सावित्री सत्यवान

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सावित्री सत्यवान / Savitri Satyavan

ब्रह्म वैवर्त पुराण

भगवान् नारायण कहते हैं- नारद! जब राजा अश्वपति ने विधि पूर्वक भगवती सावित्री की पूजा करके इस स्तोत्र से उनका स्तवन किया, तब देवी उनके सामने प्रकट हो गयीं। उनका श्रीविग्रह ऐसा प्रकाशमान था, मानो हजारों सूर्य एक साथ उदित हो गये हों। साध्वी सावित्री अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसती हुई राजा अश्वपति से इस प्रकार बोलीं, मानो माता अपने पुत्र से बात कर रही हो। उस समय देवी सावित्री की प्रभा से चारों दिशाएँ उद्भासित हो रही थीं।

देवी सावित्री ने कहा-- महाराज! तुम्हारे मन की जो अभिलाषा है, उसे मैं जानती हूँ। तुम्हारी पत्नी के सम्पूर्ण मनोरथ भी मुझसे छिपे नहीं हैं। अत: सब कुछ देने के लिये मैं निश्चित रूप से प्रस्तुत हूँ। राजन्! तुम्हारी परम साध्वी रानी कन्या की अभिलाषा करती है और तुम पुत्र चाहते हो; क्रम से दोनों ही प्राप्त होंगे।

सावित्री नामक कन्या की उत्पत्ति, विवाह, सत्यवान् की मृत्यु

इस प्रकार कहकर भगवती सावित्री ब्रह्मलोक में चली गयीं और राजा भी अपने घर लौट आये। यहाँ समयानुसार पहले कन्या का जन्म हुआ। भगवती सावित्री की आराधना से उत्पन्न हुई लक्ष्मी की कलास्वरूपा उस कन्या का नाम राजा अश्वपति ने सावित्री रखा। वह कन्या समयानुसार शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान प्रतिदिन बढ़ने लगी। समय पर उस सुन्दरी कन्या में नवयौवन के लक्षण प्रकट हो गये। द्युमत्सेनकुमार सत्यवान् का उसने पतिरूप में वरण किया; क्योंकि सत्यवान् सत्यवादी, सुशील एवं नाना प्रकार के उत्तम गुणों से सम्पन्न थे। राजा ने रत्नमय भूषणों से अलंकृत करके अपनी कन्या सावित्री सत्यवान् की समर्पित कर दी। सत्यवान् भी श्वशुर की ओर से मिले हुए बड़े भारी दहेज के साथ उस कन्या को लेकर अपने घर चले गये। एक वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात् सत्य पराक्रमी सत्यवान् अपने पिता की आज्ञा के अनुसार हर्षपूर्वक फल और ईंधन लाने के लिये अरण्य में गये। उनके पीछे-पीछे साध्वी सावित्री भी गयी। दैववश सत्यवान् वृक्ष से गिरे और उनके प्राण प्रयाण कर गये। मुने! यमराज ने उनके अंगष्ठ-सदृश जीवात्मा को सूक्ष्म शरीर के साथ बाँधकर यमपुरी के लिये प्रस्थान किया। तब साध्वी सावित्री भी उनके पीछे लग गयी। संयमनीपुरी के स्वामी साधुश्रेष्ठ यमराज ने सुन्दरी सावित्री को पीछे-पीछे आती देख मधुर वाणी में कहा।

सावित्री और यमराज का संवाद

धर्मराज ने कहा- अहो सावित्री! तुम इस मानव-देह से कहाँ जा रही हो? यदि पतिदेव के साथ जाने की तुम्हारी इच्छा है तो पहले इस शरीर का त्याग कर दो। मर्त्यलोक का प्राणी इस पाञ्चभौतिक शरीर को लेकर मेरे लोक में ही जाने का अधिकारी है। साध्वि! तुम्हारा पति सत्यवान् भारतवर्ष में आया था। उसकी आयु अब पूर्ण हो चुकी, अतएव अपने किये हुए कर्म का फल भोगने के लिये अब वह मेरे लोक को जा रहा है। प्राणी का कर्म से ही जन्म होता है और कर्म से ही उसकी मृत्यु भी होती है। सुख, दु:ख, भय और शोक- ये सब कर्म के अनुसार प्राप्त होते रहते हैं। कर्म के प्रभाव से जीव इन्द्र भी हो सकता है। अपना उत्तम कर्म उसे ब्रह्मपुत्र तक बनाने में समर्थ है। अपने शुभ कर्म की सहायता से प्राणी श्रीहरि का दास बनकर जन्म आदि विकारों से मुक्त हो सकता है। सम्पूर्ण सिद्धि, अमरत्व तथा श्रीहरि के सालोक्यादि चार प्रकार के पद भी अपने शुभ कर्म के प्रभाव से मिल सकते हैं। देवता, मनु, राजेन्द्र, शिव, गणेश, मुनीन्द्र, तपस्वी, क्षत्रिय, वैश्य, म्लेच्छ, स्थावर, जंगम, पर्वत, राक्षस, किन्नर, अधिपति, वृक्ष, पशु, किरात, अत्यन्त सूक्ष्म जन्तु कीड़े, दैत्य, दानव तथा असुर- ये सभी योनियाँ प्राणी को अपने कर्म के अनुसार प्राप्त होती हैं। इसमें कुछ भी संशय नहीं है। इस प्रकार सावित्री से कहकर यमराज मौन हो गये।

