श्रावस्ती

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
फ़ौज़िया ख़ान (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:११, २२ अप्रैल २०११ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

श्रावस्ती / Shravasti

प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष, श्रावस्ती

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के गोंडा-बहराइच जिलों की सीमा पर यह बौद्ध तीर्थ स्थान है। गोंडा-बलरामपुर से 12 मील पश्चिम में आधुनिक सहेत-महेत गांव ही श्रावस्ती है। पहले यह कौशल देश की दूसरी राजधानी थी, भगवान राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया था, श्रावस्ती बौद्ध जैन दोनों का तीर्थ स्थान है, तथागत श्रावस्ती में रहे थे, यहाँ के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने भगवान बुद्ध के लिये जेतवन बिहार बनवाया था, आजकल यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर है।

प्राचीन नगर

यह कोसल-जनपद का एक प्रमुख नगर था। वहाँ का दूसरा प्रसिद्ध नगर अयोध्या था। श्रावस्ती नगर अचिरावती नदी के तट पर बसा था, जिसकी पहचान आधुनिक राप्ती नदी से की जाती है। इस सरिता के तट पर स्थित आज का सहेट-महेट प्राचीन श्रावस्ती का प्रतिनिधि है। इस नगर का यह नाम क्यों पड़ा, इस संबन्ध में कई तरह के वर्णन मिलते हैं। बौद्ध धर्म -ग्रन्थों के अनुसार इस समृद्ध नगर में दैनिक जीवन मं काम आने वाली सभी छोटी-बड़ी चीजें बहुतायत में बड़ी सुविधा से मिल जाती थीं, अतएव इसका यह नाम पड़ गया था।

जेतवन, श्रावस्ती
Jetavana, Sravasti

नाम की उत्पत्ति

बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर के नाम की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य उल्लेख भी मिलता है। इनके अनुसार सवत्थ (श्रावस्त) नामक एक ऋषि यहाँ पर रहते थे, जिनकी बड़ी ऊँची प्रतिष्ठा थी। इन्हीं के नाम के आधार पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पाणिनि ने, जिनका समय आज से नहीं कुछ तो चौबीस या पचीस सौ साल पहले था, अपने प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ 'अष्टाध्यायी' में साफ लिखा है कि स्थानों के नाम वहाँ रहने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम के आधार पर पड़ जाते थे। महाभारत के अनुसार श्रावस्ती के नाम की उत्पत्ति का कारण कुछ दूसरा ही था। श्रावस्त नामक एक राजा हुये जो कि पृथु की छठीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये थे। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पुराणों में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामणिक मानना उचित बात होगी। बाद में चल कर कोसल की राजधानी, अयोध्या से हटाकर श्रावस्ती ला दी गई थी और यही नगर कोसल का सबसे प्रमुख नगर बन गया। एक बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार वहाँ 57 हज़ार कुल रहते थे और कोसल-नरेशों की आमदनी सबसे ज़्यादा इसी नगर से हुआ करती थी। गौतम बुद्ध के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना हुआ करती थी। यह चौड़ी और गहरी खाई से घिरा हुआ था। इसके अतिरिक्त इसके इर्द-गिर्द एक सुरक्षा-दीवाल भी थी, जिसमें हर दिशा में दरवाजे बने हुये थे। हमारी प्राचीन कला में श्रावस्ती के दरवाजों का अंकन हुआ है। उससे ज्ञात होता है कि वे काफ़ी चौड़े थे और उनसे कई बड़ी सवारियाँ एक ही साथ बाहर निकल सकती थीं। कोसल के नरेश बहुत सज-धज कर बड़ी हाथियों की पीठ पर कसे हुये चाँदी या सोने के हौदों में बैठ कर बड़े ही शान के साथ बाहर निकला करते थे। चीनी यात्री फाहियान और हुयेनसांग ने भी श्रावस्ती के दरवाजों का उल्लेख किया है।

