सनातन गोस्वामी

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श्री सनातन गोस्वामी जी / Shri Sanatan Gauswami ji

व्रज के रसिकाचार्य (सम्पूर्ण) श्रीसनातन गोस्वामी— (पेज नं0-57 से 116 तक देखें) सन् 1514। अक्टूवर का महीना। चैतन्य महाप्रभु संन्यास रूप में नीलाचल में विराज रहे थे। श्रीकृष्ण-प्रेम-रस से परिपूर्ण उनके हृदय सरोवर में उठी एक भाव तरंग श्रीकृष्ण लीलास्थली मधुर वृन्दावन के दर्शन की। देखते-देखते वह इतनी विशाल और वेगवती हो गयी कि नीलाचल के प्रेमी भक्तों के नीलाचल छोड़कर न जाने के विनयपूर्ण आग्रह का अतिक्रमण कर उन्हें बहा ले चली वृन्दावन के पथ पर। साथ चल पड़ी भक्तों की अपार भीड़ भावावेश में उनके साथ नृत्य और कीर्तन करती। गौड़ देश होते हुए उन्होंने झाड़खण्ड के रास्ते वृन्दावन जाना था। पर आश्चर्य! झाड़खण्ड न जाकर वे मुड़ चले गौड़ देश के राजा हुसेनशाह की राजधानी गौड़ की ओर। ऐसा कौन-सा प्रबल आकर्षण था, जो वृन्दावन की ओर बहती हुई उस भाव और प्रेम की सोतस्विनी के वेग को थामकर अपनी ओर मोड़ने में समर्थ हुआ, किसी की समझमें न आया। आकर्षण था अमरदेव और संतोषदेव नाम के दो भाइयों का, जो गौड़ देश के बादशाह हुसेनशाह के मन्त्री थे, अमरदेव प्रधानमन्त्री थे, संतोषदेव राजस्व-मन्त्री। दोनों भाई संस्कृत, फारसी और अरबी के महान् विद्वान थे। दोनों मुसलमान राजा के अधीन होते हुए भी बड़े धर्मनिष्ठ और सदाचारी थे। दोनों का मान-सम्मान जैसा राज-दरबार में था, वैसा ही प्रजा और हिन्दु समाज में भी। दोनों का कृष्ण-प्रेम भी अतुलनीय था। दोनों महाप्रभु और उनके प्रेम-धर्म से आकृष्ट हो संसार त्यागकर उनके अनुगत्य में कृष्ण-प्राप्ति के पथपर चल पड़ने का संकल्प कर चुके थे। दोनों ने पहले ही महाप्रभु को कई पत्र लिखकर उनकी कृपा से उद्वार पाने की प्रार्थना की थी। महाप्रभु को उत्तर में लिखा था- "कृष्ण तुम्हारा उद्वार शीघ्र करेंगे। पर कुछ दिन प्रतीक्षा करो। जिस प्रकार परपुरूष से प्रेम करने वाली कुल-रमणी घर के कार्य में व्यस्त रहते हुए भी चिंतन द्वारा उसके नव-संगमरसका आस्वादन करती है, उसी प्रकार प्रभुकी प्रेम-सेवा का मन से चिन्तन करते हुए संसार का कार्य करते रहो- पर व्यसनिनी नारी व्यग्रापि गृहकर्मसु। तदेवास्वादयत्यन्तर्नवसंग रसायनम्॥" महाप्रभु हुसेनशाह की राजधानी के निकट पहुँचकर वहाँ विश्राम कर रहे थे। दोनों भ्राताओं को जब उनके आगमन का संवाद मिला, उनके आनन्द का ओर-छोर न रहा। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि स्वयं महाप्रभु इतना मार्ग चलकर उनतक आने की अयाचित और अहैतु की कृपा करेंगे। उन्होने उसी राज दीन वेश में वहाँ जाकर उन्हें दण्डवत् की। उनके चरणों में गिर कर पुलकाश्रु विसर्जन करते हुए उनसे प्रार्थना की- "प्रभु जब आपने इतनी कृपा की है तो हमारे उद्वार का भी उपाय करें। हमें अपने चरणों का सेवक बना लें। विषय-विष से अब हमारा जीवन दु:सह हो चला है" महाप्रभु ने दोनों को उठाकर आलिंगन किया। मृदु-मधुर कण्ठ से आशीर्वाद देते हुए कहा-"चिन्ता न करो। कृष्ण तुम्हारे ऊपर कृपा करेंगे। तुम दोनों उनके चिन्हित दास हो। तुम्हें वे अपने सेवा-कार्य में नियुक्त कर शीघ्र कृतार्थ करेंगे। आज से कृष्णदास के रूप में तुम्हारा नाम अमर औ सन्तोष की जगह हुआ सनातन और रूप।(1) महाप्रभुने उन्हें पूर्ण रूप से आश्वस्त करने के लिए आगे कहा- "यहाँ आने का मेरा उद्देश्य ही है तुम दोनों को देखना और तुम्हें आश्वस्त करना कि तुम्हारा उद्वार निश्चित है। मेरा और कोई प्रयोजन नहीं हैं- गौड़ निकट आसिते मोर नाहि प्रयोजन। तोमा दोंहा देखिते मोर इहाँ आगमन॥" (चै0 च0 2/1/198) यह देख-सुनकर सब अवाक्! लोग एक बार महाप्रभु की ओर देखते, एक बार रूप और सनातन की ओर। अब उनकी समझ में आया महाप्रभु के इतना रास्ता कटकर इधर आने का कारण। पर कौन हैं यह दोनों भाई, जिनके लिए महाप्रभु ने इतना कष्ट किया? ऐसा कौन-सा गुण है इनमें जिससे ये इतना लुब्ध हैं? यह उनकी अब भी समझ में नहीं आ रहा। महाप्रभु को उन्होंने यह कहते अवश्य सुना है कि "तुम मेरे चिन्हित दास हो।" पर दास के पास ये स्वयं इतना कष्ट उठाकर क्यों आये? दास कष्ट उठाता है स्वामी से मिलने के लिए, न कि स्वामी दास से मिलने के

(1)प्रभु चिनि दुइ भाइर विमोचन। शेषे नाम थुइलेन रूप-सनातन॥ (चै0च0 1/1-153) आज हैते दोंहार नाम रूप-सनातन। (चै0च0 2/1/195) डा0 नरेश चन्द्र जाना ने अपनी पुस्तक 'वृन्दावनेर छय गोस्वामी' (पृ0 39-41) में इस सम्बन्ध में शंका की है। उनकी धारणा है कि दोनों भाई के रूप-सनातन नाम पहले से ही थे, क्योंकि महाप्रभु जब दक्षिण में भ्रमण कर रहे थे तभी उन्होंने गोपाल भट्ट से कहा था-वृन्दावन शीघ्र जाना। तुम्हारी वहाँ रूप-सनातन से भेंट होगी- पुन: कहे अचिरे जाइवा वृन्दावन। मिलिब दुर्लभ रत्न रूप-सनातन॥ (भ0 र0 1/121) इस आधार पर डा0 जाना की यह धारणा उचित नहीं लगती, क्योंकि यह तो लेखक का अपना वर्णन है। उसने महाप्रभु के ठीक शब्दों को तो उद्धत किया नही है। ग्रन्थ लिखने के समय दोनों भाईयों का नाम रूप-सनातन नाम ही प्रचलित था। यह भी संभव है कि महाप्रभु ने पहले ही उनके नाम रूप-सनातन रखने का निश्चय कर लिया हो और वे अपनी गोष्ठी में इसी नाम से दोनों को पुकारते रहे हों, क्योंकि उन्होंने पत्रों द्वारा महाप्रभु को पूर्ण आत्म-समर्पण कर दिया था और महाप्रभु ने अपने सेवकों के रूप में उन्हें स्वीकार भी कर लिया था। ऐसी अवस्था में उनके द्वारा उनका नाम रखा जाना स्वाभाविक नहीं था। लिए। दास की गरज होती है स्वामी से, न कि स्वामीकी दास से। पर वे क्या जाने कि भगवान् और उनके भक्त के बीच सम्बन्ध जगत् के स्वामी और दास जैसा नहीं होता। यहाँ गरज दोनों की दोनों से होती है। भक्त जितना भगवान् से मिलने को उत्सुक रहता हैं, उतना ही भगवान् भक्त से मिलने को। भक्त की जितनी भगवान् से अटकी होती है, उतनी ही भगवान् की भक्त से। सच तो यह है कि भगवान् ही सदा भक्त के पास आते हैं, भक्त भगवान् के पास नहीं जाते। भक्त विचारे की सामर्थ्य ही कहाँ जो उन तक पहुँच सके। वे केवल उस पर कृपा करने और उसे दर्शन देने ही उसके पास खींच ले जाता है। तभी न ध्रुव पास गये, उसे दर्शन देने के उद्देश्य से नहीं उसके दर्शन करने के उद्देश्य से-"मधोर्वनं भृत्यदि दृक्षया गत:" (भा0 4/9/1)। महाप्रभु इन दोनों भाइयों के भक्ति भाव से आकृष्ट होकर तो रामकेलि आये थे ही, उनका एक और भी महत्वपूर्ण उद्देश्य था। वे इनकी असाधारण प्रतिभा और शक्ति का उपयोग वैष्णव-धर्म के प्रचार के लिए करना चाहते थे, इनसे वैष्णव-शास्त्र लिखवाना और व्रज के लुप्त तीर्थों का उद्धार करवाना चाहते थे। वंश-परम्परा रूप और सनातन के असाधारण व्यक्तित्व की गरिमा का सही मूल्यांकन करने के लिए उनकी वंश परम्परा पर दृष्टि डालना आवशृयक है उनके पूर्वपुरूष दक्षिण भारत में रहते थे। वे राजवंश के थे और जैसे राजकार्य में दक्ष थे वैसे ही शास्त्र-विद्या में प्रवीण। उनके भतीजे श्रीजीव गोस्वामी ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में अपनी वंशपरम्परा का वर्णन इस प्रकार किया हैं— कर्नाट देश के एक बड़े पराक्रमी राजा थे श्रीसर्वज्ञ जगद्गुरू।(1) वे भरद्वाज गोत्र के थे। बड़े धर्मनिष्ठ और वेदवित होने के कारण वे राजमण्डली के पूज्य पात्र थे। उनके पुत्र राजा अनिरूद्ध यजुर्वेद के अद्वितीय उपदेष्टा थें अनिरूद्ध के दो पुत्र हुए-रूपेश्वर और हरिहर। रूपेश्वर शास्त्रविद्या में और हरिहर शस्त्र-विद्या में प्रवीण थे। वैकुण्ठ प्राप्ति के दिन अनिरूद्ध ने अपने राज्य का दोनों पुत्र में बँटवारा कर दिया था। पर हरिहर ने रूपेश्वर का राज्य छीन लिया। रूपेश्वर राज्यच्युत हो पौरस्तदेश चले गये। वहाँ अपने सखा शिखरेश्वर के राज्य में मुख से वास करने लगे। उनके पद्मनाभ नाम (1) डा0 दीनेशचन्द्रसेन और श्रीनगेन्द्रनाथ बसु ने जगद्गुरू का आविर्भाव-काल चतुर्दश शताब्दी के शेष भाग में निर्दिष्ट किया है। के एक गुणवान पुत्र हुए। वे यजुर्वेद और समस्त उपनिषदों के श्रेष्ठ ज्ञाता थे। गंगातीर पर वास करने की इच्छा से वे शिखर देश परित्याग कर राजा दनुजमर्दन के आह्नानपर नवहट्ट (नैहाटी)(1) चले आये। उनके अठारह कन्या और पाँच पुत्र हुए। पुत्रों के नाम थे- पुरूषोत्तम, जगन्नाथ, नारायण, मुरारी और मुकुन्द। यशस्वी मुकुन्द के पुत्र हुए कुमार। कुमार किसी द्रोह के कारण नवहट्ट छोड़कर बंगदेश (पूर्व बंग) चले गये।(2) कुमार के भी कई पुत्र हुए, जिनके वैष्णव समाज में विशेष रूप से प्रसिद्ध हुए तीन- सनातन, रूप और वल्लभ (अनुपम)। इनमें सनातन सबसे बड़े और रूप उनसे छोटे और वल्लभ उनसे छोटे। बाल्यकाल और शिक्षा जन्म— सनातन गोस्वामी की जन्मतिथि के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना सम्भव नहीं जान पड़ता। डा0 दीनेशचन्द्र सेन ने उनका जन्म सन् 1492 में बताया है।(3) और भी कई विद्वानों ने डा0 सेन का अनुसरण करते हुए उनका जन्म सन् 1492 या उसके आस-पास बताया। पर डा0 सतीशचन्द्र मित्र ने उनका जन्म सन् 1465 (सं0 1522) में लिखा हैं। यही ठीक जान पड़ता है, क्योंकि महाप्रभु जब रामकेलि गये, उस समय सनातन गोस्वामी हुसेनशाह के प्रधानमन्त्री थे। महाप्रभु की आयु उस समय 28/29 वर्ष की थी। महाप्रभु का आविर्भाव हुआ 1486 में। वे रामकेलि गये सन्यास के पंचम वर्ष सन् 1514 या 1515 में। इस हिसाब से सनातन गोस्वामी की आयु डा0 सेन के मत के अनुसार उस समय 23 वर्ष की होती। रामकेलि में महाप्रभु से मिलने के कई वर्ष पूर्व वे प्रधानमंत्री हुए होंगे।(4) उस समय उनकी आयु केवल 18/19 वर्ष की या उससे कम होगी और रूप गोस्वामी की उससे भी कम, जो विश्वास करने योग्य नहीं। यदि उनका जन्म मित्र महाशय के अनुसार सन् 1465 में माना जाय, तो उनकी उम्र रामकेलि में महाप्रभु से उनके मिलने के समय 49।50 की होती है, जो प्रधानमन्त्री पद के लिए ठीक लगती है। (1) कुछ लोगों का मत है कि यहाँ तात्पर्य वर्धमान जिला के अन्तर्गत वर्तमान नैहाटीसे है। पर डा0 सुकुमारसेन द्वारा आविष्कृत सनातन, रूप और जीव के परिचयपत्र में उल्लेख है कि पद्मनाभ शिखर देश से कुमारहट्ट चले गये (डा0 सुकुमारसेन, बांला साहित्येर इतिहास, प्रथम खण्ड, पूर्वार्ध, 3 य सं0 पृ0 302-303)। इससे सिद्ध है कि तात्पर्य कुमार हट्ट के सन्निकट नैहाटी से है। (2) भक्तिरत्नाकर के अनुसार वे बंगदेश के दक्षिण प्रान्त में बाकला चन्द्रद्वीप में जाकर रहने लगे (भ0 र0 1/561-565)। (3) D.C. Sen: The Vaisnava Literature of Medieval Bengal P.29. (4) भक्तिरत्नाकर में उल्लेख है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु ने संन्यास के पूर्व ही (अर्थात् सन् 1510 के पूर्व) रूप-सनातन की मंत्री रूप में ख्याति सुनी थी (भ0 र0 1/364-383)। एक और प्रकार से भी मित्र महाशय के मत की पुष्टि होती है। श्रीरूप गोस्वामी ने गोविन्द-विरूदावली में लिखा है— "पालितंकरणीदशा प्रमो मुहुरन्धंकरणी चमां गता। शुभंकरणी कृपा शुभैर्ण तवाद्-यंकरणी च मय्यभूत॥ (स्तवमाला) -हे प्रभो, इस समय मैं वृद्वप्राय और अन्धप्राय हो गया हूँ, फिर भी इस शरणागत के प्रति आपकी कृपादृष्टि नहीं हुई।" गोविन्द-विरूदावली रूपगोस्वामी के 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में उद्वत है। भक्तिरसामृतसिन्धु का रचना-काल सन् 1541 है। इस आधार पर गोविन्द-विरूदावली का रचनाकाल 1540 माना जाय और उस समय रूपगोस्वामी का आविर्भाव सन् 1470 के लगभग मानना होगा। सनातन गोस्वामी को रूपगोस्वामी से 4।5 साल बड़ा माना जाय, तो उनका जन्म 1465।66 के लगभग ही मानना होगा। शिक्षा सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात् मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की। उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दिलायी रामभद्र वाणीविलास नामक एक पंडित से। उसके पश्चात् उन्हें भेज दिया नवद्वीप, जो उस समय शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ कुछ दिन प्रसिद्ध नैयायिक श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य से न्याय-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् वे उनके छोटे भाई विद्यावाचस्पति (1) की टोल में पढ़ने लगे। असाधारण मेधावान् और प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण दोनों थोड़े ही दिनों में साहित्य, व्याकरण और नाना शास्त्रों में पारंगत हो गये। परन्तु उन दिनों केवल संस्कृत साहित्य और शास्त्रादि में व्युत्पन्न होना ही वैषयिक जीवन में उन्नति करने के लिए पर्याप्त न था, क्योंकि सरकार का सारा काम फारसी और अरबी में हुआ करता था। इसलिए मुकुन्ददेव ने उन्हें अरबी और फारसी की शिक्षा देना भी आवश्यक समझा। इसके लिए उन्होंने दोनों भाइयों को सप्तग्राम भेज दिया। सप्तग्राम के शासक फकरूद्दीन उनके बंधु थें उनकी देखरेख में वे अरबी और फारसी (1) डा0 दीनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने सिद्धि किया है कि उनका प्रकृत नाम था विष्णुदास भट्टाचार्य (साहित्य परिषद पत्रिका, वर्ष 56 3य-4र्थ संख्या पृ0 66-81) के विशेषज्ञ मुल्लाओ से इन भाषाओं का अध्ययन करने लगे। थोड़े ही दिनों में उन्होंने इन भाषाओं में भी पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया। विभिन्न भाषाओं और शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते हुए भी सनातन गोस्वामी प्रारम्भ से ही श्रीमद्भागवत में विशेष रूचि रखते थे। श्रीजीव गोस्वामी ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में दी हुई वंशपरिचायिका में उल्लेख किया है कि उन्हें बाल्यावस्था में स्वप्न में एक ब्राह्मण द्वारा श्रीमद्भागवत की एक प्रति प्राप्त हुई थी और प्रभात होने पर उसी ब्राह्मण ने वही प्रति उन्हें भेंट की थी। तभी से वे नियमित रूप से श्रीमद्भागवत का पाठ किया करते थे। अपने वृन्दावनवास के प्रारम्भ में उन्होंने परमानन्द भट्टाचार्य नामक एक भक्ति-सिद्ध आचार्य से भी भागवत के निगूढ़ तत्व की शिक्षा ग्रहण की थी। वृहत्वैष्णवतोष्णी के प्रारम्भ में मंगलाचरण में उन्होंने उन सभी महानुभावों की वन्दना करते हुए, जिनसे उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी, लिखा है- भट्टाचार्य सार्वभौम विद्यावाचस्पतीन् गुरून्। बन्दे विद्याभूषणञ्च गौड़देशविभूषणम्॥ बन्दे श्रीपरमानन्द भट्टाचार्य रसप्रियं। रामभद्रं तथा बाणी विलासञ्चोपदेशकम्॥ दीक्षा-गुरू उपर्युक्त मंगलाचरण में सनातन गोस्वामी ने केवल विद्यावाचस्पति के लिये 'गुरून् शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उनके दीक्षा गुरू थे और अन्य सब शिक्षा गुरू। 'गुरून' शब्द बहुवचन होते हुए भी गौरवार्थ में बहुत बार एक वचन में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी एक वचन में प्रयुक्त होकर विद्यावाचस्पति के साथ जुड़ा हुआ है।(1) यदि विद्यावाचस्पति और सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों दोनों से जुड़ा होता तो द्विवचन में प्रयुक्त किया गया होता। यदि जिनके नामों का यहाँ उल्लेख है उन सबसे जुड़ा होता तो दो बार 'बन्दे' शब्द का प्रयोग न किया गया होता। मनोहरदास ने भी अनुरागबल्ली में वृहत्-वैष्णवतोषणी के मंगलाचरण का यही अर्थ किया है- श्रीसनातन कैल दशम टिप्पणी। तार मंगलाचरणे एइ मत बाणी॥ विद्यावाचस्पति निज गुरू करिलेन जे। ताँहार श्रीमुख वाक्य देख परतेके॥ (1 म मञ्जरी) (1) डा0 सुशील कुमार दे ने भी अपनी पुस्तक Early History of the Vaisnava Faith and Movement in Bengal (p. 148 fn) में लिखा है “The word gurun in the passage expressly qualifies Vidyavavchaspatin only, and the plural is honontic” श्रीनरहरि चक्रवर्ती ने भक्तिरत्नाकर में विद्यावाचस्पति को ही सनातन का गुरू कहा है- "श्रीसनातन गुरू विद्यावाचस्पति। मध्ये-मध्ये रामकेलि ग्रामे ताँर स्थिति॥ (1।598) -श्रीसनातन के गुरू विद्यावाचस्पति थे। वे बीच-बीच में रामकेलि ग्राम में आकर रहा करते थे।" डा0 राधागोविन्दनाथ ने(1) भी कहा है कि वैष्णवतोषणी के मंगलाचरण में उक्त विद्यावाचस्पति ही सनातन के गुरू थे। गौड़ीय-वैष्णव समाज में प्रचलित मत भी यही है। पर डा0 विमानबिहारी मजूमदार(2) और डा0 जाना ने(3) श्रीचैतन्य महाप्रभु को सनातन गोस्वामी का दीक्षा-गुरू माना है। प्रमाण में उन्होंने कहा है कि वृहद्भागवतामृत के दशम और एकादश श्लोक में सनातन गोस्वामी ने स्पष्ट रूप से श्रीचैतन्य को प्रणाम किया है। श्लोक इस प्रकार है- "नम: श्रीगुरूकृष्णाय निरूपाधिकृपाकृते। य श्रीचैतन्यरूपोऽभूत् तन्वन् प्रेमरसं कलौ॥ भगवद्भक्ति शास्त्राणामयं सारस्यसंग्रह:। अनुभूतस्य चैतन्यदेवे तत्प्रियरूपत:॥ -जो कलियुग में प्रेमरस का विस्तार करने के लिए श्रीचैतन्य रूप में अवतीर्ण हुए हैं, उन निरूपाधि-कृपाकारी श्रीकृष्णरूप गुरूवर को मैं प्रणाम करता हूँ। यह ग्रन्थ भगवद्भक्ति-शास्त्र समूह का सार-स्वरूप है, जो श्रीचैतन्यदेव के प्रिय रूप, (यदि रूप)(4) द्वारा अनुभूत हुआ है।" डा0 मजूमदार और डा0 जाना का इस आधार पर श्रीचैतन्य को सनातन गोस्वामी का दीक्षा-गुरू मानना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यहाँ उन्होंने श्रीचैतन्यदेव की गुरूरूप में प्रणाम किया है अवश्य, पर दीक्षा-गुरू रूप में नहीं श्रीकृष्ण का अवतार होने के कारण जगद्गुरू रूप में। इन श्लोकों की टीका में उन्होंने स्वयं इस बात को स्पष्ट कर दिया है। टीका (1) चैतन्यचरितामृत, परिशिष्ट, पृ: 419 (2) चैतन्यचरितेर उपादान, 2 य सं, पृ: 137 (3) वृन्दावनेर छय गोस्वामी, पृ: 47-48 (4) व्रजमण्डल के छय गोस्वामियों के अनुसार श्रीचैतन्यदेव का प्रियरूप है उनका यति रूप, जिसके द्वारा उन्होंने राधा के भाव माधुर्य का आस्वादन किया। गौड़मण्डल के शिवानन्द सेन, नरहरि सरकार, वासु घोष। जिस प्रकार श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कहा जाता है कि द्वारका और कुरूक्षेत्र के कृष्ण पूर्ण है, मथुरा के पूर्णतर और वृन्दावन के पूर्णतम, उसी प्रकार ये गौर पारम्यवादीगण यतिवेशधारी श्रीचैतन्य को उनका पूर्ण रूप, गया से लौटने पर उनके भावोन्मत्तरूप को उनका पूर्णतररूप और नवद्वीप के किशोर गौरांग को उनका पूर्णतम रूप मानते हैं। में उन्होंने लिखा है- " श्रीवैष्णव सम्प्रदाय रीत्या स्वस्यष्टदैवतरूपं श्रीगुरूवरं प्रणमति-वैष्णव सम्प्रदाय की रीति के अनुसार अपने इष्टदेव रूप में गुरूवर श्रीचैतन्यदेव को प्रणाम करता हूँ।" इष्ट समष्टि-गुरू रूप में साधक का गुरू होता है, दीक्षा-गुरू रूप में नहीं। वैष्णवशास्त्रानुसार श्रीमन्महाप्रभु हैं स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण तत्वत: समष्टिगुरू होते हुए भी व्यष्टिगुरू का कार्य नहीं करते। वे स्वयं किसी को दीक्षा नहीं देते। दीक्षा है कृष्ण-प्राप्ति का उपाय, श्रीकृष्ण हैं उपेय। उपेय स्वयं उपाय नहीं होता। डा0 राधागोविन्दनाथ ने इस सम्बन्ध में एक और तर्क उपस्थित किया है। श्रीचैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु के दर्शनकर रूप-सनातन अपने घर चले गये और चैतन्य-चरण-प्राप्ति की आशा से उन्होंने दो पुरश्चरण करायें हरिभक्तिविलास 7।