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==सगर==
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सगर, [[राम]] से बहुत पहले राजा हुए हैं । वह बहुत वीर और साहसी थे । उनका राज्य जब बहुत फैल गया तो राजा ने यज्ञ किया । पुराने समय में अश्वमेध यज्ञ होता था । इस यज्ञ में एक घोड़ा पूजा करके छोड़ दिया जाता और घोड़े के पीछे राजा की सेना रहती । अगर किसी ने उस घोड़े को पकड लिया तो सेना युध्द करके उसे छुड़ाती थी । जब घोड़ा चारों ओर घूमकर वापस आ जाता था तो यज्ञ किया जाता और वह राजा चक्रवर्ती माना जाता ।
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==सगर / [[:en:Sagar|Sagar]]==
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*राजा [[दशरथ]] के पूर्वजों में राजा सगर हुए थे। सगर के पिता का नाम असित था। वे अत्यंत पराक्रमी थे। हैहय, तालजंघ, शूर और [[शशिबिंदु]] नामक राजा उनके शत्रु थे। उनसे युद्ध करते-करते  राज्य त्यागकर उन्हें अपनी दो पत्नियों के साथ [[हिमालय]] भाग जाना पड़ा। वहां कुछ काल बाद उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी दोनों पत्नियां गर्भवती थीं। उनमें से एक का नाम कालिंदी था। कालिंदी की संतान नष्ट करने के लिए उसकी सौत ने उसको विष दे दिया। कालिंदी अपनी संतान की रक्षा के निमित्त भृगुवंशी महर्षि [[च्यवन]] के पास गयी। महर्षि ने उसे आश्वासन दिया कि उसकी कोख से एक प्रतापी बालक विष के साथ (स+गर) जन्म लेगा। अत: उसके पुत्र का नाम सगर पड़ा।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, बालकांड, 70।27-37" style=color:blue>*</balloon>
  
राजा सगर इसी प्रकार का यज्ञ कर रहे थे । भारतवर्ष के सारे राजा सगर को चक्रवर्ती मानते थे, पर राजा [[इंद्र]] को सगर की प्रसिध्दि देखकर जलन होती थी । जब उसे मालूम हुआ कि सगर अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं तो वह चुपके से सगर द्वारा पूजा करके छोड़े हुए घोड़े को चुरा ले गया और बहुत दूर [[कपिल मुनि]] की गुफा में जाकर बांध दिया । दूसरे दिन जब घोड़े को छोड़ने का समय पास आया तो पता चला कि अश्वशाला में घोड़ा नहीं है । यज्ञ-भूमि में शोक छा गया । सेना ने खोजा पर घोड़ा न मिला तो महाराज के पास समाचार पहुंचा । महाराज ने सुना और सोच में पड़ गये । राजा सगर की बड़ी रानी का एक बेटा था, उनका नाम असमंजस था । असमंजस बालकों को परेशान करता था । सगर ने लोगों की पुकार सुनी और अपने बेटे असमंजस को देश से निकाल दिया । असमंजस का पुत्र था अंशुमान । राजा सगर की छोटी रानियों के बहुत से बेटे थे । कहा जाता है कि ये साठ हजार थे । सगर के ये पुत्र बहुत बलवान और चतुर थे और तरह-तरह की विद्याओं को जानते थे । जब सेना घोड़े का पता लगाकर हार गये तो महाराज ने अपने साठ हजार पुत्रों को बुलाया और कहा, ‘‘पुत्रो, चोर ने [[सूर्यवंश]] का अपमान किया है । तुम सब जाओ और घोड़े का पता लगाओ ।’’
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*सगर [[अयोध्या]] नगरी के राजा हुए। वे संतान प्राप्त करने के इच्छुक थे। उनकी सबसे बड़ी रानी विदर्भ नरेश की पुत्री केशिनी थी। दूसरी रानी का नाम सुमति था। दोनों रानियों के साथ राजा सगर ने हिमवान के प्रस्त्रवण गिरि पर तप किया। प्रसन्न होकर [[भृगु]] मुनि ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को वंश चलाने वाले एक पुत्र की प्राप्ति होगी और दूसरी के साठ हज़ार वीर उत्साही पुत्र होंगे। बड़ी रानी के एक पुत्र और छोटी ने साठ हज़ार पुत्रों की कामना की। केशिनी का [[असमंजस]] नामक एक पुत्र हुआ और सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसके फटने पर साठ हज़ार पुत्रों का जन्म हुआ। असमंजस बहुत दुष्ट प्रकृति का था। अयोध्या के बच्चों को सताकर प्रसन्न होता था। सगर ने उसे अपने देश से निकाल दिया। कालांतर में उसका पुत्र हुआ, जिसका नाम अंशुमान था। वह वीर, मधुरभाषी और पराक्रमी था।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 38।1-24" style=color:blue>*</balloon>
राजकुमारों ने घोड़े को खोजना शुरु किया। गांवों और कस्बों में खोजा, साधुओं के आश्रमों में गये, तपोवनों में गये और योगियों की गुफाओं में पहुंचे । पर्वतों के बर्फीले सफेद शिखरों पर पहुंचे, वन-वन घूमे, पर यज्ञ का घोड़ा उनको कहीं नहीं दिखाई दिया ।
 