नगर का विकास

स्तूप, जेतवन, श्रावस्ती

हमारे कुछ पुराने ग्रन्थों के अनुसार कोसल का यह प्रधान नगर सर्वदा रमणीक, दर्शनीय, मनोरम और धनधान्य से संपन्न था। इसमें सभी तरह के उपकरण मौजूद थे। इसको देखने से लगता था, मानों देवपुरी अकलनन्दा ही साक्षात धरातल पर उतर आई हो। नगर की सड़कें चौड़ी थीं और इन पर बड़ी सवारियाँ भली भाँति आ सकती थीं नागरिक श्रृंगार-प्रेमी थे। वे हाथी, घोड़े और पालकी पर सवार होकर राजमार्गों पर निकला करते थे। इसमें राजकीय कोष्ठागार (कोठार) बने हुये थे जिनमें घी, तेल और खाने-पीने की चीजें प्रभूत मात्रा में एकत्र कर ली गई थीं। वहाँ के नागरिक गौतम बुद्ध के बहुत बड़े भक्त थे। 'मिलिन्दप्रश्न' नामक ग्रन्थ में चढ़ाव-बढ़ाव के साथ कहा गया है कि इसमें भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ थी। इसके अलावा वहाँ के तीन लाख सत्तावन हज़ार गृहस्थ बौद्ध धर्म को मानते थे। इस नगर में जेतवन नाम का एक उद्यान था जिसे वहाँ के जेत नामक राजकुमार ने आरोपित किया था। इस नगर का अनाथपिण्डिक नामक सेठ जो बुद्ध का प्रिय शिष्य था, इस उद्यान के शान्तिमय वातावरण से बड़ा प्रभावित था। उसने इसे ख़रीद कर बौद्ध संघ को दान कर दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में कथा आती है कि इस पूँजीपति ने जेतवन को उतनी ही मुद्राओं में ख़रीदी थीं जितनी की बिछाने पर इसकी पूरी फर्श को भली प्रकार ढक देती थीं। उसने इसके भीतर एक मठ भी बनवा दिया जो कि श्रावस्ती आने पर बुद्ध का विश्रामगृह हुआ करता था। इसे लोग 'कोसल मन्दिर' भी कहते थे। अनाथपिंडिक ने जेतवन के भीतर कुछ और भी मठ बनवा दिये जिनमें भिक्षु लोग रहते थे। इनमें प्रत्येक के निर्माण में एक लाख मुद्रायें ख़र्च हुई थीं। इसके अतिरिक्त उसने कूएँ, तालाब और चबूतरे आदि का भी वहाँ निर्माण करा दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि जेतवन में रहने वाले भिक्षु सुबह और शाम राप्ती नदी में नहाने के लिये आते थे। लगता है कि यह उद्यान इसके तट के समीप ही कहीं स्थित था। अनाथपिंडिक ने अपने जीवन की सारी कमाई बौद्ध संघ के हित में लगा दी थी। उसके घर पर श्रमणों को बहुसंख्या में प्रति दिन यथेष्ट भोजन कराया जाता था। गौतम बुद्ध के प्रति श्रद्धा के कारण श्रावस्ती नरेशों ने इस नगर में दानगृह बनवा रखा था, जहाँ पर भिक्षुओं को भोजन मिलता था।

जेतवन, श्रावस्ती
Jetavana, Sravasti

अन्य प्रसिद्ध स्थान

इस नगर के अन्य प्रसिद्ध स्थानों में पूर्वाराम और मल्लिकाराम उल्लेखनीय हैं। पूर्वाराम का निर्माण नगर के धनिक सेठ मृगधर की पुत्रवधु विशाखा के द्वारा कराया गया था। यह नगर के पूर्वी दरवाजे के पास बना था। संभवत: इसीलिये इसका नाम पूर्वाराम (अर्थात पूरबी मठ) पड़ा। यह दो मंज़िला भवन था, जिसमें मजबूती लाने के लिये पत्थरों की चुनाई की गई थी। लगता है कि मल्लिकाराम इससे बड़ा विश्राम-भवन था, जिसमें ऊपर और नीचे कई कमरे थे। इसका निर्माण श्रावस्ती की मल्लिका नाम की साम्राज्ञी के द्वारा कराया गया था। नगरों में आने वाले बौद्ध परिब्राजक, निर्ग्रन्थ, जैन साधु-संन्यासी और नाना धर्मों के अनुयायियों के विश्राम तथा भोजन-वस्त्र की पूरी सुख-सुविधा थी। गौतम बुद्ध के प्रिय शिष्य आनन्द, सारिपुत्र, मौद्गल्यायन तथा महाकाश्यप आदि ने भी वहाँ के नागरिकों को अपने सदुपदेशों से प्रभावित किया था। उनकी अस्थियों के ऊपर यहाँ स्तूप बने हुये थे। अशोक धर्म-यात्रा के प्रसंग में श्रावस्ती आया हुआ था। उसने इन स्तूपों पर भी पूजा चढ़ाई थी।

जैन धर्म

जेतवन, श्रावस्ती
Jetavana, Sravasti

इस नगर में जैन मतावलंबी भी रहते थे। इस धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी वहाँ कई बार आ चुके थे। नागरिकों ने उनका दिल खोल कर स्वागत किया और अनेक उनके अनुयायी बन गये। वहाँ पर ब्राह्मण मतावलंबी भी मौजूद थे। वेदों का पाठ और यज्ञों का अनुष्ठान आदि इस नगर में चलता रहता था। मल्लिकाराम में सैकड़ों ब्राह्मण साधु धार्मिक विषयों पर वादविवाद में संलग्न रहा करते थे। विशेषता यह थी कि वहाँ के विभिन्न धर्मानुयायियों में किसी तरह के सांप्रदायिक झगड़े नहीं थे।


लगता है कि जैसे-जैसे कोसल-साम्राज्य का अध:पतन होने लगा, वैसे-वैसे श्रावस्ती की भी समृद्धि घटने लगी। जिस समय चीनी यात्री फाहियान वहाँ पहुँचा, उस समय वहाँ के नागरिकों की संख्या पहले की समता में कम रह गई थी। अब कुल मिला कर केवल दो सौ परिवार ही वहाँ रह गये थे। पूर्वाराम, मल्लिकाराम और जेतवन के मठ खंडहर को प्राप्त होने लगे थे। उनकी दशा को देखकर वह दुखी हो गया। उसने लिखा है कि श्रावस्ती में जो नागरिक रह गये थे, वे बड़े ही अतिथि-परायण और दानी थे। हुयेनसांग के आगमन के समय यह नगर उजड़ चुका था। चारों ओर खंडहर ही दिखाई दे रहे थे। वह लिखता है कि यह नगर समृद्धिकाल में तीन मील के घेरे में बसा हुआ था। आज भी अगर आप को गोंडा ज़िले में स्थित सहेट-महेट जाने का अवसर मिले, तो वहाँ श्रावस्ती के विशाल खंडहरों को देख कर इसके पूर्वकालीन ऐश्वर्य का अनुमान आप लगा सकते हैं।