3 श्लोक की विधि के अनुसार पुरश्चरण दीक्षा के पश्चात् ही होता है, उसके पूर्व नहीं। इससे स्पष्ट है कि श्रीचैतन्य का साक्षात् होने के पूर्व ही उनकी दीक्षा हो चुकी थी। रूप-सनातन ने विवाह किया या नहीं, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। चैतन्यचरितामृत और भक्तिरत्नाकर में उनके परिवार-परिजन आदि का उल्लेख है। उसके आधार पर कुछ लोगों का अनुमान है कि उन्होंने विवाह किया थां पर किसी प्राचीन ग्रन्थ में उनके विवाह का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। राज-कार्य मन्त्रीपद पर नियुक्ति हुसेनशाह के दरबार में रूप-सनातन किस प्रकार राज-मन्त्री हुए, इस सम्बन्ध में श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने 'सप्त गोस्वामी' ग्रन्थ में लिखा है-"शैशव में सनातन और उनके भाई बाकला से रामकेलि अपने पितामह मुकुन्ददेव के पास ले जाये गये। उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया। मुकुन्ददेव राज दरबार में किसी उच्च पद पर आसीन थे। दरबार में उनका बड़ा सम्मान था। उनके पौत्रों ने अपनी असामान्य प्रतिभा और विद्या-बुद्धि के कारण सबका ध्यान सहज ही आकर्षित किया। कुछ दिन पश्चात् गौड़ में भागीरथी के तीर पर मुकुन्द को परलोक-प्राप्ति हुई (सन् 1483)। उस समय सनातन की आयु 18 वर्ष थी। उसी समय उन्हें पितामह का पद प्राप्त हुआ।(1) यह मत ठीक नहीं लगता। हुसेनशाह गौड़ के सुलतान हुए 1492 ई0 में। इसलिये 1483 ई0 में रूप-सनातन का उनके मन्त्री पर पर नियुक्त होना नहीं बनता। (1) सप्त गोस्वामी, पृ0 67 । कई लेखकों ने इस सम्बन्ध में एक किवदन्ती का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है। हुसेनशाह ने अपने राजमिस्त्री पीरू को एक मन्दिरा-स्तम्भ (1) बनाने का आदेश दिया। जब उसका निर्माण पूरा होने को आया, उसने पीरू के साथ ऊपर चढ़कर उसका निरीक्षण किया। उसे देख वह बहुत प्रसन्न हुआ, पीरू की प्रशंसा की और उसे इनाम देने को कहा। पीरू ने कहा- "जहाँ पनाह, मैं इससे भी और अच्छा बना सकता हूँ।" यह सुन हुसेनशाह को क्रोध आया। उसने कहा- "नमकहराम, जब तू इससे अच्छा बना सकता है, तो क्यों नहीं बनाया? तुझे प्राण दण्ड मिलेगा।" तत्काल उसे मन्दिर के ऊपर से धक्का देने का अपने सिपाही को आदेश दिया। पर वह पहले उसे इनाम देने को कह चुका था, इसलिये मरने के पहले उससे इनाम भी मांगने को कहा। पीरू ने कहा-"मुझे जब मरना ही है तो और इनाम लेकर क्या करूगा। इस मन्दिरा का नाम मेरे नाम पर 'पीरूसा-मन्दिरा' रख दिया जाय।" हुसेनशाह ने उसे मन्दिरा के ऊपर से गिराकर मरवा दिया, पर मन्दिरा का नाम रख दिया "पीरूसा-मन्दिरा।" मन्दिरा का शिरावरण अभी नहीं बना था। एक दिन हुसेनशाह हिंगा नामक एक प्यादे को साथ लेकर उसे देखने गया। शिरावरण को अधूरा देख वह बहुत दु:खी हुआ । हिंगा से कहा-"हिंगा, तू मोरगाँय (मोरग्राम) जा।" उसी समय उसका मुरशिद आ गया। उसकी अभ्यर्थना कर उसके साथ वार्तालाप में लग जाने के कारण वह यह न बता सका कि किस कार्य के लिये जाना है। हिंगा भी कुपित गौड़पति से यह पूछने का साहस न कर सका कि वह मोरगाँव किसलिये जाय। बस वह मोरगाँव चला गया। वहाँ विषष्ण मन से इधर-उधर फिरता रहा। सनातन गोस्वामी को जब उसकी दयनीय अवस्था का पता चला, तो उन्होंने उसे कुछ सुदक्ष मिस्त्रयों को साथ ले गौड़ जाने की सलाह दी। वह उन्हें लेकर गौड़ चला गया। हुसेनशाह मिस्त्रियों को देखकर प्रसन्न हुआ। उसे आश्चर्य हुआ कि हिंगा ने बिना बताये उसका अभिप्राय कैसे जान लिया। इस सम्बन्ध में उसे सनातन की कुशाग्र बुद्धि का पता चला। वह पहले भी अपने मुरशिद से रूप-सनातन दोनों भाईयों की प्रशंसा सुन चुका था। उसने तुरन्त उन्हें पालकी में बिठाकर आदर सहित ले आने का अपने कुतवाल केशव क्षत्री को आदेश दिया। उनके आने पर उसने मंत्री पद स्वीकार कर राज्य-भार ग्रहण करने को कहा। राजाज्ञा उल्लंघन के (1) उन दिनों प्राय: राजा अपनी राजधानी में एक ऊँचा मीनार बनवाये करते थे, जिस पर चढ़कर वे दूर तक निरीक्षण कर सकते थे। उसे 'मन्दिरा' कहा जाता था। भीषण परिणाम के भय से उन्हें मंत्री पद स्वीकार करना पड़ा।(1) श्रीसतीशचन्द्र मिश्र के मत और उपरोक्त किंवदंती में कितना तथ्य है नहीं कहा जा सकता। पर इतना निश्चित है कि सनातन गोस्वामी को मंत्री पद पर नियुक्त किया गया उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता के कारण ही। यह भक्तिरत्नाकर में नरहरि चक्रवर्ती के इस विवरण से स्पष्ट है- "सनातन रूप महामन्त्री सर्वाशेते। शुनिलेन राजा शिष्ट लोकेर मुखे ते॥ गौड़ेर राजा जवन अनेक अधिकार। सनातन रूपे आनि दिल राज्य भार॥ (भक्ति रत्नाकर, 1।581-82) -राजा ने जब शिष्ट लोगों के मुख से सुना कि सनातन और रूप की रंग-रंग में महामन्त्रीत्व भरा है, तो उन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग कर उन्हें अपने निकट बुलवाया और राज्य भार उन पर सौंप दिया।" सनातन गोस्वामी अपने असाधारण व्यक्तित्व, विचक्षणता और कर्मठता के कारण हुसेनशाह के दक्षिण हस्त बन गये। राज्य के शासन और प्रतिरक्षा आदि का कोई भी महत्वपूर्ण कार्य हुसेनशाह सनातन गोस्वामी के परामर्श के बिना न करते। उनके अनुज रूप और वल्लभ भी उनके प्रभाव से उच्च राज पद पर नियुक्त कर दिये गये। सनातन को उपाधि दी गयी 'साकर मल्लिक' और रूप को 'दबीर खास'।(2) 'मल्लिक' अरबी के 'मलिक' शब्द उत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'राजा'। 'साकर' अरबी के 'सागिर' शब्द से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'छोटा' या 'उप'। 'साकर मल्लिक' का अर्थ है छोटा राजा अर्थात् प्रधानमंत्री, जिसका राजा के बाद स्थान है। 'दबीर खास' फारसी के 'दबिर-इ-खास' शब्द से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है निजस्व-सचिव या प्राइवेट-सेक्रेटरी। भक्ति-साधना सनातन गोस्वामी गौड़ दरबार में सुलतान के शिविर में रहते समय मुसलमानी वेश-भूषा में रहते, अरबी और फारसी में अनर्गल (1) डा0 नरेशचन्द्र जाना : छय गोस्वामी, पृ0 25; कृष्णदास बाबा: उज्ज्वल नीलमणी, भूमिका, पृ0 9-11। (2) कई विद्वानों के मत से दबीर खास सनातन की उपाधि थी और साकर मल्लिक रूप की। पर चैतन्य चरितमृत और चैतन्य भागवत में सनातन की साकर मल्लिक उपाधि के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण है। चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि रूप और सनातन जब रामकेलि महाप्रभु के दर्शन करने गये, उस समय नित्यानन्द और हरिदास ने, जो महाप्रभु के साथ थे, कहा- रूप साकर आइला तोमा देखिबारे। (चै0 च0 2।1।174) अर्थात्, रूप और साकर आपके दर्शन को आये हैं। यहाँ सनातन को ही साकर (मल्लिक) कहा गया है। वार्तालाप करते और विधर्मी सुलतान और अमीर-उमराव की सामाजिक रीतिनीति के अनुसार व्यवहार करते। पर दिन ढ़लते अपने गृह रामकेलि पहुँचते ही उद्भासित हो उठता उनका निज-स्वरूप। स्नान तर्पणादि के पश्चात् शुद्व होकर वे लग पड़ते दान-ध्यान, पूजा-अर्चना, शास्त्र-पाठ और धर्म सम्बन्धी आलाप-आलोचना में। रामकेलि में और उसके आसपास सनातन गोस्वामी ने बना रखा था एक अपूर्व धार्मिकता का परिवेश। उनके द्वारा प्रतिष्ठित श्रीमदन मोहन का मन्दिर और उनके बनवाये सनातन सागर, रूप सागर, दीधि, श्यामकुण्ड, राधाकुण्ड, ललिताकुण्ड, विशाखाकुण्ड, सुरभीकुण्डद्व रंगदेवीकुण्ड और इन्दुरेखाकुण्ड आज भी वहाँ वर्तमान हैं। इन कुण्डों के किनारे आरोपित कदम्ब के वृक्षों के नीचे बैठकर वे कृष्ण-लीला का चिन्तन करते थे। भक्ति-रत्नाकर में नरहरि चक्रवर्ती का उल्लेख है- बाड़ीर निकटे अति बिभृत स्थाने ते कदम्ब-कानन धारा श्यामकुण्ड ताते वृन्दावन लीला तथा करये चिन्तन, ना धरे धैरज नेत्रे धारा अनुक्षण। (1।604-605) अर्थात् उनके घर के निकट एक निभृत स्थान में कदम्ब के वृक्षों से घिरा हुआ श्यामकुण्ड था। वहाँ बैठकर वे वृन्दावन-लीला का चिन्तन करते-करते धैर्य खो बैठते और उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती। चैतन्य भागवत में दो जगह सनातन को साकर मल्लिक कहा गया है- साकर मल्लिक आर रूप दुई भाई। दुई प्रति कृपा दृष्ट्ये चाहिला गोसात्रि॥ (चै0 भा0 3।10।234) यहाँ रूप का नाम लिया गया है और सनातन को साकर मल्लिक कहा गया है। महाप्रभु ने साकर मल्लिक की ही जगह सनातन का नाम सनातन रखा इसका चैतन्य-भागवत में स्पष्ट उल्लेख है- साकर मल्लिक नाम घुचाइया तान। सनातन अवधूत थ्इलेन नाम॥ (चै0 भा0 3।10।268) गिरिजा शंकर राय चौधरी का मत है कि सनातन को ही साकर मल्लिक और दबीर खास, इन दोनों नामों से पुकारा जाता था (श्रीचैतन्यदेव ओ ताँहार पार्षदगण, पृ0 147-149)। उनका कहना है कि चैतन्य-चरितामृत और चैतन्य-भागवत में कहीं भी 'दबीर खास' शब्द का प्रयोग रूप के लिये नहीं किया गया। पर चैतन्य भागवत की निम्न पंक्तियों को देखकर ऐसा नहीं कहा जा सकता--- "दबीर खासेरे प्रभु बलिते लागिल। एखने तोमार कृष्ण प्रेम-भक्ति हैला॥ (चै0 भा0 3।10।263) आत्म-ग्लानि सनातन गोस्वामी की यह मनोवृत्ति उनके वंशगत वैशिष्ठ्य के कारण थी, जो अब तक दबी हुई थी उनके जटिल राजकार्य के दायित्वपूर्ण भार के कारण। दबी होते हुए भी यह भट्टे की अग्नि की तरह भीतर-भीतर सुलग रही थी। हवा का एक झोंका लगते ही इसे धधककर बाहर आ जाना था। झोंका आया जब हुसेनशाह की सेना ने निर्ममता से उड़ीसा के देव-देवियों की मूर्त्तियों को ध्वंस कर दिया। सनातन से यह न देखा गया। अनुताप की अग्नि उनके अन्तर में धूं-धूंकर जलने लगी। उन्हें अपने आपसे ग्लानि होने लगी। वह प्रधान-मन्त्रीत्व किस काम का, जिसमें अपने वैषयिक वैभव के लिये अपनी आत्मा को विधर्मी राजा के हाथों गिरवीं रख देना पड़े? वह वैभव सुख-सम्पत्ति और मान-सम्मान किस काम का, जिसमें अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति को विकास का अवसर न मिले? वह जीवन किस काम का, जिसके आन्तरिक और बाह्य स्वरूपों में दिन और रात के अन्तर को कम करने का कोई उपाय ही न हो? वे इस विषम स्थिति से परित्राण पाने का उपाय खोजने लगे। मन्त्रीत्व-त्याग और कारागार इसी बीच हुआ महाप्रभु का रामेकेलि शुभागमन और रूप-सनातन के नवजन्म का शुभारम्भ। उनकी कृपादृष्टि पड़ते ही उनके कृष्ण-प्रेम में ऐसी बाढ़ आयी कि उनके सभी सांसारिक बन्धनों को छिन्न-भिन्न करती -दबीर खास से प्रभु कहने लगे-अब समझ लो कि तुम्हें प्रेम-भक्ति प्राप्त हो गयी।" इससे पूर्व अर्द्वताचार्य ने दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा था- "कायमनोवचने मोहार एई कथा। ए-दुइर प्रेम भक्ति होउक सर्वथा॥ (चै0 भा0 3।10।261) -काय, मन और वचन से मेरा यह आशीर्वाद है कि इन दोनों को प्रेम-भक्ति हो।" इन पंक्तियों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उपरोक्त पंक्तियों में महाप्रभु ने अद्वैताचार्य के आशीर्वाद के परिणाम स्वरूप केवल सनातन गोस्वामी के प्रेम-भक्ति नाभ करने की बात कही हो। स्पष्ट है कि यहाँ 'दबीर खास' शब्द का प्रयोग दोनों के लिये किया गया है। इससे यह संभव जान पड़ता है कि 'साकर मल्लिक' केवल सनातन की उपाधि रही हो और 'दबीर खास' दोनों को पुकारा जाता रहा है। डा0 जाना ने जयानन्द के चैतन्यमंगल से निम्न पंक्तियों को उद्धृत करके भी सिद्ध करने की चेष्टा की है कि दबीर खास दोनों को कहा जाता था- हेन काले दबीर खास भाइ दुइ जने। देखिञा चैतन्य चिनिलेन ततक्षणे॥ X X X श्रीकृष्ण चैतन्य रहिलेन कुतूहले। दबिर खास हुइ भाइ गेला नीलाचले॥ हुई उन्हें बहा ले गयी कृष्ण-प्रेम के अनन्त अगाध सागर की ओर। महाप्रभु के रामकेलि से जाते ही दोनों भाईयों का सांसारिक जीवन असंभव हो गया। इससे परित्राण पाने के उद्देश्य से उन्हीं दो शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों को बहुत सा धन देकर उनसे कृष्ण-मन्त्र के दो पुरश्चरण करवाये (चै0च0 2।19।4-5) पुरश्चरण के पश्चात् दोनों ने संसार त्यागकर वृन्दावन जाने का निश्चय किया। सनातन के ऊपर राजकार्य का दायित्व अधिक था। इसलिये दोनों ने आपस में परामर्श कर स्थिर किया कि पहले रूप गुप्त रूप से वृन्दावन की यात्रा करेंगे। फिर कुछ दिन बाद सनातन उनसे वृन्दावन में जा मिलेंगे। पर रूप-सनातन पर आत्मीय स्वजन और आश्रित ब्राह्मण, पंडित साधु-सज्जन आदि के भरण-पोषण का दायित्व भी कम न था। संसार त्याग करने के पूर्व उन्हें उन सबकी समुचित व्यवस्था करनी थी। तदर्थ रूप स्वोपार्जित विपुल धनराशि लेकर फतेहाबाद चले गये। उन्होंने अपने परिवार के लोगों को पहले ही फतेहाबाद और चन्द्रद्वीप भेज दिया था (भ0 र0 1।648-49)। चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि उन्होंने अपने संचित धन का आधा ब्राह्मण और वैष्णवों में बांट दिया। बाकी में से आधा परिवार के लोगों को उनके पोषण के लिये देकर दस हजार मुद्रायें एक बनियेके पास सनातन गोस्वामी के खर्च के लिये जमा कर दी। जो बचा उसे सज्जन ब्राह्मणों के पास आकस्मिक विपत्तियों के लिये जमा कर दिया। जयानन्द ने चैतन्यमंगल में लिखा है कि इस प्रकार उन्होंने बाइस लाख स्वर्ण मुद्राओं का बँटवारा कर स्वयं वैराग्य वेष धारण कर परमार्थ पथ का अनुसरण किया। रूप के राजसभा त्यागने के पश्चात् सनातन ने भी राजसभा जाना बन्द कर दिया। हुसेनशाह से कहना भेजा-"मेरा स्वास्थ्य ठीक, नहीं रहता। मैं अब राजकार्य करने के योग्य नहीं हूँ।" हुसेनशाह को संदेह होना स्वाभाविक था। उसने सोचा दबीर खास तो बिना कुछ कहे सुने कहीं चला गया ही है, शाकर मलिक भी भाग निकलने की तैयारी में है। उस समय राज्य के चारों ओर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। ऐसे समय सनातन जैसे कुशल प्रधानमंत्री का घर बैठे रहना उसे कब अच्छा लग सकता था? उसने तत्काल राजवैद्य को भेजा सनातन की परीक्षा करने। राजवैद्य ने लौटकर सनातन के निरोग होने का संवाद दिया। हुसेनशाह को क्रोध आया। दूसरे दिन वह स्वयं गया सनातन के रामकेलि प्रासाद में उन्हें देखने। उसने देखा उन्हें प्रसन्न मुद्रा में साधु-वैष्णवों के बीच बैठे धर्म-चर्चा करते। भ्रकुटी तानते हुए उसने कहा-'सनातन! जानते नहीं इस समय राज्य की कैसी परिस्थिति है? ऐसे समय बीमारी का बहाना कर तुम्हारा घर बैठे रहना क्या राज-विद्रोह का सूचक नहीं है? छोड़ो इस पागलपन को और राज्य की बागडोर पूर्ववत् हाथ में लो। नहीं तो राजाज्ञा की अवहेलना का दण्ड भोगने के लिये तैयार रहो।" पर सनातन अपने हृदय-सिंहासन पर पर गौड़ेश्वर के बदले परमेश्वर को बिठा चुके थे। उन्होंने दृढ़ता के स्वर में उत्तर दिया- "जहाँपनाह, मैं अब भगवान् का दास हूँ, और किसी का नहीं। भगवान् की सेवा छोड़कर अब मेरे लिये और किसी की सेवा सम्भव ही नहीं। दरबार का कार्य अब मैं नहीं करूँगां मुझे क्षमा करें।" हुसेनशाह को अपने प्रधानमन्त्री से अपनी आज्ञा की अवहेलना कब बरदास्त हो सकती थी? उसने तत्काल उन्हें बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया। उड़ीसा के युद्ध में हुसेनशाह का सेनापति हार खाकर लौट आया। इस बार हुसेनशाह ने सव्यं सेना लेकर राजा प्रतापरूद्र का मुकाबला करने का निश्चय किया। सनातन जैसे तीक्ष्ण बुद्धिवाले सहायक की आवश्यकता पड़ी। उन्हें कारागार से बुलाकर उसने कहा- "सनातन! मेरी बात मानो, हट छोड़ दो। अपना दायित्वपूर्ण कार्य फिर से सम्हालो और मेरे साथ उड़ीसा के युद्ध में चलो।" सनातन ने दो टूक जवाब दिया-"नहीं, जहाँपनाह, यह मुझसे नहीं होगा। आपकी सेना मार्ग के सभी देव-मन्दिरों को ध्वंस करती और देव-मूर्तियों को कलुषित करती जायेगी। यह मैं अपने नेत्रों से न देख सकूंगा। मैं इस पापकार्य में साझी न बनूँगा।" सनातन को फिर कारागार में डाल हुसेनशाह ने ससैन्य उड़ीसा के लिए प्रस्थान किया। सनातन कारागार में पड़े निरन्तर महाप्रभु का चिन्तन करते रहे और उनसे प्रार्थना करते रहे-"गौर सुन्दर! तुमने रूप पर कृपा की। उसे भव-बन्धन से मुक्त कर दियां मेरे ऊपर कब कृपा करोगे नाथ? तुम्हारे सिवा अब मेरा कौन है, जिसकी कृपा का भरोसा रख प्राण धारण कर सकूं?" कारागार से मुक्ति कुछ ही दिन बाद उन्हें मिला रूप का एक गुप्त पत्र। उसमें सांकेतिक भाषा में लिखा था-"महाप्रभु ने वृन्दावन की यात्रा प्रारम्भ कर दी है। मैं और वल्लभ भी वृन्दावन जा रहे हैं। अमुक बनिये के पास दस हजार मुद्रा छोड़े जा रहे हैं। आप उन्हें काराध्यक्ष को उत्कोच में देकर कारागार से मुक्ति पाने का उपाय करें और यथाशीघ्र वृन्दावन चले आयें। (चै0 च0 2।19।30-34) सनातन ने ऐसा ही किया। काराध्यक्ष पर उन्होंने पहले अनुग्रह किया था। वह उनका अहसानमन्द था। पर हुसेनशाह का उसे भय था इसलिये सनातन गोस्वामी को मुक्त करने में असमर्थ था। सनातन गोस्वामी ने उससे कहा-"हुसेनशाह यदि उड़ीसा के युद्ध से जीवित लौट आये, तो उससे कहना-"सनातन बेड़ी पहने लघुशंका के लिये बाहर गये और गंगा में डूबकर मर गये।" इतना कह जब उन्होंने मुद्राओं की थैली उसके सामने रखी, उसे लोभ आ गया। उसने बेड़ी काटकर स्वयं उन्हें गंगा के पार पहुँचा दिया। (चै0 च0 2।20।