  
खोजते-खोजते वे धरती के छोर के आगे समुद्र था । चूंकि सगर के पुत्रों ने समुद्र की इतनी खोजबीन की, इसलिए समुद्र ‘सागर’ भी कहलाने लगा । घोड़ा नहीं मिला, फिर भी राजकुमार हारे नहीं । वे आगे बढ़ रहे थे कि हवा चल पड़ी । एक लता हिली और एक शिला दिखाई पड़ी । शिला हटाई जाने लगी । शिला के पीछे एक गुफा का मुंह निकल आया । राजकुमार गुफा में गये ।
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*राजा सगर ने विंध्य और हिमालय के मध्य यज्ञ किया। सगर के पौत्र अंशुमान यज्ञ के घोड़े की रक्षा कर रहे थे। जब अश्ववध का समय आया तो [[इन्द्र]] राक्षस का रूप धारण कर घोड़ा चुरा ले गये। सगर ने अपने साठ हज़ार पुत्रों को आज्ञा दी कि वे [[पृथ्वी]] खोद-खोदकर घोड़े को ढूंढ़ लायें। जब तक वे नहीं लौटेंगे, सगर और अंशुमान दीक्षा लिये यज्ञशाला में ही रहेंगे। सगर-पुत्रों ने पृथ्वी को बुरी तरह खोद डाला तथा जंतुओं का भी नाश किया। देवतागण [[ब्रह्मा]] के पास पहुंचे और बताया कि पृथ्वी और जीव-जंतु कैसे चिल्ला रहे हैं। ब्रह्मा ने कहा कि पृथ्वी [[विष्णु]] भगवान की स्त्री हैं वे ही [[कपिल]] मुनि का रूप धारण कर पृथ्वी की रक्षा करेंगे। सगर-पुत्र निराश होकर पिता के पास पहुंचे। पिता ने रुष्ट होकर उन्हें फिर से अश्व खोजने के लिए भेजा। हज़ार [[योजन]] खोदकर उन्होंने पृथ्वी धारण करने वाले विरूपाक्ष नामक दिग्गज को देखा। उसका सम्मान कर फिर वे आगे बढ़े। दक्षिण में महापद्म, उत्तर में श्वेतवर्ण भद्र दिग्गज तथा पश्चिम में सोमनस नामक दिग्गज को देखा। तदुपरांत उन्होंने कपिल मुनि को देखा तथा थोड़ी दूरी पर अश्व को चरते हुए पाया। उन्होंने कपिल मुनि का निरादर किया, फलस्वरूप मुनि के शाप से वे सब भस्म हो गये। बहुत दिनों तक पुत्रों को लौटता न देख राजा सगर ने अंशुमान को अश्व ढूंढ़ने के लिए भेजा। वे ढूंढ़ने-ढूंढ़ते अश्व के पास पहुंचे जहां सब चाचाओं की भस्म का स्तूप पड़ा था। जलदान के लिए आसपास कोई जलाशय भी नहीं मिला। तभी पक्षीराज [[गरुड़]] उड़ते हुए वहां पहुंचे और कहा कि 'ये सब कपिल मुनि के शाप से हुआ है, अत: साधारण जलदान से कुछ न होगा। [[गंगा]] का तर्पण करना होगा। इस समय तुम अश्व लेकर जाओ और पिता का यज्ञ पूर्ण करो।' उन्होंने ऐसा ही किया।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 39।1-26,40।1-30, 41।1-27" style=color:blue>*</balloon>
वहाँ उन्होंने देखा कि एक बहुत पुराना पेड़ है । उसके नीचे एक ऋषि बैठे है । वह अपनी समाधि में लीन थे । ऋषि के पीछे कुछ दूर पर एक पेड़ था । उसके तने से घोड़ा बंधा था । राजकुमार दौड़कर घोड़े के पास गये और घोड़े को पहचान लिया । ऋषि को देखा, तो उनका क्रोध बढ़ गया । राजकुमारों ने बहुत शोर मचाया । उनमें से एक का हाथ ऋषि के शरीर पर पड़ा तो ऋषि की देह कांपी और वह समाधि से जागे ।
 
