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दूसरी बार माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने कहा-'लक्ष्मण! मेरा पुत्र! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया।' महर्षि [[वसिष्ठ]] ने न रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र [[शत्रुघ्न]] को भी [[लंका]] जाने की आज्ञा दे दी थी- '''तात जाहु कपि संग।''' और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए माता सुमित्रा ने कहा था- '''राम सीय सेवा सुचि ह्वै हौ, तब जानिहौं सही सुत मेरे।''' इस सेवा की [[अग्नि]] में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा-जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव है।
 
दूसरी बार माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने कहा-'लक्ष्मण! मेरा पुत्र! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया।' महर्षि [[वसिष्ठ]] ने न रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र [[शत्रुघ्न]] को भी [[लंका]] जाने की आज्ञा दे दी थी- '''तात जाहु कपि संग।''' और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए माता सुमित्रा ने कहा था- '''राम सीय सेवा सुचि ह्वै हौ, तब जानिहौं सही सुत मेरे।''' इस सेवा की [[अग्नि]] में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा-जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव है।
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महाराज [[दशरथ]] की कई रानियाँ थीं। महारानी [[कौशल्या]] पट्टमहिषी थीं। महारानी [[कैकेयी]] महाराज को सर्वाधिक प्रिय थीं और शेष में श्री सुमित्रा जी ही प्रधान थीं। महाराज दशरथ प्राय: कैकेयी के महल में ही रहा करते थे। सुमित्रा जी महारानी कौसल्या के सन्निकट रहना तथा उनकी सेवा करना अपना धर्म समझती थीं। पुत्रेष्टि-यज्ञ समाप्त होने पर [[अग्निदेव|अग्नि]] के द्वारा प्राप्त चरू का आधा भाग तो महाराज ने कौशल्या जी को दियां शेष का आधा कैकेयी को प्राप्त हुआ। चतुर्थांश जो शेष था, उसके दो भाग करके महाराज ने एक भाग कौशल्या तथा दूसरा कैकेयी के हाथों पर रख दिया। दोनों रानियों ने उसे सुमित्रा जी को प्रदान किया। समय पर माता सुमित्रा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। कौशल्या जी के दिये भाग के प्रभाव से [[लक्ष्मण]] जी श्री[[राम]] के और कैकेयी जी द्वारा दिये गये भाग के प्रभाव से [[शत्रुघ्न]]जी श्री [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] जी के अनुगामी हुए। वैसे चारों कुमारों को रात्रि में निद्रा माता सुमित्रा ही कराती थीं। अनेक बार माता कौसल्या श्री राम को अपने पास सुला लेतीं। रात्रि में जगने पर वे रोने लगते। माता रात्रि में ही सुमित्रा के भवन में पहुँचकर कहतीं- 'सुमित्रा! अपने राम को लो। इन्हें तुम्हारी गोद के बिना निद्रा ही नहीं आतीं देखो, इन्होंने रो-रोकर आँखे लाल कर ली हैं।' श्री राम सुमित्रा की गोद में जाते  ही सो जाते।
  