14)"(1) वृन्दावन के पथ पर सनातन गोस्वामी ने दरवेश का भेष बनाया और अपने पुराने सेवक ईशान को साथ ले चल पड़े वृन्दावन की ओर। उन्हें हुसेनशाह के सिपाहियों द्वारा पकड़े जाने का भय था। इसलिये राजपथ से जाना ठीक न था। दूसरा मार्ग था पातड़ा पर्वत होकर, जो बहुत कठिन और विपदग्रस्त था। उसी मार्ग से जाने का उन्होंने निश्चय किया। सनातन को आज मुक्ति मिली है। हुसेनशाह के बन्दीखाने से ही नहीं, माया के जटिल बन्धन से भी। उस मुक्ति के लिये ऐसी कौन सी कीमत है, जिसे देने को वे प्रस्तुत नहीं। इसलिये धन-सम्पत्ति, स्वजन-परिजन, राजपद, मान और मर्यादा सभी को तृणवत् त्यागकर आज वे चल पड़े हैं दीन-हीन दरवेश के छद्मवेश में पातड़ा पर्वत के ऊबड़-खाबड़ कंटकाकीर्ण, निर्जन पथ पर। दिन-रात लगातार चलते-चलते वे पर्वत के निकट एक भुइयाँ की जमींदारी में जा पहुँचे। उसने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया और कहा-"आप लोग थके हुए हैं। रात्रि में यहीं भोजन और विश्राम करें। सवेरे मेरे आदमी आपकों पर्वत पार करा देंगे।" दो दिन के उपवासी सनातन ने नदी में स्नान कर रंधन और भोजन किया। पर उन्हें भुइयाँ द्वारा किये गये असाधारण आदर-सत्कार से कुछ संदेह हुआं उन्होंने सुन रखा था कि उस स्थान के भुइयाँ पर्यटकों का बड़ा आदर-सत्कार करते हैं, उन्हें अपने पास ठहरने को स्थान देते हैं और रात्रि में उनका सब कुछ लूटकर उनकी हत्या कर देते हैं। सनातन के पास तो लूटे जाने के लिये कुछ था नहीं। पर उन्हें ईशान (1) काराध्यक्ष का नाम था शेख हबू। आज भी गौड़ के इंगलिहार ग्राम में शेख हबू के घर और सनातन के कारागृह के अवशेष विद्यमान हैं। (गौड़ेर इतिहास खण्ड2, पृ0 109। का कुछ पता नहीं था। उन्होंने पूछा उससे- "तेरे पास कुछ है?" "मेरे पास सात अशर्फियाँ है" उसने उत्तर दिया।" "सात अशरफियाँ! मैंने तुझे साथ लिया था वैराग्य पथ पर अपना साथी जान। पर तूने मुझे धोखा दिया। धिक्कार है तुझे" कह सनातन ने ईशान की भर्त्सना की। अशरफियाँ उससे लेकर भुइयाँ के सामने रखीं और कहा-"हमारे पास यह अशरफियाँ हैं। इन्हें आप ले लें और हमें निर्विघ्न पहाड़ पार करा दें।" भुइयाँ सनातन की सरलता और सत्यवादिता से प्रभावित हुआ। उसने कहा-" आपने मुझे एक पाप कर्म से बचा लिया। मुझे मेरे ज्योतिषी ने पहले ही बता दिया था कि आपके साथी के पास आठ अशरफियाँ हैं। रात्रि में आप दोनों की हत्या कर मैं उन्हें ले लेता। पर अब मैं अशरफियाँ नहीं लूंगा। पहाड़ यूं ही पार करा पुण्य का भागी बनूँगा।" सनातन ने आग्रह करते हुए फिर कहा-"यदि आप नहीं लेगें, तो कोई और हमें मार कर ले लेगा। इसलिए आप ही लेकर हमारी प्राण-रक्षा करें।" (चै0 च0 2।29-31) भुइयाँ ने तब अशरफियाँ ले लीं। दूसरे दिन चार सिपाहियों को साथ कर उन्हें पहाड़ के उस पार पहुँचा दिया। पहाड़ पारकर सनातन ने ईशान से कहा-"भुइयाँ ने आठ अशरफियों की बात कही थी। तेरे पास और भी कोई अशरफी है क्या?' ईशान ने एक अशरफी और छिपा रखने की बात स्वीकार की। तब सनातन ने गम्भीर होकर कहा-"ईशान, तेरी निर्भरता है अर्थ पर, मेरी भगवान् पर। मैंने जिस पथ को अंगीकार किया है, तू उसका अधिकारी अभी नहीं है। इसलिये शेष बची उसी अशरफी को लेकर तू घर लौट जा।" ईशान सनातन को साश्रुनयन प्रणाम कर अनिच्छापूर्वक रामकेलि लौट गया। सनातन एकाकी आगे बढ़े। चलते-चलते वे हाजीपुर पहुँचे। हाजीपुर में उनकी भेंट हुई अपने भगिनीपति श्रीकान्त से। श्रीकान्त हुसेनशाह के दरबार में किसी बड़े पद पर नियुक्त थे। बादशाह के लिए घोड़े खरीदने हाजीपुर आये थे। हाजीपुर पटना के उस पार शोनपुर के पास एक ग्राम है, जहाँ कार्तिक पूर्णिमा से एक महीने तक एक विशाल मेले में देश के विभिन्न स्थानों से हाथी घोड़े बिकने आया करते थे। आज भी इन्हीं दिनों वह मेला वहाँ लगा करता है। श्रीकान्त से राजमन्त्री सनातन का भिक्षुक वेश ने देखा गया। उन्होंने उनसे वस्त्र बदलने का आग्रह किया। पर वह निष्फल रहा। अन्त में उन्होंने एक मोटा कम्बल देते हुए कहा-"इसे तो लेना ही पड़ेगा, क्योंकि पश्चिम में शीत बहुत है। इसके बिना बहुत कष्ट होगा।" कम्बल कन्धे पर डाल सनातन वृन्दावन की ओर चल दिये, महाप्रभु से मिलने की छटपटी में लम्बे-लम्बे कदम बढ़ाते हुए; पथ में कभी आहार करते हुए, कभी निराहार रहते हुए; कभी नींद भर सोते हुए कभी रात भर जाग कर महाप्रभु की याद में अश्रु विसर्जन करते हुए। अनशन, अनिद्रा और मार्ग के कष्ट से उनका शरीर शीर्ण हो रहा था। पर उन्हें कष्ट का अनुभव नहीं हो रहा था। उनके पैरों में चलने की शक्ति नहीं रही थी। पर वे चल रहे थे, गौर-प्रेम-मदिरा के नशे में छके से, गिरते, पड़ते और लड़खड़ाते हुए। काशी में महाप्रभु से मिलन कुछ ही दिनों में वे काशी पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही सुसंवाद मिला कि महाप्रभु वृन्दावन से लौटकर कुछ दिनों से काशी में चन्द्रशेखर आचार्य के घर ठहरे हुए हैं। उनके नृत्य कीर्तन के कारण काशी में भाव-भक्ति की अपूर्व बाढ़ आयी हुई है। यह सुन उनके आनन्द की सीमा न रही। दूसरे ही क्षण दीन-हीन वेश में वे चन्द्रशेखर आचार्य के दरवाजे पर उपस्थित हुए। उनके प्राण महाप्रभु के दर्शन के लिये छटपट कर रहे थे। पर वे अपने को दीन और अयोग्य जान भीतर जाने का साहस नहीं जुटा पा रहे थें विशाल गौड़ देश के मुख्यमंत्री, जिनके दरवाजे पर उनके कृपाकटाक्ष के लोभ से सैंकड़ों सामंत प्रतीक्षा में बैठे रहते। आज चन्द्रशेखर आचार्य के घर के बाहर बैठे अपने को अनधिकारी जान दरवाजा खटखटाने का भी साहस नहीं कर पा रहे! यही तो है भक्ति महारानी का अलौकिक प्रभाव! जो उनका आश्रय ग्रहण करता है, उसमें वे इतना दैन्य भर देती है कि वह महान होते हुए भी अपने को दीन मानता है, पवित्र होते हुए भी अपने को अपवित्र मानता है, भक्ति धन का सर्वोच्च धनी होते हुए भी अपने को उसका कंगाल मानता है, प्रभु के इतना निकट आकर भी अपने को अपराधी जान उनसे मिलने के लिए उनका दरवाजा खटखटाने में भी संकोच करता है। पर उसे प्रभु का दरवाजा खटखटाने की आवश्यकता ही कब पड़ती है? उसके आगमन पर अन्तर्यामी प्रभु के प्राण बज उठते हैं और वे सिंहासन छोड़कर उसे अपने बाहुपाश में भर लेने को स्वयं भाग पड़ते हैं। महाप्रभु को अपने प्राण-सनातन के आगमन की खबर पड़ गयी। प्राण-प्राण से मिलने को भाग पड़े। उच्च स्वर से 'हरे कृष्ण' हरे कृष्ण' कहते सनातन को उनका मधुर कण्ठस्वर पहचानने में देर न लगी। उन्होंने जैसे ही सिर ऊँचा किया तो देखा कि उनके प्राण धन श्रीगौरांग कनक-कान्ति सी दिव्य छटा विखरते, प्रेमाश्रुपूर्ण नेत्रों से उनकी ओर एकटक निहारते, भाव गदगद कण्ठ से मेरे सनातन! मेरे प्राण! कहते, दोनों भुजायें पसारे उन्हें आलिंगन करने उनकी ओर बढ़े आ रहे हैं! सनातन चिरअपराधी की तरह उनके चरणों में लोट गये। उन्होंने झट उठाकर हृदय से लगाना चाहा। पर सनातन छिटककर अलग जा खड़े हुये और हाथ जोड़कर कातर स्वर कहने लगे-'प्रभु, मैं नीच, पामर, विषयी, यवनसेवी आपके स्पर्श करने योग्य नहीं। मुझे न छुएँ।" "नहीं, नहीं, सनातन। दैन्य रहने दो। तुम्हारे दैन्य से मेरी छाती फटती है।(1) तुम अपने भक्तिबल से ब्रह्मांड तक को पवित्र करने की शक्ति रखते हो। मुझे भी अपना स्पर्श प्राप्त कर धन्य होने दो।" कहते-कहते महाप्रभु ने सनातन को अपनी भुजाओं में भर नेत्रों के प्रेमजल से अभिषिक्त कर दिया। चन्द्रशेखर से महाप्रभु ने कहा सनातन का क्षौर करा उनका दरवेश-वेश बदलने को। चन्द्रशेखर ने क्षौर और गंगा-स्नान करा उन्हें एक नूतन वस्त्र पहरने को दिया। सनातन ने उसे स्वीकार करते हुए कहा-" यदि मेरा वेश बदलना है तो मुझे अपना व्यवहार किया कोई पुराना वस्त्र देने की कृपा करें।" तब मिश्रजी अपना व्यवहार किया एक पुराना वस्त्र ले आये। सनातन ने उसके दो टुकड़े कर डोर –कौपीन और वर्हिवास के रूप में उसे धारण किया। तभी से गौड़ीय-वैष्णवों में वैराग्य वेश की प्रथा प्रारम्भ हुई। जो अब तक चली आ रही है। उस दिन तपन मिश्र के घर महाप्रभु का निमंत्रण था। महाप्रभु के वहाँ भिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सनातन ने उनका प्रसाद सेवन किया। दूसरे दिन महाप्रभु के भक्त एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ने सनातन से अनुरोध किया कि वे जब तक काशी में रहें, प्रसाद उनके घर ग्रहण किया करे। सनातन ने उसे स्वीकार नहीं किया वे भिक्षा का झोला हाथ में ले चले विभिन्न स्थानों से मधुकरी माँगने। (1) भक्तिरत्नाकर का मत है कि श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने विभिन्न परिवारों द्वारा विभिन्न भाव और शक्ति का प्रकाश किया है। सनातन और रूप द्वारा दैन्प्य का प्रकाश किया है- रामानन्द द्वारे कन्दपेर दर्पनाशे। दामोदर द्वारे निरपेक्ष परकाशे॥ हरिदास द्वारे सहिष्णुता जानाइल। सनातन रूप द्वारे दैन्य प्रकाशिल॥ (प्रथम तरंग 630, 631) महाप्रभु यह देख बहुत उल्लसित हुए। वे उच्छवसित कण्ठ से चन्द्रशेखर और तपन मिश्र से सनातन के वैराग्य की प्रशंसा करने लगे। वे सनातन का गुण्-गान करते जाते, पर बार-बार उनके कंधे पर रखे भोटे कम्बल की ओर देखते जाते। सनातन को उनकी तीक्ष्ण दृष्टि का अर्थ समझने में देर न लगी। वे गये गंगातट पर। देखा कि एक भिखारी अपनी पुरानी गूदड़ी धूप में सुखा रहा है। कातर स्वर से उससे बोले-"भाई, मेरा एक उपकार करो। मेरा यह कम्बल ले लो और यह बदले में यह गूदड़ी मुझे दे दो। मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानूँगा।" भिखारी की भृकुटि चढ़ गयी। वह समझा कि यह बाबाजी स्वयं भिखारी होते हुए मेरी दरिद्रता का मजाक बना रहा है। पर सनातन के समझाने पर वह इस विनिमय के लिये तैयार हो गया। उसकी गूदड़ी प्रेम से कंधे पर डाल वे चन्द्रशेखर आचार्य के घर लौट आये। उन्हें देख महाप्रभु के मुखारविन्द पर छा गयी अपार आनन्द की दिप्ति। सब कुछ जानकर भी विस्मय का भाव दिखाते हुए उन्होंने कहा-"सनातन, कम्बल क्या हुआ?" सनातन के मुख से स्वेच्छा से कम्बल को गूदड़ी से बदल लेने की बात सुन महाप्रभु आनन्द से डगमग होते हुए बोले-"हाँ, तभी तो मैं सोचता था कि कृष्ण जैसे सुवैद्य ने जब तुम्हें विषय-रोग से मुक्त किया है, तो उसका अंतिम चिन्ह भी क्यों रखेगें?। (चै0च0 2।20।90॥ इस प्रकार श्रीमन्महाप्रभु ने हुसेनशाह के प्रधानमंत्री को सर्वत्यागी वैरागी का रूप देकर खड़ा किया वैराग्य और दैन्य के आदर्श का वह मानचित्र, जिसके सहारे वैष्णव-धर्म में नये प्राण फूंकने का उन्होंने संकल्प किया था। इसके पश्चात आरम्भ हुआ प्रश्नोत्तर का वह क्रम, जिसके द्वारा महाप्रभु ने सनातन के माध्यम से जगत् में विशुद्ध भागवत-धर्म का प्रचार किया। सनातन एक के बाद एक प्रश्न करते जाते और महाप्रभु प्रसन्न मुख से उसका उत्तर देते जाते। कुछ दिन पूर्व गोदावरी के तीर पर रामानन्द राय से महाप्रभु के संलाप के माध्यम से उद्घाटित हुआ था भागवत-धर्म के निर्यास व्रज-रस तत्व का गूढ़ रहस्य। अब वाराणसी में गंगातट पर उनके सनातन के साथ संलाप से प्रकाशित हुआ वैष्णव साधना का क्रम और निगूढ़ तत्व। पहले महाप्रभु ने श्रीकृष्ण की भगवत्ता और उनके विभिन्न अवतारों का वर्णन किया। फिर साधन-भक्ति और रागानुगा-भक्ति का विस्तार से निरूपण किया। दो महीने सनातन को अपने घनिष्ठ सान्निध्य में रख वैष्णव-सिद्धान्त में निष्णात करने के पश्चात उन्होंने कहा-"सनातन, कुछ दिन पूर्व मैंने तुम्हारे भाई रूप को प्रयाग में कृष्ण रस का उपदेश कर और उसके प्रचार के लिए शक्ति संचार कर वृन्दावन भेजा है। तुम भी वृन्दावन जाओ। तुम्हें मैं सौंप रहा हूँ चार दायित्वपूर्ण कार्यो का भार। तुम वहाँ जाकर मथुरा मण्डल के लुप्त तीर्थों और लीला स्थलियों का उद्धार करो, शुद्ध भक्ति सिद्धान्त की स्थापना करो, कृष्ण-विग्रह प्रकट करो। और वैष्णव-स्मृति ग्रन्थ का संकलन कर वैष्णव सदाचार का प्रचार करो।" इसके पश्चात कंगालों के ठाकुर परम करूण गौरांग महाप्रभु ने दयाद्र चित्त से, करूणा विगलित स्वर में कहा-" इनके अतिरिक्त एक और भी महत्वपूर्ण दायित्व तुम्हें संभालना होगा। मेरे कथा-कंरगधारी कंगाल वैष्णव भक्त, जो वृन्दावन भजन करने जायेगें, उनकी देख-रेख भी तुम्हीं को करनी होगी (चै0 च0 2।25।176)।" सनातन ने कहा-"प्रभु! यदि मेरे द्वारा यह कार्य कराने हैं, तो मेरे मस्तक पर चरण रख शक्ति संचार करने की कृपा करें।" महाप्रभु ने सनातन के मस्तक पर अपना हस्त कमल रख उन्हें आर्शीवाद दिया। आज महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य कर सनातन वृज जाने के लिये महाप्रभु से विदा हो रहे हैं। पर उनके प्राण उनके चरणों से लिपटे हैं। वे उन्हें जाने कब दे रहे हैं? पैर आगे बढ़ते-बढ़ते पीछे लौट रहे हैं। जाते-जाते वे अश्रुपूर्ण नेत्रों से बार-बार महाप्रभु की ओर देख रहे हैं और मन ही मन कह रहे हैं न जाने कब फिर उनका भाग्योदय होगा। कब फिर करूणा और प्रेम की उस साक्षात मूर्ति के दर्शन कर वे विरहाग्नि से जर-जर अपने प्राणों को शीतल कर सकेगें। सनातन जब वृन्दावन की ओर चले उसी समय रूप और बल्लभ उनसे मार्ग में मिलने के उद्देश्य से वृन्दावन से प्रयाग की ओर चले। पर दोनों का मिलन न हुआ, क्योंकि सनातन गये राजपथ से, रूप और वल्लभ आये दूसरे पथ से गंगा के किनारे-किनारे। महाप्रभु ने नीलाचल से वृन्दावन की यात्रा की सन् 1515 के शरद काल में (चै0 च0 2।18।112)। वृन्दावन से लौटते समय वे प्रयाग होते हुए काशी आये। सनातन का उनसे साक्षात हुआ, सन् 1516 के माघ फाल्गुन अर्थात् जनवरी-फरवरी में और उन्होंने वृन्दावन की यात्रा की दो महीने पीछे अप्रेल-में। वृन्दावन में एकान्त भजन और लुप्त तीर्थोद्धार ब्रजधाम पहुँचते ही सनातन गोस्वामी ने पहले सुबुद्धिराय से साक्षात् किया, फिर लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ पण्डित से, जो महाप्रभु के आदेश से पहले ही ब्रज में आ गये थें तत्पश्चात् उन्होंने जमुना-पुलिन पर आदित्य टीला नाम के निर्जन स्थान में रहकर आरम्भ किया एकान्त भजन-साधन, त्याग और वैराग्य का जीवन। किसी पद कर्ता ने उनके भजनशील जीवन का सजीव चित्र इन शब्दों में खींचा है— "कभू कान्दे, कभू हासे, कभू प्रेमनान्दे भासे कभू भिक्षा, 'कभु उपवास। छेंड़ा काँथा, नेड़ा माथा, मुखे कृष्ण गुणगाथा परिधान छेंड़ा बहिर्वास कखनओ बनेर शाक अलवने करि पाक मुखे देय दुई एक ग्रास। -वे कृष्ण प्रेमरस में सदा डूबे रहते। कभी रोते, कभी हंसते, कभी भिक्षा करते, कभी उपवासी रहते, कभी बन का साग-पात अलोना पकाकर उसके दो-एक ग्रास मुख में दे लेते। फटा-पुराना बहिर्वास और कथा धारण करते और कृष्ण के नाम-गुण-लीला का गान करते हुए एक अलौकिक आनन्द के नशे में शरीर की सुध-बुध भूले रहते।" उस समय वृन्दावन में बस्ती नाम मात्र को ही थी। इसलिये साधकों को मधुकरी के लिये मथुरा जाना पड़ता। सनातन गोस्वामी की तन्मयता जब कुछ कम होती तो वे कंधे पर झोला लटका मथुरा चले जाते। वहाँ जो भी भिक्षा मिलती उससे उदरपूर्ति कर लेते। कुछ दिन बाद उन्होंने महाप्रभु के आदेशानुसार व्रज की लीला-स्थलियों के उद्धार का कार्य प्रारम्भ किया। इसके पूर्व लोकनाथ गोस्वामी ने इस दिशा में कुछ कार्य किया था। उसे आगे बढ़ाते हुए उन्होंने व्रज के वनों, उपवनों और पहाड़ियों में घूमते हुए और कातर स्वर से व्रजेश्वरी की कृपा प्रार्थना करते हुए, शास्त्रों, लोक-गाथाओं और व्रजेश्वरी की कृपा से प्राप्त अपने दिव्य अनुभवों के आधार पर एक-एक लुप्त तीर्थ का उद्धार किया। नीलाचल में एक वर्ष इस कार्य में संलग्न रहते हुए एक वर्ष बीत गया, तो महाप्रभु का विरह उन्हें असह्य हो गया। महाप्रभु ने स्वयं ही एक बार नीलाचल जाने को उनसे कहा था। इसलिये वे झारिखण्ड के जंगल के रास्ते नीलाचल की पदयात्रा पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते अनाहार और अनियम के कारण उन्हें विषाक्त खुजली रोग हो गया। उसके कारण सारे शरीर से क्लेद बहिर्गत होते देख वे लगे इस प्रकार विचार करने-एक तो मैं वैसे ही म्लेक्ष राजा की सेवा में रह चुकने के कारण अपवित्र और अस्पृश्य हूँ। अब इस रोग को लेकर नीलाचल जा रहा हूं इसके रहते मैं मन्दिर में तो जा सकूंगा ही नहीं, महाप्रभु के दर्शन करना भी कठिन होगा, क्योंकि महाप्रभु जगन्नाथ जी के मन्दिर के पास रहते हैं, जहाँ होकर जगन्नाथ जी के सेवकों का आना-जाना लगा रहता है। यदि मुझसे उनका शरीर छू गया तो अपराध होगा। ऐसे शरीर का भार ढोते रहने से तो अच्छा यह होगा कि मैं रथयात्रा के समय जगन्नाथ जी के नीचे प्राण त्यागकर इस विपद से छुटकारा पाऊँ सद्गति भी लाभ करूँ। ऐसा करने का निश्चय कर वे कर नीलाचल पहुँचे। नीलाचल में उनके ठहरने का उपयुक्त स्थान था यवन हरिदास की पर्णकुटी। हरिदास अपने को दीन, पतित और अस्पृश्य जान नगर के एक कोने में अपनी पर्णकुटी में रहते थे। किसी को स्पर्श करने के भय से जगन्नाथ जी और महाप्रभु के दर्शन करने नहीं जाते थे। महाप्रभु स्वयं नित्य जगन्नाथजी के उपल-भोग के दर्शन कर अपने परम प्रिय भक्त हरिदास को दर्शन देने उनकी कुटी पर जाया करते थे। सनातन भी हरिदास की ही तरह अपने को पतित और अस्पृश्य मानते थे। इसलिये वे उनकी खोज करते-करते उनकी कुटिया पर जा पहुँचे। थोड़ी ही देर बाद महाप्रभु नित्य की भाँति जगन्नाथजी के दर्शन कर वहाँ पहुँचे। सनातन ने उन्हें दूर से ही दण्डवत् की। वे उन्हें देख आनन्द विभोर हो गये और दोनों भुजायें फैलाकर आलिंगन करने के लिये उनकी ओर अग्रसर हुए। पर वे जितना आगे बढ़ते सनातन उतना पीछे हटते जाते। पीछे हटतेहुए दैन्य और विनय भरे स्वर में उन्होंने कहा-"प्रभु स्पर्श न करें। मैं हूँ पतित, पामर, यवनों के संग के कारण जातिभ्रष्ट एक पापी जीव और मेरे अंग से निकल रहा है घृणित क्लेद। यह आपके अंग में लग जायेगा और मैं और भी अधिक पाप का भागी बनूंगा।" पर महाप्रभु कब मानने वाले थे? उन्होंने आनन्द के आवेश में बलपूवक बार-बार उन्हें आलिंगन किया। खुजली का क्लेद उनके सारे शरीर में लग गया। सनातन की आत्मग्लानि पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। महाप्रभु ने सनातन के रहने की व्यवस्था हरिदास ठाकुर के निकट ही कर दी। सनातन दैन्य के कारण मन्दिर में दर्शन करने न जाते। हरिदास ठाकुर की ही तरह मन्दिर के चक्र को दूर से देख प्रणाम कर लेते। महाप्रभु नित्य भक्तगण के साथ उनके पास जाते, उन्हें आलिंगन करते और उनके साथ कृष्ण-लीला-कथा की आलोचना कर आनन्दमग्न होते। नित्यप्रति का उनका आलिंगन सनातन को असह्य हो गया। वे शीघ्र किसी प्रकार प्राण-त्याग करने की बात सोचने लगे। एक दिन कृष्ण-कथा कहते-कहते हठात् सनातन की ओर देखते हुए महाप्रभु कहने लगे- "सनातन, देह त्यागे कृष्ण जदि पाइये। कोटि-देह क्षणेके त छाड़िते पारिये॥ देह त्यागे कृष्ण ना पाइ, पाइये भजने। कृष्ण प्राप्त्येंर कोन उपाय नाहि, भक्ति बिने॥ भजनेर मध्ये श्रेष्ठ नव विधा भक्ति। 'कृष्ण प्रेम' 'कृष्ण' दिते धरे महाशक्ति॥ तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ-नाम-संकीर्तन। निरपराध नाम हैते पाय प्रेम-धन॥ (चै0 च0 3।4।