  
उनकी आंखें खुलीं । उनकी आंखों में तेज भरा था वह तेज राजकुमारों के ऊपर पड़ा तो राजकुमार जल उठे । जब ऋषि की आंखें पूरी तरह से खुलीं तो उन्होंने अपने सामने बहुत सी राख की ढेरियां पड़ी पाई । ये राख की ढेरियां साठ हजार थी ।
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==महाभारत के अनुसार==
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इक्ष्वाकुवंश में सगर नामक प्रसिद्ध राजा का जन्म हुआ था। उनकी दो रानियां थीं- वैदर्भी तथा शैव्या। वे दोनों अपने रूप तथा यौवन के कारण बहुत अभिमानिनी थीं। दीर्घकाल तक पुत्र-जन्म न होने पर राजा अपनी दोनों रानियों के साथ कैलास पर्वत पर जाकर पुत्रकामना से तपस्या करने लगे। शिव ने उन्हें दर्शन देकर वर दिया कि एक रानी के साठ हज़ार अभिमानी शूरवीर पुत्र प्राप्त होंगे तथा दूसरी से एक वंशधर पराक्रमी पुत्र होगा। कालांतर में वैदर्भी ने एक तूंबी को जन्म दिया। राजा उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभी आकाशवाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हज़ार बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में साठ हज़ार पुत्र प्राप्त होंगे। इसे महादेव का विधान मानकर सगर ने उन्हें वैसे ही सुरिक्षत रखा तथा उन्हें साठ हज़ार उद्धत पुत्रों की प्राप्ति हुई। वे क्रूरकर्मी बालक आकाश में भी विचर सकते थे। तथा सब को बहुत तंग करते थे। शैव्या ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। वह पुरवासियों के दुर्बल बच्चों को गर्दन से पकड़कर मार डालता था। अत: राजा ने उसका परित्याग कर दिया। असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था।
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राजा सगर ने [[अश्वमेध यज्ञ]] की दीक्षा ली। उसके साठ हज़ार पुत्र घोड़े की सुरक्षा में लगे हुए थे तथापि वह घोड़ा सहसा अदृश्य हो गया। उसको ढूंढ़ते हुए वैदर्भी पुत्रों ने पृथ्वी में एक दरार देखी।  उन्होंने वहां खोदना प्रारंभ कर दिया। निकटवर्ती समुद्र को इससे बहुत पीड़ा का अनुभव हो रहा था। हज़ारों नाग, असुर आदि उस खुदाई में मारे गये। फिर उन्होंने समुद्र के पूर्ववर्ती प्रदेश को फोड़कर पाताल में प्रवेश किया जहां पर अश्व विचर रहा था और उसके पास ही कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे। हर्ष के आवेग में उनसे मुनि का निरादर हो गया, अत: मुनि ने अपनी दृष्टि के तेज से उन्हें भस्म कर दिया। [[नारद]] ने यह कुसंवाद राजा सगर तक पहुंचाया। पुत्र-विछोह से दुखी राजा ने अशुंमान को बुलाकर अश्व को लाने के लिए कहा। अंशुमान ने कपिल मुनि को प्रणाम कर अपने शील के कारण उनसे दो वर प्राप्त किये। पहले वर के अनुसार उसे अश्व की प्राप्ति हो गयी तथा दूसरे वर से पितरों की पवित्रता मांगी। कपिल मुनि ने कहा-'तुम्हारे प्रताप से मेरे द्वारा भस्म किये गये तुम्हारे पितर स्वर्ग प्राप्त करेंगे। तुम्हारा पौत्र [[शिव]] को प्रसन्न कर सगर-पुत्रों की पवित्रता के लिए स्वर्ग से [[गंगा]] को पृथ्वी पर ले आयेगा।' अंशुमान के लौटने पर सगर ने अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किया।<balloon title="महाभारत, वनपर्व, अध्याय 106, 107" style=color:blue>*</balloon>
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==श्रीमद् भागवत के अनुसार==
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रोहित के कुल में बाहुक का जन्म हुआ। शत्रुओं ने उसका राज्य छीन लिया। वह अपनी पत्नी सहित वन चला गया। वन में बुढ़ापे के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। उसके गुरु ओर्व ने उसकी पत्नी को सती नहीं होने दिया क्योंकि वह जानता था कि वह गर्भवती है। उसकी सौतों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने उसे विष दे दिया। विष का गर्भ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बालक विष (गर) के साथ ही उत्पन्न हुआ, इसलिए 'सगर' कहलाया। बड़ा होने पर उसका विवाह दो रानियों से हुआ- सुमति तथा केशिनी। सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। इन्द्र ने उसके यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया तथा तपस्वी कपिल के पास ले जाकर खड़ा किया। उधर सगर ने सुमति के पुत्रों को घोड़ा ढूंढ़ने के लिए भेजा। साठ हज़ार राजकुमारों को कहीं घोड़ा नहीं मिला तो उन्होंने सब ओर से पृथ्वी खोद डाली। पूर्व-उत्तर दिशा में कपिल मुनि के पास घोड़ा देखकर उन्होंने शस्त्र उठाये और मुनि को बुरा-भला कहते हुए उधर बढ़े। फलस्वरूप उनके अपने ही शरीरों से आग निकली जिसने उन्हें भस्म कर दिया। केशिनी के पुत्र का नाम असमंजस तथा असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था। असमंजस पूर्वजन्म में योगभ्रष्ट हो गया था, उसकी स्मृति खोयी नहीं थी, अत: वह सबसे विरक्त रह विचित्र कार्य करता रहा था। एक बार उसने बच्चों को सरयू में डाल दिया। पिता ने रुष्ट होकर उसे त्याग दिया। उसने अपने योगबल से बच्चों को जीवित कर दिया तथा स्वयं वन चला गया। यह देखकर सबको बहुत पश्चात्ताप हुआ। राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को घोड़ा खोजने भेजा। वह ढूंढ़ता-ढूंढ़ता कपिल मुनि के पास पहुंचा। उनके चरणों में प्रणाम कर उसने विनयपूर्वक स्तुति की। कपिल से प्रसन्न होकर उसे घोड़ा दे दिया तथा कहा कि भस्म हुए चाचाओं का उद्धार गंगाजल से होगा। अंशुमान ने जीवनपर्यंत तपस्या की किंतु वह [[गंगा]] को पृथ्वी पर नहीं ला पाया। तदनंतर उसके पुत्र [[दिलीप]] ने भी असफल तपस्या की। दिलीप के पुत्र [[भगीरथ]] के तप से प्रसन्न होकर गंगा ने पृथ्वी पर आना स्वीकार किया। गंगा के वेग को [[शिव]] ने अपनी जटाओं में संभाला। भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर गंगा समुद्र तक पहुंची। समुद्र-संगम पर पहुंचकर उसने सगर के पुत्रों का उद्धार किया। सब लोग गंगा से अपने पाप धोते हैं। उन पापों के बोझ से भी गंगा मुक्त रहती है। विरक्त मनुष्यों में भगवान निवास करता है, अत: उनके स्नान करने से गंगाजल में घुले सब पाप नष्ट हो जाते हैं।<balloon title="श्रीमद् भागवत, नवम स्कंध, अध्याय 8,9।1-15/ शिव पुराण, 4।3।" style=color:blue>*</balloon>
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==ब्रह्म पुराण के अनुसार==
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राजा बाहु दुर्व्यसनी था। हैहय तथा तालजंघ ने शक, पारद, यवन, कांबोज और पल्लव की सहायता से उसके राज्य का अपहरण कर लिया। बाहु ने वन में जाकर प्राण त्याग किये। उसकी गर्भवती पत्नी सती होना चाहती थी। गर्भवती पत्नी को उसकी सौत ने विष दे दिया था, किंतु उसकी मृत्यु नहीं हुई थी) भृगुवंशी और्व ने दयावश उसे बचा लिया। मुनि के आश्रम में ही उसने विष के साथ ही पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम सगर पड़ा। और्व ने उसे शस्त्रास्त्र विद्या सिखायी तथा [[अस्त्र शस्त्र|आग्नेयास्त्र]] भी दिया। सगर ने हैहय के सहायकों को पराजित करके नाश करना आंरभ कर दिया। वे [[वसिष्ठ]] की शरण में गये। वसिष्ठ ने सगर से उन्हें क्षमा करने के लिए कहा। सगर ने अपनी प्रतिज्ञा याद करके उनमें से किन्हीं का पूरा, किन्हीं का आधा सिर, किन्हीं की दाढ़ी आदि मुंडवाकर छोड़ दिया। सगर ने [[अश्वमेध यज्ञ]] किया। घोड़ा समुद्र के निकट अपह्र्य हो गया। सगर ने पुत्रों को समुद्र के निकट खोदने के लिए कहा। वे लोग खोदते हुए उस स्थान पर पहुंचे जहां [[विष्णु]], [[कपिल]] आदि सो रहे थे। निद्रा भंग होने के कारण विष्णु की दृष्टि से सगर के चार छोड़कर सब पुत्र नष्ट हो गये। बर्हिकेतु, सुकेतु, धर्मरथ तथा पंचनद- इन चार पुत्रों के पिता सगर को नारायण ने वर दिया कि उसका वंश अक्षय रहेगा तथा समुद्र सगर का पुत्रत्व प्राप्त करेगा। समुद्र भी राजा सगर की वंदना करने लगा। पुत्र-भाव होने से ही वह सागर कहलाया।<balloon title="ब्रह्म पुराण 8।33-61" style=color:blue>*</balloon>
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==शिव पुराण के अनुसार==
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राजा बाहु रात-दिन स्त्रियों के भोग-विलास में रहता था। एक बार हैहय, तालजंघ तथा शक राजाओं ने उस विलासी को परास्त कर राज्य छीन लिया। बाहु अर्ज मुनि के शरण में पहुंचा। उसकी बड़ी रानी गर्भवती हो गयी। सौतों ने उसे विष दे दिया। भगवान की कृपा से रानी तथा उसका गर्भस्थ शिशु तो बच गये किंतु अचानक राजा की मृत्यु हो गयी। गर्भवती रानी को मुनि ने सती नहीं होने दिया। उसने जिस बालक को जन्म दिया, वह सगर कहलाया क्योंकि वह विष से युक्त था। मां और मुनि को प्रेरणा से वह शिव भक्त बन गया। उसने अश्वमेध यज्ञ भी किया। उसका घोड़ा इन्द्र ने छिपा लिया। उसके साठ सहस्त्र पुत्र घोड़ा ढूंढ़ते हुए कपिल मुनि के पास पहुंचे। वे तप कर रहे थे तथा घोड़ा वहां बंधा हुआ था। उन्होंने मुनि को चोर समझकर उन पर प्रहार करना चाहा। मुनि ने नेत्र खोले तो सब वहीं भस्म हो गये। दूसरी रानी से उत्पन्न पंचजन्य, जिसका दूसरा नाम 'असमंजस' था, शेष रह गया था। उसके पुत्र का नाम अंशुमान हुआ जिसने घोड़ा लाकर दिया और यज्ञ पूर्ण करवाया।<balloon title="शिव पुराण, 11।21" style=color:blue>*</balloon>
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==पउम चरित के अनुसार==
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त्रिदंशजय के दूसरे पोते का नाम सगर था। चक्रवाल नगर के अधिपति पूर्णधन के पुत्र का नाम मेघवाहन था। वह उसका विवाह सुलोचन की पुत्री से करना चाहता था। किंतु सुलोचन अपनी कन्या का विवाह सगर से कराना चाहता था। कन्या को निमित्त बनाकर पूर्णधन और सुलोचन का युद्ध हुआ। सुलोचन मारा गया किंतु उसके पुत्र सहस्त्रनयन अपनी बहन को साथ लेकर भाग गया। कालांतर में उसने राजा सगर को अपनी बहन अर्पित कर दी। पूर्णधन की मृत्यु के उपरांत मेघवाहन को [[लंका]] जाने के लिए प्रेरित किया। भीम ने मेघवाहन को लंका के अधिपति-पद पर प्रतिष्ठित किया। एक बार राजा सगर के साठ हज़ार पुत्र, अष्टापद पर्वत पर वंदन हेतु गये। वहां देवार्चन इत्यादि के उपरांत भरत निर्मित चैत्यभ्वन की रक्षा के हेतु उन्हांने दंडरत्न से [[गंगा]] को मध्य में प्रहार करके पर्वत के चारों ओर 'परिखा' तैयार की। नागेंद्र ने क्रोध-रूपी अग्नि से सगर-पुत्रों को भस्म कर दिया। उनमें से भीम और भगीरथ, दो पुत्र अपने धर्म की दृढ़ता के कारण से भस्म नहीं हो पाये। उन लोगों के लौटने पर सब समाचार जानकर चक्रवर्ती राजा सगर ने भगीरथ को राज्य सौंप दिया तथा स्वयं जिनवर से दीक्षा ग्रहण करके मोक्ष-पद प्राप्त किया।<balloon title="पउम चरित, 5।62-202।" style=color:blue>*</balloon>
  
