"सरस्वती देवी" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
पंक्ति ८: पंक्ति ८:
 
[[सोम रस|सोम]] की प्राप्ति पहले गंधर्वों को हुई। देवताओं ने जाना  तो सोम प्राप्त करने के उपाय सोचने लगे। सरस्वती ने कहा—“गंधर्व स्त्री-प्रेमी हैं, उनसे मेरे विनिमय में सोम ले लो। मैं फिर चतुराई से तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’’ देवगिरि पर यज्ञ करके [[देवता|देवताओं]] ने वैसा ही किया। गंधर्वों के पास न तो सोम ही रहा, न सरस्वती।<ref> [[ब्रह्म पुराण]], 101।105</ref>
 
[[सोम रस|सोम]] की प्राप्ति पहले गंधर्वों को हुई। देवताओं ने जाना  तो सोम प्राप्त करने के उपाय सोचने लगे। सरस्वती ने कहा—“गंधर्व स्त्री-प्रेमी हैं, उनसे मेरे विनिमय में सोम ले लो। मैं फिर चतुराई से तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’’ देवगिरि पर यज्ञ करके [[देवता|देवताओं]] ने वैसा ही किया। गंधर्वों के पास न तो सोम ही रहा, न सरस्वती।<ref> [[ब्रह्म पुराण]], 101।105</ref>
 
==सरस्वती पूजन==
 
==सरस्वती पूजन==
श्री [[कृष्ण]] ने भारतवर्ष में सर्वप्रथम सरस्वती की पूजा का प्रसार किया। सरस्वती ने [[राधा]] के जिव्ह्याग्र भाग से आविर्भूत होकर कामवश श्री कृष्ण को पति बनाना चाहा। कृष्ण ने सरस्वती से कहा—“मेरे अंश से उत्पन्न चतुर्भुज [[नारायण]] मेरे ही समान हैं’’-- वे नारी के ह्रदय की विलक्षण वासना से परिचित हैं, अत: तुम उनके पास वैकुंठ में जाओ। मैं सर्वशक्ति सम्पन्न होते हुए भी राधा के बिना कुछ नहीं हूँ। राधा के साथ-साथ तुम्हें रखना मेरे लिए संभव नहीं। नारायण [[लक्ष्मी]] के साथ तुम्हें भी रख पायेंगे। लक्ष्मी और तुम समान सुंदर तथा ईर्ष्या के भाव से मुक्त हो। माघ मास की शुक्ल पंचमी पर तुम्हारा पूजन चिरंतन काल तक होता रहेगा तथा वह विद्यारम्भ का दिवस माना जायेगा। [[वाल्मीकि]], [[बृहस्पति]], भृगु इत्यादि को क्रमश: नारायण, [[मरीचि]] तथा ब्रह्मा आदि ने सरस्वती-पूजन का बीजमंत्र दिया था।
+
श्री [[कृष्ण]] ने भारतवर्ष में सर्वप्रथम सरस्वती की पूजा का प्रसार किया। सरस्वती ने [[राधा]] के जिव्ह्याग्र भाग से आविर्भूत होकर कामवश श्री कृष्ण को पति बनाना चाहा। कृष्ण ने सरस्वती से कहा—“मेरे अंश से उत्पन्न चतुर्भुज [[विष्णु|नारायण]] मेरे ही समान हैं’’-- वे नारी के ह्रदय की विलक्षण वासना से परिचित हैं, अत: तुम उनके पास वैकुंठ में जाओ। मैं सर्वशक्ति सम्पन्न होते हुए भी राधा के बिना कुछ नहीं हूँ। राधा के साथ-साथ तुम्हें रखना मेरे लिए संभव नहीं। नारायण [[लक्ष्मी]] के साथ तुम्हें भी रख पायेंगे। लक्ष्मी और तुम समान सुंदर तथा ईर्ष्या के भाव से मुक्त हो। माघ मास की शुक्ल पंचमी पर तुम्हारा पूजन चिरंतन काल तक होता रहेगा तथा वह विद्यारम्भ का दिवस माना जायेगा। [[वाल्मीकि]], [[बृहस्पति]], भृगु इत्यादि को क्रमश: नारायण, [[मरीचि]] तथा ब्रह्मा आदि ने सरस्वती-पूजन का बीजमंत्र दिया था।
  