54-55, 65-66) -सनातन! कहीं देह-त्याग करने से कृष्ण-प्राप्ति होती है। ऐसा हो तब तो एक ही क्षण में कोटि-कोटि प्राण त्याग देना भी उचित है। कृष्ण-प्राप्ति होती है भजन से और भक्ति से। इसके सिवा कृष्ण-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है। भजन में नवविद्या भक्ति श्रेष्ठ है। इसमें कृष्ण-प्रेम और कृष्ण को देन की महान शक्ति है। इसमें भी सर्वश्रेष्ठ है नाम-संकीर्तन। निरपराध हो नाम-कीर्तन करने से प्रेम-धन की प्राप्ति होती है।" अन्तर्यामी प्रभु के मुख से यह सुन सनातन को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा-"प्रभु, आप सर्वज्ञ और स्वतंत्र हैं। मैं आपकी काठ की पुतली हूँ। जैसे नचायेंगे वैसे नाचूंगा। पर मेरे जैसे नीच, अधम व्यक्ति को जीवित रखने से आपका क्या लाभ होगा?" उत्तर में महाप्रभु ने कहा-"तुमने मुझे आत्मसमर्पण किया है। तुम्हारा देह मेरा निज-धन है। दूसरे का धन नाश करने का तुम्हें क्या अधिकार है? तुम्हें धर्माधर्म का इतना भी ज्ञान नहीं? तुम्हारा शरीर तो मेरा प्रधान साधन है। इसके द्वारा मुझे करना है- लीला-तीर्थों का उद्धार, वैष्णव-सदाचार का निर्धारण और शिक्षण, कृष्ण-भक्ति का प्रचार, वैराग्य के आदर्श की स्थापना और कितना कुछ और, जिसे मैं नहीं कर सकता माँ की आज्ञा से नीलाचल में ही पड़े रहने के कारण। सनातन का सर नीचा हो गया। उन्होंने आत्म-हत्या का संकल्प छोड़ दिया। हरिदास और सनातन को आलिंगन कर महाप्रभु मध्यान्ह-कृत्य के लिये चले गये। कुछ ही दिन श्रीजगन्नाथदेव की रथयात्रा का समय आ गया। प्रति वर्ष की भाँति गौण देश के अनेकों भक्तों का आगमन हुआ। वर्षाकाल के चार महीने उन्होंने नीलाचल में व्यतीत किये। महाप्रभु ने एक-एक कर उन सबसे सनातन का परिचय कराया। रथयात्रा के दिन उन्होंने सदा की भाँति रथ के आगे रसमय नृत्य किया। उसे देख सनातन चमत्कृत और कृत-कृत्य हुए। ज्येष्ठ मास में एक दिन महाप्रभु ने सनातन की परीक्षा की। उस दिन वे यमेश्वर के शिव-मन्दिर के बगीचे में भिक्षा को गये हुए थे। भिक्षा के समय उन्होंने सनातन को भी बुलवा भेजा। महाप्रभु का निमन्त्रण प्राप्तकर सनातन बहुत प्रसन्न हुए। ठीक मध्यान्ह के समय समुद्र के किनारे-किनारे उत्तप्त बालुका पर चलते हुए वे यमेश्वर पहुँचे। तप्त बालुका पर चलने के कारण उनके पैर में छाले पड़ गये। पर महाप्रभु ने उन्हें आमन्त्रित किया है, इस कारण उनका मन इतना आनन्दोल्लसित था कि उन्हें इसका कुछ भान ही न हुआ। महाप्रभु के सेवक गोविन्द ने महाप्रभु की भिक्षा का अवशेष पात्र उनके सामने रख दिया। प्रसाद ग्रहणकर जब वे महाप्रभु के विश्राम-स्थान पर गये, तो उन्होंने पूछा-"सनातन, तुम कौन से मार्ग से आये?" "समुद्र के किनारे-किनारे" सनातन ने उत्तर दिया। "समुद्र के किनारे-किनारे, तप्त बालुका पर से! सिंहद्वार के शीतल पथ से क्यों नहीं आये? बालुका से अवश्य तुम्हारे पैर जल गये होंगे और उनमें छाले पड़ गये होंगे। फिर तुम आये कैसे?" "मुझे कष्ट कुछ नहीं हुआ प्रभु। छालों का मुझे पता भी नहीं पड़ा। सिंहद्वार से आने का मेरा अधिकार ही कहाँ? उधर जगन्नाथजी के सेवकों का आना-जाना लगा रहता है। उनमें से किसी को मेरा स्पर्श हो जाये तो अपराधी न बनूं।" यह सुन महाप्रभु सनातन को परीक्षा में सफल जान बोले-"सनातन, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम सारे जगतृ को पवित्र करने की शक्ति रखते हो। तुम्हारे स्पर्श से देवगण और मुनिगण भी पवित्र हो सकते हैं। पर मर्यादा का पालन करना भक्त का स्वभाव है। मर्यादा की रक्षा तुम नहीं करोगे तो कौन करेगा?" इतना कह महाप्रभु ने सनातन को प्रेम से आलिंगन किया। फिर दोनों अपने-अपने मार्ग से अपने-अपने स्थान को चले गये। महाप्रभु के अंतरंग भक्त पंडित जगदानन्द गौड़ देश की यात्रा पर गये हुए थे। उस दिन जब वे लौटकर आये तो सनातन के दर्शन करने गये। सनातन ने कहा-"पंडितजी, मैं इस समय एक बड़ी उलझन में पड़ा हूँ। आप महाप्रभु के निजजन हैं। मुझे उचित परामर्श देने की कृपा करें। मुझे महाप्रभु नित्य आलिंगन करते हैं। मेरे रोगी शरीर के विषाक्त रस से उनका कनक-कान्तिमय दिव्य देह सन जाता है। मैंने आत्महत्या कर इस दु:ख से परित्राण पाने का निश्चय किया था। पर महाप्रभु ने निषेध कर दिया। अब मैं क्या करूँ?" जगदानन्द के तो महाप्रभु प्राण थे। सनातन के क्लेदभरे शरीर से उनका नित्य स्पर्श होना सुन वे काँप गये। उन्होंने कहा-"सनातन, इसका सीधा उपाय यही है कि तुम रथयात्रा के पश्चात् शीघ्र वृन्दावन चले जाओ। यहाँ और अधिक रहने का क्या काम? महाप्रभु के दर्शन तुमने कर ही लिये। जगन्नाथ के दर्शन रथयात्रा के दिन कर लोगे। उसके पश्चात् जितने दिन यहाँ रहोगे तुम्हें इस विपद का सामना करना पड़ेगा। फिर महाप्रभु ने तुम्हें जो दायित्वपूर्ण कार्य सौंपा है, उसके लिये भी तो तुम्हारा और विलम्ब न कर वृन्दावन पहुँच जाना ही उचित है।" दूसरे दिन जब फिर महाप्रभु उनसे और हरिदास से मिलने गये, हरिदास ने उनकी चरण-बन्दना की और उन्होंने हरिदास को आलिंगन किया। सनातन ने आलिंगन के भय से दूर से ही दण्डवत की। उनके बुलाने पर भी निकट नहीं आये। वे उनकी ओर जितना बढ़े उतना वे पीछे हटते गये। पर उन्होंने बलपूर्वक उन्हें पकड़कर आलिंगन किया। जब वे दोनों को लेकर बैठ गये, निर्विण्ण सनातन ने हाथ जोड़कर कातर स्वर से निवेदन किया-"प्रभु, मुझे एक बड़ा कष्ठ है। मैं आया था यहाँ आपके दर्शन और संग द्वारा अपना कल्याण सिद्ध करने। पर देख रहा हूँ कि हो रहा है उसका उलटा। मेरे स्पर्श से आपका शरीर नित्य दुर्गधयुक्त क्लेद से सन जाता है। आपको उससे तनिक भी घृणा नहीं होती। पर मुझे अपराध लगता है और मेरा सर्वनाश होता है। इसलिए आप मुझे आज्ञा दें, जिससे मैं वृन्दावन चला जाऊँ। कल पंडित जगदानन्द ने भी मुझे यही उपदेश किया है।" महाप्रभु का मुखारबिन्द क्रोध से तमतमा गया। जगदानन्द पर क्रोध करते हुए वे गरज-गरजकर कहने लगे-"जगा! कल का जगा तुम्हें उपदेश करेगा, तुम जो व्यवहार और परमार्थ में उसके गुरूतुल्य हो और मेरे भी उपदेष्टा के समान हो। उसे इतना गर्व! इतना साहस उसका!" सनातन महाप्रभु की क्रोधोदीप्त मूर्ति को निर्निमेष देखते रहे। उनके गण्डस्थल से बह चली प्रेमाश्रुकी धार। फिर कुछ अपने को सम्हाल उनके चरण पकड़कर बोले-"प्रभु, आज मैंने जाना कि जगदानन्द कितने भाग्यशाली हैं और मैं कितना अभागां उन्हें आप अपना समझते हैं, इसलिए कठोर भाषा द्वारा तिरस्कार करते हुए आत्मीयता का मधुपान कराते हैं। मुझे पराया समझते हैं, इसीलिए गौरव-स्तुति द्वारा तिक्त निम्बरस का पान कराते हैं। यह मेरा ही दुर्भाग्य है कि मेरे प्रति आपका आत्मीयता-ज्ञान आज तक न हुआ। इसमें आपका दोष कुछ नहीं, क्योंकि आप स्वतन्त्र ईश्वर हैं।" यह सुन महाप्रभु कुछ लज्जित हुए। मधुर कण्ठ से सनातन को सान्त्वना देते हुए बोले-"सनातन, ऐसे मत कहो। मुझे जगदानन्द तुमसे अधिक प्रिय कदापि नहीं। पर मुझे मर्यादा-लंघन पसन्द नहीं। तुम्हारे जैसे शास्त्र-पारदर्शी व्यक्ति को उपदेश कर जगदानन्द ने तुम्हारी मर्यादा का लंघन किया। इसलिए मैंने उसकी भर्त्सना की। तुम्हारी स्तुति की तुम्हारे गुण देखकर, तुम्हें बहिरंग जानकर नहीं। तुम्हें अपना देह लगता है वीभत्स। पर मुझे लगता है अमृत के समान, क्योंकि वह अप्राकृत है। प्राकृत होता तो भी मैं उसकी उपेक्षा न कर सकता, क्योंकि मैं ठहरा सन्यासी। सन्यासी के लिये अच्छा-बुरा, भद्र-अभद्र कुछ नहीं होता। उसकी सम-बृद्धि होती है।" यह सुन हरिदास ने कहा-"प्रभु यह सब तुम्हारी प्रतारणा है।" "प्रतारणा नहीं हरिदास। सुनो, तुमसे अपने मन की बात कहता हूँ। तुम्हारे सबके प्रति मेरा पालक अभिमान रहता है। मैं अपने को पालक मानता हूँ, तुम्हें पाल्यं माता को बालक का अमेध्य जैसे चन्दन के समान लगता है, वैसे ही सनातन का क्लेद मुझे चन्दन जैसा लगता है। इसके अतिरिक्त वैष्णव-देह प्राकृत होता ही कब है? वह अप्राकृत, चिदानन्दमय होता है। दीक्षा के समय जब भक्त आत्मसमर्पण करता है, तभी कृष्ण उसे आत्मसम कर लेते हैं। उसका देह चिदानन्दमय कर देते हैं। उस अप्राकृत देह से ही वह उनका भजन करता है- दीक्षाकाले भक्त करे आत्मसमर्पण। सेइ काले कृष्ण तारे करे आत्मसम॥ सेइ देह करे तार चिदानन्दमय। अप्राकृत देहे तार चरन भजय॥ (चै0 च0 3।4।184-185) इतना कह प्रभु सनातन से बोले-" सनातन, तुम दु:ख न मानना। तुम्हारा आलिंगन करने से मुझे अपार सुख होता है। उसमें मुझे चन्दन और कस्तूरी की गंध आती है। इसलिए तुम इस बात की चिन्ता छोड़ो कि मेरे आलिंगन से तुम्हें अपराध होता है। निश्चिन्त होकर इस वर्ष यहाँ रहो और मुझे अपने संग का सुख दो। वर्ष के पश्चात् मैं तुम्हें वृन्दावन भेज दूंगा।" कहते-कहते उन्होंने सनातन को फिर आलिंगन किया। आलिंगन के साथ ही उनका खुजली रोग जाता रहा और देह स्वर्ण की तरह दीप्तिमान हो गया। हरिदास यह देख चमत्कृत! उन्होंने कहा-"प्रभु, तुम्हारी लीला बड़ी विचित्र है। इसे तुम्हारे सिवा और कौन जान सकता है? तुम्हीं ने सनातन को झारिखण्ड का पानी पिलाकर उनके शरीर में रोग उपजाया उनकी परीक्षा लेने के लिए और तुम्हीं ने उनका आलिंगन कर उसे दूर किया।" दोलयात्रा (होली) तक महाप्रभु ने सनातन को पास रखा। दिन प्रतिदिन उनके साथ तत्वालोचना की और पूरा किया साध्य-साधन सम्बन्धी अपने उस उद्देशृय का परवर्ती अध्याय, जो उन्होंने वाराणसी में उन्हें दिया था। दोलयात्रा के पश्चात् साश्रुनयन उन्हें विदा किया। वृन्दावन प्रत्यागमन और मदनगोपाल की सेवा वृन्दावन पहुँचकर सनातन ने जमुना पुलिन के वन प्रान्त से परिवेष्टित आदित्यटिले के निर्जन स्थान में अपनी पर्णकुटी में फिर आरम्भ किया अपनी अंतरंग साधना के साथ महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' कृष्ण-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य। श्रीविग्रह की प्राप्ति ग्राउस ने लिखा है कि वृन्दावन आने के पश्चात् श्रीसनातनादि गौड़ीय गोस्वामियों ने सर्वप्रथम वृन्दादेवी के मन्दिर की स्थापना की, जिसका अब कहीं कोई चिन्ह नहीं है।(1) उसके पश्चात् अन्य मन्दिरों और श्रीविग्रहों की स्थापना का कार्य आरम्भ हुआ। एक दिन सनातन मथुरा गये मधुकरी के लिए। दामोदर चौबे के घर में प्रवेश करते ही उन्हें दीखी श्रीश्री मदनगोपाल की नयनाभिराम मूर्ति। दर्शन करते ही उन्हें लगा कि जैसे उसने उनके मन-प्राण चुरा लिए। वे एक अपूर्व भाव-समाधि में डूब गये और उनके अन्तर में जाग पड़ी श्रीमूर्ति की सेवा की प्रबल आकाँक्षा। उस आकाँक्षा को लेकर वे आदित्यटीले पर अपनी कुटिया में लौट आये। उन्होंने बहुत चेष्टा की उसे दबाने की –ऐसी आकाँक्षा से क्या लाभ, जिसकी पूर्ति सम्भव ही नहीं? वह चौबे परिवार अपने प्राणप्रिय ठाकुर को मुझे क्यों सौंपने लगा? सौंप भी दे तो मेरे पास वह साधन ही कहाँ, जिनके द्वारा उनकी सेवा कर मैं उन्हें सुखी कर सकू? पर आकाँक्षा बड़ी दुर्दमनीय सिद्ध हुई। वे जितना उसे दबाने की चेष्टा करते, उतना ही वह और प्रबल होती जाती। चलते-फिरते, सोते-जागते, यहाँ तक कि भजन-पूजन करते समय भी मदनगोपाल की वह नयनमनविमोहन मूर्ति बार-बार मानसपट पर उदित हो उन्हें अस्थिर कर देती। वे बार-बार मथुरा जाते और मधुकरी के बहाने दामोदर चौबे के घर उसके दर्शन कर लौट आते। (1) Growse: A District Memoir, 3rd. Ed. p. 24 चौबेजी की पत्नी का मदनगोपाल जी के प्रति सुन्दर, सरल वात्सल्य, भाव था। उनका एक लड़का था, जिसका नाम था सदन। वे मदन और सदन दोनों से बराबर का प्रेम करतीं, दोनों का लाड़-चाव और दोनों की सेवा-सुश्रूषा एक सी करतीं। दोनों में किसी प्रकार का भेदभाव न रखतीं। कहते हैं कि मदन गोपालजी भी उस परिवार के एक बालक की ही तरह वहाँ रहते और सदन के साथ खेला-कूदा करते। धीरे-धीरे चौबे परिवार के साथ सनातन हिलमिल गये। चौबे-पत्नी का मदनगोपाल जी के प्रति सहज, स्वाभाविक प्रेम देख उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके मन में इच्छा जागी शुद्धा रागमयी भक्ति की कसौटी पर उसे कसने की। इस उद्देश्य से एक दिन उन्होंने उससे कहा-"माँ, तुम बड़े स्नेह से मदनगोपाल की सेवा करती हो, सो ठीक है। पर घर के एक बालक की कक्षा में उनहें रख ठीक उसी रीति से उनकी सेवा करना ठीक नहीं लगता। इष्ट की सेवा-परिचर्या होती चाहिये इष्ट की तरह, विशेष विधि-विधान के साथ। इष्ट में और तुम्हारे पुत्र सदन में तो भेद है न। उसी के अनुसार दोनों की सेवा में भी भेद होना उचित है।" भोली व्रजमाईने कहा-" बाबा, आपका कहना ठीक हैं। मैं अब ऐसा ही करूँगी।" दूसरी बार फिर जब वे उसके घर गये, तो उन्हें देखते ही वह बोली-"बाबा, आपका उपदेश पालन करने की मैंने चेष्टा की। पर वह मदनगोपाल को अच्छा नहीं लगा। उस दिन स्वप्न में उन्होंने राग करते हुए मुझसे कहा- 'माँ, अब तुम मुझमें और सदना में भेद बरतने लगी हो। सदना को अपना बेटा समझ अपने निकट रखती हो। मुझे इष्ट मान, सेवा-परिचर्या का आडम्बर खड़ा कर, अपने से दूर रखती हो। यह मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता।" सनातन यह सुनकर अवाक! एक मीठी सिहरन उनके अंग में दौड़ गयी। नेत्रों से अश्रुबिन्दु टप-टप गिरने लगे। मदनगोपालजी ने व्रजमाई के समक्ष अपने प्रेमस्वरूप का और उसकी प्रेम-सेवा के प्रति अपने लोभ का जैसा उद्घाटन किया, उसे देख वे मन ही मन उसके भाग्य की प्रशंसा करने लगे। साथ ही अपने इष्ट-सेवा के उपदेश के परिणाम-स्वारूप मदनगोपाल को उसके वात्सल्य-प्रेम रस से कुछ समय वंचित रखने के कारण अपने को दोषी मान उनसे क्षमा-प्रार्थना करने लगे। मदनगोपाल की प्रेम-सेवा का सौभाग्य स्वयं प्राप्त करने की आशा सनातन को पहले ही दुराशा प्रतीत होती थीं अब उस पर और भी पानी फिर गया। जब मदनगोपाल को उस व्रजमाई की सेवा इतनी प्रिय है और उसमें थोड़ी सी कमी आने पर भी वे अधीर हो उठते हैं, तो उसकी सेवा छोड़ उनकी क्यों अंगीकार करना चाहेंगे? पर सनातन का अनुमान ठीक न थां जिस दिन से मदनगोपाल की उनके ऊपर दृष्टि पड़ी थी। उनके हृदय में भी एक नवीन आलोड़न की सृष्टि होने लगी थी। उनका मन भी सनातन की प्रेम-सेवा-रस का आस्वादन करने के लिये मचलने लग गया था। ज्यों-ज्यों सनातन का आकर्षण उनके प्रति बढ़ता जा रहा था, उनका आकर्षण भी सनातन के प्रति बढ़ता जा रहा था। सनातन को सुखद आश्चर्य हुआ जब एक दिन दामोदर चौबे की पत्नी ने उदास होकर अश्रु-गद्गद् कण्ठ से उनसे कहा-"बाबा आज से तुम्हें लेना है मदनगोपाल की सेवा का सम्पूर्ण भार। गोपाल अब बड़ा हो गया है। माँ के आँचल तले रहना नहीं चाहता। कल रात स्वप्न में उसने मुझसे कहा उसे तुम्हें सौंप देने को। मैं भी अब बूढ़ी हो गयी हूँ। हाथ-पैर चलते नहीं। कहीं ठाकुर को मेरे कारण कष्ट भोगना पडत्रे, इससे अच्छा है। कि अवस्था और अधिक बिगड़ने के पूर्व उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति को सौंप दूँ, जो उनकी सेवा प्रेम से करे।" इस प्रकार अपने भाग्य के सूर्य को अकस्मात् उदय होता देख सनातन का हृदय कमल आनन्द से खिल उठा। प्रेम के आवेश में अपने हृदय-धन को साथ ले वे अपनी कुटी को चले गये। मदनगोपालजी के श्रीविग्रह का एक प्राचीन इतिहास है। कहते हैं कि सत्ययुग में महाराज अम्बरीष इनकी सेवा करते थें कालक्रम से ये लंकापति रावण के पास पहुँचे। रामचन्द्र द्वारा लंका-विजय के पश्चात् जानकी जीने उनकी सेवा की। फिर श्रीशत्रुघ्न द्वारा इन्हें मथुरा लाया गया। बहुत दिन बाद श्रीअद्वैत प्रभु ने आदित्यटिला के भूगर्भ से इनका उद्धार कर मथुरा के चौबे परिवार को इनकी सेवा का भार दिया।(1) कुछ लोगों का यह भी कहना है कि श्रीकृष्ण के प्रपौत्र महाराज बज्रनाभ ने ब्रजमण्डल में अपने अनुसन्धान के फलस्वरूप जिन आठ विग्रहों का आविष्कार किया था, इनमें इन मदनगोपालजी का श्रीविग्रह भी था(2) (1) श्रीसतीशचन्द्र मिश्र: सप्त गोस्वामी, पृ0 109 (2) वही अलोना साग और बाटी का भोग सनातन गोस्वामी ने अपनी कुटिया के निकट ही एक फूँस की झोंपड़ी का निर्माण किया और उसमें मदनगोपाल जी को स्थापित किया। उनके भोग के लिये वे मधुकरी पर ही निर्भर करते। मधुकरी में जो आटा मिलता उसकी अंगाकड़ी (बाटी) बनाकर भोग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करते। साथ में निवेदन करते जंगली पत्तियों का बना अलोना साग। कुछ दन बीते ठाकुर को इस आटे के पिंड और अलोने साग को किसी प्रकार निगलते। संकोच में पड़कर वे अपने प्रेमी भक्त से कुछ न कह सके। पर अन्त में उनसे न रहा गया। स्वप्न में दर्शन देकर कहा-"सनातन, अलोने साग के साथ तुम्हारी अंगाकड़ी मेरे गले के नीचे नहीं उतरतीं और कब तक उसे जबरदस्ती ठेलता रहूँगा। उसके साथ थोड़ा नमक दिया करो न।" सनातन के नेत्रों से बह चली प्रेमाश्रु की धारा। कातर स्वर से उन्होंने कहा-"प्रभु मैं ठहरा आपका एक तुच्छ सेवक, जिसका डोर-कौपीन के सिवा कोई सम्बल नहीं। आप आज नमक की कह रहे हैं, कल गुड़ की कहेंगे, रसों राजभोग की, तो मैं कहाँ से लाऊँगा? यदि आपकी राजभोग की इच्छा है, तो स्वयं ही उसकी व्यवस्था कर लें।" यह कैसी सनातन की निष्टुरता अपने ही प्राणप्रिय मदनगोपाल के प्रति! जिनकी सेवा की तीव्र आकाँक्षा ने उन्हें पागल कर रखा था, उन्हीं की सेवा में ऐसी कृपणता और उदासीनता! ऐसी कौन सी वस्तु थी, जिसे विरक्त होते हुए भी मदनगोपाल की सेवा के लिए वे संग्रह नहीं कर सकते थे, जब उन जैसे महात्मा की इच्छापूर्ति करने के किसी भी अवसर के लिए बड़े-बड़े धनी व्यक्ति लालायित रहते थे? बात कुछ गूढ़ है। थोड़ा गहराई में उतरे बिना समझ में आने की नहीं। सनातन मदनगोपाल की सेवा के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर सकते थे, पर उस भजन-पथ को नहीं त्याग सकते थे, जो उनकी सर्वोत्तम सेवा का अधिकार जन्माने के लिए आवश्यक था। उनकी सर्वोत्तम सेवा है मानसी-सेवा। मानसी-सेवा में किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता। सेवा के जो उपकरण वैकुण्ठ में भी प्राप्त न होते हो उन्हे साधक मानसी-सेवा में स्वेच्छा से चुटा सकता है। देश, काल, समाज और प्रकृति के नियमों की सीमा से बाहर रहकर इष्ट की प्राणभर मनचाही सेवा कर उन्हें सुखी कर सकता है। मानसी-सेवा का अधिकार प्राप्त उसे होता है, जिसका अन्त:करण शुद्ध होता है। अन्त:करण की शुद्धि के लिये त्याग-वैराग्ययुक्त एकांतिक भजन-पथ का अनुशीलन आवश्यक है। यदि सनातन मदनगोपाल के राजभोग के लिए तरह-तरह की सामग्री जुटाने में लग जाते, तो उनकी परापेक्षा बढ़ जाती और वे एकांतिक भजन-पथ से च्युत हो जाते। इष्ट की सर्वोत्तम मानसी-सेवा की योग्यता प्राप्त करने के लिए उनकी व्यावहारिक सेवा की सीमा बाँधना आवश्यक था।