साठ हजार राजकुमारों को गये बहुत दिन हो गये । उनकी कोई खबर न आयी । राजा सगर की चिंतित हो गये । तभी एक दूत ने बताया कि बंगाल से कुछ मछुवारे आये हैं, उन्होंने बताया कि उन्होंने राजकुमारों को एक गुफा में घुसते देखा और वे अभी तक उस गुफा से निकलकर नहीं आये ।
 
  
सगर सोच में पड़ गये । राजकुमार किसी बड़ी मुसीबत में फंस गये हैं । राजा ने ऊंच-नीच सोची और अपने पोते अंशुमान को बुलाया ।
 
 
अंशुमान के आने पर सगर ने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारे साठ हजार चाचा बंगाल में सागर के किनारे एक गुफा में घुसते हुए देखे गये हैं, पर उसमें से निकलते हुए उनको अभी तक किसी ने नहीं देखा है ।’’
 
  
सगर ने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारे साठ हजार....’’
 
  
अंशुमान का चेहरा खिल उठा । वह बोला, ‘‘ बस ! यही समाचार है । यदि आप आज्ञा दें तो मैं जाऊं और पता लगाऊं ।”
 
  
सगर बोले, ‘‘जा, अपने चाचाओं का पता लगा ।”
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[[en:Sagar]]
जब अंशुमान जाने लगा तो बूढ़े राजा सगर ने उसे फिर छाती से लगाया और आशीष देकर उसे विदा किया ।
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[[Category: कोश]]
अंशुमान इधर-उधर नहीं घूमा । वह सीधा उसी गुफा के दरवाजे पर पहुंचा । गुफा के दरवाजे पर वह ठिठक गया । उसने कुल के देवता [[सूर्य]] को प्रणाम किया और गुफा के भीतर पैर रखा । अंधेरे से उजाले में पहुंचा तो अचानक रुककर खड़ा हो गया । उसने देखा दूर-दूर तक राख की ढेरियां फैली हुई थीं । वह थोड़ा ही आगे गया कि एक गम्भीर आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बेटा अंशुमान, यह घोड़ा बहुत दिनों से तुम्हारी राह देख रहा है ।”
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[[Category:रामायण]]
 
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[[Category: पौराणिक]]  
अंशुमान चौंका । उसने देखा एक दुबले-पतले ऋषि हैं, जो घोड़े के निकट खड़े है । अंशुमान रुका । उसने धरती पर सिर टेककर ऋषि को नमस्कार किया
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__INDEX__
“आओ बेटा, अंशमान, यह घोड़ा तुम्हारी राह देख रहा है ।”
 
 
 
ऋषि बोले, ‘‘बेटा अंशुमान, तुम भले कामों में लगो । मैं कपिल मुनि तुमको आशीष देता हूं ।”
 
 
 
अंशुमान ने उन महान कपिल को प्रणाम किया ।
 
कपिल बोले, “जो होना था, वह हो गया ।”
 
 
 
अंशुमान ने हाथ जोड़कर पूछा, “क्या हो गया, ऋषिवर ?”
 
ऋषि ने राख की ढेरियों की ओर इशारा करके कहा, “ये साठ हजार ढेरियां तुम्हारे चाचाओं की हैं, अंशुमान !”
 
 
 
अंशुमान के मुंह से चीख निकल गई । उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह चली ऋषि ने समझाया, “धीरज धरो बेटा, मैंने जब आंखें खोलीं तो तुम्हारी चाचाओं को जलते पाया । उनका अहंकार उभर आया था । वे समझदारी से दूर हट गये थे । उनका अधर्म भड़का और वे जल गये । मैं देखता रह गया । कुछ न कर सका ।”
 
 
 
अंशुमान ने कहा, “ऋषिवर !”
 
 
 
कपिल बोले, “बेटा, दुखी मत होओ । घोड़े को ले जाओ और अपने बाबा को धीरज बंधाओ । महाप्रतापी राजा सगर से कहना कि आत्मा अमर है । देह के जल जाने से उसका कुछ नहीं बिगड़ता ।”
 
 
 
अंशुमान ने कपिल के सामने सिर झुकाया और कहा, “ऋषिवर ! मैं आपकी आज्ञा का पालन करुंगा । पर मेरे चाचाओं की अकाल मौत हुई है । उनको शांति कैसे मिलेगी ?”
 
 
 
कपिल ने कुछ देर सोचा और बोले, “बेटा, शांति का उपाय तो है, पर काम बहुत कठिन है ।”
 
 
 
अंशुमान ने सिर झुकाकर कहा, “ऋषिवर ! सूर्यवंशी कामों की कठिनता से नहीं डरते ।”
 
 
 
कपिल बोले, “[[गंगा]]जी धरती पर आयें और उनका जल इन राख की ढेरियों को छुए तो तुम्हारे चाचा तर जायंगे ।”
 
 
 
अंशुमान ने पूछा, “ गंगाजी कौन हैं और कहां रहती है ?”
 
 
 
कपिल ने बताया, “गंगाजी [[विष्णु]] के पैरों के नखों से निकली हैं और [[ब्रह्मा]] के कमण्डल में रहती हैं ।”
 
 
 
अंशुमान ने पूछा, “ गंगाजी को धरती पर लाने के लिए मुझे क्या करना होगा ?”
 
 
 
ऋषि ने कहा, “ तुमको ब्रह्मा की विनती करनी होगी । जब ब्रह्मा तप पर रीझ जायंगे तो प्रसन्न होकर गंगाजी को धरती पर भेज देंगे । उससे तुम्हारे चाचाओं का ही भला नहीं होगा और भी करोंड़ों आदमी लाभ उठा सकेंगे ।”
 
 
 
अंशुमान ने हाथ उठाकर वचन दिया कि जबतक गंगाजी को धरती पर नहीं उतार लेंगे, तब तक मेरे वंश के लोग चैन नहीं लेंगे ।
 
कपिल मुनि ने अपना आशीष दिया ।
 
 
 
अंशुमान सूर्य वंश के थे । इसी कुल के [[सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र]] को सब जानते हैं । अंशुमान ने ब्रह्माजी की विनती की । बहुत कड़ा तप किया, अपनी जान दे दी, पर ब्रहाजी प्रसन्न नहीं हुए ।
 
अंशुमान के बेटे राजा [[दिलीप]] ने पिता के वचन को अपना वचन समझा और बड़ा भारी तप किया । ऐसा तप किया कि ऋषि और मुनि चकित हो गये । उनके सामने सिर झुका दिया । पर ब्रह्मा उनके तप पर भी नही रीझे ।
 
 
 
दिलीप के बेटे थे [[भगीरथ]] । भगीरथ के सामने बाबा का वचन और पिता का तप था । उन्होंने तप में मन लगा दिया ।
 
 
 
सभी देवताओं को खबर लगी । देवों ने सोचा, “[[गंगा]]जी हमारी हैं । जब वह उतरकर धरती पर चली जायेगीं तो हमें कौन पूछेगा ?”
 