 
----
 
----

०७:५७, १८ दिसम्बर २००९ का अवतरण


भगवती सरस्वती / Sarasvati /Saraswati Devi

भगवती सरस्वती
Saraswati Devi

सरस्वती का जन्म ब्रह्मा के मुँह से हुआ था। वह वाणी की अधिष्ठात्री देवी है। ब्रह्मा अपनी पुत्री सरस्वती पर ही आसक्त हो गये। वे उसके पास गमन के लिए तत्पर हुए। सभी प्रजापतियों ने अपने पिता ब्रह्मा को न केवल समझाया, अपितु उनके विचार की हीनता की ओर भी संकेत किया। ब्रह्मा ने लज्जावश वह शरीर त्याग दिया, जो कुहरा अथवा अंधकार के रूप में दिशाओं में व्याप्त हो गया।[१]

ब्रह्मा द्वारा शाप

वेदज्ञ पुरूरवा ने ब्रह्मा के निकट हास करती हुई सरस्वती को देखा। उर्वशी के द्वारा उसने सरस्वती को अपने पास बुलाया। तदनंतर दोनों परस्पर मिलते रहे। सरस्वती ने ‘सरस्वान्’ नामक पुत्र को जन्म दिया। कालांतर में ब्रह्मा को पता चला तो उन्होंने सरस्वती को महानदी होने का शाप दिया। भयभीता सरस्वती गंगा माँ की शरण में जा पहुँची। गंगा के कहने पर ब्रह्मा ने सरस्वती को शाप-मुक्त कर दिया। शापवश ही वह मृत्युलोक में कहीं दृश्य और कहीं अदृश्य रूप में रहने लगी।

सोम तथा सरस्वती की कथा

सोम की प्राप्ति पहले गंधर्वों को हुई। देवताओं ने जाना तो सोम प्राप्त करने के उपाय सोचने लगे। सरस्वती ने कहा—“गंधर्व स्त्री-प्रेमी हैं, उनसे मेरे विनिमय में सोम ले लो। मैं फिर चतुराई से तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’’ देवगिरि पर यज्ञ करके देवताओं ने वैसा ही किया। गंधर्वों के पास न तो सोम ही रहा, न सरस्वती।[२]

सरस्वती पूजन

श्री कृष्ण ने भारतवर्ष में सर्वप्रथम सरस्वती की पूजा का प्रसार किया। सरस्वती ने राधा के जिव्ह्याग्र भाग से आविर्भूत होकर कामवश श्री कृष्ण को पति बनाना चाहा। कृष्ण ने सरस्वती से कहा—“मेरे अंश से उत्पन्न चतुर्भुज नारायण मेरे ही समान हैं’’-- वे नारी के ह्रदय की विलक्षण वासना से परिचित हैं, अत: तुम उनके पास वैकुंठ में जाओ। मैं सर्वशक्ति सम्पन्न होते हुए भी राधा के बिना कुछ नहीं हूँ। राधा के साथ-साथ तुम्हें रखना मेरे लिए संभव नहीं। नारायण लक्ष्मी के साथ तुम्हें भी रख पायेंगे। लक्ष्मी और तुम समान सुंदर तथा ईर्ष्या के भाव से मुक्त हो। माघ मास की शुक्ल पंचमी पर तुम्हारा पूजन चिरंतन काल तक होता रहेगा तथा वह विद्यारम्भ का दिवस माना जायेगा। वाल्मीकि, बृहस्पति, भृगु इत्यादि को क्रमश: नारायण, मरीचि तथा ब्रह्मा आदि ने सरस्वती-पूजन का बीजमंत्र दिया था।


