सांख्य साहित्य

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सांख्य साहित्य

  • सांख्यसूत्र,
  • तत्त्वसमाससूत्र तथा
  • सांख्यकारिका सांख्य दर्शन के मूल प्रामणिक ग्रन्थ हैं। सांख्य साहित्य का अधिकांश इनकी टीकाओं, भाष्यों आदि के रूप में निर्मित हैं। चूंकि अनिरुद्ध के पूर्व सांख्य सूत्रों पर भाष्य आज उपलब्ध नहीं है जबकि कारिका-भाष्य उपलब्ध है अत: पहले कारिका के भाष्य अथवा टीकाओं का उल्लेख करके तब सूत्रों की टीकाओं का उल्लेख किया जायेगा।

सुवर्णसप्तति शास्त्र

  • यह बौद्ध भिक्षु परमार्थ द्वारा 550 ई.-569 ई. के मध्य चीनी भाषा में अनुवादित सांख्यकारिका का भाष्य है। किस भाष्य का यह चीनी अनुवाद है- इस पर कुछ विवाद है।
  • आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार यह 'माठरवृत्ति' के नाम से उपलब्ध टीका का अनुवाद है। इस मत का आधार चीनी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थ तथा माठरवृत्ति में आश्चर्यजनक समानता है। *एस.एस. सूर्यनारायण शास्त्री ने परमार्थ और माठर की टीकाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि दोनों में महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर असमानता है। अत: माठरवृत्ति को परमार्थ कृत टीका का आधार नहीं कहा जा सकता।
  • चीनी भाषा से उक्त टीका का संस्कृत रूपांतरण श्री एन.अय्यास्वामी शास्त्री ने किया जो तिरुमल तिरुपति देवस्थान प्रेम द्वारा 1944 ई. में प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में श्री शास्त्री अनुयोगद्वार सूत्र तथा गुणरत्न कृत षड्दर्शनसमुच्चय के आधार पर किसी प्राचीन माठरवृत्ति या भाष्य के अस्तित्व की संभावना को माने जाने तथा वर्तमान माठरवृत्ति को 1000 ई. से पूर्व की रचना नहीं माने जाने का समर्थन करते हैं।
  • ए.बी. कीथ तथा सूर्यनारायण शास्त्री के अनुसार वर्तमान माठरवृत्ति तथा परमार्थ कृत चीनी अनुवाद किसी अन्य प्राचीन माठरभाष्य पर आधारित है। इस विषय पर अब तक प्राप्त तथ्यों के आधार पर प्राय: यह माना जाता है कि परमार्थ कृत चीनी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थ जिसका संस्कृत रूपान्तरण सुवर्णसप्तति के नाम से हुआ है- ही सांख्य कारिका पर उपलब्ध प्राचीनतम भाष्य है।
  • सुवर्णसप्तति के अन्तर्वस्तु में उल्लेखनीय यह है कि इसके अनुसार सांख्य ज्ञान का प्रणयन चार वेदों से भी पूर्व हो चुका था। वेदों सहित समस्त सम्प्रदायों का दर्शन सांख्य पर ही अवलम्बित है। सुवर्णसप्तति सूक्ष्म (लिंग) शरीर को सात तत्त्वों का संघात मानती है। वे सात तत्त्व हैं- महत, अहंकार तथा पंच तन्मात्र।
  • आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इस मान्यता को भ्रमवश स्थापित माना है। उनके अनुसार सुवर्णसप्तति शास्त्र में 40वें कारिका की टीका में 'एतानि सप्त सूक्ष्मशरीरमित्युच्यते' लिखा है। इस पर श्री शास्त्री का कथन है कि यदि अन्य कहीं भी एकादश इन्द्रियों का निर्देश न होता तो सप्त तत्व का सूक्ष्मशरीर माना जा सकता था। उ.वी. शास्त्री ने कुछ उद्धरण सुवर्णसप्ततिशास्त्र से उद्धृत करते हुए यह दिखाने का प्रयास किया कि टीकाकार अठारह तत्त्वों का सूक्ष्म शरीर स्वीकार करते हैं। लेकिन शास्त्री जी द्वारा प्रस्तुत उद्धरण उनके विचार की पुष्टि नहीं करते। वे उद्धरण इस प्रकार हैं-
  1. त्रयोदशविधकरणै: सूक्ष्मशरीरं संसारयति
  2. तस्मात् सूक्ष्मशरीरं विहाय, त्रयोदशकं न स्थातुं क्षमते॥
  3. इदं सूक्ष्मशरीरं त्रयोदशकेन सह ... संसरति
  4. पंचतन्मात्ररूपं सूक्ष्मशरीरं त्रयोदशविधकरणैर्युक्त-