देवताओं ने सलाह की और [[उर्वशी]] और अलका को बुलाया । उनसे कहा राजा [[भगीरथ]] के पास जाओ और कोशिश करो कि वह अपने तप से डगमगा जायें ।
 
अलका और उर्वशी ने भगीरथ को देखा । एक सादा सा आदमी अपनी धुन में था ।
 
उन दोनों ने भगीरथ के चारों ओर बसंत बनाया । चिड़ियां चहकने लगीं । कलियां चटकने लगी । मंद पवन बहने लगा । लताएं झूमने लगीं । कुंज मुस्कराने लगे । दोनों अप्सराएं नाचीं । मोहिनी फैलाई और चाहा कि भगीरथ तप को छोड़ दें । पर भगीरथ पर असर नहीं हुआ । जब उर्वशी का लुभाव बढ़ा तो भगीरथ के तप का तेज बढ़ा । दोनों हारीं और लौट गई ।
 
उनके लौटते ही ब्रह्मा पसीज गये । वह सामने आये और बोले, “बेटा, वर मांग ! ”
 
 
 
[[भगीरथ]] ने कहा " [[गंगा]] को धरती पर भेजिए "
 
 
 
भगीरथ की बात सुनकर [[ब्रह्मा]] जी ने क्षण भर सोचा, फिर बोले, “ऐसा ही होगा, भगीरथ ।”
 
ब्रह्मा जी बोले, “ऐसा ही होगा, भगीरथ !”
 
 
 
ब्रह्मा जी के मुंह से यह वचन निकले और उनके हाथ का कमण्डल बड़े जोर से कांपने लगा । ऐसा लगता था जैसे कि वह टुकड़े-टुकड़े हो जायगा ।
 
थोड़ी देर बाद उसमें से एक स्वर सुनाई दिया, “ब्रह्मा, ये तुमने क्या किया ? तुमने भगीरथ को क्या वर दे डाला ?”
 
 
 
ब्रह्मा बोले, “मैंने ठीक ही किया है, गंगा !”
 
 
 
गंगा चौंकीं और बोलीं, “तुम मुझे धरती पर भेजना चाहते हो और कहते हो कि तुमने ठीक ही किया है !”
 
 
 
“हां, देवी !” ब्रह्मा ने कहा ।
 
 
 
“कैसे ?” [[गंगा]] ने पूछा ।
 
 
 
ब्रह्मा ने बताया, “देवी, आप संसार का दु:ख दूर करने के लिए पैदा हुई हैं । आप अभी मेरे कमण्डल में बैठी हैं । अपना काम नहीं कर रही हैं ।”
 
 
 
गंगा ने कहा, “ब्रह्मा, धरती पर पापी, पाखंडी, पतित रहते हैं । तुम मुझे उन सबके बीच भेजना चाहते हो ?”
 
 
 
ब्रह्मा बोले, “देवी, आप बुरे को भला बनाने के लिए, पापी को उबारने के लिए, पाखंड मिटाने के लिए, पतित को तारने के लिए, कमजोरों को सहारा देने के लिए और नीचों को उठाने के लिए ही बनी हैं।”
 
 
 
गंगा ने कहा, “ब्रह्मा !”
 
 
 
ब्रह्मा बोले, “देवी, बुरों की भलाई करने के लिए तुमको बुरों के बीच रहना होगा । पापियों को उबारने के लिए पापियों के बीच रहना होगा । पाखंड को मिटाने के लिए पाखंड के बीच रहना होगा । पतितों को तारने के लिए पतितों के बीच रहना होगा । कमजोरों को सहारा देने के लिए कमजोरों के बीच रहना होगा और नीचों को उठाने के लिए नीचों के बीच निवास करना होगा । तुम अपने धर्म को पहचानों, अपने करम को जानों ।”
 
 
 
गंगा थोड़ी देर चुप रहीं । फिर बोलीं, “ब्रह्मा, तुमने मेरी आंखें खोल दी हैं । मैं धरती पर जाने को तैयार हूं । पर धरती पर मुझे संभालेगा कौन ?”
 
ब्रह्मा ने भगीरथ की ओर देखा ।
 
 
 
भगीरथ ने उनसे पूछा, “आप ही बताइये ।”
 
 
 
[[ब्रह्मा]] बोले, “तुम भगवान [[शिव]] को प्रसन्न करो । यदि वह तैयार हो गये तो [[गंगा]] को संभाल लेंगे और गंगा धरती पर उतर आयंगी ।”
 
ब्रह्मा उपाय बताकर चले गये । [[भगीरथ]] अब शिव को रिझाने के लिए तप करने लगे ।
 
 
 
भगवान [[शिव]] [[शंकर]] हैं । [[महादेव]] हैं । वह दानी है, सदा देते रहते है और सोचते रहते हैं कि लोग और मांगें तो और दें । भगीरथ ने बड़े भक्ति भाव से विनती की । [[हिमालय]] के कैलाश पर निवास करने वाले शंकर रीझ गये । भगीरथ के सामने आये और अपना डमरु खड़-खड़ाकर बोले, “मांग बेटा, क्या मांगता है ?”
 
 
 
भगीरथ बोले, “भगवान, शंकर की जय हो ! गंगामैया धरती पर उतरना चाहती हैं, भगवन ! कहती हैं.....”
 
 
 
शिव ने भगीरथ को आगे नहीं बोलने दिया । वह बोले, “भगीरथ, तुमने बहुत बड़ा काम किया है । मैं सब बातें जानता हूं । तुम [[गंगा]] से विनती करो कि वह धरती पर उतरें । मैं उनको अपने मस्तक पर धारण करुंगा ।”
 
 
 
भगीरथ ने आंखें ऊपर उठाई, हाथ जोड़े और गंगाजी से कहने लगे, “मां, धरती पर आइये । मां, धरती पर आइये । भगवान शिव आपको संभाल लेंगे ।”
 
 
 
भगीरथ गंगाजी की विनती में लगे और उधर भगवान [[शिव]] गंगा को संभालने की तैयार करने लगे ।
 
[[गंगा]] ने ऊपर से देखा कि धरती पर शिव खड़े हैं । देखने में वह छोटे से लगते हैं । बहुत छोटे से । वह मुस्कराई । यह [[शिव]] मुझे संभालेंगे ? मेरे वेग को संभालेंगे ? मेरे तेज को संभालेंगे ? इनका इतना साहस ? मैं इनको बता दूंगी कि गंगा को संभालना सरल काम नहीं है ।
 