भगवान् नारायण कहते हैं- मुने! पतिव्रता सावित्री ने यमराज की बात सुनकर परम भक्ति के साथ उनका स्तवन किया; फिर वह उनसे पूछने लगी।

सावित्री ने पूछा- भगवन्! कौन कार्य है, किस कर्म के प्रभाव से क्या होता है, कैसे फल में कौन कर्म हेतु है, कौन देह है और कौन देही है अथवा संसार में प्राणी किसकी प्रेरणा से कर्म करता है? ज्ञान, बुद्धि, शरीरधारियों के प्राण, इन्द्रियाँ तथा उनके लक्षण एवं देवता, भोक्ता, भोजयिता, भोज, निष्कृति तथा जीव और परमात्मा- ये सब कौन और क्या हैं? इन सबका परिचय देने की कृपा कीजिये।

धर्मराज बोले- साध्वी सावित्री! कर्म दो प्रकार के हैं- शुभ और अशुभ। वेदोक्त कर्म शुभ हैं। इनके प्रभाव से प्राणी कल्याण के भागी होते हैं। वेद में जिसका स्थान नहीं है, वह अशुभ कर्म नरकप्रद है। भगवान् विष्णु की जो संकल्परहित अहैतु की सेवा की जाती है, उसे 'कर्म-निर्मूलरूपा' कहते हैं। ऐसी ही सेवा 'हरि-भक्ति' प्रदान करती है। कौन कर्म के फल का भोक्ता है और कौन निर्लिप्त- इसका उत्तर यह है। श्रुति का वचन है कि श्रीहरि का जो भक्त है, वह मनुष्य मुक्त हो जाता है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय- ये उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। साध्वि! श्रुति में मुक्ति भी दो प्रकार की बतायी गयी है, जो सर्वसम्मत है। एक को 'निर्वाणप्रदा' कहते हैं और दूसरी को 'हरिभक्तिप्रदा'। मनुष्य इन दोनों के अधिकारी हैं। वैष्णव पुरूष हरिभक्तिस्वरूपा मुक्ति चाहते हैं और अन्य साधु-जन निर्वाणप्रदा मुक्ति की इच्छा करते हैं। कर्म का जो बीजरूप है, वही सदा फल प्रदान करने वाला है। कर्म कोई दूसरी वस्तु नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण का ही रूप है। वे भगवान् प्रकृति से परे हैं। कर्म भी इन्हीं से होता है; क्योंकि वे उसके हेतु रूप हैं। जीव कर्म का फल भोगता है; आत्मा तो सदा निर्लिप्त ही है। देही आत्मा का प्रतिबिम्ब है, वही जीव है। देह तो सदा से नश्वर है। पृथ्वी, तेज, जल, वायु और आकाश- ये पाँच भूत उसके उपादान हैं। परमात्मा के सृष्टि- कार्य में ये सूत्ररूप हैं। कर्म करने वाला जीव देही है। वही भोक्ता और अन्तर्यामीरूप से भोजयिता भी है। सुख एवं दु:ख के साक्षात् स्वरूप वैभवका ही दूसरा नाम भोग है। निष्कृति मुक्ति को ही कहते हैं। सदसत्सम्बन्धी विवेक के आदिकारण का नाम ज्ञान है। इस ज्ञान के अनेक भेद हैं। घट-पटादि विषय तथा उनका भेद ज्ञान के भेद में कारण कहा जाता है। विवेचनमयी शक्तिको 'बुद्धि' कहते हैं। श्रुति में ज्ञानबीज नाम से इसकी प्रसिद्धि है। वायु के ही विभिन्न रूप प्राण हैं। इन्हीं के प्रभाव से प्राणियों के शरीर में शक्तिका संचार होता है। जो इन्द्रियों में प्रमुख, परमात्मा का अंश, संशयात्मक, कर्मों का प्रेरक, प्राणियों के लिये दुर्निवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धिका एक भेद है, उसे 'मन' कहा गया है। यह शरीरधारियों का अंग तथा सम्पूर्ण कर्मों का प्रेरक है। यही इन्द्रियों को विषयों में लगाकर दु:खी बनाने के कारण शत्रुरूप हो जाता है और सत्कार्य में लगाकर सुखी बनाने के कारण मित्ररूप है। आँख, कान, नाम, त्वचा, और जिह्वा आदि इन्द्रियाँ हैं। सूर्य, वायु, पृथ्वी और वाणी आदि इन्द्रियों के देवता कहे गये हैं। जो प्राण एवं देहादिकों धारण करता है, उसी की 'जीव' संज्ञा है। प्रकृति से परे जो सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म हैं, उन्हीं को 'परमात्मा' कहते हैं। ये कारणों के भी कारण हैं। ये स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं।