त्रिविधलोकसर्गान् संसरति।

  • सभी उद्धरणों में त्रयोदश करणों के साथ सूक्ष्म शरीर के संसरण की बात कहीं गई है। अत: त्रयोदश करण तथा सूक्ष्म शरीर का पार्थक्य-स्वीकृति स्पष्ट है। चौथे उद्धरण में तो स्पष्टत: 'पंचतन्मात्ररूपं सूक्ष्मशरीरं' कहा गया है। हां एक बात अवश्य विचारणीय है, जिसकी चर्चा शास्त्री जी ने की है कि 'यदि व्याख्याकार सूक्ष्म शरीर में केवल सात तत्त्वों को मानता तो उसका यह-एकादश इन्द्रियों के साथ बुद्धि और अहंकार को जोड़कर त्रयोदश करण का सूक्ष्म शरीर के साथ निदेश करना सर्वथा असंगत हो जाता है<balloon title="सां.द.इ. पृष्ठ 391" style=color:blue>*</balloon>'।
  • यहां यह कहा जा सकता है कि टीकाकार ने चूंकि कारिकाकार का आशय इसी रूप में समझा है अत: उसने सूक्ष्म शरीर को सप्ततत्त्वात्मक ही कहा और संसरण हेतु एकादशेन्द्रिय की अनिवार्यता को स्वीकार किया।[१] लेकिन कारण के रूप में 'त्रयोदशकरण' के मानने का कारिकाकार का स्पष्ट मत देख कर उसका वैसा ही उल्लेख किया।
  • यह भी कहा जा सकता है कि बुद्धि और अहंकार कारण तभी कहे जा सकते हैं जब भोग शरीर या संसरण शरीर उपस्थित हो। अत: संसरण के प्रसंग में त्रयोदशकरण कहना और सूक्ष्म (लिंग) शरीर के रूप में बुद्धि और अहंकार को कारण न मानकर मात्र तत्त्व मानना असंगत नहीं है। अथवा यदि यह असंगत है भी तो इसे असंगत कहना ही पर्याप्त है। व्याख्याकार पर अन्य मत का आरोपण संगत नहीं कहा जाएगा।

सांख्यवृत्ति

यह सांख्यकारिका की वृत्ति है। इसका प्रकाशन सन 1973 में गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा किया गया। इसका सम्पादन ई.ए. सोलोमन ने किया। उनके अनुसार यह सांख्यकारिका की प्राचीनतम टीका है। इसके रचयिता का नामोल्लेख नहीं है। सोलोमन के अनुसार यह संभवत: स्वयं कारिकाकार ईश्वरकृष्ण की रचना है और परमार्थ कृत चीनी अनुवाद का यह आधार रहा है। परमार्थ कृत चीनी भाषा के अनुवाद में 63वीं कारिका नहीं पाई जाती जबकि सांख्यवृत्ति में यह कारिका भाष्य सहित उपलब्ध है। सांख्यवृत्ति में 71वीं कारिका तक ही भाष्य किया गया है। 27वीं कारिका प्रचलित कारिका जैसी न होकर इस प्रकार है-

संकल्पमत्र मनस्तच्चेन्द्रियमुभयथा समाख्यातम्।
अन्तस्त्रिकालविषयं तस्मादुभयप्रचारं तत्॥

ऐसा ही रूप युक्तिदीपिका में भी है। सांख्यवृत्ति का संभावित रचनाकाल ईसा की 6वीं शताब्दी है।

सांख्यसप्ततिवृत्ति

ई.ए. सोलोमन द्वारा सम्पादित दूसरी पुस्तक है। यह भी सांख्यसप्तति की टीका है। इस पुस्तक का रचनाकाल भी प्राचीन माना गया। संभावना यह व्यक्त की गई कि सांख्यवृत्ति के निकट परवर्ती काल की यह रचना होगी। इसके रचयिता का पूरा नाम पाण्डुलिपि में उपलब्ध नहीं है। केवल 'मा' उपलब्ध है। यह माधव या माठर हो सकता है। अनुयोगद्वार सूत्र में सांख्याचार्यों की सूची में माधव का उल्लेख मिलता है। यह माठर ही रहा होगा<balloon title="एन्सायक्लोपीडिया पृष्ठ 168" style=color:blue>*</balloon>। यह 5वीं शताब्दी से पूर्व रहा होगा। सांख्यसप्तति वृत्ति 'माठरवृत्ति' के लगभग समान है। सोलोमन के अनुसार वर्तमान माठरवृत्ति इसी सांख्यकारिकावृत्ति का विस्तार प्रतीत होता है। माठरवृत्ति में पुराणों को अधिक उद्धृत किया गया है जबकि इस पुस्तक में आयुर्वेदीय ग्रंन्थों के उद्धरण अधिक हैं। माठरवृत्ति की ही तरह इसमें भी 63 कारिकाएँ हैं<balloon title="एन्सायक्लोपीडिया, पृष्ठ 193" style=color:blue>*</balloon>।