(1) इसके अतिरिक्त स्वयं उनके इष्ट ने महाप्रभु में जगद्गुरू का दायित्व ओटते हुए उन्हें आज्ञा दी थी वैराग्यमय जीवन का चरम आदर्श स्थापित करने की। गुरू-आज्ञा ईश्वराज्ञा से भी अधिक बलवती है। तब वे गुरूरूपी इष्ट की आज्ञा का पालन करते या उपास्यरूपी इष्ट की इच्छा की पूर्ति करते? इसीलिए उन्हें दो टूक कह देना पड़ा मदनगोपालजी से-अपने उत्तम भोग की व्यवस्था आप स्वयं कर लें। यदि कहा जाय कि ऐसा कह सनातन गोस्वामी ने उनकी मर्यादा की हानि की, तो इसके लिए भी मूल रूप से दोषी मदनगोपाल ही हैं। वे क्या जानते नहीं थे कि सनातन एक निष्किञ्चन साधक हैं, जिनका डोर-कौपीन के सिवा दूसरा कोई सम्बल नहीं? उनकी सेवा अंगीकार करने के पहले उन्हें नहीं समझ लेना चाहिए था कि उन्हें भी उन्हीं की तरह रूखी-सूखी खाकर रहना पड़ेगा? असल बात यह है कि उनसे अपने प्रेमी भक्तों के साथ चुहल किये बिना भी तो नहीं रहा जाता। वे उनके साथ जानबूझ कर अटपटा व्यवहार कर, उन्हें झूठा-सच्चा उलहना देकर या किसी न किसी प्रकार उन्हें उपहासास्पद स्थिति में डालकर और उनकी खरी-खोटी सुनकर प्रसन्न होते हैं। उन रसिक-शेखर को उनकी खरी-खोटी जितनी अच्छी लगती है, उतनी वेद-स्तुति भी अच्छी नहीं लगती। मन्दिर का निर्माण मदनगोपाल को अपनी व्यवस्था आप करनी पड़ी। उस दिन पंजाब के एक बड़े व्यापारी श्रीरामदास कपूर जमुना के रास्ते नाव में कहीं हा रहे थे। नाव अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री से लदी थी, जिसे उन्हें कहीं दूर जाकर बेचना था। दैवयोग से आदित्यटिले के पास जाकर नाव फँस गयी जल के भीतर रेत के एक टीले में और एक ओर टेढ़ी हो गयी। मल्लाह ने बहुत कोशिश की उसे निकालने की, पर वह टस-से-मस न हुई। आदित्यटिले के पास यदि बस्ती का कोई चिन्ह होता तो कुछ लोगों को बुलाकर उनकी सहायता से उसे सीधा कर रेत में से निकाल लेते। पर वह जन-मानवहीन बिलकुल सूनसान स्थान था। ऊपर से कृष्णपक्ष (1) व्यावहारिक सेवा की सीमा वैरागियों और मानसी सेवा के अधिकारी साधकों के लिए ही है, साधारण लोगों के लिए नहीं। साधारण लोगों के लिए सामर्थ्यानुसार उत्तम से उत्तम ठाकुर-सेवा का शास्त्र-विधान है। की रात्रि का अंधियारा घिरा आ रहा थां रामदास चिन्ता में पड़ गये-नाव यदि ऐसे ही पड़ी रही तो उसके डूब जाने का भय है। डाकुओं का भी इस स्थान में आतंक बना रहता है। यदि उन्हें खबर पड़ गयी तो किसी समय टूट पड़ सकते हैं। सोचते-सोचते हठात् उन्हे दीख पड़ी टीले के ऊपर टिम-टिमाते हुए एक दीपक की क्षीण शिखा। आशा की एक किरण फूट निकली उनके भीतर घुमड़ते निराशा के घोर अन्धकार में। नौका से उतरकर वे आये तैर कर किनारे और द्रुतगति से चढ़ गये टीले के ऊपर। ऊपर जाते ही दीखी सामने कुटिया में मदनगोपाल की नयनाभिराम मूर्ति और उसके सामने ध्यानमग्न बैठे एक तेजस्वी महात्मा। मंगलमय उन दोनों मूर्तियों के दर्शन करते ही उन्हें लगा कि जैसे उनके अमंगल के बादल छँट गये। महात्मा के चरणों में गिरकर उन्होंने कातर स्वर से निवेदन की अपनी दु:खभरी कहानी और कहा-"मुझे विश्वास है कि आप कृपा करें तो इस विपद से मेरा उद्धार अवश्य हो जायगा। यदि आप कृपा न करेंगे तो मेरा सर्वस्व लुट जायगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि आपकी कृपा से नाव सुरक्षितृ निकल आयी, तो इस बार व्यापार में जो भी लाभ होगा, उसे आपके ठाकुरजी की सेवा में लगा दूँगा।" सनातन मदनगोपाल जी की ओर देख थोड़ा मुस्काये और रामदास को आश्वस्त करते हुए बोले-"चिन्ता मत करो। हमारे मदनगोपालजी शीघ्र इस विपद से तुम्हारी रक्षा करेंगे।" सनातन गोस्वामी का आशीर्वाद लेकर टीले से उतरे रामदास को अभी कुछ ही क्षण हुए थे, उन्होंने देखा कि न जाने कहाँ से जमुना में आयी एक नयी धार और नौका को मुक्त कर सही पथ पर ले चली। रामदास को उस बार व्यापार में आशातीत लाभ हुआ। कुछ दन बाद वे गये लौटकर वृन्दावन और उस विपुल धनराशि को मदनगोपाल जी की सेवा में नियुक्त कर कृतार्थ हुए। उसी धन से मदनगोपाल जी के लिये आदित्यटिले पर एक सुन्दर मन्दिर और नाटशाला का निर्माण हुआ और भू-सम्पत्ति क्रय कर ठाकुर के भोग-राग और सेवा-परिचर्या की उत्तम से उत्तम स्थायी व्यवस्था की गयी। रामदास और उनकी पत्नी सनातन गोस्वामी से दीक्षा लेकर धन्य हुए। इस प्रकार मदनगोपालजी ने अपने मनोनुकूल सेवा-पूजा की व्यवस्था अपने-आप कर ली और सनातन गोस्वामी की झोंपड़ी से निकलकर तीर्थराज रूप से भक्तों को दर्शन देने के उपयुक्त मंचपर जा विराजे। कालान्तर में जब श्रीराधा को उनके बाम भाग में विराजमान किया गया उनका नाम हो गया 'मदनमोहन' या श्रीराधामदनमोहन'।(1) मदनमोहन की प्रेम-सेवा के आवेश में सनातन महाप्रभु की आज्ञा भूल गये। कुछ दिन बाद उसकी याद आयी, तब उनके चरणों में दण्डवत् कर अश्रहुगद्गद् कण्ठ से बोले-"ठाकुर, अब मुझे छुट्टी दें, जिससे मैं एकान्तवास में वैराग्यधर्म का पूर्णरूप से पालन करते हुए अपना भजन और महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ठ कार्य कर सकूं।" वे श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारी पर मदनमोहन की सेवा का भार छोड़कर अन्यत्र चले गये। कभी गोवर्धन की तरहटी में, कभी गोकुल के वन-प्रान्त में, कभी राधाकुण्ड और नन्दग्राम में किसी वृक्षतले या पर्णकुटी में रहकर अपना भजन-साधन और महाप्रभु द्वारा आदिष्ट तीर्थोद्धारादि का कार्य करते रहे। पर बीच-बीच में मदनमोहन की याद उन्हें सताती रही। उनके दर्शन करने और यह देखने कि उनकी सेवा ठीक से चल रही है या नहीं, वे वृन्दावन जाते रहे। वृन्दावन में पुराने मदनमोहन के मन्दिर के पीछे उनकी भजनकुटी आज भी विद्यमान है। विविध घटनाएं मदनगोपाल की कृपा नन्दग्राम में जिस कुटी में सनातन गोस्वामी भजन करते थे, वह आज भी विद्यमान है। इसमें रहते समय एक बार मदनगोपाल जी ने उनके ऊपर विशेष कृपा की। यद्यपि वे मदनगोपालजी को वृन्दावन में छोड़कर यहाँ चले आये थे, मदनगोपाल उन्हें भूले नहीं थे। वे छाया की तरह हर समय उनके आगे-पीछे रहते और उनके योग-क्षेम की चिन्ता रखते। सनातन गोस्वामी इस समय लीला-स्मरण में इतना डूबे रहते कि उनहें खाने-पीने की भी सुधि न रहती। मधुकरी भिक्षा के लिये कहीं जाने का तो प्रश्न ही न था। नन्दग्राम के व्रजवासी उन्हें दूध दे जाया करतें वही उनका आहार होता। (1) श्री कविराज गोस्वामी के समय यह दोनों ही नाम प्रचलित थे, जैसा कि उनके इस उल्लेख से स्पष्ट है- एइ ग्रन्थ लेखाय मोरे मदनमोहन। आमार लिखन जेन शुकेर पठन॥ सेइ लिखि मदनगोपाल जे लिखाय। काष्ठेर पुतली जेन कुहके नाचाय॥ (चै0 च0 1।8।73-74) भक्तिरत्नाकार के अनुसार उड़ीसा के महाराज प्रतापरूद्र के पुत्र पुरूषोत्तम जाना ने दो राधा-विग्रह गोविन्ददेव और मदनगोपालजी के लिये वृन्दावन भेजे थे। स्वप्नादेश के अनुसार उनमें से छोटे को राधारूप में मदनगोपालजी के बाम भाग में और बडत्रे को उनके दाहिने ललितारूप में स्थापित किया गया। तभी से उनका नाम हुआ मदनमोहन। एक बार दैवयोग से तीन दिन तक कोई दूध लेकर न आया। चौथे दिन एक सुन्दर गोप-बालक आया लोटे में दूध लेकर। बोला-"बाबा, मइया ने तेरे तई दूध भेज्यौ है, पाय लै।" सनातन गोस्वामी बालक के मधुर कण्ठ-स्वर का अपने कर्ण-पात्रों से और उसकी रूप-माधुरी का नयन-अंजलि से कुछ देर पान करते रहे। उसकी घुँघराली, काली अलकों पर लाल पगड़ी बरबस उनके मन-प्राण खींच रही थी। उन्होंने नन्दग्राम में उस बालक को पहले कभी नहीं देखा था। उसे देर तक रोक रखने के लिये उन्होंने उसी की भाषा में उससे एक के बाद एक कई प्रश्न पूछ डाले-"लाला, तू कौन को है? कहाँ रहे? तेरे मइया-बाप को कहा नाम है? तेरे कै भइया हैं? इत्यादि। बालक ने अपने माँ-बाप का नाम बताया, पता-ठिकाना बताया और कहा-"हम चार भाइया हैं। मैं सबन ते छोटो हूँ।" दूध देकर बालक चला गया। पर उसकी छबि सनातन गोस्वामी के मन में बसकर रह गई। जब दूध पिया तो उसके अप्राकृत स्वाद और सौरभ से उनकी आँखे खुल गयीं। बालक की छवि में उन्हें अपने ही मदनगोपालजी की छवि भासने लग गयी। उस छलिये का छल अब उनकी समझ में आ गया। फिर भी वे उसके बताये ठिकाने पर जाये बगैर न रह सके। वहाँ जाकर उन्होंने उसे और उसके घरवालों को खोजने की बहुत चेष्टा की। पर वह निरर्थक सिद्ध हुई। प्रियादासजी ने भक्तमाल की टीका में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है- रहैं श्रीसनातन जू नन्दगाँव पावन पै, आब न दिवस तीनि दूध लै कै प्यारियै। साँवरो किशोर, आप पूछे "किहिं ओर रहो?" कहे चारि भाई पिता रीति हूँ उचारियै॥ गये ग्राम, बूझी घर, हरि पै न पाये कहुँ, चहूँ दिसि हेरि हेरि नैन भरि डारियै। अब के जो आवै, फेर जान नहीं पावै, सीस लाल पाग भावै, निस दिन उर धारिये॥ जगदानन्द पंडित से हास्य एक घटना से संकेत मिलता है कि सनातन गोस्वामी महागंभीर और एकान्त भजननिष्ठ महात्मा होते हुए भी हास्य-कौतुक प्रिय थे। नीलाचल से जगदानन्द पंडित आये हुए थे। उन्होंने एक दिन सनातन गोस्वामी को निमन्त्रण दिया। सनातन ने निमन्त्रण स्वकार किया। जगदानन्द की कुटिया पर जाने से पहले सिर से एक गेरूआ वस्त्र बांध लिया। गेरूआ वस्त्र सिर से बंधा देख जगदानन्द को प्रेमावेश हो आया। उन्होंने समझा कि सनातन ने महाप्रभु का प्रसादी वस्त्र सिर से बाँध रखा है। प्रसन्न हो उन्होंने पूछा'-"यह प्रसादी कहाँ मिली?" "मुकुन्द सरस्वती ने दी है।" "किसने दी है?" "मुकुन्द सरस्वती ने।" "मुकुन्द सरस्वती! महाप्रभु नहीं, मुकुन्द सरस्वती! अन्य सन्यासी का बहिर्वास सिर से!" कहते हुए जगदानन्द ने क्रोध में भर भात की हाँड़ी उठाई उनके सिर से मारने को। सनातन नत-मस्तक हँसते हुए अविचल खड़े रहे। उनकी भाव भंगी देख जगदानन्द को आभास हुआ कि उस वस्त्र का प्रकृत रहस्य कुछ और है। वे स्तब्ध से सनातन की ओर देखते रहे। सनातन ने कहा-"इसी को कहते हैं चेतन्य-निष्ठा। पंडितजी, यही देखने को तो मैंने यह नाटक किया था।" जगदानन्द का क्रोध शांत हुआ। सनातन को गले से लगाकर उन्होंने कहा-"ऐसी हँसी ठीक नहीं, सनातन।" तब दोनों ने एकसाथ बैठकर आहार किया। आमोद-प्रमोद और आलाप-संलाप में दोनों की चरचा का एक ही विषय-महाप्रभु का गुणगान। दोनों के भाव की एक ही गति-महाप्रभु के विरह में अश्रुविसर्जन। जीवन ठाकुर का परिवर्तन सनातन गोस्वामी ने जगजीवन को जैसा अपने ग्रन्थों से प्रभावित किया, वैसा ही अपने आचरण से। उनके त्याग-वैराग्य से जुड़ी हुई है वर्धमान जिले के मानकड़े ग्राम के जीवन ठाकुर की कहानी। जीवन ठाकुर बड़े धर्मात्मा व्यक्ति थे। पर उनका सारा जीवन दरिद्रता से जूझते बीता था। अब वृद्धावस्था में उससे जूझते नहीं बन रहा था। हारकर एक दिन उन्होंने विश्वनाथ बाबा से प्रार्थना की-"बाबा, अब कृपा करो। दारूण दरिद्रता के थपेड़े झेलने में मैं अब बिलकुल असमर्थ हूँ। ऐसी कृपा करो जिससे दरिद्रता का मुख मुझे और न देखना पड़े।" विश्वनाथ बाबा ने प्रार्थना सुन ली। स्वप्न में आदेश दिया-"तू व्रज जाकर सनातन गोस्वामी की शरण ले। उनकी कृपा से तेरा सब दु:ख दूर हो जायगा"। जीवन ठाकुर ने व्रज जाकर सनातन गोस्वामी से अपना रोना रोया। सनातन गोस्वामी को उनकी सब बात सुनकर बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे-मैं स्वयं, डौर-कौपीनधारी कंगाल वैष्णव हूँ। एक कंगाल दूसरे कंगाल की क्या सहायता कर सकता है? फिर विश्वनाथ बाबा ने उसे आश्वासन दे मेरे पास क्यों भेजा?" हठात् उनके स्मृति-पटल पर जाग गयी एक पुरानी घटना। एक बार भावमग्न अवस्था में जमुनातट पर टहलते समय उनके पैर से टकरा गया था एक स्पर्शमणि। उसे उन्होंने अपने भजन –पथ में विघ्न जान जमुना में फेंक देना चाहा थां पर यह सोचकर कि शायद कभी किसी दरिद्र व्यक्ति के काम आये वहीं एक गुप्त स्थान में रख दिया था। जीवन ठाकुर को उस गुप्त स्थान का संकेत करते हुए उन्होंने कहा-"तुम जाकर उस मणि को ले लो। तुम्हारा दारिद्रय दूर हो जायगा।" जीवन ठाकुर वहाँ गये। स्पर्शमणि को प्राप्त कर उनके आनन्द की अवधि न रही। आनन्दाश्रु से नेत्र भर आये। मन तरह-तरह की उड़ाने भरने लगा। वे अब दरिद्र नहीं रहे। अब वे स्पर्शमणि के सहारे इतना धन प्राप्त कर लेंगे कि राजा भी उनके ईर्षा करने लग जायेंगे। मन ही मन विश्वनाथ बाबा की जय बोलते हुए और सनातन गोस्वामी के प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हुए वे आनन्दाम्बुधि में तैरते चले जा रहे थे। हठात् एक नयी तरंग उनके मस्तिष्क से जा टकराई। बिजली-की सी एक करेंट ने उनकी चेतना को झकझोर दिया। विस्मय के साथ लगे सोचने-"जिस धन के लोभ से काशी से पैदल भागता आया हूँ, उसके प्रति सनातन गोस्वामी की ऐसी उदासीनता! इतने दिन से उसे एक जगह पटककर ऐसे भूल जाना, जैसे वह कोई वस्तु ही नहीं। जिस रत्न का लोभ राजाओं तक को उन्मत्त कर दे, उसका उनके द्वारा ऐसा तिरस्कार! निश्चय ही वे किसी ऐसे धन के धनी हैं, जिसकी तुलना में यह राजवाञ्छित रत्न इतना तुच्छ है। तभी तो वे इतना वैभव और राज-सम्मान त्याग कर करूआ-कंथाधारी त्यागी बाबाजी बने हैं। और एक मैं हूँ, जो उस तुच्छ वस्तु को प्राप्त कर अपने को धन्य मान रहा हूँ। जिस वैषयिक जीवन को त्यागकर वे इस प्रकार आप्तकाम और आनन्दमग्न हैं, उसी में मैं एक विषयकीट के समान और अधिक लिप्त होता जा रहा हूँ। धिक्कार है मुझे और मेरी विषयलिप्सा को। मैंने जब विश्वनाथ बाबा की कृपा से ऐसे महापुरूष का सान्निध्य नाभ किया है, तो क्यों न उनसे उस परमधन को प्राप्तकर अपना जीवन सार्थक करूँ, जिसे प्राप्त कर वे इतना सुखी हैं?" सनातन गोस्वामी के क्षणभर के संग से जीवन ठाकुर के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। वह अमूल्य रत्न, जो अभी थोड़ी देर पहले उनके मृतदेह में नयी जान डालता लग रहा था, अब उन्हें साँप-बिच्छू की तरह काटने लगा। उसे जमुना में फेंक उन्होंने उस यंत्रणा से अपने को मुक्त किया। फिर तुरन्त सनातन गोस्वामी के पास जाकर उनके प्रति आत्म-समर्पण करते हुए आर्त स्वर से प्रार्थना की-"प्रभु, आपकी अहैतुकी कृपा से मेरा मोहाधंकार जाता रहा। अब आप मुझे लौकिक धन के बजाय उस अलौकिक धन का धनी बनने की कृपा करें, जिसके आप स्वयं धनी हैं। मैं आज से आपके चरणों में पूर्णरूप से समर्पित हूँ।" सनातन गोस्वामी से दीक्षा लेकर जीवन ठाकुर ने आरम्भ किया अपने जीवन का एक नया अध्याय और उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर चलकर प्राप्त किया वह अलौकिक धन। इन्हीं जीवन ठाकुर के वंशज हुए हैं काठ-मागुण के प्रसिद्ध गोस्वामी परिवार के गोस्वामीगण। प्रवाद है कि जीवन ठाकुर ने जब स्पर्शमणि जमुना में फेंक दिया, तो दिल्ली के बादशाह को इसका पता चला। उसने अपने आदमियों को भेजा उसकी खोज करने। उन्होंने हाथियों को जमुना में उतारकर उसकी खोज आरम्भ की। मणि तो उन्हें मिला नहीं। पर दैवयोग से एक हाथी के पैर की जंजीर मणि से टकराकर सोने की हो गयी। सनातन गोस्वामी और अकबर बादशाह ग्राउस ने लिखा है कि गौड़ीय गोस्वामियों की द्रुतगति से फैलती हुई ख्याति से आकृष्ट हो अकबर बादशाह ने सन् 1573 में वृन्दावन में उनसे भेंट की। उन्होंने उसे दिव्य वृन्दावन के दर्शन कराये, जिसके उपलक्ष्य में वृन्दावन में गोविन्द देव, गोपीनाथ, जुगलकिशोर और मदनमोहन के मन्दिरों का निर्माण हुआ।(1) सनातन गोस्वामी गौड़ीय गोस्वामियों में श्रेष्ठ थे। संभवत: इसलिये कुछ विद्वानों ने इस घटना को मुख्य रूप से उनसे जोड़ा है।(2) सनातन गोस्वामी से अकबर बादशाह की भेंट को स्वीकार तभी किया जा सकता है, जब 1572 में सनातन गोस्वामी जीवित रहे हों, जिसकी सम्भावना बहुत कम जान पड़ती है। डा0 सुकुमार सेन(3) श्रीसतीशचन्द्रमित्र (4) और डा0 जाना का (5) मत (1)-"On their arrival at Brindaban the first shrine which the Gossains erected was one in honour of eponymous Goddess Brinda Devi. Of this no Traces now remain, if (as some say) it stood in Seva Kunja, which is now a farge walled garden with a masonary tank near the Ras Mandal. Their fame spread so rapidly that in 1573 the Emperor Akbar was induced to pay them a visit and was taken blindfold into the secred inclosure of the Vrindavan, where such a marvellous vision was revealed to him that he was fain to acknowledge the place as indeed holy ground. The four temples, commenced in honour of this event, still remain, though in a ruinous and hitherto neglected condition. They bear the titles of Govinda Deva, Gopinath, Jugal Kishore and Madan Mohan” (District memoir of Mathura, 3rd Ed. p. 241) (2) मुरारीलाल अधिकारी वैष्णव दिग्दर्शनी, पृ0 97 हरिदास दास: गौड़ीय वैष्णव साहित्य, परिशिष्ट, पृ0 10 (3) बाला साहित्येर इतिहास, प्रथम खण्ड पूर्वाध, 3य सं, पृ0 286 (4) सप्तगोस्वामी, पृ0 128 (5) वृन्दावनेर छय गोस्वामी, पृ0 65 है कि सनातन गोस्वामी का तिरोभाव सन् 1554 में हुआ। पर डा0 दिनेशचन्द्रसेन ने Th: Vaishnava literature of Mediaeval Bengal (p.39) में लिखा है कि उनका तिरोभाव 1591 में हुआ। डा0 राधागोविन्दनाथ ने भी चैतन्य-चरितामृत की भूमिका (4र्थ सं, पृ0 26) में लिखा है कि उनका तिरोभाव सन् 1591 में हुआ। यदि डा0 सेन और डा0 राधागोविन्दनाथ का मत स्वीकार किया जाये तो सनातन गोस्वामी की आयु 120-124 वर्ष के लगभग मान्य होगी। यह असम्भव नहीं है। भजन-निष्ठ महात्माओं की अवसत आयु साधारण लोगों की आय से कही अधिक होती है। लेखक द्वारा प्रणीत 'व्रज के भक्त'(1) पुस्तक से ज्ञात हुआ कि व्रज के अर्वाचीन सिद्ध महात्मा भी दीर्घायु हुए हैं और 100 से अधिक वर्ष की आयु उनमें से कईयों की हुई है। पर सनातन गोस्वामी 120-124 वर्ष तक जीवित रहें इसकी संभावना बहुत कम ही जान पड़ती है। कारण यह है कि 1554 ई0 में रचित वृहद वैष्णवतोषणी उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना हैं। यदि वे 1592 तक जीवित रहे होते तो उन्होंने 1554 के पश्चात भी कुछ ग्रन्थों की रचना अवश्य की होती। रूप गोस्वामी का तिरोभाव सनातन गोस्वामी के तिरोभाव के एक महीने पीछे हुआ, यह सर्वविदित है। आषाढ़ी पूर्णिमा को सनातन गोस्वामी का तिरोभाव हुआ, श्रावणी शुक्ल द्वादशी को रूप गोस्वामी का। यदि यह माना जाये कि सनातन गोस्वामी का तिरोभाव 1592 में हुआ, तो रूप गोस्वामी का तिरोभाव भी उसी वर्ष मानना होगा। रूप गोस्वामी भी कोई रचना 1514 के बाद की नहीं हैं। यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि दोनों भाई, जिन्होंने 1514 तक अपना सारा जीवन महाप्रभु द्वारा आदिष्ट ग्रन्थ-रचना और तीर्थोद्धार के कार्यों में लगाया 1514 के पश्चात् सहसा इस ओर से उदासीन हो गये और दोनों ने जीवन के शेष 35 वर्षों में कुछ भी न लिखने का संकल्पकर अपनी लेखनी को सदा के लिये विश्राम दे दिया। जीवगोस्वामी के 'माधव महोत्सव' में एक श्लोक है जिसमें सनातन गोस्वामी के तिरोभाव का वर्णन है। माधव-महोत्सव का रचना काल सन् 1515 है। इससे स्पष्ट है कि उनका तिरोभाव 1554-55 में हुआ। श्लोक इस प्रकार है:- अंघ्रि युग्ममिह सार-सारसस्पर्द्धि मूर्द्धनि दधातु मामके। य: सनातनतया स्म विन्दते वृन्दकावनममन्द-मन्दिरम्॥9/3॥ (1) यह ग्रन्थ श्रीकृष्ण-जन्मस्थान-सेवा संस्थान से 5 खण्डों में प्रकाशित है। अर्थात् जिन्होंने सनातन-नाम से सुविख्यात हो श्रीमन्महाप्रभु की कृपा से महानिकुंज मन्दिर भूषित श्रीवृन्दावन धाम को चिरवास्तव रूप से प्राप्त किया- वही श्रीसनातन गोस्वामी मेरे सिर पर अपने सुन्दर पद्मविजयी चरण-युगल स्थापित करें।