शिवरात्रि

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शिवरात्रि / शिव चौदस / Shivaratri / Shiv Chaturdashi

शिवरात्रि का अर्थ

वह रात्रि जिसका शिवतत्व से घनिष्ठ संबंध है। भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को शिव रात्रि कहा जाता है। शिव पुराण के ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए-

फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत: इसी समय जीवन रूपी चन्द्रमा का शिवरूपी सूर्य के साथ योग मिलन होता है । अत: इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने से जीव को अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रि का महत्व है। महाशिवरात्रि का पर्व परमात्मा शिव के दिव्य अवतरण का मंगल सूचक पर्व है। उनके निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर आदि विकारों से मुक्त करके परमसुख, शान्ति एवं ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।
शिव भक्तों का महापर्व शिवरात्रि

  • महाशिवरात्रि का पर्व शिवभक्तों द्वारा अत्यंत श्रद्धा व भक्ति से मनाया जाता है । यह त्योहार हर वर्ष फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चौदहवीं तिथि को मनाया जाता है। अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार यह दिन फरवरी या मार्च में आता है।
  • शिवरात्रि शिव भक्तों के लिए बहुत शुभ है। भक्तगण विशेष पूजा आयोजित करते है, विशेष ध्यान व नियमों का पालन करते हैं। इस विशेष दिन मंदिर शिव भक्तों से भरे रहते हैं , वे शिव के चरणों में प्रणाम करने को आतुर रहते हैं। मन्दिरों की सजावट देखते ही बनती है। हज़ारों भक्त इस दिन कावड़ में गंगा जल लाकर भगवान शिव को स्नान कराते हैं।

देवाधिदेव शिव के पूजन का महापर्व- भारतीय त्रिमूर्ति के अनुसार भगवान शिव प्रलय के प्रतीक हैं त्रिर्मूति के दो और भगवान हैं, विष्णु तथा ब्रह्मा। शिव का चित्रांकन एक क्रुद्ध भाव द्वारा किया जाता है। ऐसा प्रतीकात्मक व्यक्ति भाव, जिसके मस्तक पर तीसरी आंख है; जो जैसे ही खुलती है, अग्नि का प्रवाह बहना प्रारम्भ हो जाता है। पुराणों के अनुसार जब कामदेव ने शिव के ध्यान को तोडने की चेष्टा की थी, तो शिव का तीसरा नेत्र खोलने से कामदेव जलकर राख हो गया था।

गर्तेश्वर महादेव मन्दिर, मथुरा
Garteshwar Mahadev Temple, Mathura

महाशिवरात्रि का महत्व तीन कथाएं इस पर्व से जुड़ी हैं:-

  • एक बार मां पार्वती ने शिव से पूछा कि कौन-सा व्रत उनको सर्वोत्तम भक्ति व पुण्य प्रदान कर सकता है? तब शिव ने स्वयं इस शुभ दिन के विषय में बताया था कि फाल्गुन कृष्ण पक्ष के चतुर्दशी की रात्रि को जो उपवास करता है, वह मुझे प्रसन्न कर लेता है। मैं अभिषेक, वस्त्र, धूप, अर्घ्य तथा पुष्प आदि समर्पण से उतना प्रसन्न नहीं होता, जितना कि व्रत-उपवास से।
  • इसी दिन, भगवान विष्णुब्रह्मा के समक्ष सबसे पहले शिव का अत्यंत प्रकाशवान आकार प्रकट हुआ था। ईशान संहिता के अनुसार – श्री ब्रह्मा व श्रीविष्णु को अपने अच्छे कर्मों का अभिमान हो गया इससे दोनों में संघर्ष छिड़ गया। अपना महात्म्य व श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए दोनों आमादा हो उठे। तब श्रीशिव ने हस्तक्षेप करने का निश्चय किया, चूंकि वे इन दोनों देवताओं को यह आभास व विश्वास दिलाना चाहते थे कि जीवन भौतिक आकार-प्रकार से कहीं अधिक है। श्रीशिव एक अग्नि स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए। इस स्तम्भ का आदि या अंत दिखाई नहीं दे रहा था। श्रीविष्णु और श्रीब्रह्मा ने इस स्तम्भ के ओर-छोर को जानने का निश्चय किया। श्रीविष्णु नीचे पाताल की ओर इसे जानने गए और श्रीब्रह्मा अपने हंस वाहन पर बैठ ऊपर गए वर्षों यात्रा के बाद भी वे इसका आरंभ या अंत न जान सके। वे वापस आए, अब तक उनक क्रोध भी ग़लत हो चुका था तथा उन्हें भौतिक आकार की सीमाओं का ज्ञान मिल गया था। जब उन्होंने अपने अहम् को समर्पित कर दिया, तब श्रीशिव प्रकट हुए तथा सभी विषय वस्तुओं को पुनर्स्थापित किया। शिव का यह प्राकट्य फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को ही हुआ था। इसलिए इस रात्रि को महाशिवरात्रि कहते हैं।
  • इसी दिन भगवान शिव और आदि शक्ति का विवाह हुआ था। भगवान शिव का ताण्डव और भगवती का लास्यनृत्य दोनों के समन्वय से ही सृष्टि में संतुलन बना हुआ है, अन्यथा ताण्डव नृत्य से सृष्टि खण्ड- खण्ड हो जाये। इसलिए यह महत्वपूर्ण दिन है।