युक्तिदीपिका

  • युक्तिदीपिका भी सांख्यकारिका की एक प्राचीन व्याख्या है तथा अन्य व्याख्याओं की तुलना में अधिक विस्तृत भी है। इसके रचनाकाल या रचनाकार के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाना कठिन है। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी में 'यत्तु राजा व्याख्यातवान्-प्रतिराभिमुख्ये वर्तते' तथा युक्तिदीपिका में 'प्रतिना तु अभिमुख्यं' – के साम्य तथा वाचस्पति मिश्र द्वारा 'तथा च राजवार्तिकं' (72वीं कारिका पर तत्त्वकौमुदी) कहकर युक्तिदीपिका के आरंभ में दिए श्लोकों में से 10-12 श्लोकों को उद्धृत करते देख युक्तिदीपिकाकार का नाम 'राजा' संभावित माना है। साथ ही युक्तिदीपिका का अन्य प्रचलित नाम राजवार्तिक भी रहा होगा<balloon title="(सां.द.इ. पृष्ठ 477)" style=color:blue>*</balloon> *सुरेन्द्रनाथदास गुप्त भी राजा कृत कारिकाटीका को राजवार्तिक स्वीकार करते हैं जिसका उद्धरण वाचस्पति मिश्र ने दिया है<balloon title="(भा.द.का.इ. भाग-1, पृष्ठ 203)" style=color:blue>*</balloon>। उदयवीर शास्त्री के अनुसार युक्तिदीपिकाकार का संभावित समय ईसा की चतुर्थ शती है। जबकि डॉ0 रामचन्द्र पाण्डेय इसे दिङ्नाग (6वीं शती) तथा वाचस्पति मिश्र (नवम शती) के मध्य मानते हैं। युक्तिदीपिका में सांख्य के विभिन्न आचार्यों के मतों के साथ-साथ आलोचनाओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है। यदि युक्तिदीपिका की रचना शंकराचार्य के बाद हुई होती तो शंकर कृत सांख्य खण्डन पर युक्तिदीपिकाकार के विचार होते। अत: युक्तिदीपिकाकार को शंकरपूर्ववर्ती माना जा सकता है। युक्तिदीपिका में उपलब्ध सभी उद्धरणों के मूल का पता लगने पर संभव है रचनाकाल के बारे में और अधिक सही अनुमान लगाया जा सके।
  • युक्तिदीपिका में अधिकांश कारिकाओं को सूत्र रूप में विच्छेद करके उनकी अलग-अलग व्याख्या की गई है। युक्तिदीपिका में समस्त कारिकाओं को चार प्रकरणों में विभक्त किया गया है। प्रथम प्रकरण 1 से 14वीं कारिका तक, द्वितीय 15 से 21वीं कारिका तक, तृतीय प्रकरण 22 से 45वीं कारिका तक तथा शेष कारिकाएँ चतुर्थ प्रकरण में। प्रत्येक प्रकरण को आह्निकों में बांटा गया है। कुल आह्निक हैं। कारिका 11,12, 60-63 तथा 65, 66 की व्याख्या उपलब्ध नहीं है। साथ ही कुछ व्याख्यांश खण्डित भी हैं।
  • सांख्य साहित्य में युक्तिदीपिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सांख्य के प्राचीन आचार्यों के विभिन्न मतों का संकेत युक्तिदीपिका में उपलब्ध है। वार्षगण्य-जिनकी कोई कृति आज उपलब्ध नहीं है, के मत का सर्वाधिक परिचय युक्तिदीपिका में ही उपलब्ध है। इसी तरह विन्ध्यवासी, पौरिक, पंचाधिकरण इत्यादि प्राचीन आचार्यों के मत भी युक्तिदीपिका में हैं। सांख्य परंपरा में अहंकार की उत्पत्ति महत से मानी गई है, लेकिन विंध्यवासी के मत में महत से अहंकार के अतिरिक्त पंचतन्मात्रायें भी उत्पन्न होती हैं। 22वीं कारिका की युक्तिदीपिका में विन्ध्यवासी का मत इस प्रकार रखा गया है।
  • 'महत: षाड्विशेषा:सृज्यन्ते तन्मात्राण्यहंकारश्चेति विंध्यवासिमतम्' पंचाधिकरण इन्द्रियों को भौतिक मानते हैं- 'भौतिकानीन्द्रियाणीति पंचाधिकरणमतम्' (22वीं कारिका पर युक्तिदीपिका) संभवत: वार्षगण्य ही ऐसे सांख्याचार्य हैं जो मानते हैं कि प्रधानप्रवृत्तिरप्रत्ययापुरुषेणाऽपरिगृह्यमाणाऽदिसर्गे वर्तन्ते<balloon title="(19वीं कारिका पर युक्तिदीपिका)" style=color:blue>*</balloon>' साथ ही वार्षगण्य के मत में एकादशकरण मान्य है जबकि प्राय: सांख्य परम्परा त्रयोदशकरण को मानती है युक्तिदीपिका के उक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय तक सांख्यदर्शन में अनेक मत प्रचलित हो चुके थे।

जयमंगला

  • यद्यपि इसके रचनाकाल के बारे में भी अनिश्चय की स्थिति है, तथापि विभिन्न निष्कर्षों के आधार पर इसका रचनाकाल 600 ई. या इसके बाद माना गया<balloon title="(19वीं कारिका पर युक्तिदीपिका,पृष्ठ 371 )" style=color:blue>*</balloon>है।
  • उदयवीर शास्त्री इसे 600 ई. तक लिखा जा चुका मानते हैं<balloon title="सां. द. इ. पृ. 453" style=color:blue>*</balloon>।
  • गोपीनाथ कविराज के अनुसार इसके रचयिता बौद्ध थे। रचयिता का नाम शंकर (शंकराचार्य या शंकरार्य) है। ये गोविन्द आचार्य के शिष्य थे- ऐसा जयमंगला के अन्त में उपलब्ध वाक्य से ज्ञात होता है। जयमंगला भी सांख्यकारिका की व्याख्या है।