[[भगीरथ]] ने विनती की । [[शिव]] होशियार हुए और गंगा आकाश से टूट पड़ीं । गंगा उतरीं तो आकाश सफेदी से भर गया । पानी की फुहारों से भर गया । रंग-बिरंगे बादलों से भर गया । गंगा उतरीं तो आकाश में शोर हुआ । गंगा उतरीं तो ऐसी उतरीं कि जैसे आकाश से तारा गिरा हो, अंगारा गिरा हो, उनकी कड़क से आसमान कांपने लगा। दिशाएं थरथराने लगी । पहाड़ हिलने लगे और धरती डगमगाने लगी । गंगा उतरीं तो देवता डर गये और दांतों तले उंगली दबा ली ।
 
गंगा उतरीं तो भगीरथ की आंखें बंद हो गई । वह शांत रहे । भगवान का नाम जपते रहे । थोड़ी देर में धरती का हिलना बंद हो गया । कड़क शांत हो गई और आकाश की सफेदी गायब हो गई ।
 
भगीरथ ने भोले भगवान की जटाओं में गंगाजी के लहराने का सुर सुना । [[भगीरथ]] को ज्ञान हुआ कि गंगाजी [[शिव]] की जटा में फंस गई हैं । वह उमड़ती हैं । उसमें से निकलने की राह खोजती हैं, पर राह मिलती नहीं है । [[गंगा]]जी घुमड़-घुमड़कर रह जाती हैं । बाहर नहीं निकल पातीं ।
 
भगीरथ समझ गये । वह जान गये कि गंगाजी भोले बाबा की जटा में कैद हो गई है । भगीरथ ने भोले बाबा को देखा । वह शांत खड़े थे । भगीरथ ने उनके आगे घुटने टेके और हाथ जोड़कर बैठ गये और बोले, “हे कैलाश के वासी, आपकी जय हो ! आपकी जय हो ! आप मेरी विनती मानिये और गंगाजी को छोड़ दीजिये !”
 
भगीरथ ने बहुत विनती की तो शिवशंकर रीझ गये । उनकी आंखें चमक उठीं । हाथ से जटा को झटका दिया तो पानी की एक बूंद धरती पर गिर पड़ी ।
 
बूंद धरती पर शिलाओं के बीच गिरी, फूली और धारा बन गई । वह उमड़ी और बह निकली । उसमें से कलकल का स्वर निकलने लगा । उसकी लहरें उमंग-उमंगकर किनारों को छूने लगीं । गंगा धरती पर आ गई । भगीरथ ने जोर से कहा, “गंगामाई की जय !”
 
गंगामाई ने कहा, “भगीरथ, रथ पर बैठो और मेरे आगे-आगे चलो ।”
 
भगीरथ रथ पर बैठे । आगे-आगे उनका रथ चला, पीछे-पीछे गंगाजी बहती हुई चलीं । वे [[हिमालय]] की शिलाओं में होकर आगे बढ़े । घने वनों को पार किया और मैदान में उतर आये । ऋषिकेश पहुंचे और हरिद्वार आये । आगे गढ़मुक्तेश्वर पहुंचे ।
 
आगे चलकर गंगाजी ने पूछा, “क्यों भगीरथ, क्या मुझे तुम्हारी राजधानी के दरवाजे पर भी चलना होगा ?”
 
भगीरथ ने हाथ जोड़कर कहा, “नहीं माता, हम आपको जगत की भलाई के लिए धरती पर लाये हैं । अपनी राजधानी की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं ।”
 
गंगा बहुत खुश हुई । बोलीं, “भगीरथ, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं । आज से मैं अपना नाम भी [[भागीरथी]] रख लेती हूं ।”
 
भगीरथ ने गंगामाई की जय बोली और वह आगे बढ़े । सोरों, [[इलाहाबाद]], [[बनारस]], पटना होते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे । साठ हजार राख की ढेरियां उनके पवित्र जल में डूब गई । वह आगे बढ़ीं तो उनको सागर दिखाई दिया । सागर को देखते ही खिलखिलाकर हंस पड़ीं और बोलीं, “बेटा भगीरथ, अब तुम लौट जाओ । मैं यहीं सागर में विश्राम करुंगी ।”
 
तब से गंगा आकाश से [[हिमालय]] पर उतरती हैं । सत्रह सौ मील धरती सींचती हुई सागर में विश्राम करने चली जाती हैं । वह कभी थकती नहीं, अटकती नहीं । वह तारती हैं, उबारती हैं और भलाई करती हैं । यही उनका काम है । वह इसमें सदा लगी रहती हैं ।
 

१४:०५, २४ जुलाई २०१० के समय का अवतरण

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सगर / Sagar

  • राजा दशरथ के पूर्वजों में राजा सगर हुए थे। सगर के पिता का नाम असित था। वे अत्यंत पराक्रमी थे। हैहय, तालजंघ, शूर और शशिबिंदु नामक राजा उनके शत्रु थे। उनसे युद्ध करते-करते राज्य त्यागकर उन्हें अपनी दो पत्नियों के साथ हिमालय भाग जाना पड़ा। वहां कुछ काल बाद उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी दोनों पत्नियां गर्भवती थीं। उनमें से एक का नाम कालिंदी था। कालिंदी की संतान नष्ट करने के लिए उसकी सौत ने उसको विष दे दिया। कालिंदी अपनी संतान की रक्षा के निमित्त भृगुवंशी महर्षि च्यवन के पास गयी। महर्षि ने उसे आश्वासन दिया कि उसकी कोख से एक प्रतापी बालक विष के साथ (स+गर) जन्म लेगा। अत: उसके पुत्र का नाम सगर पड़ा।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, बालकांड, 70।27-37" style=color:blue>*</balloon>
  • सगर अयोध्या नगरी के राजा हुए। वे संतान प्राप्त करने के इच्छुक थे। उनकी सबसे बड़ी रानी विदर्भ नरेश की पुत्री केशिनी थी। दूसरी रानी का नाम सुमति था। दोनों रानियों के साथ राजा सगर ने हिमवान के प्रस्त्रवण गिरि पर तप किया। प्रसन्न होकर भृगु मुनि ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को वंश चलाने वाले एक पुत्र की प्राप्ति होगी और दूसरी के साठ हज़ार वीर उत्साही पुत्र होंगे। बड़ी रानी के एक पुत्र और छोटी ने साठ हज़ार पुत्रों की कामना की। केशिनी का असमंजस नामक एक पुत्र हुआ और सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसके फटने पर साठ हज़ार पुत्रों का जन्म हुआ। असमंजस बहुत दुष्ट प्रकृति का था। अयोध्या के बच्चों को सताकर प्रसन्न होता था। सगर ने उसे अपने देश से निकाल दिया। कालांतर में उसका पुत्र हुआ, जिसका नाम अंशुमान था। वह वीर, मधुरभाषी और पराक्रमी था।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 38।1-24" style=color:blue>*</balloon>
  • राजा सगर ने विंध्य और हिमालय के मध्य यज्ञ किया। सगर के पौत्र अंशुमान यज्ञ के घोड़े की रक्षा कर रहे थे। जब अश्ववध का समय आया तो इन्द्र राक्षस का रूप धारण कर घोड़ा चुरा ले गये। सगर ने अपने साठ हज़ार पुत्रों को आज्ञा दी कि वे पृथ्वी खोद-खोदकर घोड़े को ढूंढ़ लायें। जब तक वे नहीं लौटेंगे, सगर और अंशुमान दीक्षा लिये यज्ञशाला में ही रहेंगे। सगर-पुत्रों ने पृथ्वी को बुरी तरह खोद डाला तथा जंतुओं का भी नाश किया। देवतागण ब्रह्मा के पास पहुंचे और बताया कि पृथ्वी और जीव-जंतु कैसे चिल्ला रहे हैं। ब्रह्मा ने कहा कि पृथ्वी विष्णु भगवान की स्त्री हैं वे ही कपिल मुनि का रूप धारण कर पृथ्वी की रक्षा करेंगे। सगर-पुत्र निराश होकर पिता के पास पहुंचे। पिता ने रुष्ट होकर उन्हें फिर से अश्व खोजने के लिए भेजा। हज़ार योजन खोदकर उन्होंने पृथ्वी धारण करने वाले विरूपाक्ष नामक दिग्गज को देखा। उसका सम्मान कर फिर वे आगे बढ़े। दक्षिण में महापद्म, उत्तर में श्वेतवर्ण भद्र दिग्गज तथा पश्चिम में सोमनस नामक दिग्गज को देखा। तदुपरांत उन्होंने कपिल मुनि को देखा तथा थोड़ी दूरी पर अश्व को चरते हुए पाया। उन्होंने कपिल मुनि का निरादर किया, फलस्वरूप मुनि के शाप से वे सब भस्म हो गये। बहुत दिनों तक पुत्रों को लौटता न देख राजा सगर ने अंशुमान को अश्व ढूंढ़ने के लिए भेजा। वे ढूंढ़ने-ढूंढ़ते अश्व के पास पहुंचे जहां सब चाचाओं की भस्म का स्तूप पड़ा था। जलदान के लिए आसपास कोई जलाशय भी नहीं मिला। तभी पक्षीराज गरुड़ उड़ते हुए वहां पहुंचे और कहा कि 'ये सब कपिल मुनि के शाप से हुआ है, अत: साधारण जलदान से कुछ न होगा। गंगा का तर्पण करना होगा। इस समय तुम अश्व लेकर जाओ और पिता का यज्ञ पूर्ण करो।' उन्होंने ऐसा ही किया।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 39।1-26,40।1-30, 41।1-27" style=color:blue>*</balloon>