वत्से! तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने शास्त्रानुसार बतला दिया। यह विषय ज्ञानियों के लिये परम ज्ञानमय है। अब तुम सुखपूर्वक लौट जाओ।

सावित्री ने कहा- प्रभो! आप ज्ञान के अथाह समुद्र हैं। अब मैं इन अपने प्राणनाथ और आपको छोड़कर कैसे कहाँ जाऊँ? मैं जो-जो बातें पूछती हूँ, उसे आप मुझे बताने की कृपा करें। जीव किस कर्म के प्रभाव से किन-किन योनियों में जाता है? पिताजी! कौन कर्म स्वर्गप्रद है और कौन नरकप्रद? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी मुक्त हो जाता है तथा श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न करने के लिये कौन-सा कर्म कारण होता है? किस कर्म के फलस्वरूप प्राणी रोगी होता है और किस कर्मफल से नीरोग? दीर्घजीवी और अल्पजीवी होने में कौन-कौन से कर्म प्रेरक हैं? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी सुखी होता है और किस कर्म के प्रभाव से दु:खी? किस कर्म से मनुष्य अंगहीन, एकाक्ष, बधिर, अन्धा, पंगु, उन्मादी, पागल तथा अत्यन्त लोभी और नरघाती होता है एवं सिद्धि और सालोक्यादि मुक्ति प्राप्त होने में कौन कर्म सहायक है? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी ब्राह्मण होता है और किस कर्म के प्रभाव से प्राणी ब्राह्मण होता है और किस कर्म के प्रभाव से तपस्वी? स्वर्गादि भोग प्राप्त होने में कौन कर्म साधन है? किस कर्म से प्राणी वैकुण्ठ में जाता है? ब्रह्मन्! गोलोक निरामय और सम्पूर्ण स्थानों से उत्तम धाम है। किस कर्म के प्रभाव से उसकी प्राप्ति हो सकती है? कितने प्रकार के नरक हैं और उनकी कितनी संख्या और उनके क्या-क्या नाम हैं? कौन किस नरक में जाता है और कितने समयतक वहाँ यातना भोगता है? किस कर्म के फल से पापियों के शरीर में कौन-सी व्याधि उत्पन्न होती है? भगवन्! मैंने ये जो-जो प्रश्न किये हैं, इन सबके उत्तर देने की आप कृपा करें। (अध्याय 24-25)

सावित्री-धर्मराज के प्रश्नोत्तर, सावित्री को वरदान

भगवान् नारायण कहते हैं- नारद! सावित्री के वचन सुनकर यमराज के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हँसकर प्राणियों के कर्मविपाक कहने के लिये उद्यत हो गये।

धर्मराज ने कहा- प्यारी बेटी! अभी तुम हो तो अल्प वय की बालिका, किंतु तुम्हें पूर्ण विद्वानों, ज्ञानियों और योगियों से भी बढ़कर ज्ञान प्राप्त है। पुत्री! भगवती सावित्री के वरदान से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम उन देवी की कला हो। राजा ने तपस्या के प्रभाव से सावित्री-जैसी कन्यारत्न को प्राप्त किया है। जिस प्रकार लक्ष्मी भगवान् विष्णु के, भवानी शंकर के, राधा श्रीकृष्ण के, सावित्री ब्रह्मा के, मूर्ति धर्म के, शतरूपा मनु के, देवहूति कर्दम के, अरून्धती वसिष्ठ के, अदिति कश्यप के, अहल्या गौतम के, शची इन्द्र के, रोहिणी चन्द्रमा के, रति कामदेव के, स्वाहा अग्नि के, स्वधा पितरों के, संज्ञा सूर्य के, वरूणानी वरूण के, दक्षिण यज्ञ के, पृथ्वी वाराह के और देवसेना कार्तिकेय के पास सौभाग्यवती प्रिया बनकर शोभा पाती हैं, तुम भी वैसी ही सत्यवान् की प्रिया बनो। मैंने यह तुम्हें वर दे दिया। महाभागे! इसके अतिरिक्त भी जो तुम्हें अभीष्ट हो, वह वर माँगो। मैं तुम्हें सभी अभिलाषित वर देने को तैयार हूँ।