गौडपादभाष्य

सांख्यकारिकाओं की टीकाओं में संभवत: भाष्य नाम से यही ग्रंथ उपलब्ध है। परमार्थ कृत चीनी भाषा में टीका, सांख्यवृत्ति, सांख्यसप्ततिवृत्ति तथा माठरवृत्ति से इसका पर्याप्त साम्य है। विशेषकर सुवर्णसप्ततिशास्त्र (चीनी टीका का संस्कृत रूपांतर) के सप्ततत्त्वात्मक सूक्ष्म शरीर की मान्यता के समान आठ तत्त्वों के शरीर की चर्चा मात्र गौडपादभाष्य में ही उपलब्ध है। गौडपादभाष्य केवल 69 कारिकाओं पर ही उपलब्ध है। सांख्यकारिका तथा माण्डूक्यकारिका के भाष्यकार एक ही गौडपाद है या भिन्न, यह भी असंदिग्धत: नहीं कहा जा सकता।

माठरवृत्ति

सांख्यकारिका की एक अन्य टीका है जिसके टीकाकार कोई माठरचार्य हैं। माठर वृत्ति की, गौडपादभाष्य तथा सुवर्णसप्ततिशास्त्र (परमार्थकृत चीनी अनुवाद) से काफी समानता है। इस समानता के कारण आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इसे ही चीनी अनुवाद का आधार माना है। संभवत: इसीलिए उन्होंने सुवर्णसप्तति में सूक्ष्मशरीर विषयक तत्त्वात्मक वर्णन को अठारह तत्त्वों के संघात की मान्यता के रूप में दर्शाने का प्रयास किया। यद्यपि सुवर्णसप्ततिकार के मत का माठर से मतभेद अत्यन्त स्पष्ट है। माठरवृत्ति में पुराणादि के उद्धरण तथा मोक्ष के संदर्भ में अद्वैत वेदान्तीय धारणा के कारण डा. आद्या प्रसाद मिश्र भी डॉ0 उमेश मिश्र, डॉ0 जानसन, एन. अय्यास्वामी शास्त्री की भांति माठरवृत्ति को 1000 ई. के बाद की रचना मानते है। ई.ए. सोलोमन द्वारा सम्पादित सांख्यसप्ततिवृत्ति के प्रकाशन से दोनों की समानता एक अन्य संभावना की ओर अस्पष्टत: संकेत करती है कि वर्तमान माठरवृत्ति सांख्यसप्ततिवृत्ति का ही विस्तार है। इस संभावना को स्वीकार करने का एक संभावित कारण सूक्ष्म शरीर विषयक मान्यता भी मानी जा सकती है। 40वीं कारिका की टीका में माठर सूक्ष्म शरीर में त्रयोदशकरण तथा पंचतन्मात्र स्वीकार करते हैं। यही परम्परा अन्य व्याख्याओं में स्वीकार की गई है। जबकि सुवर्णसप्तति में सात तत्त्वों का उल्लेख है। जो हो, अभी तो यह शोध का विषय है कि माठरवृत्ति तथा सुवर्णसप्तति का आधार सप्ततिवृत्ति को माना जाय या इन तीनों के मूल किसी अन्य ग्रन्थ की खोज की जाय।

तत्त्वकौमुदी

यह सांख्यकारिका की विख्यात टीका है। इसके रचनाकार मैथिल ब्राह्मण वाचस्पति मिश्र हैं। वाचस्पति मिश्र षड्दर्शनों के व्याख्याकार हैं। साथ ही शंकर दर्शन के विख्यात आचार्य भी हैं जिनकी 'भामती' प्रसिद्ध है। तत्त्वकौमुदी का प्रकाशन डॉ0 गंगानाथ झा के सम्पादन में 'ओरियण्टल बुक एजेन्सी, पूना' द्वारा 1934 ई. में हुआ। तत्त्वकौमुदी का एक संस्करण हम्बर्ग से 1967 ई. में प्रकाशित हुआ, जिसे श्री एस.ए. श्रीनिवासन ने 90 पाण्डुलिपियों की सहायता से तैयार किया। वाचस्पति मिश्र ईसा के नवम शतक में किसी समय रहे हैं। तत्त्वकौमुदी सांख्यकारिका की उपलब्ध प्राचीन टीकाओं में अन्यतम स्थान रखती है। कारिका-व्याख्या में कहीं भी ऐसा आभास नहीं मिलता जो वाचस्पति के अद्वैतवाद का प्रभाव स्पष्ट करता हो। यह वाचस्पति मिश्र की विशेषता कही जा सकती है कि उन्होंने तटस्थभावेन सांख्यमत को ही युक्तिसंगत दर्शन के रूप में दिखाने का प्रयास किया। डॉ0 उमेश मिश्र के विचार में सांख्य रहस्य को स्पष्ट करने में कौमुदीकार सफल नहीं रहे। लगभग ऐसा ही मत एन्सायक्लोपीडिया में भी व्यक्त किया गया, जबकि डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र के अनुसार यह टीका मूल के अनुक रहस्यों के उद्घाटन में समर्थ हुई है।

तत्त्वकौमुदी की टीकाएँ<balloon title="यह विवरण एन्सायक्लोपीडिया भाग-4 के आधार पर है" style=color:blue>*</balloon>