(1) डा0 राधागोविन्दनाथ ने इस सम्बन्ध में अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है-"कोई-कोई कहते हैं कि शक सम्वत् 1480 में सनातन गोस्वामी का तिरोभाव हुआ, परन्तु यह विश्वास योग्य नहीं। कारण शक सम्वत् 1495 में भी वे प्रकट थे, इसका इतिहास साक्षी है। सन् 1573 (शक सम्वत् 1595) में मुगल सम्राट अकबर शाह ने वृन्दावन जाकर उनसे साक्षात् किया, यह इतिहास प्रसिद्ध घटना है।" "पहले ही कहा जा चुका है कि शक सम्वत् 1512 में रूप-सनातन के तत्वावधान में महाराज मानसिंह द्वारा गोविन्ददेव का मन्दिर का निर्माण हुआ। इससे जाना जाता है कि शकाब्द 1512 में वे प्रकट थे और शकाब्द 1514 के वैशाख मास में, जब श्रीनिवास वृन्दावन पहुँचे, तब वे अप्रकट हो चुके थे। इसलिए 1512 और 1514 के बीच ही उनका तिरोभाव हुआ होगा।" सन् 1573 में अकबर ने सनातन गोस्वामी से भेंट की, इसके प्रमाण में डा0 राधागोविन्दनाथ ने ग्राउस का सहारा लिया है। ग्राउस ने कहीं यह नहीं लिखा कि अकबर ने सनातन गोस्वामी से भेंट की। इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा है उसे हमने ऊपर उद्धृत किया है। उसमें उन्होंने केवल यह कहा है कि अकबर ने गौड़ीया गोस्वामियों से भेंट की। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि रूप-सनातन के अप्रकाट्य के पश्चात् उसने लोकनाथ गोस्वामी, भूगर्भ गोस्वामी और जीव गोस्वामी आदि से भेंट की, जो उस समय प्रकट थे। गोविन्ददेव के मन्दिर का मानसिंह द्वारा निर्माण रूप-सनातन के रहते उनके सत्वावधान में किया गया, इसे भी राधागोविन्दनाथ ने मुख्य रूप से इतिहास-प्रसिद्ध घटना के रूप में ही लिया है। प्रमाण में भक्तिरत्नाकर और प्रेम विलासके आधार पर केवल यह कहा है कि श्रीनिवासाचार्य की जीव गोस्वामी से प्रथम भेंट गोविन्ददेव के मन्दिर में हुई सनातन गोस्वामी के अप्राकट्य के कुछ ही महीने बाद और मन्दिर का निर्माण हुआ सन् 1590 में, जिसका अर्थ यह होता है कि 1590 के बाद और श्रीनिवासाचार्य के (1) पक्षान्तर में इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है- जिन्होंने सनातन-रूप से (सदा के लिए) सुमहान (निंकुज) मन्दिर-मण्डित वुन्छावन लाभ किया है, (अर्थात् जो वृन्दावन त्यागकर कभी कही नहीं जाते) वही श्रीकृष्ण मेरे मस्तक पर अपने अत्युकृष्ट कमल-विनिन्दी पादमद्म स्थापित करें। पर स्पष्ट है कि यह श्लोक का सरल और सीधा अर्थ नहीं है। वृन्दावन आगमन के पूर्व तक सनातन गोस्वामी जीवित रहे। श्रीनिवासाचार्य 1590 के बाद ही वृन्दावन गये, क्योंकि गोविन्ददेव का नया मन्दिर बन जाने के बाद उस मन्दिर में जीव गोस्वामी से भेंट हुई। श्रीनिवासचार्य की गोविन्ददेव के नये मन्दिर में ही भेंट हुई इसका उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया। भक्तिरत्नाकर में गोविन्ददेव मन्दिर में इस भेंट का उल्लेख है, पर भेंट नये मन्दिर में हुई या पुराने में इस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है। यदि यह मान भी लिया जाय कि सनातन गोस्वामी सन् 1573 के बाद तक जीवित थे और अकबर बादशाह से उनकी भेंट हुई, तो यह विश्वसनीय नहीं जान पड़ता कि उन्होंने अकबर को दिव्य वृन्दावन दर्शन कराये। इस प्रकार की एक किंवदंती श्रीहरिदास गोस्वामी के सम्बन्ध में भी प्रचलित है। कहां जाता है कि अकबर ने जब स्वामीजी से कोई सेवा स्वीकार करने का आग्रह किया तो उसे बिहारीघाट ले गये, जहाँ उसे दिव्य वृन्दावन के घाट के दर्शन कराने। घाट की प्रत्येक सीढ़ी एक ही विशाल रत्न की बनी थी। एक सीढ़ी में थोड़ा नुक्स दिखाते हुए उन्होंने अकबर से उसे बदलवा देने को कहा। पर यह अकबर बादशाह की सामर्थ्य के बाहर था।(1) दोनों के सम्बन्ध में यह किंवदंतियाँ काल्पनिक ही कही जा सकती हैं, क्योंकि ये भक्ति-सिद्धानत के विपरीत हैं। भक्ति-सिद्धान्त के अनुसार वृन्दावन धाम स्वरूपत: धामी श्रीकृष्ण से अभिन्न है और उसके दर्शन प्रेम-चक्षु से ही किये जा सकते हैं, जो अकबर के पास नहीं थे। यदि माना जाय कि इन महाप्ररूषों ने अपनी शक्ति से उसे प्रेम-चक्षु प्रदान किये, तो उसके व्यक्तित्व में तत्काल आमूल परिवर्तन हो जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ। (1) इस किंवदंती को ग्राउस ने श्रीस्वामी हरिदास के किसी अनुयायी द्वारा लिखित 'भक्ति-सिन्धु' नामक ग्रन्थ से अपने Mathura Memoir (p.220) में उद्धृत किया है। भागवत-धर्म का पुनरोद्धार प्राचीन भक्तिशास्त्रों का संग्रह और नये ग्रन्थों के निर्माण का कार्य भी सनातन गोस्वामी बड़ी लगन के साथ करते रहे। धीरे-धीरे रूप गोस्वामी के अतिरिक्त श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी, श्रीरघुनाथदास गोस्वामी, श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामी और श्रीजीव गोस्वामी भी उनसे आ मिले और जुट गये उनके साथ तीर्थों और भक्ति-शास्त्रों को पुनर्जीवित करने के महान प्रयास में। इनमें से प्रत्येक त्याग, तितिक्षा, वैराग्य शास्त्रज्ञान और भक्ति- साधना का महान आदर्श था। इनके सहयोग से सनातन गोस्वामी उत्तर भारत के आध्यात्मिक जीवन में एक नयी क्रान्ति लाने में समर्थ हुए। उन्होंने स्वयं तो महत्वपूर्ण आकर-ग्रन्थों की रचना की ही, इनके द्वारा अपनी देख-रेख में बहुत से भक्ति-ग्रन्थों की रचना करवाकर वैष्णव-साहित्य की जैसी अभिवृद्धि की वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। वैष्णव-धर्म के पुनरोद्धार में और उसकी भक्ति को आगे के लिए सुदृढ़ करने में गौड़ीय गोस्वामियों का सबसे बड़ा हाथ है। यह कार्य कितना दुष्कर था, इसका अनुमान वैष्णव इतिहास के गवेषक श्रीसतीशचन्द्र मित्र के इस वक्तव्य से लगाया जा सकता है- "षोडश शताब्दी के प्रथम भाग में गौड़ीय गोस्वामियों ने धर्म को लेकर जो देशव्यापी तुमुल आन्दोलन छेड़ा, उसका प्रवाहके शताब्दी के बाद हो पाता, कौन जाने? कारण बंगदेश के शक्ति शाली और समृद्धशाली लोग और बंगीय समाज में कुलीन कहलाने वाले लोग-ब्राह्मण, कायस्थ, वैद्य प्रभृति अधिकतर शाक्त-मतावलम्बी और गौड़ीय-वैष्णवमत के घोर शत्रु थे। जो ब्राह्मणगण पांडित्य-प्रतिभा और वंश- परम्परा के कारण सर्वत्र ख्याति-सम्पन्न थे और जिनका धर्म साधना की अपेक्षा आचार-निष्ठा में अधिक आग्रह था, वे सभी इस नवीन मत को अनाचरणीय और अशास्त्रीय कह कर इसकी उपेक्षा करते थे।" महाप्रभु जानते थे कि शास्त्रों में आस्था रखनेवाले और शब्द प्रमाण को ही सर्वोच्च माननेवाले पंडितों के इस देश में किसी धर्म की स्थापना तब तक नहीं की जा सकती, जब-तक उस धर्म का विरोध करने वाले व्यक्तियों के धर्मध्वजी नेताओं को शास्त्रार्थ में परास्त न किया जाय। वे यह भी जानते थे कि केवल भाव की भित्ति पर खड़ा किया गया धर्म बहुत दिन टिक नहीं सकता। उसके लिए चाहिए शास्त्र-प्रमाण और तर्कसंगत युक्तियों की सृदृढ़ भित्ति। पहला काम तो उन्होंने सव्यं ही किया। सार्वभौम भट्टाचार्य और प्रकाशानन्द सरस्वती जैसे देशविख्यात वेदान्तियों को शास्त्रार्थ में पराजितकर अपने धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। उसे शास्त्र-सम्मत सिद्ध करने का काम अपने रूप-सनातन जैसे योग्य भक्तों पर छोड़ दियां उन्हें विशुद्ध भक्ति-धर्म का उपदेश कर तदनुसार ग्रन्थों की रचना का आदेश दिया। साथ ही यह आज्ञा दी कि वे जो कुछ लिखे, उसकी पुष्टि शास्त्र वाक्यों से अवश्य करें। ऐसा कुछ भी न लिखें, जिसकी प्रामणिकता वे शास्त्र-वाक्यों के आधार पर सिद्ध न कर सकें। विशेष रूप से उन्होंने श्रीमद्भागवत को सर्वश्रेष्ठ प्रमाण मानकर उसी का अनुसरण करने का उपदेश किया, क्योंकि उनके अनुसार श्रीमद्भागवत वेदव्यास के ब्रह्मसूत्र का अपना ही भाष्य था और इसलिए सब शास्त्रों का सार था। सच तो यह है कि महाप्रभुने स्वतंत्र रूप से किसी धर्म का प्रचार नहीं किया। उन्होंने श्रीमद्भागवत के धर्म को ही अपना धर्म माना (1) और उसी के श्लोक उद्धृत करते हुए विशुद्ध भागवत धर्म का अपने धर्म के रूप में प्रचार करने का रूप-सनातन को आदेश दिया। रूप-सनातन ने जिस दक्षता के साथ इस कार्य को सम्पन्न किया, वह अतुलनीय है। डोर-कौपीनधारी परम विरक्त साधु के रूप में एकान्त-भजन में रत रहते हुए भी उन्होंने राशि-राशि ग्रन्थों की रचना और टीका, व्याख्यादि द्वारा गौड़ीय-वैष्णव धर्म को सुदृढ़ भित्तिपर स्थापित कर इसकी विजय-पताका फहराई। सनातन गोस्वामी के ग्रन्थों का परिचय हम आगे देंगे। यहाँ उनके जीवन से सम्बन्धित कुछ विशेष घटनाओं का उल्लेख करेंगे। व्रज-परिक्रमा सन् 1533 में महाप्रभु के अप्राकट्य के पश्चात् रघुनाथदास गोस्वामी और बहुत-से भक्त गौड़ और उड़ीसा से आकर वृन्दावन में रहने लगे। उनके सहयोग से वैष्णव-धर्म के प्रचार का काम और भी तेज गति से चलने लगा। सनातन गोस्वामी ने चौरासी कोस व्रज की परिक्रमा की प्रा आरम्भ की। वे प्रति वर्ष सदलबल चौरासी कोस व्रज की परिक्रमा को जाया करते। उनका एक उद्देश्य होता गांव-गांव में जाकर भक्ति-धर्म का प्रचार करना। उनके असाधारण त्याग, वैराग्य, पांडित्य और मदनगोपाल के विशेष कृपा भाजन होने की ख्याति तो चारों ओर फैली थी ही, वे गौड़ीय-वैष्णव धर्म के प्रधान नेता और संरक्षक के रूप में भी भलीभाँति परिचित थे। वे जिस गाँव में भी जाते, वहाँ के लोग उनके आगमन का संवाद सुन पागल की तरह उनके पास दौड़े चले आते। उनके लिए तरह –तरह की खाद्य सामग्री (1) भगवते कहे मोर तत्व अभिमत। (चै0 भा0 2/21/17) लाकर उनकी सेवा करते। उनके दर्शन कर और उनके उपदेश सुन कृतार्थ होते। उनके आगमन के उपलक्ष्य में महोत्सवों का आयोजन करते। सनातन गोस्वामी अपनी मधुर-मूर्ति, मधुर-वचन और मधुर व्यवहार से सबके मन-प्राण हर लेते। वे सब जैसे सदा के लिए उनके हाथ बिक जाते। सनातन इस प्रकार विजयी सम्राट के समान परिक्रमा करते हुए लोगों के हृदय क्षेत्र पर अधिकार कर अपने साम्राज्य का विस्तार करते रहते। उनके द्वारा चलाई प्रतिवर्ष व्रज-परिक्रमा करने की परिपाटी गौड़ीय-वैष्णव समाज में आज तक चली आ रही है। राधा-कृपा नन्दगाँव के निकट कदम्बटेर है। वहाँ एक सुरम्य सरोवर के तटपर रूप गोस्वामी की भजन कुटी आज भी विद्यमान है। उसमें रहते समय एक बार उन्हें क्षोभ हुआ कि भजन करते-करते इतने दिन बीत गये, फिर भ् राधारानी की कृपा न हुई। क्षोभ बढ़ता गया, विरहाग्नि तीव्र होती गयी। खाना-पीना दूभर हो गया। मधुकरी को जाना भी बन्द हो गया। संवाद मिला कि सनातन गोस्वामी आ रहे हैं उन्हें देखने। तब उनके मन वासना जागी कि कहीं से दूध मिलता तो खीर का भोग लगाकर उन्हें खिलाते। पर किसी से कुछ माँगने का तो उनका नियम था नहीं। खीर बनती कैसे? यह देख राधारानी का हृदय आलोड़ित हुआ। रूप गोस्वामी को दो दिन हो गये थे बिना अन्न-जल के। उन्हें सांत्वना देकर कुछ खिलाना था ही उन्हें। साथ ही पूर्ण करनी थी सनातन गोस्वामी को खीर खिलाने की उनकी वासना। एक साथ अपने दो प्रिय भक्तों की सेवा करने का अवसर उन्हें और कब मिलता? वे स्वयं आयीं व्रज-बालिका के रूप में रूप गोस्वामी के पास दूध लेकर और उनसे उसे ग्रहण करने का आग्रह किया। दूध से जो खीर बनी उसके अप्राकृत स्वाद और गन्ध से सनातन गोस्वामी को कौतूहल हुआ। पूछने पर जब उन्हें सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, तब उन्होंने रूप से कहा-"तुमने स्वयं निराहार रहकर और मुझे खीर खिलाने की वासना मन में लाकर राधारानी को कष्ट दिया। भक्त को कभी किसी प्रकार की वासना मन में न लाना चाहिए, न ही अकारण अनाहार करना चाहिए। दोनों अवस्थाओं में इष्ट को दु:ख होता। वह न भक्त की वासना पूर्ण किये बिना रह सकता है, न अनाहार को दूर किये बिनां ऐसा करने के लिए उसे स्वयं कष्ट करना पड़ता है।" इस घटना का हमने यहाँ संकेत भर किया है। इसका विस्तार से वर्णन करेंगे रूप गोस्वामी के चरित्र में। राधारानी की सनातन गोस्वामी पर कितनी कृपा थी एक और घटना भी प्रकट है। श्रीरूप गोस्वामी ने 'चाटुपुष्पाञ्जलि' की रचना की। उसका प्रथम श्लोक देखकर सनातन गोस्वामी को कुछ संदेह हुआ। श्लोक इस प्रकार है- नवगौरोचना गौरी प्रवरेन्दीवराम्बरां। मणि स्तव कविद्योतिवेणी व्यालांगनाफणां॥ -हे वृन्दावनेश्वरी! मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ। तुम अभिनव गोरोचन के समान गौरांगी हो। सुन्दर नीलपद्म के समान तुम्हारे वस्त्र हैं। तुम्हारी लम्बी बेणी, जिसके ऊपर मणिरत्न खचित कवरी बन्ध है, फणयुक्त नागिन के समान लगती है।" सनातन गोस्वामी को लगा कि श्लोक में राधारानी की वेणी की तुलना नागिन से करना ठीक नहीं। महाभावमय राधारानी के केश भी सच्चिदानन्द-स्वरूप और महाभावमय हैं। उनकी तुलना नागिन से करना अमृत की तुलना विषसे करना जैसा है। उसी दिन मधुकरी-भिक्षा से लौटते समय उन्होंने देखा कि राधासरके किनारे एक वृक्षपर झूला पड़ा है। उस पर आकाश में चंचल विद्युत के समान एक बालिका झूल रही है, सखियां झूला रही हैं। सहसा उसकी पीछ की ओर देखकर वे चीख पड़े-"लाली सांप, सांप, तेरी पीठपर।" इतना कह वे सांप को हटाने के लिए जैसे ही बालिका की ओर दौड़े बालिका उन्हें देखकर मुसकाई और सखियों सहित अन्तर्धान हो गयी। सनातन गोस्वामी समझ गये कि बालिका स्वयं राधारानी ही थीं। उन्होंने उन्हें यह अनुभव कराने को दर्शन दिये थे कि रूप गोस्वामी ने उनकी चोटी की उपमा नागिन से ठीक ही थी। सांप की तरह लफलफाती उनकी बेणी का दृश्य वे भूल नहीं पा रहे थे। उसमें जैसा आकर्षण था उसे देख उन्हें बोध हो रहा था कि निश्चय ही उसे देख रसिकशेखर श्यामसुन्दर के मन में उनसे मिलने की व्याकुलता उन्हें विषधर सर्प के दर्शन का सा अनुभव कराती होगी। उसी समय वे गये रूप गोस्वामी के पास। उनकी परिक्रमा और उनके चरणों की वन्दनाकर अपनी भूल स्वीकार करते हुए बोले-"रूप, तुम धन्य हो। राधारानी की तुम पर बड़ी कृपा है। तुम्हारे काव्य में कल्पनाका लेश भी नहीं है। तुम जो देखते हो उसी का वर्णन करते हो।"(1) (1) भक्तिरत्नाकर, पंचम तरंग, 754-765 प्रियादासजी ने भक्तमाल की टीका में इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया है- कही व्याली रूप बैनी, निरखि सरूप नैन, जानी श्रीसनातन जू काव्य अनुसारिये। 'राधासागर' तीर दुम डार गहि झूलैं, फूलै देखत लफलफात गति मति बारिये॥ आये यों अनुज पास, फिरै आस-पास। देखि भयौ अति त्रास, गहे पाऊँ उर धारियै॥ चरित अपार उभै भाई हितसार पगे, जगे जग माहिं, मति मन मैं उचारियै॥ (भक्ति-रस-बोधिनी, 363)

अंतर्द्धान श्रीचैतन्य महाप्रभु ने एकबार सनातन गोस्वामी की असाधारण शक्ति का मूल्यांकन करते हुए कहा था- "आमाके ओ बुझाइते तुमि धर शक्ति। कत गञि बुझायाछ व्यवहार-भक्ति॥ (चै0 च0 3/4/163) -तुम्हारे भीतर मुझ तक को समझाने और पथप्रदर्शन करने की शक्ति है। कितनी बार तुमने इसका परिचय भी दिया है।" इस शक्ति के कारण ही उन्होंने उनके शरीर को अपने उद्देश्यकी सिद्धि का प्रधान साधन माना था- तोमार शरीर मोर प्रधान साधन।" (चै0 च0 3/4/73) और कहा था- "शरीरे साधिब आमि बहु प्रयोजन। भक्त, भक्ति, कृष्ण-प्रेम तत्वेर निर्धार। वैष्णेवेर कृत्य, आर वैष्णव आचार॥ कृष्ण-भाक्ति, कृष्ण-प्रेम-सेवा प्रवर्तन। लुप्त-तीर्थ-उद्धार आर वैराग्य-शिक्षण॥ निज-प्रिय स्थान मोर मथुरा-वृन्दावन। ताहाँ एत धर्म चाहि करिते प्रचारन॥ (चै0 च0 3/4/73-76) -तुम्हारे शरीर से मैं अपने बहुत से प्रयोजनों को सिद्ध करूंगा। कृष्ण-प्रेम-तत्व और वैष्णवों के कृत्य का निर्धारण, अपने प्रिय स्थान मथुरा-वृन्दावन में कृष्ण-भक्ति और कृष्ण-प्रेम-सेवा का प्रवर्तन, लुप्त तीर्थों को उद्धार और वैराग्य का शिक्षण, यह सब कार्य मैं तुम्हारे शरीर के माध्यम से करूंगा।" सनातन गोस्वामी के शरीर से महाप्रभु के प्रयोजन की सिद्धि अब हो चुकी थीं उनका शरीर बहुत वृद्ध हो गया था। उन्होंने जीवन के बचे हुए कुछ दिन एकान्त भजन में व्यतीत करने का निश्चय किया। वे मानसगंगा के तीर पर चक्रेश्वर महादेव के मन्दिर के निकट एक वृक्ष के नीचे भजन करने लगे। उनकी वृत्ति अन्तर्मुखी हो गयी। आहार-निद्रा तक की चिन्ता न कर वे हर समय राधा-कृष्ण के चिन्तन और हरिनामामृत के आस्वादन में डूबे रहते। उस समय की उनकी अवस्था का वर्णन श्रीराधावल्लभदास ने एक पद में इस प्रकार किया है- "कत दिने अन्तर्मना छाप्पान्न दण्ड भावना, चारिदण्ड निद्रा वृक्षतले। स्वप्ने राधाकृष्ण देखे, नाम गाने सदा थाके, अवसर नाहिं एक तिले।" इसी अवस्था में एक बार उन्हें बहुत समय से निर्जल, निराहार देख श्रीकृष्ण से न रहा गया। वे स्वयं एक गोप-बालक के वेश में गये दूध का पात्र हाथ में लिये अपने प्रिय भक्त के लिए और निकट जाकर बोले- "आछह निर्जने, तोमा केह नाहि जाने। देखिलाम तोमारे आसिया गोचारने॥ एइ दुग्ध पान कर आमार कथाय। लइया जाइब भाण्ड, राखिओ एथाय॥ (भ0 र0, 5म तरंग, 1305-6) -बाबा, तुम यहाँ निर्जन में रहते हो। किसी को तुम्हारा पता नहीं। मैं यहाँ आया गोचारण को तो तुम्हें देखा। तुम भूखे हो। मेरा कहा मानो, यह दूध पी लो। पीकर बरतन यहीं रखों, मैं अभी आकर ले जाऊंगा।" उसने आगे कहा- "कुटीरे रहिले, मो सभार सुख हबे। ऐछे रह, न हिले व्रजवासी दु:ख पाबे॥ (भ0 र0, पंचम तरंग, 1307) -तुम ऐसे रहते हो वृक्षतले, यह ठीक नहीं। कुटिया में रहा करों, जिससे हम सबको सुख मिले। ऐसे रहोगे तो हम व्रजवासियों को बड़ा दु:ख होगा।" उन्होंने व्रजवासियों को प्रेरणा दे उनके लिए एक कुटिया का निर्माण करवा दियां व्रजवासियों के आग्रह से वे उसमें रहने लगे। उस समय सनातन गोस्वामी के मुख पर छायी रहती तृप्ति की एक उज्ज्वल कान्ति, जो स्वाभाविक रूप से फूट पड़ती है, जब जीवन का उद्देश्य पूरा हो लेता है, जीवन की सभी समस्याओं का हल और सभी रहस्यों का उद्घाटन हो लेता है। उस कान्ति के आलोक में वे अपनी कुटिया के एक कोने में बैठे रहते गम्भीर पांडित्य और उच्चतम आध्यात्मिक उपलब्धियों की सम्पत्ति को दैन्य की ओढ़नी से यत्नपूर्वक छिपाए, दीन-हीन कंगाल के वेश में। फिर भी दूर-दूर से दर्शनार्थी आते इस मानव रूपी देवता के दर्शन करने, तत्ववेत्ता पंडित आते अपनी-अपनी समस्याओं को लेकर उन्हें सुलझाने साधक आते उपदेश ग्रहण करने भक्तिपथ के निराश्रय पथिक आते आश्रय ग्रहण करने। सभी उनके पास आकर तृप्ति लाभ करते, उनके दर्शन कर जीवन सार्थक करते। सनातन गोस्वामी का नियम था गिरि गोवर्द्धन की नित्य परिक्रमा करना। अब उनकी अवस्था 90 वर्ष की हो गयी थी। नियम निबाहना मुश्किल हो गया था। फिर भी वे किसी प्रकार निबाहे जा रहे थे। एक बार वे परिक्रमा करते हु1ए लड़खड़ाकर गिर पड़े। एक गोप-बालक ने उन्हें पकड़ कर उठाया और कहा-"बाबा, तो पै सात कोस की गोवर्द्धन परिक्रमा अब नाँय हय सके। परिक्रमा को नियम छोड़ दे।" बालक के स्पर्श से उन्हे कम्प हो आया। उसका मधुर कण्ठस्वर बहुत देर तक उनके कान मूं गूंजता रहा। पर उन्होंने उसकी बात पर ध्यान न दियां परिक्रमा जारी रखी। एकबार फिर वे परिक्रमा मार्ग पर गिर पड़े। दैवयोग से वही बालक फिर सामने आया। उन्हें उठाते हुए बोला-"बाबा, तू बूढ़ो हय गयौ है। तऊ माने नाँय परिक्रमा किये बिना। ठाकुर प्रेम ते रीझें, परिश्रम ते नाँय।" फिर भी बाबा परिक्रमा करते रहे। पर वे एक संकट में पड़ गये। बालक की मधुर मूर्ति उनके हृदय में गड़ कर रह गयी थी। उसकी स्नेहमयी चितवन उनसे भुलायी नहीं जा रही थी। वे ध्यान में बैठते तो भी उसी की छबि उनकी आँखों के सामने नाचने लगती थी। खाते-पीते, सोंते-जागते हर समय उसी की याद आती रहती थी। एक दिन जब वे उसकी याद में खोये हुए थे, उनके मन में सहसा एक स्पंदन हुआ, एक नयी स्फूर्ति हुई। वे सोचने लगे-एक साधारण व्रजवासी बालक से मेरा इतना लगाव! उसमें इतनी शक्ति कि मुझ वयोवृद्ध वैरागी के मन को भी इतना वश में कर ले कि मैं अपने इष्ट तक का ध्यान न कर सकूँ।