सावित्री बोली- महाभाग! सत्यवान् के औरस अंश से मुझे सौ पुत्र प्राप्त हों- यही मेरा अभिलषित वर है। साथ ही, मेरे पिता भी सौ पुत्रों के जनक हों। मेरे श्वशुर को नेत्र-लाभ हों और उन्हें पुन: राज्यश्री प्राप्त हो जाय, यह भी मैं चाहती हूँ। जगत्प्रभो! सत्यवान् के साथ मैं बहुत लंबे समय तक रहकर अन्त में भगवान् श्रीहरि के धाम में चली जाऊँ, यह वर भी देने की आप कृपा करें।

प्रभो! मुझे जीव के कर्मका विपाक तथा विश्वसे तर जाने का उपाय भी सुनने के लिये मनमें महान् कौतूहल हो रहा है; अत: आप यह भी बतावें।

धर्मराज ने कहा- महासाध्वि! तुम्हारे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे। अब में प्राणियों का कर्म-विपाक कहता हूँ, सुनो। भारतवर्ष में ही शुभ-अशुभ कर्मों का जन्म होता है- यहीं के कर्मों को 'शुभ' या 'अशुभ' की संज्ञा दी गयी है। यहाँ सर्वत्र पुण्यक्षेत्र है, अन्यत्र नहीं; अन्यत्र प्राणी केवल कर्मों का फल भोगते हैं। पतिव्रते! देवता, दैत्य, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा मनुष्य- ये सभी कर्म के फल भोगते हैं। परंतु सबका जीवन समान नहीं है। उनमें से मानव ही कर्म का जनक होता है अर्थात् मनुष्ययोनिमें ही शुभाशुभ कर्म किये जाते हैं; जिनका फल सर्वत्र सभी योनियों में भोगना पड़ता है। विशिष्ट जीवधारी- विशेषत: मानव ही सब योनियों में कर्मों का फल भोगते हैं और सभी योनियों में भटकते हैं। वे पूर्व-जन्म का किया हुआ शुभाशुभ कर्म भोगते हैं। शुभ कर्म के प्रभाव से वे स्वर्गलोक में जाते हैं और अशुभ कर्म से उन्हें नरक में भटकना पड़ता है। कर्म का निर्मूलन हो जाने पर मुक्ति होती है। साध्वि! मुक्ति दो प्रकार की बतलायी गयी है- एक निर्वाणस्वरूपा और दूसरी परमात्मा श्रीकृष्ण की सेवारूपा। बुरे कर्म से प्राणी रोगी होता है और शुभ कर्म से आरोग्यवान्। वह अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार दीर्घजीवी, अल्पायु, सुखी एवं दु:खी होता है। कुत्सित कर्म से ही प्राणी अंगहीन, अंधे-बहरे आदि होते हैं। उत्तम कर्म के फलस्वरूप सिद्धि आदि की प्राप्ति होती है।

देवि! सामान्य बातें बतायी गयीं; अब विशेष बातें सुनो। सुन्दरि! यह अतिशय दुर्लभ विषय शास्त्रों और पुराणों में वर्णित है। इसे सबके सामने नहीं कहना चाहिये। सभी जातियों के लिये भारतवर्ष में मनुष्य का जन्म पाना परम दुर्लभ है। साध्वि! उन सब जातियों में ब्राह्मण श्रेष्ठ माना जाता है। वह समस्त कर्मों में प्रशस्त होता है। भारतवर्ष में विष्णुभक्त ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ है। पतिव्रते! वैष्णव के भी दो भेद हैं- सकाम और निष्काम। सकाम वैष्णव कर्म प्रधान होता है और निष्काम वैष्णव केवल भक्त। सकाम वैष्णव कर्मों का फल भोगता है और निष्काम वैष्णव शुभाशुभ भोग के उपद्रव से दूर रहता है।

