्द तथा स्पर्श गुण हैं।
  5. काम, क्रोध, लोभ, मोह और भय आदि आकाश तत्त्व के अंश हैं और 'शब्द' एकमात्र गुण है।

तीन गुण कौन से हैं?

'सात्विक', 'राजसिक' तथा 'तामसिक' तीन गुण हैं।

  • 'सात्विक' गुणों में, अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्रोध न करना, गुरु की सेवा, शुचिता, सन्तोष, सरलता, संवेदना, दम्भ न करना, आस्तिकता आदि गुण आते हैं।
  • 'राजसिक' गुणों में, भोग-विलास की प्रवृत्ति, शक्ति-मद, वाणी-मद, वैभव-लालसा आदि गुण आते हैं।
  • 'तामसिक' गुणों में, निद्रा, आलस्य, मोह, आसक्ति, मैथुन, चोरी करना, हिंसा करना, सताना आदि कर्म आते हैं।

सर्वश्रेष्ठ गुण 'सात्विक' ही माने गये हैं। 'ब्रह्मज्ञान' सात्विक माना जाता है। 'धर्मज्ञान' राजसिक प्रवृत्ति मानी जाती है और 'अज्ञान' तामसी प्रवृत्ति का द्योतम है।

चार अवस्थाएं

  1. 'जाग्रत', 'स्वप्न','सुषुप्ति' और 'तुरीय'- ये चार अवस्थाएं हैं।
  2. 'जाग्रत' अवस्था में ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय तथा चार अन्त:करण मिलकर चौदह करण (सक्रिय) रहते हैं।
  3. 'स्वप्नावस्था' में चार अन्त:करण संयुक्त रूप से सक्रिय रहते हैं।
  4. 'सुषुप्ति' अवस्था में केवल चित ही सक्रिय रहता है।
  • 'तुरीयावस्था' में केवल जीवात्मा सक्रिय रहता है।

सूक्ष्म शरीर क्या है?

ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्दिय, पांच प्राण, मन तथा बुद्धि, इन सत्रह का 'सूक्ष्म स्वरूप लिंग शरीर' कहा गया है।

आठ विकार क्या हैं?

मन, बुद्धि, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, ये आठ प्रकृति के विकार कहे गये हैं।

अन्य विकार कौन से हैं?

उपर्युक्त आठ विकारों के अतिरिक्त पन्द्रह अन्य विकारों में –कान, त्वचा, आंख, जिह्वा, नाक, गुदा, उपस्थ (जननेन्द्रिय), हाथ, पैर, वाणी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि हैं। इनके साथ उपर्युक्त आठ विकारों को मिलाने से ये तेईस तत्त्व हो जाते हैं। इनसे अलग अव्यक्त तत्त्व 'प्रकृति' का है। उससे भी अलग तत्त्व 'पुरुष' (ब्रह्म) का है। इस प्रकार सभी पच्चीस तत्त्वों का योग हो जाता है। इन पच्चीस तत्त्वों के योग से ही समस्त ब्रह्माण्ड की रचना हुई है।

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