  • श्वेत पद्म पर आसीना, शुभ्र हंसवाहिनी, तुषार धवल कान्ति, शुभ्रवसना, स्फटिक माला धारिणी, वीणा मण्डित करा, श्रुति हस्ता वे भगवती भारती प्रसन्न हों, जिनकी कृपा मनुष्य में कला, विद्या, ज्ञान तथा प्रतिभा का प्रकाश करती है। वही समस्त विद्याओं की अधिष्ठात्री हैं। यश उन्हीं की धवल अंग ज्योत्स्ना है। वे सत्त्वरूपा, श्रुतिरूपा, आनन्दरूपा हैं। विश्व में सुख, सौन्दर्य का वही सृजन करती हैं।
  • वे अनादि शक्ति भगवान ब्रह्मा के कार्य की सहयोगिनी हैं। उन्हीं की कृपा से प्राणी कार्य के लिये ज्ञान प्राप्त करता है। उनका कलात्मक स्पर्श कुरूप को परम सुन्दर कर देता है। वे हंसवाहिनी हैं। सदसद्विवेक ही उनका वास्तविक प्रसाद है। भारत में उनकी उपासना सदा होती आयी है। महाकवि कालिदास ने उन्हें प्रसन्न किया था। प्रत्येक कवि उनके पावन पदों का स्मरण करके ही अपना काव्यकर्म प्रारम्भ करता था, यह यहाँ की सनातन परम्परा थी।
  • प्रतिभा की उन अधिष्ठात्री के चरित तो सर्वत्र प्रत्यक्ष हैं। समस्त वाड्मय, सम्पूर्ण कला और पूरा विज्ञान उन्हीं का वरदान है। मनुष्य उन जगन्माता की अहैतु की दया से प्राप्त शक्ति का दुरूपयोग करके अपना नाश कर लेता है और उनको भी दुखी करता है। ज्ञान-प्रतिमा भगवती सरस्वती के वरदान का सदुपयोग है अपने ज्ञान, प्रतिभा और विचार को भगवान में लगा देना। वह वरदान सफल हो जाता है। मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। भगवती प्रसन्न होती हैं।
  • 'भारतीय प्राचीन कला प्राय: मन्दिरों में व्यक्त हुई है।' पाश्चात्य विद्वानों के ये आक्षेप ठीक ही हैं। भारत ने नश्वर मनुष्य और उसके नश्वर अर्थहीन कृत्यों को व्यर्थ स्थायी करने का प्रयत्न नहीं किया। भारत पर भगवती भारती की सदा समुज्ज्वल कृपा रही। मानव-अमृतपुत्र मानव को उन्होंने नित्य अमरत्व का मार्ग दिखाया। मानव ने अपनी क्रिया का आधार उस नित्यतत्त्व को बनाया, जहाँ क्रिया नष्ट होकर भी शाश्वत हो जाती है। कला उस चिरन्तन ज्योतिर्मय से एक होकर धन्य हो गयी। वह स्थूल जगत में भले नित्य न हो, अपने उद्गम को नित्य जगत में पहुँचाने में सफल हुई।
  • भगवती सरस्वती के दिव्य रूप को न समझकर उनके मंजु प्रकाश के क्षुद्रांश में भ्रान्त मनुष्य उस प्रकाश का दुरूपयोग करने लगा है। अन्धकार के गर्त में गिरता तो कदाचित कहीं अटकता भी; पर वह तो प्रकाश में कूद रहा है नीचे घोर अतल अन्धकार में।
  • भगवती शारदा के मन्दिर हैं, उपासना-पद्धति है, उनकी उपासना से सिद्ध महाकवि एवं विद्वानों के इतिहास में चारू चरित हैं। यह सब होकर भी उनकी कृपा और उपासना का फल केवल यश नहीं। यश तो उनकी कृपा का उच्छिष्ट है। फल तो है परमतत्त्व को प्राप्त कर लेना। इसी फल के लिये श्रुतियाँ उन वाग्देवी की स्तुति करती हैं।

टीका-टिप्पणी

  1. श्रीमद् भागवत, तृतीय स्कंध, 12|28-33
  2. ब्रह्म पुराण, 101।105