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==राम का वनवास==
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पिता से वनवास की आज्ञा पाकर श्री राम ने माता कौशल्या से तो आज्ञा ली, किन्तु सुमित्रा के समीप वे स्वयं नहीं गये। वहाँ उन्होंने केवल लक्ष्मण को भेज दिया। माता-कौशल्या श्री राम को रोककर कैकेयी का विरोध नहीं कर सकती थीं, किंतु सुमित्रा जी के सम्बन्ध में यह बात नहीं थी। यदि न्याय का पक्ष लेकर वे अड़ जातीं तो उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। लक्ष्मण द्वारा श्री राम के साथ वन जाने के लिये आज्ञा माँगने पर माता सुमित्रा जी ने जो उपदेश दिया है, वह उनके विशाल हृदय का सुन्दर परिचय है-
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तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥
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अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
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जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हारा काजु कछु नाहीं॥
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पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
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सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥
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तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
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जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोई करेहु इहइ उपदेसू॥
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इस प्रकार माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को जीवन के सर्वोत्तम उपदेश के साथ अपना आशीर्वाद भी दिया। माता सुमित्रा का ही वह आदर्श हृदय था कि प्राणाधिक पुत्र को उन्होंने कह दिया कि 'लक्ष्मण! तुम श्री [[राम]] को [[दशरथ]], [[सीता]] को मुझे तथा वन को [[अयोध्या]] जानकर सुखपूर्वक श्रीराम के साथ वन जाओ।'
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==चारित्रिक विशेष्ताएँ==
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*सुमित्रा [[लक्ष्मण]] की माता के रूप में प्रसिद्ध होते हुए भी [[राम]]-कथा की प्राय: मूक पात्र हैं। उनके चरित्र का कथा-विकास में विशेष महत्व नहीं है और न उसमें चारित्रिक जटिलताओं की कोई सम्भावनाएँ हैं। यही कारण है कि राम-कथासम्बन्धी अनेक प्रकरणों में उनका नामोल्लेख तक नहीं मिलतां लक्ष्मण और [[शत्रुघ्न]] की माता के रूप में सुमित्रा की प्रसिद्धि के अतिरिक्त राम-वन-गमन के अवसर पर सपत्नी के पुत्र के साथ अपने पुत्र को सहर्ष भेज देना उनकी चारित्रिक उदारता का प्रमाण है।
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*[[वाल्मीकि]] ने कहा है कि वे [[कौशल्या]] और [[कैकेयी]] दोनों को प्रिय थीं। यद्यपि उन्हें अपने पति [[दशरथ]] की उपेक्षाओं एवं तिरस्कारों के मौन संकेतों का सामना करना पड़ा है फिर भी वे अन्त तक उनकी शुभेच्छु बनी रहीं।
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*वाल्मीकि के उपरांत सुमित्रा के चरित्र में राम-कथा के कवियों ने कोई उल्लेखनीय विकास नहीं दिखाया।
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*'[[रामचरितमानस]]' में उनके चरित्र में परम्परागत सौदार्य के अतिरिक्त कुछ अन्य विशेषताओं का भी कथन किया गया है, यद्यपि मानसकार भी उन्हें अधिक मुखर पात्र नहीं बना सके। मानसकार लक्ष्मण के प्रवास की अनुमति मांगने पर उनके पुत्र-प्रेम के साथ उनके साहस का भी परिचय देता है। यही नहीं, राम-कथा के अन्य अनुकूल पात्रों की भाँति [[तुलसीदास]] की सुमित्रा भी राम की भक्त हैं।
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*वन-गमन के अवसर पर वे लक्ष्मण को राम की सेवा-भक्ति का जो उपदेश देती हैं, उससे उनके आध्यात्मिक-चिन्तन का भी प्रमाण मिलता हैं।
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*वस्तुत: सुमित्रा के चरित्र के बहाने तुलसीदास ने दिखाया है कि मनुष्य जीवन की सार्थकता राम-भक्ति में ही है तथा जिस माता ने राम-भक्त पुत्र पैदा न किया, उसका जीवन पशु-तुल्य है। इसीलिए अपने पुत्र को राम के साथ वन भेजने में वे गर्व का अनुभव करती हैं।
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*'मानस' की अपेक्षा 'गीतावली' में सुमित्रा के चरित्र में मातृसुलभ वात्सल्य की अभिव्यंजना अधिक हुई है।
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*[[विश्वामित्र]] के साथ वन जाने के अवसर पर वे राम-लक्ष्मण के कुशल क्षेम के लिए अत्यन्त चिन्तित होती हैं। दूसरी ओर जब उन्हें लक्ष्मण के शक्ति लगने का समाचार मिलता है, तब वे शत्रुघ्न को रण-क्षेत्र में जाने को प्रोत्साहित करते हुए एक वीरमाता के दर्प और गौरव को प्रकट करती हैं।
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*आधुनिक युग में मैथिलीशरण गुप्त ने 'साकेत' में सुमित्रा के चरित्र में इसी दर्प का चित्रण करते हुए उन्हें लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के सच्चे रूप में प्रस्तुत किया है। परन्तु साकेतकार उनके चारित्रिक विकास की उन सम्भावनाओं का निर्देश नहीं कर सका है, जिन्हें उसने कैकेयी के चरित्र में दिखाया है, इसी कारण कुछ आलोचकों को उसकी [[उर्मिला]] विषयक कल्पना में अपरिपक्वता के दर्शन होते हैं।
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*बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने 'उर्मिला' नामक खण्डकाव्य में सुमित्रा के चरित्र-चित्रण की ओर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया।
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==गौरवमय हृदय==
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दूसरी बार माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने कहा-'लक्ष्मण! मेरा पुत्र! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया।' महर्षि [[वसिष्ठ]] ने न रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र [[शत्रुघ्न]] को भी [[लंका]] जाने की आज्ञा दे दी थी- '''तात जाहु कपि संग।''' और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए माता सुमित्रा ने कहा था- '''राम सीय सेवा सुचि ह्वै हौ, तब जानिहौं सही सुत मेरे।''' इस सेवा की [[अग्निदेव|अग्नि]] में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा-जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव है।
  