  1. तत्त्वविभाकर- वंशीधर मिश्र कृत यह टीका संभवत: 1750 ई. सन के लगभग लिखी गई। इसका प्रकाशन 1921 ई. में हुआ।
  2. तत्त्वकौमुदी व्याख्या- भारतीयति कृत व्याख्या बाबू कौलेश्वर सिंह पुस्तक विक्रेता वाराणसी द्वारा प्रकाशित।
  3. आवरणवारिणी- कौमुदी की यह टीका महामहोपाध्याय कृष्णनाथ न्यायपंचानन रचित हैं।
  4. विद्वत्तोषिणी- बालराम उदासीन कृत कौमुदी व्याख्या मूलत: अपूर्ण है, तथापि पंडित रामावतार शर्मा द्वारा पूर्ण की गई।
  5. गुणमयी- तत्त्वकौमुदी की यह टीका महामहोपाध्याय रमेशचंद्र तर्क तीर्थ की रचना है।
  6. पूर्णिमा- पंचानन तर्करत्न की कृति है।
  7. किरणावली- श्री कृष्ण वल्लभाचार्य रचित।
  8. सांख्यतत्त्व कौमुदी प्रभा- डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र
  9. तत्त्वप्रकाशिका- डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर
  10. सारबोधिनी- शिवनारायण शास्त्री
  11. सुषमा- हरिराम शुक्ल तत्त्वकौमुदी पर इतनी व्याख्याएँ उसकी प्रसिद्धि और महत्ता का स्पष्ट प्रमाण हैं।

सांख्यचन्द्रिका

सांख्यकारिका की एक अर्वाचीन व्याख्या है जिसके व्याख्याकार नारायणतीर्थ हैं। नारायणतीर्थ सत्रहवीं शती के हैं। इन्हें अन्य भारतीय दर्शनों का भी अच्छा ज्ञान था। सांख्य-चंद्रिका ही संभवत: एक मात्र व्याख्या है जिसमें छठी कारिका में 'सामान्यतस्तु दृष्टात' का अर्थ सामान्यतोदृष्ट अनुमान न लेकर 'सामान्यत: तु दृष्टात्' अर्थ में ही स्वीकार किया।

सांख्यतरुवसन्त

यह सांख्यकारिका की अर्वाचीन व्याख्या है। इसमें विज्ञानभिक्षु की ही तरह परमात्मा की सत्ता को स्वीकार किया गया है। सांख्य तथा वेदान्त समन्वय के रूप में इस व्याख्या को जाना जाता है। तीसरी कारिका की व्याख्या के प्रसंग में तरुवसन्तम् में लिखा है-

पुरुष एक: सनातन: स निर्विशेष: चितिरूप.... पुमान्
अविविक्त संसार भुक् संसार पालकश्चेति द्विकोटिस्थो वर्तर्ते।
विविक्त: परम: पुमानेक एव । स आदौ सर्गमूलनिर्वाहाय
ज्ञानेन विविक्तौऽपि इच्छया अविविक्तो भवति।

इन विचारों का समर्थन श्री अभय मजूमदार ने भी किया है<balloon title="सांख्य कन्सेप्ट आफ पर्सनालिटी" style=color:blue>*</balloon>। तरुवसंत के रचयिता मुडुम्ब नरसिंह स्वामी है। इसका प्रकांशन डॉ0 पी.के. शशिधरन के सम्पादन में मदुरै कामराज विश्वविद्यालय द्वारा 1981 में हुआ।