महान अनुष्ठानों का दिन- श्रीशिव की जीवन शैली के अनुरूप, यह दिन संयम से मनाया जाता है तथा अधिक उत्सव नहीं मनाये जाते हैं। घरों में यह त्योहार संतुलित व मर्यादित रूप में मनाया जाता है। पंडित व पुरोहित शिवमंदिर में एकत्रित हो बड़े-बड़े अनुष्ठानों में भाग लेते हैं। कुछ मुख्य अनुष्ठान है- रुद्राभिषेक, रुद्र महायज्ञ, रुद्र अष्टाध्यायी का पाठ, हवन, पूजन तथा बहुत प्रकार की अर्पण-अर्चना करना। इन्हें फूलों व शिव के एक हज़ार नामों के उच्चारण के साथ किया जाता है। इस धार्मिक कृत्य को लक्षार्चना या कोटि अर्चना कहा गया है। इन अर्चनाओं को उनकी गिनती के अनुसार किया जाता है। जैसे –

  1. लक्ष: लाख बार,
  2. कोटि: एक करोड बार।

ये पूजाएं देर दोपहर तक तथा पुन: रात्रि तक चलती हैं। इस दिन उपवास किये जाते हैं, जब उनकी नितांत आवश्यकता हो।
शिवरात्रि कैसे मनाएं?

  • रात्रि में उपवास करें। दिन में केवल फल और दूध पियें।
  • भगवान शिव की विस्तृत पूजा करें, रुद्राभिषेक करें तथा शिव के मन्त्र

देव-देव महादेव नीलकंठ नमोवस्तु ते।
कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तब ॥
तब प्रसादाद् देवेश निर्विघ्न भवेदिति।
कामाद्या: शत्रवो मां वै पीडांकुर्वन्तु नैव हि॥ का यथा शक्ति पाठ करें और शिव महिमा से युक्त भजन गांए।

  • ‘ऊँ नम: शिवाय’ मन्त्र का उच्चारण जितनी बार हो सके, करें तथा मात्र शिवमूर्ति और भगवान शिव की लीलाओं का चिंतन करें।

शिवरात्रि या शिवचौदस नाम क्यों?

  • फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की महादशा यानी आधी रात के वक़्त भगवान शिव लिंग रूप में प्रकट हुए थे, ऐसा ईशान संहिता में कहा गया है। इसीलिए सामान्य जनों के द्वारा पूजनीय रूप में भगवान शिव के प्राकट्य समय यानी आधी रात में जब चौदस हो उसी दिन यह व्रत किया जाता है।

शिव पूजा में बिल्व पत्र का महत्व- बेल (बिल्व) के पत्ते श्रीशिव को अत्यंत प्रिय हैं। शिव पुराण में एक शिकारी की कथा है। एक बार उसे जंगल में देर हो गयी , तब उसने एक बेल वृक्ष पर रात बिताने का निश्चय किया। जगे रहने के लिए उसने एक तरकीब सोची- वह सारी रात एक-एक कर पत्ता तोडकर नीचे फेंकता जाएगा। कथानुसार, बेलवृक्ष के ठीक नीचे एक शिवलिंग था। शिवलिंग पर प्रिय पत्तों का अर्पण होते देख, शिव प्रसन्न हो उठे। जबकि शिकारी को अपने शुभ कृत्य का आभास ही नहीं था। शिव ने उसे उसकी इच्छापूर्ति का आशीर्वाद दिया। यह कथा न केवल यह बताती है कि शिव को कितनी आसानी से प्रसन्न किया जा सकता है, बल्कि यह भी कि इस दिन शिव पूजन कितना महत्वपूर्ण है।
शिवलिंग क्या है?

  • वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनंत ब्रह्माण्ड का अक्स ही लिंग है। इसीलिए इसका आदि और अन्त भी साधारण जनों की क्या बिसात, देवताओं के लिए भी अज्ञात है। सौरमण्डल के ग्रहों के घूमने की कक्षा ही शिव तन पर लिपटे सांप हैं।
  • मुण्डकोपनिषद के कथानुसार सूर्य, चांद और अग्नि ही आपके तीन नेत्र हैं। बदलों के झुरमुट जटाएं , आकाश जल ही सिर पर स्थित गंगा और सारा ब्रह्माण्ड ही आपका शरीर है। शिव कभी गर्मी के आसमान (शून्य) की तरह कर्पूर गौर या चांदी की तरह दमकते, कभी सर्दी के आसमान की तरह मटमैले होने से राख भभूत लिपटे तन वाले हैं। यानी शिव सीधे-सीधे ब्रह्माण्ड या अनन्त प्रकृति की ही साक्षात मूर्ति हैं। मानवीकरण में वायु प्राण, दस दिशाएँ , पंचमुख महादेव के दस कान, ह्रदय सारा विश्व , सूर्य नाभि या केन्द्र और अमृत यानी जलयुक्त कमण्डलु हाथ में रहता है।

शिव महादेव क्यों हैं?
बड़ा या महान बनने के लिए त्याग, तपस्या, धीरज, उदारता और सहनशक्ति की दरकार होती है। विष को अपने भीतर ही सहेजकर आश्रितों के लिए अमृत देने वाले होने से और विरोधों, विषमताओं को भी संतुलित रखते हुए एक परिवार बनाए रखने से आप महादेव हैं। आपके समीप पार्वती का शेर, आपका बैल , शरीर के सांप , कुमार कार्तिकेय का मोर , गणेशजी का मूषक, विष की अग्नि और गंगा का जल, कभी पिनाकी धनुर्धर वीर तो कभी नरमुण्डधर कपाली, कहीं अर्धनारीश्वर तो कहीं महाकाली के पैरों में लुण्ठित, कभी मृड यानी सर्वधनी तो कभी दिगम्बर, निमार्णदेव भव और संहारदेव रुद्र, कभी भूतनाथ कभी विश्वनाथ आदि सब विरोधी बातों का जिनके प्रताप से एक जगह पावन संगम होता हो, वे ही तो देवों के देव महादेव हो सकते हैं।
बेलपत्र, भाँग, धतूरा का चढ़ावा