  

०९:२०, १४ सितम्बर २०१० का अवतरण

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सुमित्रा / Sumitra

महाराज दशरथ की कई रानियाँ थीं। महारानी कौशल्या पट्टमहिषी थीं। महारानी कैकेयी महाराज को सर्वाधिक प्रिय थीं और शेष में श्री सुमित्रा जी ही प्रधान थीं। महाराज दशरथ प्राय: कैकेयी के महल में ही रहा करते थे। सुमित्रा जी महारानी कौसल्या के सन्निकट रहना तथा उनकी सेवा करना अपना धर्म समझती थीं। पुत्रेष्टि-यज्ञ समाप्त होने पर अग्नि के द्वारा प्राप्त चरू का आधा भाग तो महाराज ने कौशल्या जी को दियां शेष का आधा कैकेयी को प्राप्त हुआ। चतुर्थांश जो शेष था, उसके दो भाग करके महाराज ने एक भाग कौशल्या तथा दूसरा कैकेयी के हाथों पर रख दिया। दोनों रानियों ने उसे सुमित्रा जी को प्रदान किया। समय पर माता सुमित्रा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। कौशल्या जी के दिये भाग के प्रभाव से लक्ष्मण जी श्रीराम के और कैकेयी जी द्वारा दिये गये भाग के प्रभाव से शत्रुघ्नजी श्री भरत जी के अनुगामी हुए। वैसे चारों कुमारों को रात्रि में निद्रा माता सुमित्रा ही कराती थीं। अनेक बार माता कौसल्या श्री राम को अपने पास सुला लेतीं। रात्रि में जगने पर वे रोने लगते। माता रात्रि में ही सुमित्रा के भवन में पहुँचकर कहतीं- 'सुमित्रा! अपने राम को लो। इन्हें तुम्हारी गोद के बिना निद्रा ही नहीं आतीं देखो, इन्होंने रो-रोकर आँखे लाल कर ली हैं।' श्री राम सुमित्रा की गोद में जाते ही सो जाते।

राम का वनवास

पिता से वनवास की आज्ञा पाकर श्री राम ने माता कौशल्या से तो आज्ञा ली, किन्तु सुमित्रा के समीप वे स्वयं नहीं गये। वहाँ उन्होंने केवल लक्ष्मण को भेज दिया। माता-कौशल्या श्री राम को रोककर कैकेयी का विरोध नहीं कर सकती थीं, किंतु सुमित्रा जी के सम्बन्ध में यह बात नहीं थी। यदि न्याय का पक्ष लेकर वे अड़ जातीं तो उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। लक्ष्मण द्वारा श्री राम के साथ वन जाने के लिये आज्ञा माँगने पर माता सुमित्रा जी ने जो उपदेश दिया है, वह उनके विशाल हृदय का सुन्दर परिचय है-

तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हारा काजु कछु नाहीं॥
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥
तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोई करेहु इहइ उपदेसू॥

इस प्रकार माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को जीवन के सर्वोत्तम उपदेश के साथ अपना आशीर्वाद भी दिया। माता सुमित्रा का ही वह आदर्श हृदय था कि प्राणाधिक पुत्र को उन्होंने कह दिया कि 'लक्ष्मण! तुम श्री राम को दशरथ, सीता को मुझे तथा वन को अयोध्या जानकर सुखपूर्वक श्रीराम के साथ वन जाओ।'