सांख्यसूत्रवृत्ति

  • कपिल प्रणीत सूत्रों की व्याख्या की यह पहली उपलब्ध पुस्तक है। इसका 'वृत्ति' नाम स्वयं रचयिता अनिरुद्ध द्वारा ही दिया गया है<balloon title="वृत्ति: कृताऽनिरुद्धेन सांख्यसूत्रस्य धीमता।" style=color:blue>*</balloon>। अनिरुद्ध सूत्रों को सांख्यप्रवचनसूत्र भी कहते हैं जिसे बाद के व्याख्याकारों, टीकाकारों ने भी स्वीकार किया। वृत्तिकार विज्ञानभिक्षु से पूर्ववर्ती है ऐसा प्राय: विद्वान स्वीकार करते हैं तथापि इनके काल के विषय में मतभेद है। सांख्यसूत्रों के व्याख्याचतुष्टय के सम्पादक जनार्दन शास्त्री पाण्डेय अनिरुद्ध का समय 11वीं शती स्वीकार करते हैं जैसा कि उदयवीर शास्त्री प्रतिपादित करते हैं प्राय: विद्वान् इसे 1500 ई. के आसपास का मानते हैं। रिचार्ड गार्बे सांख्यसूत्रवृत्ति के रचयिता को ज्योतिष ग्रन्थ 'भास्वतिकरण' के रचयिता भावसर्मन् पुत्र अनिरुद्ध से अभिन्न होने को भी संभावित समझते हैं जिनका जन्म 1464 ई. में माना जाता है।
  • अनिरुद्ध सांख्य दर्शन को अनियतपादार्थवादी कहते हैं<balloon title="सां. सू. 1/45, 46 पर अनिरुद्धवृत्ति" style=color:blue>*</balloon>। अनियतपादार्थवादी का यदि यह आशय है कि तत्त्वों की संख्या नियत नहीं है, तो अनिरुद्ध का यह मत उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि सांख्य में 25 तत्त्व 60 पदार्थ आदि नियत गणना तो प्रचलित है हि। यदि पदार्थों के स्वरूप की अनियतता से आशय है तो यह सांख्य विरुद्ध नहीं होगा, क्योंकि सत्व रजस तमस के अभिनव, आश्रय, मिथुन, जनन विधि से अनेकश: पदार्थ रचना संभव है और इसका नियत संख्या या स्वरूप बताया नहीं जा सकता। इसके अतिरिक्त अनिरुद्धवृत्ति की एक विशेषता यह भी हे कि उसमें सूक्ष्म या लिंग शरीर 18 तत्त्वों का (सप्तदश+एकम्) माना गया है। फिर भोग और प्रमा दोनों को ही अनिरुद्ध बुद्धि में स्वीकार करते हैं।
  • अनिरुद्ध द्वारा स्वीकृत सूत्र पाठ विज्ञानभिक्षु के स्वीकृत पाठों से अनेक स्थलों पर भिन्न हैं। अनिरुद्धवृत्ति<balloon title="सूत्र 1/109" style=color:blue>*</balloon> में 'सौक्ष्म्यादनुलपब्धि' है, जब भिक्षुभाष्य में 'सौक्ष्यम्यातदनुपलिब्धि' पाठ है। यद्यपि अर्थ दृष्ट्या इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथापित ईश्वरकृष्ण की 8वीं कारिका के आधार पर 'सौक्ष्द्वम्यात्तदनुपलब्धि' का प्रचलन हो गया- ऐसा कहा जा सकता है। ध्यातव्य है कि सूत्र 1/124 में अनिरुद्धवृत्ति के अनुसार 'अव्यापि' शब्द नहीं मिलता न ही उसका अनिरुद्ध द्वारा अर्थ किया गया, जबकि विज्ञानभिक्षु के सूत्रभाष्य में न केवल 'अव्यापि' शब्द सूत्रगत है अपि तु भिक्षु ने कारिका को उद्धृत करते हुए 'अव्यापि' का अर्थ भी किया है। इसी तरह सूत्र 3/73 में अनिरुद्धवृत्ति में 'रूपै:सप्तभि... विमोच्यत्येकेन रूपेण' पाठ है जबकि भिक्षुकृत पाठ कारिका 63 के समान 'विमोच्यत्येकरूपेण' है। ऐसा प्रतीत होता है कि सांख्यसूत्रों का प्राचीन पाठ अनिरुद्धवृत्त् में यथावत् रखा गया जबकि विज्ञानभिक्षु ने कारिका के आधार पर पाठ स्वीकार किया। साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि अनिरुद्ध ने कारिकाओं को कहीं भी उद्धृत नहीं किया तथापि कहीं-कहीं कारिकागत शब्दों का उल्लेख अवश्य किया है यथा सूत्र 1/108 की वृत्ति में 'अतिसामीप्यात्' 'मनोऽनवस्थानात्' 'व्यवधानात्' आदि। जबकि विज्ञानभिक्षु ने प्राय: सभी समान प्रसंगों पर कारिकाओं को उद्धृत किया है।