नहीं, वह कोई साधारण बालक नहीं हो सकता, जिसका इतना आकर्षण है। तो क्यो वे मेरे प्रभु मदनगोपाल ही हैं, जो यह लीला कर रहे हैं? एकबार फिर यदि वह बालक मिल जाय तो मैं सारा रहस्य जाने वगैर न छोड़ूँ। संयोगवश एक दिन परिक्रमा करते समय वह मिल गया। फिर परिक्रमा का नियम छोड़ देने का वही आग्रह करना शुरू किया। सनातन गोस्वामी ने उसके चरण पकड़कर अपना सिर उन पर रख दिया और लगे आर्तिभरे स्वर में कहने लगे-"प्रभु, अब छल न करो। स्वरूप में प्रकट होकर बताओ मैं क्या करूँ। गिरिराज मेरे प्राण हैं। गिरिराज परिक्रमा मेरे प्राणों की संजीवनी है। प्राण रहते इसे कैसे छोड़ दूं?" भक्त-वत्सल प्रभु सनातन गोस्वामी की निष्ठा देखकर प्रसन्न हुए। पर परिक्रमा में उनका कष्ट देखकर वे दु:खी हुए बिना भी नहीं रह सकते थे। उन्हें भक्त का कष्ट दूर करना था, उसके नियम की रक्षा भी करनी थी और इसका उपाय करने में देर भी क्या करनी थी? सनातन गोस्वामी ने जैसे ही अपनी बात कह चरणों से सिर उठाकर उनकी ओर देखा उत्तर के लिए, उस बालक की जगह मदनगोपाल खड़े थे। वे अपना दाहिना चरण एक गिरिराज शिला पर रखे थे। उनके मुखारविन्द पर मधुर स्मित थी, नेत्रों में करूणा झलक रही थीं वे कह रहे थे-"सनातन, तुम्हारा कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। तुम गिरिराज परिक्रमा का अपना नियम नहीं छोड़ना चाहते तो इस गिरिराज शिला की परिक्रमा कर लिया करो। इस पर मेरा चरण-चिन्ह अंकित है। इसकी परिक्रमा करने से तुम्हारी गिरिराज परिक्रमा हो जाया करेगी।" इतना कह मदनगोपाल अंतर्धान हो गये। सनातन गोस्वामी मदनगोपाल-चरणान्कित उस शिला को भक्तिपूर्वक सिर पर रखकर अपनी कुटिया में गये। उसका अभिषेक किया और नित्य उसकी परिक्रमा करने लगे। आज भी मदगोपाल के चरणचिन्हयुक्त वह शिला वृन्दावन में श्रीराधादामोदर के मन्दिर में विद्यमान हैं, जहाँ जीव गोस्वामी सनातन गोस्वामी के अप्राकट्य के पश्चात् उसे ले आये थे। अन्त के कुछ दिनों में सनातन गोस्वामी शिला के सामने आसन पर बैठ जाते और अर्द्धनिमीलित नेत्रों से नाम-जप करते रहते। उस समय उनका मनोभाव कुछ इस प्रकार का होता- "नाभिनन्दामि मरणं नाभिनन्दामि जीवितं। कालमेव प्रतीक्षेऽहं निदेशं भृतको यथा॥" अर्थात् "हे भगवान्, मैं जीवन नहीं चाहता, मरण भी नहीं चाहता। भृत्य जिस प्रकार स्वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता है, मैं भी उसी प्रकार काल की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।" ऐसी अवस्था में जीवन और मरण के बीच की दीवार टूट जाती है। साधक स्वेच्छा से या इष्ट के इंगित पर किसी समय जीर्णवास छोड़कर इष्ट के साथ उसके धाम को चला जाता है। ऐसे ही एक दिन सनातन गोस्वामी शिला के सम्मुख बैठे भावना में गिरिराज-परिक्रमा कर रहे थे। भावना करते-करते यकायक उनके मुखारविन्द पर छा गयी एक अलौकिक दीप्ति की आभा और शरीर अश्रु-कम्प-पुलकादि सात्विक भावों से परिपूर्ण हो गयां कुछ ही क्षणों में भाव-लक्षण समाधि में विलीन हो गये, नेत्र स्थिर हो गये वर देहस्पन्दनहीन हो गया। परिक्रमा मार्ग में उन्हें मिल गये गिरिधारी और अपने साथ कहीं ले जाने को हुए। सनातन गोस्वामी कुछ ठिठके। उनका मनोभाव जान गिरिधारी ने राधा-मदनमोहन के जुगल रूप में दर्शन दिये। तब उन्होंने इष्ट के चरणों में आत्म-निवेदन किया, पार्थिव, शरीर छोड़ मंजरी-स्वरूप से निकुंज की ओर उनका अनुगमन किया। सनातन गोस्वामी का अप्राकट्य हुआ सन् 1554 की आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन। उस दिन प्रेम-साधना का अलोक-स्तम्भ अन्तर्हित हो गया। समस्त व्रजमंडल पर छा गया शोक और विषाद का अन्धकारं श्रीहरिराम व्यास जैसे रसिक महात्माओं को कहते सुना गया कि साधु-सिरामनि' सनातन गोस्वामी के अन्तर्हित हो जाने से व्रज का साधु-समाज 'अनाथ' हो गया, रस-मन्दाकिनी का मुख्य स्त्रोत अतीत के गर्भ में विलीन हो गयां उसके बिना अब सूखे पत्ते चबाना ही बाकी रह गया-

तिन बिनु 'व्यास' अनाथ भये सब सेवत सूखे पातन। (व्यासवाणी, 22) वृन्दावन में मदनमोहन के मन्दिर के प्रांगण में सहस्त्रों साधु-वैष्णों और व्रजवासियों के प्रेमाश्रुओं की भावभरी श्रद्धांजलि के स उन्हें समाधि दी गयी। सनातन गोस्वामी के विशेष अवदान का वर्णन करते हुए श्रीप्रियादास जी ने भक्तमाल की भक्ति-रस बोधिन टीका में लिखा है- वृन्दावन व्रजभूमि जानत न कोऊ प्राय, दई दरसाय जैसी शुक मुख गाई है। रीति हूं उपासनाकी भागवत अनुसार, लियो रससार सो रसिक सुख दाई है॥ एक और कविने सनातन और रूप के सम्बन्ध में कहा है- को सब त्यजि, भजि वृन्दावन को सब ग्रन्थ विचारत। मिश्रित खीर, नीर बिनु हंसन, कौन पृथकृ करि पारत॥ को जानत, मथुरा वृन्दावन, को जानत व्रज-रीति। को जानत, राधा-माधव रति, को जानत सब नीति॥ सनातन गोस्वामी व्रज के समस्त वैष्णव-समाज के अधिनायक थे। सभी अपने पिता के समान उनका आदर करते थे। इसलिए उस आषाढ़ी पूर्णिमाके दिन सबने मस्तक मुड़वा कर उनके तिरोभाव पर शोक प्रकट किया। तभी से व्रज में आषाढ़ी पूर्णिमा का नाम 'मुड़िया पूर्णिमा' पड़ गया। सनातन गोस्वामी की गिरिराज के प्रति अटूट श्रद्धा थी औ उन्होंने अन्त तक गिरिराज परिक्रमा का अपना व्रत निभाया था। इसलिए उस दिन सभी वैष्णवों ने गिरिराज की परिक्रमा कर उन्हें श्रद्धाजंलि अर्पित की। इसीलिए तब से मुड़िया पूर्णिमा पर विशेष रूप से गिरिराज परिक्रमा करने की प्रथा चली आ रही है। सनातन गोस्वामी द्वारा लिखित ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय सनातन गोस्वामी द्वारा लिखित ग्रन्थों में चार ऐसे हैं, जिनका उनके द्वारा प्रणीत होने के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद या संशय नहीं है, क्योंकि उनका उनके नाम से उल्लेख किया गया है जीव गोस्वामी की लघुतोषणी के उपसंहार में, श्रीकृष्ण दास कविराज के चैतन्य –चरितामृत (2/1/30-31) में और नरहरि चक्रवर्ती के भक्तिरत्नाकर (1/806-808) में। वे हैं- (1) हरिभक्तिविलास की दिग्दर्शनी टीका, (2) 'वृहत् वैष्णवतोषणी' नामकी श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की टीका (3) लीला-स्तव और (4) 'वृहत्भागवतांमृत' और उसकी टीका। हरिभक्तिविलास की दिगदर्शिनी टीका हरिभक्तिविलास महामूल्यवान् वैष्णव-स्मृति है, जिसमें वैष्णवोचित आचार का प्रामाण्य शास्त्र-वाक्यों द्वारा परिपुष्ट विस्तृत वर्णन है। इसके रचयिता श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी हैं। यह ग्रन्थ के प्रारम्भिक श्लोक से स्पष्ट है, जो इस प्रकार है- भक्तोर्विलासांश्चिनुते प्रबोधानान्दस्यशिष्यो भगवतप्रियस्य। गोपालभट्टो रघुनाथदासं सन्तोषयन् रूप-सनातनौ च॥ इसके प्रत्येक विलास के अन्त में भी लेखक रूप में गोपाल भट्ट के ही नाम का उल्लेख है। परन्तु श्रीजीव गोस्वामी ने लघुतोषणी के उपसंहार में, कृष्णदास कविराजने चैतन्य-चरितामृत (2/1/30-31) में और नरहरि चक्रवर्ती ने भक्तिरत्नाकर (1/606-608) में इसे सनातन गोस्वामी की कृति बतलाया है। इसलिए यथार्थ में इसका लेखक कौन है, इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। डा0 दिनेशचन्द्र सेन ने इसका समाधान यह कहकर किया है कि ग्रन्थ के वास्तविक रचयिता सनातन गोस्वामी ही हैं। पर वे यवनों के संसर्ग में रहने के कारण जातिच्युत थे। यदि वे अपने नाम से इसका प्रचार करते तो सर्वसाधारण द्वारा इसके ग्रहण किये जाने की संभावना कम होतीं इसलिए उन्होंने गोपाल भट्टजी के नाम से इसका प्रचार किया, जो दक्षिण देश के एक सुप्रसिद्ध नेष्ठिक और आचारवान ब्राह्मण वंश के थे।(1) सनातन गोस्वामी जातिच्युत थे, इसका कोई प्रमाण देखने में नहीं आता। पर वे स्वयं दैन्यवश यवन राजा के प्रधानमन्त्री रह चुकने के कारण अपने को अस्पृश्य मानते थे। इसलिए यक बिल्कुल संभव है कि इस महत्वपूर्ण स्मृति ग्रन्थ का प्रचार उन्होंने अपने नाम से न कर गोपाल भट्ट के नाम से किया हो। नरहरि चक्रवर्ती ने तो स्पष्ट ही लिखा है कि उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना कर गोपाल भट्ट का नाम ग्रन्थकार के रूप में दे दिया- गोपालेर नामे श्रीगोस्वामी सनातन। करिला श्रीहरिभक्तिविलास वर्णन॥ (भ0 र0 1/198) पर इस सम्बन्ध में उचित मत यह जान पड़ता है कि सनातन गोस्वामी ने एक संक्षिप्त वैष्णव-स्मृति की रचना की और गोपालभट्ट गोस्वामी ने उसका विस्तार किया। इस मत की पुष्टि दो बातों से होती है। एक तो यह कि सनातन गोस्वामी कृत 'लघुहरिभक्तिविलास' नामक एक ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रतियाँ जयपुर के गोविन्द-ग्रन्थकार में और राजशाही वरेन्द्रानुसंधान समिति में वर्तमान हैं। दूसरा यह कि ग्रन्थ के प्रत्येक विलास के शेष में लिखा मिलता है, 'इति श्रीगोपालभट्ट विलिखित। 'विलिखित' का अर्थ है विशेषरूप से लिखित या विस्तार से लिखित । यदि गोपाल भट्ट ने मूल रूप में इसकी रचना की होती तो वे 'विलिखित' की जगह 'लिखित' शब्द का ही प्रयोग करते।(2) मनोहरदास की अनुरागवल्लीकी निम्न पंक्तियों से भी इस मतका समर्थन होता हैं- श्रीसनातन गोस्वामी ग्रन्थ करिल। सर्वत्र आभोग भट्ट गोसाईं दिल॥ (1म मंजरी) वास्तविकता यह है कि गोस्वामीगण सभी मिलकर भगवत्तत्व की आलोचना करते थे। श्रीभगवान् उनके अन्त:करण में जो भाव परिस्फुरित करते थे, उसी के अनुसार ग्रन्थों की रचना करते थे, अपनी स्वतंत्र बुद्धि से कुछ नहीं लिखते थे। इसलिये अपने को ग्रन्थ-कर्ता भी नहीं मानते थे। पर जो भी हो, हरिभक्ति विलास की दिग्दर्शिनी टीका के रचयिता (1) Dr. D. Sen : The Vaisnava Leterature of Medieval Bengal. hh. 37-38. (2) डा0 जाना: वृन्दावनेर छय गोस्वामी, पृ0 75। सनातन गोस्वामी हैं, इस सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं है। श्रीरामनारायण विद्यारत्न ने उसे जीव गोस्वामी कृत अवश्य कहा है। पर उसका कोई मूल्य नहीं, क्योंकि जीवगोस्वामी ने स्वयं हरिभक्तिविलास और उसकी टीका दोनों को सनातनकृत लिखा है। हरिभक्तिविलास का ठीक रचना काल भी निर्धारित करना कठिन है। पर इतना निश्चित है कि इसकी रचना सन् 1541 के पूर्व हुई। क्योंकि रूप गोस्वामी के भक्तिरसामृतसिन्धु में इसका उल्लेख है। भक्तिरसामृतसिन्धु का रचना काल सन् 1541 है। वृहद्-वैष्णवतोषणी वृहद्-वैष्णवतोषणी, श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की विस्तीर्ण टीका, सनातन गोस्वामी की शास्त्र-साधना का चरम फल है। ग्रन्थ के आरम्भ में उन्होंने लिखा है कि इस टीका में उन्होंने उन सब विषयों को खोलकर लिखा है, जो श्रीधर गोस्वामी की टीका में अस्पष्ट रह गये हैं। पर वास्तविकता यह है कि उन्होंने इसमें सभी विषयों की जैसी पांडत्यपूर्ण और रसमयी व्याख्या की है, वैसी किसी प्राचीन टीका में देखने को नही मिलती। कारण यह है कि उन्होंने श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य-भाव को छोड़ उनके माधुर्य-भाव पर जितना बल दिया है, उतना प्राचीन टीकाकारों ने नहीं दिया। जीव गोस्वामी ने वैष्णव तोषणी का एक संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित किया है। जो 'लघुतोषणी' के नाम से जाना जाता है। उसके अन्त में उन्होंने वृहद्-वैष्णवतोषणी का रचना-काल 1476 शकाब्द, अर्थात सन् 1554 लिखा है। इससे स्पष्ट है कि इसकी रचना करते समय सनातन गोस्वामी अति वृद्ध थे और जिस वर्ष इसकी रचना समाप्त हुई उसी वर्ष उन्होंने नित्य-लीला में प्रवेश कियां लीलास्तव श्रीजीव गोस्वामी ने 'लीलास्तव' नामक सनातन गोस्वामी के एक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। श्रीकृष्णदास कविराज ने चैतन्य-चरितामृत में –दशम चरित' नामक सनातनकृत एक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। (चै0 च0 2।1।30)। नरहरि चक्रवर्ती ने स्पष्ट किया है कि दशम चरित लीलास्तव का ही दूसरा नाम है (भ0 र0 1।807-808), क्योंकि इसमें भागवत के दशम स्कन्ध के प्रथम पैंतालीस अध्यायों में से प्रत्येक का लीला-सूत्र नामाकार में वर्णित है। इनके अतिरिक्त और कई ग्रन्थ सनातन गोस्वामी के नाम पर आरोपित हैं, पर उनका सनातनकृत होने के सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं। इतना निश्चित है कि उस समय के कुछ अन्य लोगों द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में भी हरिभक्तिविलास की तरह सनातन गोस्वामी का हाथ है, जैसे श्रीरूप गोस्वामी के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में। उस समय व्रजमंडल में कोई गौड़ीय साधक या शास्त्रविद् कोई ग्रन्थ लिखता तो उसके लिए सनातन गोस्वामी का सहयोग या समर्थन प्राप्त करना आवश्यक होता, क्योंकि उसके बिना भक्त-समाज में उसके ग्रहण किये जाने की सम्भावना ही न होती। वृहद्-भागवतामृत वृहत्-भागवतामृत जैसा सनातन गोस्वामी के शास्त्र ज्ञान का परिचायक है, वैसा ही उनकी आध्यात्मिक अनुभूतियों का। इसमें उन्होंने भक्ति-शास्त्र के विशाल सागर का मन्थन कर सार तत्व को बड़े सरल और आकर्षक ढंग से उपस्थित किया है। यह उनकी क्रमिक आध्यात्मिक उपलब्धियों और उच्चस्तरीय रसानुभूतियों का मनोरम उपाख्यान के द्वारा हृदयस्पर्शी वर्णन है। यह दो खण्डों में लिखा गया है। प्रथम खण्ड में यह दिखाने की चेष्टा की गयी है कि भगवान् का सबसे अधिक कृपापात्र कौन है। दूसरे में भक्ति के विभिन्न सोपानों का वर्णन है। प्रथम खण्ड के नायक हैं नारद। वे भगवान के सबसे अधिक कृपापात्र भक्त की खोज में ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते हैं। सर्वप्रथम प्रयाग तीर्थ के एक ब्राह्मण को भगवान का सबसे अधिक कृपापात्र जान उसकी प्रशंसा करते हैं। ब्राह्मण दाक्षिणात्य के एक क्षत्रिय राजा को भगवान् का परमप्रिय भक्त निर्धारित करता है। नारद उस राजा के पास जाते हैं, तो वह ब्रह्मा को भगवान् का परमप्रिय भक्त बताते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मा शिव को, शिव प्रह्लाद को, प्रह्लाद पाण्डवों को, पाण्डव यादवों को, विशेष रूप से उद्धव को, उद्धव व्रज की गोपियों को और उनमें भी राधा को भगवान् का सबसे अधिक कृपापात्र बताते हैं। प्रत्येक अपने मत की पुष्टि में जो कारण उपस्थित करता है, उससे भक्तों की विभिन्न श्रेणियों की विशेषतायें प्रकाश में आती हैं। दूसरे खण्ड के नायक हैं गोवर्धनवासी एक गोपकुमार, जिनके गुरू हैं गौड़देश में गंगातट पर जन्मे जयन्त नाम के एक ब्राह्मण। जयन्त के स्वरूप और भाव का जैसा वर्णन है, उसके आधार पर कुछ लोगों का निश्चित मत है कि जयन्त नाम से सनातन गोस्वामी ने श्रीचैतन्य महाप्रभु को इंगित किया है और गोपकुमार नाम से स्वयं अपने आप को।(1) (1) जाना: छय गोस्वामी, पृ0 73 गोपकुमार गुरूदत्त मन्त्र का जप करते हुए प्रयाग, जगन्नाथपुरी और वृन्दावन गये। मन्त्र के ही अचिन्त्य प्रभाव से वे स्वर्गलोक, महर्लोक, तपोलोक और सत्यलोक गये। इस यात्रा में वे पहले राजा बने, फिर इन्द्र के पद को प्राप्त हुए और फिर ब्रह्मा के पद को। पर इन लोकों और पदों के वैभव को प्राप्त करके भी उन्हें तृप्ति न हुई। इसलिए ब्रह्मत्व त्यागकर वे पृथ्वी पर मथुरा लौटे। वहाँ गुरूदेव ने कहा-"वत्स! मैंने तुम्हें मन्त्र के रूप में अपना सर्वस्व दान कर दिया है। उसके प्रभाव से तुम सब कुछ जान जाओगे। और तुम्हारी सर्वार्थ सिद्धि होगी।" वे मन्त्र जप करते रहे। उसकें प्रभाव से उन्हें प्रतीत होने लगा कि उनका पाञ्चभौतिक देह एक अपार्थिव देह में परिणत हो गया है। तब वे मन्त्र के प्रभाव से उस अपार्थिव देह से क्रमश: शिवलोक, वैकुण्ठ, अयोध्या, द्धारका और गोलोक गये। गोलोक में उन्हें अपने इष्ट मदनगोपाल के दर्शन हुए और वे उनकी नित्यलीला में प्रवेश कर गये। इस आध्यात्मिक आख्यामिका के माध्यम से सनातन गोस्वामी ने इस सभी लोकों का सुन्दर चित्रांकन किया है, उन भगवत्-स्वरूपों ने वर्णन किया है, जो इनका संचालन और शासन करते हैं और उस सुख का वर्णन किया है, जो उनके सान्निध्य में उनके भक्तों को मिलता है। यह सभी लोक बहुत आकर्षक होते हुए भी गोपकुमार की आत्मा को सन्तुष्ट नहीं करते। वे निरन्तर अपने मन्त्र का जप करते रहते हैं और जिस लोक में जाते हैं, उसमें प्रकट भगवद्स्वरूप से मदनगोपाल की कृपा और गोलोक प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। वृहद्भावतामृत का महत्व बंगाल के श्रीअतुलकृष्ण गोस्वामी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है:"वैष्णवधर्म का मर्म जानने के लिए साधन-भजन के सुगम सोपान का अबलम्न करने के लिए, विविध लोकों और विविध अवतारों का तत्व जानने के लिए, और श्रीराधाकृष्ण के पादपद्म की प्राप्ति कराने के लिए यदि कोई चोटी का ग्रन्थ है तो वृहद्भागवतामृत है।...................... सरल कहानी के माध्यम से सभी सिद्धान्तों की अभिज्ञता उत्पन्न करने वाला, एक शब्द में, अति सहज रूप से जिससे मानव-जन्म सफल हो सके ऐसा उपाय बतानेवाला और कोई ग्रन्थ नहीं है।"