संगीत

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संगीत (गान-वाद्य) कला / Music

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महामुनि भरत कृत 'नाट्य शास्त्र' में वर्णित मार्गी संगीत के सिद्धांत और उसकी गान-शैली का ऐसा व्यापक प्रचार हुआ कि उसका प्रभाव उस काल में ही नहीं, वरन उसके बाद भी कई शताब्दियों तक रहा था। ब्रज की प्राचीन संगीत कला भी उसी से प्रभावित, नियंत्रित एवं अनुप्राणित रही थी। इसका उल्लेख तत्कालीन धार्मिक एवं साहित्यिक ग्रंथों में मिलता है। जहाँ तक उनसे संबंधित पुरातात्विक प्रमाणों की बात है वे शुंग काल से पहले के उपलब्ध नहीं है।

तथ्य

मथुरा मंडल में विविध धर्मों के देव-स्थानों के स्तंभों एवं दीवारों तथा स्तूपों और विहारों की वेदिकाओं एवं तोरणों पर उत्कीर्ण ऐसे बहुसंख्यक कलावशेष मिले हैं, जिन पर संगीत के विविध दृश्य अंकित हैं। उनसे ज्ञात होता है कि उस काल में इस जनपद के सभी वर्ग के नर-नारी संगीत में रूचि रखते थे। वे जिन वाद्य यंत्रों का उपयोग करते थे, उनमें मृदंग , शंख, वीणा, वंशी और दुंदुभि प्रमुख थे।

महामुनि भरत और नाट्य शास्त्र

महामुनि भरत और 'मार्गी' भरत के नाम की प्रसिद्धि भारतीय नाट्य कला के प्रवर्तक और नाट्य शास्त्र ग्रंथ के रचयिता के रूप में है। नाट्य कला का गान-वाद्य कलाओं से घनिष्ठ संबंध रहा है; इसलिए महामुनि भरत को संगीत कला के भी आद्याचार्य होने का गौरव प्राप्त है। भरत मुनि ऐतिहासिक महापुरुष थे या नहीं; और उनका निश्चित काल क्या है इन प्रश्नों का उत्तर विवाद ग्रस्त है। हमारे मतानुसार भरत ऐतिहासिक महापुरुष थे, और उनकी विद्यमानता का नाम विक्रम पूर्व की छठी शती के वे लगभग हैं।

मार्गी संगीत

भरत मुनि 'नाट्य शास्त्र' में विशेष रूप से नाट्य कला का विशद विवेचन हैं, किंतु अनुसांगिक रूप सें उसमें 'संगीत' कला का उल्लेख किया गया है। भरत ने संगीत के जिस रूप से चर्चा की है, उसे 'मार्गी संगीत' कहा गया है। 'मार्गी संगीत' के अंतर्गत ग्राम, स्वर, श्रुति, मूर्च, छना और जाति विषयों का विवेचन मिलता है; किन्तु उसमें राग-रागनियों का उल्लेख नहीं है। इससे विद्वानों की धारणा है कि 'नाट्य शास्त्र' की रचना के पश्चात ही किसी काल में राग-संगीत का प्रचलन हुआ था। नाट्य शास्त्र में वर्णित 'जाति' वस्तुत: 'राग' का ही पूर्व रूप है। सामान्यतया ग्राम तीन माने गये है –

  • षड़ज,
  • मध्यम और
  • गांधार; किंतु भरत ने षड़ज और मध्यम ग्रामों का ही उल्लेख किया है। उनके मतानुसार स्वर सात है; और श्रुतियाँ बाईस हैं। मूर्च्छना के आश्रित 'तान' हैं, जिनकी संख्या चौरासी मानी गई हैं 'जाति' विशिष्ट स्वर-सन्निवेश हैं, जो राग की उत्पत्ति का कारण होती है। भरत ने अठारह प्रकार की जातियाँ मानी हैं, षड़ज ग्राम की सात और मध्यम ग्राम की ग्यारह। यह नाट्य शास्त्रोक्त 'मार्गी संगीत' का स्वरूप है, जो मौर्य-पूर्व काल से लेकर गुप्त काल तक प्रचलित रहा था। इस प्रकार इसने प्राय: एक सहस्त्र वर्ष तक भारत के संगीत पर अपना एकाधिकार कायम रखा था।

प्राचीन संगीताचार्य और उनकी देन

महामुनि भरत के अतिरिक्त उस काल के जिन कतिपय संगीताचार्यों के नाम मिलते हैं, उनमें से कुछ का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है। -

दत्तिल

दत्तिल भरत मुनि के पुत्र थे। उन्होंने भरत के नाटय सिद्धांत का विशद निरूपण कर उनके ग्रंथ का सर्वप्रथम विस्तार किया था। फलत: उसमें संगीत का भी विशदीकरण किया गया होगा। कोहल का ग्रंथ समग्र रूप में उपलब्ध नहीं है, वरन उसका अंश ही मिलता है। उनके नाम से प्रसिद्ध 'कोहल मतम् ' और कोहल रहस्यम जैसी संगीत विषयक रचनाएँ परवर्ती काल की हैं, जिन्हें उनके मतानुसार संगीताचारों ने रचा होगा।

अगस्त्य

अगस्त्य विभिन्न विद्याओं और कलाओं में निष्पात एक प्राचीन आचार्य थे। उनके संबंध में अनेक पौराणिक अनुश्रुतियाँ प्रसिद्ध है। उन्हं महामुनि भरत, के नाट्य शास्त्र का प्रमुख श्रोता माना जाता हैं। यद्यपि वे उत्तर भारतीय आचार्य थे। तथापि उनकी कीर्ति का अधिक विस्तार धुर दक्षिण हुआ था उनकी प्रमुख रचनाएँ भी द्रविड़ भाषा में मिलती हैं।