संवत

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संवत् काल-गणना में कल्प, मन्वन्तर, युगादि के पश्चात् संवत्सर का नाम आता है। युगभेद से सत्ययुग में ब्रह्म-संवत्, त्रेता में वामन-संवत, परशुराम-संवत (सहस्त्रार्जुन-वध से) तथा श्रीराम-संवत (रावण-विजय से), द्वापर में युधिष्ठिर-संवत और कलि में विक्रम, विजय, नागार्जुन और कल्कि के संवत प्रचलित हुए या होंगे। शास्त्रों में इस प्रकार भूत एवं वर्तमान काल के संवतों का वर्णन तो है ही, भविष्य में प्रचलित होने वाले संवतों का वर्णन भी है। इन संवतों के अतिरिक्त अनेक राजाओं तथा सम्प्रदायाचार्यों के नाम पर संवत चलाये गये हैं। भारतीय संवतों के अतिरिक्त विश्व में और भी धर्मों के संवत हैं। तुलना के लिये उनमें से प्रधान-प्रधान की तालिका दी जा रही है- भारतीय क्र0सं0 नाम वर्तमान वर्ष 1 कल्पाब्द 1,97,29,49,050 2 सृष्टि-संवत 1,95,58,85,050 3 वामन-संवत 1,96,08,89,050 4 श्रीराम-संवत 1,25,69,050 5 श्रीकृष्ण संवत 5,175 6 युधिष्ठिर संवत 5,050 7 बौद्ध संवत 2,524 8 महावीर (जैन) संवत 2,476 9 श्रीशंकराचार्य संवत 2,229 10 विक्रम संवत 2,006 11 शालिवाहन संवत 1,871 12 कलचुरी संवत 1,701 13 वलभी संवत 1,629 14 फसली संवत 1,360 15 बँगला संवत 1,356 16 हर्षाब्द संवत 1,342




विदेशीय क्र0सं0 नाम वर्तमान वर्ष 1 चीनी सन् 9,60,02,247 2 खताई सन् 8,88,38,320 3 पारसी सन् 1,89,917 4 मिस्त्री सन् 27,603 5 तुर्की सन् 7,556 6 आदम सन् 7,301 7 ईरानी सन् 5,954 8 यहूदी सन् 5,710 9 इब्राहीम सन् 4,389 10 मूसा सन् 3,653 11 यूनानी सन् 3,522 12 रोमन सन् 2,700 13 ब्रह्मा सन् 2,490 14 मलयकेतु सन् 2,261 15 पार्थियन सन् 2,196 16 ईस्वी सन् 1,949 17 जावा सन् 1,875 18 हिजरी सन् 1,319

यह तुलना इस बात को तो स्पष्ट ही कर देती है कि भारतीय संवत अत्यन्त प्राचीन हैं। साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये हैं। नवीन संवत चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरूषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम-संवत है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋणको, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया है। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी हैं वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्यपर स्थित है। उज्जयिनी-सम्राट् महाराज विक्रम के इस वैज्ञानिक संवत के साथ विश्व में प्रचलित ईस्वी सन् पर भी ध्यान देना चाहिये। ईस्वी सन् का मूल रोमन-संवत है। पहले यूनान में ओलिम्पियद् संवत था, जिसमें 360 दिन का वर्ष माना जाता था। रोमनगर की प्रतिष्ठा के दिन से वही रोमन संवत कहलाने लगा। ईस्वी सन् की गणना ईसामसीह के जन्म से तीन वर्ष बाद से की जाती है। रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने 360 दिन के बदले 365.25 दिन के वर्ष को प्रचलित किया। छठी शताब्दी में डायोनिसियसने इस सन् में फिर संशोधन किया; किंतु फिर भी प्रतिवर्ष 27 पल, 55 विपल का अन्तर पड़ता ही रहा। सन् 1739 में यह अन्तर बढ़ते-बढ़ते 11 दिन का हो गया; तब पोप ग्रेगरी ने आज्ञा निकाली कि 'इस वर्ष 2 सितम्बर के पश्चात 3 सितम्बर को 14 सितम्बर कहा जाय और जो ईस्वी सन् 4 की संख्या से विभाजित हो सके, उसका फरवरी मास 29 दिन का हो। वर्ष का प्रारम्भ 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी से माना जाय।' इस आज्ञा को इटली, डेनमार्क, हाँलैंड ने उसी वर्ष स्वीकार कर लिया। जर्मनी और स्विजरलैंड ने सन् 1759 में, इंग्लैंड ने सन् 1809 में, प्रशिया ने सन् 1835 में, आयर्लैंड ने सन् 1839 में और रूस ने सन् 1859 में इसे स्वीकार किया। इतना संशोधन होने पर भी इस ईस्वी सन् में सूर्य की गति के अनुसार प्रतिवर्ष एक पलका अन्तर पड़ता है। सामान्य दृष्टि से यह बहुत थोड़ा अन्तर है, पर गणित के लिये यह एक बड़ी भूल है। 3600 वर्षों के बाद यही अन्तर एक दिन का हो जायगा और 36,000 वर्षों के बाद दस दिन का और इस प्रकार यह अन्तर चालू रहा तो किसी दिन जून का महीना वर्तमान अक्टूबर के शीतल समय में पड़ने लगेगा। सुनने में आया है कि विश्व-राष्ट्रसंघ में प्रतिवर्ष तारीख और वार को एक रखने के लिये ग्रेगरी-कैलेंडर को बदलने की किसी एलिजाबेथ नामक महिला ने प्रार्थना की है। ऐसा हुआ तो गणित की दृष्टि से एक बड़ी भूल होगी। कम-से-कम भारत को तो इसका विरोध करना ही चाहिये। भारत का राष्ट्रिय संवत तो केवल विक्रम-संवत हो सकता है, जिसमें आजतक कोई अन्तर नहीं पड़ा और न आगे पड़ने की सम्भावना है। अतएव हम एक विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से चाहते हैं कि भारत का राष्ट्रिय संवत विक्रम-संवत घोषित किया जाय। उज्जैन के समय से दिन के समय का निर्धारण हो। घंटा, मिनट, सेकंड के स्थानं पर होरा; विहोरा, प्रतिविहोरा रक्खे जायँ। 'बजे' के स्थान पर 'इष्टकाल' शब्द का प्रयोग हो। दिन का प्रारम्भ वर्तमान सात बजे को 1 मानकर हो और 12 बजे दिन तथा 12 बजे रात्रि की समाप्ति मानी जाय।