गौरवमय हृदय

दूसरी बार माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने कहा-'लक्ष्मण! मेरा पुत्र! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया।' महर्षि वसिष्ठ ने न रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र शत्रुघ्न को भी लंका जाने की आज्ञा दे दी थी- तात जाहु कपि संग। और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए माता सुमित्रा ने कहा था- राम सीय सेवा सुचि ह्वै हौ, तब जानिहौं सही सुत मेरे। इस सेवा की अग्नि में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा-जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव है।


महाराज दशरथ की कई रानियाँ थीं। महारानी कौशल्या पट्टमहिषी थीं। महारानी कैकेयी महाराज को सर्वाधिक प्रिय थीं और शेष में श्री सुमित्रा जी ही प्रधान थीं। महाराज दशरथ प्राय: कैकेयी के महल में ही रहा करते थे। सुमित्रा जी महारानी कौसल्या के सन्निकट रहना तथा उनकी सेवा करना अपना धर्म समझती थीं। पुत्रेष्टि-यज्ञ समाप्त होने पर अग्नि के द्वारा प्राप्त चरू का आधा भाग तो महाराज ने कौशल्या जी को दियां शेष का आधा कैकेयी को प्राप्त हुआ। चतुर्थांश जो शेष था, उसके दो भाग करके महाराज ने एक भाग कौशल्या तथा दूसरा कैकेयी के हाथों पर रख दिया। दोनों रानियों ने उसे सुमित्रा जी को प्रदान किया। समय पर माता सुमित्रा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। कौशल्या जी के दिये भाग के प्रभाव से लक्ष्मण जी श्रीराम के और कैकेयी जी द्वारा दिये गये भाग के प्रभाव से शत्रुघ्नजी श्री भरत जी के अनुगामी हुए। वैसे चारों कुमारों को रात्रि में निद्रा माता सुमित्रा ही कराती थीं। अनेक बार माता कौसल्या श्री राम को अपने पास सुला लेतीं। रात्रि में जगने पर वे रोने लगते। माता रात्रि में ही सुमित्रा के भवन में पहुँचकर कहतीं- 'सुमित्रा! अपने राम को लो। इन्हें तुम्हारी गोद के बिना निद्रा ही नहीं आतीं देखो, इन्होंने रो-रोकर आँखे लाल कर ली हैं।' श्री राम सुमित्रा की गोद में जाते ही सो जाते।

राम का वनवास

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पिता से वनवास की आज्ञा पाकर श्री राम ने माता कौशल्या से तो आज्ञा ली, किन्तु सुमित्रा के समीप वे स्वयं नहीं गये। वहाँ उन्होंने केवल लक्ष्मण को भेज दिया। माता-कौशल्या श्री राम को रोककर कैकेयी का विरोध नहीं कर सकती थीं, किंतु सुमित्रा जी के सम्बन्ध में यह बात नहीं थी। यदि न्याय का पक्ष लेकर वे अड़ जातीं तो उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। लक्ष्मण द्वारा श्री राम के साथ वन जाने के लिये आज्ञा माँगने पर माता सुमित्रा जी ने जो उपदेश दिया है, वह उनके विशाल हृदय का सुन्दर परिचय है-

तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हारा काजु कछु नाहीं॥
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥
तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोई करेहु इहइ उपदेसू॥

इस प्रकार माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को जीवन के सर्वोत्तम उपदेश के साथ अपना आशीर्वाद भी दिया। माता सुमित्रा का ही वह आदर्श हृदय था कि प्राणाधिक पुत्र को उन्होंने कह दिया कि 'लक्ष्मण! तुम श्री राम को दशरथ, सीता को मुझे तथा वन को अयोध्या जानकर सुखपूर्वक श्रीराम के साथ वन जाओ।'