धर्म का पालन

साध्वि! ऐसा निष्काम वैष्णव शरीर त्यागकर भगवान् विष्णु के निरामय पद को प्राप्त कर लेता है। ऐसे निष्काम वैष्णवों का संसार में पुनरागमन नहीं होता। द्विभुज भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णब्रह्म परमेश्वर हैं। उनकी उपासना करने वाले भक्तपुरूष अन्त में दिव्य शरीर धारण करके गोलोक में जाते हैं। सकाम वैष्णव पुरूष उच्च वैष्णव लोकों में जाकर समयानुसार पुन: भारतवर्ष में लौट आते हैं। द्विजातियों के कुल में उनका जन्म होता है। वे भी कालक्रम से निष्काम भक्त बन जाते और भगवान् उन्हें निर्मल भक्ति भी अवश्य देते हैं। वैष्णव ब्राह्मण से भिन्न जो सकाम मनुष्य हैं, वे विष्णुभक्ति से रहित होने के कारण किसी भी जन्म में विशुद्ध बुद्धि नहीं पा सकते। साध्वि! जो तीर्थस्थान में रहकर सदा तपस्या करते हैं, वे द्विज ब्रह्मा के लोक में जाते हैं और पुण्यभोग के पश्चात् पुन: भारतवर्ष में आ जाते हैं। भारत में रहकर अपने कर्तव्य-कर्मों में संलग्न रहने वाले ब्राह्मण तथा सूर्यभक्त शरीर त्यागने पर सूर्यलोक में जाते हैं और पुण्यभोग के पश्चात् पुन: भारतवर्ष में जन्म पाते हैं। अपने धर्म में निरत रहकर शिव, शक्ति तथा गणपति की उपासना करने वाले ब्राह्मण शिवलोक में जाते हैं; फिर उन्हें लौटकर भारतवर्ष में आना पड़ता है। जो धर्मरहित होने पर भी निष्कामभाव से श्रीहरि का भजन करते हैं, वे भी भक्ति के बल से श्रीहरि के धाम में चले जाते हैं।

साध्वि! जो अपने धर्म का पालन नहीं करते, वे आचारहीन, कामलोलुप लोग अवश्य ही नरक में जाते हैं। चारों ही वर्ण अपने धर्म में कटिबद्ध रहने पर ही शुभकर्म का फल भोगने के अधिकारी होते हैं। जो अपना कर्तव्य-कर्म नहीं करते, वे अवश्य ही नरक में जाते हैं। कर्म का फल भोगने के लिये वे भारतवर्ष में नहीं आ सकते। अतएव चारों वर्णों के लिये अपने धर्म का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है।

निष्कामभाव

अपने धर्म में संलग्न रहनेवाले ब्राह्मण, स्वधर्मनिरत विप्र को अपनी कन्या देने के फलस्वरूप चन्द्रलोक को जाते हैं और वहाँ चौदह मन्वन्तर काल तक रहते हैं। साध्वि! यदि कन्या को अलंकृत करके दान में दिया तू उससे दुगुना फल प्राप्त होता है। उन साधु पुरूषों में यदि कामना हो तब तो वे चन्द्रमा के लोक में जाते हैं। निष्कामभाव से दान करें तो वे भगवान् विष्णु के परम धाम में पहुँच जाते हैं। गव्य (दूध), चाँदी, सुवर्ण, वस्त्र, घृत, फल और जल ब्राह्मणों को देने वाले पुण्यात्मा पुरूष चन्द्रलोक में जाते हैं। साध्वि! एक मन्वन्तरतक वे वहाँ सुविधापूर्वक निवास करते हैं। उस दान के प्रभाव से उन्हें वहाँ सुदीर्घ काल तक निवास प्राप्त होता है। पतिव्रते! पवित्र ब्राह्मण को सुवर्ण, गौ और ताम्र आदि द्रव्य का दान करने वाले सत्पुरूष सूर्यलोक में जाते हैं। वे भय-बाधा से शून्य हो, उस विस्तृत लोक में सुदीर्घ काल तक वास करते हैं। जो ब्राह्मणों को पृथ्वी अथवा प्रचुर धान्य दान करता है, वह भगवान् विष्णु के परम सुन्दर श्वेतद्वीप में जाता है और दीर्घकाल तक वहाँ वास करता है। भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को गृह-दान करने वाले पुरूष स्वर्गलोक में जाते और वहाँ दीर्घकाल तक निवास करते हैं; वे उस लोक में उतने वर्षों तक रहते हैं, जितनी संख्या में उस दान-गृह के रज:कण हैं। मनुष्य जिस-जिस देवता के उद्देश्य से गृह-दान करता है, अन्त में उसी देवता के लोक में जाता है और घर में जितने धूलिकण हैं, उतने वर्षों तक वहाँ रहता है। अपने घर पर दान करने की अपेक्षा देव मन्दिर में दान करने से चौगुना, पूर्तकर्म (वापी, कूप, तड़ाग आदि के निर्माण)- के अवसर पर करने से सौगुना तथा किसी श्रेष्ठ तीर्थस्थान में करने से आठ गुना फल होता है- यह ब्रह्माजी का वचन है।