(1) ग्रन्थ में कुछ जटिल और दुर्बोध विषयों को सरल करने के लिए सनातन गोस्वामी ने स्वयं ही 'दिग्दर्शिनी' नाम की इसकी विस्तृत टीका लिखकर इसकी उपादेयता और बढ़ा दी है। (1) श्री सतीशचन्द्र मित्र द्वारा श्रीजयगोविन्ददास के वृहद्भागवतामृत के बंगला पद्मानुवाद में श्री अतुलचन्द्र गोस्वामी के सम्पादकीय लेख से उद्धृत (सप्त गोस्वामी, पृ0 125) वृहद्भागवतामृत द्वारा प्रतिपादित सनातन गोस्वामी का भक्ति-सिद्धान्त भगवत्ता का सार माधुर्य वृहद्भागवतामृत का मूल उद्देश्य है 'दो गूढ़तम रहस्यों का उद्घाटन करना। एक तो यह कि भगवान् का ज्ञान नहीं है। वे जैसे अपनी भगवत्ता को बिलकुल भूले हुए हैं। उन्हें अभिमान है अपने गोपवेश-मोरपिच्छ-बंसीधारी-लीला-कौतुक-प्रिय, नीलकान्ति, युक्त नवकिशोर, नटवर गोपाल होने का। वे मधुर से भी मधुर हैं। उनका रूप-रंग बोलना-चालना, उठना-बैठना, चलना-फिरना, नाचना-गाना, खेलकूद और हास-परिहास सभी कुछ अति मधुर है। माधुर्य ही उनकी भगवत्ता का सार है। जिस भगवत् स्वरूप में माधुर्य का जितना विकास है, उसमें उतना ही ऐश्वर्य का प्रकाश कम है। उनके इस पूर्णतम रूप में माधुर्य का पूर्णतम विकास है। इसलिये इस रूप में यद्यपि उनके ऐश्वर्य का भी पूर्णतम विकास है, ऐश्वर्य माधुर्य से पूर्णत: आच्छादित है। उसका उन्हें किंचित भी ज्ञान नहीं। वे साधारण गोप बालकों के साथ उन्हीं की तरह खेलते हैं, उन्हें अपने कन्धे चढ़ाते हैं, उनके कन्धे चढ़ते हैं, उनका जूठा खाते हैं, उन्हें अपना जूठा खिलाते हैं। साधारण बालकों की तरह ही नन्दबाबा की पादुका अपने सिर पर उठाकर ले जाते हैं, माँ यशोदा द्वारा ताड़ित होने पर भय खाते हैं, रो देते हैं। यह सब उनका नाटक बिलकुल नहीं होता। नाटक होता, यदि उन्हें अपनी भगवत्ता का ज्ञान रहता। यदि नाटक होता तो उन्हें वह रसानुभूति भी न होती, जिसका इन मधुर लीलाओं के माध्यम से आस्वादनकर वे श्रुतिके "रसो वै स:" वाक्य को सार्थक करते हुए अपने अखिलरसामृत-मूर्ति रूप का परिचय देते हैं।? भगवान का भक्तवात्सल्य दूसरा रहस्य, जिसका सनातन गोस्वामी ने उद्घाटन किया है, यह है कि भगवान् सब प्रकार से पूर्ण, आत्माराम, आंप्तकाम होते हुए भी अपने भक्तों का प्रेम रस आस्वादन करने के लिए सदा उत्कंठित हैं, लालायित हैं। उन्हें अपने स्वरूपानन्द से भी भक्तों की सेवा से उत्पन्न आनन्द का लोभ अधिक है। आत्मानन्द से प्रेमानन्द कोटिगुना अधिक आस्वाद्य हैं। प्रेम का स्वभाव हैं अतृप्ति। प्रेम जितना अधिक होता है, उतना ही उसकी कमी का अनुभव होता है, उतना ही उसकी भूख और अधिक होती है। भगवान् का प्रेम अनन्त हैं। इसलिए उनकी प्रेम की भूख भी अनन्त है। अनन्त कोटि भक्तों के प्रेम का आस्वादन करके भी वे अतृप्त हैं। इसलिए अनन्तकोटि जीव, जो उनसे विमुख हैं, उनके उन्मुख होने पर उनके प्रेम का सुख आस्वादन करने की आशा से उनका हृदय सदा उद्वेलित है। जीव उनका भजन नहीं करते, तो भी वे उनका भजन करते हैं, उन्हें किसी प्रकार अपनी ओर उन्मुख करने के लिए यत्नशील रहते हैं।(1) वृहद्भागवतामृत में वैकुण्ठाधिपति श्रीनारायण की गोपकुमार के प्रति उक्ति से इस रहस्य का उद्घाटन भली प्रकार होता है। गोपकुमार के वैकुण्ठ में प्रवेश करने पर उन्होंने भावगद्गद् कण्ठ से उनसे कहा-"वत्स! स्वागत है! स्वागत है! मैं चिरकाल से तुम्हारे दर्शन के लिए उत्कंठित था। बड़े सौभाग्य की बात है जो आज तुम्हारे दर्शन हुए। तुमने बहुत जन्म व्यतीत किये, पर किंचिन्मात्र भी मेरी ओर उन्मुख न हुए। तुम्हारी उपेक्षा देख मैं बहुत दु:खी हुआ। इसलिए अपने ही बनाये मर्यादा-मार्ग का लंघन कर तुम्हें गोवर्धन में जन्म दिया ओर स्वयं जयन्त नाम के तुम्हारे गुरू रूप में अवतीर्णहुआ। तब यह आशा बंधी कि इस बार अवश्य तुम मेरी ओर अग्रसर होगे। इस आशा को हृदय में धारणकर मैं अनवरत आनन्द से नृत्य करता रहा हूँ। तुमने मेरी आशा सफल की। अब स्थिर रूप से यहाँ रहकर मुझे सुखी करो और तुम भी सुखी हो।" (वृ0 भा0 2।4।81-87)॥ यह हैं वैकुण्ठधीश्वर श्रीनारायण के गोपकुमार के प्रति प्रेमोद्गार। पर नारायण में ऐश्वर्य की प्रधानता है। उनका माधुर्य ऐश्वर्य से आच्छादित है। अयोध्यापति राम, द्वारकाधीश, श्रीकृष्ण और वृन्दावन बिहारी श्रीकृष्ण में क्रमश: माधुर्य का अधिक विकास हैं माधुर्य का सार है प्रेम। इसलिए उनमें प्रेम और भक्त-वत्सलता का भी क्रमश: अधिक विकास है। वृन्दावन बिहारी, मोरपिच्छ-वंशीधारी श्रीकृष्ण में माधुर्य की पराकाष्ठा हैं। इसलिए उनमें भक्तवत्सलता की भी पराकाष्ठा हैं। भगवत्-स्वरूपों में माधुर्य और भक्तवात्सल्य का क्रमिक विकास सनातन गोस्वामी ने वृहद्भागवतामृत में विभिन्न भगवद्स्वरूपों में माधुर्य के क्रमिक विकास के अनुसार भक्तवात्सल्य के विकास का चित्रण बड़े सुन्दर ढंग से किया है। गोपकुमार सख्यभाव के उपासक थे। दशाक्षर मन्त्रराज का वे सदा जप करते रहते थे। उसके प्रभाव से इष्ट के प्रति भय, सम्भ्रम, गौरवादि उनमें बिल्कुल नहीं रह गया था। इसलिए जब वे वैकुण्ठ में नारायण के निकट पहुँचे तो उन्हें देखते ही प्रेमावेश में उन्हें आलिंगन करने को उनके सिंहासन की ओर दौड़े। उनके पार्षदों ने ऐसा करने से उन्हें रोका, क्योकि ऐसा करना वैकुण्ठनाथ की मर्यादा और गौरव के विरूद्ध था। (1) गीता के"ये यथा मां प्रपद्यन्ते, तांस्तथैच भजाम्यहम्" वाक्य का आशय कुछ लोग यह समझते हैं कि भगवान् उन्ही का भजन करते हैं, जो उनका भजन करते हैं। पर सनातन गोस्वामी ने इस रहस्य का उद्घाटन किया है कि वे अपने स्वाभाव से उनका भी भजन करने को, (उनकी चिंता करने को) बाध्य हैं, जो उनका भजन नहीं करते। वैकुण्ठनाथ उन्हें प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए, बचनों से उनका सत्कार किया। पर ऐसा कोई व्यवहार नहीं कया, जो गोपकुमार को सम्भ्रम-संकोच-रहित मनोवृत्ति के अनुकूल हो। जब उनके भोजन का समय आया, उनके पार्षदों ने महालक्ष्मी के इंगित पर उन्हें कौशलपूर्वक अन्त:पुर से बाहर कर दिया। जब वे अयोध्या पहुँचे और श्रीरामचन्द्र के दर्शन किये तो उन्होंने स्वयं उनसे गौरव-बुद्धि त्याग देने को कहा और बोले- हे सुहृत्तम्! तुम मेरे प्रति स्नेह से प्रेरित हो यहाँ चले आये हो। कुछ देर विश्राम करो, प्राणामादि करने का कष्ट न करो। तुम्हारा कष्ट देखकर मुझे भी कष्ट होता है, क्योंकि तुम मेरे चिरबन्धु हो। मैं तुम्हारे प्रेम के सदा अधीन हूँ।" गोपकुमार उनके वचनों से परमसंतुष्ट हुए। पर वे पूर्वाभ्यास और दशाक्षर मन्त्र-जप के प्रभाव के कारण रामचन्द्र में मदनगोपाल के रूपगुणादि का आरोप करते और तदनुरूप उनके आलिंगन-चुम्बनादि सहित प्रेमपूर्ण व्यवहार की आशा करते। उन्हें जब उनकी इस प्रकार की लीला-माधुर्य और कृपा का अनुभव न होता, तब वे शोकातुर हो पड़ते। यह देख रामचन्द्र ने द्वारकापुरी को उनके भाव के अधिक उपयुक्त जान उन्हें वहाँ भेज दिया। द्वारकापुरी में गोपकुमार राज-राजेश्वर के वेश में अपने इष्ट श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी के दर्शन कर आनन्द-समुद्र में डूब गये। क्षण भर में उन्हें मूर्छा आ गयी। उद्धवजी ने यत्नपूर्वक उन्हे सचेत किया। फिर भी वे प्रभु के दर्शन कर आनन्दातिरेक के कारण इतना विवश थे कि उनकी स्तुति आदि कुछ नहीं कर पा रहे थे। प्रभु स्वयं उन्हें अपने निकट ले आने के लिए जैसे ही आगे बढ़े, उद्धव ने उन्हें बलपूर्वक खींचकर उनका मस्तक उनके चरणों पर रख दिया। प्रभु ने अपने हस्त कमल से उनका अंग मार्जन किया और कुशल-प्रश्न पूछे। फिर उनका हाथ पकड़कर अन्त:पुर में रोहिणी, देवकी माता और सोलह हजार आठ महिषियों के बीच ले गये। वहाँ गोपकुमार की वंशी लेकर उन्होंने जैसे ही अपने हाथ में धारण की उनकी भावमुद्रा गोकुल के मदन गोपाल जैसी हो गयी। उनमें अपनी ध्यानध्येय मूर्ति के दर्शन कर गोपकुमार को फिर आनन्दमूर्छा आ गयी। तब द्वारकाधीश ने अपने हस्तकमल से उनका गात्र मार्जन किया। प्रबोध वाक्यों द्वारा उन्हें सचेत किया। फिर अपने हाथ से पहले उन्हें भोजन कराया, पीछे स्वयं भोजन किया। गोपकुमार परमानन्दपूर्वक द्वारकापूरी में रहने लगे। यहाँ का आनन्द वैकुण्ठ और अयोध्या के आनन्द से भी कोटिगुना श्रेष्ठ था। विशेष रूप से यहाँ वे अपने इष्टदेव श्रीव्रजेन्द्र कुमार की अनुपम रूप माधुरी के दर्शन कर, अपने प्रति सौहार्दपूर्ण व्यवहार को देखकर और उनके अमृतमय, करूणापूर्ण वचनों को सुनकर जिस सुख का अनुभव करते उसकी तुलना नहीं की जा सकती। फिर भी उन पर एक अनिर्वचनीय उदासी छायी रहती। उनके मुखारविन्द पर अतृप्ति के लक्षण स्पष्ट दिखाई देते । कारण यह था कि द्वारका में उनके इष्ट का सान्निध्य और उनका प्रेम पूर्ण व्यवहार था, तो भी वे राजैश्वर्य की मर्यादा से बंधे हुए थे। यहाँ न तो उनके साथ गोचारण और खेल-कूद आदि का अवसर था, न व्रज का आलिंगन-चुम्बन आदि का उन्मुक्त वातावरण, जिसकी उन्हें ध्यान में स्फूर्ति हुआ करती। एक दिन नारद मुनि ने उनकी अवस्था जानकर उपदेश किया-तुम्हारी पूर्ण तृप्ति गोलोक में ही सम्भव है। तुम व्रजभूमि में जाकर स्मरण-कीर्तनादि साधन द्वारा गोलोक प्राप्ति का उद्योग करो। वहीं तुम्हारा साधन सुचारू रूप से सम्पन्न हो सकेगा, क्योंकि वह पृथ्वी पर स्थित होते हुए भी वैकुण्ठ के ऊपर स्थित गोलोक से अभिन्न है। द्वारकानाथ तुम्हारी अवस्था से अवगत है। वे स्वयं तुम्हें वहाँ पहुँचा देंगे।" नारद मुनि के वचनामृत सुन गोपकुमार मोहदशाको प्राप्त हुए उनके नेत्र मुद्रित हो गये। उन्होंने अनुभव किया कि उन्हें कोई कहीं ले जा रहा है। कुछ देर में नेत्र-खोले तो देखा कि वे गोलोक में उपस्थित हैं। गोलोक में गोलोक-स्थित मथुरा-वृन्दावन में श्रीकृष्ण का अन्वेषण करते हुए वे गोपराज नन्द की पुरी पहुँचे। श्रीकृष्ण उस समय गोचारण को गये हुए थे। इसलिए संध्या समय वे जमुना के किनारे उनके आगमन-पथ पर जा खड़े हुए और उत्काण्ठा सहित उस ओर दृष्टि लगाए खड़े रहे, जिस ओर से नन्दनन्दन आने वाले थे। थोड़ी देर में गायों का हम्बारव और प्राण-आकर्षिणी मुरली की मधुर ध्वनि सुनाई दी। एक स्निग्ध श्यामल कान्ति से दसों दिशाये उज्ज्वल हो गयी। मनोरम अंग-गन्धने वातावरण को उन्मत्त कर दिया। फिर एक ही क्षण में वन्य-वेष में मोरमुकुट बंसीधारी श्रीकृष्ण के मृदुमन्द-हास्ययुक्त प्रफुल्ल मुख कमल की अपूर्व सौन्दर्यराशि के दर्शन कर वे मोह दशा को प्राप्त हुए। श्रीकृष्ण ने उन्हें देख श्रीदाम से कहा-"वह देख! मेरा प्यारा सखा आ गया,"और कहते-कहते उनकी ओर दौड़ पड़े। गोपकुमार को जब चेतना आई तो उन्होंने देखा कि नन्दनन्दन के साथ वे भूमि पर पड़े हैं। नन्दनन्दन प्रेम के आवेश में उन्हें अपने बाहुपाश में कसे हुए मूर्च्छित अवस्था को प्राप्त हो गये है। उनके दोनों नेत्रों से प्रवाहित अश्रुधारा के वेग से रजोमय पथ पंकिल हो गया हैं। गोपियाँ उन्हें देखकर लज्जाहीन हो रोदन करती हुई कह रही हैं-"हाय! हमारे प्राणनाथ को यह क्या हुआ? क्या यह व्यक्ति कंस का कोई मायावी अनुचर है, जिसके आते ही उनकी ऐसी दशा हो गयी?" कृष्ण के साथी गोपगण भी उच्च स्वर से रोदन कर रहे हैं। उस क्रन्दनध्वनि को दूर से सुन नन्दादि गोपगण और पुत्रवत्सला यशोदा आदि वृद्धा गोपियाँ भी वहाँ आ गये हैं और कृष्ण को मूर्च्छित देख हा-हा खा रहे है। पशुगण कतरतासूचक शब्द करते-करते उनके निकट आकर उनके श्रीअंग को सूंघ-सूंघकर उसे चाट रहे हैं। पक्षी उनके ऊपर आकाश में मँडराते हुए शोक-सूचक कोलाहल कर रहे हैं। गोपकुमार मर्माहत और किंकर्तव्यविमूढ़ से यत्नपूर्वक श्रीकृष्ण के बाहुपाश से अपने को मुक्त करते हुए उठे और उनके चरण युगल मस्तक पर धारण कर बहुत-कुछ विलाप करते हुए रोदन करने लगे। इतने में बलराम आये पीछे से भागते हुए। उन्हें गोपकुमार को देख श्रीकृष्ण को मूर्च्छा का रहस्य समझने में देर न लगी। उन्होंने गोपकुमार की बाँह श्रीकृष्ण के गले में डाल दी, उनके हाथ से श्रीकृष्ण के अंग का मार्जन करवाया, और दीन वाक्यों द्वारा उच्च स्वर से उन्हें बुलवाते हुए भूमि से उठवाया। तब उनके नेत्रों को, जो अश्रुधार के कारण मुद्रित हो रहे थे, खुलवाया। सखा के हाथ के स्पर्श से उन्हें कुछ बाह्य ज्ञान हुआ। विकसित नेत्रों से उन्हें देखते ही उन्होंने उनका आलिंगन-चुम्बन किया। जैसे बहुत दिनों के बिछुड़े अपने प्राणप्रिय सखा को प्राप्त कर कोई परमानन्दित होता है, उस प्रकार परमानन्दित हो अपने बायें हस्त कमल से उनका दाहिना हाथ पकड़ कर उनसे बहुत-से कुशल-प्रश्न किये। तब झूमते-झूमते उनके साथ पुर में प्रवेश किया। गोदोहन के पश्चात् अन्त:पुर में उन्हें ले जा कर माता यशोदा की बन्दना करवाई। यशोदा माँ ने उनके प्रति कृष्ण का अतिशय प्रेम देख उनका भी अपने पुत्र के समान लालन-पालन किया। स्नानादि कर कृष्ण ने नन्दबाबा और बलराम के साथ भोजन गृह में प्रवेश किया। श्रीनन्द कनकासन पर विराजमान हुए। श्रीकृष्ण उनके बाई ओर बैठे, बलराम दाई ओर। गोपकुमार को श्रीकृष्ण ने आग्रहपूर्वक सामने बैठाया। यशोदा माँ ने परिवेशन प्रारम्भ किया। उसी समय ब्रजसुन्दरियाँ अपने-अपने घर से नाना प्रकार की भोज्य सामग्री लेकर आयीं। श्रीकृष्ण ने प्रशंसा सहित उन्हें आरोगा और अपने हाथ से गोपकुमार को खिलाया। जब श्रीराधा द्वारा लाये गये लड्डू उनके सामने रखे गये, तो उनका एक कण जिह्वा से स्पर्श करते ही उन्होंने राधा की ओर देखते हुए ऐसा मुंह बनाया जैसे वह नीम की तरह कड़वा हो और यह कहते हुए कि 'हे राधे! यह लड्डू तुम्हारे वंश में जात इस व्यक्ति के ही योग्य हैं' गोपकुमार को उन्हें दे दिया। इस परिहास के छल से उन्होंने गोपकुमार को वह वस्तु प्रदान की जिससे अधिक और कुछ देने को उनके पास न था। गोलोक में गोपकुमार को अभीष्ट फल की पूर्ण रूप से प्राप्ति हुई। वे नित्य वहाँ रहकर युगल की नित्य नयी रूप-माधुरी, नित्य नयी लीला-माधुरी और उनकी प्रेम-सेवा के अनिर्वचनीय रस का आस्वादन करने लगे। साध्य भगवान् नहीं, भगवत्प्रेम है वृहद्भागवतामृत की आख्यायिका के बीच में गोपकुमार को समय-समय पर दिये गये नारदादि के उपदेशों के माध्यम से सनातन गोस्वामी ने साध्य-साधन तत्व का भी निरूपण किया है। साध्य मुक्ति नहीं, भगवान् भी नहीं, भगवत्प्रेम है। प्रेम प्राप्त हो जाने पर भगवान् स्वयं भक्त से वशीभूत हो जाते हैं और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में उसका तुच्छ भाव हो जाता है (2/7/106)। मुक्ति-सुख भक्ति-सुख का विरोधी हैं, क्योंकि मुक्ति-सुख सीमित और तृप्तिजनक है। भक्तिसुख असीम है, सदा वर्धनशील हैं, क्योकि भगवान् का स्वरूप सदा एक होते हुए भी नित्य नवीन है वे नित्य नयी रूप-माधुरी और नयी-नयी लीलाओ को प्रकट कर भक्तों को सुखी करते है। यही भक्तों के प्रति उनकी करूणा की पराकाष्ठा है (2/2/217-219)। मुक्ति की अवस्था में आत्माराम मुनियों को केवल एक ही सुख का अनुभव होता है। मन की वृत्ति के अभाव के कारण उसका विस्तार सम्भव नहीं होता। वह उत्कण्ठा-रहित और शून्य –सा प्रतीत होता हैं। भक्तों में वही सुख मन की वृत्ति के कारण कई गुना अधिक हो जाता है, उसी प्रकार जिस प्रकार आकाश स्थित सूर्य का प्रकाश स्फटिक मणि पर पड़ने से कई गुना अधिक हो जाता है (2/2/215)। मुक्ति भक्ति का गौण फल है, पर आत्मारामता भक्ति का गौण फल भी नहीं है। आत्मारामता प्रेम की विरोधी है, क्योंकि इससे उत्कण्ठा का नाश होता है। प्रेम का स्वरूप ही है सदा अतृप्त रहना अर्थात् आत्मारामता का न होनां आत्मारामता का न होना भक्ति का दूषण नहीं, भूषण है। (2/2/209-211) नारद मुनि ने भगवान् से वर मांगा कि भक्ति या प्रेम में किसी को कभी तृप्ति न हो, तो भगवान् ने उत्तर दिया-"यह तो मेरी भक्ति का स्वभाव ही है। आपने क्या मेरे किसी भक्त को कभी तृप्त देखा है?" (1/7/135-139) प्रेम-प्राप्ति का साधन प्रेम-प्राप्ति का मुख्य कारण श्रीकृष्ण की कृपा हैं। किसी-किसी पर यह कृपा अकस्मात् हो जाती है; कोई इसे साधन द्वारा क्रम से लाभ करते है, जैसे कोई उदार दाता किसी की बना हुआ भोजन दानं कर देता है, किसी को सीधा दे देता है, जिससे उसे भोजन स्वयं तैयार करना पड़ता है (2/5/215-216)। प्रेम-प्राप्ति के साधक को पहले उसे भय को दूर कर देना चाहिए, जो उसे श्रीकृष्ण को ईश्वर जानने के कारण लगता है। उसे श्रीकृष्ण में बन्धु-भाव रखना चाहिए। उनसे दास, सखा, माता-पिता या कान्ता का लौकिक नाता जोड़कर उस भाव के व्रज गोप-गोपी के आनुगत्य में भजन करना चाहिएं भजन नवधा-भक्ति के अनुरूप होना चाहिए। उसमें श्रीकृष्ण की व्रज-लीलाओं का ध्यान-गन और उसमें भी प्रभुका नाम- संकीर्तन मुख्य होना चाहिए। यह साधन श्रीकृष्ण की प्रिय क्रीड़ाभूमि व्रज में रहकर करना चाहिए, क्योंकि वहाँ रहकर करने से निश्चित रूप से प्रेम की प्राप्ति शीघ्र हो जाती हैं (2/5/215-220)। कीर्तन-भक्ति स्मरण-भक्ति से श्रेष्ठ है, क्योकि स्मरण-भक्ति एकमात्र चंचल मन में ही प्रकाशित होती है और कीर्तन-भक्ति जिह्वा, कान तथा मन में प्रकाशित होती हैं और आस-पास रहने वाले दूसरे जीवों को भी प्रभावित करती है (2/3/148)। श्रीकृष्ण की प्रेम रूप सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए नाम-संकीर्तन ही बलवान तथा श्रेष्ठ साधन है, क्योंकि यह आकर्षण-मन्त्री की तरह श्रीकृष्ण को साधक के पास खींच लाने की सामर्थ्य रखता है (2/3/164)। पर यदि ध्यान के प्रभाव से समस्त इन्द्रियों की वृत्तियाँ अन्तर्मुख होकर मन की वृत्ति में प्रकाशित हो जायें, अर्थात् ध्यान अवस्था में श्रवण-कीर्तन-दर्शन आदि मन में बाहर की तरह प्रकाश पाने लगें, तो इस प्रकाश का ध्यान बाह्य कीर्तनादि की अपेक्षा श्रेष्ठ है (2/3/151)। वैसे कीर्तन और ध्यान को एक-दूसरे से बिल्कुल प्रथक नहीं समझना चाहिए, क्योंकि कीर्तन से ध्यान का सुख बढ़ता है, ध्यान से कीर्तन का (2/3/153)। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि साधारण रूप से कीर्तन को सब साधनों से श्रेष्ठ माना गया हैं, तो भी जिसकी जिस साधन में सम्यक प्रीति हो, जिससे उसे पूर्णरूप से सुख प्राप्त होता हो, उसके लिए वही साधन सर्वश्रेष्ठ हैं। उसे उसी का अनुष्ठान करना चाहिए, क्योंकि उसके लिए वह साधन फलरूपी ही है (2/3/152)। इसका यह अर्थ नहीं कि निष्काम भक्ति के अनुष्ठानों के अतिरिक्त कर्म, ज्ञानादि और किसी साधन से प्रेम की प्राप्ति हो सकती है। कर्म, ज्ञानादि साधनों की प्राप्ति और निष्काम भक्ति की प्राप्ति में बहुत अन्तर है। सकाम पुण्यकर्म करने वाले गृहस्थियों को भू: भुव: स्व: इन तीनों लोकों की प्राप्ति होती है। निष्काम-कर्म करने वाले गृहस्थी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा संन्यासियों को, इनसे ऊपर मह: जन: तपं, सत्यं इन चार लोकों की प्राप्ति होती है। भोग समाप्त होने पर यह सब फिर भूमण्डल पर आकर जन्म ग्रहण करते हैं। जो महर्लोकादिकों को प्राप्त होते हैं, उनमें से कोई-कोई ब्रह्माजी के साथ मुक्त हो जाते हैं। जो भगवान् के सकाम भक्त हैं वे अपनी इच्छा से सब सुख भागों को भोगते हुए, विशुद्ध होकर भगवद्धाम को प्राप्त होते हैं। पर जो भगवान् के निष्काम भक्त हैं, वे तत्क्षण उस वैकुण्ठ को प्राप्त होते हैं, जो सच्चिदानन्द-स्वरूप हैं, और मुक्त पुरूषों को भी दुर्लभ है। (2/1/10-15) निष्काम भक्ति कर्म-ज्ञानादि के संस्पर्श से मुक्त होनी चाहिए, क्योंकि कर्म से भक्ति में विक्षेप होता हैं, वैराग्य से उसका रस सूख जाता है और ज्ञान से वह नष्ट हो जाता है। इन तीनों से दूर हो जाना ही भक्ति की प्रथम कक्षा है (2/2/205)।