चारित्रिक विशेष्ताएँ

  • सुमित्रा लक्ष्मण की माता के रूप में प्रसिद्ध होते हुए भी राम-कथा की प्राय: मूक पात्र हैं। उनके चरित्र का कथा-विकास में विशेष महत्व नहीं है और न उसमें चारित्रिक जटिलताओं की कोई सम्भावनाएँ हैं। यही कारण है कि राम-कथासम्बन्धी अनेक प्रकरणों में उनका नामोल्लेख तक नहीं मिलतां लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के रूप में सुमित्रा की प्रसिद्धि के अतिरिक्त राम-वन-गमन के अवसर पर सपत्नी के पुत्र के साथ अपने पुत्र को सहर्ष भेज देना उनकी चारित्रिक उदारता का प्रमाण है।
  • वाल्मीकि ने कहा है कि वे कौशल्या और कैकेयी दोनों को प्रिय थीं। यद्यपि उन्हें अपने पति दशरथ की उपेक्षाओं एवं तिरस्कारों के मौन संकेतों का सामना करना पड़ा है फिर भी वे अन्त तक उनकी शुभेच्छु बनी रहीं।
  • वाल्मीकि के उपरांत सुमित्रा के चरित्र में राम-कथा के कवियों ने कोई उल्लेखनीय विकास नहीं दिखाया।
  • 'रामचरितमानस' में उनके चरित्र में परम्परागत सौदार्य के अतिरिक्त कुछ अन्य विशेषताओं का भी कथन किया गया है, यद्यपि मानसकार भी उन्हें अधिक मुखर पात्र नहीं बना सके। मानसकार लक्ष्मण के प्रवास की अनुमति मांगने पर उनके पुत्र-प्रेम के साथ उनके साहस का भी परिचय देता है। यही नहीं, राम-कथा के अन्य अनुकूल पात्रों की भाँति तुलसीदास की सुमित्रा भी राम की भक्त हैं।
  • वन-गमन के अवसर पर वे लक्ष्मण को राम की सेवा-भक्ति का जो उपदेश देती हैं, उससे उनके आध्यात्मिक-चिन्तन का भी प्रमाण मिलता हैं।
  • वस्तुत: सुमित्रा के चरित्र के बहाने तुलसीदास ने दिखाया है कि मनुष्य जीवन की सार्थकता राम-भक्ति में ही है तथा जिस माता ने राम-भक्त पुत्र पैदा न किया, उसका जीवन पशु-तुल्य है। इसीलिए अपने पुत्र को राम के साथ वन भेजने में वे गर्व का अनुभव करती हैं।
  • 'मानस' की अपेक्षा 'गीतावली' में सुमित्रा के चरित्र में मातृसुलभ वात्सल्य की अभिव्यंजना अधिक हुई है।
  • विश्वामित्र के साथ वन जाने के अवसर पर वे राम-लक्ष्मण के कुशल क्षेम के लिए अत्यन्त चिन्तित होती हैं। दूसरी ओर जब उन्हें लक्ष्मण के शक्ति लगने का समाचार मिलता है, तब वे शत्रुघ्न को रण-क्षेत्र में जाने को प्रोत्साहित करते हुए एक वीरमाता के दर्प और गौरव को प्रकट करती हैं।
  • आधुनिक युग में मैथिलीशरण गुप्त ने 'साकेत' में सुमित्रा के चरित्र में इसी दर्प का चित्रण करते हुए उन्हें लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के सच्चे रूप में प्रस्तुत किया है। परन्तु साकेतकार उनके चारित्रिक विकास की उन सम्भावनाओं का निर्देश नहीं कर सका है, जिन्हें उसने कैकेयी के चरित्र में दिखाया है, इसी कारण कुछ आलोचकों को उसकी उर्मिला विषयक कल्पना में अपरिपक्वता के दर्शन होते हैं।
  • बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने 'उर्मिला' नामक खण्डकाव्य में सुमित्रा के चरित्र-चित्रण की ओर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया।

गौरवमय हृदय

दूसरी बार माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने कहा-'लक्ष्मण! मेरा पुत्र! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया।' महर्षि वसिष्ठ ने न रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र शत्रुघ्न को भी लंका जाने की आज्ञा दे दी थी- तात जाहु कपि संग। और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए माता सुमित्रा ने कहा था- राम सीय सेवा सुचि ह्वै हौ, तब जानिहौं सही सुत मेरे। इस सेवा की अग्नि में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा-जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव है।


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