दान, शुभ और अशुभ कर्मों का फल

समस्त प्राणियों के उपकार के लिये तड़ाग का दान करने वाला दस हजार वर्षों की अवधि लेकर जनलोक में जाता है। बावली का दान करने से मनुष्य को सदा सौगुना फल मिलता है। वह सेतु (पुल)- का दान करने पर तड़ाग के दान का भी पुण्यफल प्राप्त कर लेता है। तड़ाग का प्रमाण चार हजार धनुष चौड़ा और उतना ही लंबा निश्चित किया गया है। इससे जो लघु प्रमाण में है, वह वापी कही जाती है। सत्पात्र को दी हुई कन्या दस वापी के समान पुण्यप्रदा होती है। यदि उस कन्या को अलंकृत करके दान किया जाय तो दुगुना फल मिलता है। तड़ाग के दान से जो पुण्यफल प्राप्त होता है, वही उसके भीतर से कीचड़ और मिट्टी निकालने से सुलभ हो जाता है। वापी के कीचड़ को दूर कराने से उसके निर्माण कराने-जितना फल होता है। पतिव्रते! जो पुरूष पीपल का वृक्षा लगाकर उसकी प्रतिष्ठा करता है, वह हजारों वर्षों के लिये भगवान् विष्णु के तपोलोक में जाता है।

सावित्री! जो सबकी भलाई के लिये पुष्पोद्यान लगाता है, वह दस हजार वर्षों तक ध्रुवलोक में स्थान पाता है। पतिव्रते! विष्णु के उद्देश्य से विमान का दान करने वाला मानव एक मन्वन्तरतक विष्णुलोक में वास करता है। यदि वह विमान विशाल और चित्रों से सुसज्जित किया गया हो तो उसके दान से चौगुना फल प्राप्त होता है। शिविका-दान में उससे आधा फल होना निश्चित है। जो पुरूष भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीहरि के उद्देश्य से मन्दिराकार झूला दान करता है, वह अति दीर्घकाल तक भगवान् विष्णु के लोक में वास करता है। पतिव्रते! जो सड़क बनवाता और उसके किनारे लोगों के ठहरने के लिये महल (धर्मशाला) बनवा देता है, वह सत्पुरूष हजारों वर्षों तक इन्द्र के लोक में प्रतिष्ठित होता है। ब्राह्मणों अथवा देवताओं को दिया हुआ दान समान फल प्रदान करता है। जो पूर्वजन्म में दिया गया है, वही जन्मान्तर में प्राप्त होता है। जो नहीं दिया गया है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है? पुण्यवान् पुरूष स्वर्गीय सुख भोगकर भारतवर्ष में जन्म पाता है। उसे क्रमश: उत्तम-से-उत्तम ब्राह्मण-कुल में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त होता है। पुण्यवान् ब्राह्मण स्वर्गसुख भोगने के अनन्तर पुन: ब्राह्मण ही होता है। यही नियम क्षत्रिय आदि के लिये भी है। क्षत्रिय अथवा वैश्य तपस्या के प्रभाव से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेता है- ऐसी बात श्रुति में सुनी जाती है। धर्मरहित ब्राह्मण नाना योनियों में भटकते हैं और कर्मभोग के पश्चात् फिर ब्राह्मणकुल में ही जन्म पाते हैं। कितना ही काल क्यों न बीत जाय, बिना भोग किये कर्म क्षीण नहीं हो सकते। अपने किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल प्राणियों को अवश्य भोगना पड़ता है। देवता और तीर्थ की सहायता तथा कायव्यूह से प्राणी शुद्ध हो जाता है।

साध्वि! ये कुछ बातें तो तुम्हें बतला दीं, अब आगे और क्या सुनना चाहती हो? (अध्याय 26)

सावित्री-धर्मराज के प्रश्नोत्तर तथा सावित्री के द्वारा धर्मराज को प्रणाम-निवेदन

सावित्री ने कहा- धर्मराज! जिस कर्म के प्रभाव से पुण्यात्मा मनुष्य स्वर्ग अथवा अन्य लोक में जाते हैं, वह मुझे बताने की कृपा करें।

धर्मराज बोले- पतिव्रते! ब्राह्मण को अन्न दान करने वाला पुरूष इन्द्रलोक में जाता है और दान किये हुए अन्न में जितने दाने होते हैं उतने वर्षों तक वह वहाँ निवास पाता है। अन्नदान से बढ़कर दूसरा कोई दान न हुआ है और न होगा। इसमें न कभी पात्र की परीक्षा की आवश्यकता होती है और न समय कीसन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला। उसे भगवान् सारूप्य प्राप्त हो जाता है। वहाँ से फिर गिर नहीं सकता।