गोकरन नाथ महादेव, मथुरा
Gokaran Nath Mahadeva, Mathura

शब्द रूप में ओंकार होने से ‘अ’ यानी सत्वगुण या निर्माण रचना या सृष्टि , ‘उ’ रूप में स्थित रजोगुण या पालन करना और ‘म’ यानी तमोगुण रूप में संहार , समापन या उपसंहार करके फिर नूतन निर्माण का सूत्रपात करने जैसे जेनरेशन, आपरेशन और डिस्टृक्शन, या सृष्टि स्थिति संहार की एक साथ समन्वित शक्ति सम्पन्नता के प्रतीक रूप में तीन दलों वाले, त्रिगुणाकार बेलपत्र और विष के प्रतिनिधि रूप में भांग धतूरा आदि अर्पण किया जाता है।
लिंग क्या है?
इस शब्द का अर्थ चिह्न, निशानी या प्रतीक है। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्द पुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा गया है।
शिवलिंग मंदिरों में बाहर क्यों?
जनसाधारण के देवता होने से, सबके लिए सदा गम्य या पहुँच में रहे, ऐसा मानकर ही यह स्थान तय किया गया है। ये अकेले देव हैं जो गर्भगृह में भक्तों को दूर से ही दर्शन देते हैं। इन्हें तो बच्चे-बूढे-जवान जो भी जाए छूकर, गले मिलकर या फिर पैरों में पड़कर अपना दुखड़ा सुना हल्के हो सकते हैं। भोग लगाने अर्पण करने के लिए कुछ न हो तो पत्ता-फूल, या अंजलि भर जल चढ़ाकर भी खुश किया जा सकता है।
जल क्यों चढ़ता है?
रचना या निर्माण का पहला पग बोना, सींचना या उडेलना हैं। बीज बोने के लिए गर्मी का ताप और जल की नमी की एक साथ जरुरत होती है। अत: आदिदेव शिव पर जीवन की आदिमूर्ति या पहली रचना, जल चढ़ाना ही नहीं लगातार अभिषेक करना अधिक महत्वपूर्ण होता जाता है। सृष्टि स्थिति संहार लगातार, बार – बार होते ही रहना प्रकृति का नियम है। अभिषेक का बहता जल चलती, जीती-जागती दुनिया का प्रतीक है।
शनि को शिवपुत्र क्यों कहतें हैं?
संस्कृत शब्द शनि का अर्थ जीवन या जल और अशनि का अर्थ आसमानी बिजली या आग है। शनि की पूजा के वैदिक मन्त्र में वास्तव में गैस, द्रव और ठोस रूप में जल की तीनों अवस्थाओं की अनुकूलता की ही प्रार्थना है। खुद मूल रूप में जल होने से शनि का मानवी करण पुराणों में शिवपुत्र या शिवदास के रूप में किया गया है। इसीलिए कहा जाता है कि शिव और शनि दोनों ही खुश हों तो निहाल करें और नाराज हों तो बेहाल करतें हैं।
लेकिन शनि तो सूर्य पुत्र है
सूर्य जीवन का आधार, सृष्टि स्थिति का मूल , वर्षा का कारण होने से पुराणों में खुद शिव या विष्णु का रूप माना गया है। निर्देश है कि शिव या विष्णु की पूजा , सूर्य पूजा के बिना अधूरी है। खुद सूर्य जलकारक दायक पोषक होने और शनि स्वयं जल रूप होने इस बात में कोई विरोध नहीं हैं।
जब मंदिर न जा सकें
लिंग पुराण आदि ग्रन्थों में कहा गया है कि घर पर लकडी , धातु, मिट्टी, रेत, पारद, स्फटिक आदि के बने लिंग पर अर्चना की जा सकती है। अथवा साबुत बेल फल, आंवला, नारियल, सुपारी या आटे या मिट्टी की गोल पर घी चुपडकर अभिषेक पूजा कर सकते हैं। विशेष मनोरथ के तालिका दे रहे हैं कपड़े बांध कर या लपेटकर इनसे लिंग बना सकते हैं।

शिवलिंग, नीलकन्ठेश्वर महादेव, मथुरा
Shivling, Neelkantheshwar Temple, Mathura

<tab class=brajtable sep=comma head=top> लिंग पदार्थ,,कामना मिट्टी,,सब कामनाएँ कलावा,,विरोधशमन कपूर,कुंकुम,,सुख फूल,,राज्य आटा,,वंशवृद्धि गुड़, चीनी,,स्वास्थ्य फल,, संतान अनाज,,बरकत दूब घास,,अपमृत्यु बचाव तिल की पीठी,,ख़ास इच्छा </tab> शिव को पंचमुख क्यों कहते हैं? पांच तत्व ही पांच मुख हैं। योगशास्त्र में पंचतत्वों के रंग लाल, पीला, सफेद , सांवला व काला बताए गए हैं इनके नाम भी सद्योजात (जल) , वामदेव (वायु) , अघोर (आकाश), तत्पुरुष (अग्नि), ईशान (पृथ्वी) हैं। प्रकृति का मानवीकरण ही पंचमुख होने का आधार है।
रात की चार पूजाओं में विशेष रात्रि में चारों पहरों की पूजा में अभिषेक जल में पहले पहर में दूध, दूसरे में दही, तीसरे में घी और चौथे में शहद को मुख्यत: शामिल करना चाहिए।

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