महाभारत के अनुसार

इक्ष्वाकुवंश में सगर नामक प्रसिद्ध राजा का जन्म हुआ था। उनकी दो रानियां थीं- वैदर्भी तथा शैव्या। वे दोनों अपने रूप तथा यौवन के कारण बहुत अभिमानिनी थीं। दीर्घकाल तक पुत्र-जन्म न होने पर राजा अपनी दोनों रानियों के साथ कैलास पर्वत पर जाकर पुत्रकामना से तपस्या करने लगे। शिव ने उन्हें दर्शन देकर वर दिया कि एक रानी के साठ हज़ार अभिमानी शूरवीर पुत्र प्राप्त होंगे तथा दूसरी से एक वंशधर पराक्रमी पुत्र होगा। कालांतर में वैदर्भी ने एक तूंबी को जन्म दिया। राजा उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभी आकाशवाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हज़ार बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में साठ हज़ार पुत्र प्राप्त होंगे। इसे महादेव का विधान मानकर सगर ने उन्हें वैसे ही सुरिक्षत रखा तथा उन्हें साठ हज़ार उद्धत पुत्रों की प्राप्ति हुई। वे क्रूरकर्मी बालक आकाश में भी विचर सकते थे। तथा सब को बहुत तंग करते थे। शैव्या ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। वह पुरवासियों के दुर्बल बच्चों को गर्दन से पकड़कर मार डालता था। अत: राजा ने उसका परित्याग कर दिया। असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था। राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ली। उसके साठ हज़ार पुत्र घोड़े की सुरक्षा में लगे हुए थे तथापि वह घोड़ा सहसा अदृश्य हो गया। उसको ढूंढ़ते हुए वैदर्भी पुत्रों ने पृथ्वी में एक दरार देखी। उन्होंने वहां खोदना प्रारंभ कर दिया। निकटवर्ती समुद्र को इससे बहुत पीड़ा का अनुभव हो रहा था। हज़ारों नाग, असुर आदि उस खुदाई में मारे गये। फिर उन्होंने समुद्र के पूर्ववर्ती प्रदेश को फोड़कर पाताल में प्रवेश किया जहां पर अश्व विचर रहा था और उसके पास ही कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे। हर्ष के आवेग में उनसे मुनि का निरादर हो गया, अत: मुनि ने अपनी दृष्टि के तेज से उन्हें भस्म कर दिया। नारद ने यह कुसंवाद राजा सगर तक पहुंचाया। पुत्र-विछोह से दुखी राजा ने अशुंमान को बुलाकर अश्व को लाने के लिए कहा। अंशुमान ने कपिल मुनि को प्रणाम कर अपने शील के कारण उनसे दो वर प्राप्त किये। पहले वर के अनुसार उसे अश्व की प्राप्ति हो गयी तथा दूसरे वर से पितरों की पवित्रता मांगी। कपिल मुनि ने कहा-'तुम्हारे प्रताप से मेरे द्वारा भस्म किये गये तुम्हारे पितर स्वर्ग प्राप्त करेंगे। तुम्हारा पौत्र शिव को प्रसन्न कर सगर-पुत्रों की पवित्रता के लिए स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर ले आयेगा।' अंशुमान के लौटने पर सगर ने अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किया।<balloon title="महाभारत, वनपर्व, अध्याय 106, 107" style=color:blue>*</balloon>

श्रीमद् भागवत के अनुसार

रोहित के कुल में बाहुक का जन्म हुआ। शत्रुओं ने उसका राज्य छीन लिया। वह अपनी पत्नी सहित वन चला गया। वन में बुढ़ापे के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। उसके गुरु ओर्व ने उसकी पत्नी को सती नहीं होने दिया क्योंकि वह जानता था कि वह गर्भवती है। उसकी सौतों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने उसे विष दे दिया। विष का गर्भ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बालक विष (गर) के साथ ही उत्पन्न हुआ, इसलिए 'सगर' कहलाया। बड़ा होने पर उसका विवाह दो रानियों से हुआ- सुमति तथा केशिनी। सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। इन्द्र ने उसके यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया तथा तपस्वी कपिल के पास ले जाकर खड़ा किया। उधर सगर ने सुमति के पुत्रों को घोड़ा ढूंढ़ने के लिए भेजा। साठ हज़ार राजकुमारों को कहीं घोड़ा नहीं मिला तो उन्होंने सब ओर से पृथ्वी खोद डाली। पूर्व-उत्तर दिशा में कपिल मुनि के पास घोड़ा देखकर उन्होंने शस्त्र उठाये और मुनि को बुरा-भला कहते हुए उधर बढ़े। फलस्वरूप उनके अपने ही शरीरों से आग निकली जिसने उन्हें भस्म कर दिया। केशिनी के पुत्र का नाम असमंजस तथा असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था। असमंजस पूर्वजन्म में योगभ्रष्ट हो गया था, उसकी स्मृति खोयी नहीं थी, अत: वह सबसे विरक्त रह विचित्र कार्य करता रहा था। एक बार उसने बच्चों को सरयू में डाल दिया। पिता ने रुष्ट होकर उसे त्याग दिया। उसने अपने योगबल से बच्चों को जीवित कर दिया तथा स्वयं वन चला गया। यह देखकर सबको बहुत पश्चात्ताप हुआ। राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को घोड़ा खोजने भेजा। वह ढूंढ़ता-ढूंढ़ता कपिल मुनि के पास पहुंचा। उनके चरणों में प्रणाम कर उसने विनयपूर्वक स्तुति की। कपिल से प्रसन्न होकर उसे घोड़ा दे दिया तथा कहा कि भस्म हुए चाचाओं का उद्धार गंगाजल से होगा। अंशुमान ने जीवनपर्यंत तपस्या की किंतु वह गंगा को पृथ्वी पर नहीं ला पाया। तदनंतर उसके पुत्र दिलीप ने भी असफल तपस्या की। दिलीप के पुत्र भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर गंगा ने पृथ्वी पर आना स्वीकार किया। गंगा के वेग को शिव ने अपनी जटाओं में संभाला। भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर गंगा समुद्र तक पहुंची। समुद्र-संगम पर पहुंचकर उसने सगर के पुत्रों का उद्धार किया। सब लोग गंगा से अपने पाप धोते हैं। उन पापों के बोझ से भी गंगा मुक्त रहती है। विरक्त मनुष्यों में भगवान निवास करता है, अत: उनके स्नान करने से गंगाजल में घुले सब पाप नष्ट हो जाते हैं।<balloon title="श्रीमद् भागवत, नवम स्कंध, अध्याय 8,9।1-15/ शिव पुराण, 4।3।" style=color:blue>*</balloon>