सांख्यप्रवचनभाष्य

  • सांख्यप्रवचनसूत्र पर आचार्य विज्ञानभिक्षु का भाष्य है। आचार्य विज्ञानभिक्षु ने सांख्यमत पुन: प्रतिष्ठित किया। विज्ञानभिक्षु का समय आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार सन 1350 ई. के पूर्व का होना चाहिए। अधिकांश विद्वान इन्हें 15वीं-16वीं शताब्दी का मानते हैं। विज्ञानभिक्षु की कृतियों में सांख्यप्रवचनभाष्य के अतिरिक्त योगवार्तिक, योगसार संग्रह, विज्ञानामृतभाष्य, सांख्यसार आदि प्रमुख रचनायें हैं। सांख्य दर्शन की परंपरा में विज्ञानभिक्षु ने ही सर्वप्रथम सांख्यमत को श्रुति और स्मृतिसम्मत रूप में प्रस्तुत किया। सांख्य दर्शन पर लगे अवैदिकता के आक्षेप का भी इन्होंने सफलता पूर्वक निराकरण किया। अपनी रचनाओं के माध्यम से आचार्य ने सांख्य दर्शन का जो अत्यन्त प्राचीन काल में सुप्रतिष्ठित वैदिक दर्शन माना जाता था, का विरोध परिहार करते हुए परिमार्जन किया।
  • सांख्यकारिका-व्याख्या के आधार पर प्रचलित सांख्यदर्शन में कई स्पष्टीकरण व संशोधन विज्ञानभिक्षु ने किया। प्राय: सांख्यदर्शन में तीन अंत:करणों की चर्चा मिलती है। सांख्यकारिका में भी अन्त:करण त्रिविध<balloon title="(कारिका 33)" style=color:blue>*</balloon> कहकर इस मत को स्वीकार किया। लेकिन विज्ञानभिक्षु अन्त:करण को एक ही मानते हैं। उनके अनुसार 'यद्यप्येकमेवान्त:करणं वृत्तिभेदेन त्रिविधं लाघवात्' सा.प्र.भा. 1/64)। आचार्य विज्ञानभिक्षु से पूर्व कारिकाव्याख्याओं के आधार पर प्रचलित दर्शन में दो ही शरीर सूक्ष्म तथा स्थूल मानने की परम्परा रही है। लेकिन आचार्य विज्ञानभिक्षु तीन शरीरों की मान्यता को युक्तिसंगत मानते हैं। सूक्ष्म शरीर बिना किसी अधिष्ठान के नहीं रहा सकता, यदि सूक्ष्म शरीर का आधार स्थूल शरीर ही हो तो स्थूल शरीर से उत्क्रान्ति के पश्चात लोकान्तर गमन सूक्ष्म शरीर किस प्रकार कर सकता है? विज्ञानभिक्षु के अनुसार सूक्ष्म शरीर बिना अधिष्ठान शरीर के नहीं रह सकता अत: स्थूल शरीर को छोड़कर शरीर ही है<balloon title="(वही- 1/12)" style=color:blue>*</balloon>। । 'अङगुष्ठमात्र:पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जना हृदये सन्निविष्ट:<balloon title="कठोपनिषद् 1॥6। 17" style=color:blue>*</balloon>', अङ्गुष्ठमात्रं पुरुषं स<balloon title="(महाभारत वनपर्व 397/17)" style=color:blue>*</balloon>- आदि श्रुति-स्मृति के प्रमाण से अधिष्ठान शरीर की सिद्धि करते हैं।
  • अन्य सांख्याचार्यों से लिंग शरीर के विषय में विज्ञानभिक्षु भिन्न मत रखते हैं। वाचस्पति मिश्र, माठर, शंकराचार्य आदि की तरह अनिरुद्ध तथा महादेव वेदान्ती ने भी लिंग शरीर को अट्ठारह तत्त्वों का स्वीकार किया। इनके विपरीत विज्ञानभिक्षु ने सूत्र 'सप्तदशैकम् लिंगम्<balloon title="3/9)" style=color:blue>*</balloon>' की व्याख्या करते हुए 'सत्रह' तत्त्वों वाला 'एक' ऐसा स्वीकार करते हैं। विज्ञानभिक्षु अनिरुद्ध की इस मान्यता की कि सांख्यदर्शन अनियतपदार्थवादी है- कटु शब्दों में आलोचना करते हैं<balloon title="सांख्यानामनियतपदार्थाम्युपगम इति मूढप्रलाप उपेक्षणीय:। सां.प्र.भा. 1/61" style=color:blue>*</balloon> अनिरुद्ध ने कई स्थलों पर सांख्य दर्शन को अनियत पदार्थवादी कहा है। 'किं चानियतपदार्थवादास्माकम्<balloon title="सां. सू. 1/।45" style=color:blue>*</balloon>', 'अनियतपदार्थवादित्वात्सांख्यानाम्<balloon title="(5/85)" style=color:blue>*</balloon>' इसकी आलोचना में विज्ञानभिक्षु इसे मूढ़ प्रलाप घोषित करते हैं। उनका कथन है कि -'एतेन सांख्यानामनियतपदार्थाभ्युपगम इति मूढ़प्रलाप उपेक्षणीय:<balloon title="(सा.प्र.भा. 1/61)" style=color:blue>*</balloon>' । विज्ञानभिक्षुकृत यह टिप्पणी उचित ही है। सांख्यदर्शन में वर्ग की दृष्टि से जड़ चेतन, अजतत्त्वों की दृष्टि से भोक्ता, भोग्य और प्रेरक तथा समग्ररूप से तत्त्वों की संख्या 24, 25 वा 26 आदि माने गए हैं। अत: सांख्य को अनियतपदार्थवादी कहना गलत है। हां, एक अर्थ में यह अनियत पदार्थवादी कहा जा सकता है यदि पदार्थ का अर्थ इन्द्रिय जगत् में गोचन नानाविधि वस्तु ग्रहण किया जाय। सत्त्व रजस् तमस् की परस्पर अभिनव, जनन, मिथुन, प्रतिक्रियाओं से असंख्य पदार्थ उत्पन्न होते हैं जिनके बारे में नियतरूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।