जो पुरूष प्रतिदिन पार्थिव मूर्ति बनाकर शिवलिंग की अर्चा करता है और जीवनभर इस नियम का पालन करता है, वह भगवान् शिव के धाम में जाता है और लंबे समय तक शिवलोक में प्रतिष्ठित रहता है; तत्पश्चात् भारतवर्ष में आकर राजेन्द्रपद को सुशोभित करता है। निरन्तर शालग्राम की पूजा करके उनका चरणोदक पान करने वाला पुण्यात्मा पुरूष अतिदीर्घकालपर्यन्त वैकुण्ठ में विराजमान होता है। उसे दुर्लभ भक्ति सुलभ हो जाती है। संसार में उसका पुन: आना नहीं होता। जिसके द्वारा सम्पूर्ण तप और व्रतका पालन होता है, वह पुरूष इन सत्कर्मों के फलस्वरूप वैकुण्ठ में रहने का अधिकार पाता हैं पुन: उसे जन्म नहीं लेना पड़ता। जो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करके पृथ्वी की प्रदक्षिणा करता है, उसे निर्वाणपद मिल जाता है। पुन: संसार में उसकी उत्पत्ति नहीं होती। भारत-जैसे पुण्यक्षेत्र में जो अश्वमेधयज्ञ करता है, वह दीर्घकालतक इन्द्र के आधे आसन पर विराजमान रहता है। राजसूय यज्ञ करने से मनुष्य को इससे चौगुना फल मिलता है।


सुन्दरि! सम्पूर्ण यज्ञों से भगवान् विष्णु का यज्ञ श्रेष्ठ कहा गया है। ब्रह्माने पूर्वकाल में बड़े समारोह के साथ इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। पतिव्रते! उसी यज्ञ में दक्ष प्रजापति और शंकर में कलह मच गया था। ब्राह्मणों ने क्रोध में आकर नन्दी को शाप दिया था और नन्दी ने ब्राह्मणों को। यही कारण है कि भगवान् शंकरने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर डाला। पूर्वकाल में दक्ष, धर्म, कश्यप, शेषनाग, कर्दममुनि, स्वायम्भुवमनु, उनके पुत्र प्रियव्रत, शिव, सनत्कुमार, कपिल तथा ध्रुवने विष्णुयज्ञ किया था। उसके अनुष्ठान से हजारों राजसूय यज्ञोंका फल निश्चितरूप से मिल जाता है। वह पुरूष अवश्य ही अनेक कल्पोंतक जीवन धारण करनेवाला तथा जीवन्मुक्त होता है। भामिनि! जिस प्रकार देवताओं में विष्णु, वैष्णवपुरूषों में शिव, शास्त्रों में वेद, वर्णों में ब्राह्मण, तीर्थों में गंगा, पुण्यात्मा पुरूषों में वैष्णव, व्रतों में एकादशी, पुष्पों में तुलसी, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में गरूड़, स्त्रियों में भगवती मूलप्रकृति राधा, आधारों में वसुन्धरा, चंचल स्वभाववाली इन्दियों में मन, प्रजापतियों में ब्रह्मा, प्रजेश्वरों में प्रजापति, वनों में वृन्दावन, वर्षों में भारतवर्ष, श्रीमानों में लक्ष्मी, विद्वानों में सरस्वती, पतिव्रताओं में भगवती दुर्गा और सौभाग्यवती श्रीकृष्णपत्नियों में श्रीराधा सर्वोपरि मानी जाती हैं; उसी प्रकार सम्पूर्ण यज्ञों में विष्णुयज्ञ श्रेष्ठ माना जाता है। सम्पूर्ण तीर्थों का स्नान, अखिल यज्ञों की दीक्षा तथा व्रतों एवं तपस्याओं और चारों वेदों के पाठका तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा का फल अन्तमें यही है कि भगवान् श्रीकृष्ण की मुक्तिदायिनी सेवा सुलभ हो। पुराणों, वेदों और इतिहास में सर्वत्र श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की अर्चनाको ही सारभूत माना गया है। भगवान् के स्वरूपका वर्णन, उनका ध्यान, उनके नाम औ गुणों का कीर्तन, स्तोत्रों का पाठ, नमस्कार, जप, उनका चरणोदक और नैवेद्य ग्रहण करना- यह नित्यका परम कर्तव्य है। साध्वि! इसे सभी चाहते हैं और सर्वसम्मति से यही सिद्ध भी है। वत्से! अब तुम प्रकृति से पर तथा प्राकृत गुणों से रहित परब्रह्म श्रीकृष्ण की निरन्तर उपासना करो। मैं तुम्हारे पतिदेव को लौटा देता हूँ। इन्हें लो और सुखपूर्वक अपने घर को जाओ। मनुष्यों का यह मगंलमय कर्म-विपाक मैंने तुमको सुना दिया। यह प्रसंग सर्वेप्सित, सर्वसम्मत तथा तत्त्वज्ञान प्रदान करनेवाला है। भगवान् नारायण कहते हैं- नारद! धर्मराज के मुख से उपर्युक्त वर्णन सुनकर सावित्री की आँखों में आनन्द के आँसू छलक पड़े। उसका शरीर पुलकायमान हो गया। उसने पुन: धर्मराज से कहा। सावित्री बोली- धर्मराज! वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो! मैं किस विधि से प्रकृति से भी पर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करूँ, यह बताइये। भगवन्! मैं आपके द्वारा मनुष्यों के मनोहर शुभकर्म का विपाक सुन चुकी। अब आप मुझे अशुभकर्म विपाक की व्याख्या सुनाने की कृपा करें। ब्रह्मन्! सती सावित्री इस प्रकार कहकर फिर भक्ति से अत्यन्त नम्र हो वेदोक्त स्तुति का पाठ करके धर्मराज की स्तुति करने लगी। सावित्री ने कहा- प्राचीनकाल की बात है, महाभाग सूर्य ने पुष्कर में तपस्या के द्वारा धर्म की आराधना की। तब धर्म के अंशभूत जिन्हें पुत्ररूप में प्राप्त किया, उन भगवान् धर्मराज को मैं प्रमाण करती हूँ। जो सबके साक्षी हैं, जिनकी सम्पूर्ण भूतों में समता है, अतएव जिनका नाम शमन है, उन भगवान् शमन को मैं प्रणाम करती हूँ। जो कर्मानुरूप काल के सहयोग से विश्वके सम्पूर्ण प्राणियों का अन्त करते हैं, उन भगवान् कृतान्त को मैं प्रणाम करती हूँ। जो पापीजनों को शुद्ध करने के निमित्त दण्डनीय के लिये ही हाथ में दण्ड धारण करते हैं तथा जो समस्त कर्मों के उपदेशक हैं, उन भगवान् दण्डधर को मेरा प्रणाम है। जो विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों का तथा उनकी समूची आयुका निरन्तर परिगणन करते रहते हैं, जिनकी गति को रोक देना अत्यन्त कठिन है, उन भगवान् काल को मैं प्रणाम करती हूँ। जो तपस्वी, वैष्णव, धर्मात्मा, देने को उद्यत हैं, उन भगवान् यम को मैं प्रणाम करती हूँ। जो अपनी आत्मा में रमण करने वाले, सर्वज्ञ, पुण्यात्मा पुरूषों के मित्र तथा पापियों के लिये कष्टप्रद हैं, उन 'पुण्यमित्र' नाम से प्रसिद्ध भगवान् धर्मराज को मैं प्रणाम करती हूँ। जिनका जन्म ब्रह्माजी के वंश में हुआ है तथा जो ब्रह्मतेज से सदा प्रज्वलित रहते हैं एवं जिनके द्वारा परब्रह्म का सतत ध्यान होता रहता है, उन ब्रह्मवंशी भगवान् धर्मराज को मेरा प्रणाम है।* मुने! इस प्रकार प्रार्थना करके सावित्री ने धर्मराज को प्रणाम किया। तब धर्मराज ने सावित्री को विष्णु-भजन तथा कर्म के विपाक का प्रसंग सुनाया। जो मनुष्य प्रात: उठकर निरन्तर इस 'यमाष्टक' का पाठ करता है, उसे यमराज से भय नहीं होता और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि महान् पापी व्यक्ति भी भक्ति से सम्पन्न होकर निरन्तर इसका पाठ करता है तो यमराज अपने कायव्यूह से निश्चित ही उसकी शुद्धि कर देते हैं। (अध्याय 27-28)