ब्रह्म पुराण के अनुसार

राजा बाहु दुर्व्यसनी था। हैहय तथा तालजंघ ने शक, पारद, यवन, कांबोज और पल्लव की सहायता से उसके राज्य का अपहरण कर लिया। बाहु ने वन में जाकर प्राण त्याग किये। उसकी गर्भवती पत्नी सती होना चाहती थी। गर्भवती पत्नी को उसकी सौत ने विष दे दिया था, किंतु उसकी मृत्यु नहीं हुई थी) भृगुवंशी और्व ने दयावश उसे बचा लिया। मुनि के आश्रम में ही उसने विष के साथ ही पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम सगर पड़ा। और्व ने उसे शस्त्रास्त्र विद्या सिखायी तथा आग्नेयास्त्र भी दिया। सगर ने हैहय के सहायकों को पराजित करके नाश करना आंरभ कर दिया। वे वसिष्ठ की शरण में गये। वसिष्ठ ने सगर से उन्हें क्षमा करने के लिए कहा। सगर ने अपनी प्रतिज्ञा याद करके उनमें से किन्हीं का पूरा, किन्हीं का आधा सिर, किन्हीं की दाढ़ी आदि मुंडवाकर छोड़ दिया। सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। घोड़ा समुद्र के निकट अपह्र्य हो गया। सगर ने पुत्रों को समुद्र के निकट खोदने के लिए कहा। वे लोग खोदते हुए उस स्थान पर पहुंचे जहां विष्णु, कपिल आदि सो रहे थे। निद्रा भंग होने के कारण विष्णु की दृष्टि से सगर के चार छोड़कर सब पुत्र नष्ट हो गये। बर्हिकेतु, सुकेतु, धर्मरथ तथा पंचनद- इन चार पुत्रों के पिता सगर को नारायण ने वर दिया कि उसका वंश अक्षय रहेगा तथा समुद्र सगर का पुत्रत्व प्राप्त करेगा। समुद्र भी राजा सगर की वंदना करने लगा। पुत्र-भाव होने से ही वह सागर कहलाया।<balloon title="ब्रह्म पुराण 8।33-61" style=color:blue>*</balloon>

शिव पुराण के अनुसार

राजा बाहु रात-दिन स्त्रियों के भोग-विलास में रहता था। एक बार हैहय, तालजंघ तथा शक राजाओं ने उस विलासी को परास्त कर राज्य छीन लिया। बाहु अर्ज मुनि के शरण में पहुंचा। उसकी बड़ी रानी गर्भवती हो गयी। सौतों ने उसे विष दे दिया। भगवान की कृपा से रानी तथा उसका गर्भस्थ शिशु तो बच गये किंतु अचानक राजा की मृत्यु हो गयी। गर्भवती रानी को मुनि ने सती नहीं होने दिया। उसने जिस बालक को जन्म दिया, वह सगर कहलाया क्योंकि वह विष से युक्त था। मां और मुनि को प्रेरणा से वह शिव भक्त बन गया। उसने अश्वमेध यज्ञ भी किया। उसका घोड़ा इन्द्र ने छिपा लिया। उसके साठ सहस्त्र पुत्र घोड़ा ढूंढ़ते हुए कपिल मुनि के पास पहुंचे। वे तप कर रहे थे तथा घोड़ा वहां बंधा हुआ था। उन्होंने मुनि को चोर समझकर उन पर प्रहार करना चाहा। मुनि ने नेत्र खोले तो सब वहीं भस्म हो गये। दूसरी रानी से उत्पन्न पंचजन्य, जिसका दूसरा नाम 'असमंजस' था, शेष रह गया था। उसके पुत्र का नाम अंशुमान हुआ जिसने घोड़ा लाकर दिया और यज्ञ पूर्ण करवाया।<balloon title="शिव पुराण, 11।21" style=color:blue>*</balloon>

पउम चरित के अनुसार

त्रिदंशजय के दूसरे पोते का नाम सगर था। चक्रवाल नगर के अधिपति पूर्णधन के पुत्र का नाम मेघवाहन था। वह उसका विवाह सुलोचन की पुत्री से करना चाहता था। किंतु सुलोचन अपनी कन्या का विवाह सगर से कराना चाहता था। कन्या को निमित्त बनाकर पूर्णधन और सुलोचन का युद्ध हुआ। सुलोचन मारा गया किंतु उसके पुत्र सहस्त्रनयन अपनी बहन को साथ लेकर भाग गया। कालांतर में उसने राजा सगर को अपनी बहन अर्पित कर दी। पूर्णधन की मृत्यु के उपरांत मेघवाहन को लंका जाने के लिए प्रेरित किया। भीम ने मेघवाहन को लंका के अधिपति-पद पर प्रतिष्ठित किया। एक बार राजा सगर के साठ हज़ार पुत्र, अष्टापद पर्वत पर वंदन हेतु गये। वहां देवार्चन इत्यादि के उपरांत भरत निर्मित चैत्यभ्वन की रक्षा के हेतु उन्हांने दंडरत्न से गंगा को मध्य में प्रहार करके पर्वत के चारों ओर 'परिखा' तैयार की। नागेंद्र ने क्रोध-रूपी अग्नि से सगर-पुत्रों को भस्म कर दिया। उनमें से भीम और भगीरथ, दो पुत्र अपने धर्म की दृढ़ता के कारण से भस्म नहीं हो पाये। उन लोगों के लौटने पर सब समाचार जानकर चक्रवर्ती राजा सगर ने भगीरथ को राज्य सौंप दिया तथा स्वयं जिनवर से दीक्षा ग्रहण करके मोक्ष-पद प्राप्त किया।<balloon title="पउम चरित, 5।62-202।" style=color:blue>*</balloon>