  • अनिरुद्ध प्रत्यक्ष के दो भेद-निर्विकल्प तथा सविकल्प, की चर्चा करते हुए सविकल्प प्रत्यक्ष को स्मृतिजन्य अत: मनोजन्य, मानते हैं। विज्ञानभिक्षु इसका खण्डन करते हैं। विज्ञानभिक्षु अनिरुद्धवृत्ति को लक्ष्य कर कहते हैं- 'कश्चित्तु सविकल्पकं तु मनोमात्रजन्यमिति' लेकिन 'निर्विकल्पकं सविकल्पकरूपं द्विविधमप्यैन्द्रिकम्' हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने भोग विषयक अनिरुद्ध मत का भी विज्ञान भिक्षु की मान्यता से भेद का उल्लेख किया है<balloon title="(सां. द.इ. पृष्ठ 348-49)" style=color:blue>*</balloon>। तदनुसार अनिरुद्ध ज्ञान भोग आदि का संपाइन बुद्धि में मानते हैं। विज्ञानभिक्षु उक्त मत उपेक्षणीय कहते हुए कहते हैं। 'एवं हि बुद्धिरेव ज्ञातृत्वे चिदवसानो भोग: इत्यागामी सूत्रद्वयविरोध: पुरुषों प्रभाणाभावश्च। पुरुषलिंगस्य भोगस्य बुद्धावेव स्वीकारात्<balloon title="(सा.प्र.भा. 1/99)" style=color:blue>*</balloon>'। यदि ज्ञातृत्व भोक्तृत्वादि को बृद्धि में ही मान लिया गया तब चिदवसानो भोग:<balloon title="(सूत्र 1/104)" style=color:blue>*</balloon> व्यर्थ हो जायेगा। साथ ही भोक्तृभावात् कहकर पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में दिया गया प्रमाण भी पुरुष की अपेक्षा बुद्धि की ही सिद्धि करेगा। तब पुरुष को प्रमाणित किस तरह किया जा सकेगा।
  • सांख्य दर्शन को स्वतंत्र प्रधान कारणवादी घोषित कर सांख्यविरोधी प्रकृति पुरुष संयोग की असंभावना का आक्षेप लगाते हैं। विज्ञानभिक्षु प्रथम सांख्याचार्य है, जिन्होंने संयोग के लिए ईश्वरेच्छा को माना। विज्ञानभिक्षु ईश्वरवादी दार्शनिक थे। लेकिन सांख्य दर्शन में ईश्वर प्रतिषेध को वे इस दर्शन की दुर्बलता मानते हैं<balloon title="(सां. प्र.भा. 1/92)" style=color:blue>*</balloon>। विज्ञानभिक्षु के अनुसार सांख्य दर्शन में ईश्वर का खण्डन प्रमाणापेक्षया ही है। ईश्वर की सिद्धि प्रमाणों (प्रत्यक्षानुमान) से नहीं की जा सकती इसलिए सूत्रकार ईश्वरासिद्धे:<balloon title="(सूत्र 1/92)" style=color:blue>*</balloon> कहते है। यदि ईश्वर की सत्ता की अस्वीकृत वांछित होती तो 'ईश्वराभावात्'- ऐसा सूत्रकार कह देते। इस प्रकार विज्ञानभिक्षु सांख्य दर्शन में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके योग, वेदान्त तथा श्रुति-स्मृति की धारा में सांख्य दर्शन को ला देते हैं, जैसा कि महाभारत पुराणादि में वह उपलब्ध था। इस तरह विज्ञानभिक्षु सांख्य दर्शन को उसकी प्राचीन परम्परा के अनुसार ही व्याख्यायित करते हैं। ऐसा करके वे सांख्य, योग तथा वेदान्त के प्रतीयमान विरोधों का परिहार कर समन्वय करते हैं। प्रतिपाद्य विषय में प्रमुखता का भेद होते हुए भी सिद्धान्तत: ये तीनों ही दर्शन श्रुति-स्मृति के अनुरूप विकसित दर्शन हैं। अद्वैताचार्य शंकर ने विभिन्न आस्तिक दर्शनों का खण्डन करते हुए जिस तरह अद्वैतावाद को ही श्रुतिमूलक दर्शन बताया उससे यह मान्यता प्रचलित हो चली थी कि इनका वेदान्त से विरोध है। विज्ञानभिक्षु ही ऐसे प्रथम सांख्याचार्य हैं जिन्होंने किसी दर्शन को 'मल्ल' घोषित न कर एक ही धरातल पर समन्वित रूप में प्रस्तुत किया।
  1. सांख्यसूत्रवृत्तिसार-अनिरुद्धवृत्ति का सारांश ही है जिसके रचयिता महादेव वेदान्ती हैं।
  2. भाष्यसार विज्ञानभिक्षुकृत सांख्यप्रवचनभाष्य का सार है जिसके रचयिता नागेश भट्ट हैं।
  3. सर्वोपकारिणी टीका यह अज्ञात व्यक्ति की तत्त्वसमास सूत्र पर टीका है।
  4. सांख्यसूत्रविवरण तत्व समास सूत्र पर अज्ञात व्यक्ति की टीका है।
  5. क्रमदीपिका भी तत्त्वसमास सूत्र की टीका है कर्ता का नाम ज्ञात नही है।
  6. तत्त्वायाथार्थ्यदीपन- तत्वसमास को यह टीका विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावागणेश की रचना है यह भिक्षु विचारानुरूप टीका है।
  7. सांख्यतत्त्व विवेचना- यह भी तत्वसमास सूत्र की टीका है जिसके रचयिता षिमानन्द या क्षेमेन्द्र हैं।
  8. सांख्यतत्त्वालोक- सांख्ययोग सिद्धान्तों पर हरिहरानन्द आरण्य की कृति है।
  9. पुराणेतिहासयो: सांख्ययोग दर्शनविमर्श: - नामक पुस्तक पुराणों में उपलब्ध सांख्यदर्शन की तुलनात्मक प्रस्तुति है। इसके लेखक डा. श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी हैं। और इसका प्रकाशन, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से सन् 1979 ई. में हुआ।
  10. सांख्ययोगकोश:- लेखक आचार्य केदारनाथ त्रिपाठी वाराणसी से सन् 1974 ई. में प्रकाशित।
  11. श्रीरामशंकर भट्टाचार्य ने सांख्यसार की टीका तथा तत्त्वयाथार्थ्यदीपन सटिप्पण की रचना की। दोनों ही पुस्तकें प्रकाशित हैं<balloon title="आधुनिक काल में रचित अन्य कुछ रचनाओं के लिए द्रष्टव्य एन्सायक्लापीडिया आफ इण्डियन फिलासफी भाग-4" style=color:blue>*</balloon>।

टीका टिप्पणी

  1. टीकाकार का यह मन्तव्य स्वयं उदयवीर शास्त्री द्वारा प्रस्तुत उद्धरण में भी स्पष्ट हो जाता है- 'तत्सूक्ष्मशरीरमेकादशेन्द्रियसंयुक्तं' में एकादशेन्द्रिय का सूक्ष्म शरीर से पृथक निर्देश टीकाकार के इस आग्रह की पुष्टि करता है कि सूक्ष्म शरीर सात तत्त्वों का है। सूक्ष्म शब्द यहां शरीर नाम का नहीं अपि तु सूक्ष्मता का बोधक है।