  • तपसा धर्ममाराध्य पुष्करे भास्कर: पुरा । धर्माशं यं सुतं प्राप धर्मराजं नमाम्यहम्॥

समता सर्वभूतेषु यस्य सर्वस्य साक्षिण: । अतो यन्नाम शमन इति तं प्रणमाम्यहम्॥ येनान्तश्च कृतो विश्वे सर्वेषां जीविनां परम्। कर्मानुरूपकालेन तं कृतान्तं नमाम्यहम्॥ बिभर्ति दण्डं दण्डाय पापिनां शुद्धिहेतवे । नमामि तं दण्डधरं य: शास्ता सर्वकर्मणाम्॥ विश्वं य: कलयत्येव सर्वायुश्चापि सन्ततम्। अतीव दुर्निवार्यं च तं कालं प्रणमाम्यहम्॥ तपस्वी वैष्णवो धर्मी संयमी संजितेन्द्रिय:। जीविनां कर्मफलदं तं यमं प्रणमाम्यहम्॥ स्वात्मारामश्च सर्वज्ञो मित्रं पुण्यकृतां भवेत्। पापिनां क्लेशदो यश्च पुण्यमित्रं नमाम्यहम्॥ यज्जन्म ब्रह्मणो वंशे ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा । यो ध्यायति परं ब्रह्म ब्रह्मवंशं नमाम्यहम्॥ (प्रकृतिखण्ड 28 । 8-15)


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